उपन्यास – रंगभूमि – 6 – (लेखक – मुंशी प्रेमचंद)
प्रभु सेवक ने तीन वर्ष अमेरिका में रहकर और हजारों रुपये खर्च करके जो अनुभव और ज्ञान प्राप्त किया था, वह मि. जॉन सेवक ने उनकी संगति से उतने ही महीनों में प्राप्त कर लिया। इतना ही नहीं, प्रभु सेवक की भाँति वह केवल बतलाए हुए मार्ग पर ऑंखें बंद करके चलने पर ही संतुष्ट न थे; उनकी निगाह आगे-पीछे, दाएँ-बाएँ भी रहती थी। विशेषज्ञों में एक संकीर्णता होती है, जो उनकी दृष्टि को सीमित कर देती है। वह किसी विषय पर स्वाधाीन होकर विस्तीर्ण दृष्टि नहीं डाल सकते, नियम, सिध्दांत और परम्परागत व्यवहार उनकी दृष्टि को फैलने नहीं देते। वैद्य प्रत्येक रोग की औषधिा ग्रंथों में खोजता है; वह केवल निदान का दास है, लक्षणों का गुलाम; वह यह नहीं जानता कि कितने ही रोगों की औषधिा लुकमान के पास भी न थी। सहज बुध्दि अगर सूक्ष्मदर्शी नहीं होती, तो संकुचित भी नहीं होती। वह हरएक विषय पर व्यापक रीति से विचार कर सकती है, जरा-जरा-सी बातों में उलझकर नहीं रह जाती। यही कारण है कि मंत्राी-भवन में बैठा हुआ सेना-मंत्राी सेनापति पर शासन करता है। प्रभु सेवक से पृथक हो जाने से मि. जॉन सेवक लेशमात्रा भी चिंतित नहीं हुए थे। वह दूने उत्साह से काम करने लगे। व्यवहार-कुशल मनुष्य थे। जितनी आसानी से कार्यालय में बैठकर बहीखाते लिख सकते थे, उतनी ही आसानी से अवसर पड़ने पर एंजिन के पहियों को भी चला सकते थे। पहले कभी-कभी सरसरी निगाह से मिल को देख लिया करते थे, अब नियमानुसार और यथासमय जाते। बहुधाा दिन को भोजन वहीं करते और शाम को घर जाते। कभी रात को नौ-दस बजे जाते। वह प्रभु सेवक को दिखा देना चाहते थे कि मैंने तुम्हारे ही बलबूते पर यह काम नहीं उठाया है; कौवे के न बोलने पर भी दिन निकल ही आता है। उनके धान-प्रेम का आधाार संतान-प्रेम न था। वह उनके जीवन का मुख्य अंग, उनकी जीवन-धाार का मुख्य -ोत था। संसार के और सभी धांधो इसके अंतर्गत थे।
मजदूरों और कारीगरों के लिए मकान बनवाने की समस्या अभी तक हल न हुई थी। यद्यपि जिले के मजिस्टे्रट से उन्हाेंंने मेल-जोल पैदा कर लिया था, चतारी के राजा साहब की ओर से उन्हें बड़ी शंका थी। राजा साहब एक बार लोकमत की उपेक्षा करके इतने बदनाम हो चुके थे कि उससे कहीं महत्तवपूर्ण विजय की आशा भी अब उन्हें वे चोटें खाने के लिए उत्तोजित न कर सकती थी। मिल बड़ी धाूम से चल रही थी, लेकिन उसकी उन्नति के मार्ग में मजदूरों के मकानों का न होना सबसे बड़ी बाधाा थी। जॉन सेवक इसी उधोड़-बुन में पड़े रहते थे।
संयोग से परिस्थितियों में कुछ ऐसा उलट-फेर हुआ कि विकट समस्या बिना विशेष उद्योग के हल हो गई। प्रभु सेवक के असहयोग ने वह काम कर दिखाया, जो कदाचित् उनके सहयोग से भी न हो सकता था।
जब से सोफिया और विनयसिंह आ गए थे, सेवक-दल बड़ी उन्नति कर रहा था। उसकी राजनीति की गति दिन-दिन तीव्र और उग्र होती जाती थी। कुँवर साहब ने जितनी आसानी से पहली बार अधिाकारियों की शंकाओं को शांत कर दिया था, उतनी आसानी से अबकी बार न कर सके। समस्या कहीं विषम हो गई थी। प्रभु सेवक को इस्तीफा देने के लिए मजबूर करना मुश्किल न था, विनय को घर से निकाल देना,उसे अधिाकारियों की दया पर छोड़ देना, कहीं मुश्किल था। इसमें संदेह नहीं कि कुँवर साहब निर्भीक पुरुष थे, जाति-प्रेम में पगे हुए,स्वच्छंद, नि:स्पृह और विचारशील। उनको भोग-विलास के लिए किसी बड़ी जाएदाद की बिलकुल जरूरत न थी। किंतु प्रत्यक्ष रूप से अधिाकारियों के कोपभाजन बनने के लिए वह तैयार न थे। वह अपना सर्वस्व जाति-हित के लिए दे सकते थे; किंतु इस तरह कि हित का साधान उनके हाथ में रहे। उनमें वह आत्मसमर्पण की क्षमता न थी, जो निष्काम और नि:स्वार्थ भाव से अपने को मिटा देती है। उन्हें विश्वास था कि हम आड़ में रहकर उससे कहीं अधिाक उपयोगी बन सकते हैं, जितने सामने आकर। विनय का दूसरा ही मत था। वह कहता था, हम जाएदाद के लिए अपनी आत्मिक स्वतंत्राता की हत्या क्यों करें? हम जाएदाद के स्वामी बनकर रहेंगे, उसके दास बनकर नहीं। अगर सम्पत्तिा से निवृत्तिा न प्राप्त कर सके, तो इस तपस्या का प्रयोजन ही क्या? यह तो गुनाहे बेलज्जत है। निवृत्तिा ही के लिए तो यह साधाना की जा रही है। कुँवर साहब इसका यह जवाब देते कि हम इस जाएदाद के स्वामी नहीं, केवल रक्षक हैं। यह आनेवाली संतानों की धारोहर-मात्रा है। हमको क्या अधिाकार है कि भावी संतान से वह सुख और सम्पत्तिा छीन लें, जिसके वे वारिस होंगे? बहुत सम्भव है, वे इतने आदर्शवादी न हों, या उन्हें परिस्थिति के बदल जाने से आत्मत्याग की जरूरत ही न रहे। यह भी सम्भव है कि उनमें वे स्वाभाविक गुण न हों, जिनके सामने सम्पत्तिा की कोई हस्ती नहीं। ऐसी ही युक्तियों से वह विनय का समाधाान करने की विफल चेष्टा किया करते थे। वास्तव में बात यह थी कि जीवन-पर्यंत ऐश्वर्य का सुख और सम्मान भोगने के पश्चात् वह निवृत्तिा का यथार्थ आशय ही न ग्रहण कर सकते थे। वह संतान न चाहते थे, सम्पत्तिा के लिए संतान चाहते थे। जाएदाद के सामने संतान का स्थान गौण था। उन्हें अधिाकारियों की खुशामद से घृण्ाा थी, हुक्काम की हाँ में हाँ मिलना हेय समझते थे; किंतु हुक्काम की नजरों में गड़ना, उनके हृदय में खटकना, इस हद तक कि वे शत्राुता पर तत्पर हो जाएँ, उन्हें बेवकूफी मालूम होती थी। कुँवर साहब के हाथों में विनय को सीधाी राह पर लाने का एक ही उपाय था, और वह यह कि सोफिया से उसका विवाह हो जाए। इस बेड़ी में जकड़कर उसकी उद्दंडता को वह शांत करना चाहते थे; लेकिन अब जो कुछ विलम्ब था, वह सोफिया की ओर से। सोफिया को अब भी भय था कि यद्यपि रानी मुझ पर बड़ी कृपा-दृष्टि रखती हैं, पर दिल से उन्हें यह सम्बंधा पसंद नहीं। उसका यह भय सर्वथा अकारण भी न था। रानी भी सोफिया से प्रेम कर सकती थीं और करती थीं, उसका आदर कर सकती थीं और करती थीं, पर अपनी वधाू में वह त्याग और विचार की अपेक्षा लज्जाशीलता, सरलता, संकोच और कुल-प्रतिष्ठा को अधिाक मूल्यवान समझती थीं, संन्यासिनी वधाू नहीं, भोग करनेवाली वधाू चाहती थीं। किंतु वह अपने हृदयगत भावों को भूलकर भी मुँह से न निकालती थीं। न ही वह इस विचार को मन में आने ही देना चाहती थीं, इसे कृतघ्नता समझती थीं।
कुँवर साहब कई दिन तक इसी संकट में पड़े रहे। मि. जॉन सेवक से बातचीत किए बिना विवाह कैसे ठीक होता? आखिर एक दिन इच्छा न होने पर भी विवश होकर उनके पास गए। संधया हो गई थी। मि. जॉन सेवक अभी-अभी मिल से लौटे थे और मजदूरों के मकानों की स्कीम सामने रखे हुए कुछ सोच रहे थे। कुँवर साहब को देखते ही उठे और बड़े तपाक से हाथ मिलाया।
कुँवर साहब कुर्सी पर बैठते हुए बोले-आप विनय और सोफिया के विवाह के विषय में क्या निश्चय करते हैं? आप मेरे मित्रा और सोफिया के पिता हैं, और दोनाेंं ही नाते से मुझे आपसे यह कहने का अधिाकार है कि अब इस काम में देर न कीजिए।
जॉन सेवक-मित्राता के नाते चाहे जो सेवा ले सकते हैं, लेकिन (गम्भीर भाव से) सोफिया के पिता के नाते मुझे कोई निश्चय करने का अधिाकार नहीं। उसने मुझे इस अधिाकार से वंचित कर दिया। नहीं तो उसे इतने दिन यहाँ आए हो गए, क्या एक बार भी यहाँ तक न आती? उसने हमसे यह अधिाकार छीन लिया।
इतने में मिसेज सेवक भी आ गईं। पति की बातें सुनकर बोलीं-मैं तो मर जाऊँगी, लेकिन उसकी सूरत न देखूँगी। हमारा उससे अब कोई सम्बंधा न रहा।
कुँवर-आप लोग सोफिया पर अन्याय कर रहे हैं। जब से वह आई है, एक दिन के लिए भी घर से नहीं निकली। इसका कारण केवल संकोच है, और कुछ नहीं। शायद डरती है कि बाहर निकलूँ, और किसी पुराने परिचित से साक्षात् हो जाए, तो उससे क्या बात करूँगी। थोड़ी देर के लिए कल्पना कर लीजिए कि हममें से कोई भी उसकी जगह होता, तो उसके मन में कैसे भाव आते। इस विषय में वह क्षम्य है। मैं तो इसे अपना दुर्भाग्य समझ्रूगा, अगर आप लोग उससे विरक्त हो जाएँगे। अब विवाह में विलम्ब न होना चाहिए।
मिसेज सेवक-खुदा वह दिन न लाए! मेरे लिए तो वह मर गई, उसका फातेहा पढ़ चुकी, उसके नाम को जितना रोना था, रो चुकी!
कुँवर-यह ज्यादती आप लोग मेरे रियासत के साथ कर रहे हैं। विवाह एक ऐसा उपाय है, जो विनय की उद्दंडता को शांत कर सकता है।
जॉन सेवक-मेरी तो सलाह है कि आप रियासत को कोर्ट ऑफ वार्ड्स के सिपुर्द कर दीजिए। गवर्नमेंट आपके प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लेगी और आपके प्रति उसका सारा संदेह शांत हो जाएगा। तब कुँवर विनयसिंह की राजनीतिक उद्दंडता का रियासत पर जरा भी असर न पड़ेगा; और यद्यपि इस समय आपको यह व्यवस्था बुरी मालूम होगी, लेकिन कुछ दिनों बाद जब उनके विचारों में प्रौढ़ता आ जाएगी, तो वह आपके कृतज्ञ होंगे और आपको अपना सच्चा हितैषी समझेंगे। हाँ, इतना निवेदन है कि इस काम में हाथ डालने से पहले आप अपने को खूब दृढ़ कर लें। उस वक्त अगर आपकी ओर से जरा भी पसोपेश हुआ, तो आपका सारा प्रयत्न विफल हो जाएगा, आप गवर्नमेंट के संदेह को शांत करने की जगह और भी उकसा देंगे।
कुँवर-मैं जाएदाद की रक्षा के लिए सब कुछ करने को तैयार हूँ। मेरी इच्छा केवल इतनी है कि विनय को आर्थिक कष्ट न होने पाए। बस,अपने लिए मैं कुछ नहीं चाहता।
जॉन सेवक-आप प्रत्यक्ष रूप से तो कुँवर विनयसिंह के लिए व्यवस्था नहीं कर सकते। हाँ, यह हो सकता है कि आप अपनी वृत्तिा में से जितना उचित समझें, उन्हें दे दिया करें।
कुँवर-अच्छा, मान लीजिए, विनय इसी मार्ग पर और भी अग्रसर होते गए, तो?
जॉन सेवक-तो उन्हें रियासत पर कोई अधिाकार न होगा।
कुँवर-लेकिन उनकी संतान को तो यह अधिाकार रहेगा?
जॉन सेवक-अवश्य।
कुँवर-गवर्नमेंट स्पष्ट रूप से यह शर्त मंजूर कर लेगी?
जॉन सेवक-न मंजूर करने का कोई कारण नहीं मालूम पड़ता।
कुँवर-ऐसा तो न होगा कि विनय के कामों का फल उनकी संतान को भोगना पड़े? सरकार रियासत को हमेशा के लिए जब्त कर ले? ऐसा दो-एक जगह हुआ है। बरार ही को देखिए।
जॉन सेवक-कोई खास बात पैदा हो जाए, तो नहीं कह सकते; लेकिन सरकार की यह नीति कभी नहीं रही। बरार की बात जाने दीजिए। वह इतना बड़ा सूबा है कि किसी रियासत में उसका मिल जाना राजनीतिक कठिनाइयों का कारण हो सकता है।
कुँवर-तो मैं कल डॉक्टर गांगुली को शिमले से तार भेजकर बुलाए लेता हूँ?
जॉन सेवक-आप चाहें, तो बुला लें। मैं तो समझता हूँ, यहीं से मसबिदा बनाकर उनके पास भेज दिया जाए या मैं स्वयं चला जाऊँ और सारी बातें आपकी इच्छानुसार तय कर आऊँ।
कुँवर साहब ने धान्यवाद दिया और घर चले गए। रात-भर वह इसी हैस-वैस में पड़े रहे कि विनय और जाह्नवी से इस निश्चय का समाचार कहूँ या न कहूँ। उनका जवाब उन्हें मालूम था। उनसे उपेक्षा और दुराग्रह के सिवा सहानुभूति की जरा भी आशा नहीं। कहने से फायदा ही क्या? अभी तो विनय को कुछ भय भी है। यह हाल सुनेगा, तो और भी दिलेर हो जाएगा। अंत को उन्होंने यह निश्चय किया कि अभी बतला देने से कोई फायदा नहीं, और विघ्न पड़ने की सम्भावना है। जब काम पूरा हो जाएगा, तो कहने-सुनने को काफी समय मिलेगा।
मिस्टर जॉन सेवक पैरों-तले घास न जमने देना चाहते थे। दूसरे ही दिन उन्होंने एक बैरिस्टर से प्रार्थना-पत्रा लिखवाया और कुँवर साहब को दिखाया। उसी दिन वह कागज डॉक्टर गांगुली के पास भेज दिया गया। डॉक्टर गांगुली ने इस प्रस्ताव को बहुत पसंद किया और खुद शिमले से आए। यहाँ क्ुँ+वर साहब से परामर्श किया और दोनों आदमी प्रांतीय गवर्नर के पास पहुँचे। गवर्नर को इसमें क्या आपत्तिा हो सकती थी, विशेषत: ऐसी दशा में जब रियासत पर एक कौड़ी भी कर्ज न था? कर्मचारियों ने रियासत के हिसाब-किताब की जाँच शुरू की और एक महीने के अंदर रियासत पर सरकारी अधिाकार हो गया। कुँवर साहब लज्जा और ग्लानि के मारे इन दिनों विनय से बहुत कम बोलते,घर में बहुत कम आते, ऑंखें चुराते रहते थे कि कहीं यह प्रसंग न छिड़ जाए। जिस दिन सारी शतर्ें तय हो गईं, कुँवर साहब से न रहा गया, विनयसिंह से बोले-रियासत पर तो सरकारी अधिाकार हो गया।
विनय ने चौंककर पूछा-क्या जब्त हो गई?
कुँवर-नहीं, मैंने कोर्ट ऑफ वार्ड्स के सिपुर्द कर दिया!
यह कहकर उन्होंने शर्तों का उल्लेख किया और विनीत भाव से बोले-क्षमा करना, मैंने तुमसे इस विषय में सलाह नहीं ली।
विनय-मुझे इसका बिलकुल दु:ख नहीं है, लेकिन आपने व्यर्थ ही अपने को गवर्नमेंट के हाथ में डाल दिया। अब आपकी हैसियत केवल एक वसीकेदार की है, जिसका वसीका किसी वक्त बंद किया जा सकता है।
कुँवर-इसका इलजाम तुम्हारे सिर है।
विनय-आपने यह निश्चय करने से पहले ही मुझसे सलाह ली होती, तो यह नौबत न आने पाती। मैं आजीवन रियासत से पृथक् रहने का प्रतिज्ञापत्रा लिख देता और आप उसे प्रकाशित करके हुक्काम को प्रसन्न रख सकते थे।
कुँवर-(सोचकर) उस दशा में भी यह संदेह हो सकता था कि मैं गुप्त रीति से तुम्हारी सहायता कर रहा हूँ। इस संदेह को मिटाने के लिए मेरे पास और कौन साधान था?
विनय-तो मैं इस घर से निकल जाता और आपसे मिलना-जुलना छोड़ देता। अब भी अगर आप इस इंतजाम को रद्द करा सकें, तो अच्छा हो। मैं अपने खयाल से नहीं, आप ही के खयाल से कह रहा हूँ। मैं अपने निर्वाह की कोई राह निकाल लूँगा।
कुँवर साहब सजल नयन होकर बोले-विनय, मुझसे ऐसी कठोर बातें न करो। मैं तुम्हारे तिरस्कार का नहीं, तुम्हारी सहानुभूति और दया का पात्रा होने योग्य हूँ। मैं जानता हूँ, केवल सामाजिक सेवक से हमारा उध्दार नहीं हो सकता। यह भी जानता हूँ कि हम स्वच्छंद होकर सामाजिक सेवा भी नहीं कर सकते। कोई आयोजना, जिससे देश में अपनी दशा को अनुभव करने की जागृति उत्पन्न हो, जो भ्रातृत्व और जातीयता के भावों को जगाए, संदेह से मुक्त नहीं रह सकती। यह सब जानते हुए मैंने सेवा-क्षेत्रा में कदम रखे थे। पर यह न जानता था कि थोड़े ही समय में यह संस्था यह रूप धाारण करेगी और इसका परिणाम यह होगा! मैंने सोचा था, मैं परोक्ष में इसका संचालन करता रहूँगा;यह न जानता था कि इसके बदले मुझे अपना सर्वस्व-और अपना ही नहीं, भावी संतान का सर्वस्व भी-होम कर देना पड़ेगा। मैं स्वीकार करता हूँ कि मुझमें इतने महान् त्याग की सामर्थ्य नहीं।
विनय ने इसका कुछ जवाब न दिया। अपने या सोफी के विषय में उन्हें कोई चिंता न थी, चिंता थी सेवक-दल के संचालन की। इसके लिए धान कहाँ से आएगा? उन्हें कभी भिक्षा माँगने की जरूरत न पड़ी थी। जनता से रुपये कैसे मिलते हैं, यह गुर न जानते थे। कम-से-कम पाँच हजार माहवार का खर्च था। इतना धान एकत्रा करने के लिए एक संस्था की अलग ही जरूरत थी। अब उन्हें अनुभव हुआ कि धान-सम्पत्तिा इतनी तुच्छ वस्तु नहीं। पाँच हजार रुपये माहवार, 60 हजार रुपये साल के लिए 12 लाख का स्थायी कोश होना आवश्यक था। कुछ बुध्दि काम न करती थी। जाह्नवी के पास निज का कुछ धान था, पर वह उसे देना न चाहती थीं और अब तो उसकी रक्षा करने की और भी जरूरत थी, क्योंकि वह विनय को दरिद्र नहीं बनाना चाहती थीं।
तीसरे पहर का समय था। विनय और इंद्रदत्ता, दोनों रुपयों की चिंता में मग्न बैठे हुए थे सहसा सोफिया ने आकर कहा-मैं एक उपाय बताऊँ?
इंद्रदत्ता-भिक्षा माँगने चलें?
सोफिया-क्यों न एक ड्रामा खेला जाए! ऐक्टर हैं ही, कुछ परदे बनवा लिए जाएँ, मैं भी परदे बनाने में मदद दूँगी।
विनय-सलाह तो अच्छी है, लेकिन नायिका तुम्हें बनना पड़ेगा।
सोफिया-नायिका का पार्ट इंदुरानी खेलेंगी, मैं परिचारिका का पार्ट लूँगी।
इंद्रदत्ता-अच्छा, कौन-सा नाटक खेला जाए? भट्टजी का ‘दुर्गावती’ नाटक।
विनय-मुझे तो ‘प्रसाद’ का ‘अजातशत्राु’ बहुत पसंद है।
सोफिया-मुझे ‘कर्बला’ बहुत पसंद आया। वीर और करुण, दोनों ही रसों का अच्छा समावेश है।
इतने में एक डाकिया अंदर दाखिल हुआ और एक मुहरबंद रजिस्टर्ड लिफाफा विनय के हाथ में रखकर चला गया। लिफाफे पर प्रभु सेवक की मुहर थी। लंदन से आया था।
विनय-अच्छा, बताओ, इसमें क्या होगा?
सोफिया-रुपये तो होंगे नहीं, और चाहे जो हो। वह गरीब रुपये कहाँ पाएगा? वहाँ होटल का खर्च ही मुश्किल से दे पाता होगा?
विनय-और मैं कहता हूँ कि रुपयों के सिवा और कुछ हो ही नहीं सकता।
इंद्रदत्ता-कभी नहीं। कोई नई रचना होगी।
विनय-तो रजिस्ट्री कराने की क्या जरूरत थी?
इंद्रदत्ता-रुपये हो तो, तो बीमा न कराया होता?
विनय-मैं कहता हूँ, रुपये हैं, चाहे शर्त बद लो।
इंद्रदत्ता-मेरे पास कुल पाँच रुपये हैं, पाँच-पाँच की बाजी है।
विनय-यह नहीं। अगर इसमें रुपये हों, तो मैं तुम्हारी गर्दन पर सवार होकर यहाँ से कमरे के उस सिरे तक जाऊँगा। न हुए, तो तुम मेरी गर्दन पर सवार होना। बोलो?
इंद्रदत्ता-मंजूर है, खोलो लिफाफा।
लिफाफा खोला गया, तो चेक निकला। पूरे दस हजार रुपये का। लंदन बैंक के नाम। विनय उछल पड़े। बोले-मैं कहता न था! यहाँ सामुद्रिक विद्या पढ़े हैं। आइए, लाइए गर्दन।
इंद्रदत्ता-ठहरो-ठहरो, गर्दन तोड़के रख दोगे क्या! जरा खत तो पढ़ो, क्या लिखा है, कहाँ हैं, क्या कर रहे हैं? लगे सवारी गाँठने।
विनय-जी नहीं, यह नहीं होने का। आपको सवारी देनी होगी। गर्दन टूटे या रहे, इसका मैं जिम्मेदार नहीं। कुछ दुबले-पतले तो हो नहीं,खासे देव तो बने हुए हो।
इंद्रदत्ता-भाई, आज मंगल के दिन नजर न लगाओ। कुल दो मन पैंतीस सेर तो रह गया हूँ। राजपूताना जाने के पहले तीन मन से ज्यादा का था।
विनय-खैर, देर न कीजिए, गर्दन झुकाकर खड़े हो जाइए।
इंद्रदत्ता-सोफिया, मेरी रक्षा करो। तुम्हीं ने पहले कहा था, इसमें रुपये न होंगे। वही सुनकर मैंने भी कह दिया था।
सोफिया-मैं तुम्हारे झगड़ों में नहीं पड़ती। तुम जानो, यह जानें। यह कहकर उसने खत शुरू किया-
प्रिय बंधाुवर, मैं नहीं जानता कि मैं यह पत्रा किसे लिख रहा हूँ। कुछ खबर नहीं कि आजकल व्यवस्थापक कौन है। मगर सेवक-दल से मुझे अब भी वही प्रेम है, जो पहले था। उसकी सेवा करना अपनार् कत्ताव्य समझता हूँ। आप मेरा कुशल समाचार जानने के लिए उत्सुक होेंगे। मैं पूना ही में था कि वहाँ के गवर्नर ने मुझे मुलाकात करने को बुलाया। उनसे देर तक साहित्य-चर्चा होती रही। एक ही मर्मज्ञ हैं। हमारे देश में ऐसे रसिक कम निकलेंगे। विनय (उसका कुछ हाल नहीं मालूम हुआ) के सिवा मैंने और किसी को इतना काव्य-रस-चतुर नहीं पाया। कितनी सजीव सहृदयता थी! गवर्नर महोदय की प्रेरणा से मैं यहाँ आया, और जब से आया हूँ, आतिथ्य का अविरल प्रवाह हो रहा है। वास्तव में जीवित राष्ट्र ही गुणियों का आदर करना जानते हैं। बड़े ही सहृदय, उदार, स्नेहशील प्राणी हैं। मुझे इस जाति से अब श्रध्दा हो गई है, और मुझे विश्वास हो गया कि इस जाति के हाथों हमारा अहित कभी नहीं हो सकता। कल यूनिवर्सिटी की ओर से मुझे एक अभिनंदन-पत्रा दिया गया। साहित्य-सेवियों का ऐसा समारोह मैंने काहे को कभी देखा था! महिलाओं का स्नेह और सत्कार देखकर मैं मुग्धा हो गया। दो दिन पहले इंडिया-हाउस में भोज था। आज साहित्य-परिषद् ने निमंत्रिात किया है। कल ‘लिबरल’ एसोसिएशन दावत देगा। परसों पारसी समाज का नम्बर है। उसी दिन यूनियन क्लब की ओर से पार्टी दी जाएगी। मुझे स्वप्न में भी आशा न थी कि मैं इतना जल्द बड़ा आदमी हो जाऊँगा। मैं ख्याति और सम्मान के निंदकों में नहीं हूँ। इसके सिवा गुणियों को और क्या पुरस्कार मिल सकता है? मुझे कब मालूम हुआ कि मैं क्या करने के लिए संसार में आया हूँ? मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है? अब तक भ्रम में पड़ा हुआ था। अब से मेरे जीवन का मिशन होगा प्राच्य और पाश्चात्य को प्रेम-सूत्रा में बाँधाना, पारस्परिक द्वंद्व को मिटाना और दोनों में समान भावों को जागृत करना। मैं यही व्रत धाारण करूँगा। पूर्व ने किसी जमाने मेें पश्चिम को धार्म का मार्ग दिखाया था; अब उसे प्रेम का शब्द सुनाएगा, प्रेम का पथ दिखाएगा। मेरी कविताओं का पहला संग्रह मैकमिलन कम्पनी द्वारा शीघ्र प्रकाशित होगा। गवर्नर महोदय मेरी उन कविताओं की भूमिका लिखेंगे। इस संग्रह के लिए प्रकाशकों ने मुझे चालीस हजार रुपये दिए हैं। इच्छा तो यही थी कि ये सब रुपये अपनी प्यारी संस्था को भेंट करता; पर विचार हो रहा है कि अमेरिका की सैर भी करूँ। इसलिए इस समय जो कुछ भेजता हूँ, उसे स्वीकार कीजिए। मैंने अपनेर् कत्ताव्य का पालन किया है। इसलिए धान्यवाद की आशा नहीं रखता। हाँ, इतना निवेदन करना आवश्यक समझता हूँ कि आपको सेवा के उच्चादर्शों का पालन करना चाहिए, और राजनीतिक परिस्थितियों से विरक्त होकर ‘वसुधौव कुटुम्बकम्’ के प्रचार को अपना लक्ष्य बनाना चाहिए। मेरे व्याख्यानाेंं की रिपोर्ट आपको यहाँ के समाचार-पत्राों में मिलेगी। आप देखेंगे कि मेरे राजनीतिक विचारों में कितना अंतर हो गया है। मैं अब स्वदेशी नहीं, सर्वदेशीय हूँ, अखिल संसार मेरा स्वदेश है; प्राणिमात्रा से मेरा बंधाुत्व है और भौगोलिक तथा जातीय सीमाआेंं को मिटाना मेरे जीवन का उद्देश्य है। प्रार्थना कीजिए कि अमेरिका से सकुशल लौट आऊँ।
आपका सच्चा बंधाु
प्रभु सेवक
सोफिया ने पत्रा मेज पर रख दिया और गम्भीर भाव से बोली-इसके दोनों ही अर्थ हो सकते हैं, आत्मिक उत्थान या पतन। मैं तो पतन ही समझती हूँ।
विनय-क्यों? उत्थान क्यों नहीं?
सोफिया-इसलिए कि प्रभु सेवक की आत्मा शृंगारप्रिय है। वह कभी स्थिर चित्ता नहीं रहे। जो प्राणी सम्मान से इतना फूल उठता है, वह उपेक्षा से इतना ही हताश भी हो जाएगा।
विनय-यह कोई बात नहीं। कदाचित् मैं भी इसी तरह फूल उठता। यह तो बिलकुल स्वाभाविक है। यहाँ उनकी क्या कद्र हुई? मरते दम तक गुमनाम पड़े रहते।
इंद्रदत्ता-जब हमारे काम के नहीं रहे, तो प्रसिध्द हुआ करें। ऐसे विश्व-प्रेमियों से कभी किसी का उपकार न हुआ है, न होगा। जिसमें अपना नहीं, उसमें पराया क्या होगा?
सोफिया-सार्वदेशिकता हमारे कई कवियों को ले डूबी, इन्हें भी ले डूबेगी। इनका होना, न होना हमारे लिए दोनों बराबर है; बल्कि मुझे तो अब इनसे हानि पहुँचने की शंका है। मैं जाकर अभी इस पत्रा का जवाब लिखती हूँ।
यह कहते हुए सोफिया वह पत्रा हाथ में लिए हुए अपने कमरे में चली गई। विनय ने कहा-क्या करूँ, रुपये वापस कर दूँ।
इंद्रदत्ता-रुपये क्यों वापस करोगे? उन्होंने कोई शर्त तो की नहीं है! मित्राोचित सलाह दी है और बहुत अच्छी सलाह दी हैं हमारा भी तो वही उद्देश्य है। अंतर केवल इतना है कि वह समता के बिना ही बंधाुत्व का प्रचार करना चाहते हैं, हम बंधाुत्व के लिए समता को आवश्यक समझते हैं।
विनय-यों क्यों नहीं कहते कि बंधाुत्व समता पर ही स्थित है?
इंद्रदत्ता-सोफिया देवी खूब खबर लेंगी।
विनय-अच्छा, अभी रुपये रखे लेता हूँ, पीछे देखा जाएगा।
इंद्रदत्ता-दो-चार ऐसे ही मित्रा और मिल जाएँ, तो हमारा काम चल निकले।
विनय-सोफिया का ड्रामा खेलने की सलाह कैसी है?
इंद्रदत्ता-क्या पूछना, उनका अभिनय देखकर लोग दंग रह जाएँगे।
विनय-तुम मेरी जगह होते, तो उसे स्टेज पर लाना पसंद करते?
इंद्रदत्ता-पेशा समझकर तो नहीं, लेकिन परोपकार के लिए स्टेज पर लाने में शायद मुझे आपत्तिा न होगी।
विनय-तो तुम मुझसे कहीं ज्यादा उदार हो। मैं तो इसे किसी हालत में पसंद न करूँगा। हाँ, यह तो बताओ, सोफिया आजकल कुछ उदास मालूम होती है! कल इसने मुझसे जो बातें की, वे बहुत निराशाजनक थीं। उसको भय है कि उसी के कारण रियासत का यह हाल हुआ है। माताजी तो उस पर जान देती हैं, पर वह उनसे दूर भागती है। फिर वही आधयात्मिक बातें करती है, जिनका आशय आज तक मेरी समझ में नहीं आया-मैं तुम्हारे पाँव की बेड़ी नहीं बनना चाहती, मेरे लिए केवल तुम्हारी स्नेह-दृष्टि काफी है, और जाने क्या-क्या। और मेरा यह हाल है कि घंटे-भर भी उसे न देखूँ, तो चित्ता विकल हो जाता है।
इतने में मोटर की आवाज आई और एक क्षण में इंदु आ पहुँची।
इंद्रदत्ता-आइए, इंदुरानी, आइए। आप ही का इंतजार था।
इंदु-झूठे हो, मेरी इस वक्त जरा भी चर्चा न थी, रुपये की चिंता में पड़े हुए हो।
इंद्रदत्ता-तो मालूम होता है, आप कुछ लाई हैं। लाइए, वास्तव में हम लोग बहुत चिंतित हो रहे थे।
इंदु-मुझसे माँगते हो? मेरा हाल जानकर भी? एक बार चंदा देकर हमेशा के लिए सीख गई। (विनय से) सोफिया कहाँ है? अम्माँजी तो अब राजी हैं न?
विनय-किसी की दिल की बात कोई क्या जाने।
इंदु-मैं तो समझती हूँ अम्माँजी राजी भी हो जाएँ, तो भी तुम सोफी को न पाओगे। तुम्हें इन बातों से दु:ख तो अवश्य होगा; लेकिन किसी आघात के लिए पहले से तैयार रहना इससे कहीं अच्छा है कि वह आकस्मिक रीति से सिर पर आ पड़े।
विनय ने ऑंसू पीते हुए कहा-मुझे भी कुछ ऐसा ही अनुमान होता है।
इंदु-सोफिया कल मुझसे मिलने गई थी। उसकी बातों ने उसे भी रुलाया और मुझे भी। बड़े धार्मसंकट में पड़ी हुई है। न तुम्हेंं निराश करना चाहती है, न माताजी को अप्रसन्न करना चाहती है। न जाने क्यों उसे अब भी संदेह है कि माताजी उसे अपनी वधाू नहीं बनाना चाहतीं। मैं समझती हूँ कि यह केवल उसका भ्रम है, वह स्वयं अपने मन के रहस्य को नहीं समझती। वह स्त्राी नहीं है, केवल एक कल्पना है। भावों और आकांक्षाओं से भरी हुई। तुम उसका रसास्वादन कर सकते हो, पर उसे अनुभव नहीं कर सकते, उसे प्रत्यक्ष नहीं देख सकते। कवि अपने अंतरतम भावाेंं को व्यक्त नहीं कर सकता। वाणी में इतना सामर्थ्य ही नहीं। सोफिया वही कवि की अंतर्तम भावना है।
इंद्रदत्ता-और आपकी यह सब बातें भी कोरी कवि-कल्पना हैं। सोफिया न कवि-कल्पना है और न कोई गुप्त रहस्य; न देवी है न देवता। न अप्सरा है न परी। जैसी अन्य स्त्रिायाँ होती हैं, वैसी ही एक स्त्राी वह भी है, वही उसके भाव हैं, वही उसके विचार हैं। आप लोगों ने कभी विवाह की तैयारी की, कोई भी ऐसी बात की, जिससे मालूम हो कि आप लोग विवाह के लिए उत्सुक हैं? तो जब आप लोग स्वयं उदासीन हो रहे हैं, तो उसे क्या गरज पड़ी हुई है कि इसकी चर्चा करती फिरे। मैं तो अक्खड़ आदमी हूँ। उसे लाख विनय से प्रेम हो, पर अपने मुँह से तो विवाह की बात न कहेगी। आप लोग वही चाहते हैं, जो किसी तरह नहीं हो सकता। इसलिए अपनी लाज की रक्षा करने को उसने यही युक्ति निकाल रखी है। आप लोग तैयारियाँ कीजिए, फिर उसकी ओर से आपत्तिा हो, तो अलबत्ताा उससे शिकायत हो सकती है। जब देखती है,आप लोग स्वयं धाुकुर-पुकुर कर रहे हैं, तो वह भी इन युक्तियों से अपनी आबरू बचाती है।
इंदु-ऐसा कहीं भूलकर भी न करना, नहीं तो वह इस घर में भी न रहेगी।
इतने में सोफिया वह पत्रा लिए हुए आती दिखाई दी, जो उसने प्रभु सेवक के नाम लिखा था। इंदु ने बात पलट दी, और बोली-तुम लोगों को तो अभी खबर न होगी, मि. सेवक को पाँड़ेपुर मिल गया।
सोफिया ने इंदु को गले मिलते हुए पूछा-पापा वह गाँव लेकर क्या करेंगे?
इंदु-अभी तुम्हें मालूम ही नहीं? वह मुहल्ला खुदवाकर फेंक दिया जाएगा और वहाँ मिल के मजदूरों के लिए घर बनेंगे।
इंद्रदत्ता-राजा साहब ने मंजूर कर लिया? इतनी जल्दी भूल गए। अबकी शहर में रहना मुश्किल हो जाएगा।
इंदु-सरकार का आदेश था, कैसे न मंजूर करते।
इंद्रदत्ता-साहब ने बड़ी दौड़ लगाई। सरकार पर भी मंत्रा चला दिया।
इंदु-क्यों, इतनी बड़ी रियासत पर सरकार का अधिाकार नहीं करा दिया? एक राजद्रोही राज को अपंग नहीं बना दिया? एक क्रांतिकारी संस्था की जड़ नहीं खोद डाली? सरकार पर इतने एहसान करके यों ही छोड़ देते? चतुर व्यवसायी न हुए, कोई राजा-ठाकुर हुए। सबसे बड़ी बात तो यह है कि कम्पनी ने पच्चीस सैकड़े नफा देकर बोर्ड के अधिाकांश सदस्यों को वशीभूत कर लिया।
विनय-राजा साहब को पद-त्याग कर देना चाहिए। इतनी बड़ी जिम्मेदारी सिर पर लेने से तो यह कहीं अच्छा होता।
इंदु-कुछ सोच-समझकर तो स्वीकार किया होगा। सुना, पाँडेपुरवाले अपने घर छोड़ने पर राजी नहीं होते।
इंद्रदत्ता-न होना चाहिए।
सोफिया-जरा चलकर देखना चाहिए, वहाँ क्या हो रहा है। लेकिन कहीं मुझे पापा नजर आ गए, तो? नहीं, मैं न जाऊँगी, तुम्हीं लोग जाओ।
तीनों आदमी पाँड़ेपुर की तरफ चले।
अदालत ने अगर दोनों युवकों को कठिन दंड दिया, तो जनता ने भी सूरदास को उससे कम कठिन दंड न दिया। चारों ओर थुड़ी-थुड़ी होने लगी। मुहल्लेवालों का तो कहना ही क्या, आस-पास के गाँववाले भी दो-चार खोटी-खरी सुना जाते थे-माँगता तो है भीख, पर अपने को कितना लगाता है? जरा चार भले आदमियों ने मुँह लगा लिया, तो घमंड के मारे पाँव धारती पर नहीं रखता। सूरदास को मारे शर्म के घर से बाहर निकलना मुश्किल हो गया। इसका एक अच्छा फल यह हुआ कि बजरंगी और जगधार का क्रोधा शांत हो गया। बजरंगी ने सोचा, अब क्या मारूँ-पीटूँ, उसके मुँह में तो यों ही कालिख लग गई; जगधार की अकेले इतनी हिम्मत कहाँ! दूसरा फल यह हुआ कि सुभागी फिर भैरों के घर जाने को राजी हो गई। उसे ज्ञात हो गया कि बिना किसी आड़ के मैं इन झोंकों से नहीं बच सकती। सूरदास की आड़ केवल टट्टी की आड़ थी।
एक दिन सूरदास बैठा हुआ दुनिया की हठधार्मी और अनीति का दुखड़ा रो रहा था कि सुभागी बोली-भैया, तुम्हारे ऊपर मेरे कारन चारों ओर से बौछार पड़ रही है, बजरंगी और जगधार दोनों मारने पर उतारू हैं, न हो तो मुझे भी अब मेरे घर पहुँचा दो। यही न होगा, मारे-पीटेगा, क्या करूँगी, सह लूँगी, इस बेआबरुई से तो बचूँगी?
भैरों तो पहले ही से मुँह फैलाए हुए था, बहुत खुश हुआ, आकर सुभागी को बड़े आदर से ले गया। सुभागी जाकर बुढ़िया के पैरों पर गिर पड़ी और खूब रोई। बुढ़िया ने उठाकर छाती से लगा लिया। बेचारी अब ऑंखों से माजूर हो गई थी। भैरों जब कहीं चला जाता, तो दूकान पर कोई बैठनेवाला न रहता, लोग ऍंधोरे में लकड़ी उठा ले जाते थे। खाना तो खैर किसी तरह बना लेती थी, किंतु इस नोच-खसोट का नुकसान न सहा जाता था। सुभागी घर की देखभाल तो करेगी! रहा भैरों, उसके हृदय में अब छल-कपट का लेश भी न रहा था। सूरदास पर उसे इतनी श्रध्दा हो गई कि कदाचित् किसी देवता पर भी न होगी अब वह अपनी पिछली बातों पर पछताता और मुक्त कंठ से सूरदास के गुण गाता था।
इतने दिनों तक सूरदास घर-बार की चिंताओं से मुक्त था, पकी-पकाई रोटियाँ मिल जाती थीं, बरतन धाुल जाते थे; घर में झाड़ई लग जाती थी। अब फिर वही पुरानी विपत्तिा सिर पर सवार हुई। मिठुआ अब स्टेशन ही पर रहता था। घीसू और विद्याधार के दंड से उसकी ऑंखें खुल गई थीं। कान पकड़े, अब कभी जुआ और चरस के नगीच न जाऊँगा। बाजार से चबेना लेकर खाता और स्टेशन के बरामदे में पड़ा रहता था। कौन नित्य तीन-चार मील चले! जरा भी चिंता न थी कि सूरदास की कैसे निभती है, अब मेरे हाथ-पाँव हुए, कुछ मेरा धार्म भी उसके प्रति है या नहीं, आखिर किस दिन के लिए उसने मुझे अपने लड़के की भाँति पाला था। सूरदास कई बार खुद स्टेशन पर गया, और उससे कहा कि साँझ को घर चला आया कर, क्या अब भी भीख माँगूँ? मगर उसकी बला सुनती थी। एक बार उसने साफ कह दिया, यहाँ मेरा गुजारा तो होता नहीं, तुम्हारे लिए कहाँ से लाऊँ? मेरे लिए तुमने कौन-सी बड़ी तपस्या की थी, एक टुकड़ा रोटी दे देते थे, कुत्तो को न दिया,मुझी को दे दिया। तुमसे मैं कहने गया था कि मुझे खिलाओ-पिलाओ, छोड़ क्यों न दिया? जिन लड़कों के माँ-बाप नहीं होते, वे सब क्या मर जाते हैं? जैसे तुम एक टुकड़ा दे देते थे, वैसे बहुत टुकड़े मिल जाते। इन बातों से सूरदास का दिल ऐसा टूटा कि फिर उससे घर आने को न कहा।
इधार सोफिया कई बार सूरदास से मिल चुकी थी। वह और तो कहीं न जाती, पर समय निकालकर सूरदास से अवश्य मिल जाती। ऐसे मौके से आती कि सेवकजी से सामना न होने पाए। जब आती, सूरदास के लिए कोई-न-कोई सौगात जरूर लाती। उसने इंद्रदत्ता से उसका सारा वृत्ताांत सुना था। उसका अदालत में जनता से अपील करना, चंदे के रुपये स्वयं न लेकर दूसरे को दे देना, जमीन के रुपये, जो सरकार से मिले थे, दान दे देना-तब से उसे उससे और भी भक्ति हो गई थी। गँवारों की धार्मपिपासा ईंट-पत्थर पूजने से शांत हो जाती है, भद्रजनों की भक्ति सिध्द पुरुषों की सेवा से। उन्हें प्रत्येक दीवाना पूर्वजन्म का कोई ऋषि मालूम होता है। उसकी गालियाँ सुनते हैं, उसके जूठे बरतन धाोते हैं, यहाँ तक कि उसके धाुल-धाूसरित पैरों को धाोकर चरणामृत लेते हैं। उन्हें उसकी काया में कोई देवात्मा बैठी हुई मालूम होती है। सोफिया को सूरदास से कुछ ऐसी ही भक्ति हो गई थी। एक बार उसके लिए संतरे और सेब ले गई। सूरदास घर लाया, पर आप न खाया,मिठुआ की याद आई, उसकी कठोर बातें विस्मृत हो गईं, सबेरे उन्हें लिए स्टेशन गया और उसे दे आया। एक बार सोफी के साथ इंदु भी आई थी। सरदी के दिन थे। सूरदास खड़ा काँप रहा था। इंदु ने वह कम्बल, जो वह अपने पैरों पर डाले हुए थे, सूरदास को दे दिया। सूरदास को वह कम्बल ऐसा अच्छा मालूम हुआ कि खुद न ओढ़ सका। मैं बुङ्ढा भिखारी, यह कम्बल ओढ़कर कहाँ जाऊँगा? कौन भीख देगा? रात को जमीन पर लेटूँ, दिन-भर सड़क के किनारे खड़ा रहूँ, मुझे यह कम्बल लेकर क्या करना? जाकर मिठुआ को दे आया। इधार तो अब भी इतना प्रेम था, उधार मिठुआ इतना स्वार्थी था कि खाने को भी न पूछता। सूरदास समझता कि लड़का है, यही इसके खाने-पहनने के दिन हैं। मेरी खबर नहीं लेता, खुद तो आराम से खाता-पहनता है। अपना है, तो कब न काम आएगा।
फागुन का महीना था, संधया का समय। एक स्त्राी घास बेचकर जा रही थी। मजदूरों ने अभी-अभी काम से छुट्टी पाई थी। दिन भर चुपचाप चरखियों के सामने खड़े-खड़े उकता गए थे, विनोद के लिए उत्सुक हो रहे थे। घसियारिन को देखते ही उस पर अश्लील कबीरों की बौछार शुरू कर दी। सूरदास को यह बुरा मालूम हुआ।
बोला-यारो, क्यों अपनी जबान खराब करते हो? वह बेचारी तो अपनी राह चली जाती है, और तुम लोग उसका पीछा नहीं छोड़ते। वह भी तो किसी की बहू-बेटी होगी।
एक मजदूर बोला-भीख माँगो भीख, जो तुम्हारे करम में लिखा है। हम गाते हैं, तो तुम्हारी नानी क्यों मरती है?
सूरदास-गाने को थोड़े ही कोई मने करता है।
मजदूर-तो हम क्या लाठी चलाते हैं?
सूरदास-उस औरत को छेड़ते क्यों हो?
मजदूर-तो तुम्हें क्या बुरा लगता है? तुम्हारी बहन है कि बेटी?
सूरदास-बेटी भी है, बहन भी है। हमारी हुई तो, किसी दूसरे भाई की हुई तो?
उसके मुँह से वाक्य का अंतिम शब्द निकलने भी न पाया था कि मजदूर ने चुपके से जाकर उसकी टाँग पकड़कर खींच ली। बेचारा बेखबर खड़ा था। कंकड़ पर इतनी जोर से मुँह के बल गिरा कि सामने के दो दाँत टूट गए, छाती में बड़ी चोट आई, ओठ कट गए, मर्ूच्छा-सी आ गई। पंद्रह-बीस मिनट तक वहीं अचेत पड़ा रहा। कोई मजदूर निकट भी न आया, सब अपनी राह चले गए। संयोग से नायकराम उसी समय शहर से आ रहे थे। सूरदास को सड़क पर पड़े देखा, तो चकराए कि माजरा क्या है, किसी ने मारा-पीटा तो नहीं? बजरंगी के सिवा और किसमें इतना दम है। बुरा किया। कितना ही हो, अपने धार्म का सच्चा है। दया आ गई। समीप आकर हिलाया, तो सूरदास को होश आया, उठकर नायकराम का एक हाथ पकड़ लिया और दूसरे हाथ से लाठी टेकता हुआ चला।
नायकराम ने पूछा-किसी ने मारा है क्या सूरे, मुँह से लहू बह रहा है?
सूरदास-नहीं भैया, ठोकर खाकर गिर पड़ा था।
नायकराम-छिपाओ मत, अगर बजरंगी या जगधार ने मारा हो, तो बता दो। दोनों को साल-साल भर के लिए भिजवा न दूँ, तो ब्राह्मण नहीं।
सूरदास-नहीं भैया, किसी ने नहीं मारा, झूठ किसे लगा दूँ?
नायकराम-मिलवालों में से तो किसी ने नहीं मारा? ये सब राह-चलते आदमियों को बहुत छेड़ा करते हैं। कहता हूँ, लुटवा दूँगा, इन झोंपड़ों में आग न लगा दूँ, तो कहना। बताओ, किसने यह काम किया? तुम तो आज तक कभी ठोकर खाकर नहीं गिरे। सारी देह लहू से लथपथ हो गई हैं
सूरदास ने किसी का नाम न बतलाया। जानता था कि नायकराम क्रोधा में आ जाएगा, तो मरने-मारने को न डरेगा। घर पहुँचा, तो सारा मुहल्ला दौड़ा। हाय! हाय! किस मुद्दई ने बेचारे अंधो को मारा! देखो तो, मुँह कितना सूज आया है! लोगों ने सूरदास को बिछावन पर लिटा दिया। भैरों दौड़ा, बजरंगी ने आग जलाई, अफीम और तेल की मालिश होने लगी। सभी के दिल उसकी तरफ से नम पड़ गए। अकेला जगधार खुश था, जमुनी से बोला-भगवान ने हमारा बदला लिया है। हम सबर कर गए, पर भगवान् तो न्याय करनेवाले हैं।
जमुनी चिढ़कर बोली-चुप भी रहो, आए हो बड़े न्याय की पूँछ बनके! बिपत में बैरी पर भी न हँसना चाहिए, वह हमारा बैरी नहीं है। सच बात के पीछे जान दे देगा, चाहे किसी को अच्छा लगे या बुरा। आज हममे से कोई बीमार पड़ जाए, तो देखो, रात-की-रात बैठा रहता है कि नहीं। ऐसे आदमी से क्या बैर!
जगधार लज्जित हो गया।
पंद्रह दिन तक सूरदास घर से निकलने लायक न हुआ। कई दिन मुँह से खून आता रहा। सुभागी दिन-भर उसके पास बैठी रहती। भैरों रात को उसके पास सोता। जमुनी नूर के तड़के गरम दूधा लेकर आती और उसे अपने हाथों से पिला जाती। बजरंगी बाजार से दवाएँ लाता। अगर कोई उसे देखने न आया, तो वह मिठुआ था। उसके पास तीन बार आदमी गया, पर उसकी इतनी हिम्मत भी न हुई कि सेवा-शुश्रूषा के लिए नहीं, तो कुशल-समाचार पूछने ही के लिए चला आता। डरता था कि जाऊँगा तो लोगों के कहने-सुनने से कुछ-न-कुछ देना ही पड़ेगा। उसे अब रुपये का चस्का लग गया था। सूरदास के मुँह से भी इतना निकल ही गया-दुनिया अपने मतलब की है। बाप नन्हा-सा छोड़कर मर गया। माँ-बेटे की परवस्ती की, माँ मर गई, तो अपने लड़के की तरह पाला-पोसा, आप लड़कोरी बन गया, उसकी नींद सोता था, उसकी नींद जागता था, आज चार पैसे कमाने लगा, तो बात भी नहीं पूछता। खैर, हमारे भी भगवान् हैं। जहाँ रहे, सुखी रहे। उसकी नीयत उसके साथ, मेरी नीयत मेरे साथ। उसे मेरी कलक न हो, मुझे तो उसकी कलक है। मैं कैसे भूल जाऊँ कि मैंने लड़के की तरह उसको पाला है!
इधार तो सूरदास रोग-शय्या पर पड़ा हुआ था, उधार पाँड़ेपुर का भाग्य-निर्णय हो रहा था। एक दिन प्रात:काल राजा महेंद्रकुमार, मि. जॉन सेवक, जाएदाद के तखमीने का अफसर, पुलिस के कुछ सिपाही और एक दारोगा पाँड़ेपुर आ पहुँचे। राजा साहब ने निवासियों को जमा करके समझाया-सरकार को एक खास सरकारी काम के लिए इस मुहल्ले की जरूरत है। उसने फैसला किया है कि तुम लोगों को उचित दाम देकर यह जमीन ले ली जाए, लाट साहब का हुक्म आ गया है। तखमीने के अफसर साहब इसी काम के लिए तैनात किए गए हैं। कल से उनका इजलास यहीं हुआ करेगा। आप सब मकानों की कीमत का तखमीना करेंगे ओर उसी के मुताबिक तुम्हें मुआवजा मिल जाएगा। तुम्हें जो कुछ अर्ज-मारूज करना हो, आप ही से करना। आज से तीन महीने के अंदर तुम्हें अपने-अपने मकान खाली कर देने पड़ेंगे, मुआवजा पीछे मिलता रहेगा। जो आदमी इतने दिनों के अंदर मकान न खाली करेगा, उसके मुआवजे के रुपये जब्त कर लिए जाएँगे और वह जबरदस्ती घर से निकाल दिया जाएगा। अगर कोई रोक-टोक करेगा, तो पुलिस उसका चालान करेगी, उसको सजा हो जाएगी। सरकार तुम लोगों को बेवजह तकलीफ नहीं दे रही है, उसको इस जमीन की सख्त जरूरत है। मैं सिर्फ सरकारी हुक्म की तामील कर रहा हूँ।
गाँववालों को पहले ही इसकी टोह मिल चुकी थी। किंतु इस ख्याल से मन को बोधा दे रहे थे कि कौन जाने, खबर ठीक है या नहीं। ज्यों-ज्यों विलम्ब होता था, उनकी आलस्य-प्रिय आत्माएँ निश्चिंत होती जाती थीं। किसी को आशा थी कि हाकिमों से कह-सुनकर अपना घर बचा लूँगा, कोई कुछ दे-दिलाकर अपनी रक्षा करने की फिक्र कर रहा था, कोई उज्रदारी करने का निश्चय किए हुए था, कोई यह सोचकर शांत बैठा हुआ था कि न जाने क्या होगा, पहले से क्यों अपनी जान हलकान करें, जब सिर पर पड़ेगी, तब देखी जाएगी। तिस पर भी आज जो लोगों ने सहसा यह हुक्म सुना, तो मानो वज्राघात हो गया। सब-के-सब साथ हाथ बाँधाकर राजा साहब के सामने खड़े हो गए और कहने लगे-सरकार, यहाँ रहते हमारी कितनी पीढ़ियाँ गुजर गईं, अब सरकार हमको निकाल देगी, तो कहाँ जाएँगे? दो-चार आदमी हों, तो कहीं घुस पड़ें,मुहल्ले-का-मुहल्ला उजड़कर कहाँ जाएगा? सरकार जैसे हमें निकालती है, वैसे कहीं ठिकाना भी बता दे।
राजा साहब बोले-मुझे स्वयं इस बात का बड़ा दु:ख है और मैंने तुम्हारी ओर से सरकार की सेवा में उज्र भी किया था; मगर सरकार कहती है, इस जमीन के बगैर हमारा काम नहीं चल सकता। मुझे तुम्हारे साथ सच्ची सहानुभूति है, पर मजबूर हूँ, कुछ नहीं कर सकता, सरकार का हुक्म है, मानना पड़ेगा।
इसका जवाब देने की किसी को हिम्मत न पड़ती थी। लोग एक दूसरे को कुहनियों से ठेलते थे कि आगे बढ़कर पूछो, मुआवजा किस हिसाब से मिलेगा; पर किसी के कदम न बढ़ते थे। नायकराम यों तो बहुत चलते हुए आदमी थे, पर इस अवसर पर वह भी मौन साधो हुए खड़े थे। वह राजा साहब से कुछ कहना-सुनना व्यर्थ समझकर तखमीने के अफसर से तखमीने की दर में कुछ बेशी करा लेने की युक्ति सोच रहे थे। कुछ दे-दिलाकर उनसे काम निकालना ज्यादा सरल जान पड़ता था। इस विपत्तिा में सभी को सूरदास की याद आती थी। वह होता,तो जरूर हमारी ओर से अरज-बिनती करता। इतना गुरदा और किसी का नहीं हो सकता। कई आदमी लपके हुए सूरदास के पास गए और उससे समाचार कहा।
सूरदास ने कहा-और सब लोग तो हैं ही, मैं चलकर क्या कर लूँगा। नायकराम क्यों सामने नहीं आते? यों तो बहुत गरजते हैं, अब क्यों मुँह नहीं खुलता? मुहल्ले ही में रोब दिखाने को है?
ठाकुरदीन-सबकी देखी गई। सबके मुँह में दही जमा हुआ है। हाकिमों से बोलने को हिम्मत चाहिए, अकिल चाहिए।
शिवसेवक बनिया ने कहा-मेरे तो उनके सामने खड़े होते पैर थरथर काँपते हैं। न जाने कोई कैसे हाकिमों से बातें करता है। मुझे तो वह जरा डाँट दें, तो दम ही निकल जाए।
झींगुर तेली बोला-हाकिमों का बड़ा रोब होता है। उनके सामने तो अकिल ही खप्त हो जाती है।
सूरदास-मुझसे तो उठा ही नहीं जाता। चलना भी चाहूँ, तो कैसे चलूँगा।
ठाकुरदीन-यह कौन मुश्किल काम है। हम लोग तुम्हें उठा ले चलेंगे।
सूरदास यों लाठी के सहारे घर से बाहर आने-जाने लगा था, पर इस वक्त अनायास उसे कुछ मान करने की इच्छा हुई। कहने से धाोबी गधो पर नहीं चढ़ता।
सूरदास-भाई, करोगे सब जने अपने-अपने-अपने मन ही की, मुझे क्यों नक्कू बनाते हो? जो सबकी गत होगी, वही मेरी भी गत होगी। भगवान् की जो मरजी है, वह होगी।
ठाकुरदीन ने बहुत चिरौरी की, पर सूरदास चलने पर राजी न हुआ। तब ठाकुरदीन को क्रोधा आ गया। बेलाग बात कहते थे। बोले-अच्छी बात है, मत जाओ। क्या तुम समझते हो, जहाँ मुर्गा न होगा वहाँ सबेरा ही न होगा? चार आदमी सराहने लगे, तो अब मिजाज ही नहीं मिलते। सच कहा है, कौवा धाोने से बगुला नहीं होता।
आठ बजते-बजते अधिाकारी लोग बिदा हो गए। अब लोग नायकराम के घर आकर पंचायत करने लगे कि क्या किया जाए।
जमुनी-तुम लोग यों ही बकवास करते रहोगे, और किसी का किया कुछ न होगा। सूरदास के पास जाकर क्यों नहीं सलाह करते? देखा,क्या कहता है?
बजरंगी-तो जाती क्यों नहीं, मुझी को ऐसी कौन-सी गरज पड़ी हुई है?
जमुनी-तो फिर चलकर अपने-अपने घर बैठो, गपड़चौथ करने से क्या होना है।
भैरों-बजरंगी, यह हेकड़ी दिखाने का मौका नहीं है। सूरदास के पास सब जने मिलकर चलो। वह कोई-न-कोई राह जरूर निकालेगा।
ठाकुरदीन-मैं तो अब कभी उसके द्वार पर न जाऊँगा। इतना कह-सुनकर हार गया, पर न उठा। अपने को लगाने लगा है।
जगधार-सूरदास क्या कोई देवता है, हाकिम का हुकुम पलट देगा?
ठाकुरदीन-मैं तो गोद में उठा लाने को तैयार था।
बजरंगी-घमंड है घमंड, कि और लोग क्यों नहीं आए। गया क्यों नहीं हाकिमों के सामने? ऐसा मर थोड़े ही रहा है!
जमुनी-कैसे आता? वह तो हाकिमों से बुरा बने, यहाँ तुम लोग अपने-अपने मन की करने लगे, तो उसकी भद्द हो।
भैरों-ठीक तो कहती हो, मुद्दई सुस्त, तो गवाह कैसे चुस्त होगा। पहले चलकर पूछो, उसकी सलाह क्या है। अगर मानने लायक हो, तो मानो; न मानने लायक हो, न मानो। हाँ, एक बात जो तय हो जाए, उस पर टिकना पड़ेगा। यह नहीं कि कहा तो कुछ, पीछे से निकल भागे,सरदार तो भरम में पड़ा रहे कि आदमी पीछे हैं, और आदमी अपने-अपने घर की राह लें।
बजरंगी-चलो पंडाजी, पूछ ही देखें।
नायकराम-वह कहेगा, बड़े साहब के पास चलो, वहाँ सुनाई न हो, तो परागराज लाट साहब के पास चलो। है इतना बूता?
जगधार-भैया की बात, महाराज, यहाँ तो किसी का मुँह नहीं खुला, लाट साहब के पास कौन जाता है!
जमुनी-एक बार चले क्यों नहीं जाते? देखो तो, क्या सलाह देता है?
नायकराम-मैं तैयार हूँ, चलो।
ठाकुरदीन-मैं न जाऊँगा, और जिसे जाना हो जाए।
जगधार-तो क्या हमीं को बड़ी गरज पड़ी है?
बजरंगी-जो सबकी गत होती, वही हमारी भी होगी।
घंटे-भर तक पंचायत हुई, पर सूरदास के पास कोई न गया। साझे की सुई ठेले पर लदती है। तू चल, मैं आता हूँ, यही हुआ, किया। फिर लोग अपने-अपने घर चले गए। संधया समय भैरों सूरदास के पास गया।
सूरदास ने पूछा-आज क्या हुआ?
भैरों-हुआ क्या, घंटे-भर तक बकवास हुई। फिर लोग अपने-अपने घर चले गए।
सूरदास-कुछ तय न हुआ कि क्या किया जाए?
भैरों-निकाले जाएँगे, इसके सिवा और क्या होगा। क्यों सूरे, कोई न सुनेगा?
सूरदास-सुननेवाला भी वही है, जो निकालनेवाला है। तीसरा होता, तब न सुनता।
भैरों-मेरी मरन है। हजारों मन लकड़ी है, कहाँ ढोकर ले जाऊँगा? कहाँ इतनी जमीन मिलेगी कि फिर टाल लगाऊँ?
सूरदास-सभी की मरन है। बजरंगी ही को इतनी जमीन कहाँ मिली जाती है कि पंद्रह-बीस जानवर भी रहें, आप भी रहें। मिलेगी भी तो इतना किराया देना पड़ेगा कि दिवाला निकल जाएगा। देखो, मिठुआ आज भी नहीं आया। मुझे मालूम हो जाए कि वह बीमार है, तो छिन-भर न रुकूँ, कुत्तो की भाँति दौड़ईँ, चाहे वह मेरी बात भी न पूछे। जिनके लिए अपनी जिंदगी खराब कर दो, वे भी गाढ़े समय पर मुँह फेर लेते हैं।
भैरों-अच्छा, तुम बताओ, तुम क्या करोगे, तुमने भी कुछ सोचा है?
सूरदास मेरी क्या पूछते हो, जमीन थी, वह निकल ही गई; झोंपड़े के बहुत मिलेंगे, तो दो-चार रुपये मिल जाएँगे। मिले तो क्या, और न मिले तो क्या? जब तक कोई न बोलेगा, पड़ा रहूँगा। कोई हाथ पकड़कर निकाल देगा, बाहर जा बैठूँगा। वहाँ से उठा देगा, फिर आ बैठूँगा। जहाँ जन्म लिया है, वहीं मरूँगा। अपना, झोंपड़ा जीते-जी न छोड़ा जाएगा। मरने पर जो चाहे, ले ले। बाप-दादों की जमीन खो दी, अब इतनी निसानी रह गई है, इसे न छोड़ईँगा। इसके साथ ही आप भी मर जाऊँगा।
भैरों-सूरे, इतना दम तो यहाँ किसी में नहीं।
सूरदास-इसी से तो मैंने किसी से कुछ कहा ही नहीं। भला सोचो, कितना अंधोर है कि हम, जो सत्तार पीढ़ियों से यहाँ आबाद हैं, निकाल दिए जाएँ और दूसरे यहाँ आकर बस जाएँ। यह हमारा घर है, किसी के कहने से नहीं छोड़ सकते। जबरदस्ती जो चाहे, निकाल दे, न्याय से नहीं निकाल सकता। तुम्हारे हाथ में बल है, तुम हमें मार सकते हो। हमारे हाथ में बल होता; तो हम तुम्हें मारते। यह तो कोई इंसाफ नहीं है। सरकार के हाथ में मारने का बल है, हमारे हाथ में और कोई बल नहीं है, तो मर जाने का बल तो है!
भैरों ने जाकर दूसरों से ये बातें कहीं। जगधार ने कहा-देखा, यह सलाह है! घर तो जाएगा ही, जान भी जाएगी।
ठाकुरदीन-यह सूरदास का किया होगा। आगे नाथ न पीछे पगहा, मर ही जाएगा, तो क्या? यहाँ मर जाएँ, तो बाल-बच्चों को किसके सिर छोड़ें?
बजरंगी-मरने के लिए कलेजा चाहिए। जब हम ही मर गए, तो घर लेकर क्या होगा?
नायकराम-ऐसे बहुत मरनेवाले देखे हैं, घर से निकला ही नहीं गया, मरने चले हैं।
भैरों-उसकी न चलाओ पंडाजी, मन में आने की बात है।
दूसरे दिन से तखमीने के अफसर ने मिल के एक कमरे में इजलास करना शुरू किया। एक मुंशी मुहल्ले के निवासियों के नाम, मकानों की हैसियत, पक्के हैं या कच्चे, पुराने हैं या नए, लम्बाई, चौड़ाई आदि की एक तालिका बनाने लगा। पटवारी और मुंशी घर-घर घूमने लगे। नायकराम मुखिया थे। उनका साथ रहना जरूरी था। इस वक्त सभी प्राणियों का भाग्य-निर्णय इसी त्रिामूर्ति के हाथों में था। नायकराम की चढ़ बनी। दलाली करने लगे। लोगों से कहते, निकलना तो पड़ेगा ही, अगर कुछ गम खाने से मुआवजा बढ़ जाए, तो हरज ही क्या है। बैठे-बिठाए, मुट्ठी गर्म होती थी, तो क्यों छोड़ते! सारांश यह कि मकानों की हैसियत का आधाार वह भेंट थी, जो इस त्रिामूर्ति को चढ़ाई जाती थी। नायकराम टट्टी की आड़ से शिकार खेलते थे। यश भी कमाते थे, धान भी। भैरों का बड़ा मकान और सामने का मैदान सिमट गए,उनका क्षेत्राफल घट गया, त्रिामूर्ति की वहाँ कुछ पूजा न हुई। जगधार का छोटा-सा मकान फैल गया। त्रिामूर्ति ने उसकी भेंट से प्रसन्न होकर रस्सियाँ ढीली कर दीं, क्षेत्राफल बढ़ गया। ठाकुरदीन ने इन देवतों को प्रसन्न करने के बदले शिवजी को प्रसन्न करना ज्यादा आसान समझा। वहाँ एक लोटे जल के सिवा विशेष खर्च न था। दोनों वक्त पानी देने लगे। पर इस समय त्रिामूर्ति का दौरदौरा था, शिवजी की एक न चली। त्रिामूर्ति ने उनके छोटे, पर पक्के घर को कच्चा सिध्द किया था। बजरंगी देवतों को प्रसन्न करना क्या जाने। उन्हें नाराज ही कर चुका था, पर जमुनी ने अपनी सुबुध्दि से बिगड़ता हुआ काम बना लिया। मुंशीजी उसकी एक बछिया पर रीझ गए, उस पर दाँत लगाए। बजरंगी जानवरों को प्राण से भी प्रिय समझता था, तिनक गया। नायकराम ने कहा, बजरंगी पछताओगे। बजरंगी ने कहा, चाहे एक कौड़ी मुआवजा न मिले, पर बछिया न दूँगा। आखिर जमुनी ने, जो सौदे पटाने में बहुत कुशल थी, उसको एकांत में ले जाकर समझाया कि जानवरों के रहने का कहीं ठिकाना भी है? कहाँ लिए-लिए फिरोगे? एक बछिया के देने से सौ रुपये का काम निकलता है, तो क्यों नहीं निकालते? ऐसी न-जाने कितनी बछिया पैदा होंगी, देकर सिर से बला टालो। उसके समझाने से अंत में बजरंगी भी राजी हो गया!
पंद्रह दिन तक त्रिामूर्ति का राज्य रहा। तखमीने के अफसर साहब बारह बजे घर से आते, अपने कमरे में दो-चार सिगार पीते, समाचार-पत्रा पढ़ते, एक दो बजे घर चल देते। जब तालिका तैयार हो गई, तो अफसर साहब उसकी जाँच करने लगे। फिर निवासियों की बुलाहट हुई। अफसर ने सबके तखमीने पढ़-पढ़कर सुनाए। एक सिरे से धााँधाली थी। भैरों ने कहा-हुजूर, चलकर हमारा घर देख लें, वह बड़ा है कि जगधार का? इनको मिले 400 रुपये और मुझे मिले 300 रुपये। इस हिसाब से मुझे 600 रुपये मिलना चाहिए।
ठाकुरदीन बिगड़ीदिल थे ही, साफ-साफ कह दिया-साहब, तखमीना किसी हिसाब से थोड़े ही बनाया गया है। जिसने मुँह मीठा कर दिया,उसकी चाँदी हो गई; जो भगवान् के भरोसे बैठा रहा, उसकी बधिाया बैठ गई। अब भी आप मौके पर चलकर जाँच नहीं करते कि ठीक-ठीक तखमीना हो जाए, गरीबों के गले रेत रहे हैं।
अफसर ने बिगड़कर कहा-तुम्हारे गाँव का मुखिया तो तुम्हारी तरफ से रख लिया गया था। उसकी सलाह से तखमीना किया गया है। अब कुछ नहीं हो सकता।
ठाकुरदीन-अपने कहलानेवाले तो और लूटते हैं।
अफसर-अब कुछ नहीं हो सकता।
सूरदास की झोंपड़ी का मुआवजा 1 रुपये रक्खा गया था, नायकराम के घर के पूरे तीन हजार! लोगों ने कहा-यह है गाँव-घरवालों का हाल! ये हमारे सगे हैं, भाई का गला काटते हैं। उस पर घमंड यह कि हमें धान का लोभ नहीं। आखिर तो है पंडा ही न, जात्रिायों को ठगनेवाला! जभी तो यह हाल है। जरा-सा अख्तियार पाके ऑंखें फिर गईं। कहीं थानेदार होते, तो किसी को घर में रहने न देते। इसी से कहा है, गंजे के नह नहीं होते।
मिस्टर क्लार्क के बाद मि. सेनापति जिलाधाीश हो गए। सरकार का धान खर्च करते काँपते थे। पैसे की जगह धोले से काम निकालते थे। डरते रहते थे कि कहीं बदनाम न हो जाऊँ। उनमें यह आत्मविश्वास न था, जो ऍंगरेज अफसरों में होता है। ऍंगरेजों पर पक्षपात का संदेह नहीं किया जा सकता, वे निर्भीक और स्वाधाीन होते हैं। मि. सेनापति को संदेह हुआ कि मुआवजे बड़ी नरमी से लिखे गए हैं। उन्होंने उसकी आधाी रकम काफी समझी। अब यह मिसिल प्रांतीय सरकार के पास स्वीकृति के लिए भेजी गई। वहाँ फिर उसकी जाँच होने लगी। इस तरह तीन महीने की अवधिा गुजर गई, और मि. जॉन सेवक पुलिस के सुपरिंटेंडेंट, दारोगा माहिर अली और मजदूरों के साथ मुहल्ले को खाली कराने के लिए आ पहुँचे। लोगों ने कहा, अभी तो हमको रुपये नहीं मिले। जॉन सेवक ने जवाब दिया, हमें तुम्हारे रुपयों से कोई मतलब नहीं;रुपये जिससे मिलें, उससे लो। हमें तो सरकार ने 1 मई को मुहल्ला खाली करा देने का वचन दिया है, और अगर कोई कह दे कि आज 1 मई नहीं है, तो हम लौट जाएँगे। अब लोगों में बड़ी खलबली पड़ी, सरकार की क्या नीयत है? क्या मुआवजा दिए बिना ही हमें निकाल दिया जाएगा, घर का घर छोड़े और मुआवजा भी न मिले! यह तो बिना मौत मरे। रुपये मिल जाते, तो कहीं जमीन लेकर घर बनवाते, खाली हाथ कहाँ जाएँ। क्या घर में खजाना रखा हुआ है! एक तो रुपये के चार आने मिलने का हुक्म हुआ, उसका भी यह हाल! न जाने सरकार की नीयत बदल गई कि बीचवाले खाये जाते हैं।
माहिर अली ने कहा-तुम लोगों को जो कुछ कहना-सुनना है, जाकर हाकिम जिला से कहो। मकान आज खाली करा लिए जाएँगे।
बजरंगी-मकान कैसे खाली होंगे, कोई राहजनी है! जिस हाकिम का यह हुकुम है, उसी हाकिम का तो यह हुकुम भी है।
माहिर-कहता हूँ, सीधो से अपने बोरिए-बकचे लादो और चलते-फिरते नजर आओ। नाहक हमें गुस्सा क्यों दिलाते हो? कहीं मि. हंटर को आ गया जोश, तो फिर तुम्हारी खैरियत नहीं।
नायकराम-दारोगाजी, दो-चार दिन की मुहलत दे दीजिए। रुपये मिलेंगे ही, ये बेचारे क्या बुरे कहते हैं कि बिना रुपये-पैसे कहाँ भटकते फिरें।
मि. जॉन सेवक तो सुपरिंटेंडेंट को साथ लेकर मिल की सैर करने चले गए थे, वहाँ चाय-पानी का प्रबंधा किया गया था, माहिर अली की हुकूमत थी। बोले-पंडाजी, ये झाँसे दूसरों को देना। यहाँ तुम्हें बहुत दिनों से देख रहे हैं और तुम्हारी नस-नस पहचानते हैं। मकान आज और आज ही खाली होंगे।
सहसा एक ओर से दो बच्चे खेलते हुए आ गए, दोनों नंगे पाँव थे, फटे हुए कपड़े पहने, पर प्रसन्न-वदन। माहिर अली को देखते ही चचा-चचा कहते हुए उसकी तरफ दौड़े। ये दोनों साबिर और नसीमा थे। कुल्सूम ने इसी मुहल्ले में एक छोटा-सा मकान एक रुपये किराए पर ले लिया था। गोदाम का मकान जॉन सेवक ने खाली करा लिया था। बेचारी इसी छोटे-से घर में पड़ी अपने मुसीबत के दिन काट रही थी। माहिर ने दोनों बच्चों को देखा, तो कुछ झेंपते हुए बोले-भाग जाओ, भाग जाओ, यहाँ क्या करने आए? दिल में शरमाए कि सब लोग कहते होंगे, ये इनके भतीजे हैं, और इतने फटेहाल, यह उनकी खबर भी नहीं लेते?
नायकराम ने दोनों बच्चों को दो-दो पैसे देकर कहा-जाओ, मिठाई खाना, ये तुम्हारे चचा नहीं हैं।
नसीमा-हूँ! चचा तो हैं, क्या मैं पहचानती नहीं?
नायकराम-चचा होते, तो तुझे गोद में न उठा लेते, मिठाइयाँ न मँगा देते? तू भूल रही है।
माहिर अली ने क्रुध्द होकर कहा-पंडाजी, तुम्हें इन फिजूल बातों से क्या मतलब? मेरे भतीजे हों या न हों, तुमसे सरोकार? तुम किसी की निज की बातों में बोलनेवाले कौन होते हो? भागो साबिर, नसीमा भाग, नहीं तो सिपाही पकड़ लेगा।
दोनों बालकों ने अविश्वासपूर्ण नेत्राों से माहिर अली को देखा और भागे। रास्ते में नसीमा ने कहा-चचा ही-जैसे तो हैं, क्यों साबिर, चचा ही हैं न?
साबिर-नहीं तो और कौन हैं?
नसीमा-तो फिर हमें भगा क्यों दिया?
साबिर-जब अब्बा थे, तब न हम लोगों को प्यार करते थे! अब तो अब्बा नहीं हैं, तब तो अब्बा ही सबको खिलाते थे।
नसीमा-अम्माँ को भी तो अब अब्बा नहीं खिलाते। वह तो हम लोगों को पहले से ज्यादा प्यार करती हैं। पहले कभी पैसे न देती थीं, अब तो पैसे भी देती हैं।
साबिर-वह तो हमारी अम्मा हैं न।
लड़के तो चले गए, इधार दारोगाजी ने सिपाहियों को हुक्म दिया-फेंक दो असबाब और मकान फौरन खाली करा लो। ये लोग लात के आदमी हैं, बातों से न मानेंगे।
दो कांस्टेबिल हुक्म पाते ही बजरंगी के घर में घुस गए, और बरतन निकाल-निकाल फेंकने लगे। बजरंगी बाहर लाल ऑंखें किए खड़ा ओठ चबा रहा था। जमुनी घर में इधार-उधार दौड़ती फिरती थी, कभी हाँड़ियाँ उठाकर बाहर लाती, कभी फेंके हुए बरतनों को समेटती। मुँह एक क्षण के लिए बंद न होता था-मूड़ी काटे कारखाना बनाने चले हैं, दुनिया को उजाड़कर अपना घर भरेंगे। भगवान् भी ऐसे पापियों का संहार नहीं करते, न-जाने कहाँ जाके सो गए हैं! हाय! हाय! घिसुआ की जोड़ी पटक-कर तोड़ डाली!
बजरंगी ने टूटी हुई जोड़ी उठा ली और एक सिपाही के पास जाकर बोला-जमादार, यह जोड़ी तोड़ डालने से तुम्हें क्या मिला? साबित उठा ले जाते, तो भला किसी काम तो आती! कुशल है कि लाल पगड़ी बाँधो हुए हो, नहीं तो आज…
उसके मुँह से पूरी बात भी न निकली थी कि दोनों सिपाहियों ने उस पर डंडे चलाने शुरू किए। बजरंगी से अब जब्त न हो सका, लपककर एक सिपाही की गर्दन एक हाथ से और दूसरे की गर्दन दूसरे हाथ से पकड़ ली, और इतनी जोर से दबाई कि दोनों की ऑंखें निकल आईं। जमुनी ने देखा, अब अनर्थ हुआ चाहता है, तो रोती हुई बजरंगी के पास जाकर बोली-तुम्हें भगवान् की कसम है, जो किसी से लड़ाई करो। छोड़ो-छोड़ो! क्यों अपनी जान से बैर कर रहे हो!
बजरंगी-तू जा बैठ। फाँसी पा जाऊँ, तो मैके चली जाना। मैं तो इन दोनों के प्राण ही लेकर छोड़ईँगा।
जमुनी-तुम्हें घीसू की कसम, तुम मेरा ही माँस खाओ, जो इन दोनों को छोड़कर यहाँ से चले न जाओ।
बजरंगी ने दोनों सिपाहियों को छोड़ दिया, पर उसके हाथ से छूटना था कि वे दौड़े हुए माहिर अली के पास पहुँचे, और कई और सिपाहियों को लिए हुए फिर आए। पर बजरंगी को जमुनी पहले ही से टाल ले गई थी। सिपाहियों को शेर न मिला, तो शेर की माँद को पीटने लगे, घर की सारी चीजें तोड़-फोड़ डालीं। जो अपने काम की चीज नजर आई, उस पर हाथ भी साफ किया। यही लीला दूसरे घरों में भी हो रही थी। चारों तरफ लूट मची हुई थी। किसी ने अंदर से घर के द्वार बंद कर लिए, कोई अपने बाल-बच्चों को लेकर पिछवाड़े से निकल भागा। सिपाहियों को मकान खाली कराने का हुक्म क्या मिला, लूट मचाने का हुक्म मिल गया। किसी को अपने बरतन-भाँड़े समेटने की मुहलत भी न देते थे। नायकराम के घर पर भी धाावा हुआ। माहिर अली स्वयं पाँच सिपाहियों को लेकर घुसे। देखा, तो वहाँ चिड़िया का पूत भी न था,घर में झाड़ई फिरी हुई थी, एक टूटी हाँड़ी भी न मिली। सिपाहियों के हौसले मन ही में रह गए। सोचे थे, इस घर में खूब बढ़-बढ़कर हाथ मारेंगे, पर निराश और लज्जित होकर निकलना पड़ा। बात यह थी कि नायकराम ने पहले ही अपने घर की चीजें निकाल फेंकी थीं।
उधार सिपाहियाें ने घरों के ताले तोड़ने शुरू किए। कहीं किसी पर मार पड़ती थी, कहीं कोई अपनी चीजें लिए भागा जाता था। चिल्ल-पों मची हुई थी। विचित्रा दृश्य था, मानो दिन-दहाड़े डाका पड़ रहा हो। सब लोग घरों से निकलकर या निकाले जाकर सड़क पर जमा होते जाते थे। ऐसे अवसरों पर प्राय: उपद्रवकारियों का जमाव हो ही जाता है। लूट का प्रलोभन था ही, किसी को निवासियों से बैर था, किसी को पुलिस से अदावत। प्रतिक्षण शंका होती थी कि कहीं शांति न भंग हो जाए, कहीं कोई हंगामा न मच जाए। माहिर अली ने जनसमुदाय की त्योरियाँ देखीं, तो तुरंत एक सिपाही को पुलिस की छावनी की ओर दौड़ाया, और चार बजते-बजते सशस्त्रा पुलिस की एक टोली और आ पहुँची। कुमुक आते ही माहिर अली और भी दिलेर हो गए। हुक्म दिया-मार-मारकर सबों को भगा दो। लोग वहाँ क्यों खड़े हैं? भगा दो। जिस आदमी को यहाँ खड़े देखो, मारो। अब तक लोग अपने माल और असबाब समेटने में लगे हुए थे। मार भी पड़ती थी, चुपके से सह लेते थे। घर में अकेले कई सिपाहियों से कैसे भिड़ते? अब सब-के-सब एक जगह खड़े हो गए थे। उन्हें कुछ तो अपनी सामूहिक शक्ति का अनुभव हो रहा था, उस पर नायकराम उकसाते जाते थे, यहाँ आएँ तो बिना मारे न छोड़ना, दो-चार के हाथ-पैर जब तक न टूटेंगे, ये सब न भागेंगे। बारूद भड़कनेवाली ही थी कि इतने में इंदु की मोटर पहुँची, और उसमें से विनय, इंद्रदत्ता और इंदु उतर पड़े। देखा, तो कई हजार आदमियों का हुजूम था। कुछ मुहल्ले के निवासी थे, कुछ राह-चलते मुसाफिर, कुछ आस-पास के गाँवों के रहनेवाले, कुछ मिल के मजदूर। कोई केवल तमाशा देखने आया था, कोई पड़ोसियों से सहानुभूति करने और इस उपद्रव कार् ईष्यापूर्ण आनंद उठाने। माहिर अली और उनके सिपाही उस उत्साह के साथ, जो नीची प्रकृति के प्राणियों को दमन में होता है, लोगों को सड़क पर से हटाने की चेष्टा कर रहे थे; पर भीड़ पीछे हटने के बदले और आगे ही बढ़ती जाती थी।
विनय ने माहिर अली के पास जाकर कहा-दारोगाजी, क्या इन आदमियों को एक दिन की भी मुहलत नहीं मिल सकती?
माहिर-मुहलत तो तीन महीने की थी, और अगर तीन साल की भी हो जाए, तो भी मकान खाली करने के वक्त यही हालत होगी। ये लोग सीधो से कभी न जाएँगे।
विनय-आप इतनी कृपा कर सकते हैं कि थोड़ी देर के लिए सिपाहियों को रोक लें। जब तक मैं सुपरिंटेंडेंट को यहाँ की हालत की खबर दे दूँ?
माहिर-साहब तो यहीं हैं। मि. जॉन सेवक उन्हें मिल दिखाने ले गए थे। मालूम नहीं, वहाँ से कहाँ चले गए, अब तक नहीं लौटे।
वास्तव में साहब बहादुर कहीं गए न थे, जॉन सेवक के साथ दफ्तर में बैठे आनंद से शराब पी रहे थे। दोनों ही आदमियों ने वास्तविक स्थिति को समझने में गलती की थी। उनका अनुमान था कि हमको देखकर लोग रोब में आ गए होंगे और मारे डर के आप-ही-आप भाग जाएँगे।
विनय साहब को खबर देने के लिए लपके हुए मिल की तरफ चले, तो राजा साहब को मोटर पर आते हुए देखा। ठिठक गए। सोचा, जब यह आ गए हैं, तो साहब के पास जाने की क्या जरूरत, इन्हीं से चलकर कहूँ। लेकिन उनके सामने जाते हुए शर्म आती थी कि कहीं जनता ने इनका अपमान किया, तो मैं क्या करूँगा, कहीं यह न समझ बैठें कि मैंने ही इन लोगों को उकसाया है। वह इसी द्विविधाा में पड़े हुए थे कि राजा साहब की निगाह इंदु की मोटर पर गई। जल उठे; इंद्रदत्ता और विनय को देखा, ज्वर-सा चढ़ आया-ये लोग यहाँ विराजमान हैं, फिर क्यों न दंगा हो। जहाँ ये महापुरुष होंगे, वहाँ जो कुछ नहो जाए, थोड़ा है। उन्हें क्रोधा बहुत कम आता था, पर इस समय उनसे जब्त न हुआ,विनय से बोले-यह सब आप ही की करामात मालूम होती है।
विनय ने शांत भाव से कहा-मैं तो अभी आया हूँ। सुपरिंटेंडेंट के पास जा ही रहा था कि आप दिखाई दिए।
राजा-खैर, अब तो आप इनके नेता हैं, इन्हें अपने किसी जादू-मंत्रा से हटाइएगा कि मुझे कोई दूसरा उपाय करना पड़ेगा?
विनय-इन लोगों को केवल इतनी शिकायत है कि अभी हमें मुआवजा नहीं मिला, हम कहाँ जाएँ, कैसे जमीन खरीदें, कैसे नए मकान के सामान लें। आप अगर इन्हें कह करके तसल्ली दे दें, तो सब आप-ही-आप हट जाएँगे।
राजा-यह इन लोगों का बहाना है। वास्तव में ये लोग उपद्रव मचाना चाहते हैं।
विनय-अगर इन्हें मुआवजा दे दिया जाए, तो शायद कोई दूसरा उपाय न करना पड़े। राजा-आप छ: महीनेवाला रास्ता बताते हैं, मैं एक महीनेवाली राह चाहता हूँ।
विनय-उस राह में काँटे हैं।
राजा-इसकी कुछ चिंता नहीं। हमें काँटेवाली राह ही पसंद है।
विनय-इस समूह की दशा सूखे पुआल की-सी है।
राजा-अगर पुआल हमारा रास्ता रोकता है, तो हम उसे जला देंगे।
सभी लोग भयातुर हो रहे थे, न जाने किस क्षण क्या हो जाए, फिर भी मनुष्यों का समूह किसी अज्ञात शक्ति के वशीभूत होकर राजा साहब की ओर बढ़ा चला आता था। पुलिसवाले भी इधार-उधार से आकर मोटर के पास खड़े हो जाते थे। देखते-देखते उनके चारों ओर मनुष्यों की एक अथाह, अपार नदी लहर मारने लगी, मानो एक ही रेले में इन गिने-गिनाए आदमियों को निगल जाएगी, इस छोटे-से कगार को बहा ले जाएगी।
राजा महेंद्रकुमार यहाँ आग में तेल डालने नहीं, उसे शांत करने आए थे। उनके पास दम-दम की खबरें पहुँच रही थीं। वह अपने उत्तारदायित्व का अनुभव करके बहुत चिंतित हो रहे थे। नैतिक रूप से तो उन पर कोई जिम्मेदारी न थी। जब प्रांतीय सरकार का दबाव पड़ा,तो वह कर ही क्या सकते थे? अगर पद-त्याग कर देते, तो दूसरा आदमी आकर सरकारी आज्ञा का पालन करता। पाँड़ेपुरवालों के सिर से किसी दशा में भी यह विपत्तिा न टल सकती थी, लेकिन वह आदि से निरंतर यह प्रयत्न कर रहे थे कि मकान खाली कराने के पहले लोगों को मुआवजा दे दिया जाए। बार-बार याद दिलाते थे। ज्यों-ज्यों अंतिम तिथि आती जाती थी, उनकी शंकाए बढ़ती जाती थीं। वह तो यहाँ तक चाहते थे कि निवासियों को कुछ रुपये पेशगी दे दिए जाएँ, जिसमें वे पहले ही से अपना-अपना ठिकाना कर लें। पर किसी अज्ञात कारण से रुपये की स्वीकृति में विलम्ब हो रहा था। वह मि. सेनापति से बार-बार कहते कि आप मंजूरी की आशा पर अपने हुक्म से रुपये दिला दें; पर जिलाधाीश कानों पर हाथ रखते थे कि न जाने सरकार का क्या इरादा है, मैं बिना हुक्म पाए कुछ नहीं कर सकता। जब आज भी मंजूरी न आई, तो राजा साहब ने तार द्वारा पूछा। दोपहर तक वह जवाब का इंतजार करते रहे। आखिर जब इस जमाव की खबर मिली, तो घबराए। उसी वक्त दौड़े हुए जिलाधाीश के बँगले पर गए कि उनसे कुछ सलाह लें। उन्हें आशा थी कि वह स्वयं घटनास्थल पर जाने को तैयार होंगे;पर वहाँ जाकर देखा, तो साहब बीमार पड़े थे। बीमारी क्या थी, बीमारी का बहाना था। बदनामी से बचने का यही उपाय था। साहब राजा से बोले-मुझे खेद है, मैं नहीं जा सकता। आप जाकर उपद्रव को शांत करने के लिए जो उचित समझें, करें।
महेंद्रकुमार अब बहुत घबराए, अपनी जान किसी भाँति बचती न नजर आती थी। अगर कहीं रक्तपात हो गया, तो मैं कहीं का न रहूँगा! सब कुछ मेरे ही सिर आएगी। पहले ही से लोग बदनाम कर रहे हैं। आज मेरे सार्वजनिक जीवन का अंत है! निरपराधा मारा जा रहा हूँ! मुझ पर कुछ ऐसा शनीचर सवार हुआ है कि जो कुछ करना चाहता हूँ, उसके प्रतिकूल करता हूँ, जैसे अपने ऊपर कोई अधिाकार ही न रहा हो। इस जमीन के झमेले में पड़ना ही मेरे लिए जहर हो गया। तब से कुछ ऐसी समस्याएँ उपस्थित होती चली आती हैं, जो मेरी महत्तवाकांक्षाओं का सर्वनाश किए देती हैं। यहाँ कीर्ति, नाम, सम्मान को कौन रोये, मुँह दिखाने के लाले पड़े हुए हैं!
यहाँ से निराश होकर वह फिर घर आए कि चलकर इंदु से राय लूँ, देखूँ, क्या कहती है। पर यहाँ इंदु न थी। पूछा, तो मालूम हुआ कि सैर करने गई हैं।
इस समय राजा साहब की दशा उस कृपण की-सी थी, जो अपनी ऑंखों से अपना धान लुटते देखता हो, और इस भय से कि लोगों पर मेरे धानी होने का भेद खुल जाएगा, कुछ बोल न सकता हो। अचानक उन्हें एक बात सूझी-
क्यों न मुआवजे के रुपये अपने ही पास से दे दूँ? रुपये कहीं जाते तो हैं नहीं। जब मंजूरी आ जाएगी, वापस ले लूँगा। दो-चार दिन का मुआमला है, मेरी बात रह जाएगी, और जनता पर इसका कितना अच्छा असर पड़ेगा। कुल सत्तार हजार तो हैं, ही। और इसकी क्या जरूरत है कि सब रुपये आज ही दे दिए जाएँ? कुछ आज दे दूँ, कुछ कल दे दूँ, तब तक मंजूरी आ ही जाएगी। जब लोगों को रुपये मिलने लगेंगे तो तस्कीन हो जाएगी, .यह भय न रहेगा कि कहीं सरकार रुपये जब्त न कर ले। खेद है, मुझे पहले यह बात न सूझी, नहीं तो इतना झमेला ही क्यों होता। उन्होंने उसी वक्त इंपीरियल बैंक के नाम बीस हजार का चेक लिखा। देर बहुत हो गई थी, इसलिए बैंक के मैनेजर के नाम एक पत्रा भी लिखा दिया था कि रुपये देने में विलम्ब न कीजिएगा, नहीं तो शांति भंग हो जाने का भय है। बैंक से आदमी रुपये लेकर लौटा तो पाँच बज चुके थे। तुरंत मोटर पर सवार होकर पाँड़ेपुर आ पहुँचे। आए तो थे ऐसी शुभेच्छाओं से, पर वहाँ विनय और इंदु को देखकर तैश आ गया। जी में आया, लोगों से कह दूँ, जिनके बूते पर उछल रहे हो, उनसे रुपये लो, इधार सरकार को लिख दूँ कि लोग विद्रोह करने पर तैयार हैं, उनके रुपये जब्त कर लिए जाएँ। उसी क्रोधा में उन्होंने विनय से वे बातें कीं, जो ऊपर लिखी जा चुकी हैं। मगर जब उन्होंने देखा कि जन-समूह का रेला बढ़ा चला आ रहा है, लोगों के मुख आवेश-विकृत हो रहे हैं, सशस्त्रा पुलिस संगीनें चढ़ाए हुए है, और इधार-उधार दो-चार पत्थर भी चल रहे हैं, तो उनकी वही दशा हुई, जो भय में नशे की होती है। तुरंत मोटर पर खड़े हो गए और जोर से चिल्लाकर बोले-मित्राो,जरा शांत हो जाओ। यों दंगा करने से कुछ न होगा। मैं रुपये लाया हूँ, अभी तुमको मुआवजा मिल जाएगा। सरकार ने अभी मंजूरी नहीं भेजी है, लेकिन तुम्हारी इच्छा हो तो तुम मुझसे अपने रुपये ले सकते हो। इतनी-सी बात के वास्ते तुम्हारा यह दुराग्रह सर्वथा अनुचित है। मैं जानता हूँ कि यह तुम्हारा दोष नहीं है, तुमने किसी के बहकाने से ही शरारत पर कमर बाँधाी है। लेकिन मैं तुम्हें उस विद्रोह-ज्वाला में न कूदने दूँगा, जो तुम्हारे शुभचिंतकों ने तैयार कर रक्खी है। यह लो, तुम्हारे रुपये हैं। सब आदमी बारी-बारी से आकर अपने नाम लिखाओ,ऍंगूठे का निशान करो, रुपये लो और चुपके-चुपके घर जाओ।
एक आदमी ने कहा-घर तो आपने छीन लिए।
राजा-रुपयों से घर मिलने में देर न लगेगी। हमसे तुम्हारी जो कुछ सहायता हो सकेगी, वह उठा न रक्खेंगे। इस भीड़ को तुरंत हट जाना चाहिए, नहीं तो रुपये मिलने में देर होगी।
जो जन-समूह उमड़े हुए बादलों की तरह भयंकर और गम्भीर हो रहा था, यह घोषणा सुनते ही रूई के गालों की भाँति फट गया। न जाने लोग कहाँ समा गए। केवल वे ही लोग रह गए जिन्हें रुपये पाने थे। सामयिक सुबुध्दि मँडलाती हुई विपत्तिा का कितनी सुगमता से निवारण कर सकती है, इसका यह उज्ज्वल प्रमाण था। एक अनुचित शब्द, एक कठोर वाक्य अवस्था को असाधय बना देता।
पटवारी ने नामावली पढ़नी शुरू की। राजा साहब अपने हाथों से रुपये बाँटने लगे। आसामी रुपये लेता था, ऍंगूठे का निशान बनाता था,और तब दो सिपाही उसके साथ कर दिए जाते थे कि जाकर मकान खाली करा लें।
रुपये पाकर लौटते हुए लोग यों बातें करते जाते थे :
एक मुसलमान-यह राजा बड़ा मूजी है; सरकार ने रुपये भेज दिए थे, पर दबाए बैठा था। हम लोग गरम न पड़ते, तो हजम कर जाता।
दूसरा-सोचा होगा, मकान खाली करा लूँ, और रुपये सरकार को वापस करके सुर्खरू बन जाऊँ।
एक ब्राह्मण ने इसका विरोधा किया-क्या बकते हो! बेचारे ने रुपये अपने पास से दिए हैं।
तीसरा-तुम गौखे हो, ये चालें क्या जानो, जाके पोथी पढ़ो और पैसे ठगो।
चौथा-सबों ने पहले ही सलाह कर ली होगी। आपस में रुपये बाँट लेते, हम लोग ठाठ ही पर रह जाते।
एक मुंशीजी बोले-इतना भी न करें, तो सरकार कैसे खुश हो। इन्हें चाहिए था कि रिआया की तरफ से सरकार से लड़ते, मगर आप खुद ही खुशामदी टट्टू बने हुए हैं। सरकार का दबाव तो हीला है।
पाँचवाँ-तो यह समझ लो, हम लोग न आ जाते, तो बेचारों को कौड़ी भी न मिलती। घर से निकल जाने पर कौन देता है और कौन लेता है! बेचारे माँगने जाते, तो चपरासियों से मारकर निकलवा देते।
जनता की दृष्टि में एक बार विश्वास खोकर फिर जमाना मुश्किल है। राजा साहब को जनता के दरबार से यह उपहार मिल रहा था।
संधया हो गई थी। चार ही पाँच असामियों को रुपये मिलने पाए थे कि ऍंधोरा हो गया। राजा साहब ने लैम्प की रोशनी में नौ बजे रात तक रुपये बाँटे। तब नायकराम ने कहा-सरकार, अब तो बहुत देर हुई। न हो, कल पर उठा रखिए।
राजा साहब भी थक गए थे, जनता को भी अब रुपये मिलने में कोई बाधाा न दीखती थी, काम कल के लिए स्थगत कर दिया गया। सशस्त्रा पुलिस ने वहीं डेरा जमाया कि कहीं फिर न लोग जमा हो जाएँ।
दूसरे दिन दस बजे फिर राजा साहब आए, विनय और इंद्रदत्ता भी कई सेवकों के साथ आ पहुँचे। नामावली खोली गई। सबसे पहले सूरदास की तलबी हुई। लाठी टेकता हुआ आकर राजा साहब के सामने खड़ा हो गया।
राजा साहब ने उसे सिर से पाँव तक देखा और बोले-तुम्हारे मकान का मुआवजा केवल एक रु. है, यह लो, और घर खाली कर दो।
सूरदास-कैसा रुपया?
राजा-अभी तुम्हें मालूम नहीं, तुम्हारा मकान सरकार ने ले लिया है। यह उसी का मुआवजा है।
सूरदास-मैंने तो अपना मकान बेचने को किसी से नहीं कहा।
राजा-और लोग भी तो खाली कर रहे हैं।
सूरदास-जो लोग छोड़ने पर राजी हों, उन्हें दीजिए। मेरी झोंपड़ी रहने दीजिए। पड़ा रहूँगा और हुजूर का कल्यान मनाता रहूँगा।
राजा-यह तुम्हारी इच्छा की बात नहीं है, सरकारी हुक्म है। सरकार को इस जमीन की जरूरत है। यह क्योंकर हो सकता है कि और मकान गिरा दिए जाएँ, और तुम्हारा झोंपड़ा बना रहे?
सूरदास-सरकार के पास जमीन की क्या कमी है। सारा मुलुक पड़ा हुआ है। एक गरीब की झोंपड़ी छोड़ देने से उसका काम थोड़े ही रुक जाएगा?
राजा-व्यर्थ की हुज्जत करते हो, यह रुपया लो, ऍंगूठे का निशान बनाओ, और जाकर झोंपड़ी में से अपना सामान निकाल लो।
सूरदास-सरकार जमीन लेकर क्या करेगी? यहाँ कोई मंदिर बनेगा? कोई तालाब खुदेगा? कोई धारमशाला बनेगी? बताइए।
राजा-यह मैं कुछ नहीं जानता।
सूरदास-जानते क्यों नहीं, दुनिया जानती है, बच्चा-बच्चा जानता है। पुतलीघर के मजूरों के लिए घर बनेंगे। बनेंगे, तो उससे मेरा क्या फायदा होगा कि घर छोड़कर निकल जाऊँ! जो कुछ फायदा होगा, साहब को होगा। परजा की तो बरबादी ही है। ऐसे काम के लिए मैं अपना झोंपड़ा न छोड़ईँगा। हाँ, कोई धारम का काम होता, तो सबसे पहले मैं अपना झोंपड़ा दे देता। इस तरह जबरदस्ती करने का आपको अख्तियार है, सिपाहियों को हुक्म दे दें, फूस में आग लगते कितनी देर लगती है? पर यह न्याय नहीं है। पुराने जमाने में एक राजा अपना बगीचा बनवाने लगा, तो एक बुढ़िया की झोंपड़ी बीच में पड़ गई। राजा ने उसे बुलाकर कहा, तू यह झोंपड़ी मुझे दे दे, जितने रुपये कह, तुझे दे दूँ,जहाँ कह, तेरे लिए घर बनवा दूँ! बुढ़िया ने कहा, मेरा झोंपड़ा रहने दीजिए। जब दुनिया देखेगी कि आपके बगीचे के एक कोने में बुढ़िया की झोंपड़ी है, तो आपके धारम और न्याय की बड़ाई करेगी। बगीचे की दीवार दस-पाँच हाथ टेढ़ी हो जाएगी, पर इससे आपका नाम सदा के लिए अमर हो जाएगा। राजा ने बुढ़िया की झोंपड़ी छोड़ दी। सरकार का धारम परजा को पालना है कि उसका घर उजाड़ना, उसको बरबाद करना?
राजा साहब ने झुँझलाकर कहा-मैं तुमसे दलील करने नहीं आया हूँ, सरकारी हुक्म की तामील करने आया हूँ।
सूरदास-हुजूर, मेरी मजाल है कि आपसे दलील कर सकूँ। मगर मुझे उजाड़िए मत, बाप-दादों की निशानी यही झोंपड़ी रह गई है, इसे बनी रहने दीजिए।
राजा साहब को इतना अवकाश कहाँ था कि एक-एक असामी से घंटों वाद-विवाद करते? उन्होंने दूसरे आदमी को बुलाने का हुक्म दिया।
इंद्रदत्ता ने देखा कि सूरदास अब भी वहीं खड़ा है, हटने का नाम नहीं लेता, तो डरे कि राजा साहब कहीं उसे सिपाहियों से धाक्के देकर हटवा न दें। धाीरे से उसका हाथ पकड़कर अलग ले गए और बोले-सूरे, है तो अन्याय; मगर क्या करोगे, झोंपड़ी तो छोड़नी ही पड़ेगी। जो कुछ मिलता है, ले लो। राजा साहब की बदनामी का डर है, नहीं तो मैं तुमसे लेने को न कहता।
कई आदमियों ने इन लोगों को घेर लिया। ऐसे अवसरों पर लोगों की उत्सुकता बढ़ी हुई होती है। क्या हुआ? क्या हुआ? क्या जवाब दिया? सभी इन प्रश्नों के जिज्ञासु होते हैं। सूरदास ने सजल नेत्राों से ताकते हुए आवेश-कम्पित कंठ से कहा-भैया, तुम भी कहते हो कि रुपया ले लो! मुझे तो इस पुतलीघर ने पीस डाला। बाप-दादों की निशानी दस बीघे जमीन थी, वह पहले ही निकल गई, अब यह झोंपड़ी भी छीनी जा रही है। संसार इसी माया-मोह का नाम है। जब उससे मुक्त हो जाऊँगा, तो झोंपड़ी में रहने न आऊँगा। लेकिन जब तक जीता रहूँगा,अपना घर मुझसे न छोड़ा जाएगा। अपना घर है, नहीं देते। हाँ, जबरदस्ती जो चाहे, ले ले।
इंद्रदत्ता-जबरदस्ती कोई कर रहा है! कानून के अनुसार ही ये मकान खाली कराए जा रहे हैं। सरकार को अधिाकार है कि वह किसी सरकारी काम के लिए जो मकान या जमीन चाहे, ले ले।
सूरदास-होगा कानून, मैं तो एक धारम का कानून जानता हूँ। इस तरह जबरदस्ती करने के लिए जो कानून चाहे, बना लो। यहाँ कोई सरकार का हाथ पकड़नेवाला तो है नहीं। उसके सलाहकार भी तो सेठ-महाजन ही हैं।
इंद्रदत्ता ने राजा साहब के पास जाकर कहा-आप अंधो का मुआमला आज स्थगित कर दें, तो अच्छा हो। गँवार आदमी, बात नहीं समझता,बस अपनी ही गाए जाता है।
राजा ने सूरदास को कुपित नेत्राों से देखकर कहा-गँवार नहीं है, छटा हुआ बदमाश है। हमें और तुम्हें, दोनों ही को कानून पढ़ा सकता है। है भिखारी, मगर टर्रा। मैं इसका झोंपड़ा गिरवाए देता हूँ।
इस वाक्य के अंतिम शब्द सूरदास के कानों में पड़ गए : बोला-झोंपड़ा क्यों गिरवाइएगा? इससे तो यही अच्छा कि मुझे ही गोली मरवा दीजिए।
यह कहकर सूरदास लाठी टेकता हुआ वहाँ से चला गया। राजा साहब को उसकी धाृष्टता पर क्रोधा आ गया। ऐश्वर्य अपने को बड़ी मुश्किल से भूलता है, विशेषत: जब दूसरों के सामने उसका अपमान किया जाए। माहिर अली को बुलाकर कहा-इसकी झोंपड़ी अभी गिरा दो।
दारोगा माहिर अली चले, नि:शस्त्रा पुलिस और सशस्त्रा पुलिस और मजदूरों का एक दल उनके साथ चला, मानो किसी किले पर धाावा करने जा रहे हैं। उनके पीछे-पीछे जनता का एक समूह भी चला। राजा ने इन आदमियों के तेवर देखे, तो होश उड़ गए। उपद्रव की आशंका हुई। झोंपड़े को गिराना इतना सरल न प्रतीत हुआ, जितना उन्होंने समझा था। पछताए कि मैंने व्यर्थ माहिर अली को यह हुक्म दिया। जब मुहल्ला मैदान हो जाता, तो झोंपड़ा आप-ही-आप उजड़ जाता, सूरदास कोई भूत तो है नहीं कि अकेला उसमें पड़ा रहता। मैंने चिंउटी को तलवार से मारने की चेष्टा की! माहिर अली क्रोधाी आदमी है, और इन आदमियों के रुख भी बदले हुए हैं। जनता क्रोधा में अपने को भूल जाती है, मौत पर हँसती है। कहीं माहिर अली उतावली कर बैठा, तो निस्संदेह उपद्रव हो जाएगा। इसका सारा इलजाम मेरे सिर जाएगा। यह अंधाा आप तो डूबा ही हुआ है, मुझे भी डुबाए देता है। बुरी तरह मेरे पीछे पड़ा हुआ है। लेकिन इस समय वह हाकिम की हैसियत में थे। हुक्म को वापस न ले सकते थे। सरकार की आबरू में बट्टा लगने से कहीं ज्यादा भय अपनी आबरू में बट्टा लगने का था। अब यही एक उपाय था कि जनता को झोंपड़े की ओर न जाने दिया जाए। सुपरिंटेंडेंट अभी-अभी मिल से लौटा था, और घोड़े पर सवार सिगार पी रहा था कि राजा साहब ने जाकर उससे कहा-इन आदमियों को रोकना चाहिए।
उसने कहा-जाने दीजिए, कोई हरज नहीं, शिकार होगा।
‘भीषण हत्या होगी।’
‘हम इसके लिए तैयार हैं।’
विनय के चेहरे का रंग उड़ा हुआ था। न आगे जाते बनता था, न पीछे। घोर आत्मवेदना का अनुभव करते हुए बोले-इंद्र, मैं बड़े संकट में हूँ।
इंद्रदत्ता ने कहा-इसमें क्या संदेह है।
जनता को काबू में रखना कठिन है।’
‘आप जाइए, मैं देख लूँगा। आपका यहाँ रहना उचित नहीं।’
‘तुम अकेले हो जाओगे!’
‘कोई चिंता नहीं।’
‘तुम भी मेरे साथ क्यों नहीं चलते? अब हम यहाँ रहकर क्या कर लेंगे, हम अपनेर् कत्ताव्य का पालन कर चुके।’
‘आप जाइए। आपको जो संकट है, वह मुझे नहीं। मुझे अपने किसी आत्मीय के मान-अपमान का कम भय नहीं।’
विनय वहीं अशांत और निश्चल खड़े रहे, या यों कहो कि गड़े रहे, मानो कोई स्त्राी घर से निकाल दी गई हो। इंद्रदत्ता उन्हें वहीं छोड़कर आगे बढ़े, तो जन-समूह उसी गली के मोड़ पर रुका हुआ था, जो सूरदास के झोंपड़े की ओर जाती थी। गली के द्वार पर पाँच सिपाही सँगीनें चढ़ाए खड़े थे। एक कदम आगे बढ़ना संगीन की नोक को छाती पर लेना था। संगीनों की दीवार सामने खड़ी थी।
इंद्रदत्ता ने एक कुएँ की जगत पर खड़े होकर उच्च स्वर से कहा-भाइयो, सोच लो, तुम लोग क्या चाहते हो? क्या इस झोंपड़ी के लिए पुलिस से लड़ोगे? अपना और अपने भाइयों का रक्त बहाओगे? इन दामों यह झोंपड़ी बहुत महँगी है। अगर उसे बचाना चाहते हो, तो इन आदमियों ही से विनय करो, जो इस वक्त वरदी पहने, संगीनें चढ़ाए यमदूत हुए तुम्हारे सामने खड़े हैं। और यद्यपि प्रकट रूप से वे तुम्हारे शत्राु हैं, पर उनमें एक भी ऐसा न होगा, जिसका हृदय तुम्हारे साथ न हो, जो एक असहाय, दुर्बल, अंधो की झोंपड़ी गिराने में अपनी दिलचस्पी समझता हो। इनमें सभी भले आदमी हैं, जिनके बाल-बच्चे हैं, जो थोड़े वेतन पर तुम्हारे जान-माल की रक्षा करने के लिए घर से आए हैं।
एक आदमी-हमारे जान-माल की रक्षा करते हैं, या सरकार के रोब-दाब की?
इंद्रदत्ता-एक ही बात है। तुम्हारे जान-माल की रक्षा के लिए सरकार के रोब-दाब की रक्षा करनी परमावश्यक है। इन्हें जो वेतन मिलता है,वह एक मजूर से भी कम हैण्ण्ण्।
एक प्रश्न-बग्घी-इक्केवालों से पैसे नहीं लेते?
दूसरा प्रश्न-चोरियाँ नहीं कराते? जुआ नहीं खेलाते? घूस नहीं खाते?
इंद्रदत्ता-यह सब इसलिए होता है कि वेतन जितना मिलना चाहिए, उतना नहीं मिलता। ये भी हमारी और तुम्हारी भाँति मनुष्य हैं, इनमें भी दया और विवेक है, ये भी दुर्बलों पर हाथ उठाना नीचता समझते हैं। जो कुछ करते हैं, मजबूर होकर। इन्हीं से कहो, अंधो पर तरस खाएँ,उसकी झोंपड़ी बचाएँ। (सिपाहियों से) क्यों मित्राो, तुमसे इस दया की आशा रखें? इन मनुष्यों पर क्या करोगे?
इंद्रदत्ता ने एक ओर जनता के मन में सिपाहियों के प्रति सहानुभूति उत्पन्न करने की चेष्टा की और दूसरी ओर सिपाहियों की मनोगत दया को जागृत करने की। हवलदार संगीनों के पीछे खड़ा था। बोला-हमारी रोजी बचाकर और जो चाहे कीजिए। इधार से न जाइए।
इंद्रदत्ता-तो रोजी के लिए इतने प्राणियों का सर्वनाश कर दोगे? ये बेचारे भी तो एक दीन की रक्षा करने आए हैं। जो ईश्वर यहाँ तुम्हारा पालन करता है, वह क्या किसी दूसरी जगह तुम्हें भूखों मारेगा? अरे! यह कौन पत्थर फेंकता है? याद रखो, तुम लोग न्याय की रक्षा करने आए हो, बलवा करने नहीं। ऐसे नीच आघातों से अपने को कलंकित न करो। मत हाथ उठाओ, अगर तुम्हारे ऊपर गोलियों की बाढ़ भी चले…।
इंद्रदत्ता को कुछ कहने का अवसर न मिला। सुपरिंटेंडेंट ने गली के मोड़ पर आदमियों का जमाव देखा, तो घोड़ा दौड़ाता उधार चला। इंद्रदत्ता की आवाज कानों में पड़ी, तो डाँटकर बोला-हटा दो इसको। इन सब आदमियों को अभी सामने से हटा दो। तुम सब आदमी अभी हट जाओ,नहीं हम गोली मार देगा।
समूह जौ-भर भी न हटा।
‘अभी हट जाओ, नहीं हम फायर कर देगा।’
कोई आदमी अपनी जगह से न हिला।
सुपरिंटेंडेंट ने तीसरी बार आदमियों को हट जाने की आज्ञा दी।
समूह शांत, गंभीर, स्थिर रहा।
फायर करने की आज्ञा हुई, सिपाहियों ने बंदूकें हाथ में लीं। इतने में राजा साहब बदहवास आकर बोले-थ्वत ळवकष्े ोंम डतण् ठतवूदए ेचंतम उमण् लेकिन हुक्म हो चुका था। बाढ़ चली, बंदूकों के मुँह से धाुँआ निकला, धााँय-धााँय की रोमांचकारी धवनि निकली और कई चक्कर खाकर गिर पड़े। समूह की ओर से पत्थरों की बौछार होने लगी। दो-चार टहनियाँ गिर पड़ी थीं, किंतु वृक्ष अभी तक खड़ा था।
फिर बंदूकें चलने की आज्ञा हुई। राजा साहब ने अबकी बहुत गिड़गिड़ाकर कहा डतण् ठतवूदए जीमेम ेीवजे ंतम चपमतबपदह उल ीमंतज! किंतु आज्ञा मिल चुकी थी, दूसरी बाढ़ चली, फिर कई आदमी गिर पड़े। डालियाँ गिरीं, लेकिन वृक्ष स्थिर खड़ा रहा।
तीसरी बार फायर करने की आज्ञा दी गई। राजा साहब ने सजल नयन होकर व्यथित कंठ से कहा-डतण् ठतवूदए दवू प् ंउ कवदम वित! बाढ़ चली; कई आदमी गिरे और उनके साथ इंद्रदत्ता भी गिरे। गोली वक्ष:स्थल को चीरती हुई पार हो गई थी। वृक्ष का तना गिर गया!
समूह में भगदड़ पड़ गई। लोग गिरते-पड़ते, एक-दूसरे को कुचलते, भाग खड़े हुए। कोई किसी पेड़ की आड़ में छिपा, कोई किसी घर में घुस गया, कोई सड़क के किनारे की खाइयों में जा बैठा; पर अधिाकांश लोग वहाँ से हटकर सड़क पर आ खड़े हुए।
नायकराम ने विनयसिंह से कहा-भैया, क्या खड़े हो, इंद्रदत्ता को गोली लग गई!
विनय अभी तक उदासीन भाव से खड़े थे। यह खबर पाते ही गोली-सी लग गई। बेतहाशा दौड़े और संगीनों के सामने, गली के द्वार पर आकर खड़े हो गए। उन्हें देखते ही भागनेवाले सँभल गए; जो छिपे बैठे थे, निकल पड़े। जब ऐसे-ऐसे लोग मरने को तैयार हैं, जिनके लिए संसार में सुख-ही-सुख है, तो फिर हम किस गिनती में हैं। यह विचार लोगों के मन में उठा। गिरती हुई दीवार फिर खड़ी हो गई। सुपरिंटेंडेंट ने दाँत पीसकर चौथी बार फायर का हुक्म दिया। लेकिन यह क्या? कोई सिपाही बंदूक नहीं चलाता, हवलदार ने बंदूक जमीन पर पटक दी,सिपाहियों ने भी उसके साथ ही अपनी-अपनी बंदूकें रख दीं। हवलदार बोला-हुजूर को अख्तियार है, जो चाहें करें; लेकिन अब हम लोग गोली नहीं चला सकते। हम भी मनुष्य हैं, हत्यारे नहीं।
ब्रॉउन-कोर्टमार्शल होगा।
हवलदार-हो जाए।
ब्रॉउन-नमकहराम लोग।
हवलदार-अपने भाइयों का गला काटने के लिए नहीं, उनकी रक्षा करने के लिए नौकरी की थी।
यह कहकर सब-के-सब पीछे की ओर फिर गए, और सूरदास के झोंपड़े की तरफ चले। उनके साथ ही कई हजार आदमी जय-जयकार करते हुए चले। विनय उनके आगे-आगे थे। राजा साहब और ब्रॉउन, दोनों खोए हुए-से खड़े थे। उनकी ऑंखों के सामने एक ऐसी घटना घटित हो रही थी, जो पुलिस के इतिहास में एक नूतन युग की सूचना दे रही थी, जो परम्परा के विरुध्द, मानव-प्रकृति के विरुध्द, नीति के विरुध्द थी। सरकार के वे पुराने सेवक, जिनमें से कितनों ही ने अपने जीवन का अधिाकांश प्रजा का दमन करने ही में व्यतीत किया था, यों अकड़ते हुए चले जाएँ! अपना सर्वस्व, यहाँ तक कि प्राणों को भी समर्पित करने को तैयार हो जाएँ। राजा साहब अब तक उत्तारदायित्व के भार से काँप रहे थे, अब यह भय हुआ कि कहीं ये लोग मुझ पर टूट न पड़ें। ब्रॉउन तो घोड़े पर सवार आदमियों को हंटर मार-मारकर भगाने की चेष्टा कर रहा था और राजा साहब अपने लिए छिपने की कोई जगह तलाश कर रहे थे, लेकिन किसी ने उनकी तरफ ताका भी नहीं। सब-के-सब विजय-घोष करते हुए, तरल वेग से सूरदास की झोंपड़ी की ओर दौड़े चले जाते थे। वहाँ पहुँचकर देखा, तो झोंपड़े के चारों तरफ सैकड़ों आदमी खड़े थे। माहिर अली अपने आदमियों के साथ नीम के वृक्ष के नीचे खड़े नई सशस्त्रा पुलिस की प्रतीक्षा कर रहे थे, हिम्मत न पड़ती थी कि इस व्यूह को चीरकर झोंपड़े के पास जाएँ। सबके आगे नायकराम कंधो पर लट्ठ रखे खड़े थे। इस व्यूह के मधय में, झोंपड़े के द्वार पर, सूरदास सिर झुकाए बैठा हुआ था, मानो धौर्य, आत्मबल और शांत तेज की सजी मूर्ति हो।
विनय को देखते ही नायकराम आकर बोला-भैया, तुम अब कुछ चिंता मत करो! मैं यहाँ सँभाल लूँगा। इधार महीनों से सूरदास से मेरी अनबन थी, बोल-चाल तक बंद था, पर आज उसका जीवट-जिगर देखकर दंग हो गया। एक अंधो अपाहिज में यह हियाव! हम लोग देखने ही को मिट्टी का यह बोझ लादे हुए हैं।
विनय-इंद्रदत्ता का मरना गजब हो गया।
नायकराम-भैया, दिल न छोटा करो, भगवान् की यही इच्छा होगी।
विनय-कितनी वीर-मृत्यु पाई है!
नायकराम-मैं तो खड़ा देखता ही था, माथे पर सिकन तक नहीं आई।
विनय-मुझे क्या मालूम था कि आज यह नौबत आएगी, नहीं तो पहले खुद जाता। वह अकेले सेवा-दल का काम सँभाल सकते थे, मैं नहीं सँभाल सकता। कितना सहासमुख था, कठिनाइयों को तो धयान में ही न लाते थे, आग में कूदने के लिए तैयार रहते थे। कुशल यही है कि अभी विवाह नहीं हुआ था।
नायकराम-घरवाले कितना जोर देते रहे, पर इन्होंने एक बार नहीं करके फिर हाँ न की।
विनय-एक युवती के प्राण बच गए।
नायकराम-कहाँ की बात भैया, ब्याह हो गया होता, तो वह इस तरह बेधाड़क गोलियों के सामने जाते ही न। बेचारे माता-पिता का क्या हाल होगा!
विनय-रो-रोकर मर जाएँगे और क्या।
नायकराम-इतना अच्छा है कि कई भाई हैं, और घर के पोढ़े हैं।
विनय-देखो, इन सिपाहियों की क्या गति होती है। कल तक फौज़ आ जाएगी। इन गरीबों की भी कुछ फिक्र करनी चाहिए।
नायकराम-क्या फिकिर करोगे भैया? उनका कोर्टमार्शल होगा। भागकर कहाँ जाएँगे?
विनय-यही तो उनसे कहना है कि भागें नहीं, जो कुछ किया है, उसका यश लेने से न डरें। हवलदार को फाँसी हो जाएगी।
यह कहते हुए दोनों आदमी झोंपड़े के पास आए, तो हवलदार बोला-कुँवर साहब, मेरा तो कोर्टमार्शल होगा ही, मेरे बाल-बच्चों की खबर लीजिएगा। यह कहते-कहते वह धााड़ मार-मार रोने लगा।
बहुत-से आदमी जमा हो गए और कहने लगे-कुँवर साहब, चंदा खोल दीजिए। हवलदार! तुम सच्चे सूरमा हो, जो निर्बलों पर हाथ नहीं उठाते।
विनय-हवलदार, हमसे जो कुछ हो सकेगा, वह उठा न रखेंगे। आज तुमने हमारे मुख की लाली रख ली।
हवलदार-कुँवर साहब, मरने-जीने की चिंता नहीं, मरना तो एक दिन होगा ही, अपने भाइयों की सेवा करते हुए मारे जाने से बढ़कर और कौन मौत होगी? धान्य है आपको, जो सुख-विलास त्यागे हुए अभागों की रक्षा कर रहे हैं।
विनय-तुम्हारे साथ के जो आदमी नौकरी चाहें, उन्हें हमारे यहाँ जगह मिल सकती हैं।
हवलदार-देखिए, कौन बचता है और कौन मरता है।
राजा साहब ने अवसर पाया, तो मोटर पर बैठकर हवा हो गए। मि. ब्रॉउन सैनिक सहायता के विषय में जिलाधाीश से परामर्श करने चले गए। माहिर अली और उनके सिपाही वहाँ जमे रहे। ऍंधोरा हो गया था, जनता भी एक-एक करके जाने लगी। सहसा सूरदास आकर बोला-कुँवरजी कहाँ हैं? धार्मावतार, हाथ-भर जमीन के लिए क्यों इतना झंझट करते हो? मेरे कारन आज इतने आदमियों की जान गई। मैं क्या जानता था कि राई का परबत हो जाएगा, नहीं तो अपने हाथों से इस झोंपड़े में आग लगा देता और मुँह में कालिख लगाकर कहीं निकल जाता। मुझे क्या करना था, जहाँ माँगता, वहीं पड़ा रहता। भैया, मुझसे यह नहीं देखा जाता कि मेरी झोंपड़ी के पीछे कितने ही घर उजड़ जाएँ। जब मर जाऊँ, तो जो जी में आए, करना।
विनय-तुम्हारी झोंपड़ी नहीं, यह हमारा जातीय मंदिर है। हम इस पर फावड़े चलते देखकर शांत नहीं बैठे रह सकते।
सूरदास-पहले मेरी देह पर फावड़ा चल चुकेगा, तब घर पर फावड़ा चलेगा।
विनय-और अगर आग लगा दें?
सूरदास-तब तो मेरी चिता बनी-बनाई है। भैया, मैं तुमसे और सब भाइयों से हाथ जोड़कर कहता हूँ कि अगर मेरे कारन किसी माँ की गोद सुनी हुई या मेरी कोई बहन विधावा हुई, तो मैं इस झोंपड़े में आग लगाकर जल मरूँगा।
विनय ने नायकराम से कहा-अब?
नायकराम-बात का धानी है; जो कहेगा, जरूर करेगा।
विनय-तो फिर अभी इसी तरह चलने दो। देखो, उधार से कल क्या गुल खिलता है। उनका इरादा देखकर हम लोग सोचेंगे, हमें क्या करना चाहिए। अब चलो, अपने वीरों की सद्गति करें। ये हमारी कौमी शहीद हैं, इनका जनाजा धाूम से निकलना चाहिए।
नौ बजते-बजते नौ अर्थियाँ निकलीं और तीन जनाजे! आगे-आगे इंद्रदत्ता की अर्थी थी, पीछे-पीछे अन्य वीरों की। जनाजे कबरिस्तान की तरफ गए। अर्थियों के पीछे कोई दस हजार आदमी नंगे पाँव, सिर झुकाए, चले जाते थे। पग-पग पर समूह बढ़ता जाता था। चारों ओर से लोग दौड़े चले आते थे। लेकिन किसी के मुख पर शोक या वेदना का चिद्द न था, न किसी ऑंख में ऑंसू थे; न किसी कंठ सेर् आत्तानाद की धवनि निकलती थी। इसके प्रतिकूल लोगों के हृदय गर्व से फूले हुए थे, ऑंखों में स्वदेशाभिमान का मद भरा हुआ था। यदि इस समय रास्ते में तोपें चढ़ा दी जातीं, तो भी जनता के कदम पीछे न हटते। न कहीं शोक-धवनि थी, न विजयनाद था, अलौकिक नि:स्तब्धाता थी-भावमयी,प्रवाहमयी, उल्लासमयी!
रास्ते में राजा महेंद्रकुमार का भवन मिला। राजा साहब छत पर खड़े यह दृश्य देख रहे थे। द्वार पर सशस्त्रा रक्षकों का एक दल संगीन चढ़ाए खड़ा था। ज्यों ही अर्थियाँ उनके द्वार के सामने से निकलीं, एक रमणी अंदर से निकलकर जन-प्रवाह में मिल गई। यह इंदु थी। उस पर किसी की निगाह न पड़ी। उसके हाथों में गुलाब के फूलों की एक माला थी, जो उसने स्वयं गूँथी थी। वह यह हार लिए हुए आगे बढ़ी और इंद्रदत्ता की अर्थी के पास जाकर अश्रुबिंदुओं के साथ उस पर चढ़ा दिया। विनय ने देख लिया। बोले-इंदु!-इंदु ने उनकी ओर जल-पूरित लोचनों से देखा, और कुछ न बोली, कुछ बोल न सकी।
गंगे! ऐसा प्रभावशाली दृश्य कदाचित् तुम्हारी ऑंखों ने भी न देखा होगा। तुमने बड़े-बड़े वीरों को भस्म का ढेर होते देखा है, जो शेरों का मुँह फेर सकते थे, बड़े-बड़े प्रतापी भूपति तुम्हारी ऑंखों के सामने राख में मिल गए, जिनके सिंहनाद से दिक्पाल थर्राते थे, बड़े-बड़े प्रभुत्वशाली योध्दा यहाँ चिताग्नि में समा गए। कोई यश और कीर्ति का उपासक था, कोई राज्य-विस्तार का, कोई मत्सर-ममत्व का। कितने ज्ञानी,विरागी, योगी, पंडित तुम्हारी ऑंखों के सामने चितारूढ़ हो गए। सच कहना, कभी तुम्हारा हृदय इतना आनंद-पुलकित हुआ था? कभी तुम्हारी तरंगों ने इस भाँति सिर उठाया था? अपने लिए सभी मरते हैं, कोई इह-लोक के लिए, कोई परलोक के लिए। आज तुम्हारी गोद में वे लोग आ रहे हैं, जो निष्काम थे, जिन्होंने पवित्रा-विशुध्द न्याय की रक्षा के लिए अपने को बलिदान कर दिया!
और, ऐसा मंगलमय शोक-समाज भी तुमने कभी देखा, जिसका एक-एक अंग भ्रातृ-प्रेम, स्वजाति-प्रेम और वीर-भक्ति से परिपूर्ण हो?
रात-भर ज्वाला उठती रही, मानो वीरात्माएँ अग्नि-विमान पर बैठी हुई स्वर्ग-लोक को जा रही हैं।
ऊषा-काल की स्वर्णमयी किरणें चिताओं से प्रेमालिंगन करने लगीं। यह सूर्यदेव का आशीर्वाद था।
लौटते समय तक केवल गिने-गिनाए लोग रह गए थे। महिलाएँ वीरगान करती हुई चली आती थीं। रानी जाह्नवी आगे-आगे थीं, सोफी, इंदु और कई अन्य महिलाएँ पीछे। उनकी वीर-रस में डूबी हुई मधाुर संगीत-धवनि प्रभात की आलोक-रश्मियों पर नृत्य कर रही थी, जैसे हृदय की तंत्रियों पर अनुराग नृत्य करता है।
सोफिया के धाार्मिक विचार, उसका आचार-व्यवहार, रहन-सहन, उसकी शिक्षा-दीक्षा, ये सभी बातें ऐसी थीं, जिनसे एक हिंदू महिला को घृणा हो सकती थी। पर इतने दिनों के अनुभव ने रानीजी की सभी शंकाओं का समाधाान कर दिया। सोफिया अभी तक हिंदू धार्म में विधिावत् दीक्षित न हुई थी, पर उसका आचरण पूर्ण रीति से हिंदू धार्म और हिंदू समाज के अनुकूल था। इस विषय में अब जाह्नवी को लेश-मात्रा भी संदेह न था। उन्हें अब अगर संदेह था, तो यह कि दाम्पत्य प्रेम में फँसकर विनय कहीं अपने उद्देश्य को न भूल बैठे। इस आंदोलन में नेतृत्व का भार लेकर विनय ने इस शंका को भी निर्मूल सिध्द कर दिया। रानीजी अब विवाह की तैयारियों में प्रवृत्ता हुईं। कुँवर साहब तो पहले ही से राजी थे, सोफिया की माता की रजामंदी आवश्यक थी। इंदु को कोई आपत्तिा हो ही न सकती थी। अन्य सम्बंधिायों की इच्छा या अनिच्छा की उन्हें कोई चिंता न थी। अतएव रानीजी एक दिन मिस्टर सेवक के मकान पर गईं कि इस सम्बंधा को निश्चित कर लें। मिस्टर सेवक तो प्रसन्न हुए, पर मिसेज़ सेवक का मुँह न सीधाा हुआ। उनकी दृष्टि में एक योरपियन का जितना आदर था, उतना किसी हिंदुस्तानी का न हो सकता था, चाहे वह कितना ही प्रभुताशाली क्यों न हो। वह जानती थीं कि साधाारण-से-साधाारण योरपियन की प्रतिष्ठा यहाँ के बड़े-से-बड़े राजा से अधिाक है। प्रभु सेवक ने योरप की राह ली, अब घर पर पत्रा तक न लिखते थे। सोफिया ने इधार यह रास्ता पकड़ा। जीवन की सारी अभिलाषाओं पर ओस पड़ गई। जाह्नवी के आग्रह पर क्रुध्द होकर बोलीं-खुशी सोफिया की चाहिए; जब वह खुश है, तो मैं अनुमति दूँ, या न दूँ, एक ही बात है! माता हूँ, संतान के प्रति मुँह से जब निकलेगी, शुभेच्छा ही निकलेगी, उसकी अनिष्ट-कामना नहीं कर सकती; लेकिन क्षमा कीजिएगा, मैं विवाह-संस्कार में सम्मिलित न हो सकूँगी। मैं अपने ऊपर बड़ा जब्र कर रही हूँ कि सोफिया को शाप नहीं देती, नहीं तो ऐसी कुलकलंकिनी लड़की का तो मर जाना ही अच्छा है, जो अपने धार्म से विमुख हो जाए।
रानीजी को और कुछ कहने का साहस न हुआ। घर आकर उन्होंने एक विद्वान् पंडित बुलाकर सोफिया के धार्म और विवाह-संस्कार का मुहूर्त निश्चित कर डाला।
रानी जाह्नवी तो इन संस्कारों को धाूमधााम से करने की तैयारियाँ कर रही थीं, उधार पाँड़ेपुर का आंदोलन दिन-दिन भीषण होता था। मुआवजे के रुपये तो अब किसी के बाकी न थे, यद्यपि अभी तक मंजूरी न आई थी, और राजा महेंद्रकुमार को अपने पास से सभी असामियों को रुपये देने पड़े थे, पर इन खाली मकानों को गिराने के लिए मजदूर न मिलते थे। दुगनी-तिगुनी मजदूरी देने पर भी कोई मजदूर काम करने न आता था। अधिाकारियों ने जिले के अन्य भागों से मजदूर बुलाए, पर जब वे आए और यहाँ की स्थिति देखी, तो रातों-रात भाग खड़े हुए। तब अधिाकारियों ने सरकारी वर्कंदाजों और तहसील के चपरासियों को बड़े-बड़े प्रलोभन देकर काम करने के लिए तैयार किया, पर जब उनके सामने सैकड़ों युवक, जिनमें कितने ही ऊँचे कुलों के थे, हाथ बाँधाकर खड़े हो गए और विनय की कि भाइयो, ईश्वर के लिए फावड़े न चलाओ, और अगर चलाना ही चाहते हो, तो पहले हमारी गरदन पर चलाओ, तो उन सबों की कायापलट हो गई। दूसरे दिन से वे लोग फिर काम पर न आए। विनय और उनके सहकारी सेवक आजकल इस सत्याग्रह को अग्रसर करने में व्यस्त रहते थे।
सूरदास सबेरे से संधया तक झोंपड़े के द्वार पर मूर्तिवत् बैठा रहता। हवलदार और उसके सिपाहियों पर अदालत में अभियोग चल रहा था। घटनास्थल की रक्षा के लिए दूसरे जिले से सशस्त्रा पुलिस बुलाई गई थी। वे सिपाही संगीनें चढ़ाए चौबीसों घंटे झोंपड़ी के सामनेवाले मैदान में टहलते रहते थे। शहर के हजार-दो-हजार आदमी आठों पहर मौजूद रहते। एक जाता, तो दूसरा आता। आने-जानेवालों का ताँता दिनभर न टूटता था। सेवक-दल भी नायकराम के खाली बरामदे में आसन जमाए रहता था कि न जाने कब क्या उपद्रव हो जाए। राजा महेंद्रकुमार और सुपरिंटेंडेंट पुलिस दिन में दो-दो बार अवश्य जाते थे, किंतु किसी कारण झोंपड़ा गिराने का हुक्म न देते थे। जनता की ओर से उपद्रव का इतना भय न था, जितना पुलिस की अवाज्ञा का। हवलदार के व्यवहार से समस्त अधिाकारियों के दिल में हौल समा गया था। प्रांतीय सरकार को यहाँ की स्थिति की प्रतिदिन सूचना दी जाती थी। सरकार ने भी आश्वासन दिया था कि शीघ्र ही गोरखों का एक रेजिमेंट भेजने का प्रबंधा किया जाएगा। अधिाकारियों की आशा अब गोरखों ही पर अवलम्बित थी, जिनकी राजभक्ति पर उन्हें पूरा विश्वास था। विनय प्राय: दिन-भर यहीं रहा करते थे। उनके और राजा साहब के बीच में अब नंगी तलवार का बीच था। वह विनय को देखते, तो घृणा से मुँह फेर लेते। उनकी दृष्टि में विनय सूत्राधाार था, सूरदास केवल कठपुतली।
रानी जाह्नवी ज्यों-ज्यों विवाह की तैयारियाँ करती थीं और संस्कारों की तिथि समीप आती जाती थी, सोफिया का हृदय एक अज्ञात भय,एक अव्यक्त शंका, एक अनिष्ट चिंता से आच्छन्न होता जाता था। भय यह था कि कदाचित् विवाह के पश्चात् हमारा दाम्पत्य जीवन सुखमय न हो, हम दोनों को एक दूसरे के चरित्रा-दोष ज्ञात हों, और हमारा जीवन दु:खमय हो जाए। विनय की दृष्टि में सोफी निर्विकार, निर्दोष, दिव्य,सर्वगुण-सम्पन्ना देवी थी। सोफी को विनय पर इतना विश्वास न था। उसके तात्तिवक विवेचन ने उसे मानव-चरित्रा की विषमताओं से अवगत कर दिया था। उसने बड़े-बड़े महात्माओं, ऋषियों, मुनियों, विद्वानों, योगियों और ज्ञानियों को, जो अपनी घोर तपस्याओं से वासनाओं का दमन कर चुके थे, संसार के चिकने, पर काई से ढँके हुए तल पर फिसलते देखा था। वह जानती थी कि यद्यपि संयमशील पुरुष बड़ी मुश्किल से फिसलते हैं, मगर जब एक बार फिसल गए, तो किसी तरह नहीं सँभल सकते, उनकी क्ुं+ठित वासनाएँ, उनकी पिंजर-बध्द इच्छाएँ, उनकी संयत प्रवृत्तिायाँ बड़े प्रबल वेग से प्रतिकूल दिशा की ओर चलती हैं। भूमि पर चलनेवाला मनुष्य गिरकर फिर उठ सकता है, लेकिन आकाश में भ्रमण करनेवाला मनुष्य गिरे, तो उसे कौन रोकेगा, उसके लिए कोई आशा नहीं, कोई उपाय नहीं। सोफिया को भय होता था कि कहीं मुझे भी यही अप्रिय अनुभव न हो, कहीं वही स्थिति मेरे गले में न पड़ जाए। सम्भव है, मुझमें कोई ऐसा दोष निकल आए, जो मुझे विनय की दृष्टि में गिरा दे, वह मेरा अनादर करने लगें। यह शंका सबसे प्रबल, सबसे निराशामय थी। आह! तब मेरी क्या दशा होगी! संसार में ऐसे कितने दम्पत्तिा हैं कि अगर उन्हें दूसरी बार चुनाव का अधिाकार मिल जाए, तो अपने पहले चुनाव पर संतुष्ट रहें?
सोफी निरंतर इन्हीं आशंकाओं में डूबी रहती थी। विनय बार-बार उसके पास आते, उससे बातें करना चाहते, पाँड़ेपुर की स्थिति के विषय में उससे सलाह लेना चाहते, पर उसकी उदासीनता देखकर उन्हें कुछ कहने की इच्छा न होती।
चिंता रोग का मूल है। सोफी इतनी चिंताग्रस्त रहती कि दिन-दिन-भर कमरे से न निकलती, भोजन भी बहुत सूक्ष्म करती, कभी-कभी निराहार ही रह जाती। हृदय में एक दीपक-सा जलता रहता था, पर किससे अपने मन की कहे? विनय से इस विषय में एक शब्द भी न कह सकती थी। जानती थी कि इसका परिणाम भयंकर होगा। नैराश्य की दशा में विनय न जाने क्या कर बैठें। अंत को उसकी कोमल प्रकृति इस मर्मदाह को सहन न कर सकी। पहले सिर में दर्द रहने लगा, धाीरे-धाीरे ज्वर का प्रकोप हो गया।
लेकिन रोग-शय्या पर गिरते ही सोफी को विनय से एक क्षण अलग रहना भी दुस्सह प्रतीत होने लगा। निर्बल मनुष्य को अपनी लकड़ी से भी अगाधा प्रेम हो जाता है। रुग्णावस्था में हमारा मन स्नेहापेक्षी हो जाता है। सोफिया, जो कई दिन पहले कमरे में विनय के आते ही बिल-सा खोजने लगती थी कि कहीं यह प्रेमालाप न करने लगें, उनके तृषित नेत्राों से, उनकी मधाुर मुस्कान से, उनके मृदु हास्य से थर-थर काँपती रहती थी, जैसे कोई रोगी उत्ताम पदार्थों को सामने देखकर डरता हो कि मैं कुपथ्य न कर बैठूँ, अब द्वार की ओर अनिमेष नेत्राों से विनय की बाट जोहा करती थी। वह चाहती कि यह अब कहीं न जाएँ, मेरे पास ही बैठे रहें। विनय भी बहुधाा उसके पास ही रहते। पाँड़ेपुर का भार अपने सहकारियों पर छोड़कर सोफिया की सेवा-शुश्रूषा में तत्पर हो गए। उनके बैठने से सोफी का चित्ता बहुत शांत हो जाता था। वह अपने दुर्बल हाथों को विनय की जाँघ पर रख देती और बालोचित आकांक्षा से उनके मुख की ओर ताकती। विनय को कहीं जाते देखती, तो व्यग्र हो जाती और आग्रहपूर्ण नेत्राों से बैठने की याचना करती।
रानी जाह्नवी के व्यवहार में भी अब एक विशेष अंतर दिखाई देता था। स्पष्ट तो न कह सकतीं, पर संकेतों से विनय को पाँड़ेपुर के सत्याग्रह में सम्मिलित होने से रोकती थीं। इंद्रदत्ता की हत्या ने उन्हें बहुत सशंक कर दिया था। उन्हें भय था कि उस हत्याकांड का अंतिम दृश्य उससे कहीं भयंकर होगा। और, सबसे बड़ी बात तो यह थी कि विवाह का निश्चय होते ही विनय का सदुत्साह भी क्षीण होने लगा था। सोफिया के पास बैठकर उससे सांत्वनाप्रद बातें करना और उसकी अनुरागपूर्ण बातें सुनना उन्हें अब बहुत अच्छा लगता था। सोफिया की गुप्त याचना ने प्रेमोद्गार को और भी प्रबल कर दिया। हम पहले मनुष्य हों, पीछे देशसेवक। देशानुराग के लिए हम अपने मानवीय भावों की अवहेलना नहीं कर सकते। यह अस्वाभाविक है। निज पुत्रा की मृत्यु का शोक जाति पर पड़नेवाली विपत्तिा से कहीं अधिाक होता है। निज शोक मर्मांतक होता है, जाति शोक निराशाजनक; निज शोक पर हम रोते हैं, जाति शोक पर चिंतित हो जाते हैं।
एक दिन प्रात:काल विनय डॉक्टर के यहाँ से दवा लेकर लौटे थे (सद्वैद्यों के होते हुए भी उनका विश्वास पाश्चात्य चिकित्सा ही पर अधिाक था) कि कुँवर साहब ने उन्हें बुला भेजा। विनय इधार महीनों से उनसे मिलने न गए थे। परस्पर मनोमालिन्य-सा हो गया था। विनय ने सोफी को दवा पिलाई और तब कुँवर साहब से मिलने गए। वह अपने कमरे में टहल रहे थे, इन्हें देखकर बोले-तुम तो अब कभी आते ही नहीं?
विनय ने उदासीन भाव से कहा-अवकाश नहीं मिलता। आपने कभी याद भी तो नहीं किया। मेरे आने से कदाचित् आपका समय नष्ट होता है।
कुँवर साहब ने इस व्यंग की परवा न करके कहा-आज मुझे तुमसे एक महान् संकट में राय लेनी है, सावधाान होकर बैठ जाओ, इतनी जल्दी छुट्टी न होगी।
विनय-फरमाइए, मैं सुन रहा हूँ।
कुँवर साहब ने घोर असमंजस के भाव से कहा-गवर्नमेंट का आदेश है कि तुम्हारा नाम रियासत से…
यह कहते-कहते कुँवर साहब रो पड़े। जरा देर में करुणा का उद्वेग कम हुआ, बोले-मेरी तुमसे विनीत याचना है कि तुम स्पष्ट रूप से अपने को सेवक-दल से पृथक कर लो और समाचार-पत्राों में इसी आशय की एक विज्ञप्ति प्रकाशित कर दो। तुमसे यह याचना करते हुए मुझे कितनी लज्जा और कितना दु:ख हो रहा है, इसका अनुमान तुम्हारे सिवा और कोई नहीं कर सकता, पर परिस्थिति ने मुझे विवश कर दिया है। मैं तुमसे यह कदापि नहीं कहता कि किसी की खुशामद करो, किसी के सामने सिर झुकाओ; नहीं, मुझे स्वयं इससे घृणा थी और है। किंतु अपनी भू-सम्पत्तिा की रक्षा के लिए मेरे अनुरोधा को स्वीकार करो। मैंने समझा था, रियासत को सरकार के हाथ में दे देना काफी होगा। किंतु अधिाकारी लोग इसे काफी नहीं समझते। ऐसी दशा में मेरे लिए दो ही उपाय है-या तो तुम स्वयं इन आंदोलनों से पृथक् हो जाओ, या कम-से-कम उनमें प्रमुख भाग न लो, या मैं एक प्रतिज्ञा-पत्रा द्वारा तुम्हें रियासत से वंचित कर दूँ। भावी संतान के लिए इस सम्पत्तिा का सुरक्षित रहना परमावश्यक है तुम्हारे लिए पहला उपाय जितना कठिन है, उतना ही कठिन मेरे लिए दूसरा उपाय है तुम इस विषय में क्या निश्चय करते हो?
विनय ने गर्वान्वित भाव से कहा-मैं सम्पत्तिा को अपने पाँव की बेड़ी नहीं बनाना चाहता। अगर सम्पत्तिा हमारी है तो उसके लिए किसी शर्त की जरूरत नहीं; अगर दूसरे की है, और आपका अधिाकार उसकी कृपा के अधाीन है, तो मैं उसे सम्पत्तिा नहीं समझता। सच्ची प्रतिष्ठा और सम्मान के लिए सम्पत्तिा की जरूरत न हीं, उसके लिए त्याग और सेवा काफी है।
भरतसिंह-बेटा, मैं इस समय तुम्हारे सामने सम्पत्तिा की विवेचना नहीं कर रहा हूँ, उसे केवल क्रियात्मक दृष्टि से देखना चाहता हूँ। मैं इसे स्वीकार करता हूँ कि किसी अंश में सम्पत्तिा हमारी वास्तविक स्वाधाीनता में बाधाक होती है, किंतु इसका उज्ज्वल पक्ष भी तो है-जीविका की चिंताओं से निवृत्तिा और आदर तथा सम्मान का वह स्थान, जिस पर पहुँचने के लिए असाधाारण त्याग और सेवा की जरूरत होती है,मगर जो यहाँ बिना किसी परिश्रम से आप-ही-आप मिल जाता है। मैं तुमसे केवल इतना चाहता हूँ कि तुम इस संस्था से प्रत्यक्ष रूप से कोई सम्बंधा न रखो, यों अप्रत्यक्ष रूप से उसकी जितनी सहायता करना चाहो, कर सकते हो। बस, अपने को कानून के पंजे से बचाए रहो।
विनय-अर्थात् कोई समाचार-पत्रा भी पढ़ूँ, तो छिपकर, किवाड़ बंद करके कि किसी को कानों-कान खबर न हो। जिस काम के लिए परदे की जरूरत है, चाहे उसका उद्देश्य कितना ही पवित्रा क्यों न हो, वह अपमानजनक है। अधिाक स्पष्ट शब्दों में मैं उसे चोरी कहने में भी कोई आपत्तिा नहीं देखता। यह संशय और शंका से पूर्ण जीवन मनुष्य के सर्वोत्कृष्ट गुणों का -ास कर देता है। मैं वचन और कर्म में इतनी स्वाधाीनता अनिवार्य समझता हूँ, जो हमारे आत्मसम्मान की रक्षा करे। इस विषय में मैं अपने विचार इससे स्पष्ट शब्दों में नहीं व्यक्त कर सकता।
कुँवर साहब ने विनय को जलपूर्ण नेत्राों से देखा। उनमें कितनी उद्विग्नता भरी हुई थी! तब बोले-मेरी खातिर से इतना मान जाओ।
विनय-आपके चरणों पर अपने को न्योछावर कर सकता हूँ, पर अपनी आत्मा की स्वाधाीनता की हत्या नहीं कर सकता।
विनय यह कहकर जाना ही चाहते थे कि कुँवर साहब ने पूछा तुम्हारे पास रुपये तो बिल्कुल न होंगे?
विनय-मुझे रुपये की फिक्र नहीं।
कुँवर-मेरी खातिर से-यह लेते जाओ।
उन्होंने नोटों का एक पुलिंदा विनय की तरफ बढ़ा दिया। विनय इनकार न कर सके। कुँवर साहब पर उन्हें दया आ रही थी। जब वह नोट लेकर कमरे से चले गए, तो कुँवर साहब क्षोभ और निराशा से व्यथित होकर कुर्सी पर गिर पड़े। संसार उनकी दृष्टि में ऍंधोरा हो गया।
विनय के आत्मसम्मान ने उन्हें रियासत का त्याग करने पर उद्यत तो कर दिया पर उनके सम्मुख अब एक नई समस्या उपस्थित हो गई। वह जीविका की चिंता थी। संस्था के विषय में तो विशेष चिंता न थी, उसका भार देश पर था, और किसी जातीय कार्य के लिए भिक्षा माँगना लज्जा की बात नहीं। उन्हें इसका विश्वास हो गया था कि प्रयत्न किया जाए, तो इस काम के लिए स्थायी कोष जमा किया जा सकता,किंतु जीविका के लिए क्या हो? कठिनाई यह थी कि जीविका उनके लिए केवल दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति न थी, कुल-परम्परा की रक्षा भी उसमें शामिल थी। अब तक इस प्रश्न की गुरुता का उन्होंने अनुमान न किया था। मन में किसी इच्छा के उत्पन्न होने की देर रहती थी और वह पूरी हो जाती थी। अब जो ऑंखों के सामने यह प्रश्न अपना विशद रूप धाारण करके आया, तो वह घबरा उठे। सम्भव था कि अब भी कुछ काल तक माता-पिता का वात्सल्य उन्हें इस चिंता से मुक्त रखता, किंतु इस क्षणिक आधाार पर जीवन-भवन का निर्माण तो नहीं किया जा सकता। फिर उनका आत्मगौरव यह कब स्वीकार कर सकता था कि अपनी सिध्दांत-प्रियता और आदर्श-भक्ति का प्रायश्चित्ता माता-पिता से कराएँ? कुछ नहीं, यह निर्लज्जता है, निरी कायरता! मुझे कोई अधिाकार नहीं कि अपने जीवन का भार माता-पिता पर रखूँ। उन्होंने इस मुलाकात की चर्चा माता से भी न की, मन-ही-मन डूबने-उतराने लगे। और, फिर अब अपनी ही चिंता न थी, सोफिया भी उनके जीवन का अंश बन चुकी थी। इसलिए यह चिंता और भी दाहक थी। माना कि सोफी मेरे साथ जीवन की बड़ी-से-बड़ी कठिनाई सहन कर लेगी, लेकिन क्या यह उचित है कि उसे प्रेम का यह कठोर दंड दिया जाए? उसके प्रेम को इतनी कठिन परीक्षा में डाला जाए? वह दिन-भर इन्हीं में मग्न रहे। यह विषय उन्हें असाधय-सा प्रतीत होता था। उनकी शिक्षा जीविका के प्रश्न पर लेशमात्रा भी धयान न दिया गया था। अभी थोड़े ही दिन पहले उनके लिए इस प्रश्न का अस्तित्व ही न था। वह स्वयं कठिनाइयों के अभ्यस्त थे। विचार किया था कि जीवन-पर्यंत सेवा-व्रत का पालन करूँगा। किंतु सोफिया के कारण उनके सोचे हुए जीवन-क्रम में कायापलट हो गई थी। जिन वस्तुओं का पहले उनकी दृष्टि में कोई मूल्य न था, वे अब परमावश्यक जान पड़ती थीं। प्रेम को विलास-कल्पना ही से विशेष रुचि होती है वह दु:ख और दरिद्रता के स्वप्न नहीं देखता। विनय सोफिया को एक रानी की भाँति रखना चाहते थे, उसे जीवन की उन समस्त सुख-सामग्रियों से परिपूरित कर देना चाहते थे, जो विलास ने आविष्कृत की हैं; पर परिस्थितियाँ ऐसा रूप धाारण करती थीं, जिनसे वे उच्चाकांक्षाएँ मटियामेट हुई जाती थीं। चारों ओर विपत्तिा और दरिद्रता का ही कंटकमय विस्तार दिखाई पड़ रहा था। इस मानसिक उद्वेग की दशा में वह कभी सोफी के पास आते, कभी अपने कमरे में जाते, कुछ गुमसुम, उदास, मलिनमुख, निष्प्रभ, उत्साहहीन, मानो कोई बड़ी मंजिल मारकर लौटे हों। पाँड़ेपुर से बड़ी भयप्रद सूचनाएँ आ रही थीं, आज कमिश्नर आ गया, आज गोरखों का रेजिमेंट आ पहुँचा, आज गोरखों ने मकानों को गिराना शुरू किया, और लोगों के रोकने पर उन्हें पीटा, आज पुलिस ने सेवकों को गिरफ्तार करना शुरू किया, दस सेवक पकड़ लिए गए, आज बीस पकड़े गए, आज हुक्म दिया गया है कि सड़क से सूरदास की झोंपड़ी तक काँटेदार तार लगा दिया जाए, कोई वहाँ जा ही नहीं सकता। विनय ये खबरें सुनते थे और किसी पंखहीन पक्षी की भाँति एक बार तड़पकर रह जाते थे।
इस भाँति एक सप्ताह बीत गया और सोफी का स्वास्थ्य सुधारने लगा। उसके पैरों में इतनी शक्ति आ गई कि पाँव-पाँव बगीचे में टहलने चली जाती, भोजन में रुचि हो गई, मुखमंडल पर आरोग्य की कांति झलकने लगी। विनय की भक्तिपूर्ण सेवा ने उस पर सम्पूर्ण विजय प्राप्त कर ली थी। वे शंकाएँ, जो उसके मन में पहले उठती रहती थीं, शांत हो गई थीं। प्रेम के बंधान को सेवा ने और भी सुदृढ़ कर दिया था। इस कृतज्ञता को वह शब्दों से नहीं, आत्मसमर्पण से प्रकट करना चाहती थी। विनयसिंह को दु:खी देखकर कहती, तुम मेरे लिए इतने चिंतित क्यों होते हो? मैं तुम्हारे ऐश्वर्य और सम्पत्तिा की भूखी नहीं हूँ, जो मुझे तुम्हारी सेवा करने का अवसर न देगी, जो तुम्हें भावहीन बना देगी। इससे मुझे तुम्हारा गरीब रहना ज्यादा पसंद है। ज्यों-ज्यों उसकी तबीयत सँभलने लगी, उसे यह ख्याल आने लगा कि कहीं लोग मुझे बदनाम न करते हों कि इसी कारण विनय पाँड़ेपुर नहीं जाते, इस संग्राम में वह भाग नहीं लेते, जो उनकार् कत्ताव्य है, आग लगाकर दूर खड़े तमाशा देख रहे हैं। लेकिन यह ख्याल आने पर भी उसकी इच्छा न होती थी कि विनय वहाँ जाएँ।
एक दिन इंदु उसे देखने आई। बहुत खिन्न और विरक्त हो रही थी। उसे अब अपने पति से इतनी अश्रध्दा हो गई थी कि इधार हफ्तों से उसने उनसे बात तक न की थी, यहाँ तक कि अब वह खुले-खुले उनकी निंदा करने से भी न हिचकती थी। वह भी उससे न बोलते थे। बातों-बातों में विनय से बोली-उन्हें तो हाकिमों की खुशामद ने चौपट किया, पिताजी को सम्पत्तिा-प्रेम ने चौपट किया, क्या तुम्हें भी मोह चौपट कर देगा? क्यों सोफी, तुम इन्हें एक क्षण के लिए भी कैद से मुक्त नहीं करतीं? अगर अभी से इनका यह हाल है, तो विवाह हो जाने पर क्या होगा! तब तो यह कदाचित् दीन-दुनिया कहीं के भी न होंगे; भौंरे की भाँति तुम्हारा प्रेम-रस-पान करने में उन्मत्ता रहेंगे।
सोफिया बड़ी लज्जित हुई, कुछ जवाब न दे सकी। उसकी यह शंका सत्य निकली कि विनय की उदासीनता का कारण मैं ही समझी जा रही हूँ।
लेकिन कहीं ऐसा तो नहीं है कि विनय अपनी सम्पत्तिा की रक्षा के विचार से मेरी बीमारी का बहाना लेकर इस संग्राम से पृथक् रहना चाहते हों? यह कुत्सित् भाव बलात् उसके मन में उत्पन्न हुआ। वह इसे हृदय से निकाल देना चाहती थी, जैसे हम किसी घृणित वस्तु की ओर से मुँह फेर लेते हैं। लेकिन इस आक्षेप को अपने सिर से दूर करना आवश्यक था। झेंपते हुए बोली-मैंने तो कभी मना नहीं किया।
इंदु-मना करने के कई ढंग हैं।
सोफिया-अच्छा, तो मैं आपके सामने कह रही हूँ कि मुझे इनके वहाँ जाने में कोई आपत्तिा नहीं है, बल्कि इसे मैं अपने और इनके दोनों ही के लिए गौरव की बात समझती हूँ। अब मैं ईश्वर की दया और इनकी कृपा से अच्छी हो गई हूँ, और इन्हें विश्वास दिलाती हूँ कि इनके जाने से मुझे कोई कष्ट न होगा। मैं स्वयं दो-चार दिन में जाऊँगी।
इंदु ने विनय की ओर सहास नेत्राों से देखकर कहा-लो, अब तो तुम्हें कोई बाधाा नहीं रही? तुम्हारे वहाँ रहने से सब काम सुचारु रूप से होगा, और सम्भव है कि शीघ्र ही अधिाकारियों को समझौता कर लेना पड़े। मैं नहीं चाहती कि उसका श्रेय किसी दूसरे आदमी के हाथ लगे।
लेकिन जब इस अंकुश का भी विनय पर कोई असर न हुआ, तो सोफिया को विश्वास हो गया कि इस उदासीनता का कारण सम्पत्तिा-लालसा चाहे हो, लेकिन प्रेम नहीं है। जब इन्हें मालूम है कि इनके पृथक् रहने से मेरी निंदा हो रही है, तो जानबूझकर क्यों मेरा उपहास करा रहे हैं? यह तो ऊँघते को ठेलने का बहाना हो गया। रोने को थे ही, ऑंखों में किरकिरी पड़ गई। मैं उनके पैर थोड़े ही पकड़े हुए हूँ। वह तो अब पाँड़ेपुर का नाम तक नहीं लेते, मानो वहाँ कुछ हो ही नहीं रहा है। उसने स्पष्ट नहीं लेकिन सांकेतिक रीति से विनय को वहाँ जाने की प्रेरणा भी की, लेकिन वह फिर टाल गए। वास्तव में बात यह थी कि इतने दिनों तक उदासीन रहने के पश्चात् विनय अब वहाँ जाते हुए झेंपते थे, डरते थे कि कहीं मुझ पर लोग तालियाँ न बजाएँ कि डर के मारे छिपे बैठे रहे। उन्हें अब स्वयं पश्चात्तााप होता था कि मैं क्यों इतने दिनों तक मुँह छिपाए रहा, क्यों अपनी व्यक्तिगत चिंताओं को अपनेर् कत्ताव्य-मार्ग का काँटा बनने दिया? सोफी की अनुमति लेकर मैं जा सकता था, वह कभी मुझे मना न करती। सोफी में एक बड़ा ऐब यह है कि मैं उसके हित के लिए भी जो काम करता हूँ, उसे भी वह निर्दय आलोचक की दृष्टि से ही देखती है। खुद चाहे प्रेम के वशर् कत्ताव्य की तृण-बराबर भी परवाह न करे, पर मैं आदर्श से जौ-भर नहीं टल सकता। अब उन्हें ज्ञात हुआ कि यह मेरी दुर्बलता, मेरी भीरुता और मेरी अकर्मण्यता थी जिसने सोफिया की बीमारी को मेरे मुँह छिपाने का बहाना बना दिया, वरना मेरा स्थान तो सिपाहियों की प्रथम श्रेणी में था। वह चाहते थे कि कोई ऐसी बात पैदा हो जाए कि मैं इस झेंप को मिटा सकूँ-इस कालिख को धाो सकूँ। कहीं दूसरे प्रांत से किसी भीषण दुर्घटना का समाचार आ जाए, और वहाँ अपनी लाज रखूँ। सोफिया को अब उनका आठों पहर अपने समीप रहना अच्छा न लगता। हम बीमारी में जिस लकड़ी के सहारे डोलते हैं, नीरोग हो जाने पर उसे छूते तक नहीं! माँ भी तो चाहती है कि बच्चा कुछ देर जाकर खेल आए। सोफी का हृदय अब भी विनय को ऑंखों से परे न जाने देना चाहता था, उन्हें देखते ही उसका चेहरा फूल के समान खिल उठता था, नेत्राों में प्रेम-मद छा जाता था, पर विवेक-बुध्दि उसे तुरंत अपनेर् कत्ताव्य की याद दिला देती थी। वह सोचती थी कि जब विनय मेरे पास आएँ तो मैं निष्ठुर बन जाऊँ, बोलूँ ही नहीं, आप चले जाएँगे; लेकिन यह उसकी पवित्रा कामना थी। वह इतनी निर्दय, इतनी स्नेह-शून्य न हो सकती थी। भय होता था, कहीं बुरा न मान जाएँ। कहीं यह न समझने लगें कि इसका चित्ता चंचल है, यह स्वार्थपरायण है, बीमारी में तो स्नेह की मूर्ति बनी हुई थी, अब मुझसे बोलते भी जबान दुखती है। सोफी! तेरा मन प्रेम में बसा हुआ है, बुध्दि यश और कीर्ति में। और इन दोनों में निरंतर संघर्ष हो रहा है।
संग्राम को छिड़े हुए दो महीने हो गए। समस्या प्रतिदिन भीषण होती जाती थी, स्वयंसेवकों की पकड़-धाकड़ से संतुष्ट न होकर गोरखों ने अब उन्हें शारीरिक कष्ट देना शुरू कर दिया था, अपमान भी करते थे और अपने अमानुषिक कृत्यों से उनको भयभीत कर देना चाहते थे। पर अंधो पर बंदूक चलाने या झोंपड़े में आग लगाने की हिम्मत न पड़ती थी। क्रांति का भय न था, विद्रोह का भय न था, भीषण-से-भीषण विद्रोह भी उनको आशंकित न कर सकता था, भय था हत्याकांड का, न जाने कितने गरीब मर जाएँ, न जाने कितना हाहाकार मच जाए! पाषाण हृदय भी एक बार रक्तप्रवाह से काँप उठता है।
सारे नगर में, गली-गली में घर-घर यही चर्चा होती रहती थी। सह-ों नगरवासी रोज वहाँ पहुँच जाते थे, केवल तमाशा देखने नहीं,बल्कि एक बार उस पर्ण-कुटी और उसके चक्षुहीन निवासी का दर्शन करने के लिए और अवसर पड़ने पर अपने से जो कुछ हो सके, कर दिखाने के लिए। सेवकों की गिरफ्तारी से उनकी उत्सुकता और भी बढ़ गई थी। आत्मसमर्पण की हवा-सी चल पड़ी थी।
तीसरा पहर था। एक आदमी डौंड़ी पीटता हुआ निकला। विनय ने नौकर को भेजा कि क्या बात है। उसने लौटकर कहा, सरकार का हुक्म हुआ कि आज से शहर का कोई आदमी पाँड़ेपुर न जाए, सरकार उसकी प्राण-रक्षा की जिम्मेदार न होगी।
विनय ने सचिंत भाव से कहा-आज कोई नया आघात होनेवाला है।
सोफिया-मालूम तो ऐसा ही होता है।
विनय-शायद सरकार ने इस संग्राम का अंत करने का निश्चय कर लिया है।
सोफिया-ऐसा ही जान पड़ता है।
विनय-भीषण रक्त-पात होगा!
सोफिया-अवश्य होगा।
सहसा एक वालंटियर ने आकर विनय को नमस्कार किया और बोला-आज तो उधार का रास्ता बंद कर दिया गया है। मि. क्लार्क राजपूताना से जिलाधाीश की जगह आ गए हैं। मि. सेनापति मुअत्ताल कर दिए गए हैं।
विनय-अच्छा! मि. क्लार्क आ गए! कब आए?
सेवक-आज ही चार्ज लिया है। सुना जाता है, उन्हें सरकार ने इसी कार्य के लिए विशेष रीति से यहाँ नियुक्त किया है।
विनय-तुम्हारे कितने आदमी वहाँ होंगे?
सेवक-कोई पचास होंगे।
विनय कुछ सोचने लगे। सेवक ने कई मिनट बाद पूछा-आप कोई विशेष आज्ञा देना चाहते हैं?
विनय ने जमीन की तरफ ताकते हुए कहा-बरबस आग में मत कूदना; और यथा-साधय जनता को उस सड़क पर जाने से रोकना।
सेवक-आप भी आएँगे?
विनय ने कुछ खिन्न होकर कहा-देखा जाएगा।
सेवक के चले जाने के पश्चात् विनय कुछ देर तक शोक-मग्न रहे। समस्या थी, जाऊँ या न जाऊँ? दोनों पक्षों में तर्क-वितर्क होने लगा-मैं जाकर क्या कर लूँगा? अधिाकारियों की जो इच्छा होगी, वह तो अवश्य ही करेंगे। अब समझौते की कोई आशा नहीं। लेकिन यह कितना अपमानजनक है कि न गर के लोग तो वहाँ जाने के लिए उत्सुक हों, और मैं, जिसने यह संग्राम छेड़ा, मुँह छिपाकर बैठा रहूँ। इस अवसर पर मेरा तटस्थ रहना मुझे जीवन-पर्यंत के लिए कलंकित कर देगा, मेरी दशा महेंद्रकुमार से भी गई-बीती हो जाएगी। लोग समझेंगे, कायर है। एक प्रकार से मेरे सार्वजनिक जीवन का अंत हो जाएगा।
लेकिन बहुत सम्भव है, आज भी गोलियाँ चलें। अवश्य चलेंगी। कौन कह सकता है, क्या होगा? सोफिया किसकी होकर रहेगी? आह! मैंने व्यर्थ जनता में यह भाव जगाया। अंधो का झोंपड़ा गिर गया होता और सारी कथा समाप्त हो जाती। मैंने ही सत्याग्रह का झंडा खड़ा किया,नाग को जगाया, सिंह के मुँह में उँगली डाली।
उन्होंने अपने मन का तिरस्कार करते हुए सोचा-आज मैं इतना कायर क्योें हो गया हूँ? क्या मैं मौत से डरता हूँ? मौत से क्या डर?मरना तो एक दिन है ही। क्या मेरे मरने से देश सूना हो जाएगा? क्या मैं ही कर्णधाार हूँ? क्या कोई दूसरी वीर-प्रसू माता देश में है ही नहीं?
सोफिया कुछ देर तक टकटकी लगाए उनके मुँह की ओर ताकती रही। अकस्मात् वह उठ खड़ी हुई और बोली-मैं वहाँ जाती हूँ।
विनय ने भयातुर होकर कहा-आज वहाँ जाना दुस्साहस है। सुना नहीं, सारे नाके बंद कर दिए गए हैं?
सोफिया-स्त्रिायों को कोई न रोकेगा।
विनय ने सोफिया का हाथ पकड़ लिया और अत्यंत प्रेम-विनीत भाव से कहा-प्रिये, मेरा कहना मानो, आज मत जाओ। अच्छे रंग नहीं हैं। कोई अनिष्ट होने वाला है।
सोफिया-इसीलिए तो मैं जाना चाहती हूँ। औरों के लिए भय बाधाक न हो, तो मेरे लिए भी क्यों हो?
विनय-क्लार्क का आना बुरा हुआ।
सोफिया-इसीलिए मैं और जाना चाहती हूँ। मुझे विश्वास है कि मेरे सामने वह कोई पैशाचिक आचरण न कर सकेगा। इतनी सज्जनता अभी उसमें है।
यह कहकर सोफिया अपने कमरे में गई और अपना पुराना पिस्तौल सलूके की जेब में रखा। गाड़ी तैयार करने को पहले ही कह दिया था। वह बाहर निकली, तो गाड़ी तैयार खड़ी थी। जाकर विनयसिंह के कमरे में झाँका, वह वहाँ न थे। तब वह द्वार पर कुछ देर तक खड़ी रही, एक अज्ञात शंका ने, किसी अमंगल के पूर्वाभास ने उसके हृदय को आंदोलित कर दिया। वह अपने कमरे में लौट जाना चाहती थी कि कुँवर साहब आते हुए दिखाई दिए। सोफी डरी कि यह कुछ पूछ न बैठें, तुरंत गाड़ी में आ बैठी और कोचवान को तेज चलने का हुक्म दिया। लेकिन जब गाड़ी कुछ दूर निकल गई, तो वह सोचने लगी कि विनय कहाँ चले गए? कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि वह मुझे जाने पर तत्पर देखकर मुझसे पहले ही चल दिए हों? उसे मनस्ताप होने लगा कि मैं नाहक यहाँ आने को तैयार हुई। विनय की आने की इच्छा न थी! वह मेरे ही आग्रह से आए हैं। ईश्वर! तुम उनकी रक्षा करना। क्लार्क उनसे जला हुआ है ही, कहीं उपद्रव न हो जाए? मैंने विनय को अकर्मण्य समझा। मेरी कितनी धाृष्टता है! यह दूसरा अवसर है कि मैंने उन पर मिथ्या दोषारोपण किया। मैं शायद अब तक उन्हें नहीं समझी। वह वीर आत्मा हैं। यह मेरी क्षुद्रता है कि उनके विषय में अकसर मुझे भ्रम हो जाता है। अगर मैं उनके मार्ग का कंटक न बनी होती, तो उनका जीवन कितना निष्कलंक,कितना उज्ज्वल होता? मैं ही उनकी दुर्बलता हूँ, मैं ही उनको कलंक लगाने वाली हूँ! ईश्वर करे, वह इधार न आए हों। उनका न आना ही अच्छा। यह कैसे मालूम हो कि यहाँ आए या नहीं! चलकर देख लूँ।
उधार विनयसिंह दफ्तर में जाकर सेवक-संस्था के आय-व्यय का हिसाब लिख रहे थे। उनका चित्ता बहुत उदास था। मुख पर नैराश्य छाया हुआ था। रह-रहकर अपने चारों ओर वेदनातुर दृष्टि से देखते और फिर हिसाब लिखने लगते थे। न जाने वहाँ से लौटकर आना हो या न हो,इसलिए हिसाब-किताब ठीक कर देना आवश्यक समझते थे। हिसाब पूरा करके उन्होंने प्रार्थना के भाव से ऊपर की ओर देखा; फिर बाहर निकले, बाइसिकल उठाई और तेजी से चले, इतने सतृष्ण नेत्राों से पीछे फिरकर भवन, उद्यान और विशाल वृक्षों को देखते जाते थे, मानो उन्हें फिर न देखेंगे, मानो यह उसका अंतिम दर्शन है। कुछ दूर आकर उन्होंने देखा, सोफिया चली जा रही है। अगर वह उससे मिल जाते,कदाचित् सोफिया भी उनके साथ लौट पड़ती; पर उन्हें तो यह धुन सवार थी कि सोफ़िया के पहले वहाँ जा पहुँचूँ। मोड़ आते ही उन्होंने अपनी पैरगाड़ी को फेर दिया और दूसरा रास्ता पकड़ा। फल यह हुआ कि जब वह संग्राम-स्थल में पहुँचे, तो सोफिया अभी तक न आई थी। विनय ने देखा, गिरे हुए मकानों की जगह सैकड़ों छोलदारियाँ खड़ी हैं और उनके चारों ओर गोरखे खड़े चक्कर लगा रहे हैं। किसी की गति नहीं है कि अंदर प्रवेश कर सके। हजारों आदमी आस-पास खड़े हैं, मानो किसी विशाल अभिनय को देखने के लिए दर्शकगण वृत्तााकार खड़े हों। मधय में सूरदास का झोंपड़ा रंगमंच के समान स्थिर था। सूरदास झोंपड़े के सामने लाठी लिए खड़ा था, मानो सूत्राधाार नाटक का आरम्भ करने को खड़ा है। सब-के-सब सामने का दृश्य देखने में इतने तन्मय हो रहे थे कि विनय की ओर किसी का धयान आकृष्ट नहीं हुआ। सेवक-दल के युवक झोंपड़े के सामने रातों-रात ही पहुँच गए थे। विनय ने निश्चय किया कि मैं भी वहीं जाकर खड़ा हो जाऊँ।
एकाएक किसी ने पीछे से उनका हाथ पकड़कर खींचा। उन्होंने चौंककर देखा, तो सोफिया थी। उसके चेहरे का रंग उड़ा हुआ था। घबराई हुई आवाज से बोली-तुम क्यों आए?
विनय-तुम्हें अकेले क्योंकर छोड़ देता?
सोफिया-मुझे बड़ा भय लग रहा है। ये तोपें लगा दी गई हैं!
विनय ने तोपें न देखी थीं। वास्तव में तीन तोपें झोंपड़े की ओर मुँह किए हुए खड़ी थीं, मानो रंगभूमि में दैत्यों ने प्रवेश किया हो।
विनय-शायद आज इस सत्याग्रह का अंत कर देने का निश्चय हुआ है।
सोफिया-मैं यहाँ नाहक आई। मुझे घर पहुँचा दो।
आज सोफिया को पहली बार प्रेम के दुर्बल पक्ष का अनुभव हुआ। विनय की रक्षा की चिंता में वह कभी इतनी भय-विकल न हुई थी। जानती थी कि विनय कार् कत्ताव्य, उनका गौरव, उनका श्रेय यहीं रहने में है। लेकिन यह जानते हुए भी उन्हें यहाँ से हटा ले जाना चाहती थी। अपने विषय में कोई चिंता न थी। अपने को वह बिलकुल भूल गई थी।
विनय-हाँ, तुम्हारा यहाँ रहना जोखिम की बात है। मैंने पहले ही मना किया था, तुमने न माना।
सोफिया विनय का हाथ पकड़कर गाड़ी पर बैठा देना चाहती थी कि सहसा इंदुरानी की मोटर आ गई। मोटर से उतरकर वह सोफिया के पास आई, बोली-क्यों सोफी, जाती हो क्या?
सोफिया ने बात बनाकर कहा-नहीं, जाती नहीं हूँ, जरा पीछे हट जाना चाहती हूँ।
सोफिया को इंदु का आना कभी इतना नागवार नहीं मालूम हुआ था। विनय को भी बुरा मालूम हुआ। बोले-तुम क्यों आईं?
इंदु-इसलिए कि तुम्हारे भाई साहब ने आज पत्रा द्वारा मुझे मना कर दिया था।
विनय-आज की स्थिति बहुत नाजुक है। हम लोगों के धौर्य और साहस की आज कठिनतम परीक्षा होगी।
इंदु-तुम्हारे भाई साहब ने तो उस पत्रा में यही बात लिखी थी।
विनय-क्लार्क को देखो, कितनी निर्दयता से लोगों को हंटर मार रहा है। किंतु कोई हटने का नाम भी नहीं लेता। जनता का संयम और धौर्य अब अंतिम बिंदु तक पहुँच गया है। कोई नहीं कह सकता कि कब क्या हो जाए।
साधाारण जनता इतनी स्थिर चित्ता और दृढ़ व्रत हो सकती है, इसका आज विनय को अनुभव हुआ। प्रत्येक व्यक्ति प्राण हथेली पर लिए हुए मालूम होता था। इतने में नायकराम किसी ओर से आ गए और विनय को देखकर विस्मय से पूछा-आज तुम इधार कैसे भूल पड़े भैया?
इस प्रश्न में कितना व्यंग्य, कितना तिरस्कार, कितना उपहास था! विनय ऐंठकर रह गए। बात टालकर बोले-क्लार्क बड़ा निर्दयी है!
नायकराम ने ऍंगोछा उठाकर अपनी पीठ विनय को दिखाई। गर्दन से कमर तक एक नीली, रक्तमय रेखा खिंची हुई थी, मानो किसी नोकदार कील से खुरच लिया गया हो। विनय ने पूछा-यह घाव कैसे लगा?
नायकराम-अभी यह हंटर खाए चला आता हूँ। आज जीता बचा, तो समझूँगा। क्रोधा तो ऐसा आया कि टाँग पकड़कर नीचे घसीट लूँ,लेकिन डरा कि कहीं गोली न चल जाए, तो नाहक सब आदमी भुन जाएँ। तुमने तो इधार आना ही छोड़ दिया। औरत का माया-जाल बड़ा कठिन है!
सोफिया ने इस कथन का अंतिम वाक्य सुन लिया। बोली-ईश्वर को धान्यवाद दो कि तुम इस जाल में नहीं फँसे।
सोफिया की चुटकी ने नायकराम को गुदगुदा दिया। सारा क्रोधा शांत हो गया। बोले-भैया, मिस साहब को जवाब दो। मुझे मालूम तो है,लेकिन कहते नहीं बनता। हाँ, कैसे?
विनय-क्यों, तुम्हीं ने तो निश्चय किया था कि अब स्त्रिायों के नगीच न जाऊँगा, ये बड़ी बेवफा होती हैं। उसी दिन की बात है, जब मैं सोफी की लताड़ सुनकर उदयपुर जा रहा था।
नायकराम-(लज्जित होकर) वाह भैया, तुमने तो मेरे ही सिर झोंक दिया!
विनय-और क्या कहूँ! सच कहने में संकोच? खुश हों, तो मुसीबत; नाराज हों, तो मुसीबत।
नायकराम-बस भैया, मेरे मन की बात कही। ठीक यही बात है। हर तरह मरदों ही पर मार। राजी हों, तो मुसीबत; नाराज हों, तो उससे भी बड़ी मुसीबत!
सोफिया-जब औरतें इतनी विपत्तिा हैं, तो पुरुष क्यों उसे अपने सिर मढ़ते हैं? जिसे देखो, वही उसके पीछे दौड़ता है! क्या दुनिया के सभी पुरुष मूर्ख हैं, किसी को बुध्दि नहीं छू गई?
नायकराम-भैया, मिस साहब ने मेरे सामने पत्थर लुढ़का दिया। बात तो सच्ची है कि जब औरत इतनी बड़ी बिपत है, तो लोग क्यों उसके पीछे हैरान रहते हैं? एक की दुर्दशा देखकर दूसरा क्यों नहीं सीखता? बोलो भैया, है कुछ जवाब?
विनय-जवाब क्यों नहीं है, एक तो तुम्हीं ने मेरी दुर्दशा से सीख लिया। तुम्हारी भाँति और भी कितने ही पड़े होंगे।
नायकराम-(हँसकर) भैया, तुमने फिर मेरे ही सिर डाल दिया। यह तो कुछ ठीक जवाब न बन पड़ा।
विनय-ठीक वही है, जो तुमने आते-ही-आते कहा था कि औरत का माया-जाल बड़ा कठिन है।
मनुष्य स्वभावत: विनोदशील है। ऐसी विडम्बना में भी उसे हँसी सूझती है, फाँसी पर चढ़नेवाले मनुष्य भी हँसते देखे गए हैं। यहाँ ये ही बातें हो रही थीं कि मि. क्लार्क घोड़ा उछालते, आदमियों को हटाते, कुचलते आ पहुँचे! सोफी पर निगाह पड़ी। तीर-सा लगा। टोपी उठाकर बोले-यह वही नाटक है, या कोई दूसरा शुरू कर दिया?
नश्तर से भी तीव्र, पत्थर से भी कठोर, निर्दय वाक्य था। मि. क्लार्क ने अपने मनोगत नैराश्य, दु:ख, अविश्वास और क्रोधा को इन चार शब्दों में कूट-कूटकर भर दिया था।
सोफी ने तत्क्षण उत्तार दिया-नहीं, बिलकुल नया। तब जो मित्रा थे, वे ही अब शत्राु हैं।
क्लार्क व्यंग्य समझकर तिलमिला उठे। बोले-यह तुम्हारा अन्याय है। मैं अपनी नीति से जौ-भर भी नहीं हटा।
सोफी-किसी को एक बार शरण देना और दूसरी बार उसी पर तलवार उठाना, क्या एक ही बात है? जिस अंधो के लिए कल तुमने यहाँ के रईसों का विरोधा किया था, बदनाम हुए थे, दंड भोगा था, उसी अंधो की गरदन पर तलवार चलाने के लिए आज राजपूताने से दौड़ आए हो। क्या दोनों एक ही बात हैं?
क्लार्क-हाँ मिस सेवक, दोनों एक ही बात हैं। हम यहाँ शासन करने के लिए आते हैं, अपने मनोभावों और व्यक्तिगत विचारों का पालन करने के लिए नहीं। जहाज से उतरते ही हम अपने व्यक्तित्व को मिटा देते हैं। हमारा न्याय, हमारी सहृदयता, हमारी सदिच्छा, सबका एक ही अभीष्ट है। हमारा प्रथम और अंतिम उद्देश्य शासन करना है।
मि. क्लार्क का लक्ष्य सोफी की ओर इतना नहीं, जितना विनय की ओर था। वह विनय को अलक्षित रूप से धामका रहे थे। खुले हुए शब्दों में उनका आशय यही था कि हम किसी के मित्रा नहीं हैं, हम यहाँ राज्य करने आए हैं, और जो हमारे कार्य में बाधाक होगा, उसे हम उखाड़ फेंकेंगे।
सोफी ने कहा-अन्यायपूर्ण शासन, शासन नहीं युध्द है।
क्लार्क-तुमने फावड़े को फावड़ा कह दिया। हममें इतनी सज्जनता है। अच्छा, मैं तुमसे फिर मिलूँगा।
यह कहकर उन्होंने घोड़े को एड़ लगाई। सोफिया ने उच्च स्वर में कहा-नहीं, कदापि न आना; मैं तुमसे नहीं मिलना चाहती।
आकाश मेघ-मंडित हो रहा था। संधया से पहले संधया हो गई थी। मि. क्लार्क अभी गए ही थे कि मि. जॉन सेवक की मोटर आ पहुँची। वह ज्यों ही मोटर से उतरे कि सैकड़ों आदमी उनकी तरफ लपके। जनता शासकों से दबती है, उनकी शक्ति का ज्ञान उन पर अंकुश जमाता रहता है। जहाँ उस शक्ति का भय नहीं होता, वहीं वह आपे से बाहर हो जाती है। मि. सेवक शासकों के कृपापात्रा होने पर भी शासक नहीं थे। जान लेकर गोरखों की कैम्प की तरफ भागे, सिर पर पाँव रखकर दौड़े; लेकिन ठोकर खाई, गिर पड़े। मि. क्लार्क ने घोड़े पर से उन्हें दौड़ते देखा था। उन्हें गिरते देखा, तो समझे, जनता ने उन पर आघात कर दिया। तुरंत गोरखों का एक दल उनकी रक्षा के निमित्ता भेजा। जनता ने भी उग्र रूप धाारण किया-चूहे बिल्ली से लड़ने के लिए तैयार हुए। सूरदास अभी तक चुपचाप खड़ा था। यह हलचल सुनी, तो भयभीत होकर भैरों से बोला, जो एक क्षण के लिए उसे न छोड़ता था-भैया, तुम मुझे जरा अपने कंधो पर बैठा लो, एक बार और लोगों को समझा देखूँ। क्यों लोग यहाँ से हट नहीं जाते? सैकड़ों बार कह चुका, कोई सुनता ही नहीं। कहीं गोली चल गई, तो आज उस दिन से भी अधिाक खून-खच्चर हो जाएगा।
भैरों ने सूरदास को कंधो पर बैठा लिया। इस जन-समूह में उसका सिर बालिश्तभर ऊँचा हो गया। लोग इधार-उधार से उसकी बातें सुनने दौड़े। वीर-पूजा जनता का स्वाभाविक गुण है। ऐसा ज्ञात होता था कि कोई चक्षुहीन यूनानी देवता अपने उपासकों के बीच खड़ा है।
सूरदास ने अपनी तेजहीन ऑंखों से जन-समूह को देखकर कहा-भाइयो, आप लोग अपने-अपने घर जाएँ। आपसे हाथ जोड़कर कहता हूँ,घर चले जाएँ। यहाँ जमा होकर हाकिमों को चिढ़ाने से क्या फायदा? मेरी मौत आवेगी, तो आप लोग खड़े रहेंगे, और मैं मर जाऊँगा। मौत न आवेगी, तो मैं तोपों के मुँह से बचकर निकल आऊँगा। आप लोग वास्तव में मेरी सहायता करने नहीं आए, मुझसे दुसमनी करने आए हैं। हाकिमों के मन में, फौज के मन में, पुलिस के मन में जो दया और धारम का खयाल आता, उसे आप लोगों ने जमा होकर क्रोधा बना दिया है। मैं हाकिमों को दिखा देता कि एक अंधाा आदमी एक फौज को कैसे पीछे हटा देता है, तोप का मुँह कैसे बंद कर देता है, तलवार की धाार कैसे मोड़ देता है! मैं धारम के बल से लड़ना चाहता था…।
इसके आगे वह और कुछ न कह सका। मि. क्लार्क ने उसे खड़े होकर कुछ बोलते सुना, तो समझे, अंधाा जनता में उपद्रव मचाने के लिए प्रेरित कर रहा है। उनकी धाारणा थी कि जब तक यह आत्मा जीवित रहेगी, अंगों की गति बंद न होगी। इसलिए आत्मा ही का नाश कर देना आवश्यक है। उद्गम को बंद कर दो, जल-प्रवाह बंद हो जाएगा। वह इसी ताक में लगे हुए थे कि इस विचार को कैसे कार्य-रूप में परिणत करें; किंतु सूरदास के चारों तरफ नित्य आदमियों का जमघट रहता था, क्लार्क को इच्छित अवसर न मिलता था। अब जो उसके सिर को ऊपर उठा देखा, तो उन्हें वह अवसर मिल गया-वह स्वर्णावसर था, जिसके प्राप्त होने पर ही इस संग्राम का अंत हो सकता था। इसके पश्चात् जो कुछ होगा, उसे वह जानते थे। जनता उत्तोजित होकर पत्थरों की वर्षा करेगी, घरों में आग लगाएगी, सरकारी दफ्तरों को लूटेगी। इन उपद्रवों को शांत करने के लिए उनके पास पर्याप्त शक्ति थी। मूल मंत्रा अंधो को समरस्थल से हटा देना था-यही जीवन का केंद्र है, यही गति-संचालक सूत्रा है। उन्होंने जेब से पिस्तौल निकाली और सूरदास पर चला दिया। निशाना अचूक पड़ा। बाण ने लक्ष्य को बेधा दिया। गोली सूरदास के कंधो में लगी, सिर लटक गया, रक्त-प्रवाह होने लगा। भैरों उसे सँभाल न सका, वह भूमि पर गिर पड़ा। आत्मबल पशुबल का प्रतिकार न कर सका।
सोफिया ने मि. क्लार्क को जेब से पिस्तौल निकालते और सूरदास को लक्ष्य करते देखा था। उसको जमीन पर गिरते देखकर समझी,घातक ने अपना अभीष्ट पूरा कर लिया। फिटन पर खड़ी थी, नीचे कूद पड़ी और हत्याक्षेत्रा की ओर चली, जैसे कोई माता अपने बालक को किसी आनेवाली गाड़ी की झपेट में देखकर दौड़े। विनय उसके पीछे-पीछे उसे रोकने के लिए दौड़े, वह कहते जाते थे-सोफी! ईश्वर के लिए वहाँ न जाओ, मुझ पर इतनी दया करो। देखो, गोरखे बंदूकें सँभाल रहे हैं। हाय! तुम नहीं मानतीं। यह कहकर उन्होंने सोफी का हाथ पकड़ लिया और अपनी ओर खींचा। लेकिन सोफी ने एक झटका देकर अपना हाथ छुड़ा लिया और फिर दौड़ी। उसे इस समय कुछ न सूझता था; न गोलियों का भय था, न संगीनों का। लोग उसे दौड़ते देखकर आप-ही-आप रास्ते से हटते जाते थे। गोरखों की दीवार सामने खड़ी थी, पर सोफी को देखकर वे भी हट गए। मि. क्लार्क ने पहले ही कड़ी ताकीद कर दी थी कि कोई सैनिक रमणियों से छेड़छाड़ न करे। विनय इस दीवार को न चीर सके। तरल वस्तु छिद्र के रास्ते निकल गई ठोस वस्तु न निकल सकी।
सोफी ने जाकर देखा तो सूरदास के कंधो से रक्त प्रवाहित हो रहा था, अंग शिथिल पड़ गए थे, मुख विवर्ण हो रहा था, पर ऑंखें खुली हुई थीं और उनमें से पूर्ण शांति, संतोष और धौर्य की ज्योति निकल रही थी; क्षमा थी, क्रोधा या भय का नाम न था। सोफी ने तुरंत रूमाल निकालकर रक्त-प्रवाह को बंद किया और कम्पित स्वर में बोलीं-इन्हें अस्पताल भेजना चाहिए। अभी प्राण है; सम्भव है, बच जाएँ। भैरों ने उसे गोद में उठा लिया। सोफिया उसे अपनी गाड़ी तक लाई, उस पर सूरदास को लिटा दिया, आप गाड़ी पर बैठ गई और कोचवान को शफाखाने चलने का हुक्म दिया।
जनता नैराश्य और क्रोधा से उन्मत्ता हो गई। हम भी यहीं मर मिटेंगे। किसी को इतना होश न रहा कि यों मर मिटने से अपने सिवा किसी दूसरे की क्या हानि होगी। बालक मचलता है, तो जानता है कि माता मेरी रक्षा करेगी। यहाँ कौन माता थी, जो इन मचलनेवालों की रक्षा करती! लेकिन क्रोधा में विचार-पट बंद हो जाता है। जनसमुदाय का वह अपार सागर उमड़ता हुआ गोरखों की ओर चला। सेवक-दल के युवक घबराए हुए इधार-उधार दौड़ते फिरते थे; लेकिन उनके समझाने का किसी पर असर न होता था। लोग दौड़-दौड़कर ईंट और कंकड़-पत्थर जमा कर रहे थे। ख्रडहरों में मलबे की क्या कमी! देखते-देखते जगह-जगह पत्थरों के ढेर लग गए।
विनय ने देखा, अब अनर्थ हुआ चाहता है। आन-की-आन में सैकड़ों जानों पर बन आएगी, तुरंत एक गिरी हुई दीवार पर चढ़कर बोले-मित्राो, यह क्रोधा का अवसर नहीं है, प्रतिकार का अवसर नहीं है, सत्य की विजय पर आनंद और उत्सव मनाने का अवसर है।
एक आदमी बोला-अरे! यह तो कुँवर विनयसिंह हैं।
दूसरा-वास्तव में आनंद मनाने का अवसर है; उत्सव मनाइए, विवाह मुबारक!
तीसरा-जब मैदान साफ हो गया, तो आप मुरदों की लाश पर ऑंसू बहाने के लिए पधाारे हैं। जाइए, शयनागार में रंग उड़ाइए। यह कष्ट क्यों उठाते हैं?
विनय-हाँ, यह उत्सव मनाने का अवसर है कि अब भी हमारी पतित, दलित, पीड़ित जाति में इतना विलक्षण आत्मबल है कि एक निस्सहाय, अपंग नेत्राहीन भिखारी शक्ति-संपन्न अधिाकारियों का इतनी वीरता से सामना कर सकता है।
एक आदमी ने व्यंग्य-भाव से कहा-एक बेकस अंधाा जो कुछ कर सकता है, वह राजे-राईस नहीं कर सकते।
दूसरा-राजभवन में जाकर शयन कीजिए। देर हो रही है। हम अभागों को मरने दीजिए।
तीसरा-सरकार से कितना पुरस्कार मिलनेवाला है।
चौथा-आप ही ने तो राजपूताने में दरबार का पक्ष लेकर प्रजा को आग में झोंक दिया था!
विनय-भाइयो, मेरी निंदा का समय फिर मिल जाएगा। यद्यपि मैं कुछ विशेष कारणों से इधर आपका साथ न दे सका, लेकिन ईश्वर जानता है, मेरी सहानुभूति आप ही के साथ थी। मैं एक क्षण के लिए आपकी तरफ से गाफिल न था!
एक आदमी-यारो, यहाँ खड़े क्या बकवास कर रहे हो? कुछ दम हो तो चलो, कट मरें।
दूसरा-यह व्याख्यान झाड़ने का अवसर नहीं है। आज हमें यह दिखाना है कि हम न्याय के लिए कितनी वीरता से प्राण दे सकते हैं।
तीसरा-चलकर गोरखों के सामने खड़े हो जाओ। कोई कदम पीछे न हटाके, वहीं अपनी लाशों का ढेर लगा दो। बाल-बच्चों को ईश्वर पर छोड़ो।
चौथा-यह तो नहीं होता कि आगे बढ़कर ललकारें कि कायरों का रक्त भी खौलने लगे। हमें समझाने चले हैं, मानो हम देखते नहीं कि सामने फौज बंदूकें भरे खड़ी है और एक बाढ़ में कत्लेआम कर देगी।
पाँचवाँ-भाई, हम गरीबों की जान सस्ती होती है। रईसजादे होते तो हम भी दूर-दूर से खड़े तमाशा देखते।
छठा-इससे कहो, जाकर चुल्लू-भर पानी में डूब मरे। हमें इसके उपदेशों की जरूरत नहीं। उँगली में लहू लगाकर शहीद बनने चले हैं!
ये अपमानजनक, व्यंग्यपूर्ण, कटु वाक्य विनय के उर-स्थल में बाण के सदृश चुभ गए-हा हतभाग्य! मेरे जीवन-पर्यंत के सेवानुराग,त्याग, संयम का यही फल है! अपना सर्वस्व देशसेवा की वेदी पर आहुति देकर रोटियों को मोहताज होने का यही पुरस्कार है! क्या रियासत का यही पुरस्कार है! क्या रियासत का कलंक मेरे माथे से कभी न मिटेगा? वह भूल गए-मैं यहाँ जनता की रक्षा करने आया हूँ, गोरखे सामने हैं। मैं यहाँ से हटा, और एक क्षण में पैशाचिक नर-हत्या होने लगेगी। मेरा मुख्यर् कत्ताव्य अंत समय तक इन्हें रोकते रहना है। कोई मुजाएका नहीं, अगर इन्होंने ताने दिए, अपमान किया, कलंक लगाया; दुर्वचन कहे। मैं अपराधाी हूँ, अगर नहीं हूँ, तो भी मुझे धौर्य से काम लेना चाहिए। ये सभी बातें वे भूल गए। नीति-चतुर प्राणी अवसर के अनुकूल काम करता है। जहाँ दबना चाहिए, वहाँ दब जाता है; जहाँ गरम होना चाहिए, वहाँ गरम होता है। उसे मानापमान का हर्ष या दु:ख नहीं होता। उसकी दृष्टि निरंतर अपने लक्ष्य पर रहती है। वह अविरल गति से, अदम्य उत्साह से उसी ओर बढ़ता है; किंतु सरल, लज्जाशील, निष्कपट आत्माएँ मेघों के समान होती हैं, जो अनुकूल वायु पाकर पृथ्वी को तृप्त कर देते हैं और प्रतिकूल वायु के वेग से छिन्न-भिन्न हो जाते हैं। नीतिज्ञ के लिए अपना लक्ष्य ही सब कुछ है, आत्मा का उसके सामने कुछ मूल्य नहीं। गौरव-सम्पन्न प्राणियों के लिए अपना चरित्रा-बल ही सर्वप्रधाान है। वे अपने चरित्रा पर किए गए आघातों को सह नहीं सकते। वे अपनी निर्दोषिता सिध्द करने को अपने लक्ष्य की प्राप्ति से कहीं अधिाक महत्तवपूर्ण समझते हैं। विनय की सौम्य आकृति तेजस्वी हो गई, लोचन लाल हो गए। वह उन्मत्ताों की भाँति जनता का रास्ता रोककर खड़े हो गए और बोले-क्या आप देखना चाहते हैं कि रईसों के बेटे क्योंकर प्राण देते हैं? देखिए।
यह कहकर उन्होंने जेब से भरी हुई पिस्तौल निकाल ली, छाती में उसकी नली लगाई और जब तक लोग दौड़े, भूमि पर गिर पड़े। लाश तड़पने लगी। हृदय की संचित अभिलाषाएँ रक्त की धाार बनकर निकल गईं। उसी समय जल-वृष्टि होने लगी। मानो स्वर्गवासिनी आत्माएँ पुष्पवर्षा कर रही हों।
जीवन-सूत्रा कितना कोमल है! वह क्या पुष्प से कोमल नहीं, जो वायु के झोंके सहता है और मुरझाता नहीं? क्या वह लताओं से कोमल नहीं, जो कठोर वृक्षों के झोंके सहती और लिपटी रहती हैं? वह क्या पानी के बबूलों से कोमल नहीं, जो जल की तरंगों पर तैरते हैं, और टूटते नहीं? संसार में और कौन-सी वस्तु इतनी कोमल, इतनी अस्थिर, इतनी सारहीन है, जिससे एक व्यंग्य, एक कठोर शब्द, एक अन्योक्ति भी दारुण, असह्य, घातक है! और, इस भित्तिा पर कितने विशाल, कितने भव्य, कितने बृहदाकार भवनों का निर्माण किया जाता है!
जनता स्तम्भित हो गई, जैसे ऑंखों में ऍंधोरा छा जाए! उसका क्रोधाावेश करुणा के रूप में बदल गया। चारों तरफ से दौड़-दौड़कर लोग आने लगे, विनय के दर्शनों से अपने नेत्राों को पवित्रा करने के लिए, उनकी लाश पर चार बूँद ऑंसू बहाने के लिए। जो द्रोही था, स्वार्थी था, काम-लिप्सा रखनेवाला था, वह एक क्षण में देव-तुल्य, त्याग-मूर्ति, देश का प्यारा, जनता की ऑंखों का तारा बना हुआ था। जो लोग गोरखों के समीप पहुँच गए थे, वे भी लौट आए। हजारों शोक-विह्नल नेत्राों से अश्रु-वृष्टि हो रही थी, जो मेघ की बूँदों से मिलकर पृथ्वी को तृप्त करती थीं। प्रत्येक हृदय शोक से विदीर्ण हो रहा था, प्रत्येक हृदय अपना तिरस्कार कर रहा था, पश्चात्तााप कर रहा था-आह, यह हमारे ही व्यंग्य-बाणों का, हमारे ही तीव्र वाक्य-शरों का पाप-कृत्य है। हमीं इसके घातक हैं, हमारे ही सिर यह हत्या है! हाय! कितनी वीर आत्मा,कितना धौर्यशील, कितना गम्भीर, कितना उन्नत-हृदय, कितना लज्जाशील, कितना आत्माभिमानी, दीनों का कितना सच्चा सेवक और न्याय का कितना सच्चा उपासक था, जिसने इतनी बड़ी रियासत को तृणवत् समझा और हम पामरों ने उसकी हत्या कर डाली; उसे न पहचाना!
एक ने रोकर कहा-खुदा करे, मेरी जबान जल जाए। मैंने ही शादी पर मुबारकबादी का ताना मारा था।
दूसरा बोला-दोस्तो, इस लाश पर फिदा हो जाओ, इस पर निसार हो जाओ, इसके कदमों पर गिरकर मर जाओ।
यह कहकर उसने कमर से तलवार निकाली, गरदन पर चलाई और वहीं तड़पने लगा।
तीसरा सिर पीटता हुआ बोला-कितना तेजस्वी मुख-मंडल है! हा, मैं क्या जानता था कि मेरे व्यंग्य वज्र बन जाएँगे!
चौथा-हमारे हृदयों पर यह घाव सदैव हरा रहेगा, हम इस देवमूर्ति को कभी विस्मृत न कर सकेंगे। कितनी शूरता से प्राण त्याग दिए, जैसे कोई एक पैसा निकालकर किसी भिक्षुक के सामने फेंक दे। राजपुत्राों में ये ही गुण होते हैं। वे अगर जीना जानते हैं, तो मरना भी जानते हैं। रईस की यही पहचान है कि बात पर मर मिटे।
ऍंधोरा छाया था। पानी मूसलाधाार बरस रहा था। कभी जरा देर के लिए बूँदें हलकी पड़ जातीं, फिर जोरों से गिरने लगतीं, जैसे कोई रोने वाला थककर जरा दम ले ले और फिर रोने लगे। पृथ्वी ने पानी में मुँह छिपा लिया था, माता मुँह पर अंचल डाले रो रही थी। रह-रहकर टूटी हुई दीवारों के गिरने का धामाका होता था, जैसे कोई धाम-धाम छाती पीट रहा हो। क्षण-क्षण बिजली कौंधाती थी, मानो आकाश के जीव चीत्कार कर रहे हों! दम-के-दम में चारों तरफ शोक-समाचार फैल गया। इंदु मि. जॉन सेवक के साथ थी। यह खबर पाते ही मर्ूच्छित होकर गिर पड़ी।
विनय के शव पर एक चादर तान दी गई थी। दीपकों के प्रकाश में उनका मुख अब भी पुष्प के समान विहसित था। देखनेवाले आते थे,रोते थे, और शोक-समाज में खड़े हो जाते थे। कोई-कोई फूलों की माला रख देता था। वीर पुरुष यों ही मरते हैं। अभिलाषाएँ उनके गले की जंजीर नहीं होतीं। उन्हें इसकी चिंता नहीं होती कि मेरे पीछे कौन हँसेगा और कौन रोएगा। उन्हें इसका भय नहीं होता कि मेरे बाद काम कौन सँभालेगा। यह सब संसार से चिमटनेवालों के बहाने हैं। वीर पुरुष मुक्तात्मा होते हैं। जब तक जीते हैं, निर्द्वंद्व जीते हैं। मरते हैं, तो निर्द्वंद्व मरते हैं।
इस शोक-वृत्ताांत को क्यों तूल दें; जब बेगानों की ऑंखों से ऑंसू और हृदय से आह निकल पड़ती थी, तो अपनों का कहना ही क्या! नायकराम सूरदास के साथ शफाखाने गए थे। लौटे ही थे कि यह दृश्य देखा। एक लम्बी साँस खींचकर विनय के चरणों पर सिर रख दिया और बिलख-बिलखकर रोने लगे। जरा चित्ता शांत हुआ, तो सोफी को खबर देने चले, जो अभी शफाखाने ही में थी।
नायकराम रास्ते-भर दौड़ते हुए गए, पर सोफी के सामने पहुँचे, तो गला इतना फँस गया कि मुँह से एक शब्द भी न निकला। उसकी ओर ताकते हुए सिसक-सिसककर रोने लगे। सोफी के हृदय में शूल-सा उठा। अभी नायकराम गए और उलटे पाँव लौट आए। जरूर कोई अमंगल सूचना है। पूछा-क्या पंडाजी; यह पूछते ही उसका कंठ भी रुँधा गया।
नायकराम की सिसकियाँर् आत्तानाद हो गईं। सोफी ने दौड़कर उनका हाथ पकड़ लिया और आवेश-कम्पित कंठ से पूछा-क्या विनय…? यह कहते-कहते शोकातिरेक की दशा में शफाखाने से निकल पड़ी और पाँड़ेपुर की ओर चली। नायकराम आगे-आगे लालटेन दिखाते हुए चले। वर्षा ने जल-थल एक कर दिया था। सड़क के किनारे के वृक्ष, जो पानी में खड़े थे, सड़क का चिद्द बता रहे थे। सोफी का शोक एक ही क्षण में आत्मग्लानि के रूप में बदल गया-हाय! मैं ही हत्यारिन हूँ। क्यों आकाश से वज्र गिरकर मुझे भस्म नहीं कर देता? क्यों कोई साँप जमीन से निकलकर मुझे डस नहीं लेता? क्यों पृथ्वी फटकर मुझे निगल नहीं जाती? हाय! आज मैं वहाँ न गई होती, तो वह कदापि न जाते। मैं क्या जानती थी कि विधााता मुझे सर्वनाश की ओर लिए जाता है! मैं दिल में उन पर झुँझला रही थी, मुझे यह संदेह भी हो रहा था कि यह डरते हैं! आह! यह सब मेरे कारण हुआ, मैं ही अपने सर्वनाश का कारण हूँ! मैं अपने हाथों लुट गई! हाय! मैं उनके प्रेम के आदर्श को न पहुँच सकी।
फिर उसके मन में विचार आया-कहीं खबर झूठी न हो। उन्हें चोट लगी हो और वह संज्ञा-शून्य हो गए हों। आह! काश, मैं एक बार उनके वचनामृत से अपने हृदय को पवित्रा कर लेती! नहीं-नहीं, वह जीवित हैं, ईश्वर मुझ पर इतना अत्याचार नहीं कर सकता। मैंने कभी किसी प्राणी को दु:ख नहीं पहुँचाया, मैंने कभी उस पर अविश्वास नहीं किया, फिर वह मुझे इतना वज्र दंड क्यों देगा!
जब सोफिया संग्राम-स्थल के समीप पहुँची, तो उस पर भीषण भय छा गया। वह सड़क के किनारे एक मील के पत्थर पर बैठ गई। वहाँ कैसे जाऊँ? कैसे उन्हें देखूँगी, कैसे उन्हें स्पर्श करूँगी? उनकी मरणावस्था का चित्रा उसकी ऑंखों के सामने खिंच गया, उसकी मृत देह रक्त और धाूल में लिपटी हुई भूमि पर पड़ी हुई थी। इसे उसने जीते-जागते देखा था। उसे इस जीर्णावस्था में वह कैसे देखेगी! उसे इस समय प्रबल आकांक्षा हुई कि वहाँ जाते ही मैं भी उनके चरणों पर गिरकर प्राण त्याग दूँ। अब संसार में मेरे लिए कौन-सा सुख है! हा! यह कठिन वियोग कैसे सहूँगी! मैंने अपने जीवन को नष्ट कर दिया, ऐसे नर-रत्न को धार्म की पैशाचिक क्रूरता पर बलिदान कर दिया।
यद्यपि वह जानती थी कि विनय का देहावसान हो गया, फिर भी उसे भ्रांत आशा हो रही थी कि कौन जाने, वह केवल मर्ूच्छित हो गए हों! सहसा उसे पीछे से एक मोटरकार पानी को चीरती हुई आती दिखाई दी। उसके उज्ज्वल प्रकाश में फटा हुआ पानी ऐसा जान पड़ता था,मानो दोनों ओर से जल-जंतु उस पर टूट रहे हों! वह निकट आकर रुक गई। रानी जाह्नवी थीं। सोफी को देखकर बोलीं-बेटी! तुम यहाँ क्यों बैठी हो? आओ, साथ चलो। क्या गाड़ी नहीं मिली?
सोफी चिल्लाकर रानी के गले से लिपट गई। किंतु रानी की ऑंखों में ऑंसू न थे, मुख पर शोक का चिद्द न था। उनकी ऑंखों में गर्व का मद छाया हुआ था, मुख पर विजय की आभा झलक रही थी! सोफी को गले से लगाती हुई बोलीं-क्यों रोती हो बेटी? विनय के लिए? वीरों की मृत्यु पर ऑंसू नहीं बहाए जाते, उत्सव के राग गाए जाते हैं। मेरे पास हीरे-जवाहिर होते, तो उसकी लाश पर लुटा देती। मुझे उसके मरने का दु:ख नहीं है। दु:ख होता, अगर वह आज प्राण बचाकर भागता। यह तो मेरी चिर-संचित अभिलाषा थी, बहुत ही पुरानी। जब मैं युवती थी और वीर राजपूतों तथा राजपूतानियों के आत्मसमर्पण की कथाएँ पढ़ा करती थी, उसी समय मेरे मन में यह कामना अंकुरित हुई थी कि ईश्वर मुझे भी कोई ऐसा ही पुत्रा देता, जो उन्हीं वीरों की भाँति मृत्यु से खेलता, जो अपना जीवन देश और जाति-हित के लिए हवन कर देता, जो अपने कुल का मुख उज्ज्वल करता। मेरी वह कामना पूरी हो गई। आज मैं एक वीर पुत्रा की जननी हूँ। क्यों रोती हो? इससे उसकी आत्मा को क्लेश होगा। तुमने तो धार्म-ग्रंथ पढ़े हैं। मनुष्य कभी मरता है? जीव तो अमर है। उसे तो परमात्मा भी नहीं मार सकता। मृत्यु तो केवल पुनर्जीवन की सूचना है, एक उच्चतर जीवन का मार्ग। विनय फिर संसार में आएगा, उसकी कीर्ति और भी फैलेगी। जिस मृत्यु पर घरवाले रोयें, वह भी कोई मृत्यु है! वह तो एड़ियाँ रगड़ना है। वीर मृत्यु वही है, जिस पर बेगाने रोयें और घरवाले आनंद मनाएँ। दिव्य मृत्यु जीवन से कहीं उत्ताम है। दिव्य जीवन में कलुषित मृत्यु की शंका रहती है, दिव्य मृत्यु में यह संशय कहाँ? कोई जीव दिव्य नहीं है, जब तक उसका अंत भी दिव्य न हो। यह लो, पहुँच गए। कितनी प्रलयंकर वृष्टि है, कैसा गहन अंधाकार! फिर भी सह-ों प्राणी उसके शव पर अश्रु-वर्षा कर रहे हैं, क्या यह रोने का अवसर है?
मोटर रुकी। सोफिया और जाह्नवी को देखकर लोग इधार-उधार हट गए। इंदु दौड़कर माता से लिपट गई। हजारों ऑंखों से टप-टप ऑंसू गिरने लगे। जाह्नवी ने विनय का मस्तक अपनी गोद में लिया, उसे छाती से लगाया, उसका चुम्बन किया और शोक-सभा की ओर गर्व-युक्त नेत्राों से देखकर बोलीं-यह युवक, जिसने विनय पर अपने प्राण समर्पित कर दिए, विनय से बढ़कर है। क्या कहा? मुसलमान है!र् कत्ताव्य के क्षेत्रा में हिंदू और मुसलमान का भेद नहीं, दोनों एक ही नाव में बैठे हुए हैं; डूबेंगे, तो दोनों डूबेंगे; बचेंगे तो दोनों बचेंगे। मैं इस वीर आत्मा का यहीं मजार बनाऊँगी। शहीद के मजार को कौन खोदकर फेंक देगा, कौन इतना नीच अधार्म होगा! यह सच्चा शहीद था। तुम लोग क्यों रोते हो? विनय के लिए? तुम लोगों में कितने ही युवक हैं, कितने ही बाल-बच्चों वाले हैं। युवकों से मैं कहूँगी-जाओ, और विनय की भाँति प्राण देना सीखो। दुनिया केवल पेट पालने की जगह नहीं है। देश की ऑंखें तुम्हारी ओर लगी हुई हैं, तुम्हीं इसका बेड़ा पार लगाओगे। मत फँसो गृहस्थी के जंजाल में, जब तक देश का कुछ हित न कर लो। देखो, विनय कैसा हँस रहा है! जब बालक था, उस समय की याद आती है। इसी भाँति हँसता था। कभी उसे रोते नहीं देखा। कितनी विलक्षण हँसी है! क्या इसने धान के लिए प्राण दिए? धान इसके घर में भरा हुआ था, उसकी ओर कभी ऑंख उठाकर नहीं देखा। बरसों हो गए, पलंग पर नहीं सोया, जूते नहीं पहने, भर पेट भोजन नहीं किया। जरा देखो, उसके पैरों में कैसे घट्ठे पड़ गए हैं! विरागी था, साधाु था, तुम लोग भी ऐसे ही साधाु बन जाओ। बाल-बच्चोंवालों से मेरा निवेदन है,अपने प्यारे बच्चों को चक्की का बैल न बनाओ, गृहस्थी का गुलाम न बनाओ। ऐसी शिक्षा दो कि जिएँ, किंतु जीवन के दास बनकर नहीं,स्वामी बनकर। यही शिक्षा है, जो इस वीर आत्मा ने तुम्हें दी है। जानते हो, उसका विवाह होनेवाला था। यही प्यारी बालिका उसकी वधाू बननेवाली थी। किसी ने ऐसा कमनीय सौंदर्य, ऐसा अलौकिक रूप-लावण्य देखा है! रानियाँ इसके आगे पानी भरें! विद्या में इसके सामने कोई पंडित मुँह नहीं खोल सकता। जिह्ना पर सरस्वती है, घर का उजाला है। विनय को इससे कितना प्रेम था, यह इसी से पूछो। लेकिन क्या हुआ?जब अवसर आया, उसने प्रेम के बंधान को कच्चे धाागे की भाँति तोड़ दिया, उसे अपने मुख का कलंक नहीं बनाया, उस पर अपने आदर्श का बलिदान नहीं किया। प्यारो! पेट पर अपने यौवन को, अपनी आत्मा को, अपनी महत्तवाकांक्षाओं को मत कुर्बान करो। इंदु बेटी, क्यों रोती हो? किसको ऐसा भाई मिला है?
इंदु के अंतस्तल में बड़ी देर से एक ज्वाला-सी दहक रही थी। वह इन सारी वेदनाओं का मूल कारण अपने पति को समझती थी। अब तक ज्वाला उर-स्थल में थी, अब बाहर निकल पड़ी। यह धयान न रहा कि मैं इतने आदमियों के सामने क्या कहती हूँ, औचित्य की ओर से ऑंखें बंद करके बोली-माताजी, इस हत्या का कलंक मेरे सिर है। मैं अब उस प्राणी का मुँह न देखूँगी, जिसने मेरे वीर भाई की जान लेकर छोड़ी,और वह केवल अपने स्वार्थ की सिध्दि के लिए।
रानी जाह्नवी ने तीव्र स्वर में कहा-क्या महेंद्र को कहती हो? अगर फिर मेरे सामने मुँह से ऐसी बात निकाली, तो तेरा गला घोंट दूँगी। क्या तू उन्हें अपना गुलाम बनाकर रखेगी? तू स्त्राी होकर चाहती है कि कोई तेरा हाथ न पकड़े, वह पुरुष होकर क्यों न ऐसा चाहें? वह संसार को क्यों तेरे ही नेत्राों से देखें, क्या भगवान् ने उन्हें ऑंखें नहीं दीं? अपने हानि-लाभ का हिसाबदार तुझे क्यों बनाएँ, क्या भगवान् ने उन्हें बुध्दि नहीं दी? तेरी समझ में, मेरी समझ में, यहाँ जितने प्राणी खड़े हैं, उनकी समझ में यह मार्ग भयंकर है, हिंसक जंतुओं से भरा हुआ है। इसका बुरा मानना क्या? अगर तुझे उनकी बातें पसंद नहीं आतीं, तो कोशिश कर कि पसंद आएँ। वह तेरे पतिदेव हैं, तेरे लिए उनकी सेवा से उत्ताम और कोई पथ नहीं है।
दस बज गए थे। लोग कुँवर भरतसिंह की प्रतीक्षा कर रहे थे। जब दस बजने की आवाज कानों में आई, तो रानी जाह्नवी ने कहा-उनकी राह अब मत देखो, वह न आएँगे, और न आ सकते हैं। वह उन पिताओं में हैं, जो पुत्रा के लिए जीते हैं, पुत्रा के लिए मरते हैं, और पुत्रा के लिए मंसूबे बाँधाते हैं। उनकी ऑंखों में ऍंधोरा छा गया होगा, सारा संसार सूना जान पड़ता होगा, अचेत पड़े होंगे। सम्भव है, उनके प्राणांत हो गए हों। उनका धार्म, उनका कर्म, उनका जीवन, उनका मरण, उनका दीन, उनकी दुनिया, सब कुछ इसी पुत्रा-रत्न पर अवलम्बित था। अब वह निराधाार हैं, उनके जीवन का कोई लक्ष्य, कोई अर्थ नहीं है। वह अब कदापि न आएँगे, आ ही नहीं सकते। चलो, विनय के साथ अपना अंतिमर् कत्ताव्य पूरा कर लूँ; इन्हीं हाथों से उसे हिंडोले में झुलाया था, इन्हीं हाथों से उसे चिता में बैठा दूँ। इन्हीं हाथों से उसे भोजन कराती थी, इन्हीं हाथों से गंगा-जल पिला दूँ।
गंगा से लौटते दिन के नौ बज गए। हजारों आदमियों का जमघट, गलियाँ तंग और कीचड़ से भरी हुई, पग-पग पर फूलों की वर्षा, सेवक-दल का राष्ट्रीय संगीत, गंगा तक पहुँचते-पहुँचते ही सबेरा हो गया था। लौटते हुए जाह्नवी ने कहा-चलो, जरा सूरदास को देखते चलें, न जाने मरा या बचा; सुनती हूँ, घाव गहरा था।
सोफिया और जाह्नवी, दोनों शफाखाने गईं, तो देखा, सूरदास बरामदे में चारपाई पर लेटा हुआ है, भैरों उसके पैताने खड़ा है और सुभागी सिरहाने बैठी पंखा झल रही है। जाह्नवी ने डॉक्टर से पूछा-इसकी दशा कैसी है, बचने की कोई आशा है?
डॉक्टर ने कहा-किसी दूसरे आदमी को यह जख्म लगा होता, तो अब तक मर चुका होता। इसकी सहन-शक्ति अद्भुत है। दूसरों को नश्तर लगाने के समय क्लोरोफार्म देना पड़ता है, इसके कंधो में दो इंच गहरा और दो इंच चौड़ा नश्तर दिया गया, पर इसने क्लोरोफार्म न लिया। गोली निकल आई है, लेकिन बच जाए, तो कहें।
सोफिया को एक रात की दारुण शोक-वेदना ने इतना घुला दिया था कि पहचानना कठिन था, मानो कोई फूल मुरझा गया हो। गति मंद,मुख उदास, नेत्रा बुझे हुए, मानो भूत- जगत् में नहीं, विचार-जगत् में विचर रही है। ऑंखों को जितना रोना था, रो चुकी थीं, अब रोयाँ-रोयाँ रो रहा था। उसने सूरदास के समीप जाकर कहा-सूरदास, कैसा जी है? रानी जाह्नवी आई हैं।
सूरदास-धान्य भाग। अच्छा हूँ।
जाह्नवी-पीड़ा बहुत हो रही है?
सूरदास-कुछ कष्ट नहीं है। खेलते-खेलते गिर पड़ा हूँ; चोट आ गई है, अच्छा हो जाऊँगा। उधार क्या हुआ, झोंपड़ी बची कि नहीं?
सोफी-अभी तो नहीं गई है, लेकिन शायद अब न रहे। हम तो विनय को गंगा की गोद में सौंपे चले आते हैं।
सूरदास ने क्षीण स्वर में कहा-भगवान् की मरजी, वीरों का यही धारम है। जो गरीबों के लिए जान लड़ा दे, वही सच्चा वीर है।
जाह्नवी-तुम साधाु हो। ईश्वर से कहो, विनय का फिर इसी देश में जन्म हो।
सूरदास-ऐसा ही होगा माताजी, ऐसा ही होगा। अब महान् पुरुष हमारे ही देश में जनम लेंगे। जहाँ अन्याय और अधारम होता है, वहीं देवता लोग जाते हैं। उनके संस्कार उन्हें खींच ले जाते हैं। मेरा मन कह रहा है कि कोई महात्मा थोड़े ही दिनों में इस देश में जनम लेनेवाले हैं…!
डॉक्टर ने आकर कहा-रानीजी, मैं बहुत भेद के साथ आपसे प्रार्थना करता हूँ कि सूरदास से बातें न करें, नहीं तो जोर पड़ने से इनकी दशा बिगड़ जाएगी। ऐसी हालत में सबसे बड़ा विचार यह होना चाहिए कि रोगी निर्बल न होने पाए, उसकी शक्ति क्षीण न हो।
अस्पताल के रोगियों और कर्मचारियों को ज्यों ही मालूम हुआ कि विनयसिंह की माताजी आई हैं, तो सब उनके दर्शनों को जमा हो गए,कितनों ही ने उनकी पद-रज माथे पर चढ़ाई। यह सम्मान देखकर जाह्नवी का हृदय गर्व से प्रफुल्लित हो गया। विहसित मुख से सबों को आशीर्वाद देकर यहाँ से चलने लगीं, तो सोफिया ने कहा-माताजी, आपकी आज्ञा हो, तो मैं यहीं रह जाऊँ। सूरदास की दशा चिंताजनक जान पड़ती है। इसकी बातों में वह तत्तवज्ञान है, जो मृत्यु की सूचना देता है। मैंने इसे होश में कभी आत्मज्ञान की ऐसी बातें करते नहीं सुना।
रानी ने सोफी को गले लगाकर सहर्ष ही आज्ञा दे दी। वास्तव में सोफिया सेवा-भवन जाना न चाहती थी। वहाँ की एक-एक वस्तु, वहाँ के फूल-पत्तो, यहाँ तक कि वहाँ की वायु भी विनय की याद दिलाएगी। जिस भवन में विनय के साथ रही, उसी में विनय के बिना रहने का खयाल ही उसे तड़पाए देता था।
रानी चली गई, तो सोफिया एक मोढ़ा डालकर सूरदास की चारपाई के पास बैठ गई। सूरदास की ऑंखें बंद थीं, पर मुख पर मनोहर शांति छाई हुई थी। सोफिया को आज विदित हुआ कि चित्ता की शांति ही वास्तविक सौंदर्य है।
सोफी को वहाँ बैठे-बैठे सारा दिन गुजर गया। वह निर्जल, निराहार, मन मारे बैठी हुई सुखद स्मृतियों के स्वप्न देख रही थी, और जब ऑंखें भर आती थीं, तो आड़ में जाकर रूमाल से ऑंसू पोंछ आती थी। उसे अब सबसे तीव्र वेदना यही थी कि मैंने विनय की कोई इच्छा पूरी नहीं की, उनकी अभिलाषाओं को तृप्त न किया, उन्हें वंचित रखा। उनके प्रेमानुराग की स्मृति उसके हृदय को ऐसा मसोसती थी कि वह विकल होकर तड़पने लगती थी।
संधया हो गई थी। सोफिया लैम्प के सामने बैठी हुई सूरदास को प्रभु मसीह का जीवन-वृत्ताांत सुना रही थी। सूरदास ऐसा तन्मय हो रहा था, मानो उसे कोई कष्ट नहीं है। सहसा राजा महेंद्रकुमार आकर खड़े हो गए और सोफी की ओर हाथ बढ़ा दिया। सोफिया ज्यों-की-त्यों बैठी रही। राजा साहब से हाथ मिलाने की चेष्टा न की।
सूरदास ने पूछा-कौन है मिस साहब?
सोफिया ने कहा-राजा महेंद्रकुमार हैं।
सूरदास ने आदर-भाव से उठना चाहा, पर सोफिया ने लिटा दिया और बोली-हिलो मत, नहीं तो घाव खुल जाएगा। आराम से पड़े रहो।
सूरदास-राजा साहब आए हैं। उनका इतना आदर भी न करूँ? मेरे ऐसे भाग्य तो हुए। कुछ बैठने को है?
सोफिया-हाँ, कुर्सी पर बैठ गए।
राजा साहब ने पूछा-सूरदास कैसा जी है?
सूरदास-भगवान् की दया है।
राजा साहब जिन भावों को प्रकट करने यहाँ आए थे, वे सोफी के सामने उनके मुख से निकलते हुए सकुचा रहे थे। कुछ देर तक वे मौन रहे, अंत को बोले-सूरदास, मैं तुमसे अपनी भूलों की क्षमा माँगने आया हूँ। अगर मेरे वश की बात होती, तो मैं आज अपने जीवन को तुम्हारे जीवन से बदल लेता।
सूरदास-सरकार, ऐसी बात न कहिए; आप राजा हैं, मैं रंक हूँ। आपने जो कुछ किया, दूसरों की भलाई के विचार से किया। मैंने जो कुछ किया, अपना धारम समझकर किया। मेरे कारन आपको अपजस हुआ, कितने घर नास हुए, यहाँ तक कि इंद्रदत्ता और कुँवर विनयसिंह जैसे दो रतन जान से गए। पर अपना क्या बस है! हम तो खेल खेलते हैं, जीत-हार तो भगवान् के हाथ है। वह जैसा उचित जानते हैं, करते हैं,बस, नीयत ठीक होनी चाहिए।
राजा-सूरदास, नीयत को कौन देखता है। मैंने सदैव प्रजा-हित ही पर निगाह रखी, पर आज सारे नगर में एक भी प्राणी ऐसा नहीं है, जो मुझे खोटा, नीच, स्वार्थी, अधार्मी, पापिष्ठ न समझता हो। और तो क्या, मेरी सहधार्मिणी भी मुझसे घृणा कर रही है। ऐसी बातों से मन क्यों न विरक्त हो जाए? क्यों न संसार से घृणा हो जाए? मैं तो अब कहीं मुँह दिखाने-योग्य नहीं रहा।
सूरदास-इसकी चिंता न कीजिए। हानि, लाभ, जीवन, मरन, जस, अपजस विधिा के हाथ है, हम तो खाली मैदान में खेलने के लिए बनाए गए हैं। सभी खिलाड़ी मन लगाकर खेलते हैं, सभी चाहते हैं कि हमारी जीत हो; लेकिन जीत एक ही की होती है, तो क्या इससे हारनेवाले हिम्मत हार जाते हैं? वे फिर खेलते हैं; फिर हार जाते हैं, तो फिर खेलते हैं। कभी-न-कभी उनकी जीत होती ही है। जो आपको आज बुरा समझ रहे हैं, वे कल आपके सामने सिर झुकाएँगे। हाँ, नीयत ठीक रहनी चाहिए। मुझे क्या उनके घरवाले बुरा न कहते होंगे, जो मेरे कारन जान से गए? इंद्रदत्ता और कुँवर विनयसिंह-जैसे दो लाल, जिनके हाथों संसार का इतना उपकार होता संसार से उठ गए। जस-अपजस भगवान् के हाथ है, हमारा यहाँ क्या बस है?
राजा-आह सूरदास, तुम्हें नहीं मालूम कि मैं कितनी विपत्तिा में पड़ा हुआ हूँ। तुम्हें बुरा कहनेवाले अगर दस-पाँच होंगे, तो तुम्हारा जस गानेवाले असंख्य हैं, यहाँ तक कि हुक्काम भी तुम्हारी दृढ़ता और धौर्य का बखान कर रहे हैं। मैं तो दोनों ओर से गया। प्रजाद्रोही भी ठहरा और राजद्रोही भी। हुक्काम इस सारी दर्ुव्यवस्था का अपराधा मेरे ही सिर पर थोप रहे हैं। उनकी समझ में भी मैं अयोग्य, अदूरदर्शी और स्वार्थी हूँ। अब तो यही इच्छा होती है कि मुँह में कालिख लगाकर कहीं चला जाऊँ।
सूरदास-नहीं-नहीं, राजा साहब, निराश होना खिलाड़ियों के धारम के विरुध्द है। अबकी हार हुई, तो फिर कभी जीत होगी।
राजा-मुझे तो विश्वास नहीं होता कि फिर कभी मेरा सम्मान होगा। मिस सेवक, आप मेरी दुर्बलता पर हँस रही होंगी, पर मैं बहुत दुखी हूँ।
सोफिया ने अविश्वास-भाव से कहा-जनता अत्यंत क्षमाशील होती है। अगर अब भी आप जनता को यह दिखा सकें कि इस दुर्घटना पर आपको दु:ख है, तो कदाचित् प्रजा आपका फिर सम्मान करे।
राजा ने अभी उत्तार न दिया था कि सूरदास बोल उठा-सरकार, नेकनामी और बदनामी बहुत आदमियों के हल्ला मचाने से नहीं होती। सच्ची नेकनामी अपने मन में होती है। अगर अपना मन बोले कि मैंने जो कुछ किया, वही मुझे करना चाहिए था, इसके सिवा कोई दूसरी बात करना मेरे लिए उचित न था, तो वही नेकनामी है। अगर आपको इस मार-काट पर दु:ख है, तो आपका धारम है कि लाट साहब से इसकी लिखा-पढ़ी करें। वह न सुनें, तो जो उनसे बड़ा हाकिम हो, उससे कहें-सुनें, और जब तक सरकार परजा के साथ न्याय न करे, दम न लें। लेकिन अगर आप समझते हैं कि जो कुछ आपने किया, वही आपका धारम था, स्वार्थ के लोभ से आपने कोई बात नहीं की, तो आपको तनिक भी दु:ख न करना चाहिए।
सोफी ने पृथ्वी की ओर ताकते हुए कहा-राजपक्ष लेनेवालों के लिए यह सिध्द करना कठिन है कि वे स्वार्थ से मुक्त हैं।
राजा-मिस सेवक, मैं आपको सच्चे हृदय से विश्वास दिलाता हूँ कि मैंने अधिाकारियों के हाथों सम्मान और प्रतिष्ठा पाने के लिए उनका पक्ष नहीं ग्रहण किया, और पद का लोभ तो मुझे कभी रहा ही नहीं। मैं स्वयं नहीं कह सकता कि वह कौन-सी बात थी, जिसने मुझे सरकार की ओर खींचा। सम्भव है, अनिष्ट का भय हो, या केवल ठकुरसुहाती; पर मेरा कोई स्वार्थ नहीं था। सम्भव है, मैं उस समाज की आलोचना,उसके कुटिल कटाक्ष और उसके व्यंग्य से डरा होऊँ। मैं स्वयं इसका निश्चय नहीं कर सकता। मेरी धाारणा थी कि सरकार का कृपा-पात्रा बनकर प्रजा का जितना हित कर सकता हूँ, उतना उसका द्वेषी बनकर नहीं कर सकता। पर आज मुझे मालूम हुआ कि वहाँ भलाई होने की जितनी आशा है, उससे कहीं अधिाक बुराई होने का भय है। यश और कीर्ति का मार्ग वही है, जो सूरदास ने ग्रहण किया। सूरदास, आशीर्वाद दो कि ईश्वर मुझे सत्पथ पर चलने की शक्ति प्रदान करें।
आकाश पर बादल मंडरा रहे थे। सूरदास निद्रा में मग्न था। इतनी बातों से उसे थकावट आ गई थी। सुभागी एक टाट का टुकड़ा लिए आई और सूरदास के पैताने बिछाकर लेट रही, शफाखाने के कर्मचारी चले गए। चारों ओर सन्नाटा छा गया।
सोफी गाड़ी का इंतजार कर रही थी-दस बजते होंगे। रानीजी शायद गाड़ी भेजना भूल गईं। उन्होंने शाम ही को गाड़ी भेजने का वादा किया था। कैसे जाऊँ? क्या हरज है, यहीं बैठी रहूँ। वहाँ रोने के सिवा और क्या करूँगी। आह! मैंने विनय का सर्वनाश कर दिया। मेरे ही कारण वह दो बारर् कत्ताव्य-मार्ग से विचलित हुए, मेरे ही कारण उनकी जान पर बनी? अब वह मोहिनी मूर्ति देखने को तरस जाऊँगी। जानती हूँ कि हमारा फिर संयोग होगा, लेकिन नहीं जानती, कब! उसे वे दिन याद आए, जब भीलों के गाँव में इसी समय वह द्वार पर बैठी उनकी राह जोहा करती थी और वह कम्बल ओढ़े, नंगे सिर, नंगे पाँव हाथ में एक लकड़ी लिए आते थे और मुस्कराकर पूछते थे, मुझे देर तो नहीं हो गई?वह दिन याद आया, जब राजपूताना जाते समय विनय ने उनकी ओर आतुर, किंतु निराश नेत्राों से देखा था। आह! वह दिन याद आया,जब उसकी ओर ताकने के लिए रानीजी ने उन्हें तीव्र नेत्राों से देखा था और वह सिर झुकाए बाहर चले गए थे। सोफी शोक से विह्नल हो गई। जैसे हवा के झोंके धारती पर बैठी हुई धाूल को उठा देते हैं, उसी प्रकार इस नीरव निशा ने उसकी स्मृतियों को जागृत कर दिया; सारा हृदय-क्षेत्रा स्मृतिमय हो गया। वह बेचैन हो गई, कुर्सी से उठकर टहलने लगी। जी न जाने क्या चाहता था-कहीं उड़ जाऊँ, मर जाऊँ, कहाँ तक मन को समझाऊँ, कहाँ तक सब्र करूँ! अब न समझाऊँगी, रोऊँगी, तड़पूँगी, खूब जी भरकर! वह, जो मुझ पर प्राण देता था, संसार से उठ जाए, और मैं अपने को समझाऊँ कि अब रोने से क्या होगा? मैं रोऊँगी, इतना रोऊँगी कि ऑंखें फूट जाएँगी, हृदय-रक्त ऑंखों के रास्ते निकलने लगेगा, कंठ बैठ जाएगा। ऑंखों को अब करना ही क्या है! वे क्या देखकर कृतार्थ होंगी! हृदय-रक्त अब प्रवाहित होकर क्या करेगा!
इतने में किसी की आहट सुनाई दी। मिठुआ और भैरों बरामदे में आए। मिठुआ ने सोफी को सलाम किया और सूरदास की चारपाई के पास जाकर खड़ा हो गया। सूरदास ने चौंककर पूछा-कौन है, भैरों?
मिठुआ-दादा, मैं हूँ।
सूरदास-बहुत अच्छे आए बेटा, तुमसे भेंट हो गई। इतनी देर क्यों हुई?
मिठुआ-क्या करूँ दादा, बड़े बाबू से साँझ से छुट्टी माँग रहा था, मगर एक-न-एक काम लगा देते थे। डाउन नम्बर थ्री को निकाला, अप नम्बर वन को निकाला, फिर पारसल गाड़ी आई, उस पर माल लदवाया, डाउन नम्बर थर्टी को निकालकर तब आने पाया हूँ। इससे तो कुली था, तभी अच्छा था कि जब जी चाहता था, जाता था; जब चाहता था, आता था; कोई रोकनेवाला न था। अब तो नहाने-खाने की फुरसत नहीं मिलती, बाबू लोग इधार-उधार दौड़ाते रहते हैं। किसी को नौकर रखने की समाई तो है नहीं, सेंत-मेंत में काम निकालते हैं।
सूरदास-मैं न बुलाता, तो तुम अब भी न आते। इतना भी नहीं सोचते कि अंधाा आदमी है, न जाने कैसे होगा, चलकर जरा हाल-चाल पूछता आऊँ। तुमको इसलिए बुलाया है कि मर जाऊँ तो मेरा किरिया-करम करना, अपने हाथों से पिंडदान देना, बिरादरी को भोज देना और हो सके, तो गया कर आना। बोलो, इतना करोगे?
भैरों-भैया, तुम इसकी चिंता मत करो, तुम्हारा किरिया-करम इतनी धाूमधााम से होगा कि बिरादरी में कभी किसी का न हुआ होगा।
सूरदास-धाूमधााम से नाम तो होगा, मगर मुझे पहुँचेगा तो वही, जो मिठुआ देगा।
मिठुआ-दादा, मेरी नंगाझोली ले लो, जो मेरे पास धोला भी हो। खाने-भर को तो होता ही नहीं, बचेगा क्या?
सूरदास-अरे, तो क्या तुम मेरा किरिया-करम भी न करोगे?
मिठुआ-कैसे करूँगा दादा, कुछ पल्ले-पास हो, तब न?
सूरदास-तो तुमने यह आसरा भी तोड़ दिया। मेरे भाग में तुम्हारी कमाई न जीते-जी बदी थी, न मरने के पीछे।
मिठुआ-दादा, अब मुँह न खुलवाओ, परदा ढँका रहने दो। मुझे चौपट करके मरे जाते हो; उस पर कहते हो, मेरा किरिया-करम कर देना,गया-पराग कर देना। हमारी दस बीघे मौरूसी जमीन थी कि नहीं, उसका मुआवजा दो पैसा, चार पैसा कुछ तुमको मिला कि नहीं, उसमें से मेरे हाथ क्या लगा? घर में भी मेरा कुछ हिस्सा होता है या नहीं? हाकिमों से बैर न ठानते, तो उस घर के सौ से कम न मिलते। पंडाजी ने कैसे पाँच हजार मार लिए? है उनका घर पाँच हजार का? दरवाजे पर मेरे हाथों के लगाए दो नीम के पेड़ थे। क्या वे पाँच-पाँच रुपये में भी महँगे थे? मुझे तो तुमने मटियामेट कर दिया, कहीं का न रखा। दुनिया-भर के लिए अच्छे होगे, मेरी गरदन पर तो तुमने छुरी फेर दी, हलाल कर डाला। मुझे भी तो अभी ब्याह-सगाई करनी है, घर-द्वार बनवाना है। किरिया-करम करने बैठूँ, तो इसके लिए कहाँ से रुपये लाऊँगा? कमाई में तुम्हारे सक नहीं, मगर कुछ उड़ाया, कुछ जलाया, और अब मुझे बिना छाँह के छोड़े चले जाते हो, बैठने का ठिकाना भी नहीं। अब तक मैं चुप था, नाबालिग था। अब तो मेरे भी हाथ-पाँव हुए। देखता हूँ, मेरी जमीन का मुआवजा कैसे नहीं मिलता! साहब लखपती होंगे, अपने घर के होंगे, मेरा हिस्सा कैसे दबा लेंगे? घर में भी मेरा हिस्सा होता है। (झाँककर) मिस साहब फाटक पर खड़ी हैं, घर क्यों नहीं जातीं? और सुन ही लेंगी, तो मुझे क्या डर? साहब ने सीधो से दिया, तो दिया; नहीं तो फिर मेरे मन में भी जो आएगा, करूँगा। एक से दो जानें तो होंगी नहीं;मगर हाँ, उन्हें भी मालूम हो जाएगा कि किसी का हक छीन लेना दिल्लगी नहीं है!
सूरदास भौंचक्का-सा रह गया। उसे स्वप्न में भी न सूझा था कि मिठुआ के मुँह से मुझे कभी ऐसी कठोर बातें सुननी पड़ेंगी। उसे अत्यंत दु:ख हुआ, विशेष इसलिए कि ये बातें उस समय कही गई थीं, जब वह शांति और सांत्वना का भूखा था। जब यह आकांक्षा थी कि मेरे आत्मीय जन मेरे पास बैठे हुए मेरे कष्ट-निवारण का उपाय करते होते। यही समय होता है, जब मनुष्य को अपना कीर्ति-गान सुनने की इच्छा होती है, जब उसका जीर्ण हृदय बालकों की भाँति गोद में बैठने के लिए, प्यार के लिए, मान के लिए, शुश्रूषा के लिए ललचाता है। जिसे उसने बाल्यावस्था से बेटे की तरह पाला, जिसके लिए उसने न जाने क्या-क्या कष्ट सहे, वह अंत समय आकर उससे अपने हिस्से का दावा कर रहा था! ऑंखों से ऑंसू निकल आए। बोला-बेटा, मेरी भूल थी कि तुमसे किरिया-करम करने को कहा। तुम कुछ मत करना। चाहे मैं पिंडदान और जल के बिना रह जाऊँ, पर यह उससे कहीं अच्छा है कि तुम साहब से अपना मुआवजा माँगो। मैं नहीं जानता था कि तुम इतना कानून पढ़ गए हो, नहीं पैसे-पैसे का हिसाब लिखता जाता।
मिठुआ-मैं अपने मुआवजे का दावा जरूर करूँगा। चाहे साहब दें, चाहे सरकार दे; चाहे काला चोर दे, मुझे तो अपने रुपये से काम है।
सूरदास-हाँ सरकार भले ही दे दे; साहब से कोई मतलब नहीं।
मिठुआ-मैं तो साहब से लूँगा, वह चाहे जिससे दिलाएँ। न दिलाएँगे, तो जो कुछ मुझसे हो सकेगा, करूँगा। साहब कुछ लाट तो हैं नहीं। मेरी जाएदाद उन्हें हजम न होने पाएगी। तुमको उसका क्या कलक था। सोचा होगा, कौन मेरा बेटा बैठा हुआ है, चुपके से बैठे रहे। मैं चुपके बैठनेवाला नहीं हूँ।
सूरदास-मिट्ठू, क्यों मेरा दिल दुखाते हो? उस जमीन के लिए मैंने कौन-सी बात उठा रखी! घर के लिए तो प्राण तक दे दिए। अब और मेरे किए क्या हो सकता था? लेकिन भला बताओ तो, तुम साहब से कैसे रुपये ले लोगे? अदालत में तो तुम उनसे ले नहीं सकते, रुपयेवाले हैं, और अदालत रुपयेवालों की है। हारेंगे भी, तो तुम्हें बिगाड़ देंगे। फिर तुम्हारी जमीन सरकार ने जापते से ली है; तुम्हारा दावा साहब पर चलेगा कैसे?
मिठुआ-यह सब पढ़े बैठा हूँ। लगा दूँगा आग, सारा गोदाम जलकर राख हो जाएगा। (धाीरे से) बम-गोले बनाना जानता हूँ। एक गोला रख दूँगा, तो पुतलीघर में आग लग जाएगी। मेरा कोई क्या कर लेगा!
सूरदास-भैरों, सुनते हो इसकी बातें, जरा तुम्हीं समझाओ।
भैरों-मैं तो रास्ते-भर समझाता आ रहा हूँ; सुनता ही नहीं।
सूरदास-तो फिर मैं साहब से कह दूँगा कि इससे होशियार रहें।
मिठुआ-तुमको गऊ मारने की हत्या लगे, अगर तुम साहब या किसी और से इस बात की चरचा तक करो। अगर मैं पकड़ गया, तो तुम्हीं को उसका पाप लगेगा। जीते-जी मेरा बुरा चेता, मरने के बाद काँट बोना चाहते हो? तुम्हारा मुँह देखना पाप है।
यह कहकर मिठुआ क्रोधा से भरा हुआ चला गया! भैरों रोकता ही रहा, पर उसने न माना। सूरदास आधा घंटे तक मर्ूच्छावस्था में पड़ा रहा। इस आघात का घाव गोली से भी घातक था। मिठुआ की कुटिलता, उसके परिण्ााम का भय, अपना उत्तारदायित्व, साहब को सचेत कर देने कार् कत्ताव्य, यह पहाड़-सी कसम, निकलने का कहीं रास्ता नहीं, चारों ओर से बँधाा हुआ इसी असमंजस में पड़ा हुआ था कि मिस्टर जॉन सेवक आए। सोफिया भी उनके साथ फाटक से चली। सोफी ने दूर ही से कहा-सूरदास, पापा तुमसे मिलने आए हैं। वास्तव में मिस्टर सेवक सूरदास से मिलने नहीं आए थे, सोफी से समवेदना प्रकट करने का शिष्टाचार करना था। दिन-भर अवकाश न मिला। मिल से नौ बजे चले, तो याद आई, सेवा-भवन गए, वहाँ मालूम हुआ कि सोफिया शफाखाने में है, गाड़ी इधार फेर दी। सोफिया रानी जाह्नवी की गाड़ी की प्रतीक्षा कर रही थी। उसे धयान भी न था कि पापा आते होंगे। उन्हें देखकर रोने लगी। पापा को मुझसे प्रेम है, इसका उसे हमेशा विश्वास रहा,और यह बात यथार्थ थी। मिस्टर सेवक को सोफिया की याद आती रहती थी। व्यवसाय में व्यस्त रहने पर भी सोफिया की तरफ से वह निश्चिंत न थे। अपनी पत्नी से मजबूर थे, जिसका उनके ऊपर पूरा आधिापत्य था। सोफी को रोते देखकर दयार्द्र हो गए, गले से लगा लिया और तस्कीन देने लगे। उन्हें बार-बार यह कारखाना खोलने पर अफसोस होता था, जो असाधय रोग की भाँति उनके गले पड़ गया था। इसके कारण पारिवारिक शांति में विघ्न पड़ा, सारा कुनबा तीन-तेरह हो गया, शहर में बदनामी हुई, सारा सम्मान मिट्टी में मिल गया, घर के हजारों रुपये खर्च हो गए और अभी तक नफे की कोई आशा नहीं। अब कारीगर और कुली भी काम छोड़-छोड़कर अपने घर भाग जा रहे थे। उधार शहर और प्रांत में इस कारखाने के विरुध्द आंदोलन किया जा रहा था। प्रभुसेवक का गृहत्याग दीपक की भाँति हृदय को जलाता रहता था। न जाने खुदा को क्या मंजूर था।
मिस्टर सेवक कोई आधा घंटे तक सोफिया से अपनी विपत्तिा कथा कहते रहे। अंत में बोले-सोफी, तुम्हारी मामा को यह सम्बंधा पसंद न था, पर मुझे कोई आपत्तिा न थी। कुँवर विनयसिंह जैसा पुत्रा या दामाद पाकर ऐसा कौन है, जो अपने को भाग्यवान् न समझता। धार्म-विरुध्द होने की मुझे जरा भी परवा न थी। धार्म हमारी रक्षा और कल्याण के लिए है। अगर वह हमारी आत्मा को शांति और देह को सुख नहीं प्रदान कर सकता, तो मैं उसे पुराने कोट की भाँति उतार फेंकना पसंद करूँगा। जो धार्म हमारी आत्मा का बंधान हो जाए; उससे जितनी जल्द हम अपना गला छुड़ा लें, उतना ही अच्छा। मुझे हमेशा इसका दु:ख रहेगा कि परोक्ष या अपरोक्ष रीति से मैं तुम्हारा द्रोही हुआ। अगर मुझे जरा भी मालूम होता कि यह विवाद इतना भयंकर हो जाएगा और इसका इतना भीषण परिणाम होगा, तो मैं उस गाँव पर कब्जा करने का नाम भी न लेता। मैंने समझा था कि गाँववाले कुछ विरोधा करेंगे, लेकिन धामकाने से ठीक हो जाएँगे। यह न जानता था कि समर ठन जाएगा। और उसमें मेरी ही पराजय होगी। यह क्या बात है सोफी, कि आज रानी जाह्नवी ने मुझसे बड़ी शिष्टता और विनय का व्यवहार किया?मैं तो चाहता था कि बाहर ही से तुम्हें बुला लूँ, लेकिन दरबान ने रानीजी से कह दिया और वह तुरंत बाहर निकल आईं। मैं लज्जा और ग्लानि से गड़ा जाता था और वह हँस-हँसकर बातें कर रही थीं। बड़ा विशाल हृदय है। पहले का-सा गरूर नाम को न था। सोफी, विनयसिंह की अकाल मृत्यु पर किसे दु:ख न होगा; पर उनके आत्मसमर्पण ने सैकड़ों जान बचा लीं, नहीं तो जनता आग में कूदने को तैयार थी। घोर अनर्थ हो जाता। मि. क्लार्क ने सूरदास पर गोली तो चला दी थी, पर जनता का रुख देखकर सहमे जाते थे कि न जाने क्या हो। वीरात्मा पुरुष था, बड़ा ही दिलेर!
इस प्रकार सोफिया को परितोष देने के बाद मि. सेवक ने उससे घर चलने के लिए आग्रह किया। सोफिया ने टालकर कहा-पापा, इस समय मुझे क्षमा कीजिए, सूरदास की हालत बहुत नाजुक है। मेरे रहने से डॉक्टर और अन्य कर्मचारी विशेष धयान देते हैं। मैं न रहूँगी, तो कोई उसे पूछेगा भी नहीं। आइए, जरा देखिए। आपको आश्चर्य होगा कि इस हालत में भी वह कितना चैतन्य है और कितनी अकलमंदी की बातें करता है! मुझे तो वह मानव-देह में कोई फरिश्ता मालूम होता है।
सेवक-मेरे जाने से उसे रंज तो न होगा?
सोफिया-कदापि नहीं, पापा, इसका विचार ही मन में न लाइए। उसके हृदय में द्वेष और मालिन्य की गंधा तक नहीं है।
दोनों प्राणी सूरदास के पास गए, तो वह मनस्ताप से विकल हो रहा था। मि. सेवक बोले-सूरदास, कैसी तबीयत है?
सूरदास-साहब, सलाम। बहुत अच्छा हूँ। मेरे धान्य भाग। मैं मरते-मरते बड़ा आदमी हो जाऊँगा।
सेवक-नहीं-नहीं सूरदास, ऐसी बातें न करो, तुम बहुत जल्द अच्छे हो जाओगे।
सूरदास-(हँसकर) अब जीकर क्या करूँगा? इस समय मरूँगा, तो बैक्ुं+ठ पाऊँगा, फिर न जाने क्या हो। जैसे खेत कटने का एक समय है, उसी तरह मरने का भी एक समय होता है। पक जाने पर खेत न कटे, तो नाज सड़ जाएगा, मेरी भी वही दशा होगी। मैं भी कई आदमियों को जानता हूँ, जो आज से दस बरस पहले मरते, तो लोग उनका जस गाते, आज उनकी निंदा हो रही है।
सेवक-मेरे हाथों तुम्हारा बड़ा अहित हुआ। इसके लिए मुझे क्षमा करना।
सूरदास-मेरा तो आपने कोई अहित नहीं किया, मुझसे और आपसे दुसमनी ही कौन-सी थी? हम और आप आमने-सामने की पालियों में खेले। आपने भरसक जोर लगाया, मैंने भी भरसक जोर लगाया। जिसको जीतना था, जीता; जिसको हारना था, हारा। खिलाड़ियों में बैर नहीं होता। खेल में रोते तो लड़कों को भी लाज आती है। खेल में चोट लग जाए, चाहे जान निकल जाए; पर बैर-भाव न आना चाहिए। मुझे आपसे कोई शिकायत नहीं है।
सेवक-सूरदास, अगर इस तत्तव को, जीवन के इस रहस्य को, मैं भी तुम्हारी भाँति समझ सकता, तो आज यह नौबत न आती। मुझे याद है, तुमने एक बार मेरे कारखाने को आग से बचाया था। मैं तुम्हारी जगह होता, तो शायद आग में और तेल डाल देता। तुम इस संग्राम में निपुण हो सूरदास, मैं तुम्हारे आगे निरा बालक हूँ। लोकमत के अनुसार मैं जीता और तुम हारे, पर मैं जीतकर भी दुखी हूँ, तुम हारकर भी सुखी हो। तुम्हारे नाम की पूजा हो रही है, मेरी प्रतिमा बनाकर लोग जला रहे हैं। मैं धान, मान, प्रतिष्ठा रखते हुए भी तुमसे सम्मुख होकर न लड़ सका। सरकार की आड़ से लड़ा। मुझे जब अवसर मिला, मैंने तुम्हारे ऊपर कुटिल आघात किया। इसका मुझे खेद है।
मरणासन्न मनुष्य का वे लोग भी स्वच्छंद होकर कीर्ति-गान करते हैं, जिनका जीवन उससे बैर साधाने में ही कटा हो; क्योंकि अब उससे किसी हानि की शंका नहीं होती। सूरदास ने उदार भाव से कहा-नहीं साहब, आपने मेरे साथ कोई अन्याय नहीं किया। धाूर्तता तो निर्बलों का हथियार है। बलवान कभी नीच नहीं होता।
सेवक-हाँ सूरदास, होना वही चाहिए, जो तुम कहते हो; पर ऐसा होता नहीं। मैंने नीति का कभी पालन नहीं किया। मैं संसार को क्रीड़ा-क्षेत्रा नहीं, संग्राम-क्षेत्रा समझता रहा, और युध्द में छल, कपट, गुप्त आघात सभी कुछ किया जाता है। धार्मयुध्द के दिन अब नहीं रहे।
सूरदास ने इसका कुछ उत्तार न दिया। वह सोच रहा था कि मिठुआ की बात साहब से कह दूँ या नहीं। उसने कड़ी कसम रखाई है। पर कह देना ही उचित है। लौंडा हठी और कुचाली है, उस पर घीसू का साथ, कोई-न-कोई अनीति अवश्य करेगा। कसम रखा देने से तो मुझे हत्या लगती नहीं। कहीं कुछ नटखटी कर बैठा तो साहब समझेंगे, अंधो ने मरने के बाद भी बैर निभाया। बोला-साहब, आपसे एक बात कहना चाहता हूँ।
सेवक-कहो, शौक से कहो।
सूरदास ने संक्षिप्त रूप से मिठुआ की अनर्गल बातें मि. सेवक से कह सुनाई और अंत में बोला-मेरी आपसे इतनी ही बिनती है कि उस पर कड़ी निगाह रखिएगा। अगर अवसर पा गया तो चूकनेवाला नहीं है। तब आपको भी उस पर क्रोधा आ ही जाएगा, और आप उसे दंड देने का उपाय सोचेंगे। मैं इन दोनों बातों में से एक भी नहीं चाहता।
सेवक अन्य धानी पुरुषों की भाँति बदमाशों से बहुत डरते थे, सशंक होकर बोले-सूरदास, तुमने मुझे होशियार कर दिया, इसके लिए तुम्हारा कृतज्ञ हूँ। मुझमें और तुममें यही अंतर है। मैं तुम्हें कभी यों सचेत न करता। किसी दूसरे के हाथों तुम्हारी गरदन कटते देखकर भी कदाचित् मेरे मन में दया न आती। कसाई भी सदय और निर्दय हो सकते हैं। हम लोग द्वेष में निर्दय कसाइयों से भी बढ़ जाते हैं। (सोफिया से ऍंगरेजी में) बड़ा सत्यप्रिय आदमी है। कदाचित् संसार ऐसे आदमियों के रहने का स्थान नहीं है। मुझे एक छिपे हुए शत्राु से बचाना अपनार् कत्ताव्य समझता है। यह तो भतीजा है; किंतु पुत्रा की बात होती, तो भी मुझे अवश्य सतर्क कर देता।
सोफिया-मुझे तो अब विश्वास होता है कि शिक्षा धाूर्तों की स्रष्टा है, प्रकृति सत्पुरुषों की।
जॉन सेवक को यह बात कुछ रुचिकर न लगी। शिक्षा की इतनी निंदा उन्हें असह्य थी। बोले-सूरदास, मेरे योग्य कोई और सेवा हो तो बताओ।
सूरदास-कहने की हिम्मत नहीं पड़ती।
सेवक-नहीं-नहीं, जो कुछ कहना चाहते हो, निस्संकोच होकर कहो।
सूरदास-ताहिर अली को फिर नौकर रख लीजिएगा। उनके बाल-बच्चे बड़े कष्ट में हैं।
सेवक-सूरदास, मुझे अत्यंत खेद है कि मैं तुम्हारे आदेश का पालन न कर सकूँगा। किसी नीयत के बुरे आदमी को आश्रय देना मेरे नियम के विरुध्द है। मुझे तुम्हारी बात न मानने का बहुत खेद है; पर यह मेरे जीवन का एक प्रधाान सिध्दांत है, और उसे तोड़ नहीं सकता।
सूरदास-दया कभी नियम-विरुध्द नहीं होती।
सेवक-मैं इतना कर सकता हूँ कि ताहिर अली के बाल-बच्चों का पालन-पोषण करता रहूँ। लेकिन उसे नौकर न रखूँगा।
सूरदास-जैसी आपकी इच्छा। किसी तरह उन गरीबों की परवस्ती होनी चाहिए।
अभी ये बातें हो रही थीं कि रानी जाह्नवी की मोटर आ पहुँची। रानी उतरकर सोफिया के पास आईं और बोलीं-बेटी, क्षमा करना, मुझे बड़ी देर हो गई। तुम घबराईं तो नहीं? भिक्षुकों को भोजन कराकर यहाँ आने को घर से निकली, तो कुँवर साहब आ गए। बातों-बातों में उनसे झड़प हो गई। बुढ़ापे में मनुष्य क्यों इतना मायांधा हो जाता है, यह मेरी समझ में नहीं आता। क्यों मि. सेवक, आपका क्या अनुभव है?
सेवक-मैंने दोनों ही प्रकार के चरित्रा देखे हैं। अगर प्रभु धान को तृण समझता है, तो पिताजी को फीकी चाय, सादी चपातियाँ और धाुँधाली रोशनी पसंद है। इसके प्रतिकूल डॉ. गांगुली हैं कि जिनकी आमदनी खर्च के लिए काफी नहीं होती और राजा महेंद्रकुमार सिंह,जिनके यहाँ धोले तक का हिसाब लिखा जाता है।
यों बातें करते हुए लोग मोटरों की तरफ चले। मि. सेवक तो अपने बँगले पर गए; सोफिया रानी के साथ सेवा-भवन गई।
पाँड़ेपुर में गोरखे अभी तक पड़ाव डाले हुए थे। उनके उपलों के जलने से चारों तरफ धाुऑं छाया हुआ था। उस श्यामावरण में बस्ती के ख्रडहर भयानक मालूम होते थे। यहाँ अब भी दिन में दर्शकों की भीड़ रहती थी। नगर में शायद ही कोई ऐसा आदमी होगा, जो इन दो-तीन दिनों में यहाँ एक बार न आया हो। यह स्थान अब मुसलमानों का शहीदगाह और हिंदुओं की तपोभूमि के सदृश हो गया था। जहाँ विनयसिंह ने अपनी जीवन-लीला समाप्त की थी, वहाँ लोग आते, तो पैर से जूते उतार देते! कुछ भक्तों ने वहाँ पत्रा-पुष्प भी चढ़ा रखे थे। यहाँ की मुख्य वस्तु सूरदास के झोंपड़े के चिह्न थे। फूस के ढेर अभी तक पड़े हुए थे। लोग यहाँ आकर घंटों खड़े रहते और सैनिकों को क्रोधा तथा घृणा की दृष्टि से देखते। इन पिशाचों ने हमारा मानमर्दन किया और अभी तक डटे हुए हैं। अब न जाने, क्या करना चाहते हैं। बजरंगी, ठाकुरदीन, नायकराम, जगधार आदि अब भी अपना अधिाकांश समय यहीं विचरने में व्यतीत करते थे। घर की याद भूलते-भूलते ही भूलती है। कोई अपनी भूली-भटकी चीजें खोजने आता, कोई पत्थर या लकड़ी खरीदने, और बच्चों को तो अपने घरों का चिह्न देखने ही में आनंद आता था। एक पूछता, अच्छा बताओ, हमारा घर कहाँ था? दूसरा कहता, वह जहाँ कुत्ताा लेटा हुआ है। तीसरा कहता, जी, कहीं हो न? वहाँ तो बेचू का घर था। देखते नहीं, यह अमरूद का पेड़ उसी के ऑंगन में था। दूकानदार आदि भी यहीं शाम-सबेरे आते और घंटों सिर झुकाए बैठे रहते, जैसे घरवाले मृत देह के चारोें ओर जमा हो जाते हैं! यह मेरा ऑंगन था, यह मेरा दालान था, यहीं बैठकर तो मैं बही लिखा करता था, अरे मेरी घी की हाँड़ी पड़ी हुई है, कुत्ताों ने मुँह डाल दिया होगा, नहीं तो लेते चलते। कई साल की हाँडी थी। अरे! मेरा पुराना जूता पड़ा हुआ है। पानी में फूलकर कितना बड़ा हो गया है! दो-चार सज्जन भी थे, जो अपने बाप-दादों के गाड़े हुए रुपये खोजने आते थे। जल्दी में उन्हें घर खोदने का अवकाश न मिला था। दादा बंगाल की सारी कमाई अपने सिरहाने गाड़कर मर गए, कभी उसका पता न बताया। कैसी ही गरमी पड़े, कितने ही मच्छर काटें, वह अपनी कोठरी ही में सोते थे। पिताजी खोदते-खोदते रह गए। डरते थे कि कहीं शोर न मच जाए। जल्दी क्या है, घर में ही तो है, जब जी चाहेगा, निकाल लेंगे, मैं यही सोचता रहा। क्या जानता था कि यह आफत आनेवाली है, नहीं तो पहले ही से खोद न लिया होता! अब कहाँ पता मिलता है, जिसके भाग्य का होगा, वह पाएगा। संधया हो गई थी। नायकराम, बजरंगी और उनके अन्य मित्रा आकर एक पेड़ के नीचे बैठ गए। नायकराम-कहो बजरंगी, कहीं कोई घर मिला? बजरंगी-घर नहीं, पत्थर मिला। सहर में रहूँ, तो इतना किराया कहाँ से लाऊँ, घास-चारा कहाँ मिले? इतनी जगह कहाँ मिली जाती है? हाँ, औरों की भाँति दूधा में पानी मिलाने लगूँ, तो गुजर हो सकती है; लेकिन यह करम उम्र-भर नहीं किया, तो अब क्या करूँगा। दिहात में रहता हूँ, तो घर बनवाना पड़ता है; जमींदार को नजर-नजराना न दो, तो जमीन न मिले। एक-एक बिस्वे के दो-दो सौ माँगते हैं। घर बनवाने को अलग हजार रुपये चाहिए। इतने रुपये कहाँ से लाऊँ। जितना मावजा मिला है, उतने में तो एक कोठरी भी नहीं बन सकती। मैं तो सोचता हूँ, जानवरों को बेच डालूँ और यहीं पुतलीघर में मजूरी करूँ। सब झगड़ा ही मिट जाए। तलब तो अच्छी मिलती है। और कहाँ-कहाँ ठिकाना ढूँढ़ते फिरें? जगधार-यही तो मैं भी सोच रहा हूँ, बना-बनाया मकान रहने को मिल जाएगा, पड़े रहेंगे। कहीं घर-बैठे खाने को तो मिलेगा नहीं! दिन-भर खोंचा लिए न फिरे, यहीं मजूरी की। ठाकुरदीन-तुम लोगों से मजूरी हो सकती है, करो; मैं तो चाहे भूखों मर जाऊँ, पर मजूरी नहीं कर सकता। मजूरी सूद्रों का काम है, रोजगार करना बैसों का काम है। अपने हाथ अपना मरतबा क्यों खोएँ, भगवान् कहीं-न-कहीं ठिकाना लगाएँगे ही। यहाँ तो अब कोई मुझे सेंत-मेंत रहने को कहे, तो न रहूँ। बस्ती उजड़ जाती है, तो भूतों का डेरा हो जाता है। देखते नहीं हो, कैसा सियापा छाया हुआ है, नहीं तो इस बेला यहाँ कितना गुलजार रहता था। नायकराम-मुझे क्या सलाह देते हो बजरंगी, दिहात में रहूँ कि सहर में? बजरंगी-भैया, तुम्हारा दिहात में निबाह न होगा। कहीं पीछे हटना ही पड़ेगा। रोज सहर का आना-जाना ठहरा, कितनी जहमत होगी। फिर तुम्हारे जात्राी तुम्हारे साथ दिहात में थोड़े ही जाएँगे। यहाँ से तो सहर इतना दूर नहीं था, इसलिए सब चले आते थे। नायकराम-तुम्हारी क्या है सलाह जगधार? जगधार-भैया, मैं तो सहर में रहने को न कहूँगा। खरच कितना बढ़ जाएगा, मिट्टी भी मोल मिले, पानी के भी दाम दो। चालीस-पचास का तो एक छोटा-सा मकान मिलेगा। तुम्हारे साथ नित्ता दस-बीस आदमी ठहरा चाहें। इसलिए बड़ा घर लेना पड़ेगा। उसका किराया सौ से नीचे न होगा। गायें-भैंसें रखोगे? जात्रिायों को कहाँ ठहराओगे? तुम्हें जितना मावजा मिला है, उतने में तो इतनी जमीन भी न मिलेगी, घर बनवाने को कौन कहे। नायकराम-बोलो भाई बजरंगी, साल के 1200 रुपये किराये के कहाँ से आएँगे? क्या सारी कमाई किराए ही में खरच कर दूँगा? बजरंगी-जमीन तो दिहात में भी मोल लेनी पड़ेगी, सेंत तो मिलेगी नहीं। फिर कौन जाने, किस गाँव में जगह मिले। बहुत-से आस-पास के गाँव तो ऐसे भरे हुए हैं। कि वहाँ अब एक झोंपड़ी भी नहीं बन सकती। किसी के द्वार पर ऑंगन तक नहीं है। फिर मिल गई, तो मकान बनवाने के लिए सारा सामान सहर से ले आना पड़ेगा। उसमें कितना खरच पड़ेगा? नौ की लकड़ी नब्बे खरच। कच्चे मकान बनवाओगे, तो कितनी तकलीफ! टपके, कीचड़ हो, रोज मनों कूड़ा निकले, सातवें दिन लीपने को चाहिए, तुम्हारे घर में कौन लीपनेवाला बैठा हुआ है? तुम्हारा रहा कच्चे मकान में न रहा जाएगा। सहर में आने-जाने के लिए सवारी रखनी पड़ेगी। उसका खरच भी 50 रुपये से नीचे न होगा। तुम कच्चे मकान में तो कभी रहे नहीं। क्या जानो दीमक, कीड़े-मकोड़े, सील, पूरी छीछालेदर होती है। तुम सैरबीन आदमी ठहरे। पान-पत्ताा, साग-भाजी दिहात में कहाँ? मैं तो यही कहूँगा कि दिहात के एक की जगह सहर में दो खरच पड़ें, तब भी तुम सहर ही में रहो। वहाँ हम लोगों से भी भेंट-मुलाकात हो जाएा करेगी। आखिर दूधा-दही लेकर सहर तो रोज जाना ही पड़ेगा। नायकराम-वाह बहादुर, वाह! तुम्हारा जोड़ तो भैरों था, दूसरा कौन तुम्हारे सामने ठहर सकता है? तुम्हारी बात मेरे मन में बैठ गई। बोलो जगधार, इसका कुछ जवाब देते हो तो दो, नहीं तो बजरंगी की डिग्री होती है। सौ रुपये किराया देना मंजूर, यह झंझट कौन सिर पर लेगा! जगधार-भैया, तुम्हारी मरजी है, तो सहर ही में चले जाओ, मैं बजरंगी से लड़ाई थोड़े ही करता हूँ। पर दिहात दिहात ही है, सहर सहर ही! सहर में पानी तक तो अच्छा नहीं मिलता। वही बम्बे का पानी पियो, धारम जाए और कुछ स्वाद भी न मिले! ठाकुरदीन-अंधाा आगमजानी था। जानता था कि एक दिन यह पुतलीघर हम लोगों को बनवास देगा, जान तक गँवाई, पर अपनी जमीन दी। हम लोग इस किरंटे के चकमों में आकर उसका साथ न छोड़ते, तो साहब लाख सिर पटककर मर जाते, एक न चलती। नायकराम-अब उसके बचने की कोई आसा नहीं मालूम होती। आज मैं गया था। बुरा हाल था। कहते हैं, रात को होस में था। जॉन सेवक साहब और राजा साहब से देर तक बातें कीं, मिठुआ से भी बातें कीं। सब लोग सोच रहे थे, अब बच जाएगा। सिविलसारजंट ने मुझसे खुद कहा, अंधो की जान का कोई खटका नहीं है। पर सूरदास यही कहता रहा कि आपको मेरी जो साँसत करनी है, कर लीजिए, मैं बचूँगा नहीं। आज बोल-चाल बंद है। मिठुआ बड़ा कपूत निकल गया। उसी की कपूती ने अंधो की जान ली। दिल टूट गया, नहीं तो अभी कुछ दिन और चलता। ऐसे बीर बिरले ही कहीं होते हैं। आदमी नहीं था, देवता था। बजरंगी-सच कहते हो भैया, आदमी नहीं था, देवता था। ऐसा सेर आदमी कहीं नहीं देखा। सच्चाई के सामने किसी की परवा नहीं की, चाहे कोई अपने घर का लाट ही क्यों न हो। घीसू के पीछे मैं उससे बिगड़ गया था, पर अब जो सोचता हूँ, तो मालूम होता है कि सूरदास ने कोई अन्याय नहीं किया। कोई बदमास हमारी ही बहू-बेटी को बुरी निगाह से देखे, तो बुरा लगेगा कि नहीं? उसके खून के प्यासे हो जाएँगे, घात पाएँगे, तो सिर उतार लेंगे। अगर सूरे ने हमारे साथ वही बरताव किया, तो क्या बुराई की! घीसू का चलन बिगड़ गया था। सजा न पा जाता, तो न जाने क्या ऍंधोर करता। ठाकुरदीन-अब तक या तो उसी की जान पर बन गई होती, या दूसरों की। जगधार-चौधारी, घर-गाँव में इतनी सच्चाई नहीं बरती जाती। अगर सच्चाई से किसी का नुकसान होता हो, तो उस पर परदा डाल दिया जाता है। सूरे में और सब बातें अच्छी थीं, बस इतनी ही बुरी थी। ठाकुरदीन-देखो जगधार, सूरदास यहाँ नहीं है, किसी के पीठ-पीछे निंदा नहीं करनी चाहिए। निंदा करनेवाले की तो बात ही क्या, सुननेवालों को भी पाप लगता है। न जाने पूरब जनम में कौन-सा पाप किया था, सारा जमा-जथा चोर मूस ले गए, यह पाप अब न करूँगा। बजरंगी-हाँ, जगधार, यह बात अच्छी नहीं। मेरे ऊपर भी तो वही पड़ी है, जो तुम्हारे ऊपर पड़ी; लेकिन सूरदास की बदगोई नहीं सुन सकता। ठाकुरदीन-इनकी बहू-बेटी को कोई घूरता, तो ऐसी बातें न करते। जगधार-बहू-बेटी की बात और है, हरजाइयों की बात और। ठाकुरदीन-बस, अब चुप ही रहना जगधार! तुम्हीं एक बार सुभागी की सफाई करते फिरते थे, आज हरजाई कहते हो। लाज भी नहीं आती? नायकराम-यह आदत बहुत खराब है। बजरंगी-चाँद पर थूकने से थूक अपने ही मुँह पर पड़ता है। जगधार-अरे, तो मैं सूरे की निंदा थोड़े ही कर रहा हूँ। दिल दुखता है, तो बात मुँह से निकल ही आती है। तुम्हीं सोचो, विद्याधार अब किस काम का रहा? पढ़ाना-लिखाना सब मिट्टी में मिला कि नहीं? अब न सरकार में नौकरी मिलेगी, न कोई दूसरा रखेगा। उसकी तो जिंदगानी खराब हो गई। बस; यही दु:ख है, नहीं तो सूरदास का-सा आदमी कोई क्या होगा। नायकराम-हाँ, इतना मैं भी मानता हूँ कि उसकी जिंदगानी खराब हो गई। जिस सच्चाई में किसी का अनभल होता हो, उसका मुँह से न निकलना ही अच्छा। लेकिन सूरदास को सब कुछ माफ है। ठाकुरदीन-सूरदास ने इलम तो नहीं छीन लिया? जगधार-यह इलम किस काम का, जब नौकरी-चाकरी न कर सके। धारम की बात होती, तो यों भी काम देती। यह विद्या हमारे किस काम आवेगी? नायकराम-अच्छा, यह बताओ कि सूरदास मर गए, तो गंगा नहाने चलोगे कि नहीं? जगधार-गंगा नहाने क्यों नहीं चलूँगा! सबके पहले चलूँगा। कंधाा तो आदमी बैरी को भी दे देता है, सूरदास हमारे बैरी नहीं थे। जब उन्होंने मिठुआ को नहीं छोड़ा, जिसे बेटे की तरह पाला, तो दूसरों की बात ही क्या। मिठुआ क्या, वह अपने खास बेटे को न छोड़ते। नायकराम-चलो, देख आएँ। चारो आदमी सूरदास को देखने चले।
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