उपन्यास – प्रतिज्ञा – 7 – (लेखक – मुंशी प्रेमचंद)
लाला बदरीप्रसाद को दाननाथ का पत्र क्या मिला आघात के साथ ही अपमान भी मिला। वह अमृतराय की लिखावट पहचानते थे। उस पत्र की सारी नम्रता, विनय और प्रण, उस लिपि में लोप हो गए। मारे क्रोध के उनका मस्तिष्क खौल उठा। दाननाथ के हाथ क्या टूट गए, जो उसने अमृतराय से यह पत्र लिखाया। क्या उसके पाँव में मेंहदी लगी थी, जो यहाँ तक न आ सकता था? और यह अमृतराय भी कितना निर्लज्ज है। वह ऐसा पत्र कैसे लिख सकता है! जरा भी शर्म नहीं आई।
लाला दाननाथ जी, आपने अमृतराय से यह पत्र लिखा कर मेरा और प्रेमा का जितना आदर किया है, उसका आप अनुमान नहीं कर सकते। उचित तो यही था कि मैं उसे फाड़ कर फेंक देता और आपको कोई जवाब न देता, लेकिन…
बदरीप्रसाद ने कागज की ओर सिर झुकाए हुए कहा – ‘अमृतराय का कोई खत नहीं आया।’
बदरीप्रसाद – ‘हाँ, आदमी तो उन्हीं का था, पर खत दाननाथ का था। उसी का जवाब लिख रहा हूँ। महाशय ने अमृतराय से खत लिखाया है और नीचे अपने दस्तखत कर दिए हैं। अपने हाथ से लिखते शर्म आती थी, बेहूदा, शोहदा…’
बदरीप्रसाद- ‘यह पड़ा तो है, देख क्यों नहीं लेती?’
बदरीप्रसाद – ‘तो देखो। अभी तो शुरू किया है। ऐसी खबर लूँगा कि बच्चा सारा शोहदापन भूल जाए।’
बदरीप्रसाद ने कड़क कर पूछा – ‘फाड़ क्यों दिया। तुम कौन होती हो मेरा खत फाड़नेवाली?’
बदरीप्रसाद – ‘हाँ और क्या, लड़की तो तुम्हारी है, मेरी तो कोई होती ही नहीं।’
बदरीप्रसाद – ‘दुनिया योग्य वरों से खाली नहीं, एक-से-एक पड़े हुए हैं।’
बदरीप्रसाद – ‘उसने अपने हाथ से क्यों खत नहीं लिखा? मेरा तो यही कहना है। क्या उसे इतना भी मालूम नहीं कि इसमें मेरा कितना अनादर हुआ? सारी परीक्षाएँ तो पास किए बैठा है। डॉक्टर भी होने जा रहा है, क्या उसको इतना भी नहीं मालूम? स्पष्ट बात है दोनों मिल कर मेरा अपमान करना चाहते हैं।’
बदरीप्रसाद ने हँस कर कहा – ‘मैं तुम्हें तलाश करने गया था।’
बदरीप्रसाद ने झेंपते हुए कहा – ‘इतना तो मैं भी समझता हूँ, क्या ऐसा गँवार हूँ?’
बदरीप्रसाद – ‘मुझे अब यह अफसोस हो रहा है कि पहले दानू से क्यों न विवाह कर दिया। इतने दिनों तक व्यर्थ में अमृतराय का मुँह क्यों ताकता रहा। आखिर वही करना पड़ा।’
बदरीप्रसाद – ‘लेकिन प्रेमा उसे स्वीकार करेगी, पहले यह तो निश्चय कर लो। ऐसा न हो, मैं यहाँ हामी भर लूँ और प्रेमा इनकार कर ले। इस विषय में उसकी अनुमति ले लेनी चाहिए।’
बदरीप्रसाद – ‘अच्छा, तभी तुम बार-बार मैके जाया करती थी। अब समझा।’
बदरीप्रसाद – ‘तुमने अपनी बात कह डाली, तो मैं भी कहे डालता हूँ, मेरा भी एक मुसलमान लड़की से प्रेम हो गया था। मुसलमान होने को तैयार था। रंगरूप में अप्सरा थी, तुम उसके पैरों की धूल को भी नहीं पहुँच सकती। मुझे अब तक उसकी याद सताया करती है।’
बदरीप्रसाद – ‘जरा प्रेमा को बुला लो, पूछ लेना ही अच्छा है।’
बदरीप्रसाद – ‘रो-रो कर प्राण तो न दे देगी।’
बदरीप्रसाद – ‘अच्छा, मैं ही एक बार उससे पूछूँगा। इन पढ़ी-लिखी लड़कियों का स्वभाव कुछ और हो जाता है। अगर उनके प्रेम और कर्तव्य में विरोध हो गया, तो उनका समस्त जीवन दुःखमय हो जाता है। वे प्रेम और कर्तव्य पर उत्सर्ग करना नहीं जानती या नहीं चाहती। हाँ, प्रेम और कर्तव्य में संयोग हो जाए, तो उनका जीवन आदर्श हो जाता है। ऐसा ही स्वभाव प्रेमा का भी जान पड़ता है। मैं दानू को लिखे देता हूँ कि मुझे कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन प्रेमा से पूछ कर ही निश्चय कर सकूँगा।’
बदरीप्रसाद ने जरा माथा सिकोड़ कर पूछा – ‘कमाने का ढंग कैसा, मैं नहीं समझा?’
बदरीप्रसाद – ‘पचास ही हजार बनाए, तो क्या बनाए, मैं तो समझता हूँ, एक लाख से कम पर हाथ न मारेंगे।’
बदरीप्रसाद – ‘जा कर कुछ दिनों उनकी शागिर्दी करो, इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है।’
बदरीप्रसाद – ‘जरा भी नहीं। तुम कभी झूठ बोले ही नहीं, भला आज क्यों झूठ बोलने लगे। सत्य के अवतार तुम्हीं तो हो।’
कमलाप्रसाद – ‘अच्छा, मैं ही झूठा सही, इसमें झगड़ा काहे का, थोड़े दिनों में आपकी कलई खुल जाएगी। आप जैसे सरल जीव संसार में न होते तो ऐसे धूर्तों की थैलियाँ कौन भरता?’
कमलाप्रसाद – ‘यहाँ इन बातों से नहीं डरते। लगी-लिपटी बातें करना भाता ही नहीं। कहूँगा सत्य ही, चाहे किसी को अच्छा लगे या बुरा। वह हमारा अपमान करते हैं, तो हम उनकी पूजा न करेंगे। आखिर वह हमारे कौन होते हैं, जो हम उनकी करतूतों पर परदा डालें? मैं तो उन्हें इतना बदनाम करूँगा कि वह शहर में किसी को मुँह न दिखा सकेंगे।’
बदरीप्रसाद ने विस्मित हो कर कहा – ‘दाननाथ! वह भला क्यों अमृतराय पर आक्षेप करने लगा। उससे जैसे मैत्री है, वैसी तो मैंने और कहीं देखी नहीं।’
बदरीप्रसाद – ‘कमलाप्रसाद कहते थे?’
बदरीप्रसाद – ‘कमलाप्रसाद झूठ बोल रहा है, सरासर झूठ! दानू को मैं खूब जानता हूँ। उसका-सा सज्जन बहुत कम मैंने देखा है। मुझे तो विश्वास है कि आज अमृतराय के हित के लिए प्राण देने का अवसर आ जाए, तो दानू शौक से प्राण दे देगा। आदमी क्या हीरा है। मुझसे जब मिलता है, बड़ी नम्रता से चरण छू लेता है।’
बदरीप्रसाद – ‘अबकी डॉक्टर हो जाएगा।
पत्र का आशय क्या है, प्रेमा इसे तुरंत ताड़ गई। उसका हृदय जोर से धड़कने लगा। उसने काँपते हुए हाथों से पत्र ले लिया पर कैसा रहस्य! लिखावट तो साफ अमृतराय की है। उसकी आँखें भर आईं। लिखावट पर यह लिपि देख कर एक दिन उसका हृदय कितना फूल उठता था। पर आज! वही लिपि उसकी आँखों में काँटों की भाँति चुभने लगी। एक-एक अक्षर, बिच्छू की भाँति हृदय में डंक मारने लगा। उसने पत्र निकाल कर देखा – वही लिपि थी, वही चिर-परिचित सुंदर स्पष्ट लिपि, जो मानसिक शांति की द्योतक होती है। पत्र का आशय वही था, जो प्रेमा ने समझा था। वह इसके लिए पहले ही से तैयार थी। उसको निश्चय था कि दाननाथ इस अवसर पर न चूकेंगे। उसने इस पत्र का जवाब भी पहले ही से सोच रखा था, धन्यवाद के साथ साफ इनकार। पर यह पत्र अमृतराय की कलम से निकलेगा, इसकी संभावना ही उसकी कल्पना से बाहर थी। अमृतराय इतने हृदय-शून्य हैं, इसका उसे गुमान भी न हो सकता था। वही हृदय जो अमृतराय के साथ विपत्ति के कठोरतम आघात और बाधाओं की दुस्सह यातनाएँ सहन करने को तैयार था, इस अवहेलना की ठेस को न सह सका। वह अतुल प्रेम, वह असीम भक्ति जो प्रेमा ने उसमें बरसों से संचित कर रखी थी, एक दीर्घ शीतल विश्वास के रूप में निकल गई। उसे ऐसा जान पड़ा मानो उसके संपूर्ण अंग शिथिल हो गए हैं, मानो हृदय भी निस्पंद हो गया है, मानो उसका अपनी वाणी पर लेशमात्र भी अधिकार नहीं है। उसके मुख, से ये शब्द निकल पड़े – ‘आपकी जो इच्छा हो वह कीजिए, मुझे सब स्वीकार है। वह कहने जा रही थी – जब कुएँ में गिरना है, तो जैसे पक्का वैसे कच्चा, उसमें कोई भेद नहीं। पर जैसे किसी ने उसे सचेत कर दिया। वह तुरंत पत्र को वहीं फेंक कर अपने कमरे में लौट आई और खिड़की के सामने खड़ी हो कर फूट-फूट कर रोने लगी।’
संध्या हो गई थी। आकाश में एक-एक करके तारे निकलते आते थे। प्रेमा के हृदय में भी उसी प्रकार एक-एक करके स्मृतियाँ जागृत होने लगीं। देखते-देखते सारा गगन-मंडल तारों से जगमगा उठा। प्रेमा का हृदयाकाश भी स्मृतियों से आच्छन्न हो गया, पर इन असंख्य तारों से आकाश का अंधकार क्या और भी गहन नहीं हो गया था?
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