उपन्यास – गबन – 2 -2 – (लेखक – मुंशी प्रेमचंद)
रमेश ने मुस्कराकर कहा, ‘अच्छा, यह किस्सा तो हो चुका, अब यह बताओ, उसने तुम्हें रूपये किसलिए दिए! मैं गिन रहा था, छः नोट थे, शायद सौ-सौ के थे।’
रमानाथ-‘ठग लाया हूं।’
रमेश-‘मुझसे शरारत करोगे तो मार बैठूंगा। अगर जट ही लाए हो, तो भी मैं तुम्हारी पीठ ठोकूंगा, जीते रहो खूब जटो, लेकिन आबरू पर आंच न आने पाए । किसी को कानोंकान ख़बर न हो ईश्वर से तो मैं डरता नहीं। वह जो कुछ पूछेगा, उसका जवाब मैं दे लूंगा, मगर आदमी से डरता हूं। सच बताओ, किसलिए रूपये दिए – कुछ दलाली मिलने वाली हो तो मुझे भी शरीक कर लेना।’
रमानाथ-‘जडाऊ कंगन बनवाने को कह गई हैं।’
रमेश-‘तो चलो, मैं एक अच्छे सर्राफ से बनवा दूं। यह झंझट तुमने बुरा मोल ले लिया। औरत का स्वभाव जानते नहीं। किसी पर विश्वास तो इन्हें आता ही नहीं। तुम चाहे दो-चार रूपये अपने पास ही से खर्च कर दो, पर वह यही समझेंगी कि मुझे लूट लिया। नेकनामी तो शायद ही मिले, हां, बदनामी तैयार खड़ी है।’
रमानाथ-‘आप मूर्ख स्त्रियों की बातें कर रहे हैं। शिक्षित स्त्रियां ऐसी नहीं होतीं।’
ज़रा देर बाद रमा अंदर जाकर जालपा से बोला, ‘अभी तुम्हारी सहेली रतन आई थीं।’
जालपा-‘सच! तब तो बडा गड़बड़ हुआ होगा। यहां कुछ तैयारी तो थी ही नहीं।’
रमानाथ-‘कुशल यही हुई कि कमरे में नहीं आई। कंगन के रूपये देने आई थीं। तुमने उनसे शायद आठ सौ रूपये बताए थे। मैंने छः सौ ले लिए। ‘
जालपा ने झेंपते हुए कहा,मैंने तो दिल्लगी की थी। जालपा ने इस तरह अपनी सफाई तो दे दी, लेकिन बहुत देर तक उसकेमन में उथल-पुथल होती रही। रमा ने अगर आठ सौ रूपये ले लिए होते, तो शायद उथल-पुथल न होती। वह अपनी सफलता पर ख़ुश होती, पर रमा के विवेक ने उसकी धर्म-बुद्धि को जगा दिया था। वह पछता रही थी कि मैं व्यर्थ झूठ बोली। यह मुझे अपने मन में कितनी नीच समझ रहे होंगे। रतन भी मुझे कितनी बेईमान समझ रही होगी।
सोलह
चाय-पार्टी में कोई विशेष बात नहीं हुई। रतन के साथ उसकी एक नाते की बहन और थी। वकील साहब न आए थे। दयानाथ ने उतनी देर के लिए घर से टल जाना ही उचित समझाब हां, रमेश बाबू बरामदे में बराबर खड़े रहे। रमा ने कई बार चाहा कि उन्हें भी पार्टी में शरीक कर लें, पर रमेश में इतना साहस न था। जालपा ने दोनों मेहमानों को अपनी सास से मिलाया। ये युवतियां उन्हें कुछ ओछी जान पड़ीं। उनका सारे घर में दौड़ना, धम-धम करके कोठे पर जाना, छत पर इधर-उधर उचकना, खिलखिलाकर हंसना, उन्हें हुड़दंगपन मालूम होता था। उनकी नीति में बहू-बेटियों को भारी और लज्जाशील होना चाहिए था। आश्चर्य यह था कि आज जालपा भी उन्हीं में मिल गई थी। रतन ने आज कंगन की चर्चा तक न की।
अभी तक रमा को पार्टी की तैयारियों से इतनी फुर्सत नहीं मिली थी कि गंगू की दुकान तक जाता। उसने समझा था, गंगू को छः सौ रूपये दे दूंगा तो पिछले हिसाब में जमा हो जाएंगे। केवल ढाई सौ रूपये और रह जाएंगे। इस नये हिसाब में छः सौ और मिलाकर फिर आठ सौ रह जाएंगे। इस तरह उसे अपनी साख जमाने का सुअवसर मिल जायगा। दूसरे दिन रमा ख़ुश होता हुआ गंगू की दुकान पर पहुंचा और रोब से बोला, ‘क्या रंग-ढंग है महाराज, कोई नई चीज़ बनवाई है इधर?’
रमा के टालमटोल से गंगू इतना विरक्त हो रहा था कि आज कुछ रूपये मिलने की आशा भी उसे प्रसन्न न कर सकी। शिकायत के ढंग से बोला, ‘बाबू साहब, चीज़ें कितनी बनीं और कितनी बिकीं, आपने तो दुकान पर आना ही छोड़ दिया। इस तरह की दुकानदारी हम लोग नहीं करते। आठ महीने हुए, आपके यहां से एक पैसा भी नहीं मिला।
रमानाथ-‘भाई, ख़ाली हाथ दुकान पर आते शर्म आती है। हम उन लोगों में नहीं हैं, जिनसे तकाज़ा करना पड़े। आज यह छः सौ रूपये जमा कर लो, और एक अच्छा-सा कंगन तैयार कर दो।’
गंगू ने रूपये लेकर संदूक में रखे और बोला,’बन जाएंगे। बाकी रूपये कब तक मिलेंगे?’
रमानाथ-‘बहुत जल्द।’
गंगू-‘हां बाबूजी, अब पिछला साफ कर दीजिए।’
गंगू ने बहुत जल्द कंगन बनवाने का वचन दिया, लेकिन एक बार सौदा करके उसे मालूम हो गया था कि यहां से जल्द रूपये वसूल होने वाले नहीं। नतीजा यह हुआ कि रमा रोज़ तकाज़ा करता और गंगू रोज़ हीले करके टालता। कभी कारीगर बीमार पड़ जाता, कभी अपनी स्त्री की दवा कराने ससुराल चला जाता, कभी उसके लङके बीमार हो जाते। एक महीना गुज़र गया और कंगन न बने। रतन के तकाज़ों के डर से रमा ने पार्क जाना छोड़ दिया, मगर उसने घर तो देख ही रक्खा था। इस एक महीने में कई बार तकाज़ा करने आई। आख़िर जब सावन का महीना आ गया तो उसने एक दिन रमा से कहा, ‘वह सुअर नहीं बनाकर देता, तो तुम किसी और कारीगर को क्यों नहीं देते?’
रमानाथ-‘उस पाजी ने ऐसा धोखा दिया कि कुछ न पूछो, बस रोज़ आजकल किया करता है। मैंने बडी भूल की जो उसे पेशगी रूपये दे दिये। अब उससे रूपये निकलना मुश्किल है।’
रतन-‘आप मुझे उसकी दुकान दिखा दीजिए, मैं उसके बाप से वसूल कर लूंगी। तावान अलग। ऐसे बेईमान आदमी को पुलिस में देना चाहिए।’
जालपा ने कहा, ‘हां और क्या सभी सुनार देर करते हैं, मगर ऐसा नहीं, रूपये डकार जायं और चीज़ के लिए महीनों दौडाएं।
रमा ने सिर खुजलाते हुए कहा, ‘आप दस दिन और सब्र करें, मैं आज ही उससे रूपये लेकर किसी दूसरे सर्राफ को दे दूंगा।’
रतन-‘आप मुझे उस बदमाश की दुकान क्यों नहीं दिखा देते। मैं हंटर से बात करूं।’
रमानाथ-‘कहता तो हूं। दस दिन के अंदर आपको कंगन मिल जाएंगे।’
रतन-‘आप खुद ही ढील डाले हुए हैं। आप उसकी लल्लो-चप्पो की बातों में आ जाते होंगे। एक बार कड़े पड़ जाते, तो मजाल थी कि यों हीलेहवाले करता! ‘
आख़िर रतन बडी मुश्किल से विदा हुई। उसी दिन शाम को गंगू ने साफ जवाब दे दिया,बिना आधे रूपये लिये कंगन न बन सकेंगे। पिछला हिसाब भी बेबाक हो जाना चाहिए।’
रमा को मानो गोली लग गई। बोला, ‘महाराज, यह तो भलमनसी नहीं है। एक महिला की चीज़ है, उन्होंने पेशगी रूपये दिए थे। सोचो, मैं उन्हें क्या मुंह दिखाऊंगा। मुझसे अपने रूपयों के लिए पुरनोट लिखा लो, स्टांप लिखा लो और क्या करोगे? ‘
गंगू-‘पुरनोट को शहद लगाकर चाटूंगा क्या? आठ-आठ महीने का उधार नहीं होता। महीना, दो महीना बहुत है। आप तो बडे आदमी हैं, आपके लिए पांच-छः सौ रूपये कौन बडी बात है। कंगन तैयार हैं।’
रमा ने दांत पीसकर कहा, ‘अगर यही बात थी तो तुमने एक महीना पहले क्यों न कह दी? अब तक मैंने रूपये की कोई फिक्र की होती न!’
गंगू-‘मैं क्या जानता था, आप इतना भी नहीं समझ रहे हैं।’
रमा निराश होकर घर लौट आया। अगर इस समय भी उसने जालपा से सारा वृत्तांत साफ-साफ कह दिया होता तो उसे चाहे कितना ही दुःख होता, पर वह कंगन उतारकर दे देती, लेकिन रमा में इतना साहस न था। वह अपनी आर्थिक कठिनाइयों की दशा कहकर उसके कोमल ह्रदय पर आघात न कर सकता था। इसमें संदेह नहीं कि रमा को सौ रूपये के करीब ऊपर से मिल जाते थे, और वह किफायत करना जानता तो इन आठ महीनों में दोनों सर्राफों के कमसे- कम आधे रूपये अवश्य दे देता, लेकिन ऊपर की आमदनी थी तो ऊपर का ख़र्च भी था। जो कुछ मिलता था, सैर – सपाटे में ख़र्च हो जाता और सर्राफों का देना किसी एकमुश्त रकम की आशा में रूका हुआ था। कौडियों से रूपये बनाना वणिकों का ही काम है। बाबू लोग तो रूपये की कौडियां ही बनाते हैं। कुछ रात जाने पर रमा ने एक बार फिर सर्राफे का चक्कर लगाया। बहुत चाहा, किसी सर्राफ को झांसा दूं, पर कहीं दाल न गली। बाज़ार में बेतार की ख़बरें चला करती हैं।
रमा को रातभर नींद न आई। यदि आज उसे एक हज़ार का रूक्का लिखकर कोई पांच सौ रूपये भी दे देता तो वह निहाल हो जाता, पर अपनी जान?पहचान वालों में उसे ऐसा कोई नजर न आता था। अपने मिलने वालों में उसने सभी से अपनी हवा बांधा रक्खी थी। खिलाने-पिलाने में खुले हाथों रूपया ख़र्च करता था। अब किस मुंह से अपनी विपत्ति कहे – वह पछता रहा था कि नाहक गंगू को रूपये दिए। गंगू नालिश करने तो जाता न था। इस समय यदि रमा को कोई भयंकर रोग हो जाता तो वह उसका स्वागत करता। कम-से-कम दस-पांच दिन की मुहलत तो मिल जाती, मगर बुलाने से तो मौत भी नहीं आती! वह तो उसी समय आती है, जब हम उसके लिए बिलकुल तैयार नहीं होते। ईश्वर कहीं से कोई तार ही भिजवा दे, कोई ऐसा मित्र भी नज़र नहीं आता था, जो उसके नाम फर्जी तार भेज देता। वह इन्हीं चिंताओं में करवटें बदल रहा था कि जालपा की आंख खुल गई। रमा ने तुरंत चादर से मुंह छिपा लिया, मानो बेखबर सो
रहा है। जालपा ने धीरे से चादर हटाकर उसका मुंह देखा और उसे सोता पाकर ध्यान से उसका मुंह देखने लगी। जागरण और निद्रा का अंतर उससे छिपा न रहा। उसे धीरे से हिलाकर बोली, ‘क्या अभी तक जाग रहे हो?’
रमानाथ-‘क्या जाने, क्यों नींद नहीं आ रही है। पड़े-पड़े सोचता था, कुछ दिनों के लिए कहीं बाहर चला जाऊं। कुछ रूपये कमा लाऊं।’
जालपा-‘मुझे भी लेते चलोगे न?’
रमानाथ-‘तुम्हें परदेश में कहां लिये-लिये फिरूंगा? ‘
जालपा-‘तो मैं यहां अकेली रह चुकी। एक मिनट तो रहूंगी नहीं। मगर जाओगे कहां? ‘
रमानाथ-‘अभी कुछ निश्चय नहीं कर सका हूं।’
जालपा-‘तो क्या सचमुच तुम मुझे छोड़कर चले जाओगे? मुझसे तो एक दिन भी न रहा जाय। मैं समझ गई, तुम मुझसे मुहब्बत नहीं करते। केवल मुंह देखे की प्रीति करते हो।’
रमानाथ-‘तुम्हारे प्रेम-पाश ही ने मुझे यहां बांधा रक्खा है। नहीं तो अब तक कभी चला गया होता।’
जालपा-‘बातें बना रहे हो अगर तुम्हें मुझसे सच्चा प्रेम होता, तो तुम कोई परदा न रखते। तुम्हारे मन में जरूर कोई ऐसी बात है, जो तुम मुझसे छिपा रहे हो कई दिनों से देख रही हूं, तुम चिंता में डूबे रहते हो, मुझसे क्यों नहीं कहते। जहां विश्वास नहीं है, वहां प्रेम कैसे रह सकता है? ‘
रमानाथ-‘यह तुम्हारा भ्रम है, जालपा! मैंने तो तुमसे कभी परदा नहीं रखा।’
जालपा-‘तो तुम मुझे सचमुच दिल से चाहते हो? ‘
रमानाथ-‘यह क्या मुंह से कहूंगा जभी! ‘
जालपा-‘अच्छा, अब मैं एक प्रश्न करती हूं। संभले रहना। तुम मुझसे क्यों प्रेम करते हो! तुम्हें मेरी कसम है, सच बताना।’
रमानाथ-‘यह तो तुमने बेढब प्रश्न किया। अगर मैं तुमसे यही प्रश्न पूछूं तो तुम मुझे क्या जवाब दोगी? ‘
जालपा-‘मैं तो जानती हूं।’
रमानाथ-‘बताओ।’
जालपा-‘तुम बतला दो, मैं भी बतला दूं।’
रमानाथ-‘मैं तो जानता ही नहीं। केवल इतना ही जानता हूं कि तुम मेरे रोम-रोम में रम रही हो।’
जालपा-‘सोचकर बतलाओ। मैं आदर्श-पत्नी नहीं हूं, इसे मैं खूब जानती हूं। पति-सेवा अब तक मैंने नाम को भी नहीं की। ईश्वर की दया से तुम्हारे लिए अब तक कष्ट सहने की जरूरत ही नहीं पड़ी। घर-गृहस्थी का कोई काम मुझे नहीं आता। जो कुछ सीखा, यहीं सीखाब फिर तुम्हें मुझसे क्यों प्रेम है? बातचीत में निपुण नहीं। रूप-रंग भी ऐसा आकर्षक नहीं। जानते हो, मैं तुमसे क्यों प्रश्न कर रही हूं?’
रमानाथ-‘क्या जाने भाई, मेरी समझ में तो कुछ नहीं आ रहा है।’
जालपा-‘मैं इसलिए पूछ रही हूं कि तुम्हारे प्रेम को स्थायी बना सकूं।’
रमानाथ-‘मैं कुछ नहीं जानता जालपा, ईमान से कहता हूं। तुममें कोई कमी है, कोई दोष है, यह बात आज तक मेरे ध्यान में नहीं आई, लेकिन तुमने मुझमें कौन?सी बात देखी- न मेरे पास धन है, न रूप है। बताओ?’
जालपा-‘बता दूं? मैं तुम्हारी सज्जनता पर मोहित हूं। अब तुमसे क्या छिपाऊं, जब मैं यहां आई तो यद्यपि तुम्हें अपना पति समझती थी, लेकिन कोई बात कहते या करते समय मुझे चिंता होती थी कि तुम उसे पसंद करोगे या नहीं। यदि तुम्हारे बदले मेरा विवाह किसी दूसरे पुरूष से हुआ होता तो उसके साथ भी मेरा यही व्यवहार होता। यह पत्नी और पुरूष का रिवाजी नाता है, पर अब मैं तुम्हें गोपियों के कृष्ण से भी न बदलूंगी। लेकिन तुम्हारे दिल में अब भी चोर है। तुम अब भी मुझसे किसी-किसी बात में परदा रखते हो!’
रमानाथ-‘यह तुम्हारी केवल शंका है, जालपा! मैं दोस्तों से भी कोई दुराव नहीं करता। फिर तुम तो मेरी ह्रदयेश्वरी हो।’
जालपा-‘मेरी तरफ देखकर बोलो, आंखें नीची करना मर्दो का काम नहीं है!’
रमा के जी में एक बार फिर आया कि अपनी कठिनाइयों की कथा कह सुनाऊं, लेकिन मिथ्या गौरव ने फिर उसकी ज़बान बंद कर दी। जालपा जब उससे पूछती, सर्राफों को रूपये देते जाते हो या नहीं, तो वह बराबर कहता, ‘हां कुछ-न?कुछ हर महीने देता जाता हूं, पर आज रमा की दुर्बलता ने जालपा के मन में एक संदेह पैदा कर दिया था। वह उसी संदेह को मिटाना चाहती थी। ज़रा देर बाद उसने पूछा, ‘सर्राफ के तो अभी सब रूपये अदा न हुए होंगे? ‘
रमानाथ-‘अब थोड़े ही बाकी हैं।’
जालपा-‘कितने बाकी होंगे, कुछ हिसाब-किताब लिखते हो? ‘
रमानाथ-‘हां, लिखता क्यों नहीं। सात सौ से कुछ कम ही होंगे।’
जालपा-‘तब तो पूरी गठरी है, तुमने कहीं रतन के रूपये तो नहीं दे दिए? ‘
रमा दिल में कांप रहा था, कहीं जालपा यह प्रश्न न कर बैठे। आख़िर उसने यह प्रश्न पूछ ही लिया। उस वक्त भी यदि रमा ने साहस करके सच्ची बात स्वीकार कर ली होती तो शायद उसके संकटों का अंत हो जाता। जालपा एक मिनट तक अवश्य सन्नाटे में आ जाती। संभव है, क्रोध और निराशा के आवेश में दो-चार कटु शब्द मुंह से निकालती, लेकिन फिर शांत हो जाती। दोनों मिलकर कोई-न? कोई युक्ति सोच निकालते। जालपा यदि रतन से यह रहस्य कह सुनाती, तो रतन अवश्य मान जाती, पर हाय रे आत्मगौरव, रमा ने यह बात सुनकर ऐसा मुंह बना लिया मानो जालपा ने उस पर कोई निष्ठुर प्रहार किया हो बोला, ‘रतन के रूपये क्यों देता। आज चाहूं, तो दो-चार हज़ार का माल ला सकता हूं। कारीगरों की आदत देर करने की होती ही है। सुनार की खटाई मशहूर है। बस और कोई बात नहीं। दस दिन में या तो चीज़ ही लाऊंगा या रूपये वापस कर दूंगा, मगर यह शंका तुम्हें क्यों हुई? पराई रकम भला मैं अपने ख़र्च में कैसे लाता।’
जालपा-‘कुछ नहीं, मैंने यों ही पूछा था।’
जालपा को थोड़ी देर में नींद आ गई, पर रमा फिर उसी उधेड़बुन में पड़ा। कहां से रूपये लाए। अगर वह रमेश बाबू से साफ-साफ कह दे तो वह किसी महाजन से रूपये दिला देंगे, लेकिन नहीं, वह उनसे किसी तरह न कह सकेगा। उसमें इतना साहस न था। उसने प्रातःकाल नाश्ता करके दफ्तर की राह ली। शायद वहां कुछ प्रबंध हो जाए! कौन प्रबंध करेगा, इसका उसे ध्यान न था। जैसे रोगी वैद्य के पास जाकर संतुष्ट हो जाता है पर यह नहीं जानता, मैं अच्छा हूंगा या नहीं। यही दशा इस समय रमा की थी। दफ्तर में चपरासी के सिवा और कोई न था। रमा रजिस्टर खोलकर अंकों की जांच करने लगा। कई दिनों से मीज़ान नहीं दिया गया था, पर बडे बाबू के हस्ताक्षर मौजूद थे। अब मीज़ान दिया, तो ढाई हजार निकले। एकाएक उसे एक बात सूझी। क्यों न ढाई हजार की जगह मीज़ान दो हजार लिख दूं। रसीद बही की जांच कौन करता है। अगर चोरी पकड़ी भी गई तो कह दूंगा, मीजान लगाने में गलती हो गई। मगर इस विचार को उसने मन में टिकने न दिया। इस भय से, कहीं चित्त चंचल न हो जाए, उसने पेंसिल के अंकों पर रोशनाई उधर दी, और रजिस्टर को दराज में बंद करके इधर-उधर घूमने लगा। इक्की-दुक्की गाडियां आने लगीं। गाड़ीवानों ने देखा, बाबू साहब आज यहीं हैं, तो सोचा जल्दी से चुंगी देकर छुक्री पर जायं। रमा ने इस कृपा के लिए दस्तूरी की दूनी रकम वसूल की, और गाड़ीवानों ने शौक से दी क्योंकि यही मंडी का समय था और बारह-एक बजे तक चुंगीघर से फुरसत पाने की दशा में चौबीस घंटे का हर्ज होता था, मंडी दस-ग्यारह बजे के बाद बंद हो जाती थी, दूसरे दिन का इंतज़ार करना पड़ता था। अगर भाव रूपये में आधा पाव भी फिर गया, तो सैकड़ों के मत्थे गई। दस-पांच रूपये का बल खा जाने में उन्हें क्या आपत्ति हो सकती थी। रमा को आज यह नई बात मालूम हुई। सोचा, आख़िर सुबह को मैं घर ही पर बैठा रहता हूं। अगर यहां आकर बैठ जाऊं तो रोज़ दसपांच रूपये हाथ आ जायं। फिर तो छः महीने में यह सारा झगडासाफ हो जाय। मान लो रोज़ यह चांदी न होगी, पंद्रह न सही, दस मिलेंगे, पांच मिलेंगे। अगर सुबह को रोज़ पांच रूपये मिल जायं और इतने ही दिनभर में और मिल जायं, तो पांच-छः महीने में मैंर् ऋण से मुक्त हो जाऊं। उसने दराज़ खोलकर फिर रजिस्टर निकाला। यह हिसाब लगा लेने के बाद अब रजिस्टर में हेर-उधर कर देना उसे इतना भंयकर न जान पड़ा। नया रंगरूट जो पहले बंदूक की आवाज़ से चौंक पड़ता है, आगे चलकर गोलियों की वर्षा में भी नहीं घबडाता। रमा दफ्तर बंद करके भोजन करने घर जाने ही वाला था कि एक बिसाती का ठेला आ पहुंचा। रमा ने कहा, लौटकर चुंगी लूंगा। बिसाती ने मिकैत करनी शुरू की। उसे कोई बडा ज़रूरी काम था। आख़िर दस रूपये पर मामला ठीक हुआ। रमा ने चुंगी ली, रूपये जेब में रक्खे और घर चला। पच्चीस रूपये केवल दो-ढाई घंटों में आ गए। अगर एक महीने भी यह औसत रहे तो पल्ला पार है। उसे इतनी ख़ुशी हुई कि वह भोजन करने घर न गया। बाज़ार से भी कुछ नहीं मंगवाया। रूपये भुनाते हुए उसे एक रूपया कम हो जाने का ख़याल हुआ। वह शाम तक बैठा काम करता रहा। चार रूपये और वसूल हुए। चिराग़ जले वह घर चला, तो उसके मन पर से चिंता और निराशा का बहुत कुछ बोझ उतर चुका था। अगर दस दिन यही तेज़ी रही, तो रतन से मुंह चुराने की नौबत न आएगी।
सतरह
नौ दिन गुजर गए। रमा रोज़ प्रातः दफ्तर जाता और चिराग जले लौटता। वह रोज़ यही आशा लेकर जाता कि आज कोई बडा शिकार फंस जाएगा। पर वह आशा न पूरी होती। इतना ही नहीं। पहले दिन की तरह फिर कभी भाग्य का सूर्य न चमका। फिर भी उसके लिए कुछ कम श्रेय की बात नहीं थी कि नौ दिनों में ही उसने सौ रूपये जमा कर लिए थे। उसने एक पैसे का पान भी न खाया था। जालपा ने कई बार कहा, चलो कहीं घूम आवें, तो उसे भी उसने बातों में ही टाला। बस, कल का दिन और था। कल आकर रतन कंगन मांगेगी तो उसे वह क्या जवाब देगा। दफ्तर से आकर वह इसी सोच में बैठा हुआ था। क्या वह एक महीना-भर के लिए और न मान जायगी। इतने दिन वह और न बोलती तो शायद वह उससे उऋण हो जाता। उसे विश्वास था कि मैं उससे चिकनी-चुपड़ी बातें करके राज़ी कर लूंगा। अगर उसने ज़िद की तो मैं उससे कह दूंगा, सर्राफ रूपये नहीं लौटाता। सावन के दिन थे, अंधेरा हो चला था, रमा सोच रहा था, रमेश बाबू के पास चलकर दो-चार बाज़ियां खेल आऊं, मगर बादलों को देख-देख रूक जाता था। इतने में रतन आ पहुंची। वह प्रसन्न न थी। उसकी मुद्रा कठोर हो रही थी। आज वह लड़ने के लिए घर से तैयार होकर आई है और मुरव्वत और मुलाहजे की कल्पना को भी कोसों दूर रखना चाहती है।
जालपा ने कहा, ‘ तुम खूब आई। आज मैं भी ज़रा तुम्हारे साथ घूम आऊंगी। इन्हें काम के बोझ से आजकल सिर उठाने की भी फुर्सत नहीं है।’
रतन ने निष्ठुरता से कहा, ‘मुझे आज तो बहुत जल्द घर लौट जाना है। बाबूजी को कल की याद दिलाने आई हूं।’
रमा उसका लटका हुआ मुंह देखकर ही मन में सहम रहा था। किसी तरह उसे प्रसन्न करना चाहता था। बडी तत्परता से बोला, ‘जी हां, खूब याद है, अभी सर्राफ की दुकान से चला आ रहा हूं। रोज़ सुबह-शाम घंटे-भर हाज़िरी देता हूं, मगर इन चीज़ों में समय बहुत लगता है। दाम तो कारीगरी के हैं। मालियत देखिए तो कुछ नहीं। दो आदमी लगे हुए हैं, पर शायद अभी एक हीने से कम में चीज़ तैयार न हो, पर होगी लाजवाबब जी ख़ुश हो जायगा।’
पर रतन ज़रा भी न पिघली। तिनककर बोली, ‘अच्छा! अभी महीना-भर और लगेगा। ऐसी कारीगरी है कि तीन महीने में पूरी न हुई! आप उससे कह दीजिएगा मेरे रूपये वापस कर दे। आशा के कंगन देवियां पहनती होंगी, मेरे लिए जरूरत नहीं!’
रमानाथ-‘एक महीना न लगेगा, मैं जल्दी ही बनवा दूंगा। एक महीना तो मैंने अंदाजन कह दिया था। अब थोड़ी ही कसर रह गई है। कई दिन तो नगीने तलाश करने में लग गए।’
रतन-‘मुझे कंगन पहनना ही नहीं है, भाई! आप मेरे रूपये लौटा दीजिए, बस, सुनार मैंने भी बहुत देखे हैं। आपकी दया से इस वक्त भी तीन जोड़े कंगन मेरे पास होंगे, पर ऐसी धांधली कहीं नहीं देखी। ‘
धांधली के शब्द पर रमा तिलमिला उठा, ‘धांधली नहीं, मेरी हिमाकत कहिए। मुझे क्या जरूरत थी कि अपनी जान संकट में डालता। मैंने तो पेशगी रूपये इसलिए दे दिए कि सुनार खुश होकर जल्दी से बना देगा। अब आप रूपये मांग रही हैं, सर्राफ रूपये नहीं लौटा सकता।’
रतन ने तीव्र नजरों से देखकर कहा,क्यों, रूपये क्यों न लौटाएगा? ‘
रमानाथ-‘इसलिए कि जो चीज़ आपके लिए बनाई है, उसे वह कहां बेचता गिरेगा। संभव है, साल-छः महीने में बिक सके। सबकी पसंद एक-सी तो नहीं होती।’
रतन ने त्योरियां चढ़ाकर कहा,’मैं कुछ नहीं जानती, उसने देर की है, उसका दंड भोगे। मुझे कल या तो कंगन ला दीजिए या रूपये। आपसे यदि सर्राफ से दोस्ती है, आप मुलाहिजे और मुरव्वत के सबब से कुछ न कह सकते हों, तो मुझे उसकी दुकान दिखा दीजिए।नहीं आपको शर्म आती हो तो उसका नाम बता दीजिए, मैं पता लगा लूंगी। वाह, अच्छी दिल्लगी! दुकान नीलाम करा दूंगी। जेल भिजवा दूंगी। इन बदमाशों से लडाई के बगैर काम नहीं चलता।’ रमा अप्रतिभ होकर ज़मीन की ओर ताकने लगा। वह कितनी मनहूस घड़ी थी, जब उसने रतन से रूपये लिए! बैठे-बिठाए विपत्ति मोल ली।
जालपा ने कहा, ‘सच तो है, इन्हें क्यों नहीं सर्राफ की दुकान पर ले जाते,चीज़ आंखों से देखकर इन्हें संतोष हो जायगा।’
रतन-‘मैं अब चीज़ लेना ही नहीं चाहती।’
रमा ने कांपते हुए कहा,’अच्छी बात है, आपको रूपये कल मिल जायंगे।’
रतन-‘कल किस वक्त?’
रमानाथ-‘दफ्तर से लौटते वक्त लेता आऊंगा।’
रतन-‘पूरे रूपये लूंगी। ऐसा न हो कि सौ-दो सौ रूपये देकर टाल दे।’
रमानाथ-‘कल आप अपने सब रूपये ले जाइएगा।’
यह कहता हुआ रमा मरदाने कमरे में आया, और रमेश बाबू के नाम एक रूक्का लिखकर गोपी से बोला,इसे रमेश बाबू के पास ले जाओ। जवाब लिखाते आना। फिर उसने एक दूसरा रूक्का लिखकर विश्वम्भरदास को दिया कि माणिकदास को दिखाकर जवाब लाए। विश्वम्भर ने कहा,’पानी आ रहा है।’
रमानाथ-‘तो क्या सारी दुनिया बह जाएगी! दौड़ते हुए जाओ।’
विश्वम्भर-‘और वह जो घर पर न मिलें?’
रमानाथ-‘मिलेंगे। वह इस वक्त क़हीं नहीं जाते।’
आज जीवन में पहला अवसर था कि रमा ने दोस्तों से रूपये उधार मांगे। आग्रह और विनय के जितने शब्द उसे याद आये, उनका उपयोग किया। उसके लिए यह बिलकुल नया अनुभव था। जैसे पत्र आज उसने लिखे, वैसे ही पत्र उसके पास कितनी ही बार आ चुके थे। उन पत्रों को पढ़कर उसका ह्रदय कितना द्रवित हो जाता था, पर विवश होकर उसे बहाने करने पड़ते थे। क्या रमेश बाबू भी बहाना कर जायंगे- उनकी आमदनी ज्यादा है, ख़र्च कम, वह चाहें तो रूपये का इंतजाम कर सकते हैं। क्या मेरे साथ इतना सुलूक भी न करेंगे? अब तक दोनों लङके लौटकर नहीं आए। वह द्वार पर टहलने लगा। रतन की मोटर अभी तक खड़ी थी। इतने में रतन बाहर आई और उसे टहलते देखकर भी कुछ बोली नहीं। मोटर पर बैठी और चल दी। दोनों कहां रह गए अब तक! कहीं खेलने लगे होंगे। शैतान तो हैं ही। जो कहीं रमेश रूपये दे दें, तो चांदी है। मैंने दो सौ नाहक मांगे, शायद इतने रूपये उनके पास न हों। ससुराल वालों की नोच-खसोट से कुछ रहने भी तो नहीं पाता। माणिक चाहे तो हज़ार-पांच सौ दे सकता है, लेकिन देखा चाहिए, आज परीक्षा हो जायगी। आज अगर इन लोगों ने रूपये न दिए, तो फिर बात भी न पूछूंगा। किसी का नौकर नहीं हूं कि जब वह शतरंज खेलने को बुलायें तो दौडाचला जाऊं। रमा किसी की आहट पाता, तो उसका दिल ज़ोर से धड़कने लगता था। आखिर विश्वम्भर लौटा, माणिक ने लिखा था,आजकल बहुत तंग हूं। मैं तो तुम्हीं से मांगने वाला था। रमा ने पुर्ज़ा फाड़कर फेंक दिया। मतलबी कहीं का! अगर सब-इंस्पेक्टर ने मांगा होता तो पुर्ज़ा देखते ही रूपये लेकर दौड़े जाते। ख़ैर, देखा जायगा। चुंगी के लिए माल तो आयगा ही। इसकी कसर तब निकल जायगी। इतने में गोपी भी लौटा। रमेश ने लिखा था,मैंने अपने जीवन में दोचार नियम बना लिए हैं। और बडी कठोरता से उनका पालन करता हूं। उनमें से एक नियम यह भी है कि मित्रों से लेन-देन का व्यवहार न करूंगा। अभी तुम्हें अनुभव नहीं हुआ है, लेकिन कुछ दिनों में हो जाएगा कि जहां मित्रों से लेन-देन शुरू हुआ, वहां मनमुटाव होते देर नहीं लगती। तुम मेरे प्यारे दोस्त हो, मैं तुमसे दुश्मनी नहीं करना चाहता। इसलिए मुझे क्षमा करो। रमा ने इस पत्र को भी फाड़कर फेंक दिया और कुर्सी पर बैठकर दीपक की ओर टकटकी बांधकर देखने लगा। दीपक उसे दिखाई देता था, इसमें संदेह है। इतनी ही एकाग्रता से वह कदाचित आकाश की काली, अभेध मेघ-राशि की ओर ताकता! मन की एक दशा वह भी होती है, जब आंखें खुली होती हैं और कुछ नहीं सूझता, कान खुले रहते हैं और कुछ नहीं सुनाई देता।
अठारह
संध्या हो गई थी, म्युनिसिपैलिटी के अहाते में सन्नाटा छा गया था। कर्मचारी एक-एक करके जा रहे थे। मेहतर कमरों में झाड़ू लगा रहा था। चपरासियों ने भी जूते पहनना शुरू कर दिया था। खोंचेवाले दिनभर की बिक्री के पैसे गिन रहे थे। पर रमानाथ अपनी कुर्सी पर बैठा रजिस्टर लिख रहा था। आज भी वह प्रातःकाल आया था, पर आज भी कोई बडा शिकार न फंसा, वही दस रूपये मिलकर रह गए। अब अपनी आबरू बचाने का उसके पास और क्या उपाय था! रमा ने रतन को झांसा देने की ठान ली। वह खूब जानता था कि रतन की यह अधीरता केवल इसलिए है कि शायद उसके रूपये मैंने ख़र्च कर दिए। अगर उसे मालूम हो जाए कि उसके रूपये तत्काल मिल सकते हैं, तो वह शांत हो जाएगी। रमा उसे रूपये से भरी हुई थैली दिखाकर उसका संदेह मिटा देना चाहता था। वह खजांची साहब के चले जाने की राह देख रहा था। उसने आज जान-बूझकर देर की थी। आज की आमदनी के आठ सौ रूपये उसके पास थे। इसे वह अपने घर ले जाना चाहता था। खजांची ठीक चार बजे उठा। उसे क्या ग़रज़ थी कि रमा से आज की आमदनी मांगता। रूपये गिनने से ही छुट्टी मिली। दिनभर वही लिखते-लिखते और रूपये गिनते-गिनते बेचारे की कमर दुख रही थी। रमा को जब मालूम हो गया कि खजांची साहब दूर निकल गए होंगे, तो उसने रजिस्टर बंद कर दिया और चपरासी से बोला, ‘थैली उठाओ। चलकर जमा कर आएं।’
चपरासी ने कहा, ‘खजांची बाबू तो चले गए!’
रमा ने आखें गाड़कर कहा, ‘खजांची बाबू चले गए! तुमने मुझसे कहा क्यों नहीं- अभी कितनी दूर गए होंगे?’
चपरासी-‘सड़क के नुक्कड़ तक पहुंचे होंगे।’
रमानाथ-‘यह आमदनी कैसे जमा होगी?’
चपरासी-‘हुकुम हो तो बुला लाऊं?’
रमानाथ-‘अजी, जाओ भी, अब तक तो कहा नहीं, अब उन्हें आधे रास्ते से बुलाने जाओगे। हो तुम भी निरे बछिया के ताऊब आज ज्यादा छान गए थे क्या? ख़ैर, रूपये इसी दराज़ में रखे रहेंगे। तुम्हारी ज़िम्मेदारी रहेगी।’
चपरासी-‘नहीं बाबू साहब, मैं यहां रूपया नहीं रखने दूंगा। सब घड़ी बराबर नहीं जाती। कहीं रूपये उठ जायं, तो मैं बेगुनाह मारा जाऊं। सुभीते का ताला भी तो नहीं है यहां।’
रमानाथ-‘तो फिर ये रूपये कहां रक्खूं?’
चपरासी-‘हुजूर, अपने साथ लेते जाएं।’
रमा तो यह चाहता ही था। एक इक्का मंगवाया, उस पर रूपयों की थैली रक्खी और घर चला। सोचता जाता था कि अगर रतन भभकी में आ गई, तो क्या पूछना! कह दूंगा, दो-ही-चार दिन की कसर है। रूपये सामने देखकर उसे तसल्ली हो जाएगी।
जालपा ने थैली देखकर पूछा,क्या कंगन न मिला?’
रमानाथ-‘अभी तैयार नहीं था, मैंने समझा रूपये लेता चलूं जिसमें उन्हें तस्कीन हो जाय।
जालपा-‘क्या कहा सर्राफ ने?’
रमानाथ-‘कहा क्या, आज-कल करता है। अभी रतन देवी आइ नहीं?’
जालपा-‘आती ही होगी, उसे चैन कहां?’
जब चिराग जले तक रतन न आई, तो रमा ने समझा अब न आएगी। रूपये आल्मारी में रख दिए और घूमने चल दिया। अभी उसे गए दस मिनट भी न हुए होंगे कि रतन आ पहुंची और आते-ही-आते बोली,कंगन तो आ गए होंगे?’
जालपा-‘हां आ गए हैं, पहन लो! बेचारे कई दफा सर्राफ के पास गए। अभागा देता ही नहीं, हीले-हवाले करता है।’
रतन-‘कैसा सर्राफ है कि इतने दिन से हीले-हवाले कर रहा है। मैं जानती कि रूपये झमेले में पड़ जाएंगे, तो देती ही क्यों। न रूपये मिलते हैं, न कंगन मिलता है!’
रतन ने यह बात कुछ ऐसे अविश्वास के भाव से कही कि जालपा जल उठी। गर्व से बोली,आपके रूपये रखे हुए हैं, जब चाहिए ले जाइए। अपने बस की बात तो है नहीं। आखिर जब सर्राफ देगा, तभी तो लाएंगे?’
रतन-‘कुछ वादा करता है, कब तक देगा?’
जालपा-‘उसके वादों का क्या ठीक, सैकड़ों वादे तो कर चुका है।’
रतन-‘तो इसके मानी यह हैं कि अब वह चीज़ न बनाएगा?’
जालपा-‘जो चाहे समझ लो!’
रतन-‘तो मेरे रूपये ही दे दो, बाज आई ऐसे कंगन से।’
जालपा झमककर उठी, आल्मारी से थैली निकाली और रतन के सामने पटककर बोली, ‘ये आपके रूपये रखे हैं, ले जाइए।’
वास्तव में रतन की अधीरता का कारण वही था, जो रमा ने समझा था। उसे भ्रम हो रहा था कि इन लोगों ने मेरे रूपये ख़र्च कर डाले। इसीलिए वह बार-बार कंगन का तकाजा करती थी। रूपये देखकर उसका भ्रम शांत हो गया। कुछ लज्जित होकर बोली, ‘अगर दो-चार दिन में देने का वादा करता हो तो रूपये रहने दो।’
जालपा-‘मुझे तो आशा नहीं है कि इतनी जल्द दे दे। जब चीज़ तैयार हो जायगी तो रूपये मांग लिए जाएंगे।’
रतन-‘क्या जाने उस वक्त मेरे पास रूपये रहें या न रहें। रूपये आते तो दिखाई देते हैं, जाते नहीं दिखाई देते। न जाने किस तरह उड़ जाते हैं। अपने ही पास रख लो तो क्या बुरा?’
जालपा-‘तो यहां भी तो वही हाल है। फिर पराई रकम घर में रखना जोखिम की बात भी तो है। कोई गोलमाल हो जाए, तो व्यर्थ का दंड देना पड़े। मेरे ब्याह के चौथे ही दिन मेरे सारे गहने चोरी चले गए। हम लोग जागते ही रहे, पर न जाने कब आंख लग गई, और चोरों ने अपना काम कर लिया। दस हज़ार की चपत पड़ गई। कहीं वही दुर्घटना फिर हो जाय तो कहीं के न रहें।’
रतन-‘अच्छी बात है, मैं रूपये लिये जाती हूं; मगर देखना निश्चिन्त न हो जाना। बाबूजी से कह देना सर्राफ का पिंड न छोड़ें।’
रतन चली गई। जालपा खुश थी कि सिर से बोझ टला। बहुधा हमारे जीवन पर उन्हीं के हाथों कठोरतम आघात होता है, जो हमारे सच्चे हितैषी होते हैं। रमा कोई नौ बजे घूमकर लौटा, जालपा रसोई बना रही थी। उसे देखते ही बोली, ‘रतन आई थी, मैंने उसके सब रूपये दे दिए।’
रमा के पैरों के नीचे से मिट्टी खिसक गई। आंखें फैलकर माथे पर जा पहुंचीं। घबराकर बोला, ‘क्या कहा, रतन को रूपये दे दिए? तुमसे किसने कहा था कि उसे रूपये दे देना?’
जालपा-‘उसी के रूपये तो तुमने लाकर रक्खे थे। तुम ख़ुद उसका इंतजार करते रहे। तुम्हारे जाते ही वह आई और कंगन मांगने लगी। मैंने झल्लाकर उसके रूपये फेंक दिए।
रमा ने सावधन होकर कहा, ‘उसने रूपये मांगे तो न थे?’
जालपा-‘मांगे क्यों नहीं। हां, जब मैंने दे दिए तो अलबत्ता कहने लगी, इसे क्यों लौटाती हो, अपने पास ही पडारहने दो। मैंने कह दिया, ऐसे शक्की मिज़ाज वालों का रूपया मैं नहीं रखती।’
रमानाथ-‘ईश्वर के लिए तुम मुझसे बिना पूछे ऐसे काम मत किया करो।’
जालपा-‘तो अभी क्या हुआ, उसके पास जाकर रूपये मांग लाओ, मगर अभी से रूपये घर में लाकर अपने जी का जंजाल क्यों मोल लोगे।’
रमा इतना निस्तेज हो गया कि जालपा पर बिगड़ने की भी शक्ति उसमें न रही। रूआंसा होकर नीचे चला गया और स्थिति पर विचार करने लगा। जालपा पर बिगड़ना अन्याय था। जब रमा ने साफ कह दिया कि ये रूपये रतन के हैं, और इसका संकेत तक न किया कि मुझसे पूछे बगैर रतन को रूपये मत देना, तो जालपा का कोई अपराध नहीं। उसने सोचा,इस समय झल्लाने और बिगड़ने से समस्या हल न होगी। शांत चित्त होकर विचार करने की आवश्यकता थी। रतन से रूपये वापस लेना अनिवार्य था। जिस समय वह यहां आई है, अगर मैं खुद मौजूद होता तो कितनी खूबसूरती से सारी मुश्किल आसान हो जाती। मुझको क्या शामत सवार थी कि घूमने निकला! एक दिन न घूमने जाता, तो कौन मरा जाता था! कोई गुप्त शक्ति मेरा अनिष्ट करने पर उताई हो गई है। दस मिनट की अनुपस्थिति ने सारा खेल बिगाड़ दिया। वह कह रही थी कि रूपये रख लीजिए। जालपा ने ज़रा समझ से काम लिया होता तो यह नौबत काहे को आती। लेकिन फिर मैं बीती हुई बातें सोचने लगा। समस्या है, रतन से रूपये वापस कैसे लिए जाएं ।क्यों न चलकर कहूं, रूपये लौटाने से आप नाराज हो गई हैं। असल में मैं आपके लिए रूपये न लाया था। सर्राफ से इसलिए मांग लाया था, जिसमें वह चीज़ बनाकर दे दे। संभव है, वह खुद ही लज्जित होकर क्षमा मांगे और रूपये दे दे। बस इस वक्त वहां जाना चाहिए।
यह निश्चय करके उसने घड़ी पर नज़र डाली। साढ़े आठ बजे थे। अंधकार छाया हुआ था। ऐसे समय रतन घर से बाहर नहीं जा सकती। रमा ने साइकिल उठाई और रतन से मिलने चला।
रतन के बंगले पर आज बडी बहार थी। यहां नित्य ही कोई-न-कोई उत्सव, दावत, पार्टी होती रहती थी। रतन का एकांत नीरस जीवन इन विषयों की ओर उसी भांति लपकता था, जैसे प्यासा पानी की ओर लपकता है। इस वक्त वहां बच्चों का जमघट था। एक आम के वृक्ष में झूला पडा था, बिजली की बत्तियां जल रही थीं, बच्चे झूला झूल रहे थे और रतन खड़ी झुला रही थी। हू-हा मचा हुआ था। वकील साहब इस मौसम में भी ऊनी ओवरकोट पहने बरामदे में बैठे सिगार पी रहे थे। रमा की इच्छा हुई, कि झूले के पास जाकर रतन से बातें करे, पर वकील साहब को खड़े देखकर वह संकोच के मारे उधर न जा सका। वकील साहब ने उसे देखते ही हाथ बढ़ा दिया और बोले, ‘आओ रमा बाबू, कहो, तुम्हारे म्युनिसिपल बोर्ड की क्या खबरें हैं?’
रमा ने कुर्सी पर बैठते हुए कहा, ‘कोई नई बात तो नहीं हुई।’
वकील,–‘आपके बोर्ड में लड़कियों की अनिवार्य शिक्षा का प्रस्ताव कब पास होगा? और कई बोडोऊ ने तो पास कर दिया। जब तक स्त्रियों की शिक्षा का काफी प्रचार न होगा, हमारा कभी उद्धार न होगा। आप तो योरप न गए होंगे? ओह! क्या आज़ादी है, क्या दौलत है, क्या जीवन है, क्या उत्साह है! बस मालूम होता है, यही स्वर्ग है। और स्त्रियां भी सचमुच देवियां हैं। इतनी
हंसमुख, इतनी स्वच्छंद, यह सब स्त्री-शिक्षा का प्रसाद है! ‘
रमा ने समाचार-पत्रों में इन देशों का जो थोडा-बहुत हाल पढ़ा था, उसके आधार पर बोला,वहां स्त्रियों का आचरण तो बहुत अच्छा नहीं है।’
वकील–‘नान्सेसं ! अपने-अपने देश की प्रथा है। आप एक युवती को किसी युवक के साथ एकांत में विचरते देखकर दांतों तले उंगली दबाते हैं। आपका अंप्तःकरण इतना मलिन हो गया है कि स्त्री-पुरूष को एक जगह देखकर आप संदेह किए बिना रह ही नहीं सकते, पर जहां लङके और लड़कियां एक साथ शिक्षा पाते हैं, वहां यह जाति-भेद बहुत महत्व की वस्तु नहीं रह जाती,आपस में स्नेह और सहानुभूति की इतनी बातें पैदा हो जाती हैं कि कामुकता का अंश बहुत थोडारह जाता है। यह समझ लीजिए कि जिस देश में स्त्रियों की जितनी अधिक स्वाधीनता है, वह देश उतना ही सभ्य है। स्त्रियों को कैद में, परदे में, या पुरूषों से कोसों दूर रखने का तात्पर्य यही निकलता है कि आपके यहां जनता इतनी आचार-भ्रष्ट है कि स्त्रियों का अपमान करने में ज़रा भी संकोच नहीं करती। युवकों के लिए राजनीति, धर्म, ललित-कला, साहित्य, दर्शन, इतिहास, विज्ञान और हज़ारों ही ऐसे विषय हैं, जिनके आधार पर वे युवतियों से गहरी दोस्ती पैदा कर सकते हैं। कामलिप्सा उन देशों के लिए आकर्षण का प्रधान विषय है, जहां लोगों की मनोवृत्तियां संकुचित रहती हैं। मैं सालभर योरप और अमरीका में रह चुका हूं। कितनी ही सुंदरियों के साथ मेरी दोस्ती थी। उनके साथ खेला हूं, नाचा भी हूं, पर कभी मुंह से ऐसा शब्द न निकलता था, जिसे सुनकर किसी युवती को लज्जा से सिर झुकाना पड़े, और फिर अच्छे और बुरे कहां नहीं हैं?’
रमा को इस समय इन बातों में कोई आनंद न आया, वह तो इस समय दूसरी ही चिंता में मग्न था। वकील साहब ने फिर कहा,जब तक हम स्त्री-पुरूषों को अबाध रूप से अपना-अपना मानसिक विकास न करने देंगे, हम अवनति की ओर खिसकते चले जाएंगे। बंधनों से समाज का पैर न बांधिए, उसके गले में कैदी की जंजीर न डालिए। विधवा-विवाह का प्रचार कीजिए, ख़ूब ज़ोरों से कीजिए, लेकिन यह बात मेरी समझ में नहीं आती कि जब कोई अधेड़ आदमी किसी युवती से ब्याह कर लेता है तो क्यों अख़बारों में इतना कुहराम मच जाता है। योरप में अस्सी बरस के बूढ़े युवतियों से ब्याह करते हैं, सत्तर वर्ष की वृद्धाएं युवकों से विवाह करती हैं, कोई कुछ नहीं कहता। किसी को कानोंकान ख़बर भी नहीं होती। हम बूढ़ों को मरने के पहले ही मार डालना चाहते हैं। हालांकि मनुष्य को कभी किसी सहगामिनी की जरूरत होती है तो वह बुढ़ापे में, जब उसे हरदम किसी अवलंब की इच्छा होती है, जब वह परमुखापेक्षी हो जाता है। रमा का ध्यान झूले की ओर था। किसी तरह रतन से दो-दो बातें करने का अवसर मिले। इस समय उसकी सबसे बडी यही कामना थी। उसका वहां जाना शिष्टाचार के विरूद्ध था। आख़िर उसने एक क्षण के बाद झूले की ओर देखकर कहा, ‘ये इतने लङके किधर से आ गए?’
वकील-‘रतन बाई को बाल-समाज से बडा स्नेह है। न जाने कहां?कहां से इतने लङके जमा हो जाते हैं। अगर आपको बच्चों से प्यार हो, तो जाइए! रमा तो यह चाहता ही था, चट झूले के पास जा पहुंचा। रतन उसे देखकर मुस्कराई और बोली, ‘इन शैतानों ने मेरी नाक में दम कर रक्खा है। झूले से इन सबों का पेट ही नहीं भरता। आइए, ज़रा आप भी बेगार कीजिए, मैं तो थक गई। यह कहकर वह पक्के चबूतरे पर बैठ गई। रमा झोंके देने लगा। बच्चों ने नया आदमी देखा, तो सब-के-सब अपनी बारी के लिए उतावले होने लगे। रतन के हाथों दो बारियां आ चुकी थीं? पर यह कैसे हो सकता था कि कुछ लङके तो तीसरी बार झूलें, और बाकी बैठे मुंह ताकें! दो उतरते तो चार झूले पर बैठ जाते। रमा को बच्चों से नाममात्र को भी प्रेम न था पर इस वक्त फंस गया था, क्या करता! आख़िर आधा घंटे की बेगार के बाद उसका जी ऊब गया। घड़ी में साढ़े नौ बज रहे थे। मतलब की बात कैसे छेड़े। रतन तो झूले में इतनी मग्न थी, मानो उसे रूपयों की सुध ही नहीं है। सहसा रतन ने झूले के पास जाकर कहा, ‘बाबूजी, मैं बैठती हूं, मुझे झुलाइए, मगर नीचे से नहीं, झूले पर खड़े होकर पेंग मारिए।’
रमा बचपन ही से झूले पर बैठते डरता था। एक बार मित्रों ने जबरदस्ती झूले पर बैठा दिया, तो उसे चक्कर आने लगा, पर इस अनुरोध ने उसे झूले पर आने के लिए मजबूर कर दिया। अपनी अयोग्यता कैसे प्रकट करे। रतन दो बच्चों को लेकर बैठ गई, और यह गीत गाने लगी,
कदम की डरिया झूला पड़ गयो री, राधा रानी झूलन आई।
रमा झूले पर खडा होकर पेंग मारने लगा, लेकिन उसके पांव कांप रहे थे, और दिल बैठा जाता था। जब झूला ऊपर से फिरता था, तो उसे ऐसा जान पड़ता था, मानो कोई तरल वस्तु उसके वक्ष में चुभती चली जा रही है,और रतन लड़कियों के साथ गा रही थी,
कदम की डरिया झूला पड़ गयो री, राधा रानी झूलन आई।
एक क्षण के बाद रतन ने कहा, ‘ज़रा और बढ़ाइए साहब, आपसे तो झूला बढ़ता ही नहीं।’
रमा ने लज्जित होकर और ज़ोर लगाया पर झूला न बढ़ा, रमा के सिर में चक्कर आने लगा।
रतन-‘आपको पेंग मारना नहीं आता, कभी झूला नहीं झूले?’
रमा ने झिझकते हुए कहा, ‘हां, इधर तो वर्षो से नहीं बैठा।’
रतन-‘तो आप इन बच्चों को संभालकर बैठिए, मैं आपको झुलाऊंगी।’
अगर उस डाल से न छू ले तो कहिएगा! रमा के प्राण सूख गए। बोला,आजतो बहुत देर हो गई है, फिर कभी आऊंगा। ‘
रतन-‘अजी अभी क्या देर हो गई है, दस भी नहीं बजे, घबडाइए नहीं, अभी बहुत रात पड़ी है। खूब झूलकर जाइएगा। कल जालपा को लाइएगा, हम दोनों झूलेंगे।’
रमा झूले पर से उतर आया तो उसका चेहरा सहमा हुआ था। मालूम होता था, अब गिरा, अब गिरा> वह लड़खडाता हुआ साइकिल की ओर चला और उस पर बैठकर तुरंत घर भागा। कुछ दूर तक उसे कुछ होश न रहा। पांव आप ही आप पैडल घुमाते जाते थे, आधी दूर जाने के बाद उसे होश आया। उसने साइकिल घुमा दी, कुछ दूर चला, फिर उतरकर सोचने लगा,आज संकोच में पड़कर कैसी बाज़ी हाथ से खोई, वहां से चुपचाप अपना-सा मुंह लिये लौट आया। क्यों उसके मुंह से आवाज़ नहीं निकली। रतन कुछ हौवा तो थी नहीं, जो उसे खा जाती। सहसा उसे याद आया, थैली में आठ सौ रूपये थे, जालपा ने झुंझलाकर थैली की थैली उसके हवाले कर दी। शायद, उसने भी गिना नहीं, नहीं जरूर कहती। कहीं ऐसा न हो, थैली किसी को दे दे, या और रूपयों में मिला दे, तो गजब ही हो जाए। कहीं का न रहूं। क्यों न इसी वक्त चलकर बेशी रूपये मांग लाऊं, लेकिन देर बहुत हो गई है, सबेरे फिर आना पड़ेगा। मगर यह दो सौ रूपये मिल भी गए, तब भी तो पांच सौ रूपयों की कमी रहेगी। उसका क्या प्रबंध होगा? ईश्वर ही बेडा पार लगाएं तो लग सकता है।
सबेरे कुछ प्रबंध न हुआ, तो क्या होगा! यह सोचकर वह कांप उठा। जीवन में ऐसे अवसर भी आते हैं, जब निराशा में भी हमें आशा होती है। रमा ने सोचा, एक बार फिर गंगू के पास चलूं, शायद दुकान पर मिल जाय, उसके हाथ-पांव जोडूं। संभव है, कुछ दया आ जाय। वह सर्राफे जा पहुंचा मगर गंगू की दुकान बंद थी। वह लौटा ही था कि चरनदास आता हुआ दिखाई दिया।
रमा को देखते ही बोला,बाबूजी, आपने तो इधर का रास्ता ही छोड़ दिया। कहिए रूपये कब तक मिलेंगे?’
रमा ने विनम्र भाव से कहा, ‘अब बहुत जल्द मिलेंगे भाई, देर नहीं है। देखो गंगू के रूपये चुकाए हैं, अब की तुम्हारी बारी है।’
चरनदास, ‘वह सब किस्सा मालूम है, गंगू ने होशियारी से अपने रूपये न ले लिये होते, तो हमारी तरह टापा करते। साल-भर हो रहा है। रूपये सैकड़े का सूद भी रखिए तो चौरासी रूपये होते हैं। कल आकर हिसाब कर जाइए, सब नहीं तो आधा-तिहाई कुछ दे दीजिए।लेते-देते रहने से मालिक को ढाढ़स रहता है। कान में तेल डालकर बैठे रहने से तो उसे शंका होने लगती है कि इनकी नीयत ख़राब है। तो कल कब आइएगा?’
रमानाथ-‘भई, कल मैं रूपये लेकर तो न आ सकूंगा, यों जब कहो तब चला आऊं। क्यों, इस वक्त अपने सेठजी से चार-पांच सौ रूपयों का बंदोबस्त न करा दोगे?’तुम्हारी मुट्ठी भी गर्म कर दूंगा। ‘
चरनदास-‘कहां की बात लिये फिरते हो बाबूजी, सेठजी एक कौड़ी तो देंगे नहीं। उन्होंने यही बहुत सलूक किया कि नालिश नहीं कर दी। आपके पीछे मुझे बातें सुननी पड़ती हैं। क्या बडे मुंशीजी से कहना पड़ेगा?’
रमा ने झल्लाकर कहा, ‘तुम्हारा देनदार मैं हूं, बडे मुंशी नहीं हैं। मैं मर नहीं गया हूं, घर छोड़कर भागा नहीं जाता हूं। इतने अधीर क्यों हुए जाते हो? ‘
चरनदास-‘साल-भर हुआ, एक कौड़ी नहीं मिली, अधीर न हों तो क्या हों। कल कम-से-कम दो सौ की गिकर कर रखिएगा।’
रमानाथ-‘मैंने कह दिया, मेरे पास अभी रूपये नहीं हैं।’
चरनदास-‘रोज़ गठरी काट-काटकर रखते हो, उस पर कहते हो, रूपये नहीं हैं। कल रूपये जुटा रखना। कल आदमी जाएगा जरूर।’
रमा ने उसका कोई जवाब न दिया, आगे बढ़ा। इधर आया था कि कुछ काम निकलेगा, उल्टे तकाज़ा सहना पड़ा। कहीं दुष्ट सचमुच बाबूजी के पास तकाज़ा न भेज दे। आग ही हो जायंगे। जालपा भी समझेगी, कैसा लबाडिया आदमी है। इस समय रमा की आंखों से आंसू तो न निकलते थे, पर उसका एक- एक रोआं रो रहा था। जालपा से अपनी असली हालत छिपाकर उसने कितनी भारी भूल की! वह समझदार औरत है, अगर उसे मालूम हो जाता कि मेरे घर में भूंजी भांग भी नहीं है, तो वह मुझे कभी उधार गहने न लेने देती। उसने तो कभी अपने मुंह से कुछ नहीं कहा। मैं ही अपनी शान जमाने के लिए मरा जा रहा था। इतना बडा बोझ सिर पर लेकर भी मैंने क्यों किफायत से काम नहीं लिया? मुझे एक-एक पैसा दांतों से पकड़ना चाहिए था। साल-भर में मेरी आमदनी सब मिलाकर एक हज़ार से कम न हुई होगी। अगर किफायत से चलता, तो इन दोनों महाजनों के आधे-आधे रूपये जरूर अदा हो जाते, मगर यहां तो सिर पर शामत सवार थी। इसकी क्या जरूरत थी कि जालपा मुहल्ले भर की औरतों को जमा करके रोज सैर करने जाती- सैकड़ों रूपये तो तांगे वाला ले गया होगा, मगर यहां तो उस पर रोब जमाने की पड़ी हुई थी। सारा बाज़ार जान जाय कि लाला निरे लफंगे हैं, पर अपनी स्त्री न जानने पाए! वाह री बुद्धि, दरवाज़े के लिए परदों की क्या जरूरत थी! दो लैंप क्यों लाया, नई निवाड़ लेकर चारपाइयां क्यों बिनवाई, उसने रास्ते ही में उन ख़र्चो का हिसाब तैयार कर लिया, जिन्हें उसकी हैसियत के आदमी को टालना चाहिए था। आदमी जब तक स्वस्थ रहता है, उसे इसकी चिंता नहीं रहती कि वह क्या खाता है, कितना खाता है, कब खाता है, लेकिन जब कोई विकार उत्पन्न हो जाता है, तो उसे याद आती है कि कल मैंने पकौडियां खाई थीं। विजय बहिर्मुखी होती है, पराजय अन्तर्मुखी। जालपा ने पूछा, ‘कहां चले गए थे, बडी देर लगा दी।’
रमानाथ-‘तुम्हारे कारण रतन के बंगले पर जाना पड़ा। तुमने सब रूपये उठाकर दे दिए, उसमें दो सौ रूपये मेरे भी थे। ‘
जालपा-‘तो मुझे क्या मालूम था, तुमने कहा भी तो न था, मगर उनके पास से रूपये कहीं जा नहीं सकते, वह आप ही भेज देंगी।’
रमानाथ-‘माना, पर सरकारी रकम तो कल दाख़िल करनी पड़ेगी।’
जालपा-‘कल मुझसे दो सौ रूपये ले लेना, मेरे पास हैं।’
रमा को विश्वास न आया। बोला-‘कहीं हों न तुम्हारे पास! इतने रूपये कहां से आए? ‘
जालपा-‘तुम्हें इससे क्या मतलब, मैं तो दो सौ रूपये देने को कहती हूं।’
रमा का चेहरा खिल उठा। कुछ-कुछ आशा बंधी। दो-सौ रूपये यह देदे, दो सौ रूपये रतन से ले लूं, सौ रूपये मेरे पास हैं ही, तो कुल तीन सौ की कमी रह जाएगी, मगर यही तीन सौ रूपये कहां से आएंगे? ऐसा कोई नज़र न आता था, जिससे इतने रूपये मिलने की आशा की जा सके। हां, अगर रतन सब रूपये दे दे तो बिगड़ी बात बन जाय। आशा का यही एक आधार रह गया था।
जब वह खाना खाकर लेटा, तो जालपा ने कहा, ‘आज किस सोच में पड़े हो?’
रमानाथ-‘सोच किस बात का- क्या मैं उदास हूं?’
जालपा-‘हां, किसी चिंता में पड़े हुए हो, मगर मुझसे बताते नहीं हो!’
रमानाथ-‘ऐसी कोई बात होती तो तुमसे छिपाता?’
जालपा-‘वाह, तुम अपने दिल की बात मुझसे क्यों कहोगे? ऋषियों की आज्ञा नहीं है।’
रमानाथ-‘मैं उन ऋषियों के भक्तों में नहीं हूं।’
जालपा-‘वह तो तब मालूम होता, जब मैं तुम्हारे ह्रदय में पैठकर देखती।’
रमानाथ-‘वहां तुम अपनी ही प्रतिमा देखतीं।’
रात को जालपा ने एक भयंकर स्वप्न देखा, वह चिल्ला पड़ी। रमा ने चौंककर पूछा,’क्या है? जालपा, क्या स्वप्न देख रही हो? ‘
जालपा ने इधर-उधर घबडाई हुई आंखों से देखकर कहा,’बडे संकट में जान पड़ी थी। न जाने कैसा सपना देख रही थी! ‘
रमानाथ-‘क्या देखा?’
जालपा-‘क्या बताऊं, कुछ कहा नहीं जाता। देखती थी कि तुम्हें कई सिपाही पकड़े लिये जा रहे हैं। कितना भंयकर रूप था उनका!’
रमा का ख़ून सूख गया। दो-चार दिन पहले, इस स्वप्न को उसने हंसी में उडा दिया होता, इस समय वह अपने को सशंकित होने से न रोक सका, पर बाहर से हंसकर बोला, ‘तुमने सिपाहियों से पूछा नहीं, इन्हें क्यों पकड़े लिये जाते हो?’
जालपा-‘तुम्हें हंसी सूझ रही है, और मेरा ह्रदय कांप रहा है।’
थोड़ी देर के बाद रमा ने नींद में बकना शुरू किया, ‘अम्मां, कहे देता हूं, फिर मेरा मुंह न देखोगी, मैं डूब मरूंगा।’
जालपा को अभी तक नींद न आई थी, भयभीत होकर उसने रमा को ज़ोर से हिलाया और बोली, ‘मुझे तो हंसते थे और ख़ुद बकने लगे। सुनकर रोएं खड़े हो गए। स्वप्न देखते थे क्या? ‘
रमा ने लज्जित होकर कहा, — हां जी, न जाने क्या देख रहा था कुछ याद नहीं।’
जालपा ने पूछा, ‘अम्मांजी को क्यों धमका रहे थे। सच बताओ, क्या देखते थे? ‘
रमा ने सिर खुजलाते हुए कहा, ‘कुछ याद नहीं आता, यों ही बकने लगा हूंगा।’
जालपा-‘अच्छा तो करवट सोना। चित सोने से आदमी बकने लगता है।’
रमा करवट पौढ़ गया, पर ऐसा जान पड़ता था, मानो चिंता और शंका दोनों आंखों में बैठी हुई निद्रा के आक्रमण से उनकी रक्षा कर रही हैं। जगते हुए दो बज गए। सहसा जालपा उठ बैठी, और सुराही से पानी उंड़ेलती हुई बोली, ‘बडी प्यास लगी थी, क्या तुम अभी तक जाग ही रहे हो? ‘
रमा-‘हां जी, नींद उचट गई है। मैं सोच रहा था, तुम्हारे पास दो सौ रूपये कहां से आ गए? मुझे इसका आश्चर्य है।’
जालपा-‘ये रूपये मैं मायके से लाई थी, कुछ बिदाई में मिले थे, कुछ पहले से रक्खे थे। ‘
रमानाथ-‘तब तो तुम रूपये जमा करने में बडी कुशल हो यहां क्यों नहीं कुछ जमा किया?’
जालपा ने मुस्कराकर कहा, ‘तुम्हें पाकर अब रूपये की परवाह नहीं रही।’
रमानाथ-‘अपने भाग्य को कोसती होगी!’
जालपा-‘भाग्य को क्यों कोसूं, भाग्य को वह औरतें रोएं, जिनका पति निखट्टू हो, शराबी हो, दुराचारी हो, रोगी हो, तानों से स्त्री को छेदता रहे, बात-बात पर बिगड़े। पुरूष मन का हो तो स्त्री उसके साथ उपवास करके भी प्रसन्न रहेगी।’
रमा ने विनोद भाव से कहा, ‘तो मैं तुम्हारे मन का हूं! ‘
जालपा ने प्रेम-पूर्ण गर्व से कहा, ‘मेरी जो आशा थी, उससे तुम कहीं बढ़कर निकले। मेरी तीन सहेलियां हैं। एक का भी पति ऐसा नहीं। एक एम.ए. है पर सदा रोगी। दूसरा विद्वान भी है और धनी भी, पर वेश्यागामीब तीसरा घरघुस्सू है और बिलकुल निखट्टू…’
रमा का ह्रदय गदगद हो उठा। ऐसी प्रेम की मूर्ति और दया की देवी के साथ उसने कितना बडा विश्वासघात किया। इतना दुराव रखने पर भी जब इसे मुझसे इतना प्रेम है, तो मैं अगर उससे निष्कपट होकर रहता, तो मेरा जीवन कितना आनंदमय होता!
उन्नीस
प्रातःकाल रमा ने रतन के पास अपना आदमी भेजा। ख़त में लिखा, मुझे बडा खेद है कि कल जालपा ने आपके साथ ऐसा व्यवहार किया, जो उसे न करना चाहिए था। मेरा विचार यह कदापि न था कि रूपये आपको लौटा दूं, मैंने सर्राफ को ताकीद करने के लिए उससे रूपये लिए थे। कंगन दो-चार रोज़ में अवश्य मिल जाएंगे। आप रूपये भेज दें। उसी थैली में दो सौ रूपये मेरे भी थे। वह भी भेजिएगा। अपने सम्मान की रक्षा करते हुए जितनी विनम्रता उससे हो सकती थी, उसमें कोई कसर नहीं रक्खी। जब तक आदमी लौटकर न आया, वह बडी व्यग्रता से उसकी राह देखता रहा। कभी सोचता, कहीं बहाना न कर दे, या घर पर मिले ही नहीं, या दो-चार दिन के बाद देने का वादा करे। सारा दारोमदार रतन के रूपये पर था। अगर रतन ने साफ जवाब दे दिया, तो फिर सर्वनाश! उसकी कल्पना से ही रमा के प्राण सूखे जा रहे थे। आख़िर नौ बजे आदमी लौटा। रतन ने दो सौ रूपये तो दिए थे। मगर खत का कोई जवाब न दिया था। रमा ने निराश आंखों से आकाश की ओर देखा। सोचने लगा, रतन ने ख़त का जवाब क्यों नहीं दिया- मामूली शिष्टाचार भी नहीं जानती? कितनी मक्कार औरत है! रात को ऐसा मालूम होता था कि साधुता और सज्जनता की प्रतिमा ही है, पर दिल में यह गुबार भरा हुआ था! शेष रूपयों की चिंता में रमा को नहाने-खाने की भी सुध न रही। कहार अंदर गया, तो जालपा ने पूछा, ‘तुम्हें कुछ काम-धंधो की भी ख़बर है कि मटरगश्ती ही करते रहोगे! दस बज रहे हैं, और अभी तक तरकारी-भाजी का कहीं पता नहीं?’
कहार ने त्योरियां बदलकर कहा, ‘तो का चार हाथ-गोड़ कर लेई! कामें से तो गवा रहिनब बाबू मेम साहब के तीर रूपैया लेबे का भेजिन रहा।’
जालपा-‘कौन मेम साहब?’
कहार-‘ ‘जौन मोटर पर चढ़कर आवत हैं।’
जालपा-‘तो लाए रूपये?’
कहार -‘लाए काहे नाहींब पिरथी के छोर पर तो रहत हैं, दौरत-दौरत गोड़ पिराय लाग।’
जालपा-‘अच्छा चटपट जाकर तरकारी लाओ।’
कहार तो उधर गया, रमा रूपये लिये हुए अंदर पहुंचा तो जालपा ने कहा, ‘तुमने अपने रूपये रतन के पास से मंगवा लिए न? अब तो मुझसे न लोगे?’
रमा ने उदासीन भाव से कहा, ‘मत दो!’
जालपा-‘मैंने कह दिया था रूपया दे दूंगी। तुम्हें इतनी जल्द मांगने की क्यों सूझी? समझी होगी, इन्हें मेरा इतना विश्वास भी नहीं।’
रमा ने हताश होकर कहा, ‘मैंने रूपये नहीं मांगे थे। केवल इतना लिख दिया था कि थैली में दो सौ रूपये ज्यादे हैं। उसने आप ही आप भेज दिए।’
जालपा ने हंसकर कहा, ‘मेरे रूपये बडे भाग्यवान हैं, दिखाऊं? चुनचुनकर नए रूपये रक्खे हैं। सब इसी साल के हैं, चमाचम! देखो तो आंखें ठंडी हो जाएं।
इतने में किसी ने नीचे से आवाज़ दी, ‘ बाबूजी, सेठ ने रूपये के लिए भेजा है।’
दयानाथ स्नान करने अंदर आ रहे थे, सेठ के प्यादे को देखकर पूछा, ‘कौन सेठ, कैसे रूपये? मेरे यहां किसी के रूपये नहीं आते!’
प्यादा-‘छोटे बाबू ने कुछ माल लिया था। साल-भर हो गए, अभी तक एक पैसा नहीं दिया। सेठजी ने कहा है, बात बिगड़ने पर रूपये दिए तो क्या दिए। आज कुछ जरूर दिलवा दीजिए।’
दयानाथ ने रमा को पुकारा और बोले, ‘देखो, किस सेठ का आदमी आया है। उसका कुछ हिसाब बाकी है, साफ क्यों नहीं कर देते?कितना बाकी है इसका?’
रमा कुछ जवाब न देने पाया था कि प्यादा बोल उठा, ‘पूरे सात सौ हैं, बाबूजी!’
दयानाथ की आंखें फैलकर मस्तक तक पहुंच गई, ‘सात सौ! क्यों जी,यह तो सात सौ कहता है?’
रमा ने टालने के इरादे से कहा, ‘मुझे ठीक से मालूम नहीं।’
प्यादा-‘मालूम क्यों नहीं। पुरजा तो मेरे पास है। तब से कुछ दिया ही नहीं,कम कहां से हो गए।’
रमा ने प्यादे को पुकारकर कहा, ‘चलो तुम दुकान पर, मैं ख़ुद आता हूं।’
प्यादा-‘हम बिना कुछ लिए न जाएंगे, साहब! आप यों ही टाल दिया करते हैं, और बातें हमको सुननी पड़ती हैं।’
रमा सारी दुनिया के सामने जलील बन सकता था, किंतु पिता के सामने जलील बनना उसके लिए मौत से कम न था। जिस आदमी ने अपने जीवन में कभी हराम का एक पैसा न छुआ हो, जिसे किसी से उधार लेकर भोजन करने के बदले भूखों सो रहना मंजूर हो, उसका लड़का इतना बेशर्म और बेगैरत हो! रमा पिता की आत्मा का यह घोर अपमान न कर सकता था। वह उन पर यह बात प्रकट न होने देना चाहता था कि उनका पुत्र उनके नाम को बट्टा लगा रहा है। कर्कश स्वर में प्यादे से बोला, ‘तुम अभी यहीं खड़े हो? हट जाओ, नहीं तो धक्का देकर निकाल दिए जाओगे।’
प्यादा-‘हमारे रूपये दिलवाइए, हम चले जायं। हमें क्या आपके द्वार पर मिठाई मिलती है! ‘
रमानाथ-‘तुम न जाओगे! जाओ लाला से कह देना नालिश कर दें।’
दयानाथ ने डांटकर कहा, ‘क्या बेशर्मी की बातें करते हो जी, जब फिरह में रूपये न थे, तो चीज़ लाए ही क्यों? और लाए, तो जैसे बने वैसे रूपये अदा करो। कह दिया, नालिश कर दो। नालिश कर देगा, तो कितनी आबरू रह जायगी? इसका भी कुछ ख़याल है! सारे शहर में उंगलियां उठेंगी, मगर तुम्हें इसकी क्या परवा। तुमको यह सूझी क्या कि एकबारगी इतनी बडी गठरी सिर पर लाद ली। कोई शादी-ब्याह का अवसर होता, तो एक बात भी थी। और वह औरत कैसी है जो पति को ऐसी बेहूदगी करते देखती है और मना नहीं करती। आख़िर तुमने क्या सोचकर यह कर्ज लिया? तुम्हारी ऐसी कुछ बडी आमदनी तो नहीं है!’
रमा को पिता की यह डांट बहुत बुरी लग रही थी। उसके विचार में पिता को इस विषय में कुछ बोलने का अधिकार ही न था। निसंकोच होकर बोला, ‘आप नाहक इतना बिगड़ रहे हैं, आपसे रूपये मांगने जाऊं तो कहिएगा। मैं अपने वेतन से थोडा-थोडा करके सब चुका दूंगा।’
अपने मन में उसने कहा, ‘यह तो आप ही की करनी का फल है। आप ही के पाप का प्रायश्चित्ता कर रहा हूं।’
प्यादे ने पिता और पुत्र में वाद-विवाद होते देखा, तो चुपके से अपनी राह ली। मुंशीजी भुनभुनाते हुए स्नान करने चले गए। रमा ऊपर गया, तो उसके मुंह पर लज्जा और ग्लानि की फटकार बरस रही थी। जिस अपमान से बचने के लिए वह डाल-डाल, पात-पात भागता-फिरता था, वह हो ही गया। इस अपमान के सामने सरकारी रूपयों की फिक्र भी ग़ायब हो गई। कर्ज़ लेने वाले बला के हिम्मती होते हैं। साधारण बुद्धिका मनुष्य ऐसी परिस्थितियों में पड़कर घबरा उठता है, पर बैठकबाजों के माथे पर बल तक नहीं पड़ता। रमा अभी इस कला में दक्ष नहीं हुआ था। इस समय यदि यमदूत उसके प्राण हरने आता, तो वह आंखों से दौड़कर उसका स्वागत करता। कैसे क्या होगा, यह शब्द उसके एक-एक रोम से निकल रहा था। कैसे क्या होगा! इससे अधिक वह इस समस्या की और व्याख्या न कर सकता था। यही प्रश्न एक सर्वव्यापी पिशाच की भांति उसे घूरता दिखाई देता था। कैसे क्या होगा! यही शब्द अगणित बगूलों की भांति चारों ओर उठते नज़र आते थे। वह इस पर विचार न कर सकता था। केवल उसकी ओर से आंखें बंद कर सकता था। उसका चित्त इतना खिन्न हुआ कि आंखें सजल हो गई।
जालपा ने पूछा, ‘तुमने तो कहा था, इसके अब थोड़े ही रूपये बाकी हैं।’
रमा ने सिर झुकाकर कहा, ‘यह दुष्ट झूठ बोल रहा था, मैंने कुछ रूपये दिए हैं।’
जालपा-‘दिए होते, तो कोई रूपयों का तकषज़ा क्यों करता? जब तुम्हारी आमदनी इतनी कम थी तो गहने लिए ही क्यों? मैंने तो कभी ज़िद न की थी। और मान लो, मैं दो-चार बार कहती भी, तुम्हें समझ-बूझकर काम करना चाहिए था। अपने साथ मुझे भी चार बातें सुनवा दीं। आदमी सारी दुनिया से परदा रखता है, लेकिन अपनी स्त्री से परदा नहीं रखता। तुम मुझसे भी परदा रखते हो अगर मैं जानती, तुम्हारी आमदनी इतनी थोड़ी है, तो मुझे क्या ऐसा शौक चर्राया था कि मुहल्ले-भर की स्त्रियों को तांगे पर बैठा-बैठाकर सैर कराने ले जाती। अधिक-से-अधिक यही तो होता, कि कभी-कभी चित्त दुखी हो जाता, पर यह तकाज़े तो न सहने पड़ते। कहीं नालिश कर दे, तो सात सौ के एक हज़ार हो जाएं। मैं क्या जानती थी कि तुम मुझ से यह छल कर रहे हो कोई वेश्या तो थी नहीं कि तुम्हें नोच-खसोटकर अपना घर भरना मेरा काम होता। मैं तो भले- बुरे दोनों ही की साथिन हूं। भले में तुम चाहे मेरी बात मत पूछो, बुरे में तो मैं तुम्हारे गले पड़ूंगी ही।’
रमा के मुख से एक शब्द न निकला, दफ्तर का समय आ गया था। भोजन करने का अवकाश न था। रमा ने कपड़े पहने, और दफ्तर चला। जागेश्वरी ने कहा, ‘क्या बिना भोजन किए चले जाओगे?’
रमा ने कोई जवाब न दिया, और घर से निकलना ही चाहता था कि जालपा झपटकर नीचे आई और उसे पुकारकर बोली, ‘मेरे पास जो दो सौ रूपये हैं, उन्हें क्यों नहीं सर्राफ को दे देते?’
रमा ने चलते वक्त ज़ान-बूझकर जालपा से रूपये न मांगे थे। वह जानता था, जालपा मांगते ही दे देगी, लेकिन इतनी बातें सुनने के बाद अब रूपये के लिए उसके सामने हाथ व्लाते उसे संकोच ही नहीं, भय होता था। कहीं वह फिर न उपदेश देने बैठ जाए,इसकी अपेक्षा आने वाली विपत्तियां कहीं हल्की थीं। मगर जालपा ने उसे पुकारा, तो कुछ आशा बंधीब ठिठक गया और बोला, ‘अच्छी बात है, लाओ दे दो।’
वह बाहर के कमरे में बैठ गया। जालपा दौड़कर ऊपर से रूपये लाई और गिन-गिनकर उसकी थैली में डाल दिए। उसने समझा था, रमा रूपये पाकर फूला न समाएगा, पर उसकी आशा पूरी न हुई। अभी तीन सौ रूपये की फिक्र करनी थी। वह कहां से आएंगे? भूखा आदमी इच्छापूर्ण भोजन चाहता है, दो-चार फुलकों से उसकी तुष्टि नहीं होती। सड़क पर आकर रमा ने एक तांगा लिया और उससे जार्जटाउन चलने को कहा,शायद रतन से भेंट हो जाए। वह चाहे तो तीन सौ रूपये का बडी आसानी से प्रबंध कर सकती है। रास्ते में वह सोचता जाता था, आज बिलकुल संकोच न करूंगा। ज़रा देर में जार्जटाउन आ गया। रतन का बंगला भी आया। वह बरामदे में बैठी थी। रमा ने उसे देखकर हाथ उठाया, उसने भी हाथ उठाया, पर वहां उसका सारा संयम टूट गया। वह बंगले में न जा सका। तांगा सामने से निकल गया। रतन बुलाती, तो वह चला जाता। वह बरामदे में न बैठी होती तब भी शायद वह अंदर जाता, पर उसे सामने बैठे देखकर वह संकोच में डूब गया। जब तांगा गवर्नमेंट हाउस के पास पहुंचा, तो रमा ने चौंककर कहा, ‘चुंगी के दफ्तर चलो। तांगे वाले ने घोडा उधर मोङ दिया।
ग्यारह बजते-बजते रमा दफ्तर पहुंचा। उसका चेहरा उतरा हुआ था। छाती धड़क रही थी। बडे बाबू ने जरूर पूछा होगा। जाते ही बुलाएंगे। दफ्तर में ज़रा भी रियायत नहीं करते। तांगे से उतरते ही उसने पहले अपने कमरे की तरफ निगाह डाली। देखा, कई आदमी खड़े उसकी राह देख रहे हैं। वह उधर न जाकर रमेश बाबू के कमरे की ओर गया।
रमेश बाबू ने पूछा, ‘तुम अब तक कहां थे जी, ख़ज़ांची साहब तुम्हें खोजते फिरते हैं?चपरासी मिला था?’
रमा ने अटकते हुए कहा, ‘मैं घर पर न था। ज़रा वकील साहब की तरफ चला गया था। एक बडी मुसीबत में फंस गया हूं।’
रमेश-‘कैसी मुसीबत, घर पर तो कुशल है।’
रमानाथ-‘जी हां, घर पर तो कुशल है। कल शाम को यहां काम बहुत था, मैं उसमें ऐसा फंसा कि वक्त क़ी कुछ ख़बर ही न रही। जब काम ख़त्म करके उठा, तो ख़जांची साहब चले गए थे। मेरे पास आमदनी के आठ सौ रूपये थे। सोचने लगा इसे कहां रक्खूं, मेरे कमरे में कोई संदूक है नहीं। यही निश्चय किया कि साथ लेता जाऊं। पांच सौ रूपये नकद थे, वह तो मैंने थैली में रक्खे तीन सौ रूपये के नोट जेब में रख लिए और घर चला। चौक में एक-दो चीज़ें लेनी थीं। उधार से होता हुआ घर पहुंचा तो नोट गायब थे। रमेश बाबू ने आंखें गाड़कर कहा, ‘तीन सौ के नोट गायब हो गए?’
रमानाथ-‘जी हां, कोट के ऊपर की जेब में थे। किसी ने निकाल लिए?’
रमेश-‘और तुमको मारकर थैली नहीं छीन ली?’
रमानाथ-‘क्या बताऊं बाबूजी, तब से चित्त की जो दशा हो रही है, वह बयान नहीं कर सकता तब से अब तक इसी फिक्र में दौड़ रहा हूं। कोई बंदोबस्त न हो सका।’
रमेश-‘अपने पिता से तो कहा ही न होगा? ‘
रमानाथ-‘उनका स्वभाव तो आप जानते हैं। रूपये तो न देते, उल्टी डांट सुनाते।’
रमेश-‘तो फिर क्या फिक्र करोगे?’
रमानाथ-‘आज शाम तक कोई न कोई फिक्र करूंगा ही।’
रमेश ने कठोर भाव धारण करके कहा, ‘तो फिर करो न! इतनी लापरवाही तुमसे हुई कैसे! यह मेरी समझ में नहीं आता। मेरी जेब से तो आज तक एक पैसा न गिरा, आंखें बंद करके रास्ता चलते हो या नशे में थे? मुझे तुम्हारी बात पर विश्वास नहीं आता। सच-सच बतला दो, कहीं अनाप-शनाप तो नहीं ख़र्च कर डाले? उस दिन तुमने मुझसे क्यों रूपये मांगे थे? ‘
रमा का चेहरा पीला पड़ गया। कहीं कलई तो न खुल जाएगी। बात बनाकर बोला, ‘क्या सरकारी रूपया ख़र्च कर डालूंगा? उस दिन तो आपसे रूपये इसलिए मांगे थे कि बाबूजी को एक जरूरत आ पड़ी थी। घर में रूपये न थे। आपका ख़त मैंने उन्हें सुना दिया था। बहुत हंसे, दूसरा इंतजाम कर लिया। इन नोटों के गायब होने का तो मुझे ख़ुद ही आश्चर्य है।’
रमेश-‘तुम्हें अपने पिताजी से मांगते संकोच होता हो, तो मैं ख़त लिखकर मंगवा लूं।’
रमा ने कानों पर हाथ रखकर कहा, ‘नहीं बाबूजी, ईश्वर के लिए ऐसा न कीजिएगा। ऐसी ही इच्छा हो, तो मुझे गोली मार दीजिए।’
रमेश ने एक क्षण तक कुछ सोचकर कहा, ‘तुम्हें विश्वास है, शाम तक रूपये मिल जाएंगे?’
रमानाथ-‘हां, आशा तो है।’
रमेश-‘तो इस थैली के रूपये जमा कर दो, मगर देखो भाई, मैं साफ-साफ कहे देता हूं, अगर कल दस बजे रूपये न लाए तो मेरा दोष नहीं। कायदा तो यही कहता है कि मैं इसी वक्त तुम्हें पुलिस के हवाले करूं, मगर तुम अभी लङके हो, इसलिए क्षमा करता हूं। वरना तुम्हें मालूम है, मैं सरकारी काम में किसी प्रकार की मुरौवत नहीं करता। अगर तुम्हारी जगह मेरा भाई या बेटा होता, तो मैं उसके साथ भी यही सलूक करता, बल्कि शायद इससे सख्त। तुम्हारे साथ तो फिर भी बडी नर्मी कर रहा हूं। मेरे पास रूपये होते तो तुम्हें दे देता, लेकिन मेरी हालत तुम जानते हो हां, किसी का कर्ज़ नहीं रखता। न किसी को कर्ज देता हूं, न किसी से लेता हूं। कल रूपये न आए तो बुरा होगा। मेरी दोस्ती भी तुम्हें पुलिस के पंजे से न बचा सकेगी। मेरी दोस्ती ने आज अपना हक अदा कर दिया वरना इस वक्त तुम्हारे हाथों में हथकडियां होतीं।’
हथकडियां! यह शब्द तीर की भांति रमा की छाती में लगा। वह सिर से पांव तक कांप उठा। उस विपत्ति की कल्पना करके उसकी आंखें डबडबा आई। वह धीरे-धीरे सिर झुकाए, सज़ा पाए हुए कैष्दी की भांति जाकर अपनी कुर्सी पर बैठ गया, पर यह भयंकर शब्द बीच-बीच में उसके ह्रदय में गूंज जाता था। आकाश पर काली घटाएं छाई थीं। सूर्य का कहीं पता न था, क्या वह भी उस घटारूपी कारागार में बंद है, क्या उसके हाथों में भी हथकडियां हैं?
बीस
रमा शाम को दफ्तर से चलने लगा, तो रमेश बाबू दौड़े हुए आए और कल रूपये लाने की ताकीद की। रमा मन में झुंझला उठा। आप बडे ईमानदार की दुम बने हैं! ढोंगिया कहीं का! अगर अपनी जरूरत आ पड़े, तो दूसरों के तलवे सहलाते गिरेंगे, पर मेरा काम है, तो आप आदर्शवादी बन बैठे। यह सब दिखाने के दांत हैं, मरते समय इसके प्राण भी जल्दी नहीं निकलेंगे! कुछ दूर चलकर उसने सोचा, एक बार फिर रतन के पास चलूं। और ऐसा कोई न था जिससे रूपये मिलने की आशा होती। वह जब उसके बंगले पर पहुंचा, तो वह अपने बगीचे में गोल चबूतरे पर बैठी हुई थी। उसके पास ही एक गुज़राती जौहरी बैठा संदूक से सुंदर आभूषण निकाल-निकालकर दिखा रहा था। रमा को देखकर वह बहुत ख़ुश हुई। ‘आइये बाबू साहब, देखिए सेठजी कैसी अच्छी-अच्छी चीजें लाए हैं। देखिए, हार कितना सुंदर है, इसके दाम बारह सौ रूपये बताते हैं।’
रमा ने हार को हाथ में लेकर देखा और कहा,हां, चीज़ तो अच्छी मालूम होती है!’
रतन-‘दाम बहुत कहते हैं।’
जौहरी-‘बाईजी, ऐसा हार अगर कोई दो हज़ार में ला दे, तो जो जुर्माना कहिए, दूं। बारह सौ मेरी लागत बैठ गई है।’
रमा ने मुस्कराकर कहा, ‘ऐसा न कहिए सेठजी, जुर्माना देना पड़ जाएगा।’
जौहरी-‘बाबू साहब, हार तो सौ रूपये में भी आ जाएगा और बिलकुल ऐसा ही। बल्कि चमक-दमक में इससे भी बढ़कर। मगर परखना चाहिए। मैंने ख़ुद ही आपसे मोल-तोल की बात नहीं की। मोल-तोल अनाडियों से किया जाता है। आपसे क्या मोल-तोल, हम लोग निरे रोजगारी नहीं हैं बाबू साहब, आदमी का मिज़ाज देखते हैं। श्रीमतीजी ने क्या अमीराना मिज़ाज दिखाया है कि वाह! ‘
रतन ने हार को लुब्ध नजरों से देखकर कहा, ‘कुछ तो कम कीजिए, सेठजी! आपने तो जैसे कसम खा ली! ‘
जौहरी-‘कमी का नाम न लीजिए, हुजूर! यह चीज़ आपकी भेंट है।’
रतन-‘अच्छा, अब एक बात बतला दीजिए, कम-से-कम इसका क्या लेंगे?’
जौहरी ने कुछ क्षुब्ध होकर कहा, ‘बारह सौ रूपये और बारह कौडियां होंगी, हुजूर, आप से कसम खाकर कहता हूं, इसी शहर में पंद्रह सौ का बेचूंगा, और आपसे कह जाऊंगा, किसने लिया।’
यह कहते हुए जौहरी ने हार को रखने का केस निकाला। रतन को विश्वास हो गया, यह कुछ कम न करेगा। बालकों की भांति अधीर होकर बोली, ‘आप तो ऐसा समेटे लेते हैं कि हार को नजर लग जाएगी! ‘
जौहरी-‘क्या करूं हुज़ूर! जब ऐसे दरबार में चीज़ की कदर नहीं होती,तो दुख होता ही है।’
रतन ने कमरे में जाकर रमा को बुलाया और बोली, ‘आप समझते हैं यह कुछ और उतरेगा?’
रमानाथ-‘मेरी समझ में तो चीज़ एक हज़ार से ज्यादा की नहीं है।’
रतन-‘उंह, होगा। मेरे पास तो छः सौ रूपये हैं। आप चार सौ रूपये का प्रबंध कर दें, तो ले लूं। यह इसी गाड़ी से काशी जा रहा है। उधार न मानेगा। वकील साहब किसी जलसे में गए हैं, नौ-दस बजे के पहले न लौटेंगे। मैं आपको कल रूपये लौटा दूंगी।’
रमा ने बडे संकोच के साथ कहा, ‘विश्वास मानिए, मैं बिलकुल खाली हाथ हूं। मैं तो आपसे रूपये मांगने आया था। मुझे बडी सख्त जरूरत है। वह रूपये मुझे दे दीजिए, मैं आपके लिए कोई अच्छा-सा हार यहीं से ला दूंगा। मुझे विश्वास है, ऐसा हार सात-आठ सौ में मिल जायगा। ‘
रतन-‘चलिए, मैं आपकी बातों में नहीं आती। छः महीने में एक कंगन तो बनवा न सके, अब हार क्या लाएंगे! मैं यहां कई दुकानें देख चुकी हूं, ऐसी चीज़ शायद ही कहीं निकले। और निकले भी, तो इसके ड्योढ़े दाम देने पड़ेंगे।’
रमानाथ-‘तो इसे कल क्यों न बुलाइए, इसे सौदा बेचने की ग़रज़ होगी,तो आप ठहरेगा। ‘
रतन-‘अच्छा कहिए, देखिए क्या कहता है।’
दोनों कमरे के बाहर निकले, रमा ने जौहरी से कहा, ‘तुम कल आठ बजे क्यों नहीं आते?’
जौहरी-‘नहीं हुजूर, कल काशी में दो-चार बडे रईसों से मिलना है। आज के न जाने से बडी हानि हो जाएगी।’
रतन-‘मेरे पास इस वक्त छः सौ रूपये हैं, आप हार दे जाइए, बाकी के रूपये काशी से लौटकर ले जाइएगा। ‘
जौहरी-‘रूपये का तो कोई हर्ज़ न था, महीने-दो महीने में ले लेता, लेकिन हम परदेशी लोगों का क्या ठिकाना, आज यहां हैं, कल वहां हैं, कौन जाने यहां फिर कब आना हो! आप इस वक्त एक हजार दे दें, दो सौ फिर दे दीजिएगा। ‘
रमानाथ-‘तो सौदा न होगा।’
जौहरी-‘इसका अख्तियार आपको है, मगर इतना कहे देता हूं कि ऐसा माल फिर न पाइएगा।’
रमानाथ-‘रूपये होंगे तो माल बहुत मिल जायगा। ‘
जौहरी-‘कभी-कभी दाम रहने पर भी अच्छा माल नहीं मिलता।’यह कहकर जौहरी ने फिर हार को केस में रक्खा और इस तरह संदूक समेटने लगा, मानो वह एक क्षण भी न रूकेगा।
रतन का रोयां-रोयां कान बना हुआ था, मानो कोई कैदी अपनी किस्मत का फैसला सुनने को खडा हो उसके ह्रदय की सारी ममता, ममता का सारा अनुराग, अनुराग की सारी अधीरता, उत्कंठा और चेष्टा उसी हार पर केंद्रित हो रही थी, मानो उसके प्राण उसी हार के दानों में जा छिपे थे, मानो उसके जन्मजन्मांतरों की संचित अभिलाषा उसी हार पर मंडरा रही थी। जौहरी को संदूक बंद करते देखकर वह जलविहीन मछली की भांति तड़पने लगी। कभी वह संदूक खोलती, कभी वह दराज खोलती, पर रूपये कहीं न मिले। सहसा मोटर की आवाज़ सुनकर रतन ने फाटक की ओर देखा। वकील साहब चले आ रहे थे। वकील साहब ने मोटर बरामदे के सामने रोक दी और चबूतरे की तरफ चले। रतन ने चबूतरे के नीचे उतरकर कहा, ‘आप तो नौ बजे आने को कह गए थे?’
वकील, ‘वहां काम ही पूरा न हुआ, बैठकर क्या करता! कोई दिल से तो काम करना नहीं चाहता, सब मुफ्त में नाम कमाना चाहते हैं। यह क्या कोई जौहरी है? ‘
जौहरी ने उठकर सलाम किया।
वकील साहब रतन से बोले, ‘क्यों, तुमने कोई चीज़ पसंद की ?’
रतन-‘हां, एक हार पसंद किया है, बारह सौ रूपये मांगते हैं। ‘
वकील, ‘बस! और कोई चीज़ पसंद करो। तुम्हारे पास सिर की कोई अच्छी चीज़ नहीं है।’
रतन-‘इस वक्त मैं यही एक हार लूंगी। आजकल सिर की चीज़ें कौन पहनता है।’
वकील –‘लेकर रख लो, पास रहेगी तो कभी पहन भी लोगी। नहीं तो कभी दूसरों को पहने देख लिया, तो कहोगी, मेरे पास होता, तो मैं भी पहनती।’
वकील साहब को रतन से पति का-सा प्रेम नहीं, पिता का-सा स्नेह था। जैसे कोई स्नेही पिता मेले में लड़कों से पूछ-पूछकर खिलौने लेता है, वह भी रतन से पूछ-पूछकर खिलौने लेते थे। उसके कहने भर की देर थी। उनके पास उसे प्रसन्न करने के लिए धन के सिवा और चीज़ ही क्या थी। उन्हें अपने जीवन में एक आधार की जरूरत थी,सदेह आधार की, जिसके सहारे वह इस जीर्ण दशा में भी जीवन?संग्राम में खड़े रह सकें, जैसे किसी उपासक को प्रतिमा की जरूरत होती है। बिना प्रतिमा के वह किस पर फल चढ़ाए, किसे गंगा-जल से नहलाए, किसे स्वादिष्ट चीज़ों का भोग लगाए। इसी भांति वकील साहब को भी पत्नी की जरूरत थी। रतन उनके लिए सदेह कल्पना मात्र थी जिससे उनकी आत्मिक पिपासा शांत होती थी। कदाचित रतन के बिना उनका जीवन उतना ही सूना होता, जितना आंखों के बिना मुखब।
रतन ने केस में से हार निकालकर वकील साहब को दिखाया और बोली, ‘इसके बारह सौ रूपये मांगते हैं।’
वकील साहब की निगाह में रूपये का मूल्य आनंददायिनी शक्ति थी। अगर हार रतन को पसंद है, तो उन्हें इसकी परवा न थी कि इसके क्या दाम देने पड़ेंगे। उन्होंने चेक निकालकर जौहरी की तरफ देखा और पूछा, ‘सच-सच बोलो, कितना लिखूं! ।’
जौहरी ने हार को उलट-पलटकर देखा और हिचकते हुए बोला, ‘साढ़े ग्यारह सौ कर दीजिए।।’वकील साहब ने चेक लिखकर उसको दिया, और वह सलाम करके चलता हुआ। रतन का मुख इस समय वसन्त की प्राकृतिक शोभा की भांति विहसित था। ऐसा गर्व, ऐसा उल्लास उसके मुख पर कभी न दिखाई दिया था। मानो उसे संसार की संपत्ति मिल गई है। हार को गले में लटकाए वह अंदर चली गई। वकील साहब के आचारविचार में नई और पुरानी प्रथाओं का विचित्र मेल था। भोजन वह अभी तक किसी ब्राह्मण के हाथ का भी न खाते थे। आज रतन उनके लिए अच्छी-अच्छी चीजें बनाने गई, अपनी कृतज्ञता को वह कैसे ज़ाहिर करे।
रमा कुछ देर तक तो बैठा वकील साहब का योरप-गौरव-गान सुनता रहा, अंत को निराश होकर चल दिया।
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