उपन्यास – प्रतिज्ञा – 1- (लेखक – मुंशी प्रेमचंद)
देवकी – ‘जा कर समझाओ-बुझाओ और क्या करोगे। उनसे कहो, भैया, हमारा डोंगा क्यों मझधार में डुबाए देते हो। तुम घर के लड़के हो। तुमसे हमें ऐसी आशा न थी। देखो कहते क्या हैं।’
देवकी – ‘आखिर क्यों? कोई हरज है?’
देवकी ने इस आपत्ति का महत्व नहीं समझा। बोली – ‘यह तो कोई बात नहीं आज अगर कमलाप्रसाद मुसलमान हो जाए, तो क्या हम उसके पास आना-जाना छोड़ देंगे? हमसे जहाँ तक हो सकेगा, हम उसे समझाएँगे और उसे सुपथ पर लाने का उपाय करेंगे।’
देवकी – ‘नहीं, क्षमा कीजिए। इस जाने से न जाना ही अच्छा। मैं ही कल बुलवा लूँगी।’
देवकी – ‘प्रेमा उन लड़कियों में नहीं कि तुम उसका विवाह जिसके साथ चाहो कर दो। जरा जा कर उसकी दशा देखो तो मालूम हो। जब से यह खबर मिली है, ऐसा मालूम होता है कि देह में प्राण ही नहीं। अकेले छत पर पड़ी हुई रो रही है।’
देवकी – ‘कौन! मैं कहती हूँ कि वह इसी शोक में रो-रो कर प्राण दे देगी। तुम अभी उसे नहीं जानते।’
बदरीप्रसाद बाहर चले गए। देवकी बड़े असमंजस में पड़ गई। पति के स्वभाव से वह परिचित थी, लेकिन उन्हें इतना विचार-शून्य न समझती थी। उसे आशा थी कि अमृतराय समझाने से मान जाएँगे, लेकिन उनके पास जाए कैसे। पति से रार कैसे मोल ले।
देवकी ने कहा- ‘रोओ मत बेटी, मैं कल उन्हें बुलाऊँगी। मेरी बात वह कभी न टालेंगे।’
देवकी ने विस्मय से प्रेमा की ओर देखा, लड़की यह क्या कह रही है, यह उसकी समझ में न आया।
देवकी ने कहा – ‘और तेरा क्या हाल होगा, बेटी?’
देवकी ने आँसू भरी आँखों से कहा – ‘माँ-बाप किसके सदा बैठे रहते हैं बेटी! अपनी आँखों के सामने जो काम हो जाए, वही अच्छा! लड़की तो उनकी नहीं क्वाँरी रहने पाती, जिनके घर में भोजन का ठिकाना नहीं। भिक्षा माँग कर लोग कन्या का विवाह करते हैं। मोहल्ले में कोई लड़की अनाथ हो जाती है, तो चंदा माँग कर उसका विवाह कर दिया जाता है। मेरे यहाँ किस बात की कमी है। मैं तुम्हारे लिए कोई और वर तलाश करूँगी। यह जाने-सुने आदमी थे, इतना ही था, नहीं तो बिरादरी में एक से एक पड़े हुए हैं। मैं कल ही तुम्हारे बाबूजी को भेजती हूँ।’
प्रेमा ने जमीन की तरफ देखते हुए कहा – ‘नहीं अम्माँ जी, मेरे लिए आप कोई फिक्र न करें। मैंने क्वाँरी रहने का निश्चय कर लिया है।’
कमलाप्रसाद ने आते-ही-आते कहार से पूछा – ‘बरफ लाए?’
कमलाप्रसाद ने गरज कर कहा – ‘जोर से बोलो, बरफ लाए कि नहीं? मुँह में आवाज नहीं है?’
कहार ने देखा कि अब बिना मुँह खोले कानों के उखड़ जाने का भय है, तो धीरे से बोला – ‘नहीं, सरकार।’
कहार – ‘पैसे न थे।’
कहार – ‘हाँ हुजूर, किसी ने सुना नहीं।’
कमलाप्रसाद ने कपड़े भी नहीं उतारे। क्रोध में भरे हुए घर में आ कर माँ से पूछा – ‘क्या अम्माँ, बदलू तुमसे बर्फ के लिए पैसे लेने आया था?’
कमलाप्रसाद – ‘नहीं, उनसे तो भेंट नहीं हुई। उनकी तरफ गया तो था, लेकिन जब सुना कि वह किसी सभा में गए हैं, तो मैं सिनेमा चला गया। सभाओं का तो उन्हें रोग है और मैं उन्हें बिल्कुल फिजूल समझता हूँ। कोई फायदा नहीं। बिना व्याख्यान सुने भी आदमी जीता रह सकता है और व्याख्यान देने वालों के बगैर भी दुनिया के रसातल चले जाने की संभावना नहीं। जहाँ देखो वक्ता-ही-वक्ता नजर आते हैं, बरसाती मेढकों की तरह टर्र-टर्र किया और चलते हुए। अपना समय गँवाया और दूसरों को हैरान किया। सब-के-सब मूर्ख हैं।’
कमलाप्रसाद ने जोर से कहकहा मार कर कहा – ‘और ये सभाओंवाले क्या करेंगे। यही सब तो इन सभी को सूझती है। लाला अब किसी विधवा से शादी करेंगे। अच्छी बात है, मैं जरूर बारात में जाऊँगा, चाहे और कोई जाए या न जाए। जरा देखूँ, नए ढंग का विवाह कैसा होता है? वहाँ भी सब व्याख्यानबाजी करेंगे। इन लोगों के किए और क्या होगा। सब-के-सब मूर्ख हैं, अक्ल किसी को छू नहीं गई।’
कमलाप्रसाद- ‘इस वक्त तो बादशाह भी बुलाए तो न जाऊँ। हाँ, किसी दिन जा कर जरा कुशल-क्षेम पूछ आऊँगा। मगर है बिल्कुल सनकी। मैं तो समझता था, इसमें कुछ समझ होगी। मगर निरा पोंगा निकला। अब बताओ, बहुत पढ़ने से क्या फायदा हुआ? बहुत अच्छा हुआ कि मैंने पढ़ना छोड़-छाड़ दिया। बहुत पढ़ने से बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। जब आँखें कमजोर हो जाती हैं, तो बुद्धि कैसे बची रह सकती है? तो कोई विधवा भी ठीक हो गई कि नहीं? कहाँ हैं मिसराइन, कह दो अब तुम्हारी चाँदी है, कल ही संदेशा भेज दें। कोई और न जाए तो मैं जाने को तैयार हूँ। बड़ा मजा रहेगा। कहाँ हैं मिसरानी, अब उनके भाग्य चमके। रहेगी बिरादरी ही की विधवा न? कि बिरादरी की भी कैद नहीं रही?’
कमलाप्रसाद – ‘यह सभावाले जो कुछ न करें, वह थोड़ा। इन सभी को बैठे-बैठे ऐसी ही बेपर की उड़ाने की सूझती है। एक दिन पंजाब से कोई बौखल आया था, कह गया, जात-पाँत तोड़ दो, इससे देश में फूट बढ़ती है। ऐसे ही एक और जाँगलू आ कर कह गया, चमारों-पासियों को भाई समझना चाहिए। उनसे किसी तरह का परहेज न करना चाहिए। बस, सब-के-सब, बैठे-बैठे यही सोचा करते हैं कि कोई नई बात निकालनी चाहिए। बुड्ढे गांधी जी को और कुछ न सूझी तो स्वराज्य ही का डंका पीट चले। सबों ने बुद्धि बेच खाई है।’
पूर्णा को देखते ही प्रेमा दौड़ कर उसके गले से लिपट गई। पड़ोस में एक पंडित वसंत कुमार रहते थे। किसी दफ्तर में क्लर्क थे। पूर्णा उन्हीं की स्त्री थी, बहुत ही सुंदर, बहुत ही सुशील। घर में दूसरा कोई न था। जब दस बजे पंडित जी दफ्तर चले जाते, तो यहीं चली आती और दोनों सहेलियाँ शाम तक बैठी हँसती-बोलती रहतीं। प्रेमा को इतना प्रेम था कि यदि किसी दिन वह किसी कारण से न आती तो स्वयं उसके घर चली जाती। आज वसंत कुमार कहीं दावत खाने गए थे। पूर्णा का जी उब उठा, यहाँ चली आई। प्रेमा उसका हाथ पकड़े हुए ऊपर अपने कमरे में ले गई।
प्रेमा – ‘भैया में किसी तरफ ताकने की लत नहीं है। यही तो उनमें एक गुण है। पतिदेव कहीं गए हैं क्या?’
प्रेमा – ‘सभा में नहीं गए? आज तो बड़ी भारी सभा हुई है।’
प्रेमा – ‘आज की सभा देखने लायक थी। तुम होती तो मैं भी जाती, समाज सुधार पर एक महाशय का बहुत अच्छा व्याख्यान हुआ।’
प्रेमा ने हँस कर कहा – ‘नहीं बहन, समाज में स्त्री और पुरुष दोनों ही हैं और जब तक दोनों की उन्नति न होगी, जीवन सुखी न होगा। पुरुष के विद्वान होने से क्या स्त्री विदुषी हो जाएगी? पुरुष तो आखिरकार सादे ही कपड़े पहनते हैं, फिर स्त्रियाँ क्यों गहनों पर जान देती हैं? पुरूषों में तो कितने ही क्वाँरे रह जाते हैं, स्त्रियों को क्यों बिना विवाह किए जीवन व्यर्थ जान पड़ता ? बताओ? मैं तो सोचती हूँ, क्वाँरी रहने में जो सुख है, वह विवाह करने में नहीं है।’
प्रेमा ने अमृतराय की प्रतिज्ञा का हाल न कहा। वह जानती थी कि इससे पूर्णा की निगाह में उनका आदर बहुत कम जो जाएगा। बोली – ‘वह स्वयं विवाह न करेंगे।’
प्रेमा – ‘नहीं बहन, झूठ नहीं है। विवाह करने की इच्छा नहीं है। शायद कभी नहीं थी। दीदी के मर जाने के बाद, वह कुछ विरक्त-से हो गए थे। बाबूजी के बहुत घेरने पर और मुझ पर दया करके वह विवाह करने पर तैयार हुए थे, पर अब उनका विचार बदल गया है और मैं भी समझती हूँ कि जब एक आदमी स्वयं गृहस्थी के झंझट में न फँस कर कुछ सेवा करना चाहता है, तो उसके पाँव की बेड़ी न बनना चाहिए। मैं तुमसे सत्य कहती हूँ, पूर्णा, मुझे इसका दुःख नहीं है, उनकी देखा-देखी मैं भी कुछ कर जाऊँगी।’
प्रेमा – ‘बिना कहे भी तो आदमी अपनी इच्छा प्रकट कर सकता है ।’
प्रेमा – ‘नहीं पूर्णा, तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ। पत्र-वत्र न लिखना, मैं किसी के शुभ-संकल्प में विघ्न न डालूँगी। मैं यदि और कोई सहायता नहीं कर सकती, तो कम-से-कम उनके मार्ग का कंटक न बनूँगी।’
प्रेमा – ‘ऐसा कोई दुःख नहीं है, जो आदमी सह न सके। वह जानते हैं कि मुझे इससे दुःख नहीं, हर्ष होगा, नहीं तो वह कभी यह इरादा न करते। मैं ऐसे सज्जन प्राणी का उत्साह बढ़ाना अपना धर्म समझती हूँ। उसे गृहस्थी में नहीं फँसाना चाहती।’
प्रेमा – ‘तो फिर उन्हें भी होगा।’
प्रेमा – ‘तो मैं भी अपना हृदय कठोर बना लूँगी।’
प्रेमा ने हारमोनियम सँभाला और पूर्णा गाने लगी।
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