उपन्यास – गोदान – 27 – (लेखक – मुंशी प्रेमचंद)
मिस्टर खन्ना को मजूरों की यह हड़ताल बिलकुल बेजा मालूम होती थी। उन्होंने हमेशा जनता के साथ मिले रहने की कोशिश की थी। वह अपने को जनता का ही आदमी समझते थे। पिछले कौमी आंदोलन में उन्होंने बड़ा जोश दिखाया था। जिले के प्रमुख नेता रहे थे, दो बार जेल गए थे और कई हजार का नुकसान उठाया था। अब भी वह मजूरों की शिकायतें सुनने को तैयार रहते थे, लेकिन यह तो नहीं हो सकता कि वह शक्कर मिल के हिस्सेदारों के हित का विचार न करें। अपना स्वार्थ त्यागने को वह तैयार हो सकते थे, अगर उनकी ऊँची मनोवृत्तियों को स्पर्श किया जाता, लेकिन हिस्सेदारों के स्वार्थ की रक्षा न करना, यह तो अधर्म था। यह तो व्यापार है, कोई सदाव्रत नहीं कि सब कुछ मजूरों को ही बाँट दिया जाए। हिस्सेदारों को यह विश्वास दिला कर रुपए लिए गए थे कि इस काम में पंद्रह-बीस सैकड़े का लाभ है। अगर उन्हें दस सैकड़ा भी न मिले, तो वे डायरेक्टरों को और विशेषकर मिस्टर खन्ना को धोखेबाज ही तो समझेंगे और फिर अपना वेतन वह कैसे कम कर सकते थे? और कंपनियों को देखते उन्होंने अपना वेतन कम रखा था। केवल एक हजार रूपया महीना लेते थे। कुछ कमीशन भी मिल जाता था, मगर वह इतना लेते थे, तो मिल का संचालन भी करते थे। मजूर केवल हाथ से काम करते हैं। डायरेक्टर अपनी बुद्धि से, विद्या से, प्रतिभा से, प्रभाव से काम करता है। दोनों शक्तियों का मोल बराबर तो नहीं हो सकता। मजूरों को यह संतोष क्यों नहीं होता कि मंदी का समय है और चारों तरफ बेकारी फैली रहने के कारण आदमी सस्ते हो गए हैं। उन्हें तो एक की जगह पौन भी मिले, तो संतुष्ट रहना चाहिए था। और सच पूछो तो वे संतुष्ट हैं। उनका कोई कसूर नहीं। वे तो मूर्ख हैं, बछिया के ताऊ! शरारत तो ओंकारनाथ और मिर्जा खुर्शेद की है। यही लोग उन बेचारों को कठपुतली की तरह नचा रहे हैं, केवल थोड़े-से पैसे और यश के लोभ में पड़ कर। यह नहीं सोचते कि उनकी दिल्लगी से कितने घर तबाह हो जाएँगे। ओंकारनाथ का पत्र नहीं चलता तो बेचारे खन्ना क्या करें! और आज उनके पत्र के एक लाख ग्राहक हो जायँ, और उससे उन्हें पाँच लाख का लाभ होने लगे, तो क्या वह केवल अपने गुजारे-भर को ले कर शेष कार्यकर्ताओं में बाँट देंगे? कहाँ की बात! और वह त्यागी मिर्जा खुर्शेद भी तो एक दिन लखपति थे। हजारों मजूर उनके नौकर थे। तो क्या वह अपने गुजारे-भर को ले कर सब कुछ मजूरों में बाँट देते थे? वह उसी गुजारे की रकम में यूरोपियन छोकरियों के साथ विहार करते थे। बड़े-बड़े अफसरों के साथ दावतें उड़ाते थे, हजारों रुपए महीने की शराब पी जाते थे और हर साल फ्रांस और स्विटजरलैंड की सैर करते थे। आज मजूरों की दशा पर उनका कलेजा फटता है।
इन दोनों नेताओें की तो खन्ना को परवाह न थी। उनकी नियत की सफाई में पूरा संदेह था। न रायसाहब की ही उन्हें परवाह थी, जो हमेशा खन्ना की हाँ-में-हाँ मिलाया करते थे और उनके हर एक कदम का समर्थन कर दिया करते थे। अपने परिचितों में केवल एक ही ऐसा व्यक्ति था, जिसके निष्पक्ष विचार पर खन्ना जी को पूरा भरोसा था और वह डाक्टर मेहता थे। जब से उन्होंने मालती से घनिष्ठता बढ़ानी शुरू की थी, खन्ना की नजरों में उनकी इज्जत बहुत कम हो गई थी। मालती बरसों खन्ना की हृदयेश्वरी रह चुकी थी, पर उसे उन्होंने सदैव खिलौना समझा था। इसमें संदेह नहीं कि वह खिलौना उन्हें बहुत प्रिय था। उसके खो जाने, या टूट जाने, या छिन जाने पर वह खूब रोते और वह रोए थे, लेकिन थी वह खिलौना ही। उन्हें कभी मालती पर विश्वास न हुआ। वह कभी उनके ऊपरी विलास-आवरण को छेद कर उनके अंत:करण तक न पहुँच सकी थी। वह अगर खुद खन्ना से विवाह का प्रस्ताव करती, तो वह स्वीकार न करते। कोई बहाना करके टाल देते। अन्य कितने ही प्राणियों की भाँति खन्ना का जीवन भी दोहरा या दो-रुखी था। एक ओर वह त्याग और जन-सेवा और उपकार के भक्त थे, तो दूसरी ओर स्वार्थ और विलास और प्रभुता के। कौन उनका असली रुख था, यह कहना कठिन है। कदाचित उनकी आत्मा का उत्तम आधा सेवा और सहृदयता से बना हुआ था, मद्धिम आधा स्वार्थ और विलास से। पर इस उत्तम और मद्धिम में बराबर संघर्ष होता रहता था। और मद्धिम ही अपने उद्दंडता और हठ के कारण सौम्य और शांत उत्तम पर गालिब आता था। उसे मद्धिम मालती की ओर झुकता था, उत्तम मेहता की ओर, लेकिन वह उत्तम अब मद्धिम के साथ एक हो गया था। उनकी समझ में न आता था कि मेहता-जैसा आदर्शवादी व्यक्ति मालती-जैसी चंचल, विलासिनी रमणी पर कैसे आसक्त हो गया! वह बहुत प्रयास करने पर भी मेहता को वासनाओं का शिकार न स्थिर कर सकते थे और कभी-कभी उन्हें यह संदेह भी होने लगता था कि मालती का कोई दूसरा रूप भी है, जिसे वह न देख सके या जिसे देखने की उनमें क्षमता न थी।
पक्ष और विपक्ष के सभी पहलुओं पर विचार करके उन्होंने यही नतीजा निकाला कि इस परिस्थिति में मेहता ही से उन्हें प्रकाश मिल सकता है।
डाक्टर मेहता को काम करने का नशा था। आधी रात को सोते थे और घड़ी रात रहे उठ जाते थे। कैसा भी काम हो, उसके लिए वह कहीं-न-कहीं से समय निकाल लेते थे। हाकी खेलना हो या यूनिवर्सिटी डिबेट, ग्राम्य संगठन हो या किसी शादी का नवेद, सभी कामों के लिए उनके पास लगन थी और समय था। वह पत्रों में लेख भी लिखते थे और कई साल से एक वृह्द दर्शन-ग्रंथ लिख रहे थे, जो अब समाप्त होने वाला था। इस वक्त भी वह एक वैज्ञानिक खेल ही खेल रहे थे। अपने बगीचे में बैठे हुए पौधों पर विद्युत-संचार क्रिया की परीक्षा कर रहे थे। उन्होंने हाल में एक विद्वान-परिषद में यह सिद्ध किया था कि फसलें बिजली के जोर से बहुत थोड़े समय में पैदा की जा सकती हैं, उनकी पैदावार बढ़ाई जा सकती है और बेफसल की चीजें भी उपजाई जा सकती हैं। आजकल सबेरे के दो-तीन घंटे वह इन्हीं परीक्षाओं में लगाया करते थे।
मिस्टर खन्ना की कथा सुन कर उन्होंने कठोर मुद्रा से उनकी ओर देख कर कहा – क्या यह जरूरी था कि डयूटी लग जाने से मजूरों का वेतन घटा दिया जाय? आपको सरकार से शिकायत करनी चाहिए थी। अगर सरकार ने नहीं सुना, तो उसका दंड मजूरों को क्यों दिया जाय? क्या आपका विचार है कि मजूरों को इतनी मजूरी दी जाती है कि उसमें चौथाई कम कर देने से मजूरों को कष्ट नहीं होगा? आपके मजूर बिलों में रहते हैं – गंदे बदबूदार बिलों में – जहाँ आप एक मिनट भी रह जायँ, तो आपको कै हो जाए। कपड़े जो पहनते हैं, उनसे आप अपने जूते भी न पोछेंगे। खाना जो वह खाते हैं, वह आपका कुत्ता भी न खाएगा। मैंने उनके जीवन में भाग लिया है। आप उनकी रोटियाँ छीन कर अपने हिस्सेदारों का पेट भरना चाहते हैं?
खन्ना ने अधीर हो कर कहा – लेकिन हमारे सभी हिस्सेदार तो धनी नहीं हैं। कितनों ही ने अपना सर्वस्व इसी मिल की भेंट कर दिया है और इसके नफे के सिवा उनके जीवन का कोई आधार नहीं है।
मेहता ने इस भाव से जवाब दिया, जैसे इस दलील का उनकी नजरों में कोई मूल्य नहीं है – जो आदमी किसी व्यापार में हिस्सा लेता है, वह इतना दरिद्र नहीं होता कि उसके नफे ही को जीवन का आधार समझे। हो सकता है कि नफा कम मिलने पर उसे अपना एक नौकर कम कर देना पड़े या उसके मक्खन और फलों का बिल कम हो जाय, लेकिन वह नंगा या भूखा न रहेगा। जो अपनी जान खपाते हैं, उनका हक उन लोगों से ज्यादा है, जो केवल रूपया लगाते हैं।
यही बात पंडित ओंकारनाथ ने कही थी। मिर्जा खुर्शेद ने भी यही सलाह दी थी। यहाँ तक कि गोविंदी ने भी मजूरों ही का पक्ष लिया था, पर खन्ना जी ने उन लोगों की परवा न की थी, लेकिन मेहता के मुँह से वही बात सुन कर वह प्रभावित हो गए। ओंकारनाथ को वह स्वार्थी समझते थे, मिर्जा खुर्शेद को गैरजिम्मेदार और गोविंदी को अयोग्य। मेहता की बात में चरित्र, अधययन और सद्भाव की शक्ति थी।
सहसा मेहता ने पूछा – आपने अपनी देवी जी से भी इस विषय में राय ली?
खन्ना ने सकुचाते हुए कहा – हाँ पूछा था।
‘उनकी क्या राय थी?’
‘वही जो आपकी है।’
‘मुझे यही आशा थी। और आप उस विदुषी को अयोग्य समझते हैं।’
उसी वक्त मालती आ पहुँची और खन्ना को देख कर बोली – अच्छा, आप विराज रहे हैं – मैंने मेहता जी की आज दावत की है। सभी चीजें अपने हाथ से पकाई हैं। आपको भी नेवता देती हूँ। गोविंदी देवी से आपका यह अपराध क्षमा करा दूँगी।
खन्ना को कौतूहल हुआ। अब मालती अपने हाथों से खाना पकाने लगी है? मालती, वही मालती, जो खुद कभी अपने जूते न पहनती थी, जो खुद कभी बिजली का बटन तक न दबाती थी, विलास और विनोद ही जिसका जीवन था!
मुस्कराकर कहा – अगर आपने पकाया है तो जरूर आऊँगा। मैं तो कभी सोच ही न सकता था कि आप पाक-कला में भी निपुण हैं।
मालती नि:संकोच भाव से बोली – इन्होंने मार-मार कर वैद्य बना दिया। इनका हुक्म कैसे टाल देती? पुरुष देवता ठहरे!
खन्ना ने इस व्यंग्य का आनंद ले कर मेहता की ओर आँखें मारते हुए कहा – पुरुष तो आपके लिए इतने सम्मान की वस्तु न थी।
मालती झेंपी नहीं। इस संकेत का आशय समझ कर जोश-भरे स्वर में बोली – लेकिन अब हो गई हूँ, इसलिए कि मैंने पुरुष का जो रूप अपने परिचितों की परिधि में देखा था, उससे यह कहीं सुंदर है। पुरुष इतना सुंदर, इतना कोमल हृदय….
मेहता ने मालती की ओर दीन-भाव से देखा और बोले – नहीं मालती, मुझ पर दया करो, नहीं मैं यहाँ से भाग जाऊँगा।
इन दिनों जो कोई मालती से मिलता वह उससे मेहता की तारीफो के पुल बाँध देती, जैसे कोई नवदीक्षित अपने नए विश्वासों का ढिंढोरा पीटता फिरे। सुरूचि का ध्यान भी उसे न रहता। और बेचारे मेहता दिल में कट कर रह जाते थे। वह कड़ी और कड़वी आलोचना तो बड़े शौक से सुनते थे, लेकिन अपनी तारीफ सुन कर जैसे बेवकूफ बन जाते थे, मुँह जरा-सा निकल आता था, जैसे कोई फबती कसी गई हो। और मालती उन औरतों में न थी, जो भीतर रह सके। वह बाहर ही रह सकती थी, पहले भी और अब भी, व्यवहार में भी, विचार में भी। मन में कुछ रखना वह न जानती थी। जैसे एक अच्छी साड़ी पा कर वह उसे पहनने के लिए अधीर हो जाती थी, उसी तरह मन में कोई सुंदर भाव आए, तो वह उसे प्रकट किए बिना चैन न पाती थी।
मालती ने और समीप आ कर उनकी पीठ पर हाथ रख कर मानो उनकी रक्षा करते हुए कहा – अच्छा भागो नहीं, अब कुछ न कहूँगी। मालूम होता है, तुम्हें अपने निंदा ज्यादा पसंद है। तो निंदा ही सुनो – खन्ना जी, यह महाशय मुझ पर अपने प्रेम का जाल……
शक्कर-मिल की चिमनी यहाँ से साफ नजर आती थी। खन्ना ने उसकी तरफ देखा। वह चिमनी खन्ना के कीर्ति स्तंभ की भाँति आकाश में सिर उठाए खड़ी थी। खन्ना की आँखों में अभिमान चमक उठा। इसी वक्त उन्हें मिल के दफ्तर में जाना है। वहाँ डायरेक्टरों की एक अर्जेंट मीटिंग करनी होगी और इस परिस्थिति को उन्हें समझाना होगा और इस समस्या को हल करने का उपाय भी बतलाना होगा।
मगर चिमनी के पास यह धुआँ कहाँ से उठ रहा है? देखते-देखते सारा आकाश बैलून की भाँति धुएँ से भर गया। सबों ने सशंक हो कर उधर देखा। कहीं आग तो नहीं लग गई? आग ही मालूम होती है।
सहसा सामने सड़क पर हजारों आदमी मिल की तरफ दौड़े जाते नजर आए। खन्ना ने खड़े हो कर जोर से पूछा – तुम लोग कहाँ दौड़े जा रहे हो?
एक आदमी ने रूक कर कहा – अजी, शक्कर-मिल में आग लग गई। आप देख नहीं रहे हैं?
खन्ना ने मेहता की ओर देखा और मेहता ने खन्ना की ओर। मालती दौड़ी हुई बँगले में गई और अपने जूते पहन आई। अफसोस और शिकायत करने का अवसर न था। किसी के मुँह से एक बात न निकली। खतरे में हमारी चेतना अंतर्मुखी हो जाती है। खन्ना की कार खड़ी ही थी। तीनों आदमी घबराए हुए आ कर बैठे और मिल की तरफ भागे। चौरास्ते पर पहुँचे तो देखा, सारा शहर मिल की ओर उमड़ा चला आ रहा है। आग में आदमियों को खींचने का जादू है, कार आगे न बढ़ सकी।
मेहता ने पूछा – आग-बीमा तो करा लिया था न!
खन्ना ने लंबी साँस खींच कर कहा – कहाँ भाई, अभी तो लिखा-पढ़ी हो रही थी। क्या जानता था, यह आफत आने वाली है।
कार वहीं राम-आसरे छोड़ दी गई और तीनों आदमी भीड़ चीरते हुए मिल के सामने जा पहुँचे। देखा तो अग्नि का एक सागर आकाश में उमड़ रहा था। अग्नि की उन्मत्त लहरें एक-पर-एक, दाँत पीसती थीं, जीभ लपलपाती थीं, जैसे आकाश को भी निगल जाएँगी। उस अग्नि समुद्र के नीचे ऐसा धुआँ छाया था, मानो सावन की घटा कालिख में नहा कर नीचे उतर आई हो। उसके ऊपर जैसे आग का थरथराता हुआ, उबलता हुआ हिमाचल खड़ा था। हाते में लाखों आदमियों की भीड़ थी, पुलिस भी थी, फायर ब्रिगेड भी, सेवा समितियों के सेवक भी, पर सब-के-सब आग की भीषणता से मानो शिथिल हो गए हों। फायर ब्रिगेड के छींटे उस अग्नि-सफर में जा कर जैसे बुझ जाते थे। ईंटें जल रही थीं, लोहे के गार्डर जल रहे थे और पिघली हुई शक्कर के परनाले चारों तरफ बह रहे थे। और तो और, जमीन से भी ज्वाला निकल रही थी।
दूर से तो मेहता और खन्ना को यह आश्चर्य हो रहा था कि इतने आदमी खड़े तमाशा क्यों देख रहे हैं, आग बुझाने में मदद क्यों नहीं करते, मगर अब इन्हें भी ज्ञात हुआ कि तमाशा देखने के सिवा और कुछ करना अपने वश से बाहर है। मिल की दीवारों से पचास गज के अंदर जाना जान-जोखिम था। ईंट और पत्थर के टुकड़े चटाक-चटाक टूट कर उछल रहे थे। कभी-कभी हवा का रुख इधर हो जाता था, तो भगदड़ पड़ जाती थी।
ये तीनों आदमी भीड़ के पीछे खड़े थे। कुछ समझ में न आता था, क्या करें। आखिर आग लगी कैसे! और इतनी जल्द फैल कैसे गई? क्या पहले किसी ने देखा ही नहीं? या देख कर भी बुझाने का प्रयास न किया? इस तरह के प्रश्न सभी के मन में उठ रहे थे, मगर वहाँ पूछे किससे, मिल के कर्मचारी होंगे तो जरूर, लेकिन उस भीड़ में उनका पता मिलना कठिन था।
सहसा हवा का इतना तेज झोंका आया कि आग की लपटें नीची हो कर इधर लपकीं, जैसे समुद्र में ज्वार आ गया हो। लोग सिर पर पाँव रख कर भागे। एक-दूसरे पर गिरते, रेलते, जैसे कोई शेर झपटा आता हो। अग्नि-ज्वालाएँ जैसे सजीव हो गई थीं, सचेष्ट भी, जैसे कोई शेषनाग अपने सहस्र मुख से आग फुंकार रहा हो। कितने ही आदमी तो इस रेले में कुचल गए। खन्ना मुँह के बल गिर पड़े, मालती को मेहता जी दोनों हाथों से पकड़े हुए थे, नहीं जरूर कुचल गई होती? तीनों आदमी हाते की दीवार के पास एक इमली के पेड़ के नीचे आ कर रूके। खन्ना एक प्रकार की चेतना-शून्य तन्मयता से मिल की चिमनी की ओर टकटकी लगाए खड़े थे।
मेहता ने पूछा – आपको ज्यादा चोट तो नहीं आई?
खन्ना ने कोई जवाब न दिया। उसी तरफ ताकते रहे। उनकी आँखों में वह शून्यता थी, जो विक्षिप्तता का लक्षण है।
मेहता ने उनका हाथ पकड़ कर फिर पूछा – हम लोग यहाँ व्यर्थ खड़े हैं। मुझे भय होता है, आपको चोट ज्यादा आ गई है। आइए, लौट चलें।
खन्ना ने उनकी तरफ देखा और जैसे सनक कर बोले – जिनकी यह हरकत है, उन्हें मैं खूब जानता हूँ। अगर उन्हें इसी में संतोष मिलता है, तो भगवान उनका भला करें। मुझे कुछ परवा नहीं, कुछ परवा नहीं, कुछ परवा नहीं! मैं आज चाहूँ, तो ऐसी नई मिल खड़ी कर सकता हूँ। जी हाँ, बिलकुल नई मिल खड़ी कर सकता हूँ। ये लोग मुझे क्या समझते हैं? मिल ने मुझे नहीं बनाया, मैंने मिल को बनाया। और मैं फिर बना सकता हूँ, मगर जिनकी यह हरकत है, उन्हें मैं खाक में मिला दूँगा। मुझे सब मालूम है, रत्ती-रत्ती मालूम है।
मेहता ने उनका चेहरा और उनकी चेष्टा देखी और घबरा कर बोले – चलिए, आपको घर पहुँचा दूँ। आपकी तबीयत अच्छी नहीं है।
खन्ना ने कहकहा मार कर कहा – मेरी तबीयत अच्छी नहीं है। इसलिए कि मिल जल गई। ऐसी मिलें मैं चुटकियों में खोल सकता हूँ। मेरा नाम खन्ना है, चंद्रप्रकाश खन्ना! मैंने अपना सब कुछ इस मिल में लगा दिया। पहली मिल में हमने बीस प्रतिशत नफा दिया। मैंने प्रोत्साहित हो कर यह मिल खोली। इसमें आधे रुपए मेरे हैं। मैंने बैंक के दो लाख इस मिल में लगा दिए। मैं एक घंटा नहीं, आधा घंटा पहले दस लाख का आदमी था। जी हाँ, दस, मगर इस वक्त फाकेमस्त हूँ – नहीं दिवालिया हूँ! मुझे बैंक को दो लाख देना है। जिस मकान में रहता हूँ, वह अब मेरा नहीं है। जिस बर्तन में खाता हूँ, वह भी अब मेरा नहीं! बैंक से मैं निकाल दिया जाऊँगा। जिस खन्ना को देख कर लोग जलते थे, वह खन्ना अब धूल में मिल गया है। समाज में अब मेरा कोई स्थान नहीं है, मेरे मित्र मुझे अपने विश्वास का पात्र नहीं, दया का पात्र समझेंगे। मेरे शत्रु मुझसे जलेंगे नहीं, मुझ पर हँसेंगे। आप नहीं जानते मिस्टर मेहता, मैंने अपने सिद्धांतों की कितनी हत्या की है। कितनी रिश्वतें दी हैं, कितनी रिश्वतें ली हैं। किसानों की ऊख तौलने के लिए कैसे आदमी रखे, कैसे नकली बाट रखे। क्या कीजिएगा, यह सब सुन कर, लेकिन खन्ना अपनी यह दुर्दशा कराने के लिए क्यों जिंदा रहे? जो कुछ होना है हो, दुनिया जितना चाहे हँसे, मित्र लोग जितना चाहें अफसोस करें, लोग जितनी गालियाँ देना चाहें, दें। खन्ना अपनी आँखों से देखने और अपने कानों से सुनने के लिए जीता न रहेगा। वह बेहया नहीं है, बेगैरत नहीं है!
यह कहते-कहते खन्ना दोनों हाथों से सिर पीट कर जोर-जोर से रोने लगे।
मेहता ने उन्हें छाती से लगा कर दुखित स्वर में कहा – खन्ना जी, जरा धीरज से काम लीजिए। आप समझदार हो कर दिल इतना छोटा करते हैं। दौलत से आदमी को जो सम्मान मिलता है, वह उसका सम्मान नहीं, उसकी दौलत का सम्मान है। आप निर्धन रह कर भी मित्रों के विश्वासपात्र रह सकते हैं और शत्रुओं के भी, बल्कि तब कोई आपका शत्रु रहेगा ही नहीं। आइए, घर चलें। जरा आराम कर लेने से आपका चित्त शांत हो जायगा।
खन्ना ने कोई जवाब न दिया। तीनों आदमी चौरास्ते पर आए। कार खड़ी थी। दस मिनट में खन्ना की कोठी पर पहुँच गए।
खन्ना ने उतर कर शांत स्वर में कहा – कार आप ले जायँ। अब मुझे इसकी जरूरत नहीं है।
मालती और मेहता भी उतर पड़े। मालती ने कहा – तुम चल कर आराम से लेटो, हम बैठे गप-शप करेंगे। घर जाने की तो ऐसी कोई जल्दी नहीं है।
खन्ना ने कृतज्ञता से उसकी ओर देखा और करुण-कंठ से बोले – मुझसे जो अपराध, हुए हैं, उन्हें क्षमा कर देना मालती! तुम और मेहता, बस तुम्हारे सिवा संसार में मेरा कोई नहीं है। मुझे आशा है, तुम मुझे अपनी नजरों से न गिराओगी। शायद दस-पाँच दिन में यह कोठी भी छोड़नी पडे। किस्मत ने कैसा धोखा दिया!
मेहता ने कहा – मैं आपसे सच कहता हूँ खन्ना जी, आज मेरी नजरों में आपकी जो इज्जत है, वह कभी न थी।
तीनों आदमी कमरे में दाखिल हुए। द्वार खुलने की आहट पाते ही गोविंदी भीतर से आ कर बोली – क्या आप लोग वहीं से आ रहे हैं? महराज तो बड़ी बुरी खबर लाया है।
खन्ना के मन में ऐसा प्रबल, न रुकने वाला, तूफानी आवेग उठा कि गोविंदी के चरणों पर गिर पड़ें और उन्हें आँसुओं से धो दें। भारी गले से बोले – हाँ प्रिए, हम तबाह हो गए।
उनकी निर्जीव, निराश आहत आत्मा सांत्वना के लिए विकल हो रही थी, सच्ची स्नेह में डूबी हुई सांत्वना के लिए – उस रोगी की भाँति, जो जीवन-सूत्र क्षीण हो जाने पर भी वैद्य के मुख की ओर आशा-भरी आँखों से ताक रहा हो। वही गोविंदी जिस पर उन्होंने हमेशा जुल्म किया, जिसका हमेशा अपमान किया, जिससे हमेशा बेवफाई की, जिसे सदैव जीवन का भार समझा, जिसकी मृत्यु की सदैव कामना करते रहे, वही इस समय जैसे अंचल में आशीर्वाद और मंगल और अभय लिए उन पर वार रही थी, जैसे उन चरणों में ही उसके जीवन का स्वर्ग हो, जैसे वह उनके अभागे मस्तक पर हाथ रख कर ही उनकी प्राणहीन धमनियों में फिर रक्त का संचार कर देगी। मन की इस दुर्बल दशा में, घोर विपत्ति में, मानो वह उन्हें कंठ से लगा लेने के लिए खड़ी थी। नौका पर बैठे हुए जल-विहार करते समय हम जिन चट्टानों को घातक समझते हैं, और चाहते हैं कि कोई इन्हें खोद कर फेंक देता, उन्हीं से, नौका टूट जाने पर, हम चिमट जाते हैं।
गोविंदी ने उन्हें एक सोफा पर बैठा दिया और स्नेह-कोमल स्वर में बोली – तो तुम इतना दिल छोटा क्यों करते हो? धन के लिए, जो सारे पापों की जड़ है! उस धन से हमें क्या सुख था? सबेरे से आधी रात तक एक-न-एक झंझट-आत्मा का सर्वनाश! लड़के तुमसे बात करने को तरस जाते थे, तुम्हें संबंधियों को पत्र लिखने तक की फुर्सत न मिलती थी। क्या बड़ी इज्जत थी? हाँ, थी, क्योंकि दुनिया आजकल धन की पूजा करती है और हमेशा करती चली आई है। उसे तुमसे कोई प्रयोजन नहीं। जब तक तुम्हारे पास लक्ष्मी है, तुम्हारे सामने पूँछ हिलाएगी। कल उतनी ही भक्ति से दूसरों के द्वार पर सिजदे करेगी। तुम्हारी तरफ ताकेगी भी नहीं। सत्पुरुष धन के आगे सिर नहीं झुकाते। वह देखते हैं, तुम क्या हो, अगर तुममें सच्चाई है, न्याय है, त्याग है, पुरुषार्थ है, तो वे तुम्हारी पूजा करेंगे। नहीं तुम्हें समाज का लुटेरा समझ कर मुँह फेर लेंगे, बल्कि तुम्हारे दुश्मन हो जाएँगे। मैं गलत तो नहीं कहती मेहता जी?
मेहता ने मानों स्वर्ग-स्वप्न से चौंक कर कहा – गलत? आप वही कह रही हैं, जो संसार के महान पुरुषों ने जीवन का तात्विक अनुभव करने के बाद कहा है। जीवन का सच्चा आधार यही है।
गोविंदी ने मेहता को संबोधित करके कहा – धनी कौन होता है, इसका कोई विचार नहीं करता। वही जो अपने कौशल से दूसरों को बेवकूफ बना सकता है?
खन्ना ने बात काट कर कहा – नहीं गोविंदी, धन कमाने के लिए अपने में संस्कार चाहिए। केवल कौशल से धन नहीं मिलता। इसके लिए भी त्याग और तपस्या करनी पड़ती है। शायद इतनी साधना में ईश्वर भी मिल जाए। हमारी सारी आत्मिक और बौद्धिक और शारीरिक शक्तियों के सामंजस्य का नाम धन है।
गोविंदी ने विपक्षी न बन कर मधयस्थ भाव से कहा – मैं मानती हूँ कि धन के लिए थोड़ी तपस्या नहीं करनी पड़ती, लेकिन फिर भी हमने उसे जीवन में जितने महत्व की वस्तु समझ रखा है, उतना महत्व उसमें नहीं है। मैं तो खुश हूँ कि तुम्हारे सिर से यह बोझ टला। अब तुम्हारे लड़के आदमी होंगे, स्वार्थ और अभिमान के पुतले नहीं। जीवन का सुख दूसरों को सुखी करने में हैं, उनको लूटने में नहीं। बुरा न मानना, अब तक तुम्हारे जीवन का अर्थ था आत्मसेवा, भोग और विलास। दैव ने तुम्हें उस साधन से वंचित करके तुम्हारे ज्यादा ऊँचे और पवित्र जीवन का रास्ता खोल दिया है। यह सिद्धि प्राप्त करने में अगर कुछ कष्ट भी हो, तो उसका स्वागत करो। तुम इसे विपत्ति समझते ही क्यों हो? क्यों नहीं समझते, तुम्हें अन्याय से लड़ने का अवसर मिला है। मेरे विचार में तो पीड़क होने से पीड़ित होना कहीं श्रेष्ठ है। धन खो कर अगर हम अपने आत्मा को पा सकें, तो यह कोई महँगा सौदा नहीं है। न्याय के सैनिक बन कर लड़ने में जो गौरव, जो उल्लास है, क्या उसे इतनी जल्द भूल गए?
‘गोविंदी के पीले, सूखे मुख पर तेज की ऐसी चमक थी, मानो उसमें कोई विलक्षण शक्ति आ गई हो, मानो उसकी सारी मूक साधना प्रगल्भ हो उठी हो।
मेहता उसकी ओर भक्तिपूर्ण नेत्रों से ताक रहे थे, खन्ना सिर झुकाए इसे दैवी प्रेरणा समझने की चेष्टा कर रहे थे और मालती मन में लज्जित थी। गोविंदी के विचार इतने ऊँचे, उसका हृदय इतना विशाल और उसका जीवन इतना उज्ज्वल है।
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