उपन्यास – रंगभूमि – 5 – (लेखक – मुंशी प्रेमचंद)
मिस्टर जॉन सेवक ने ताहिर अली की मेहनत और ईमानदारी से प्रसन्न होकर खालों पर कुछ कमीशन नियत कर दिया था। इससे अब उनकी आय अच्छी हो गई थी, जिससे मिल के मजदूरों पर उनका रोब था, ओवरसियर और छोटे-छोटे क्लर्क उनका लिहाज करते थे। लेकिन आय-वृध्दि के साथ उनके व्यय में भी खासी वृध्दि हो गई थी। जब यहाँ अपने बराबर के लोग न थे; फटे जूतों पर ही बसर कर लिया करते, खुद बाजार से सौदा-सुलफ लाते, कभी-कभी पानी भी खींच लेते थे। कोई हँसनेवाला न था। अब मिल के कर्मचारियों के सामने उन्हें ज्यादा शान से रहना पड़ता था और कोई मोटा काम अपने हाथ से करते हुए शर्म आती थी। इसलिए विवश होकर एक बुढ़िया मामा रख ली थी। पान-इलायची आदि का खर्च कई गुना बढ़ गया था। उस पर कभी-कभी दावत भी करनी पड़ती थी। अकेले रहनेवाले से कोई दावत की इच्छा नहीं करता। जानता है, दावत फीकी होगी। लेकिन सकुटुम्ब रहनेवालों के लिए भागने का कोई द्वार नहीं रहता। किसी ने कहा-खाँ साहब, आज जरा जरदे पकवाइए, बहुत दिन हुए, रोटी-दाल खाते-खाते जबान मोटी पड़ गई। ताहिर अली को इसके जवाब में कहना ही पड़ता-हाँ-हाँ, लीजिए, आज बनवाता हूँ। घर में एक ही स्त्राी होती, तो उसकी बीमारी का बहाना करके टालते, लेकिन यहाँ तो एक छोड़ तीन-तीन महिलाएँ थीं। फिर ताहिर अली रोटी के चोर न थे। दोस्तों के आतिथ्य में उन्हें आनंद आता था। सारांश यह कि शराफत के निबाह में उनकी बधिाया बैठी जाती थी। बाजार में तो अब उनकी रत्ती-भर भी साख न रही थी, जमामार प्रसिध्द हो गए थे, कोई धोले की चीज को भी न पतियाता, इसलिए मित्राों से हथफेर रुपये लेकर काम चलाया करते। बाजारवालों ने निराश होकर तकाजा करना ही छोड़ दिया, समझ गए कि इसके पास है ही नहीं, देगा कहाँ से? लिपि-बध्द ऋण्ा अमर होता है। वचन-बध्द ऋण निर्जीव और नश्वर। एक अरबी घोड़ा है, जो एड़ नहीं सह सकता; या तो सवार का अंत कर देगा या अपना। दूसरा लद्दू टट्टू है, जिसे उसके पैर नहीं, कोड़े चलाते हैं; कोड़ा टूटा या सवार का हाथ रुका, तो टट्टई बैठा, फिर नहीं उठ सकता।
लेकिन मित्राों के आतिथ्य-सत्कार ही तक रहता, तो शायद ताहिर अली किसी तरह खींच-तानकर दोनों चूल बराबर कर लेते। मुसीबत यह थी कि उनके छोटे भाई माहिर अली इन दिनों मुरादाबाद के पुलिस-ट्रेनिंग स्कूल में भरती हो गए थे। वेतन पाते ही उसका आधाा, ऑंखें बंद करके मुरादाबाद भेज देना पड़ता था। ताहिर अली खर्च से डरते थे, पर उनकी दोनों माताओं ने उन्हें ताने देकर घर में रहना मुश्किल कर दिया। दोनों ही की यह हार्दिक लालसा थी कि माहिर अली पुलिस में जाए और दारोगा बने। बेचारे ताहिर अली महीनों तक हुक्काम के बँगलों की खाक छानते रहे; यहाँ जा, वहाँ जा; इन्हें डाली, उन्हें नजराना पेश कर; इनकी सिफारिश करवा, उनकी चिट्ठी ला। बारे मिस्टर जॉन सेवक की सिफारिश काम कर गई। ये सब मोरचे तो पार हो गए। अंतिम मोरचा डॉक्टरी परीक्षा थी। यहाँ सिफारिश और खुशामद की गुजर न थी।32 रुपये सिविल सर्जन के लिए 16 रुपये असिस्टैंट सर्जन के लिए और 8 रुपये क्लर्क तथा चपरासियों के लिए, कुल 56 रुपये जोड़ था। ये रुपये कहाँ से आएँ? चाराेंं ओर से निराश होकर ताहिर अली कुल्सूम के पाए आए और बोले-तुम्हारे पास कोई जेवर हो, तो दे दो, मैं बहुत जल्द छुड़ा दूँगा। उसने तिनककर संदूक उनके सामने पटक दिया और कहा-यहाँ गहनों की हवस नहीं, सब आस पूरी हो चुकी। रोटी-दाल मिलती जाए, यही गनीमत है। तुम्हारे गहने तुम्हारे सामने हैं, जो चाहो, करो। ताहिर अली कुछ देर तक शर्म से सिर न उठा सके। फिर संदूक की ओर देखा। ऐसी एक भी वस्तु न थी, जिससे इसकी चौथाई रकम मिल सकती। हाँ, सब चीजों को कूड़ा कर देने पर काम चल सकता था। सकुचाते हुए सब चीजें निकालकर रूमाल में बाँधाी और बाहर आकर इस सोच में बैठे थे कि इन्हें क्योंकर ले जाऊँ कि इतने में मामा आई। ताहिर अली को सूझी, क्यों न इसकी मारफत रुपये मँगवाऊँ। मामाएँ इन कामों में निपुण होती हैं। धाीरे से बुलाकर उससे यह समस्या कही। बुढ़िया ने कहा-मियाँ, यह कौन-सी बड़ी बात है, चीज तो रखनी है, कौन किसी से खैरात माँगते हैं। मैं रुपये ला दूँगी, आप निसाखातिर रहें। गहनों की पोटली लेकर चली, तो जैनब ने देखा। बुलाकर बोलीं-तू कहाँ लिए-लिए फिरेगी, मैं माहिर अली से रुपये मँगवाए देती हूँ, उनका एक दोस्त साहूकारी का काम करता है। मामा ने पोटली उसे दे दी, दो घंटे बाद अपने पास से 56 रुपये निकालकर दे दिए। इस भाँति यह कठिन समस्या हल हुई। माहिर अली मुरादाबाद सिधाारे और तब से वहीं पढ़ रहे थे। वेतन का आधाा भाग वहाँ निकल जाने के बाद शेष में घर का खर्च बड़ी मुश्किल से पूरा पड़ता। कभी-कभी उपवास करना पड़ जाता। उधार माहिर अली आधो पर ही संतोष न करते। कभी लिखते, कपड़ों के लिए रुपये भेजिए; कभी टेनिस खेलने के लिए सूट की फरमाइश करते। ताहिर अली को कमीशन के रुपयों में से भी कुछ-न-कुछ वहाँ भेज देना पड़ता था।
एक दिन रात-भर उपवास करने के बाद प्रात:काल जैनब ने आकर कहा-आज रुपयों की कुछ फिक्र की, या आज भी रोजा रहेगा।
ताहिर अली ने चिढ़कर कहा-मैं अब कहाँ से लाऊँ? तुम्हारे सामने कमीशन के रुपये मुरादाबाद भेज दिए थे। बार-बार लिखता हूँ कि किफायत से खर्च करो, मैं बहुत तंग हूँ; लेकिन वह हजरत फरमाते हैं, यहाँ एक-एक लड़का घर से सैकड़ों मँगवाता है और बेदरेग खर्च करता है, इससे ज्यादा किफायत मेरे लिए नहीं हो सकती। जब उधार का यह हाल है, इधार का यह हाल, तो रुपये कहाँ से लाऊँ? दोस्तों में भी तो कोई ऐसा नहीं बचा, जिससे कुछ माँग सकूँ।
जैनब-सुनती हो रकिया, इनकी बातें? लड़के को खर्च क्या दे रहे हैं, गोया मेरे ऊपर कोई एहसान कर रहे हैं। मुझे क्या, तुम उसे खर्च भेजो या बुलाओ। उसके वहाँ पढ़ने से यहाँ पेट थोड़े ही भर जाएगा। तुम्हारा भाई है, पढ़ाओ या न पढ़ाओ, मुझ पर क्या एहसान!
ताहिर-तो तुम्ही बताओ, रुपये कहाँ से लाऊँ?
जैनब-मरदों के हजार हाथ होते हैं। तुम्हारे अब्बाजान दस ही रुपये पाते थे कि ज्यादा? 20 रुपये तो मरने के कुछ दिन पहले हो गए थे। आखिर कुनबे को पालते थे कि नहीं। कभी फाके की नौबत नहीं आई। मोटा-महीन दिन में दो बार जरूर मयस्सर हो जाता था। तुम्हारी तालीम हुई, शादी हुई, कपड़े-लत्तो भी आते थे। खुदा के करम से बिसात के मुआफिक गहने भी बनते थे। वह तो मुझसे कभी न पूछते थे, कहाँ से रुपये लाऊँ? आखिर कहीं से लाते ही तो थे!
ताहिर-पुलिस के मुहकमे में हर तरह की गुंजाइश होती है। यहाँ क्या है, गिनी बोटियाँ, नपा शोरबा।
जैनब-मैं तुम्हारी जगह होती, तो दिखा देती कि इसी नौकरी में कैसे कंचन बरसता। सैकड़ों चमार हैं। क्या कहो, तो सब एक-एक गट्ठा लकड़ी न लाएँ? सबों के यहाँ छान-छप्पर पर तरकारियाँ लगी होंगी? क्यों न तुड़वा मँगाते? खालोें के दाम में भी कमी-बेशी करने का तुम्हें अख्तियार है। कोई यहाँ बैठा देख नहीं रहा है। दस के पौने दस लिख दो, तो क्या हरज हो? रुपये की रसीदों पर ऍंगूठे का निशान ही न बनवाते हो? निशान पुकारने जाता है कि मैं दस हूँ या पौने दस? फिर अब तुम्हारा एतबार जम गया। साहब को सुभा भी नहीं हो सकता। आखिर इस एतबार से कुछ अपना फायदा भी तो हो कि सारी जिंदगी दूसरों ही का पेट भरते रहोगे? इस वक्त भी तुम्हारी रोकड़ में सैकड़ों रुपये होंगे। जितनी जरूरत समझो, इस वक्त निकाल लो। जब हाथ में रुपये आएँ, रख देना। रोज की आमदनी-खर्च का मीजान की मिलना चाहिए न? यह कौन-सी बड़ी बात है? आज खाल का दाम न दिया, कल दिया, इसमें क्या तरद्दुद है? चमार कहीं फरियाद करने न जाएगा। सभी ऐसा करते हैं, और इसी तरह दुनिया का काम चलता है। ईमान दुरुस्त रखना हो, तो इंसान को चाहिए कि फकीर हो जाए।
रकिया-बहन, ईमान है कहाँ, जमाने का काम तो इसी तरह चलता है।
ताहिर-भाई, जो लोग करते हों, वे जानें, मेरी तो इन हथकंडों से रूह फना होती है। अमानत में हाथ नहीं लगा सकता। आखिर खुदा को भी तो मुँह दिखाना है। उसकी मरजी हो, जिंदा रखे या मार डाले।
जैनब-वाह रे मरदुए, कुरबान जाऊँ तेरे ईमान पर। तेरा ईमान सलामत रहे, चाहे घर के आदमी भूखों मर जाएँ। तुम्हारी मंशा यही है कि सब मुँह में कालिख लगाकर कहीं निकल जाएँ। बस, और कुछ नहीं। फिक्र तो आदमी को अपने बीवी-बच्चों की होती है। उनके लिए बाजार मौजूद है। फाका तो हमारे लिए है। उनका फाका तो महज दिखावा है।
ताहिर अली ने इस मिथ्या आक्षेप पर क्षुब्धा होकर कहा-क्यों जलाती हो, अम्मी जान! खुदा गवाह है, जो बच्चे के लिए धोले की भी कोई चीज ली हो। मेरी तो नीयत कभी ऐसी न थी, न है, न होगी, यों तुम्हारी तबीयत है, जो चाहो समझो।
रकिया-दोनों बच्चे रात-भर तड़पते रहे, ‘अम्माँ, रोटी, अम्माँ रोटी!’ पूछो, अम्माँ क्या आप रोटी हो जाए! तुम्हारे बच्चे और नहीं तो ओवरसियर के घर चले जाते हैं, वहाँ से कुछ-न-कुछ खा-पी आते हैं। यहाँ तो मेरी ही जान खाते हैं।
जैनब-अपने बाल-बच्चों को खिलाने-न-खिलाने का तुम्हेंं अख्तियार है। कोई तुम्हारा हिसाबिया तो है नहीं, चाहे शीरमाल खिलाओ या भूखों रखो। हमारे बच्चों को तो घर की रूखी रोटियों के सिवा और कहीं ठिकाना नहीं। यहाँ कोई वली नहीं है, जो फाकों से जिंदा रहे। जाकर कुछ इंतजाम करो।
ताहिर अली बाहर आकर बड़ी देर घोर चिंता में खड़े रहे। आज पहली बार उन्होंने अमानत के रुपये को हाथ लगाने का दुस्साहस किया। पहले इधार-उधार देखा, कोई खड़ा हो नहीं है, फिर बहुत धाीरे से लोहे का संदूक खोला। यों दिन में सैकड़ों बार वही संदूक खोलते, बंद करते थे; पर इस वक्त उनके हाथ थर-थर काँप रहे थे। आखिर उन्होंने रुपये निकाल लिए, तब सेफ बंद किया। रुपये लाकर जैनब के सामने फेंक दिए और बिना कुछ कहे-सुने बाहर चले गए। दिल को यों समझाया-अगर खुदा को मंजूर होता कि मेरा ईमान सलामत रहे, तो क्यों इतने आदमियों का बोझ मेरे सिर पर डाल देता। यह बोझ सिर पर रखा था, तो उसके उठाने की ताकत भी तो देनी चाहिए थी। मैं खुद फाके कर सकता हूँ, पर दूसरों को तो मजबूर नहीं कर सकता। अगर इस मजबूरी की हालत में खुदा मुझे सजा के काबिल समझे, तो वह मुंसिफ नहीं है। इस दलील से उन्हें कुछ तस्कीन हुई। लेकिन मि. जॉन सेवक तो इस दलील से माननेवाले आदमी न थे। ताहिर अली सोचने लगे, कौन चमार सबसे मोटा है, जिसे आज रुपये न दूँ, तो चीं-चपड़ न करे। नहीं, मोटे आदमी के रुपये रोकना मुनासिब नहीं, मोटे आदमी निडर होते हैं। कौन जाने, किसी से कह ही बैठे। जो सबसे गरीब, सबसे सीधाा हो, उसी के रुपये रोकने चाहिए। इसमें कोई डर नहीं। चुपके से बुलाकर ऍंगूठे के निशान बनवा लूँगा। उसकी हिम्मत ही न पड़ेगी कि किसी से कहे। उस दिन से उन्हें जब जरूरत पड़ती, रोकड़ से रुपये निकाल लेते, फिर रख देते। धाीरे-धाीरे रुपये पूरे कर देने की चिंता कम होने लगी। रोकड़ में रुपयों की कमी पड़ने लगी। दिल मजबूत होता गया। यहाँ तक कि छठा महीने जाते-जाते वह रोकड़ के पूरे डेढ़ सौ रुपये खर्च कर चुके थे।
अब ताहिर अली को नित्य यही चिंता बनी रहती कि कहीं बात खुल न जाए। चमारों से लल्लो-चप्पो की बातें करते। कोई ऐसा उपाय सोच निकालना चाहते थे कि रोकड़ में इन रुपयों का पता न चले। लेकिन बही-खाते में हेर-फेर करने की हिम्मत न पड़ती थी। घर में भी किसी से यह बात न कहते। बस, खुदा से यही दुआ करते थे कि माहिर अली आ जाए। उन्हें 100 रुपये महीना मिलेंगे। दो महीने में अदा कर दूँगा। इतने दिन साहब हिसाब की जाँच न करें, तो बेड़ा पार है।
उन्होंने दिल में निश्चय किया, अब कुछ ही हो, और रुपये न निकालूँगा। लेकिन सातवें महीने में फिर 25 रुपये निकालने पड़ गए। अब माहिर अली का साल भी पूरा हो चला था। थोड़े ही दिनों की और कसर थी। सोचा, आखिर मुझे उसी की बदौलत तो यह जेरबारी हो रही है। ज्यों ही आया, मैंने घर उसे सौंपा। कह दूँगा, भाई, इतने दिनों तक मैंने सँभाला। अपने से जो कुछ बन पड़ा, तुम्हारी तालीम में खर्च किया,तुम्हारा रोजगार लगा दिया। अब कुछ दिनों के लिए मुझे इस फिक्र से नजात दो। उसके आने तक यह परदा ढका रह जाए, तो दुम झाड़कर निकल जाता। पहले यह ऐसी ही कोई जरूरत पड़ने पर साहब के पास जाते थे। अब दिन में एक बार जरूर मिलते। मुलाकातों से संदेह को शांत रखना चाहते थे। जिस चीज से टक्कर लगने का भय होता है, उससे हम और भी चिमट जाते हैं! कुल्सूम उनसे बार-बार पूछती कि आजकल तुम इतने रुपये कहाँ पा जाते हो? समझाती-देखो, नीयत न खराब करना। तकलीफ और तंगी से बसर करना इतना बुरा नहीं,जितना खुदा के सामने गुनहगार बनना। लेकिन ताहिर अली इधार-उधार की बातें करके उसे बहला दिया करते थे।
एक दिन सुबह को ताहिर अली नमाज अदा करके दफ्तर में आए तो देखा, एक चमार खड़ा रो रहा है। पूछा, क्या बात है? बोला-क्या बताऊँ खाँ साहब, रात घरवाली गुजर गई। अब उसका किरिया-करम करना है, मेरा जो कुछ हिसाब हो, दे दीजिए, दौड़ा हुआ आया हूँ, कफन के रुपये भी पास नहीं हैं। ताहिर अली की तहवील में रुपये कम थे। कल स्टेशन से माल भेजा था, महसूल देने में रुपये खर्च हो गए थे। आज साहब के सामने हिसाब पेश करके रुपये लानेवाले थे। इस चमार को कई खालों के दाम देने थे। कोई बहाना न कर सके। थोड़े-से रुपये लाकर उसे दिए।
चमार ने कहा-हुजूर, इतने में तो कफन भी पूरा न होगा। मरनेवाली अब फिर तो आएगी नहीं, उसका किरिया-करम तो दिल खोलकर दूँ। मेरे जितने रुपये आते हैं, सब दे दीजिए। यहाँ तो जब तक दस बोतल दारू न होगी, लाश दरवज्जे से न उठेगी।
ताहिर अली ने कहा-इस वक्त रुपये नहीं हैं, फिर ले जाना।
चमार-वाह खाँ साहब, वाह! ऍंगूठे का निशान कराए तो महीनों हो गए; अब कहते हो फिर ले जाना। इस बखत न दोगे, तो क्या आकबत में दोगे? चाहिए तो यह था कि अपनी ओर से कुछ मदद करते, उलटे मेरे ही रुपये बाकी रखते हो।
ताहिर अली कुछ रुपये और लाए। चमार ने सब रुपये जमीन पर पटक दिए और बोला-आप थूक से चुहिया जिलाते हैं! मैं आपसे उधाार नहीं माँगता हूँ, और आप यह कटूसी कर रहे हैं, जानो घर से दे रहे हों।
ताहिर अली ने कहा-इस वक्त इससे ज्यादा मुमकिन नहीं।
चमार था तो सीधाा, पर उसे कुछ संदेह हो गया, गर्म पड़ गया।
सहसा मिस्टर जॉन सेवक आ पहुँचे। आज झल्लाए हुए थे। प्रभु सेवक की उद्दंडता ने उन्हें अव्यवस्थित-सा कर दिया था। झमेला देखा, तो कठोर स्वर से बोले-इसके रुपये क्यों नहीं दे देते? मैंने आपसे ताकीद कर दी थी कि सब आदमियों का हिसाब रोज साफ कर दिया कीजिए। आप क्यों बाकी रखते हैं? क्या आपकी तहवील में रुपये नहीं हैं?
ताहिर अली रुपये लाने चले, तो कुछ ऐसे घबराए हुए थे कि साहब को तुरंत संदेह हो गया। रजिस्टर उठा लिया और हिसाब देखने लगे। हिसाब साफ था। इस चमार के रुपये अदा हो चुके थे। उसके ऍंगूठे का निशान मौजूद था। फिर यह बकाया कैसा? इतने में और कई चमार आ गए। इस चमार को रुपये लिए जाते देखा, तो समझे, आज हिसाब चुकता किया जा रहा है। बोले-सरकार, हमारा भी मिल जाए।
साहब ने रजिस्टर जमीन पर पटक दिया और डपटकर बोले-यह क्या गोलमाल है? जब इनसे रसीद ली गई, तो इनके रुपये क्यों नहीं दिए गए?
ताहिर अली से और कुछ तो न बन पड़ा, साहब के पैरों पर गिर पड़े और रोने लगे। सेंधा में बैठकर घूरने के लिए बड़े घुटे हुए आदमी की जरूरत होती है।
चमारों ने परिस्थिति को ताड़कर कहा-सरकार, हमारा पिछला कुछ नहीं है, हम तो आज के रुपये के लिए कहते थे। जरा देर हुई, माल रख गए थे। खाँ साहब उस बखत नमाज पढ़ते थे।
साहब ने रजिस्टर उठाकर देखा, तो उन्हें किसी-किसी नाम के सामने एक हलका-सा चिद्द दिखाई दिया। समझ गए, हजरत ने ही ये रुपये उड़ाए हैं। एक चमार से, जो बाजार से सिगरेट पीता आ रहा था, पूछा-तेरा नाम क्या है?
चमार-चुनकू।
साहब-तेरे कितने रुपये बाकी हैं?
कई चमाराेंं ने उसे हाथ के इशारे से समझाया कि कह दे, कुछ नहीं। चुनकू इशारा न समझा। बोला-17 रुपये पहले के थे, 9 रुपये आज के।
साहब ने अपनी नोटबुक पर उसका नाम टाँक लिया। ताहिर अली को कुछ कहा न सुना, एक शब्द भी न बोले। जहाँ कानून से सजा मिल सकती थी, वहाँ डाँट-फटकार की जरूरत क्या? सब रजिस्टर उठाकर गाड़ी में रखे, दफ्तर में ताला बंद किया, सेफ में दोहरे ताले लगाए,तालियाँ जेब में रखीं और फिटन पर सवार हो गए। ताहिर अली को इतनी हिम्मत भी न पड़ी कि कुछ अनुनय-विनय करें। वाणी ही शिथिल हो गई। स्तम्भित-से खड़े रह गए। चमारों के चौधारी ने दिलासा दिया-आप क्यों डरते हो खाँ साहब, आपका बाल तो बाँका होने न पाएगा। हम कह देंगे, अपने रुपये भर पाए हैं। क्यों रे, चुनकुआ, निरा गँवार ही है, इसारा भी नहीं समझता?
चुनकू ने लज्जित होकर कहा-चौधारी, भगवान् जानें, जो मैं जरा भी इशारा पा जाता, तो रुपये का नाम ही न लेता।
चौधारी-अपना बयान बदल देना; कह देना, मुझे जबानी हिसाब याद नहीं था।
चुनकू ने इसका कुछ जवाब न दिया। बयान बदलना साँप के मुँह में उँगली डालना था। ताहिर अली को इन बातों से जरा भी तस्कीन नहीं हुई। वह पछता रहे थे। इसलिए नहीं कि मैंने रुपये क्यों खर्च किए, बल्कि इसलिए कि नामों के सामने के निशान क्यों लगाए। अलग किसी कागज पर टाँक लेता, तो आज क्यों यह नौबत आती? अब खुदा ही खैर करे। साहब मुआफ करनेवाली आदमी नहीं हैं। कुछ सूझ ही न पड़ता था कि क्या करें। हाथ-पाँव फूल गए थे।
चौधारी बोला-खाँ साहब, अब हाथ-पर-हाथ धारकर बैठने से काम न चलेगा। यह साहब बड़ा जल्लाद आदमी है। जल्दी रुपये जुटाइए। आपको याद है, कुल कितने रुपये निकलते होंगे?
ताहिर-रुपयों की कोई फिक्र नहीं है जी, यहाँ तो दाग लग जाने का अफसोस है। क्या जानता था कि आज यह आफत आनेवाली है, नहीं तो पहले से तैयार न हो जाता! जानते हो, यहाँ कारखाने का एक-न-एक आदमी कर्ज माँगने को सिर पर सवार रहता है। किस-किससे हीला करूँ? और फिर मुरौवत में हीला करने से भी तो काम नहीं चलता। रुपये निकालकर दे देता हूँ। यह उसी शराफत की सजा है। 150 रुपये से कम न निकलेंगे, बल्कि चाहे 200 रुपये हो गए हों।
चौधारी-भला, सरकारी रकम इस तरह खरच की जाती है! आपने खरच की या किसी को उधाार दे दी, बात एक ही है। वे लोग रुपये दे देंगे?
ताहिर-ऐसा खरा तो एक भी नहीं। कोई कहेगा, तनख्वाह मिलने पर दूँगा। कोई कुछ बहाना करेगा। समझ मेंं नहीं आता, क्या करूँ?
चौधारी-घर में तो रुपये होंगे?
ताहिर-होने को क्या दो-चार सौ रुपये न होंगे; लेकिन जानते हो, औरत का रुपया जान के पीछे रहता है। खुदा को जो मंजूर है, वह होगा।
यह कहकर ताहिर अली अपने दो-चार दोस्तों की तरफ चले कि शायद यह हाल सुनकर लोग मेरी कुछ मदद करें, मगर कहीं न जाकर एक दरख्त के नीचे नमाज पढ़ने लगे। किसी से मदद की उम्मीद न थी।
इधार चौधारी ने चमारों से कहा-भाइयो, हमारे मुंसीजी इस बखत तंग हैं। सब लोग थोड़ी-थोड़ी मदद करो, तो उनकी जान बच जाए। साहब अपने रुपये ही न लेंगे कि किसी की जान लेंगे! समझ लो, एक दिन नसा नहीं खाया।
चौधारी तो चमारों से रुपये बटोरने लगा। ताहिर अली के दोस्तों ने यह हाल सुना, तो चुपके से दबक गए कि कहीं ताहिर अली कुछ माँग न बैठें। हाँ, जब तीसरे पहर दारोगा ने आकर तहकीकात करनी शुरू की और ताहिर अली को हिरासत में ले लिया, तो लोग तमाशा देखने आ पहुँचे। घर में हाय-हाय मच गई। कुल्सूम ने जाकर जैनब से कहा-लीजिए, अब तो आपका अरमान निकला!
जैनब ने कहा-तुम मुझसे क्या बिगड़ती हो बेगम! अरमान निकले होंगे तो तुम्हारे, न निकले होंगे तो तुम्हारे। मैंने थोड़े ही कहा था कि जाकर किसी के घर में डाका मारो। गुलछर्रे तुमने उड़ाए होंगे, यहाँ तो रोटी-दाल के सिवा और किसी का कुछ नहीं जानते।
कुल्सूम के पास तो कफन को कौड़ी भी न थी, जैनब के पास रुपये थे, पर उसने दिल जलाना ही काफी समझा। कुल्सूम की इस समय ताहिर अली से सहानुभूति न थी। उसे उन पर क्रोधा आ रहा था, जैसे किसी को अपने बच्चे को चाकू से उँगली काटते देखकर गुस्सा आए।
संधया हो रही थी। ताहिर अली के लिए दारोगा ने एक इक्का मँगवाया। उस पर चार कांस्टेबिल उन्हें लेकर बैठे। दारोगा जानता था कि यह माहिर अली के भाई हैं, कुछ लिहाज करता था। चलते वक्त बोला, अगर आपको घर में किसी से कुछ कहना हो, तो आप जा सकते हैं। औरतें घबरा रही होंगी, उन्हें जरा तस्कीन देते आइए। पर ताहिर अली ने कहा, मुझे किसी से कुछ नहीं कहना है। वह कुल्सूम को अपनी सूरत न दिखाना चाहते थे, जिसे उन्होंने जान-बूझकर गारत किया था और निराधाार छोड़े जाते थे। कुल्सूम द्वार पर खड़ी थी। उनका क्रोधा प्रतिक्षण शोक की सूरत पकड़ता जाता था, यहाँ तक कि जब इक्का चला, तो वह पछाड़ खाकर गिर पड़ी। बच्चे ‘अब्बा, अब्बा’ कहते इक्के के पीछे दौड़े। दारोगा ने उन्हें एक-एक चवन्नी मिठाई खाने को देकर फुसला दिया। ताहिर अली तो उधार हिरासत में गए, इधार घड़ी रात जाते-जाते चमारों का चौधारी रुपये लेकर मिस्टर सेवक के पास पहुँचा। साहब बोले-ये रुपये तुम उनके घरवालों को दे दो, तो उनका गुजर हो जाए। मुआमला अब पुलिस के हाथ में है, मैं कुछ नहीं कर सकता।
चौधारी-हुजूर, आदमी से खता हो ही जाती है। इतने दिनों तक आपकी चाकरी की, हुजूर को उन पर कुछ दया करनी चाहिए। बड़ा भारी परिवार है सरकार, बाल-बच्चे भूखों मर जाएँगे।
जॉन सेवक-मैं यह सब जानता हूँ, बेशक उनका खर्च बहुत था। इसीलिए मैंने माल पर कटौती दे दी थी। मैं जानता हूँ कि उन्होंने जो कुछ किया है, मजबूर होकर किया है; लेकिन विष किसी भी नीयत से खाया जाए, विष ही का काम करेगा, कभी अमृत नहीं हो सकता। विश्वासघात विष से कम घातक नहीं होता। तुम ये रुपये जाकर उनके घरवालों को दे दो। मुझे खाँ साहब से कोई बिगाड़ नहीं है, लेकिन अपने धार्म को नहीं छोड़ सकता। पाप को क्षमा करना पाप करना है।
चौधारी यहाँ से निराश होकर चला गया। दूसरे दिन अभियोग चला। ताहिर अली दोषी पाए गए। वह अपनी सफाई न पेश कर सके। छ: महीने की सजा हो गई।
जब ताहिर अली कांस्टेबिलों के साथ जेल की तरफ जा रहे थे, तो उन्हें माहिर अली ताँगे पर सवार आता हुआ दिखाई दिया। उनका हृदय गद्गद हो गया। ऑंखों से ऑंसू की झड़ी लग गई। समझे, माहिर मुझसे मिलने दौड़ा चला आता है। शायद आज ही आया है, और आते-ही-आते यह खबर पाकर बेकरार हो गया है। जब ताँगा समीप आ गया, तो वह चिल्लाकर रोने लगे। माहिर अली ने एक बार उन्हें देखा, लेकिन न सलाम-बंदगी की, न ताँगा रोका, न फिर इधार दृष्टिपात किया, मुँह फेर लिया, मानो देखा ही नहीं। ताँगा ताहिर अली की बगल से निकल गया। उनके मर्मस्थल पर एक सर्द आह निकली। एक बार फिर चिल्लाकर रोए। वह आनंद की धवनि थी, यह शोक का विलाप; वे ऑंसू की बूँदे थीं, ये खून की।
किंतु एक ही क्षण में उनकी आत्मवेदना शांत हो गई-माहिर ने मुझे देखा ही न होगा। उसकी निगाह मेरी तरफ उठी जरूरी थी, लेकिन शायद वह किसी ख्याल में डूबा हुआ था। ऐसा होता भी तो है कि जब हम किसी खयाल में होते हैं, तो न सामने की चीजें दिखाई देती हैं, न करीब की बातें सुनाई देती हैं। यही सबब है। अच्छा ही हुआ कि उसने मुझे न देखा, नहीं तो इधार मुझे पदामत होती, उधार उसे रंज होता।
उधार माहिर अली मकान पर पहुँचे, तो छोटे भाई आकर लिपट गए। ताहिर अली के दोनों बच्चे भी दौड़े, और ‘माहिर चाचा आए’ कहकर उछलने-कूदने लगे। कुल्सूम भी रोती हुई निकल आई। सलाम-बंदनी के पश्चात् माहिर अपनी माता के पास गए। उसने उन्हें छाती से लगा लिया।
माहिर-तुम्हारा खत न जाता, तो अभी मैं थोड़े ही आता। इम्तहान के बाद ही तो वहाँ मजा आता है, कभी मैच, कभी दावत, कभी सैर,कभी मुशायरे। भाई साहब को यह क्या हिमाकत सूझी!
जैनब-बेगम साहब की फरमाइशें कैसे पूरी होतीं! जेवर चाहिए, जरदा चाहिए, जरी चाहिए, कहाँ से आता! उस पर कहती हैं, तुम्हीं लोगों ने उन्हें मटियामेट किया। पूछो, रोटी-दाल में ऐसा कौन-सा छप्पन टके का खर्च था? महीनों सिर में तेल डालना नसीब न होता था। अपने पास से पैसे निकालो, तो पान खाओ। उस पर इतने ताने!
माहिर-मैंने तो स्टेशन से आते हुए उन्हें जेल जाते देखा। मैं तो शर्म के मारे कुछ न बोला, बंदगी तक न की। आखिर लोग यही न कहते कि उनका भाई जेलखाने जा रहा है! मुँह फेरकर चला आया। भैया रो पड़े। मेरा दिल भी मसोस उठा, जी चाहता था, उनके गले लिपट जाऊँ;लेकिन शर्म आ गई। थानेदार कोई मामूली आदमी नहीं होता। उसका शुमार हुक्काम में होता है। इसका खयाल न करूँगा, तो बदनाम हो जाऊँगा।
जैनब-छ: महीने की सजा हुई है।
माहिर-जुर्म तो बड़ा था, लेकिन शायद हाकिम ने रहम किया।
जैनब-तुम्हारे अब्बा का लिहाज किया होगा, नहीं तो तीन साल से कम के लिए न जाते।
माहिर-खानदान में दाग लगा दिया। बुजुर्गों की आबरू खाक में मिला दी।
जैनब-खुदा न करे कि कोई मर्द औरत का कलमा पढ़े।
इतने में मामा नाश्ते के लिए मिठाइयाँ लाए। माहिर अली ने एक मिठाई जाहिर को दी, एक जाबिर को। इन दोनों ने जाकर साबिर और नसीमा को दिखाई। वे दोनों भी दौड़े। जैनब ने कहा-जाओ, खेलते क्याें नहीं! क्या सिर पर डट गए! न जाने कहाँ के मरभुखे छोकरे हैं। इन सबों के मारे कोई चीज मुँह में डालनी मुश्किल है। बला की तरह सिर पर सवार हो जाते हैं। रात-दिन खाते ही रहते हैं, फिर भी जी नहीं भरता।
रकिया-छिछोरी माँ के बच्चे और क्या होंगे!
माहिर ने एक-एक मिठाई उन दोनों को भी दी। तब बोले-गुजर-बसर की क्या सूरत होगी? भाभी के पास तो रुपये होंगे न?
जैनब-होंगे क्यों नहीं! इन्हीं रुपयों के लिए तो खसम को जेल भेजा। देखती हूँ, क्या इंतजाम करती हैं। यहाँ किसी को क्या गरज पड़ी है कि पूछने जाए।
माहिर-मुझे अभी न जाने कितने दिनों में जगह मिले। महीना-भर लग जाए, महीने लग जाएँ। तब तक मुझे दिक मत करना।
जैनब-तुम इसका गम न करो बेटा! वह अपना सँभालें, हमारा भी खुदा हाफिज है। वह पुलाव खाकर सोएँगी, तो हमें भी रूखी रोटियाँ मयस्सर हो ही जाएँगी।
जब शाम हो गई, तो जैनब ने मामा से कहा-जाकर बेगम साहब से पूछो, कुछ सौदा-सुल्फ आएगा, या आज मातम मनाया जाएगा?
मामा ने लौट आकर कहा-वह तो बैठी रो रही हैं। कहती हैं, जिसे भूख हो, खाए, मुझे नहीं खाना है।
जैनब-देखा! यह तो मैं पहले ही कहती थी कि साफ जवाब मिलेगा। जानती है कि लड़का परदेस से आया है, मगर पैसे न निकलेंगे। अपने और अपने बच्चों के लिए बाजार से खाना मँगवा लेगी, दूसरे खाएँ या मरें, उसकी बला से। खैर, उन्हें उनके मीठे टुकड़े मुबारक रहें, हमारा भी अल्लाह मालिक है।
कुल्सूम ने जब सुना था कि ताहिर अली को छ: महीने की सजा हो गई, तभी से उसकी ऑंखों में ऍंधोरा-सा छाया हुआ था। मामा का संदेशा सुना, तो जल उठी। बोली-उनसे कह दो, पकाएँ-खाएँ, यहाँ भूख नहीं है। बच्चों पर रहम आए, तो दो नेवाले इन्हें भी दे दें।
मामा ने इसी वाक्य को अन्वय किया, जिसने अर्थ का अनर्थ कर दिया।
रात के नौ बज गए। कुल्सूम देख रही थी कि चूल्हा गर्म है। मसाले की सुगंधा नाक में आ रही थी, बघार की आवाज भी सुनाई दे रही थी; लेकिन बड़ी देर तक कोई उसके बच्चों को बुलाने न आया, तो वह बैन कर-करके रोने लगी। उसे मालूम हो गया कि घरवालों ने साथ छोड़ दिया और अब मैं अनाथ हूँ, संसार में कोई मेरा नहीं। दोनों बच्चे रोते-रोते सो गए। उन्हीं के पैताने वह भी पड़ रही। भगवान्, ये दो-दो बच्चे, पास फूटी कौड़ी नहीं, घर के आदमियों का यह हाल, यह नाव कैसे पार लगेगी!
माहिर अली भोजन करने बैठे, तो मामा से पूछा-भाभी ने भी कुछ बाजार से मँगवाया है कि नहीं।
जैनब-मामा से मँगवाएँगी, तो परदा न खुल जाएगा? खुदा के फजल से साबिर सयाना हुआ। गुपचुप सौदे वही लाता है, और इतना घाघ है कि लाख फुसलाओ, पर मुँह नहीं खोलता।
माहिर-पूछ लेना। ऐसा न हो कि हम लोग खाकर सोएँ, और वह बेचारी रोजे से रह जाएँ।
जैनब-ऐसी अनीली नहीं है, वह हम-जैसों को चरा लाएँ। हाँ, पूछना मेरा फर्ज है, पूछ लूँगी।
रकिया-सालन और रोटी, किस मुँह से खाएँगी, उन्हें तो जरदा-शीरमाल चाहिए।
दूसरे दिन सबेरे दोनों बच्चे बावर्चीखाने में गए, तो जैनब ने ऐसी कड़ी निगाहों से देखा कि दोनों रोते हुए लौट आए। अब कुल्सूम से न रहा गया। वह झल्लाकर उठी और बावर्चीखाने में जाकर मामा से बोली-तूने बच्चों को खाना क्यों नहीं दिया रे? क्या इतनी जल्दी काया-पलट हो गई? इसी घर के पीछे हम मिट्टी में मिल गए और मेरे लड़के तड़पें, किसी को दर्द न आए?
मामा ने कहा-तो आप मुझसे क्या बिगड़ती हैं, मैं कौन होती हूँ, जैसा हुकुम पाती हूँ, वैसा करती हूँ।
जैनब अपने कमरे से बोली-तुम मिट्टी में मिल गईं, तो यहाँ किसने घर भर लिया। कल तक कुछ नाता निभा जाता था, वह भी तुमने तोड़ दिया। बनिए के यहाँ से कर्ज जिंस आई, तो मुँह में दाना गया। सौ कोस से लड़का आया, तुमने बात तक न पूछी। तुम्हारी नेकी कोई कहाँ तक गाए।
आज से कुल्सूम की रोटियाँ के लाले पड़ गए। माहिर अली कभी दोनों भाइयों को लेकर नानबाई की दूकान से भोजन कर आते, कभी किसी इष्ट-मित्रा के मेहमान हो जाते। जैनब और रकिया के लिए मामा चुपके-चुपके अपने घर से खाना बना लाती। घर में चूल्हा न जलता। नसीमा और साबिर प्रात:काल घर से निकल जाते। कोई कुछ दे देता, तो खा लेते। जैनब और रकिया की सूरत से ऐसे डरते थे, जैसे चूहा बिल्ली से। माहिर के पास भी न जाते। बच्चे शत्राु और मित्रा को खूब पहचानते हैं। अब वे प्यार के भूखे नहीं, दया के भूखे थे। रही कुल्सूम,उसके लिए गम ही काफी था। वह सीना-पिरोना जानती थी, चाहती तो सिलाई करके अपना निर्वाह कर लेती; पर जलन के मारे कुछ न करती थी। वह माहिर के मुँह में कालिख लगाना चाहती थी, चाहती थी कि दुनिया मेरी दशा को देखे और इन पर थूके। उसे अब ताहिर अली पर भी क्रोधा आता था-तुम इसी लायक थे कि जेल में पड़े-पड़े चक्की पीसो। अब ऑंखें खुलेंगी। तुम्हें दुनिया के हँसने की फिक्र थी। अब दुनिया किसी पर नहीं हँसती! लोग मजे से मीठे लुकमे उड़ाते और मीठी नींद सोते हैं। किसी को तो नहीं देखती कि झूठ भी इन मतलब के बंदों की फजीहत करे। किसी को गरज ही क्या पड़ी है कि किसी पर हँसे। लोग समझते होंगे, ऐसे कमसमझों, लाज पर मरनेवालों की यही सजा है।
इस भाँति एक महीना गुजर गया। एक दिन सुभागी कुल्सूम के यहाँ साग-भाजी लेकर आई। वह अब यही काम करती थी। कुल्सूम की सूरत देखी, तो बोली बहूजी, तुम तो पहचानी ही नहीं जातीं। क्या कुढ़-कुढ़कर जान दे दोगी? बिपत तो पड़ ही गई है, कुढ़ने से क्या होगा?मसल है, ऑंधाी आए, बैठ गँवाए। तुम न रहोगी तो बच्चों को कौन पालेगा? दुनिया कितनी जल्दी अंधाी हो जाती है। बेचारे खाँ साहब इन्हीं लोगों के लिए मरते थे। अब कोई बात भी नहीं पूछता। घर-घर यही चर्चा हो रही है कि इन लोगों को ऐसा न करना चाहिए था। भगवान् को क्या मुँह दिखाएँगे।
कुल्सूम-अब तो भाड़ लीपकर हाथ काला हो गया।
सुभागी-बहू, कोई मुँह पर न कहे, लेकिन सब थुड़ी-थुड़ी करते हैं। बेचारे नन्हे-नन्हे बालक मारे-मारे फिरते हैं, देखकर कलेजा फट जाता है। कल तो चौधारी ने माहिर मियाँ को खूब आड़े हाथों लिया था।
कुल्सूम को इन बातों से बड़ी तस्कीन हुई। दुनिया इन लोगों को थूकती तो है, इनकी निंदा तो करती है, इन बेहयाओं को लाज ही न हो,तो कोई क्या करे। बोली-किस बात पर?
सुभागी कुछ जवाब न देने पाई थी कि बाहर से चौधारी ने पुकारा। सुभागी ने जाकर पूछा-क्या कहते हो?
चौधारी-बहूजी से कुछ कहना है। जरा परदे की आड़ में खड़ी हो जाएँ।
दोपहर क समय था। घर में सन्नाटा छाया हुआ था। जैनब और रकिया किसी औलिया के मजार पर शीरनी चढ़ाने गई थीं। कुल्सूम परदे की आड़ में आकर खड़ी हो गई।
चौधारी-बहूजी, कई दिनों से आना चाहता था, पर मौका न मिलता था। जब आता, तो माहिर मियाँ को बैठे देखकर लौट जाता। कल माहिर मियाँ मुझसे कहने लगे, तुमने भैया की मदद के लिए जो रुपये जमा किए थे, वे मुझे दे दो, भाभी ने माँगे हैं। मैंने कहा, जब तक बहूजी से खुद न पूछ लूँगा, आपको न दूँगा। इस पर बहुत बिगड़े। कच्ची-पक्की मुँह से निकालने लगे-समझ लूँगा, बड़े घर भिजवा दूँगा। मैंने कहा,जाइए समझ लीजिएगा। तो अब आपका क्या हुक्म है? ये सब रुपये अभी मेरे पास रखे हुए हैं, आपको दे दूँ न? मुझे तो आज मालूम हुआ कि वे लोग आपके साथ दगा कर गए!
कुल्सूम ने कहा-खुदा तुम्हें इस नेकी का सबब देगा। मगर ये रुपये जिसके हों, उन्हें लौटा दो। मुझे इनकी जरूरत नहीं है।
चौधारी-कोई न लौटाएगा।
कुल्सूम-तो तुम्हीं अपने पास रखो।
चौधारी-आप लेतीं क्यों नहीं? हम कोई औसान थोड़े ही जताते हैं। खाँ साहब की बदौलत बहुत कुछ कमाया है, दूसरा मुंसी होता, तो हजारों रुपये नजर ले लेता। यह उन्हीं की नजर समझी जाए।
चौधारी ने बहुत आग्रह किया, पर कुल्सूम ने रुपये न लिए। वह माहिर अली को दिखाना चाहती थी कि जिन रुपयों के लिए तुम कुत्ताों की भाँति लपकते थे, उन्हीं रुपयों को मैंने पैर से ठुकरा दिया। मैं लाख गई-गुजरी हँ, फिर भी मुझमें कुछ गैरत बाकी है, तुम मर्द होकर बेहयाई पर कमर बाँधो हुए हो।
चौधारी यहाँ से चला, तो सुभागी से बोला-यही बड़े आदमियों की बातें हैं। चाहे टुकड़े-टुकडे उड़ जाएँ, मुदा किसी के सामने हाथ न पसारेंगी। ऐसा न होता, तो छोटे-बड़े में फर्क ही क्या रहता। धान से बड़ाई नहीं होती, धारम से होती है।
इन रुपयों को लौटाकर कुल्सूम का मस्तक गर्व से उन्नत हो गया। आज उसे पहली बार ताहिर अली पर अभिमान हुआ-यह इज्जत है कि पीठ-पीछे दुनिया बड़ाई करती रहे। उस बेइज्जती से तो मर जाना ही अच्छा कि छोटे-छोटे आदमी मुँह पर लताड़ सुनाएँ। कोई लाख उनके एहसान को मिटाए, पर दुनिया तो इंसाफ करती है! रोज ही तो अमले सजा पाते रहते हैं। कोई तो उनके बाल-बच्चों की बात नहीं पूछता;बल्कि उलटे और लोग ताने देते हैं। आज उनकी नेकनामी ने मेरा सिर ऊँचा कर दिया।
सुभागी ने कहा-बहूजी, बहुत औरतें देखीं, लेकिन तुम-जैसी धाीरजवाली विरली ही कोई होगी। भगवान् तुम्हारा संकट हरें।
वह चलने लगी, तो कई अमरूद बच्चों के लिए रख दिए।
कुल्सूम ने कहा-मेरे पास पैसे नहीं हैं।
सुभागी मुस्कराकर चली गई।
प्रभु सेवक बड़े उत्साही आदमी थे। उनके हाथ से सेवक-दल में एक नई सजीवता का संचार हुआ। संख्या दिन-दिन बढ़ने लगी। जो लोग शिथिल और उदासीन हो रहे थे, फिर नए जोश से काम करने लगे। प्रभु सेवक की सज्जनता और सहृदयता सभी को मोहित कर लेती थी। इसके साथ ही अब उनके चरित्रा में वहर् कत्ताव्यनिष्ठा दिखाई देती थी, जिसकी उन्हें स्वयं आशा न थी। सेवक-दल में प्राय: सभी लोग शिक्षित थे, सभी विचारशील। वे कार्य को अग्रसर करने के लिए किसी नए विधाान की आयोजना करना चाहते थे। वह अशिक्षित सिपाहियों की सेना न थी, जो नायक की आज्ञा को तौलती है, तर्क-वितर्क करती है, और जब तक कायल न हो जाए, उसे मानने को तैयार नहीं होती। प्रभु सेवक ने बड़ी बुध्दिमत्ताा से इस दुस्तर कार्य को निभाना शुरू किया।
अब तक इस संस्था का कार्य क्षेत्रा सामाजिक था। मेलों-ठेलों में यात्रिायों की सहायता, बाढ़-बूड़े में पीड़ितों का उध्दार, सूखे-झूरे में विपत्तिा के मारे हुओं का कष्ट-निवारण, ये ही इनके मुख्य विषय थे। प्रभुसेवक ने इसका कार्य-क्षेत्रा विस्तृत कर दिया, इसको राजनीतिक रूप दे दिया। यद्यपि उन्होंने कोई नया प्रस्ताव न किया, किसी परिवर्तन की चर्चा तक न की, पर धाीरे-धाीरे उनके असर से नए भावों का संचार होने लगा।
प्रभु सेवक बहुत सहृदय आदमी थे, पर किसी को गरीबों पर अत्याचार करते देखकर उनकी सहृदयता हिंसात्मक हो जाती थी।
किसी सिपाही को घसियारों की घास छीनते देखकर वह तुरंत घसियाराेंं की ओर से लड़ने पर तैयार हो जाते थे। दैविक आघातों से जनता की रक्षा करना उन्हें निरर्थक-सा जान पड़ता था। सबलों के अत्याचार पर ही उनकी खास निगाह रहती थी। रिश्वतखोर कर्मचारियों पर,जालिम जमींदारों पर, स्वार्थी अधिाकारियों पर वह सदैव ताक लगाए रहते थे। इसका फल यह हुआ कि थोड़े ही दिनों में इस संस्था की धााक बैठ गई। उसका दफ्तर निर्बलों और दु:खित जनों का आश्रय बन गया। प्रभु सेवक निर्बलों को प्रतिकार के लिए उत्तोजित करते रहते थे। उनका कथन था कि जब तक जनता स्वयं अपनी रक्षा करना न सीखेगी, ईश्वर भी उसे अत्याचार से नहीं बचा सकता।
हमें सबसे पहले आत्मसम्मान की रक्षा करनी चाहिए। हम कायर और दब्बू हो गए हैं, अभिमान और हानि चुपके से सह लेते हैं, ऐसे प्राणियों को तो स्वर्ग में भी सुख नहीं प्राप्त हो सकता। जरूरत है कि हम निर्भीक और साहसी बनें, संकटों का सामना करें, मरना सीखें। जब तक हमें मरना न आएगा, जीना भी न आएगा। प्रभु सेवक के लिए दीनों की रक्षा करते हुए गोली का निशाना बन जाना इससे कहीं आसान था कि वह किसी रोगी के सिरहाने बैठ पंखा झले, या अकाल-पीड़ितों को अन्न और द्रव्य बाँटता फिरे। उसके सहयोगियों को भी इस साहसिक सेवा में अधिाक उत्साह था। कुछ लोग तो इससे भी आगे बढ़ जाना चाहते थे। उनका विचार था कि प्रजा में असंतोष उत्पन्न करना भी सेवकों का मुख्यर् कत्ताव्य है। इंद्रदत्ता इस सम्प्रदाय का अगुआ था, और उसे शांत करने में प्रभु सेवक को बड़ी चतुराई से काम लेना पड़ता था।
लेकिन ज्यों-ज्यों सेवकों की कीर्ति फैलने लगी, उन पर अधिाकारियों का संदेह भी बढ़ने लगा। अब कुँवर साहब डरे कि कहीं सरकार इस संस्था का दमन न कर दे। कुछ दिनों में यह अफवाह भी गर्म हुई कि अधिाकारी वर्ग में कुँवर साहब की रियासत जब्त करने का विचार किया जा रहा है। कुँवर साहब निर्भीक पुरुष थे, पर यह अफवाह सुनकर उनका आसन भी डोल गया। वह ऐश्वर्य का सुख नहीं भोगना चाहते थे, लेकिन ऐश्वर्य की ममता का त्याग न कर सकते थे। उनको परोपकार में उससे कहीं अधिाक आनंद आता था, जितना भोग-विलास में। परोपकार में सम्मान था, गौरव था; वह सम्मान न रहा, तो जीने में मजा ही क्या रहेगा! वह प्रभु सेवक को बार-बार समझाते-भाई, जरा समझ-बूझकर काम करो। अधिाकारियों से बचकर चलो। ऐसे काम करो ही क्यों जिनसे अधिाकारियों को तुम्हारे ऊपर संदेह हो। तुम्हारे लिए परोपकार का क्षेत्रा क्या कम है कि राजनीति के झगड़े में पड़ो। लेकिन प्रभु सेवक उनके परामर्श की जरा भी परवा न करते-धामकी देते-इस्तीफा दे दूँगा। हमें अधिाकारियों की क्या परवा! वे जो चाहते हैं, करते हैं, हमसे कुछ नहीं पूछते, फिर हम क्यों उनका रुख देखकर काम करें? हम अपने निश्चित मार्ग से विचलित न होंगे। अधिाकारियों की जो इच्छा हो, करें। आत्मसम्मान खोकर संस्था को जीवित ही रखा, तो क्या! उनका रुख देकर काम करने का आशय तो यही है कि हम खाएँ, मुकदमे लड़ें, एक दूसरे का बुरा चेतें और पड़े-पड़े सोएँ। हमारे और शासकों के उद्देश्यों में परस्पर विरोधा है। जहाँ हमारा हित है, वहीं उनको शंका है, और ऐसी दशा में उनका संशय स्वाभाविक है। अगर हम लोग इस भाँति डरते रहेंगे, तो हमारा होना-न-होना दोनों बराबर है।
एक दिन दोनाेंं आदमियों मेें वाद-विवाद की नौबत आ गई। बंदोबस्त के अफसरों ने किसी प्रांत में भूमि-कर में मनमानी वृध्दि कर दी थी। काउंसिलों, समाचार-पत्राों और राजनीतिक सभाआेंं में इस वृध्दि का विरोधा किया जा रहा था, पर कर-विभाग पर कुछ असर न होता था। प्रभु सेवक की राय थी, हमें जाकर असामियों से कहना चाहिए कि साल-भर तक जमीन परती पड़ी रहने दें। कुँवर साहब कहते थे कि यह तो खुल्लम-खुल्ला अधिाकारियों से रार मोल लेना है।
प्रभु सेवक-अगर आप इतना डर रहे हैं, तो उचित है कि आप इस संस्था को उसके हाल पर छोड़ दें। आप दो नौकाओं पर बैठकर नदी पार करना चाहते हैं, यह असम्भव है। मुझे रईसों पर पहले भी विश्वास न था, और अब तो निराशा-सी हो गई है।
कुँवर-तुम मेरी गिनती रईसों में क्यों करते हो, जब तुम्हें मालूम है कि मुझे रियासत की परवा नहीं। लेकिन कोई काम धान के बगैर तो नहीं चल सकता। मैं नहीं चाहता कि अन्य राष्ट्रीय संस्थाओं की भाँति इस संस्था को भी धानाभाव के कारण हम टूटते देखें।
प्रभु सेवक-मैं बड़ी-से-बड़ी जाएदाद को भी सिध्दांत के लिए बलिदान कर देने में दरेग न करूँगा।
कुँवर-मैं भी न करता, यदि जाएदाद मेरी होती। लेकिन यह जाएदाद मेरे वारिसों की है, और मुझे कोई अधिाकार नहीं है कि उनकी इच्छा के बगैर उनकी जाएदाद की उत्तार-क्रिया कर दूँ। मैं नहीं चाहता कि मेरे कर्मों का फल मेरी संतान को भोगना पड़े।
प्रभु सेवक-यह रईसों की पुरानी दलील है। वे अपनी वैभव-भक्ति को इसी परदे की आड़ में छिपाया करते हैं। अगर आपको भय है कि हमारे कामों से आपकी जाएदाद को हानि पहुँचेगी, तो बेहतर है कि आप इस संस्था से अलग हो जाएँ।
कुँवर साहब ने चिंतित स्वर में कहा-प्रभु, तुम्हें मालूम नहीं है कि इस संस्था की जड़ अभी कितनी कमजोर है! मुझे भय है कि यह अधिाकारियों को तीव्र दृष्टि को एक क्षण भी सहन नहीं कर सकती। मेरा और तुम्हारा उद्देश्य एक ही है; मैं भी वही चाहता हूँ, जो तुम चाहते हो। लेकिन मैं बूढ़ा हूँ, मंद गति से चलना चाहता हूँ; तुम जवान हो, दौड़ना चाहते हो। मैं भी शासकों का कृपापात्रा नहीं बनना चाहता। मैं बहुत पहले निश्चय कर चुका हूँ कि हमारा भाग्य हमारे हाथ में है, अपने कल्याण के लिए जो कुछ करेंगे, दूसरों से सहानुभूति या सहायता की आशा रखना व्यर्थ है। किंतु कम-से-कम हमारी संस्था को जीवित तो रहना चाहिए। मैं इसे अधिाकारियों के संदेह की भेंट करके उसका अंतिम संस्कार नहीं करना चाहता।
प्रभु सेवक ने कुछ उत्तार न दिया। बात बढ़ जाने का भय था। मन में निश्चय किया कि अगर कुँवर साहब ने ज्यादा चीं-चपड़ की, तो उन्हें इस संस्था से अलग कर देंगे। धान का प्रश्न इतना जटिल नहीं है कि उसके लिए संस्था के मर्मस्थल पर आघात किया जाए। इंद्रदत्ता ने भी यही सलाह दी-कुँवर साहब को पृथक् कर देना चाहिए। हम औषधिायाँ बाँटने और अकाल-पीड़ित प्रांतों में मवेशियों का चारा ढोने के लिए नहीं हैं। है वह भी हमारा काम, इससे हमें इनकार नहीं, लेकिन मैं उसे इतना गुरु नहीं समझता। यह विधवंस का समय है, निर्माण का समय तो पीछे आएगा। प्लेग, दुर्भिक्ष और बाढ़ से दुनिया कभी वीरान नहीं हुई और न होगी।
क्रमश: यहाँ तक नौबत आ पहुँची कि अब कितनी ही महत्तव की बातों में ये दोनों आदमी कुँवर साहब से परामर्श तक न लेते, बैठकर आपस ही में निश्चय कर लेते। चारों तरफ से अत्याचारों के वृत्ताांत नित्य दफ्तर में आते रहते थे। कहीं-कहीं तो लोग इस संस्था की सहायता प्राप्त करने के लिए बड़ी-बड़ी रकमें देने पर तैयार हो जाते थे। इससे यह विश्वास होता जाता था कि संस्था पैरों पर खड़ी हो सकती है,उसे किसी स्थायी कोष की आवश्यकता नहीं। यदि उत्साही कार्यकर्ता हों, तो कभी धानाभाव नहीं हो सकता। ज्यों-ज्यों यह बात सिध्द होती जाती थी, कुँवर साहब का आधिापत्य लोगों को अप्रिय प्रतीत होता जाता था।
प्रभु सेवक की रचनाएँ इन दिनों क्रांतिकारी भावों से परिपूर्ण होती थीं। राष्ट्रीयता, द्वंद्व, संघर्ष के भाव प्रत्येक छंद से टपकते थे। उसने’नौका’ नाम की एक ऐसी कविता लिखी, जिसे कविता-सागर का अनुपम रत्न कहना अनुचित न होगा। लोग पढ़ते थे और सिर धाुनते थे। पहले ही पद्य में यात्राी ने पूछा था-क्यों माँझी, नौका डूबेगी या पार लगेगी? माँझी ने उत्तार दिया था-यात्राी, नौका डूबेगी; क्योंकि तुम्हारे मन में यह शंका इसी कारण हुई है। कोई ऐसी सभा, सम्मेलन, परिषद् न थी, जहाँ यह कविता न पढ़ी गई हो। साहित्य जगत् में हलचल-सी मच गई।
सेवक-दल पर प्रभु सेवक का प्रभुत्व दिन-दिन बढ़ता जाता था। प्राय: सभी सदस्यों को अब उन पर श्रध्दा हो गई थी, सभी प्राणपण से उनके आदेशों पर चलने को तैयार रहते थे। सब-के-सब एक रंग में रँगे हुए थे, राष्ट्रीयता के मद में चूर, न धान की चिंता, न घर-बार की फिक्र, रूखा-सूखा खानेवाले, मोटा पहननेवाले, जमीन पर सोकर रात काट देते थे, घर की ज़रूरत न थी, कभी-कभी वृक्ष के नीचे पडे रहते,कभी किसी झोंपड़े में। हाँ, उनके हृदयों में उच्च और पवित्रा देशोपासना हिलोरें ले रही थी!
समस्त देश में संस्था की सुव्यवस्था की चर्चा हो रही थी। प्रभु सेवक देश के सर्व सम्मानित, सर्वजन-प्रिय नेताओं में थे। इतनी अल्पावस्था में यह कीर्ति! लोगों को आश्चर्य होता था। जगह-जगह से राष्ट्रीय सभाओं ने उन्हें आमंत्रिात करना शुरू किया। जहाँ जाते, लोग उनका भाषण सुनकर मुग्धा हो जाते थे।
पूना में राष्ट्रीय सभा का उत्सव था। प्रभु सेवक को निमंत्राण मिला। तुरंत इंद्रदत्ता को अपना कार्यभार सौंपा और दक्षिण के प्रदेशों में भ्रमण करने का इरादा करके चले। पूना में उनके स्वागत की खूब तैयारियाँ की गई थीं। यह नगर सेवक-दल का एक केंद्र भी था, और यहाँ का नायक एक बड़े जीवट का आदमी था, जिसने बर्लिन में इंजीनियरी की उपाधिा प्राप्त की थी और तीन वर्ष के लिए इस दल में सम्मिलित हो गया था। उसका नगर में बड़ा प्रभाव था। वह अपने दल के सदस्यों के लिए स्टेशन पर खड़ा था। प्रभु सेवक का हृदय यह समारोह देखकर प्रफुल्लित हो गया। उसके मन ने कहा-यह मेरे नेतृत्व का प्रभाव है। यह उत्साह, यह निर्भीकता, यह जागृति इनमें कहाँ थी? मैंने ही इसका संचार किया। अब आशा होती है कि जिंदा रहा, तो कुछ-न-कुछ कर दिखाऊँगा। हा अभिमान!
संधया समय विशाल पंडाल में जब वह मंच पर खड़े हुए, तो कई हजार श्रोताओं को अपनी ओर श्रध्दापूर्ण नेत्राों से ताकते देखकर उनका हृदय पुलकित हो उठा। गैलरी में योरपियन महिलाएँ भी उपस्थित थीं। प्रांत के गवर्नर महोदय भी आए हुए थे। जिसकी कलम में यह जादू है, उसकी वाणी में क्या कुछ चमत्कार न होगा, सब यही देखना चाहते थे।
प्रभु सेवक का व्याख्यान शुरू हुआ। किसी को उनका परिचय कराने की जरूरत न थी। राजनीति की दार्शनिक मीमांसा करने लगे। राजनीति क्या है? उसकी आवश्यकता क्यों है? उसके पालन का क्या विधाान है? किन दशाओं में उसकी अवज्ञा करना प्रजा का धार्म हो जाता है? उसके गुण-दोष क्या हैं? उन्होंने बड़ी विद्वता और अत्यंत निर्भीकता के साथ इन प्रश्नों की व्याख्या की। ऐसे जटिल और गहन विषय को अगर कोई सरल, बोधागम्य और मनोरंजक बना सकता था, तो वह प्रभु सेवक थे। लेकिन राजनीति भी संसार की उन महत्तवपूर्ण वस्तुओं में है, जो विश्लेषण और विवेचना की ऑंच नहीं सह सकती। उसका विवेचन उसके लिए घातक है, उस पर अज्ञान का परदा रहना ही अच्छा है। प्रभु सेवक ने परदा उठा दिया-सेनाओं की कतारें ऑंखों से अदृश्य हो गईं, न्यायालय के विशाल भवन जमीन पर गिर पड़े, प्रभुत्व और ऐश्वर्य के चिद्द मिटने लगे, सामने मोटे और उज्ज्वल अक्षरों में लिखा था-सर्वोत्ताम राजनीति राजनीति का अंत है। लेकिन ज्यों ही उनके मुख से ये शब्द निकले-हमारा देश राजनीति शून्य है। परवशता और आज्ञाकारिता में सीमाआें का अंतर है। त्यों ही सामने से पिस्तौल छूटने की आवाज आई, और गोली प्रभु सेवक के कान के पास से निकलकर पीछे की ओर दीवार में लगी। रात का समय था; कुछ पता न चला, किसने यह आघात किया। संदेह हुआ, किसी योरपियन की शरारत है। लोग गैलरियों की ओर दौडे। सहसा प्रभु सेवक ने उच्च स्वर में कहा-मैं उस प्राणी को क्षमा करता हूँ, जिसने मुझ पर आघात किया है। उसका जी चाहे, तो वह फिर मुझ पर निशाना मार सकता है। मेरा पक्ष लेकर किसी को इसका प्रतिकार करने का अधिाकार नहीं है। मैं अपने विचारों का प्रचार करने आया हूँ, आघातों का प्रत्याघात करने नहीं।
एक ओर से आवाज आई-यह राजनीति की आवश्यकता का उज्ज्वल प्रमाण है।
सभा उठ गई। योरपियन लोग पीछे के द्वार से निकल गए। बाहर सशस्त्रा पुलिस आ पहुँची थी।
दूसरे दिन संधया को प्रभु सेवक के नाम तार आया-सेवक-दल की प्रबंधा-कारिणी समिति आपके व्याख्यान को नापा करती है, और अनुरोधा करती है कि आप लौट आएँ, वरना यह आपके व्याख्यानों की उत्तारदायी न होगी।
प्रभु सेवक ने तार के कागज को फाड़कर टुकड़े-टुकड़े कर डाला और उसे पैरों से कुचलते हुए आप-ही-आप बोले-धाूर्त, कायर, रँगा हुआ सियार। राष्ट्रीयता का दम भरता है, जाति की सेवा करेगा! एक व्याख्यान ने कायापलट कर दी। उँगली में लहू लगाकर शहीदों में नाम लिखाना चाहता है। जाति-सेवा को बच्चों का खेल समझ रखा है। यह बच्चों का खेल नहीं है, साँप के मुँह में उँगली डालना है, शेर से पंजा लेना है। यदि अपने प्राण और अपनी सम्पत्तिा इतनी प्यारी है, तो यह स्वाँग क्यों भरते हो? जाओ, तुम-जैसे देशभक्तों के बगैर देश की कोई हानि नहीं।
उन्होंने उसी वक्त तार का जवाब दिया-मैं प्रबंधा-कारिणी समिति के अधाीन रहना अपने लिए अपमानजनक समझता हूँ। मेरा उससे कोई सम्बंधा नहीं।
आधा घंटे बाद दूसरा पत्रा आया। इस पर सरकार की मुहर थी :
माई डियर सेवक,
मैं नहीं कह सकता कि कल आपका व्याख्यान सुनकर मुझे कितना लाभ और आनंद प्राप्त हुआ। मैं यह अत्युक्ति के भाव से नहीं कहता कि राजनीति की ऐसी विद्वतापूर्ण और तात्तिवक मीमांसा आज तक मैंने कहीं नहीं सुनी थी। नियमों ने मेरी जबान बंद कर रखी है, लेकिन मैं आपके भावों और विचारों का आदर करता हूँ और ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि वह दिन जल्द आए, जब हम राजनीति का मर्म समझें और उसके सर्वोच्च सिध्दांतों का पालन कर सकें। केवल एक ही ऐसा व्यक्ति है, जिसे आपकी स्पष्ट बात असह्य हुई, और मुझे बड़े दु:ख और लज्जा के साथ स्वीकार करना पड़ता है कि वह व्यक्ति योरपियन है। मैं योरपियन समाज की ओर से इस कायरतापूर्ण और अमानुषिक आघात पर शोक और घृणा प्रकट करता हूँ। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि समस्त योरपियन समाज को आपसे हार्दिक सहानुभूति है। यदि मैं उस नर-पिशाच का पता लगाने में सफल हुआ (उसका कल से पता नहीं है), तो आपको इसकी सूचना देने में मुझसे अधिाक आनंद और किसी को न होगा।
आपका
एफ. विल्सन
प्रभु सेवक ने इस पत्रा को दुबारा पढ़ा। उनके हृदय में गुदगुदी-सी होने लगी। बड़ी सावधाानी से उसे अपने संदूक में रख दिया। कोई और वहाँ होता, तो जरूर पढ़कर सुनाते। वह गर्वोन्मत्ता होकर कमरे में टहलने लगे। यह है जीवित जातियों की उदारता, विशाल-हृदयता,गुणग्राहकता! उन्होंने स्वाधाीनता का आनंद उठाया है। स्वाधाीनता के लिए बलिदान किए हैं, और इसका महत्तव जानते हैं। जिसका समस्त जीवन खुशामद और मुखापेक्षा में गुजरा हो, वह स्वाधाीनता का महत्तव क्या समझ सकता है! मरने के दिन सिर पर आ जाते हैं, तो हम कितने ईश्वर-भक्त बन जाते हैं। भरतसिंह भी उसी तरफ गए होते, अब तक राम-नाम का जाप करते होते, वह तो विनय ने इधार फेर लिया। यह उन्हीं का प्रभाव था। विनय, इस अवसर पर तुम्हारी जरूरत है, बड़ी जरूरत है, तुम कहाँ हो? आकर देखो, तुम्हारी बोई हुई खेती का क्या हाल है! उसके रक्षक उसके भक्षक बने जा रहे हैं।
सोफिया और विनय रात-भर तो स्टेशन पर पड़े रहे। सबेरे समीप के गाँव में गए, जो भीलों की एक छोटी-सी बस्ती थी। सोफिया को यह स्थान बहुत पसंद आया। बस्ती के सिर पर पहाड़ का साया था, पैरों के नीचे एक पहाड़ी नाला मीठा राग गाता हुआ बहता था। भीलों के छोटे-छोटे झोंपड़े, जिन पर बेलें फैली हुई थीं, अप्सराओं के खिलौनों की भाँति सुंदर लगते थे। जब तक कुछ निश्चय न हो जाए कि क्या करना है,कहाँ जाना है, कहाँ रहना है, तब तक उन्होंने उसी गाँव में निवास करने का इरादा किया। एक झोंपड़े में जगह भी आसानी से मिल गई। भीलों का आतिथ्य प्रसिध्द है, और ये दोनों प्राणी भूख-प्यास, गरमी-सरदी सहने में अभ्यस्त थे। जो कुछ मोटा-झोटा मयस्सर हुआ, खा लिया, चाय और मक्खन, मुरब्बे और मेवों का चस्का न था। सरल और सात्तिवक जीवन उनका आदर्श था। यहाँ उन्हें कोई कष्ट न हुआ। इस झोंपड़ें में केवल एक भीलनी रहती थी। उसका लड़का कहीं फौज में नौकर था। बुढ़िया इन लोगों की सेवा-टहल सहर्ष कर देती। यहाँ इन लोगों ने मशहूर किया कि हम दिल्ली के रहनेवाले हैं, जल-वायु बदलने आए हैं। गाँव के लोग उनका बड़ा अदब और लिहाज करते थे।
किंतु इतना एकांत और इतनी स्वाधाीनता होने पर भी दोनों एक दूसरे से बहुत कम मिलते। दोनों न जाने क्यों सशंक रहते थे। उनमें मनोमालिन्य न था, दोनों प्रेम में डूबे हुए थे। दोनों उद्विग्न थे, दोनाेंं विकल, दोनों अधाीर, किंतु नैतिक बंधानों की दृढ़ता उन्हें मिलने न देती। सात्तिवक धार्म-निरूपण ने सोफिया को साम्प्रदायिक संकीर्णताओं से मुक्त कर दिया था। उसकी दृष्टि में भिन्न-भिन्न मत केवल एक ही सत्य के भिन्न-भिन्न नाम थे। उसे अब किसी से द्वेष न था, किसी से विरोधा न था। जिस अशांति ने कई महीनों तक उसके धार्म-सिध्दांतों को कुंठित कर रखा था, वह विलुप्त हो गई थी। अब प्राणिमात्रा उसके लिए अपना था। और यद्यपि विनय के विचार इतने उदार न थे, संसार की प्र्रेम-ममता उनके लिए एक दार्शनिक वाद से अधिाक मूल्य न रखती थी; किंतु सोफिया की उदारता के सामने उनकी परंपरागत समाज-व्यवस्थाएँ मुँह छिपाती फिरती थी। वास्तव में दोनों का आत्मिक संयोग हो चुका था, और भौतिक संयोग में भी कोई वास्तविक बाधाा न थी। किंतु यह सब होते हुए भी वे दोनों पृथक् रहते, एकांत में साथ कभी न बैठते। उन्हें अब अपने ही से शंका होती थी! वचन का काल समाप्त हो चुका था, लेख का समय आ गया था। वचन से जबान नहीं कटती। लेख से हाथ कट जाता है।
लेकिन लेख से हाथ चाहे कट जाए, इसके बिना कोई बात पक्की नहीं होती। थोड़ा-सा मतभेद, जरा-सा असंयम समझौते को रद्द कर सकता है। इसलिए दोनों ही अनिश्चित दशा का अंत कर देना चाहते थे। कैसे करें यह समझ में नहीं आता था। कौन इस प्रसंग को छेडे? क़दाचित् बातों में कोई आपत्तिा खड़ी हो जाए। सोफिया के लिए विनय का सामीप्य काफी था। वह उन्हें नित्य ऑंखों से देखती थी, उनके हर्ष और अमर्ष में सम्मिलित होती थी, उन्हें अपना समझती थी। इससे अधिाक वह कुछ न चाहती थी। विनय रोज आस-पास के देहातों में विचरने चले जाते थे। कोई स्त्राी उनसे अपने परदेसी पुत्रा या पति के नाम पत्रा लिखाती, कहीं रोगियों को दवा देते, कहीं पारस्परिक कलहों मेेंं मधयस्थ बनना पड़ता। भोर के गए पहर रात को लौटते। यह उनकी नित्य की दिनचर्या थी। सोफिया चिराग जलाए उनकी बाट देखा करती। जब वह आ जाते, तो उनके हाथ-पैर धाुलवाकर भोजन कराती, दिन-भर की कथा प्रेम से सुनती और तब दोनों अपनी-अपनी कोठरियों में सोने चले जाते। वहाँ विनय को अपना घास का बिछौना बिछा हुआ मिलता। सिरहाने पानी की हाँड़ी रखी होती। सोफिया इतने ही में संतुष्ट थी। अगर उसे विश्वास हो जाता कि मेरा सम्पूर्ण जीवन इसी भाँति कट जाएगा, तो वह अपना अहोभाग्य समझती। यही उसके जीवन का मधाुर स्वप्न था। लेकिन विनय इतने धौर्यशील, इतने विरागी न थे। उनको केवल आधयात्मिक संयोग से संतोष न होता था। सोफिया का अनुपम सौंदर्य, उसकी स्वर्गोपम वचन-माधाुरी, उसका विलक्षण अंग-विन्यास उनकी शृंगारमयी कल्पना को विकल करता रहता था। उन्होंने कुचक्रों में पड़कर एक बार उसे खो दिया था। अब दुबारा उस परीक्षा में न पड़ना चाहते थे। जब तक इसकी सम्भावना उपस्थित थी, उनके चित्ता को कभी शांति न हो सकती थी।
ये लोग रेलवे स्टेशन के पते से अपने नाम पत्रा-पत्रिाकाएँ, पुस्तकें आदि मँगा लिया करते थे। उनसे संसार की प्रगति का बोधा हो जाता था। भीलों से उनको कुछ प्रेम-सा हो गया था। यहाँ से कहीं और चले जाने की उन्हें इच्छा ही न होती थी। दोनों को शंका थी कि इस सुरक्षित स्थान से निकलकर हमारी न जाने क्या दशा हो जाए, न जाने हम किस भँवर में जा पड़ें। इस शांति-कुटीर को दोनों ही गनीमत समझते थे। सोफिया को विनय पर विश्वास था। वह अपनी आकर्षण-शक्ति से परिचित थी। विनय को सोफिया पर विश्वास न था। वह अपनी आकर्षण-शक्ति से अनभिज्ञ थे।
इस तरह एक साल गुजर गया। सोफिया विनय को जल-पान कराकर ऍंगीठी के सामने बैठी एक किताब देख रही थी। कभी मार्मिक स्थलों पर पेंसिल से – निशान करती, कभी प्रश्नचिद्द बनाती, कहीं लकीर खींचती। विनय को शंका हो रही थी कि कहीं वह तल्लीनता प्रेम-शैथिल्य का लक्षण तो नहीं है? पढ़ने में ऐसी मग्न है कि ताकती तक नहीं। कपड़े पहन, बाहर जाना चाहते थे। ठंडी हवा चल रही थीं जाड़े के कपड़े थे ही नहीं। कम्बल काफी न था। अलसाकर ऍंगीठी के पास आए और माँची पर बैठ गए। सोफिया की ऑंखें किताब में गड़ी हुई थीं। विनय की लालसा-युक्त दृष्टि अवसर पाकर निर्विघ्न रूप से उसके रूप-लावण्य की छटा देखने लगी। सहसा सोफिया ने सिर उठाया, तो विनय को सचेष्ट नेत्राों से अपनी ओर ताकते पाया। लजाकर ऑंखें नीची कर लीं और बोली-आज तो बड़ी सरदी है, कहाँ जाओगे! बैठो, तुम्हें इस पुस्तक के कुछ भाग सुनाऊँ। बहुत ही सुपाठय पुस्तक है। यह कहकर उसने ऑंगन की ओर देखा, भीलनी गायब थी। शायद लकड़ी बटोरने चली गई थी। अब दस बजे से पहले न आएगी। सोफिया कुछ चिंतित-सी हो गई।
विनय ने उत्सुकता के साथ कहा-नहीं सोफी, आज कहीं न जाऊँगा। तुमसे कुछ बातें करने को जी चाहता है। किताब बंद करके रख दो। तुम्हारे साथ रहकर भी तुमसे बातें करने को तरसता रहता हूँ।
यह कहकर उन्होेंने सोफिया के हाथों से किताब छीन लेने की चेष्टा की। सोफिया किताब को दृढ़ता से पकड़कर बोली-ठहरो-ठहरो! अब यही शरात मुझे अच्छी नहीं लगती। बैठो, इस फ्रेंच फिलॉसफर के विचार सुनाऊँ। देखो उसने कितनी विशाल हृदयता से धाार्मिक निरूपण किया है।
विनय-नहीं, आज दस मिनट के लिए तुम इस फिलॉसफर से अवकाश माँग लो और मेरी ये बातें सुन लो, जो किसी पिंजर-बध्दपक्षी की भाँति बाहर निकलने के लिए तड़फड़ा रही हैं। आखिर मेरे इस वनवास की कोई अवधिा है या सदैव जीवन के सुख-स्वप्न ही देखता रहूँगा?
सोफिया-इस लेखक के विचार उस जवाब से कहीं मनोरंजक हैं, जो मैं तुम्हें दे सकती हूँ। मुझे इन पर कई शंकाएँ हैं। सम्भव है, विचार परिवर्तन से उनकी निवृत्तिा हो जाए।
विनय-नहीं, यह किताब बंद करके रख दो। आज मैं सफर के लिए कमर कसकर आया हूँ। आज तुमसे वचन लिए बिना तुम्हारा दामन न छोड़ईँगा। क्या अब भी मेरी परीक्षा कर रही हो?
सोफिया ने किताब बंद करके रख दी और प्रेम-गम्भीर भाव से बोली-मैंने तो अपने को तुम्हारे चरणों पर डाल दिया, अब और मुझसे क्या चाहते हो?
विनय-अगर मैं देवता होता, तो तुम्हारी प्रेमोपासना से संतुष्ट हो जाता; लेकिन मैं भी तो इच्छाओं का दास, क्षुद्र मनुष्य हूँ। मैंने जो कुछ पाया है, उससे संतुष्ट नहीं हूँ। मैं चाहता हूँ, सब चाहता हूँ। क्या अब भी तुम मेरा आशय नहीं समझीं? मैं पक्षी को अपनी मुँडेर पर बैठे देखकर संतुष्ट नहीं, उसे अपने पिंजड़े में जाते देखना चाहता हूँ। क्या और भी स्पष्ट रूप से कहूँ? मैं सर्वभोगी हूँ, केवल सुगंधा से मेरी तृप्ति नहीं होती।
सोफिया-विनय, मुझे अभी विवश न करो, मैं तुम्हारी हूँ। मैं इस वक्त यह बात जितने शुध्द भाव और निष्कपट हृदय से कह रही हूँ, उससे अधिाक किसी मंदिर में, कलीसा में या हवन-क्ुं+ड के सामने नहीं कह सकती। जिस समय मैंने तुम्हारा तिरस्कार किया था, उस समय भी तुम्हारी थी। लेकिन क्षमा करना, मैं कभी ऐसा कर्म न करूँगी, जिससे तुम्हारा अपमान, तुम्हारी अप्रतिष्ठा, तुम्हारी निंदा हो। मेरा यह संयम अपने लिए नहीं, तुम्हारे लिए है। आत्मिक मिलाप के लिए कोई बाधाा नहीं होती; पर सामाजिक संस्कारों के लिए अपने सम्बंधिायों और समाज के नियमों की स्वीकृति अनिवार्य है, अन्यथा वे लज्जास्पद हो जाते हैं। मेरी आत्मा मुझे कभी क्षमा न करेगी, अगर मेरे कारण तुम अपने माता-पिता, विशेषत: अपनी पूज्य माता के कोप-भाजन बनो, और वे मेरे साथ तुम्हें भी कुल-कलंक समझने लगें। मैं कल्पना भी नहीं कर सकती कि इस अवज्ञा के लिए रानीजी तुम्हें और विशेषकर मुझे, क्या दंड देंगी। वह सती हैं, देवी हैं, उनका क्रोधा न जाने क्या अनर्थ करे। मैं उनकी दृष्टि में कितनी पतित हूँ, इसका मुझे अनुभव हो चुका है, और तुम्हें भी उन्होंने कठोर-से-कठोर दंड दे दिया, जो उनके वश में था। ऐसी दशा में जब उन्हें ज्ञात होगा कि मैं और तुम केवल प्रेम के सूत्रा में नहीं, संस्कारों के सूत्रा में बँधो हुए हैं, तो आश्चर्य नहीं कि वह क्रोधाावेश में आत्महत्या कर लें। सम्भव है, इस समय तुम उन समस्त विघ्न-बाधााओं को अंगीकार करने को तैयार हो जाओ; लेकिन मैं बाह्य संस्कारों को इतने महत्तव की वस्तु नहीं समझती।
विनय ने उदास होकर कहा-सोफी, इसका आशय इसके सिवा और क्या है कि मेरा जीवन सुख-स्वप्न देखने में ही कट जाए!
सोफी-नहीं विनय, मैं इतनी हताश नहीं हूँ। मुझे अब भी आशा है कि कभी-न-कभी रानीजी से तुम्हारा और अपना अपराधा क्षमा करा लूँगी,और तब उनके आशीर्वादों के साथ हम दाम्पत्य-क्षेत्रा में प्रवेश करेंगे। रानीजी की कृपा और अकृपा, दोनों ही सीमागत रहती हैं। एक सीमा का अनुभव हम कर चुके। ईश्वर ने चाहा, तो दूसरी सीमा का भी जल्द अनुभव होगा। मैं तुमसे सविनय अनुरोधा करती हूँ कि अब इस प्रसंग को फिर मत उठाना, अन्यथा मुझे कोई दूसरा रक्षा-स्थान खोजना पड़ेगा।
विनय ने धाीरे से कहा-वह दिन कब आएगा, जब या तो अम्माँजी न होंगी या मैं न रहूँगा।
तब उन्होंने कम्बल ओढ़ा, हाथ में लकड़ी ली और बाहर चले गए, जैसे कोई किसान महाजन की फटकार सुनकर उसके घर से बाहर निकले।
फिर पूर्ववत् दिन कटने लगे, विनय बहुत मलिन और खिन्न रहते। यथासम्भव घर से बाहर ही विचरा करते, आते भी तो भोजन करके चले जाते। कहीं जाना न होता, तो नदी के तट पर जा बैठते और घंटाें जल-क्रीड़ा देखा करते। कभी कागज की नावें बनाकर उसमें तैराते और उनके पीछे-पीछे वहाँ तक जाते, जहाँ वे जल-मग्न हो जातीं। उन्हें अब भ्रम होने लगा था कि सोफिया को अब भी मुझ पर विश्वास नहीं है। वह मुझसे प्रेम करती है, लेकिन मेरे नैतिक बल पर उसे संदेह है।
एक दिन वह नदी के किनारे बैठे हुए थे कि बुढ़िया भीलनी पानी भरने आई। उन्हें वहाँ बैठे देखकर उसने घड़ा रख दिया और बोली-क्यों मालिक, तुम यहाँ अकेले क्याें बैठे हो? घर में मालकिन घबराती न होंगी? मैं उन्हें बहुत रोते देखा करती हूँ। क्या तुमने उन्हेंं कुछ कहा है? क्या बात है? कभी तुम दोनों को बैठकर हँसते-बोलते नहीं देखती?
विनय ने कहा-क्या करूँ माता, उन्हें यही तो बीमारी है कि मुझसे रूठी रहती हैं। बरसों से उन्हें यही बीमारी हो गई है।
भीलनी-तो बेटा, इसका उपाय मैं कर दूँगी। ऐसी जड़ी दे दूँ कि तुम्हारे बिना उन्हें छिन-भर भी चैन न आए।
विनय-क्या ऐसी जड़ी भी होती है?
बुढ़िया ने सरल विज्ञता से कहा-बेटा, जड़ियाँ तो ऐसी-ऐसी होती हैं कि चाहे आग बाँधा लो, पानी बाँधा लो, मुरदे को जिला दो, मुद्दई को घर बैठे मार डालो। हाँ, जानना चाहिए। तुम्हारा भील बड़ा गुनी था। राजा के दरबार में आया-जाएा करता था। उसी ने मुझे दो-चार बूटियाँ बता दी थीं। बेटा, एक-एक बूटी एक-एक लाख को सस्ती है।
विनय-तो मेरे पास इतने रुपये कहाँ है?
भीलनी-नहीं बेटा, तुमसे मैं क्या लूँगी। तुम बिसुनाथपुरी के निवासी हो। तुम्हारे दरसन पा गई, यही मेरे लिए बहुत है। वहाँ जाकर मेरे लिए थोड़ा-सा गंगाजल भेज देना। बुढ़िया तर जाएगी। तुमने मुझसे पहले न कहा, नहीं तो मैंने वह जड़ी तुम्हें दे दी होती। तुम्हारी अनबन देखकर मुझे बड़ा दुख होता है।
संधया समय, जब सोफिया बैठी भोजन बना रही थी, भीलनी ने एक जड़ी लाकर विनयसिंह को दी और बोली-बेटा, बड़े जतन से रखना,लाख रुपये दोगे, तब भी न मिलेगी। अब तो यह विद्या ही उठ गई। इसको अपने लहू में पंद्रह दिन तक रोज भिगोकर सुखाओ। तब इसमें से एक-एक पत्ती काटकर मालकिन को धाूनी दो। पंद्रह दिन के बाद जो बच रहे, वह उनके जूड़े में बाँधा दो। देखो, क्या होता है। भगवान् चाहेंगे, तो तुम आप उनसे ऊबने लगोगे। वह परछाईं की भाँति तुम्हारे पीछे लगी रहेंगी। फिर उनसे विनय के कान में एक मंत्रा बताया, जो कई निरर्थक शब्दों का संग्रह था, और कहा कि जड़ी को लहू में डुबाते समय यह मंत्रा पाँच बार पढ़कर जड़ी पर फूँक देना।
विनयसिंह मिथ्यावादी न थे; मंत्रा-तंत्रा पर उनका अणु-मात्रा भी विश्वास न था। लेकिन सुनी-सुनाई बातों से उन्हें यह मालूम था कि निम्न जातियों में ऐसे तांत्रिाक क्रियाआेंं का बड़ा प्रचार है, और कभी-कभी इनका विस्मयजनक फल भी होता है। उनका अनुमान था कि क्रियाओं में स्वयं कोई शक्ति नहीं, अगर कुछ फल होता है, तो वह मूर्खों के दुर्बल मस्तिष्क के कारण। शिक्षित पर, जो प्राय: शंकावादी होते हैं,जो ईश्वर के अस्तित्व को भी स्वीकार नहीं करते, भला इनका क्या असर हो सकता है? तो भी उन्होंने यह सिध्दि प्राप्त करने का निश्चय किया। उन्हें उससे किसी फल की आशा न थी, केवल उसकी परीक्षा लेना चाहते थे।
लेकिन कहीं सचमुच इस जड़ी में कुछ चमत्कार हो, तो फिर क्या पूछना। इस कल्पना ही से उनका हृदय पुलकित हो उठा। सोफिया मेरी हो जाएगी। तब उसके प्रेम में और ही बात होगी?
ज्यों ही मंगल का दिन आया, वह नदी पर गए, स्नान किया और चाकू से अपनी एक उँगली काटकर उसके रक्त में जड़ी को भिगोया,और तब उसे एक ऊँची चट्टान पर पत्थरों से ढंककर रख आए। पंद्रह दिन तक लगातार यही क्रिया करते रहे। ठंड ऐसी पड़ती थी कि हाथ-पाँव गले जाते थे, बरतनों में पानी जम जाता था। लेकिन विनय नित्य स्नान करने जाते। सोफिया ने उन्हें इतना कर्मनिष्ठ न देखा था। कहती-इतनी सबेरे न नहाओ, कहीं सरदी न लग जाए, जंगली आदमी भी दिन-भर ऍंगीठी जलाए बैठे रहते हैं, बाहर मुँह नहीं निकाला जाता,जरा धाूप निकल आने दिया करो। लेकिन विनय मुस्कराकर कह देते, बीमार पड़ईँगा, तो कम-से-कम तुम मेरे पास बैठोगी तो। उनकी कई उँगलियों में घाव हो गए, पर वह इन घावों को छिपाए रहते थे।
इन दिनों विनय की दृष्टि सोफिया की एक-एक बात, एक-एक गति पर लगी रहती थी। वह देखना चाहते थे कि मेरी क्रिया का कुछ असर हो रहा है या नहीं, किंतु, कोई प्रत्यक्ष फल न दिखाई देता था। पंद्रहवें दिन जाकर उन्हें सोफिया के व्यवहार में कुछ थोड़ा-सा अंतर दिखाई पड़ा। शायद किसी और समय उनका इस ओर धयान भी न जाता, किंतु आजकल तो उनकी दृष्टि बहुत सूक्ष्म हो गई थी। जब घर से बाहर जाने लगे, तो सोफिया अज्ञात भाव से निकल आई और कई फर्लांग तक उनसे बातें करती हुई चली गई। जब विनय ने बहुत आग्रह किया,तब लौटी। विनय ने समझा, यह उसी क्रिया का असर है।
आज से धाूनी देने की क्रिया आरम्भ होती थी। विनय बहुत चिंतित थे-वह क्रिया क्योंकर पूरी होगी! अकेले सोफी के कमरे में जाना सभ्यता, सज्जनता और शिष्टता के विरुध्द है। कहीं सोफी जाग जाए और मुझे देख ले, तो मुझे कितना नीच समझेगी! कदाचित् सदैव के लिए मुझसे घृणा करने लगे। न भी जागे; तो भी यह कौन-सी भलमंसी है कि कोई आदमी किसी युवती के कमरे में प्रवेश करे। न जाने किस दशा में लेटी होगी। सम्भव है, केश खुले हों, वस्त्रा हट गया हो। उस समय मेरी मनोवृत्तिायाँ कितनी कुचेष्ट हो जाएँगी। मेरा कितना नैतिक पतन हो गया है!
सारे दिन वह इन्हीं अशांतिमय विचारों में पड़े रहे, लेकिन संधया होते ही वह कुम्हार के घर से एक कच्चा प्याला लाए और उसे हिफाजत से रख दिया। मानव-चरित्रा की एक विचित्राता यह है कि हम बहुधाा ऐसे काम कर डालते हैं, जिन्हें करने की इच्छा हमें नहीं होती। कोई गुप्त प्रेरणा हमें इच्छा के विरुध्द ले जाती है।
आधाी रात हुई, तो विनय प्याली में आग और हाथ में वह रक्त-सिंचित जड़ी लिए हुए सोफी की कोठरी के द्वार पर आए। कम्बल का परदा पड़ा हुआ था। झोंपड़े में किवाड़ कहाँ! कम्बल के पास खड़े होकर कान लगाकर सुना। सोफी मीठी नींद सो रही थी। वह थर-थर काँपते,पसीने से तर, अंदर घुसे। दीपक के मंद प्रकाश में सोफी निद्रा में मग्न लेटी हुई ऐसी मालूम होती थी, मानो मस्तिष्क में मधाुर कल्पना विश्राम कर रही हो। विनय के हृदय पर आतंक-सा छा गया। कई मिनट तक मंत्रा-मुग्धा-से खड़े रहे, पर अपने को सँभाले हुए, मानो किसी देवी के मंदिर में हैं। उन्नत हृदयों में सौंदर्य उपासना-भाव को जागृत कर देता है, वासनाएँ विश्रांत हो जाती हैं। विनय कुछ देर तक सोफी को भक्ति-भाव से देखते रहे। तब वह धाीरे-से बैठ गए, प्याली में जड़ी का एक टुकड़ा तोड़कर रख दिया और उसे सोफिया के सिरहाने की ओर खिसका दिया। एक क्षण में जड़ी की सुगंधा से सारा कमरा बस उठा। ऊद और अम्बर में वह सुगंधा कहाँ? धाुएँ में कुछ ऐसी उद्दीप्न-शक्ति थी कि विनय का चित्ता चंचल हो उठा। ज्यों ही धाुऑं बंद हुआ, विनय ने प्याली से जड़ी की राख निकाल ली। भीलनी के आदेशानुसार उसे सोफिया पर छिड़क दिया और बाहर निकल आए। लेकन अपनी कोठरी में आकर वह घंटों बैठे पश्चात्तााप करते रहे। बार-बार अपने नैतिक भावों को चोट पहुँचाने की चेष्टा की। इस कृत्य को विश्वासघात, सतीत्व-हत्या कहकर मन में घृण्ाा का संचार करना चाहा। सोते वक्त निश्चय किया कि बस, इस क्रिया का आज से अंत है। दूसरे दिन दिन-भर उनका हृदय खिन्न, मलिन, उद्विग्न रहा। ज्यों-ज्यों रात निकट आती थी,उन्हें शंका होती जाती थी कि कहीं मैं फिर यह क्रिया न करने लगूँ। दो-तीन भीलों को बुला लाए और उन्हें अपने पास सुलाया। भोजन करने में बड़ी देर की, जिससे चारपाई पर पड़ते-ही-पड़ते नींद आ जाए। जब भोजन करके उठे, तो सोफी आकर उनके पास बैठ गई। यह पहला ही अवसर था कि वह रात को उनके पास बैठी बातें करती रही। आज के समाचार-पत्राों में प्रभु सेवक की पूना में दी हुई वक्तृता प्रकाशित हुई थी। सोफी ने इसे उच्च स्वर में पढ़ा। गर्व से उनका सिर ऊँचा हो गया, बोली-देखो, कितना विलासप्रिय आदमी था, जिसे सदैव अच्छे वस्त्राों और अन्य सुख-सामग्रियों की धाुन सवार रहती थी। उसकी कितनी कायापलट हुई है। मैं समझती थी, इससे कभी कुछ न होगा, आत्मसेवन में ही इसका जीवन व्यतीत होगा। मानव-हृदय के रहस्य कितने दुर्बोधा होते हैं। उसका यह त्याग और अनुराग देखकर आश्चर्य होता है!
विनय-जब प्रभु सेवक इस संस्था के कर्णधाार हो गए, तो मुझे कोई चिंता नहीं। डॉक्टर गांगुली उसे दवा बाँटनेवालों की मंडली बनाकर छोड़ते। पिताजी पर मेरा विश्वास नहीं, और इंद्रदत्ता तो बिलकुल उजव् है। प्रभु सेवक से ज्यादा योग्य पुरुष न मिल सकता था। वह यहाँ होते,तो बलाएँ लेता। यह दैवी सहायता है, और अब मुझे आशा होती है कि हमारी साधाना निष्फल न होगी।
भीलों के खर्राटों की आवाजें आने लगीं। सोफी चलने को उठी, तो उसने विनय को ऐसी चितवनों से देखा, जिसमें प्रेम के सिवा और भी कुछ था-आर्द्र्र आकांक्षा झलक रही थी। एक आर्कषण था, जिसने विनय को सिर से पैर तक हिला दिया। जब वह चली गई, तो उन्होंने एक पुस्तक उठा ली और पढ़ने लगे। लेकिन ज्यों-ज्यों क्रिया का समय आता था, उनका दिल बैठा जाता था। ऐसा जान पड़ता था, जैसे कोई जबरदस्ती उन्हें ठेल रहा है। जब उन्हें यकीन हो गया कि सोफिया सो गई होगी, तो वह धाीरे से उठे, प्याली में आग ली और चले। आज वह कल से भी ज्यादा भयभीत हो रहे थे। एक बार जी में आया कि प्याली को पटक दूँ। लेकिन इसके एक ही क्षण बाद उन्होंने सोफी के कमरे में कदम रखा। आज उन्होंने ऑंखें ऊपर उठाई ही नहीं सिर नीचा किए धाूनी सुलगाई और राख छिड़ककर चले आए। चलती बार उन्होंने सोफिया का मुखचंद्र देखा। ऐसा भासित हुआ कि वह मुस्करा रही है। कलेजा धाक से हो गया। सारे शरीर में सनसनी दौड़ गई। ईश्वर! अब लाज तुम्हारे हाथ में है, इसने देख न लिया हो! विद्युतगति से अपनी कोठरी में आए, दीपक बुझा दिया और चारपाई पर गिर पड़े। घंटों कलेजा धाड़कता रहा।
इस भाँति पाँच दिनों तक विनय ने बड़ी कठिनाइयों से यह साधाना की, और इतने ही दिनों में उन्हें सोफिया पर इसका असर साफ नजर आने लगा। यहाँ तक कि पाँचवें दिन वह दोपहर तक उसके साथ भीलों की झोंपड़ियों की सैर करती रही। उसके नेत्राों में गम्भीर चिंता की जगह अब एक लालसापूर्ण चंचलता झलकती थी और अधारों पर मधाुर हास्य की आभा। आज रात को भोजन के उपरांत वह उनके पास बैठकर समाचार-पत्रा पढ़ने लगी और पढ़ते-पढ़ते उसने अपना सिर विनय की गोद में रख दिया, और उनके हाथों को अपने हाथ में लेकर बोली-सच बताओ विनय, एक बात तुमसे पूछँ, बताओगे न? सच बताना, तुम यह तो नहीं चाहते कि यह बला सिर से टल जाए? मैं कहे देती हूँ, जीते जी न टलूँगी, न तुम्हें छोड़ँईगी, तुम भी मुझसे भागकर नहीं जा सकते। किसी तरह न जाने दूँगी। जहाँ जाओगे, मैं भी चलूँगी,तुम्हारे गले का हार बनी रहूँगी।
यह कहते-कहते उसने विनय के हाथ छोड़ दिए और उनके गले में बाँहें डाल दीं।
विनय को ऐसा मालूम हुआ कि मेरे पैर उखड़ गए हैं और मैं लहरों में बहा जा रहा हूँ। एक विचित्रा आशंका से उनका हृदय काँप उठा,मानो उन्होंने खेल में सिंहनी को जगा दिया हो। उन्हाेंंने अज्ञात भाव से सोफी के कर-पाश से अपने को मुक्त कर लिया और बोले-सोफी!
सोफी चौंक पड़ी, मानो निद्रा में हो। फिर उठकर बैठ गई और बोली-मुझे ऐसा ज्ञात होता है कि पूर्व-जन्म में, उससे पहले भी आदि से तुम्हारी हूँ, कुछ स्वप्न-सा याद आता है कि हम और तुम नदी के किनारे एक झोंपड़े में रहते थे। सच!
विनय ने सशंक होकर कहा-तुम्हारा जी कैसा है?
सोफी-मुझे कुछ हुआ थोड़े ही है, मैं तो अपने पूर्वजन्म की बात याद कर रही हूँ। मुझे ऐसा याद आता है कि तुम मुझे झोंपड़ी में अकेली छोड़कर अपनी नाव पर कहीं परदेश चले गए और मैं नित्य नदी के तीर बैठी हुई तुम्हारी राह देखती थी, पर तुम न आते थे।
विनय-सोफिया मुझे भय हो रहा है कि तुम्हारा जी अच्छा नहीं है। रात बहुत हो गई है, अब सो जाओ।
सोफी-मेरा तो आज यहाँ से जाने का जी नहीं चाहता। क्या तुम्हें नींद आ रही है? तो सोओ, मैं बैठी हूँ। जब तुम सो जाओगे, मैं चली जाऊँगी।
एक क्षण बाद फिर बोली-मुझे न जाने क्यों संशय हो रहा है कि तुम मुझे छोड़ जाओगे।
विनय-सोफी, अब हम अनंत काल तक अलग न होंगे।
सोफी-तुम इतने निर्दय नहीं हो, मैं जानती हूँ। मैं रानीजी से न डरूँगी, साफ-साफ कह दूँगी, विनय मेरे हैं।
विनय की दशा उस भूखे आदमी की-सी थी, जिसके सामने परसी थाली रखी हुई हो, क्षुधाा से चित्ता व्याकुल हो रहा हो, ऑंतें सिकुड़ी जाती हों, ऑंखों में ऍंधोरा छा रहा हो; मगर थाली में हाथ न डाल सकता हो, इसलिए कि पहले किसी देवता का भोग लगना है। उन्हें अब इसमें कोई संदेह न रहा था कि सोफी की व्याकुलता उसी क्रिया का फल है। उन्हें विस्मय होता था कि उस जड़ी में कौन-सी शक्ति है। वह अपने कृत्य पर लज्जित थे, और सबसे अधिाक भयभीत थे, आत्मा से नहीं, परमात्मा से नहीं, सोफी से। जब सोफी को ज्ञात हो जाएगा-कभी-कभी तो यह नशा उतरेगा ही-तब वह मुझसे इसका कारण पूछेगी और मैं छिपा न सकूँगा। उस समय वह मुझे क्या कहेगी!
आखिर जब ऍंगीठी की आग ठंडी हो गई और सोफी को सरदी मालूम होने लगी, तो सोफी चली गई। क्रिया का समय भी आ पहुँचा। लेकिन आज विनय को साहस न हुआ। उन्हें उसकी परीक्षा ही करनी थी, परीक्षा हो गई और तांत्रिाक साधानों पर उन्हें हमेशा के लिए श्रध्दा हो गई।
सोफिया को चारपाई पर लेटते ही भ्रम हुआ कि रानी जाह्नवी सामने खड़ी ताक रही हैं। उसने कम्बल से सिर निकालकर देखा और तब अपनी मानसिक दुर्बलता पर झुँझलाकर सोचने लगी-आजकल मुझे क्या हो गया है? मुझे क्यों भाँति-भाँति के संशय होते रहते हैं? क्यों नित्य अनिष्ट-शंका हृदय पर छाई रहती है? जैसे मैं विचारहीन-सी हो गई हूँ। विनय आजकल क्यों मुझसे खिंचे हुए हैं? कदाचित् वह डर रहे हैं कि रानीजी कहीं उन्हें शाप न दे दें अथवा आत्मघात न कर लें। इनकी बातों में पहले की उत्सुकता, प्रेमातुरता नहीं है। रानी मेरे जीवन का सर्वनाश किए देती हैं।
इन्हीं अशांतिमय विचारों में डूबी हुई वह सो गई, तो देखती क्या है कि वास्तव में रानीजी मेरे सामने खड़ी क्रोधाोन्मत्ता नेत्राों से ताक रही हैं और कह रही हैं-विनय मेरा है। वह मेरा पुत्रा है, उसे मैंने जन्म दिया है, उसे मैंने पाला है, तू क्यों उसे मेरे हाथों से छीने लेती है?अगर तूने मुझसे उसे छीना, मेरे कुल को कलंकित किया, तो मैं तुम दोनों का इस तलवार से बधा कर दूँगी!
सोफी तलवार की चमक देखकर घबरा गई। चिल्ला उठी। नींद टूट गई। उसकी सारी देह तृणवत् काँप रही थी। वह दिल मजबूत करके उठी और विनयसिंह की कोठरी में जाकर उसके सीने से चिपट गई। विनय की ऑंखें लग रही थीं चौंककर सिर उठाया।
सोफी-विनय, विनय जागो, मैं डर रही हूँ।
विनय तुरंत चारपाई से उतरकर खड़े हो गए और पूछा-क्या है सोफी?
सोफी-रानीजी को अभी-अभी मैंने अपने कमरे में देखा। अभी वहीं खड़ी हैं।
विनय-सोफी, शांत हो जाओ। तुमने कोई स्वप्न देखा है। डरने की कोई बात नहीं।
सोफी-स्वप्न नहीं था विनय, मैंने रानीजी को प्रत्यक्ष देखा।
विनय-वह यहाँ कैसे आ जाएँगी? हवा तो नहीं हैं!
सोफी-तुम इन बातों को नहीं जानते विनय! प्रत्येक प्राणी के दो शरीर होते हैं-एक स्थूल, दूसरा सूक्ष्म। दोनों अनुरूप होते हैं, अंतर केवल इतना ही है कि सूक्ष्म शरीर स्थूल में कहीं सूक्ष्म होता है। वह साधाारण दशाओं में अदृश्य है, लेकिन समाधिा या निद्रावस्था में स्थूल शरीर का स्थानापन्न बन जाता है। रानीजी का सूक्ष्म शरीर अवश्य यहाँ है।
दोनाेंं ने बैठकर रात काटी।
सोफिया को अब विनय के बिना क्षण-भर भी चैन नहीं आता। उसे केवल मानसिक अशांति न थी, ऐंद्रिक सुख-भोग के लिए भी उत्कंठित रहती। जिन विषयों की कल्पनामात्रा से उसे अरुचि थी, जिन बातों को याद करके ही उसके मुख पर लालिमा छा जाती, वे कल्पनाएँ और वे ही भावनाएँ अब नित्य उसके चित्ता पर आच्छादित रहतीं। उसे अपनी वासना-लिप्सा पर आश्चर्य होता था। किंतु जब वह विलास-कल्पना करते-करते उस क्षेत्रा में प्रविष्ट होती, जो दाम्पत्य जीवन ही के लिए नियंत्रिात हैं, तो रानीजी की वही क्रोधा-तेज-पूर्ण मूर्ति उसके सम्मुख खड़ी हो जाती और वह चौंककर कमरे से निकल भागती। इस भाँति उसने दस-बारह दिन काटे। कृपाण के नीचे खड़े अभियोगी की दशा भी इतनी चिंताजनक न होगी!
एक दिन वह घबराई हुए विनय के पास आई, बोली-विनय, मैं बनारस जाऊँगी। मैं बड़े संकट में हूँ। रानीजी मुझे यहाँ चैन न लेने देंगी। अगर यहाँ रही, तो शायद जीवन के हाथ धाोना पड़े, मुझ पर अवश्य कोई-न-कोई अनुष्ठान किया गया है। मैं इतनी अव्यवस्थित-चित्ता कभी न थी। मुझे स्वयं ऐसा मालूम होता है अब मैं वह हूँ ही नहीं, कोई और ही हूँ। मैं जाकर रानीजी के पैरों पर गिरूँगी। उनसे अपना अपराधा क्षमा कराऊँगी और उन्हीं की आज्ञा से तुम्हें प्राप्त करूँगी। उनकी इच्छा के बगैर मैं तुम्हें नहीं पा सकती। और जबरदस्ती ले लूँ, तो कुशल से न बीतेगी। विनय, मुझे स्वप्न में भी यह आशंका न थी कि मैं तुम्हारे लिए इतनी अधाीर हो जाऊँगी। मेरा हृदय कभी इतना दुर्बल और इतना मोहग्रस्त न था।
विनय ने चिंतित होकर कहा-सोफी, मुझे आशा है कि थोड़े दिनों में तुम्हारा चित्ता शांत हो जाएगा।
सोफी-नहीं विनय, कदापि नहीं। रानीजी ने तुम्हें एक महान् उद्देश्य के लिए बलि कर रखा है। बलि-जीवन का उपभोग अनिष्टकारक होता है। मैं उनसे भिक्षा मागँगी।
विनय-तो मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगा।
सोफी-नहीं, नहीं, ईश्वर के लिए ऐसा मत कहो। मैं तुम्हें रानीजी के सामने न ले जाऊँगी। मुझे अकेले जाने दो।
विनय-इस दशा में मैं तुम्हें अकेले कभी न जाने दूँगा। अगर ऐसा ही है, तो मैं तुम्हें वहाँ छोड़कर वापस आ जाऊँगा।
सोफी-वचन दो कि बिना मुझसे पूछे रानीजी के पास न जाओगे।
विनय-हाँ, सोफी, यह स्वीकार है। वचन देता हँ।
सोफी-फिर भी दिल नहीं मानता। डर लगता है, वहाँ तुम आवेश में आकर कहीं रानीजी के पास न चले जाओ। तुम यहीं क्यों नहीं रहते?मैं तुम्हें नित्यप्रति पत्रा लिखा करूँगी और जल्द-से-जल्द लौट आऊँगी।
विनय ने उसे तस्कीन देने के लिए अकेले जाने की अनुमति दे दी, लेकिन उनका स्नेह-सिंचित हृदय यह कब मान सकता था कि सोफिया इस अव्यवस्थित दशा में इतनी लम्बी यात्राा करे। सोचा, उसकी निगाह बचाकर किसी दूसरे डब्बे में बैठ जाऊँगा। उन्हें लौटकर आने की बहुत कम आशा थी। भीलों ने सुना, तो भाँति-भाँति के उपहार लेकर बिदा करने आए। मृग-चर्मों, बघनखों और नाना प्रकार की जड़ी-बूटियों का ढेर लग गया था। एक भील ने धानुष भेंट किया। सोफी और विनय, दोनों ही को इस स्थान से प्रेम हो गया था। निवासियों का सरल,स्वाभाविक, निष्कपट जीवन उन्हें ऐसा भा गया था कि उन लोगों को छोड़कर जाते हुए हार्दिक वेदना होती थी। भीलगण रो रहे थे और कह रहे थे, जल्द आना, हमें भूल न जाना। बुढ़िया भीलनी तो उन्हें छोड़ती ही न थी। सब-के-सब स्टेशन तक उन्हें पहुँचाने आए। लेकिन जब गाड़ी आई और वह बैठी, विनय से बिदा होने का समय आया, तो वह विनय के गले लिपटकर रोने लगी। विनय चाहते थे कि निकल जाएँ और किसी दूसरे डब्बे में जा बैठें, पर वह उन्हें छोड़ती ही न थी। मानो यह अंतिम वियोग है। जब गाड़ी ने सीटी दी, तो वह हृदय-वेदना से विकल होकर बोली-विनय, मुझसे इतने दिनों कैसे रहा जाएगा? रो-रोकर मर जाऊँगी। ईश्वर, मैं क्या करूँ?
विनय-सोफी, घबराओ नहीं, मैं तुम्हारे साथ चलूँगा।
सोफी-नहीं, नहीं, ईश्वर के लिए नहीं। मैं अकेली ही जाऊँगी।
विनय गाड़ी मेंं आकर बैठ गए। गाड़ी रवाना हो गई। जरा देर बाद सोफिया ने कहा-तुम न आते, तो मैं शायद घर तक न पहुँचती। मुझे ऐसा ज्ञात हो रहा था कि प्राण निकले जा रहे हैं। सच बताना विनय, तुमने मुझ पर मोहिनी तो नहीं डाल दी है? मैं इतनी अधाीर क्यों हो गई हूँ?
विनय ने लज्जित होकर कहा-क्या जाने सोफी, मैंने एक क्रिया तो की है। नहीं कह सकता कि वह मोहनी थी या कुछ और!
सोफी-सच?
विनय-हाँ, बिलकुल सच। मैं तुम्हारी प्रेम-शिथिलता से डर गया था कि कहीं तुम मुझे फिर से न परीक्षा में डालो।
सोफी ने विनय की गर्दन में हाथ डाल दिए और बोली-तुम बड़े छलिया हो। अपना जादू उतार लो, मुझे क्यों तड़पा रहे हो?
विनय-क्या कहूँ, उतारना नहीं सीखा, यही तो भूल हुई।
सोफी-तो मुझे भी वही मंत्रा क्यों नहीं सीखा देते? न मैं उतार सकूँगी, न तुम उतार सकोगे। (एक क्षण बाद) लेकिन नहीं, मैं तुम्हें संज्ञाहीन न बनाऊँगी। दो में से एक को तो होश में रहना चाहिए। दोनाेंं मदमत्ता हो जाएँगे, तो अनर्थ हो जाएगा, अच्छा, बताओ कौन-सी क्रिया की थी?
विनय ने अपनी जेब से वह जड़ी निकालकर दिखाते हुए कहा-इसी की धाूनी देता था।
सोफी-जब मैं सो जाती थी, तब?
विनय-(सकुचाते हुए) हाँ, सोफी, तभी।
सोफी-तुम बड़े ढीठ हो। अच्छा, अब यही जड़ी मुझे दे दो। तुम्हारा प्रेम शिथिल होते देखूँगी, तो मैं भी यही क्रिया करूँगी।
यह कहकर उसने जड़ी लेकर रख ली। थोड़ी देर बाद उसने पूछा-यह तो बताओ, वहाँ तुम रहोगे कहाँ? मैं रानीजी के पास तुम्हें न जाने दूँगी।
विनय-अब मेरा कोई मित्रा नहीं रहा। सभी मुझसे असंतुष्ट हो रहे होंगे। नायकराम के घर चला जाऊँगा। तुम वहीं आकर मुझसे मिल लिया करना। वह तो घर पहुँच ही गया होगा।
सोफिया-कहीं जाकर कह न दे!
विनय-नहीं, मंदबुध्दि है, पर विश्वासघाती नहीं है।
सोफिया-अच्छी बात है। देखें, रानीजी से मुराद मिलती है या मौत!
तीसरे दिन यात्राा समाप्त हो गई, तो संधया हो चुकी थी। सोफिया और विनय दोनों डरते हुए गाड़ी से उतरे कि कहीं किसी परिचित आदमी से भेंट न हो जाए। सोफिया ने सेवा-भवन (विनयसिंह के घर) चलने का विचार किया; लेकिन आज वह बहुत कातर हो रही थी। रानीजी न जाने कैसे पेश आएँ। वह पछता रही थी कि नाहक यहाँ आई; न जाने कैसी पड़े, कैसी न पड़े। अब उसे अपने ग्रामीण जीवन की याद आने लगी। कितनी शांति थी, कितना सरल जीवन था, न कोई विघ्न था, न बाधाा; न किसी से द्वेष था, न मत्सर। विनयसिंह उसे तस्कीन देते हुए बोले-दिल मजबूत रखना, जरा भी मत डरना, सच्ची घटनाएँ बयान करना, बिलकुल सच्ची, तनिक भी अतिशयोक्ति न हो, जरा भी खुशामद न हो। दया-प्रार्थना का एक शब्द भी मुख से मत निकालना। मैं बातों को घटा-बढ़ाकर अपनी प्राण-रक्षा नहीं करना चाहता। न्याय और शुध्द न्याय चाहता हूँं यदि वह तुमसे अशिष्टता का व्यवहार करें, कटु वचनों का प्रहार करने लगें, तो तुम क्षण-भर भी मत ठहरना। प्रात:काल आकर मुझसे एक-एक बात कहना। या कहो, तो मैं भी तुम्हारे साथ चलूँ?
सोफी उन्हें साथ लेकर चलने पर राजी न हुई। विनय तो पाँडेपुर की तरफ चले, वह सेवा-भवन की ओर चली। ताँगेवाले ने कहा-मिस साहब, आप कहीं चली गई थीं क्या? बहुत दिनों बाद दिखलाई दीं। सोफी का कलेजा धाक-धाक करने लगा। बोली-तुमने मुझे कब देखा? मैं तो इस शहर में पहली बार आई हूँ।
ताँगेवाले ने कहा-आप ही-जैसी एक मिस साहब यहाँ सेवक साहब की बेटी भी थीं। मैंने समझा, आप ही होंगी।
सोफिया-मैं ईसाई नहीं हूँ।
जब वह सेवा-भवन के सामने पहुँची, तो ताँगे से उतर पड़ी। वह रानीजी से मिलने के पहले अपने आने की कानोंकान भी खबर न होने देना चाहती थी। हाथ में अपना बैग लिए हुए डयोढ़ी पर गई और दरबान से बोली-जाकर रानीजी से कहो, मिस सोफिया आपसे मिलना चाहती हैं।
दरबान उसे पहचानता ही था। उठकर सलाम किया और बोला-हुजूर, भीतर चलें, इत्ताला क्या करनी है! बहुत दिनों बाद आपके दरसन हुए।
सोफिया-मैं बहुत अच्छी तरह खड़ी हूँ। तुम जाकर इत्तिाला तो दो।
दरबान-सरकार, उनका मिजाज आप जानती ही हैं। बिगड़ जाएँगी कि उन्हें साथ क्यों न लाया, इत्तिाला क्यों देने आया?
सोफिया-मेरी खातिर से दो-चार बातेंं सुन लेना।
दरबार अंदर गया, तो सोफिया का दिल इस तरह धाड़क रहा था, जैसे कोई पत्ताा हिल रहा हो। मुख पर एक रंग आता था, एक रंग जाता था। धाड़का लगा हुआ था-कहीं रानी साहब गुस्से में भरी वहीं से बिगड़ती हुई न आएँ, यह कहला दें, चली जा, नहीं मिलती! बिना एक बार उनसे मिले तो मैं न जाऊँगी, चाहे वह हजार बार दुतकारें।
एक मिनट भी न गुजरने पाया था कि रानीजी एक शाल ओढ़े हुए द्वार पर आ गईं और उससे टूटकर गले मिली, जैसे माता ससुराल से आनेवाली बेटी को गले लगा ले। उनकी ऑंखों से ऑंसुओं की वर्षा होने लगी। अवरुध्द कंठ से बोली-तुम यहीं क्यों खड़ी हो गईं बेटी, अंदर क्यों न चली आईं? मैं तो नित्यप्रति तुम्हारी बाट जोहती रहती थी। तुमसे मिलने को जी तड़प-तड़पकर रह जाता था। मुझे आशा हो रही थी कि तुम आ रही हो, पर तुम आती न थीं। कई बार यों ही स्टेशन तक गई कि शायद तुम्हें देख पाऊँ। ईश्वर से नित्य मनाती थी कि एक बार तुमसे मिला दे। चलो, भीतर चलो। मैंने तुम्हें जो दुर्वचन कहे थे, उन्हें भूल जाओ! (दरबान से) यह बैग उठा ले। महरी से कह दे, मिस सोफिया का पुराना कमरा साफ कर दे। बेटी, तुम्हारे कमरे की ओर ताकने की हिम्मत नहीं पड़ती, दिल भर-भर आता है।
यह कहते हुए सोफिया का हाथ पकड़े अपने कमरे में आईं और उसे अपनी बगल में मसनद पर बैठाकर बोलीं-आज मेरी मनोकामना पूरी हो गई। तुमसे मिलने के लिए जी बहुत बेचैन था।
सोफिया का चिंता-पीड़ित हृदय इस निरपेक्षित स्नेह-बाहुल्य से विह्नल हो उठा। वह केवल इतना कह सकी-मुझे भी आपके दर्शनों की बड़ी अभिलाषा थी। आपसे दया-भिक्षा माँगने आई हूँ।
रानी-बेटी, तुम देवी हो, मेरी बुध्दि पर परदा पड़ा था। मैंने तुम्हें पहचाना न था। मुझे मालूम है बेटी, सब सुन चुकी हूँ। तुम्हारी आत्मा इतनी पवित्रा है, यह मुझे न मालूम था। आह! अगर पहले से जानती।
यह कहते-कहते रानीजी फूट-फूटकर रोने लगीं। जब चित्ता शांत हुआ, तो फिर बोलीं-अगर पहले से जान गई होती, तो आज इस घर को देखकर कलेजा ठंडा होता। आह! मैंने विनय के साथ घोर अन्याय किया। तुम्हें न मालूम होगा बेटी, जब तुमने…(सोचकर) वीरपालसिंह ही नाम था? हाँ, जब तुमने उसके घर पर रात के समय विनय का तिरस्कार किया, तो वह लज्जित होकर रियासत के अधिाकारियों के पास कैदियो पर दया करने के लिए दौड़ता रहा। दिन-दिन भर निराहार और निर्जल पड़ा रहता, रात-रात भर पड़ा रोया करता, कभी दीवान के पास जाता, कभी एजेंट के पास, कभी पुलिस के प्रधाान कर्मचारी के पास, कभी महाराजा के पास। सबसे अनुनय-विनय करके हार गया। किसी ने न सुनी। कैदियों की दशा पर किसी को दया न आई। बेचारा विनय हताश होकर अपने डेरे पर आया। न जाने किस सोच में बैठा था कि मेरा पत्रा उसे मिला। हाय! (रोकर) सोफी, वह पत्रा नहीं था; विष का प्याला था, जिसे मैंने अपने हाथों उसे पिलाया; कटार थी, जिसे मैंने अपने हाथों उसकी गर्दन पर फेरा। मैंने लिखा था, तुम इस योग्य नहीं हो कि मैं तुम्हें अपना पुत्रा समझ्रू, तुम मुझे अपनी सूरत न दिखाना। और भी न जाने कितनी कठोर बातें लिखी थीं। याद करती हूँ, तो छाती फटने लगती है। यह पत्रा पाते ही वह बिना किसी से कुछ कहे-सुने नायकराम के साथ यहाँ आने के लिए तैयार हो गया। कई स्टेशनों तक नायकराम उसके साथ आए। पंडाजी को फिर नींद आ गई। और जब ऑंख खुली, तो विनय का कहीं गाड़ी में पता न था। उन्होंने सारी गाड़ी तलाश की। फिर उदयपुर तक गए। रास्ते में एक-एक स्टेशन पर उतरकर पूछ-ताछ की, पर कुछ पता न चला। बेटी, यह इस अभागिनी की राम-कथा है। मैं हत्यारिन हूँ! मुझसे बड़ी अभागिनी संसार में और कौन होगी? न जाने विनय का क्या हाल हुआ; कुछ पता नहीं। उसमें बड़ा आत्माभिमान था बेटी, बात का बड़ा धानी था। मेरी बातेेंं उसके दिल पर चोट कर गई। मेरे प्यारे लाल ने कभी सुख न पाया। उसका सारा जीवन तपस्या ही में कटा।
यह कहकर रानी फिर रोने लगीं। सोफी भी रो रही थी। पर दोनों के मनोभावों में कितना अंतर था! रानी के ऑंसू दु:ख; शोक और विषाद के थे, सोफी के ऑंसू हर्ष और उल्लास के।
एक कक्ष में रानीजी ने पूछा-क्यों बेटी, तुमने उसे जेल जाते देखा था, तो बहुत दुबला हो गया था?
सोफी-जी हाँ, पहचाने न जाते थे।
रानी-उसने समझा विद्रोहियों ने तुम्हारे साथ न जाने क्या व्यवहार किया हो। बस, इस बात पर उसे जिद पड़ गई। आराम से बैठो बेटी,अब यही तुम्हारा घर है। अब मेरे लिए तुम्हीं विनय की प्रतिच्छाया हो। अब यह बताओ, तुमने इतने दिनों कहाँ थीं? इंद्रदत्ता तो कहता था कि तुम विनय का तिरस्कार करके तीन ही चार दिन बाद वहाँ से चली आई थीं। इतने दिनों कहाँ रहीं? साल-भर से ऊपर तो हो गया होगा।
सोफिया का हृदय आनंद से गद्गद् हो रहा था। जी में तो आया कि इसी वक्त सारा वृत्ताांत कह सुनाऊँ, माता को शोकाग्नि शांत कर दूँ। पर भय हुआ कि कहीं इनका धार्माभिमान फिर न जागृत हो जाए। विनय की ओर से तो अब वह निश्ंचित हो गई थी। केवल अपने ही विषय में शंका थी। देवता को न पाकर हम पाषाण-प्रतिष्ठा करते हैं। देवता मिल गया, तो पत्थर को कौन पूजे? बोली-क्या बताऊँ, कहाँ थी?इधार-उधार भटकती फिरती थी। और शरण ही कहाँ थी! अपनी भूल पर पछताती और रोती थी। निराश होकर यहाँ चली आई।
रानी-तुम व्यर्थ इतने दिनों कष्ट उठाती रहीं। क्या यह घर तुम्हारा न था? बुरा न मानना बेटी, तुमने विनय के साथ बड़ा अन्याय किया-उतना ही, जितना मैंने। तुम्हारी बात उसे और भी ज्यादा लगी; क्योंकि उसने जो कुछ किया था, तुम्हारे ही हित के लिए किया था। मैं अपने प्रियतम के साथ इतनी निर्दयता कभी न कर सकती। अब तुम स्वयं अपनी भूल पर पछता रही होगी। हम दोनों ही अभिमानी हैं। आह! बेचारे विनय को कहीं सुख न मिला। तुम्हारा हृदय अत्यंत कठोर है। सोचो, अगर तुम्हें खबर मिलती कि विनय को डाकुओं ने पकड़कर मार डाला है, तो तुम्हारी क्या दशा हो जाती? शायद तुम भी इतनी ही दया-शून्य हो जाती। यह मानवीय स्वभाव है। मगर अब पछताने से क्या होता है। मैं आप ही नित्य पछताया करती हूँ। अब तो वह काम सँभालना है, जो उसे अपने जीवन में सबसे प्यारा था। तुमने उसके लिए बड़े कष्ट उठाए; अपमान, लज्जा, दंड सब कुछ झेला। अब उसका काम सँभालो। इसी को अपने जीवन का उद्देश्य समझो। तुम्हें क्या खबर होगी, कुछ दिनों तक प्रभु सेवक इस संस्था के व्यवस्थापक हो गए थे। काम करनेवाला हो, तो ऐसा हो। थोड़े ही दिनों में उसने सारा मुल्क छान डाला और पूरे पाँच सौ वालेंटियर जमा कर लिए, बड़े-बड़े शहरों में शाखाएँ खोल दीं, बहुत-सा रुपया जमा कर लिया। मुझे इससे बड़ा आनंद मिलता था कि विनय ने जिस संस्था पर अपना जीवन बलिदान कर दिया, वह फल-फूल रही है। मगर ईश्वर को न जाने क्या मंजूर था। प्रभु सेवक और कुँवर साहब में अनबन हो गई। प्रभु सेवक उसे ठीक उसी मार्ग पर ले जा रहा था, जिस पर विनय ले जाना चाहता था। कुँवर साहब और उनके परम मित्रा डॉ. गांगुली उसे दूसरे ही रास्ते पर ले जाना चाहते थे। आखिर प्रभु सेवक ने पद-त्याग कर दिया। तभी से संस्था डावाँडोल हो रही है, जाने बचती है या जाती है। कुँवर साहब में एक विचित्रा परिवर्तन हो गया है। वह अब अधिाकारियों से सशंक रहने लगे हैं। अफवाह थी कि गवर्नमेंट इनकी कुल जाएदाद जब्त करनेवाली है। अधिाकारी मंडल के इस संशय को शांत करने के लिए उन्होंने प्रभु सेवक के कार्यक्रम से अपना विरोधा प्रकाशित करा दिया। यही अनबन का मुख्य कारण था। अभी दो महीने भी नहीं गुजरे, लेकिन शीराजा बिखर गया। सैकड़ों सेवक निराश होकर अपने काम-धांधो में लग गए। मुश्किल से दो सौ आदमी और होंगे। चलो बेटी, तुम्हारा कमरा साफ हो गया होगा, तुम्हारे भोजन का प्रबंधा करके तब इतमीनान से बातें करूँ। (महाराजिन से) इन्हें पहचानती है न? तब यह मेरी मेहमान थीं, अब मेरी बहू हैं। जा, इनके लिए दो-चार नई चीजें बना ला। आह! आज विनय होता तो मैं अपने हाथाेंं से इसे उसके गले लगा देती, ब्याह रचाती। शास्त्राों में इसकी व्यवस्था है।
सोफिया की प्रबल इच्छा हुई कि रहस्य खोल दूँ। बात ओठों तक आई और रुक गई।
सहसा शोर मचा-लाला साहब आ गए! लाला साहब आ गए! भैया विनयसिंह आ गए! नौकर-चाकर चारों ओर से दौड़े, लौडियाँ-महरियाँ काम छोड़-छोड़कर भागीं। एक क्षण में विनय ने कमरे में कदम रखा। रानी ने उसे सिर से पैर तक देखा, मानो निश्चय कर रही थीं कि मेरा ही विनय है या कोई और; अथवा देखना चाहती थीं कि उस पर कोई आघात के चिद्द तो नहीं हैं। तब उठीं और बोलीं-बहुत दिनों में आए बेटा! आओ, छाती से लगा लूँ। लेकिन विनय ने तुरंत उनके चरणों पर सिर रख दिया। रानीजी को अश्रु-प्रवाह में न कुछ सूझता था और न प्रेमावेश में कोई बात मुँह से निकलती थी, झुकी हुई विनय का सिर पकड़कर उठाने की चेष्टा कर रही थीं। भक्ति और वात्सल्य का कितना स्वर्गीय संयोग था।
लेकिन विनय को रानी की बातें न भूली थीं। माता को देखकर उसके दिल में जोश उठा कि इनके चरणों पर आत्मसमर्पण कर दूँ। एक विवशकारी उद्गार था प्राण दे देने के लिए, वहीं माता के चरणों पर जीवन का अंत कर देने के लिए, दिखा देने के लिए कि यद्यपि मैंने अपराधा किए हैं, पर सर्वथा लज्जाहीन नहीं हूँ, जीना नहीं जानता, लेकिन मरना जानता हूँ। उसने इधार-उधार निगाह दौड़ाई। सामने ही दीवार पर तलवार लटक रही थी। वह कौंधाकर तलवार उतार लाया और उसे सर से खींचकर बोला-अम्माँ, इस योग्य तो नहीं हूँ कि आपका पुत्रा कहलाऊँ; लेकिन आपकी अंतिम आज्ञा शिरोधाार्य कर अपनी सारी अपकीर्ति का प्रायश्चित्ता कर दिए देता हूँ। मुझे आशीर्वाद दीजिए।
सोफिया चिल्लाकर विनय से लिपट गई। जाह्नवी ने लपककर उसका हाथ पकड़ लिया और बोली-विनय, ईश्वर साक्षी है, मैं तुम्हें कब का क्षमा कर चुकी। तलवार छोड़ दो। सोफी, तू इनके हाथ से तलवार छीन ले, मेरी मदद कर।
विनयसिंह की मुखाकृति तेजोमय हो रही थी, ऑंखे बीरबहूटी बनी हुई थीं। उसे अनुभव हो रहा था कि गर्दन पर तलवार मार लेना कितना सरल है। सोफिया ने दोनों हाथों से उसकी कलाई पकड़ ली और अश्रुपूरित लोचनों से ताकती हुई बोली-विनय, मुझ पर दया करो!
उसकी दृष्टि इतनी करुण, इतनी दीन थी कि विनय का हृदय पसीज गया। मुट्ठी ढीली पड़ गई। सोफिया ने तलवार लेकर खूँटी पर लटका दी। इतने में कुँवर भरतसिंह आकर खड़े हो गए और विनय को हृदय से लगाते हुए बोले-तुम तो बिलकुल पहचाने नहीं जाते, मुँछें कितनी बढ़ गई हैं! इतने दुबले क्यों हो? बीमार थे क्या?
विनय-जी नहीं, बीमार तो नहीं था। ऐसा दुबला भी नहीं हूँ। अब माताजी के हाथाेंं के पकवान खाकर मोटा हो जाऊँगा।
कुँवर-तुम दूर क्यों खड़ी हो सोफिया? आओ, तुम्हें प्यार कर लूँ। रोज ही तुम्हारी याद आती थी। विनय बड़ा भाग्यशाली था कि तुम-जैसी रमणी पाई। संसार में तो मिलती नहीं, स्वर्ग की मैं नहीं कहता। अच्छा संयोग है कि तुम दोनों एक ही दिन आए। बेटी, मैं तुमसे विनय की सिफारिश करता हूँ। तुमने इन्हें जो फटकार बताई थी, उसे सुनकर बेचारा नायकराम स्त्रिायों से इतना डर गया कि तय की कराई सगाई से इनकार कर गया। उम्र भर स्त्राी के लिए तरसता रहा, पर अब नाम भी नहीं लेता। कहता है-यह बेवफा जात होती है। भैया विनयसिंह ने जिसके लिए बदनामी सही, जान पर खेले, वही उनसे ऑंखें फेर ले! कान पकड़े, अब तो मर जाऊँगा, पर ब्याह न करूँगा। अपना हाथ बढ़ाओ विनय! सोफी, यह हाथ लो, तो मुझे इतमीनान हो जाए कि तुम्हारे दिल साफ हो गए। जाह्नवी, चलो हम लोग बाहर चलें, इन्हें एक दूसरे को मनाने दो। इन्हें कितनी ही शिकायतें करनी होंगी, बातें करने के लिए विकल हो रहे होंगे। आज बड़ा शुभ दिन है।
जब एकांत हुआ, तो सोफी ने पूछा-तुम इतनी जल्दी कैसे आ गए?
विनय ने सकुचाते हुए कहा-सोफी, मुझे वहाँ मुँह छिपाकर बैठते हुए शर्म आती थी। प्राण-भय से दबक जाना कायरों का काम है। माताजी की जो इच्छा हो, वही सही। नायकराम कहता रहा, पहले मिस साहब को आने दो; लेकिन मुझसे न रहा गया।
सोफिया-खैर, अच्छा ही हुआ, खूब आ गए। माताजी तुम्हारी चर्चा करके आठ-आठ ऑंसू रोती थी। उनका दिल तुम्हारी तरफ से साफ हो गया है।
विनय-तुम्हें तो कुछ नहीं कहा?
सोफिया-मुझसे तो ऐसा टूटकर गले मिलीं कि मैं चकित हो गई। यह उन्हीं कठोर वचनों का प्रभाव है, जो मैंने तुम्हें कहे थे। माता आप चाहे पुत्रा को कितनी ही ताड़ना दे, यह गवारा नहीं करती कि कोई दूसरा उसे कड़ी निगाह से भी देखे। मेरे अन्याय ने उनकी न्याय-भावना को जागृत कर दिया।
विनय-हम लोग बड़े शुभ मुहूर्त में चले थे।
सोफिया-हाँ विनय, अभी तक तो कुशल से बीती। आगे की ईश्वर जाने।
विनय-हम अपना दु:ख का हिस्सा भोग चुके।
सोफिया ने आशंकित स्वर से कहा-ईश्वर करे, ऐसा ही हो।
किंतु सोफिया के अंतस्तल में अनिष्ट-शंका का प्रतिबिंब दिखाई दे रहा था। वह उसे प्रकट न कर सकती थी, पर उसका चित्ता उदास था। सम्भव है कि जन्मगत धाार्मिक संस्कारों से विमुख हो जाने का खेद इसका कारण हो अथवा वह इसे वह अतिवृष्टि समझ रही हो, जो अनावृष्टि की सूचना देती है। कह नहीं सकते, पर जब सोफी रात को भोजन करके सोई, तो उसका चित्ता किसी बोझ से दबा हुआ था।
मिल के तैयार होने में अब बहुत थोड़ी कसर रह गई थी। बाहर से तम्बाकू की गाड़ियाँ लदी चली आती थीं। किसानों को तम्बाकू बोने के लिए दादनी दी जा रही थी। गवर्नर से मिल को खोलने की रस्म अदा करने के लिए प्रार्थना की गई थी और उन्होंने स्वीकार भी कर लिया था। तिथि निश्चित हो चुकी थी। इसलिए निर्माण-कार्य को उस तिथि तक समाप्त करने के लिए बड़े उत्साह से काम किया जा रहा था। उस दिन तक कोई काम बाकी न रहना चाहिए। मजा तो जब आए कि दावत में इसी मिल का बना हुआ सिगार भी रखा जाए। मिस्टर जॉन सेवक सुबह से शाम तक इन्हीं तैयारियों में दत्ताचित्ता रहते थे। यहाँ तक कि रात को दुगुनी मजदूरी देकर काम कराया जा रहा था। मिल के आस-पास पक्के मकान बन चुके थे। सड़क के दोनों किनारों पर और निकट के खेतों में मजदूरों ने झोंपड़ियाँ डाल ली थीं। एक मील तक सड़क के दोनों ओर झोंपड़ियों की श्रेणियों ही नजर आती थीं। यहाँ बड़ी चहल-पहल रहती थी। दूकानदारों ने भी अपने-अपने छप्पर डाल लिए थे। पान,मिठाई, नाज, गुड़, घी, साग, भाजी और मादक वस्तुओं की दूकानें खुल गई थीं। मालूम होता था, कोई पैठ है।
मिल के परदेसी मजदूर, जिन्हें न बिरदारी का भय था, न सम्बंधिायों का लिहाज, दिन-भर तो मिल के काम करते, रात को ताड़ी-शराब पीते। जुआ नित्य होता था। ऐसे स्थानों पर कुलटाएँ भी आ पहुँचती हैं। यहाँ भी एक छोटा-मोटा चकला आबाद हो गया था। पाँड़ेपुर का पुराना बाजार सर्द होता जाता था। मिठुआ, घीसू, विद्याधार तीनों अकसर इधार सैर करने आते और जुआ खेलते। घीसू तो दूधा बेचने के बहाने आता,विद्याधार नौकरी खोजने के बहाने और मिठुआ केवल उन दोनों का साथ देने आया करता था। दस-ग्यारह बजे रात तक वहाँ बड़ी बहार रहती थी। कोई चाट खा रहा है, कोई तम्बोली की दूकान के सामने खड़ा है, कोई वेश्याओं से विनोद कर रहा है। अश्लील हास-परिहास, लज्जास्पद नेत्रा-कटाक्ष और कुवासनापूर्ण हाव-भाव का अविरल प्रवाह होता रहता था। पाँड़ेपुर में ये दिलचस्पियाँ कहाँ? लड़कों की हिम्मत न पड़ती थी कि ताड़ी की दूकान के सामने खड़े हों, कहीं घर का कोई आदमी देख न ले। युवकों की मजाल न थी कि किसी स्त्राी को छेड़े, कहीं मेरे घर जाकर कह न दे। सभी एक दूसरे से सम्बंधा रखते थे। यहाँ वे रुकावटें कहाँ? प्रत्येक प्राणी स्वच्छंद था। उसे न किसी का भय था, न संकोच। कोई किसी पर हँसनेवाला न था। तीनों ही युवकों को मना किया जाता था, वहाँ न जाएा करो, जाओ भी तो अपना काम करके चले आया करो; किंतु जवानी दीवानी होती है, कौन किसी की सुनता है। सबसे बुरी दशा बजरंगी की थी। घीसू नित्य रुपये-आठ आने उड़ा लिया करता। पूछने पर बिगड़कर कहता, क्या मैं चोर हूँ?
एक दिन बजरंगी ने सूरदास से कहा-सूरे, लड़के बरबाद हुए जाते हैं। जब देखो, चकले ही में डटे रहते हैं। घिसुआ में चोरी की बान कभी न थी। अब ऐसा हथलपका हो गया है कि सौ जतन से पैसे रख दो, खोजकर निकाल लेता है।
जगधार सूरदास के पास बैठा हुआ था। ये बातें सुनकर बोला-मेरी भी वही दसा है भाई! विद्याधार को कितना पढ़ाया-लिखाया, मिडिल तक खींच-खाँचकर ले गया। आप भूखा रहता था, घर के लोग कपड़ों को तरसते थे, मगर उसके लिए किसी बात की कमी न थी। आशा थी, चार पैसे कमाएगा, मेरा बुढ़ापा कट जाएगा, घर-बार सँभालेगा, बिरादरी में मरजाद बढ़ाएगा। सो अब रोज वहाँ जाकर जुआ खेलता है। मुझसे बहाना करता है कि वहाँ एक बाबू के पास काम सीखने जाता हूँ। सुनता हूँ, किसी औरत से उसकी आसनाई हो गई है। अभी पुतलीघर के कई मजदूर उसे खोजते हुए मेरे पास आए थे। उसे पा जाएँ तो मार-पीट करें। वे भी उसी औरत के आसना हैं। मैंने हाथ-पैरकर पकड़कर उनको बिदा किया। यह कारखाना क्या खुला, हमारी तबाही आ गई! फायदा जरूर है, चार पैसे की आमदनी है। पहले एक ही खोंचा न बिकता था, अब तीन-तीन बिक जाते हैं, लेकिन ऐसा सोना किस काम का, जिससे कान फटे!
बजरंगी-अजी, जुआ ही खेलता, तब तक गनीमत थी, हमारा घीसू तो आवारा हो गया है। देखते नहीं हो, सूरत कैसी बिगड़ गई है! कैसी देह निकल आई थी! मुझे पूरी आशा थी कि अब दंगल मारेगा, अखाड़े का कोई पट्ठा उसके जोड़ का नहीं है, मगर जब से चकले की चाट पड़ गई है, दिन-दिन घुलता जाता है। दादा को तुमने देखा था न? दस-पाँच कोस के इर्द-गिर्द कोई उनसे हाथ न मिला सकता था। चुटकी से सुपारी तोड़ देते थे। मैंने भी जवानी में कितने ही दंगल मारे। तुमने तो देखा ही था, उस पंजाबी को कैसा मारा था कि पाँच सौ रुपये इनाम पाए और अखबारों में दूर-दूर तक नाम हो गया। कभी किसी माई के लाल ने मेरी पीठ में धाूल नहीं लगाई। तो बात क्या थी? लँगोटे के सच्चे थे। मोंछें निकल आई थीं, तब तक किसी औरत का मुँह न देखा था। ब्याह हो गया, तब भी मेहनत-कसरत की धाुन में औरत का धयान ही न करते थे। उसी के बल पर अब भी दावा है कि दस-पाँच का सामना हो जाए, तो छक्के छुड़ा दूँ, पर इस लौंड़े ने डोंगा डुबा दिया?घूरे उस्ताद कहते थे कि इसमें दम ही नहीं है, जहाँ दो पकड़ हुए, बस भैंसे की तरह हाँफने लगता है।
सूरदास-मैं अंधाा आदमी लौंडों के ये कौतुक क्या जानूँ, पर सुभागी कहती है कि मिठुआ के ढंग अच्छे नहीं हैं। जब से टेसन पर कुली हो गया है, रुपये-आठ आने रोज कमाता है, मुदा कसम ले लो, जो घर पर एक पैसा भी देता हो। भोजन मेरे सिर करता है; जो कुछ पाता है,नसे-पानी में उड़ा देता है।
जगधार-तुम भी झूठमूठ लाज ढो रहे हो। निकाल क्यों नहीं देते घर से? अपने सिर पड़ेगी, तो आटे-दाल का भाव मालूम होगा। अपना लड़का हो, तो एक बात है; भाई-भतीजे किसके होते हैं?
सूरदास-पाला तो लड़के ही की तरह, दिल ही नहीं मानता।
जगधार-अपना बनाने से थोड़े ही अपना हो जाएगा।
ठाकुरदीन भी आ गया था। जगधार की बात सुनकर बोला-भगवान् ने क्या तुम्हारे करम में काँटे ही बोना लिखा है, किसी का भी भला नहीं देख सकते?
सूरदास-उसके मन में जो आए, करे, पर मेरे हाथों तो यह नहीं हो सकता कि मैं आप खाकर सोऊँ और उसकी बात न पूछँ।
ठाकुरदीन-कोई बात कहने के पहले सोच लेना चाहिए कि सुननेवाले को अच्छी लगेगी या बुरी। जिस लड़के को बालपन से पाला, और इस तरह पाला कि कोई अपने बेटे को भी न पालता होगा, उसे अब छोड़ दें।?
जमुनी-अब के कलजुगी लड़के जो कुछ न करें थोड़ा है। अभी दूधा के दाँत नहीं टूटे, सुभागी ने घीसू को गोद खेलाया है, सो आज वह उसी से दिल्लगी करता है। छोटे-बड़े का लिहाज उठ गया। वह तो कहो, सुभागी की काठी अच्छी है, नहीं बाल-बच्चे हुए होते, तो घीसू से जेठे होते।
यहाँ तो ये बातें हो रही थीं, उधार तीनों लौंडे नायकराम के दालान में बैठे हुए मंसूबे बाँधा रहे थे। घीसू ने कहा-सुभागी मारे डालती है। देखकर यही जी चाहता है कि गले लगा लें। सिर पर साग की टोकरी रखकर बल खाती हुई चलती है, सो जान ले लेती है। बड़ी काफर है!
विद्याधार-तुम तो हो घामड़, पढ़े-लिखे तो हो नहीं, बात क्या समझो। मासूक कभी अपने मुँह से थोड़े ही कहता है कि मैं राजी हूँ। उसकी ऑंखों से ताड़ जाना चाहिए। जितना ही बिगड़े, उतनी ही दिल से राजी समझो। कुछ पढ़े होते तो जानते कि औरतें कैसे नखरे करती हैं।
मिठुआ-पहले सुभागी मुझसे भी इसी तरह बिगड़ती थी, किसी तरह हत्थे ही न चढ़े, बात तक न सुने; पर मैंने हिम्मत करके एक दिन कलाई पकड़ ली, और बोला-अब न छोड़ँईगा, चाहे मार ही डाल। मरना तो एक दिन है ही, तेरे ही हाथों मरूँगा। यों भी तो मर रहा हूँ, तेरे हाथों मरूँगा, तो सिधो सरग जाऊँगा। पहले तो बिगड़कर गालियाँ देने लगी, फिर कहने लगी-छोड़ दो, कहीं कोई देख ले, तो गजब हो जाए। मैं तेरी बुआ लगती हूँ। पर मैंने एक न सुनी। बस, फिर क्या था। उसी दिन से आ गई चंगुल में।
मिठुआ अपनी प्रेम-विजय की कल्पित कथाएँ गढ़ने में निपुण था। निरक्षर होने पर भी गप्पें मारने में उसने विद्याधार को मात कर दिया था। अपनी कल्पनाओं में कुछ ऐसा रंग भरता था कि मित्राों को उन गपोड़ों पर विश्वास आ जाता था। घीसू बोला-क्या करूँ, मेरी तो हिम्मत ही नहीं पड़ती। डरता हूँ, कहीं शोर मचा दे, तो आफत आ जाए। तुम्हारी हिम्मत कैसे पड़ गई थी?
विद्याधार-तुम्हारा सिर जाहिल-जपाट तो हो। मासूक अपने आसिक को आजमाता है कि इसमें कुछ जीवट भी है कि यों ही छैला बना फिरता है। औरत उसी को प्यार करती है, जो दिलावर हो, निडर हो, आग में कूद पड़े।
घीसू-तुम तैयार हो?
विद्याधार-हाँ, आज ही।
मिठुआ-मगर देख लेना, दादा द्वार पर नीम के नीचे सोते हैं।
घीसू-इसका क्या डर। एक धाक्का दूँगा, दूर जाके गिरेगा।
तीनों मिस्कौट करते, इस षडयंत्रा के दाँव-पेच सोचते हुए, कुली बाजार की तरफ चले गए। वहाँ तीनों ने शराब पी, दस-ग्यारह बजे रात तक बैठे गाना-बजाना सुनते रहे। मदिरालयों में स्वरहीन कानों के लिए संगीत की कभी कमी नहीं रहती। तीनों नशे में चूर होकर लौटे, तो घीसू बोला-सलाह पक्की है न? आज वारा-न्यारा हो जाए, चित पड़े या पट।
आधाी रात बीत चुकी थी। चौकीदार पहरा देकर जा चुका था। घीसू और विद्याधार सूरदास के द्वार पर आए।
घीसू-तुम आगे चलो, मैं यहाँ खड़ा हूँ।
विद्याधार-नहीं, तुम जाओ, तुम गँवार आदमी हो। कोई देख लेगा, तो बात भी न बना सकोगे।
नशे ने घीसू को आपे से बाहर कर रखा था। कुछ यह दिखाना भी मंजूर था कि तुम लोग मुझे जितना बोदा समझते हो, उतना बोदा नहीं हूँ। झोंपड़ी में घुस ही तो पड़ा, और जाकर सुभागी की बाँह पकड़ ली। सुभागी चौंककर उठ बैठी और जोर से बोली-कौन है? हट।
घीसू-चुप-चुप, मैं हूँ।
सुभागी-चोर-चोर! चोर-चोर!
सूरदास जागा। उठकर मड़ैया में जाना चाहता था कि किसी ने उसे पकड़ लिया। उसने डाँटकर पूछा, कौन है? जब कुछ उत्तार न मिला,तब उसने भी उस आदमी का हाथ पकड़ लिया और चिल्लाया-चोर! चोर! मुहल्ले के लोग ये आवाजें सुनते ही लाठियाँ लेकर निकल पड़े। बजरंगी ने पूछा, कहाँ, गया कहाँ? सुभागी बोली, मैं पकड़े हुए हूँ। सूरदास ने कहा, एक को मैं पकड़े हुए हूँ। लोगों ने आकर देखा, तो भीतर सुभागी घीसू को पकड़े हुए है, बाहर सूरदास विद्याधार को। मिठुआ नायकराम के द्वार पर खड़ा था। यह हुल्लड़ सुनते ही भाग खड़ा हुआ। एक क्षण में सारा मुहल्ला टूट पड़ा। चोर को पकड़ने के लिए बिरले ही निकलते हैं, पकड़े गए चोर पर पँचलतियाँ जमाने के लिए सभी पहुँच जाते हैं। लेकिन यहाँ आकर देखते हैं, तो न चोर, न चोर का भाई, बल्कि अपने ही मुहल्ले के लौंडे हैं।
एक स्त्राी बोली-यह जमाने की खूबी है कि गाँव-घर का विचार उठ गया, किसकी आबरू बचेगी!
ठाकुरदीन-ऐसे लौंडों का सिर काट लेना चाहिए।
नायकराम-चुप रहो ठाकुरदीन, यह गुस्सा करने की बात नहीं, रोने की बात है।
जगधार-बजरंगी जमुनी सिर झुकाए चुप खड़े थे, मुँह से बात न निकलती थी। बजरंगी को तो ऐसा क्रोधा आ रहा था कि घीसू का गला घोंट दे। यह जमाव और हलचल देखकर कई कांस्टेबिल भी आ पहुँचे। अच्छा शिकार फँसा, मुट्ठियाँ गरम होंगी। तुरंत दोनों युवकों की कलाइयाँ पकड़ लीं। जमुनी ने रोकर कहा-ये लौंडे मुँह में कालिख लगानेवाले हैं। अच्छा होगा, छ:-छ: महीने की सजा काट आएँगे, तब इनकी ऑंखें खुलेंगी। समझाते-समझाते हार गई कि बेटा, कुराह मत चलो, लेकिन कौन सुनता है? अब जाके चक्की पीसो। इससे तो अच्छा था कि बाँझ ही रहती।
नायकराम-अच्छा, अब अपने-अपने घर जाते जाव। जमादार, लौंड़ें हैं, छोड़ दो, आओ चलें।
जमादार-ऐसा न कहो पंडाजी, कोतवाल साहब को मालूम हो जाएगा, तो समझेंगे, इन सबों ने ले-देकर छोड़ दिया होगा।
नायकराम-क्या कहते हो सूरे, अब ये लोग जाएँ न?
ठाकुरदीन-हाँ, और क्या। लड़कों से भूल-चूक हो ही जाती है। काम तो बुरा किया, पर अब जाने दो, जो हुआ सो हुआ।
सूरदास-मैं कौन होता हूँ कि जाने दूँ! जाने दें कोतवाल, डिपटी, हाकिम लोग!
बजरंगी-सूरे, भगवान जानता है, जान का डर न होता, तो इस दुष्ट को कच्चा ही चबा जाता।
सूरदास-अब तो हाकिम लोगों के हाथ में है, छोड़ें चाहे सजा दें।
बजरंगी-तुम कुछ न करो, तो कुछ न होगा। जमादारों को हम मना लेंगे।
सूरदास-तो भैया, साफ-साफ बात यह है कि मैं बिना सरकार में रपट किए न मानूँगा, चाहे सारा मुहल्ला मेरा दुसमन हो जाए।
बजरंगी-क्या यही होगा सूरदास? गाँव-घर, टोले-मुहल्ले का कुछ लिहाज न करोगे? लड़कों से भूल तो हो ही गई, अब उनकी जिंदगानी खराब करने से क्या मिलेगा?
जगधार-सुभागी ही कहाँ की देवी है! जब से भैरों ने छोड़ दिया, सारा मुहल्ला उसका रंग-ढंग देख रहा है। बिना पहले की साँठ-गाँठ के कोई किसी के घर नहीं घुसता!
सूरदास-तो यह सब मुझसे क्या कहते हो भाई, सुभागी देवी हो, चाहे हरजाई हो, वह जाने, उसका काम जाने। मैंने अपने घर में चोरों को पकड़ा है, इसकी थाने में जरूर इत्तिाला करूँगा, थानेवाले न सुनेंगे, तो हाकिम से कहूँगा। लड़के लड़कों की राह रहें तो लड़के हैं; सोहदों की राह चलें, तो सोहदे हैं। बदमासों के और क्या सींगपूँछ होती है?
बजरंगी-सूरे, कहे देता हूँ, खून हो जाएगा।
सूरदास-तो क्या हो जाएगा? कौन कोई मेरे नाम को रोनेवाला बैठा हुआ है?
नायकराम ने वहाँ ठहरना व्यर्थ समझा। क्यों नींद खराब करें? चलने लगे, तो जगधार ने कहा-पंडाजी, तुम भी जाते हो, यहाँ क्या होगा?
नायकराम ने जवाब दिया-भाई, सूरदास मानेगा नहीं, चाहे लाख कहो। मैं भी तो कह चुका, कहो और हाथ-पैर पड़ईँ, पर होना-हवाना कुछ नहीं। घीसू और विद्या की तो बात ही क्या, मिठुआ भी होता, तो सूरे उसे भी न छोड़ता। जिद्दी आदमी है।
जगधार-ऐसा कहाँ का धान्नासेठ है कि अपने मन ही की करेगा। तुम चलो, ज़रा डाँटकर कहो तो।
नायकराम लौटकर सूरदास से बोले-सूरे, कभी-कभी गाँव-घर के साथ मुलाहजा भी करना पड़ता है। लड़कों की जिंदगानी खराब करके क्या पाओगे?
सूरदास-पंडाजी, तुम भी औरों की-सी कहने लगे! दुनिया में कहीं नियाव है कि नहीं? क्या औरत की आबरू कुछ होती ही नहीं? सुभागी गरीब है, अबला है, मजूरी करके अपना पेट पालती है, इसलिए जो कोई चाहे, उसकी आबरू बिगाड़ दे? जो चाहे, उसे हरजाई समझ ले?
सारा मुहल्ला एक हो गया, यहाँ तक दोनों चौकीदार भी मुहल्लेवालों की-सी कहने लगे। एक बोला-औरत खुद हरजाई है।
दूसरा-मुहल्ले के आदमी चाहें, तो खून पचा लें, यह कौन-सा बड़ा जुर्म है।
पहला-सहादत ही न मिलेगी, तो जुर्म क्या साबित होगा?
सूरदास-सहादत तो जब न मिलेगी, जब मैं मर जाऊँगा। वह हरजाई है?
चौकीदार-हरजाई तो है ही। एक बार नहीं, सौ बार उसे बाजार में तरकारी बेचते और हँसते देखा है।
सूरदास-तो बाजार में तरकारी बेचना और हँसना हरजाइयों का काम है?
चौकीदार-अरे, तो जाओगे तो थाने ही तक न! वहाँ भी तो हमीं से रपट करोगे?
नायकराम-अच्छी बात है, इसे रपट करने दो। मैं देख लूँगा। दारोगाजी कोई बिराने आदमी नहीं हैं।
सूरदास-हाँ दारोगाजी के मन में जो आए करें, दोस-पास उनके साथ हैं।
नायकराम-कहता हूँ, मुहल्ले में न रहने पाओगे।
सूरदास-जब तक जीता हूँ, तब तक तो रहूँगा, मरने के बाद देखी जाएगी।
कोई सूरदास को धामकाता था, कोई समझाता था। वहाँ वही लोग रहे गए थे, जो इस मुआमले को दबा देना चाहते थे। जो लोग इसे आगे बढ़ाने के पक्ष में थे, वे बजरंगी और नायकराम के भय से कुछ कह न सकने के कारण अपने-अपने घर चले गए थे। इन दोनों आदमियों से बैर मोल लेने की किसी में हिम्मत न थी। पर सूरदास अपनी बात पर ऐसा अड़ा कि किसी भाँति मानता ही न था। अंत को यही निश्चय हुआ कि इसे थाने जाकर रपट कर आने दो। हम लोग थानेदार ही को रोजी कर लेंग। दस-बीस रुपये से गम खाएँगे।
नायकराम-अरे, वही लाला थानेदार है न? उन्हें मैं चुटकी बजाते-बजाते गाँठ लूँगा। मेरी पुरानी जान-पहचान है।
जगधार-पंडाजी, मेरे पास तो रुपये भी नहीं हैं, मेरी जान कैसे बचेगी?
नायकराम-मैं भी तो परदेश से लौटा हूँ। हाथ खाली हैं। जाके कहीं रुपये की फिकिर करो।
जगधार-मैं सूरे को अपना हितू समझता था। जब कभी काम पड़ा है, उसकी मदद की है। इसी के पीछे भैरों से दुश्मनी हुई। और, अब भी यह मेरा न हुआ!
नायकराम-यह किसी का नहीं है। जाकर देखो, जहाँ से हो सके, 25 रुपये तो ले ही आओ।
जगधार-भैया, रुपये किससे माँगने जाऊँ? कौन पतियाएगा?
नायकराम-अरे, विद्या की अम्माँ से कोई गहना ही माँग लो। इस बखत तो प्रान बचें, फिर छुड़ा देना।
जगधार बहाने करने लगा-वह छल्ला तक न देगी; मैं मर भी जाऊँ, तो कफन के लिए रुपये न निकालेगी। यह कहते-कहते वह रोने लगा। नायकराम को उस पर दया आ गई। रुपये देने का वचन दे दिया।
सूरदास प्रात:काल थाने की ओर चला, तो बजरंगी ने कहा-सूरे, तुम्हारे सिर पर मौत खेल रही है, जाओ।
जमुनी सूरे के पैरों से लिपट गई और रोती हुई बोली-सूरे, तुम हमारे बैरी हो जाओगे, यह कभी आसा न थी।
बजरंगी ने कहा-नीच है, और क्या! हम इसको पालते ही चले आते हैं। भूखों कभी सोने नहीं दिया। बीमारी-आरामी में कभी साथ नहीं छोड़ा। जब कभी दूधा माँगने आया, खाली हाथ नहीं जाने दिया। इस नेकी का यह बदला! सच कहा है, अंधाों में मुरौवत नहीं होती। एक पासिन के पीछे!
नायकराम पहले ही लपककर थाने जा पहुँचे और थानेदार से सारा वृत्ताांत सुनाकर कहा-पचास का डौल है, कम न ज्यादा। रपट ही न लिखिए।
दारोगा ने कहा-पंडाजी, जब तुम बीच में पड़े हुए हो, तो सौ-पचास की कोई बात नहीं; लेकिन अंधो को मालूम हो जाएगा कि रपट नहीं लिखी गई, तो सीधाा डिप्टी साहब के पास जा पहुँचेगा। फिर मेरी जान आफत में पड़ जाएगी। निहायत रूखा अफसर है, पुलिस का तो जानी दुश्मन ही समझो। अंधाा यों माननेवाला आसामी नहीं है। जब इसने चतारी के राजा साहब को नाकों चने चबवा दिए, तो दूसरों की कौन गिनती है! बस, यही हो सकता है कि जब मैं तफतीश करने आऊँ, तो आप लोग किसी को शहादत न देने दें। अदम सबूत में मुआमला खारिज हो जाएगा। मैं इतना ही कर सकता हूँ कि शहादत के लिए किसी को दबाऊँगा नहीं, गवाहों के बयान में भी कुछ काट-छाँट कर दूँगा।
दूसरे दिन संधया समय दारोगाजी तहकीकात करने आए। मुहल्ले के सब आदमी जमा हुए; मगर जिससे पूछो, यही कहता है-मुझे कुछ मालूम नहीं है, मैं कुछ नहीं जानता, मैंने रात को किसी की ‘चोर-चोर’ आवाज नहीं सुनी, मैंने किसी को सूरदास के द्वार पर नहीं देखा, मैं तो घर में द्वार बंद किए पड़ा सोता था। यहाँ तक कि ठाकुरदीन ने भी साफ कहा-साहब, मैं कुछ नहीं जानता। दारोगा ने सूरदास पर बिगड़कर कहा-झूठी रपट है बदमाश!
सूरदास-रपट झूठी नहीं है, सच्ची है।
दारोगा-तेरे कहने से सच्ची मान लूँ? कोई गवाह भी है?
सूरदास ने मुहल्लेवालों को सम्बोधिात करके कहा-यारो, सच्ची बात कहने से मत डरो। मेल-मुरौवत इसे नहीं कहते कि किसी औरत की आबरू बिगाड़ दी जाए और लोग उस पर परदा डाल दें। किसी के घर में चोरी हो जाए और लोग छिपा लें। अगर यही हाल रहा, तो समझ लो कि आबरू न बचेगी। भगवान् ने सभी को बेटियाँ दी हैं, कुछ उनका खियाल करो। औरत की आबरू कोई हँसी-खेल नहीं है। इसके पीछे सिर कट जाते हैं, लहू की नदी बह जाती है। मैं और किसी से नहीं पूछता, ठाकुरदीन, तुम्हें भगवान का भय है, पहले तुम्हीं आए थे, तुमने यहाँ क्या देखा? क्या मैं और सुभागी दोनों घीसू और विद्याधार का हाथ पकड़े हुए थे? देखो, मुँहदेखी नहीं, साथ कोई न जाएगा। जो कुछ देखा हो,सच कह दो।
ठाकुरदीन धार्मभीरु प्राणी था। ये बातें सुनकर भयभीत हो गया और बोला-चोरी-डाके की बात तो मैं कुछ नहीं जानता, यही पहले भी कह चुका, बात बदलनी नहीं आती। हाँ, जब मैं आया तो तुम और सुभागी दोनों लड़कों को पकड़े चिल्ला रहे थे।
सूरदास-मैं उन दोनों को उनके घर से तो नहीं पकड़ लाया था?
ठाकुरदीन-यह दैव जाने। हाँ, ‘चोर-चोर’ की आवाज मेरे कान में आई थी।
सूरदास-अच्छा, अब मैं तुमसे पूछता हूँ जमादार, तुम आए थे न? बोलो, यहाँ जमाव था कि नहीं?
चौकीदार ने ठाकुरदीन को फूटते देखा, तो डरा कि कहीं अंधाा दो-चार आदमियों को और फोड़ लेगा, तो हम झूठे पडेंग़े। बोला-हाँ, जमाव क्यों नहीं था!
सूरदास-घीसू को सुभागी पकड़े हुए थी कि नहीं? विद्याधार को मैं पकड़े हुए था कि नहीं?
चौकीदार-चोरी होते हमने नहीं देखी।
सूरदास-हम इन दोनों लड़कों को पक्+ड़े थे कि नहीं?
चौकीदार-हाँ, पकड़े तो थे, पर चोरी होते देखी नहीं?
सूरदास-दारोगाजी, अभी शहादत मिली कि और दूँ? यहाँ नंगे-लुच्चे नहीं बसते, भलेमानसों ही की बस्ती है। कहिए, बजरंगी से कहला दूँ;कहिए, खुद घीसू से कहला दूँ? कोई झूठी बात न कहेगा। मुरौवत मुरौवत की जगह होती है, मुहब्बत मुहब्बत की जगह है। मुरौवत और मुहब्बत के पीछे कोई अपना परलोक न बिगाड़ेगा।
बजरंगी ने देखा, अब लड़के की जान नहीं बचती, तो अपना ईमान क्यों बिगाड़े? दारोगा के सामने आकर खड़ा हो गया और बोला-दारोगाजी, सूरे जो बात कहते हैं, वह ठीक है। जिसने जैसी करनी की है, वैसी भोगे। हम क्यों अपनी आकबत बिगाड़ें? लड़का ऐसा नालायक न होता, तो आज मुँह में कालिख क्यों लगती? अब उसका चलन ही बिगड़ गया, तो मैं कहाँ तक बचाऊँगा? सजा भोगेगा, तो आप ऑंखें खुलेंगी।
हवा बदल गई। एक क्षण में साक्षियों का ताँता बँधा गया। दोनों अभियुक्त हिरासत में ले लिए गए। मुकदमा चला, तीन-तीन महीने की सजा हो गई। बजरंगी और जगधार दोनों सूरदास के भक्त थे। नायकराम का यह काम था कि सब किसी से सूरदास के गुन गाया करें। अब ये तीनों उसके दुश्मन हो गए। दो बार पहले पहले भी वह अपने मुहल्ले का द्रोही बन चुका था, पर उन दोनों अवसरों पर किसी को उसकी जात से इतना आघात न पहुँचा था, अबकी तो उसने घोर अपराधा किया था। जमुनी जब सूरदास को देखती, तो सौ काम छोड़कर उसे कोसती। सुभागी को घर से निकलना मुश्किल हो गया। यहाँ तक कि मिठुआ ने भी साथ छोड़ दिया। अब वह रात को भी स्टेशन पर ही रह जाता। अपने साथियों की दशा ने उसकी ऑंखें खोल दीं। नायकराम तो इतने बिगड़े कि सूरदास के द्वार का रास्ता ही छोड़ दिया, चक्कर खाकर आते-जाते। बस, उसके सम्बंधिायों में ले-देके एक भैरों रह गया। हाँ, कभी-कभी दूसरों की निगाह बचाकर ठाकुरदीन कुशल-समाचार पूछ जाता। और तो और दयागिरि भी उससे कन्नी काटने लगे कि कहीं लोग उसका मित्रा समझकर मेरी दक्षिणा-भिक्षा न बंद कर दें। सत्य के मित्रा कम होते हैं, शत्रुओं से कहीं कम।
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