एक जीभ चार जबान
वाणी सामान्य अर्थों में वह कही जाती है जो जिह्वा से कही और कानों से सुनी जाये। इसका एक स्वरूप लेखन और वाचन भी हो सकता है।
यह स्थूल वाणी है जो विचारों के आदान-प्रदान में काम आती है। इस माध्यम से अपनी मान्यताओं एवं इच्छाओं परिस्थितियों को प्रकट किया जाता है।
मध्यमा वाणी वह है जिसमें शब्दों का उच्चारण तो नहीं होता पर संकेतों से अभिप्राय प्रकट होता है। चेहरा एक प्रकार का दर्पण माना गया है। उस पर विचारणायें दौड़ती और भावनाएँ छाई रहती हैं।
उन्हें पढ़ा जा सकता है और मनःस्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है। हाथों की मुद्रायें भी कुछ सामान्य संकेत करती हैं।
उनके माध्यम से अभिप्राय प्रकट किया जा सकता है। भावना की अभिव्यक्ति तो आँखें और होठों के माध्यम से ही प्रधानतया होती है। इस प्रकार से अभिप्राय प्रकट करने वाली मध्यमा वाणी में कुछ कहने-सुनने की आवश्यकता नहीं पड़ती तो भी व्यक्ति एक दूसरे की मनःस्थिति से अवगत होते रहते हैं। विशेषतया भावनाओं और आकाँक्षाओं का प्रकटीकरण तो सहज ही हो जाता है।
पर वाणी वह है जो विचारों के रूप में मस्तिष्क में चलती रहती है। इसका प्रत्यक्ष प्रकटीकरण तो मुखाकृति से भी नगण्य होता है, पर उसका प्रभाव दूसरों पर पड़ने में कमी नहीं आती। विचार प्रवाह एक सीमित क्षेत्र पर धूप की तरह फैला रहता है। उसका प्रभाव काम करता है। धूप और छाया के मध्य जो अन्तर पाया जाता है।
वही भले-बुरे विचारों का होता है। सत्संग और कुसंग में आवश्यक नहीं कि वार्तालाप द्वारा ही सब कुछ कहा सुना जाये। विचारों की विद्युतीय तरंगें समीपवर्ती लोगों तक पहुँचती हैं और उन्हें परोक्ष रूप से अपनी प्रेरणा से अवगत एवं प्रभावित करती रहती हैं। इसमें अधिक मनस्वी दुर्बल मन वाले को परास्त करके अपना आधिपत्य जमा लेता है।
ऋषियों के आश्रमों में सिंह भी गायों के साथ पानी पिया करते थे। इसमें सिद्ध हुआ कि ऋषि की प्रभाव प्रेरणा ने सिंह के स्वभाव को दबोच लिया और उसे वैसा ही व्यवहार करना पड़ा जैसा कि प्रेरणा पुँज द्वारा उसे निर्देशन दिया गया था।
उपरोक्त वाणियों में एक से दूसरी का और दूसरी से तीसरी का अधिकाधिक प्रभाव होता है। क्योंकि उनके साथ अधिक ऊर्जा का समावेश होता है। धनुष की प्रत्यंचा को जितना पीछे खींचा जाता है उसी अनुपात से तीर में दूर तक जाने और गहरा घाव करने की सामर्थ्य होती है।
मुख से मनुष्य ऐसे ही बेकार बकवास में अधिक शक्ति व्यय करता है। मखौलबाजी चलती रहती है। भीतर जो है उसके विपरीत भी शब्दाडम्बर प्रकट किया जाता रहता है। विशेषतया धर्म, आदर्श, कर्त्तव्य, दर्शन आदि के प्रवचन करने वाले लोग ऐसे होते हैं, जो दूसरों को सदुपयोग देने में अपनी प्रवीणता प्रकट करते हैं।
कथन को लच्छेदार शब्दों में गूंथ कर ऐसा बना देते हैं जो कानों को सरस लगे। इतने पर भी श्रवण कर्ताओं पर उसका कोई कारगर प्रभाव नहीं पड़ता। क्योंकि उसके पीछे आन्तरिक विश्वासों की आस्था एवं निष्ठा का पुट नहीं रहता। हाथी का चित्र सुहावना तो लगता है, पर उसमें इतनी शक्ति नहीं होती हैं कि वजन उठाये या किसी को अपनी पीठ पर बिठाये।
आन्तरिक भावनाओं का समावेश मध्यमा में होता है। दर्शक सूक्ष्मदर्शी है तो ही चेहरा पढ़ सकता है और उसके सूक्ष्म उतार-चढ़ावों को समझ सकता है। अन्यथा मन्दबुद्धि लोग भूल भी कर सकते हैं। अपनी मनोवृत्ति के अनुरूप दूसरों की भावनाओं का अर्थ लगा सकते हैं। वाणी और मुद्रा की परिधि सीमित है।
कान अपनी सामर्थ्य की दूरी से शब्द सुनते और आँखों की शक्ति आकृति के ऊपर छाई हुई अभिव्यंजना को देख सकती है।मध्यमा द्वारा निसृत होने वाली विचार तरंगें काफी दूर तक जाती हैं। यह चिन्तक के व्यक्तित्व और प्राण प्रवाह पर निर्भर है कि वह कितनी दूर तक पहुँचे और कितना प्रभाव उत्पन्न करे।
इस सम्बन्ध में एक बात और भी है कि समान विचार के लोग परस्पर सरलता पूर्वक आदान-प्रदान कर लेते हैं जबकि प्रतिकूल स्तर के साथ वे टकराकर छितरा जाते हैं और अस्वीकृत तिरष्कृत होने पर वापस लौट जाते हैं। विश्वामित्र मनस्वी थे। उनके स्वप्न दर्शन का हरिश्चंद्र पर इतना प्रभाव पड़ा कि अपना राजपाट, शरीर परिवार दान देने के लिए तैयार हो गया।
किन्तु ताड़का, सुबाहु, मारीच उनकी इच्छा के विपरीत यज्ञ में विघ्न ही डालते रहे। उनसे निपटने के लिए राम-लक्ष्मण को बुलाना पड़ा। कुश्ती का पहलवान अपने क्षेत्र में बाजी जीतता है, पर क्रिकेट से अनभ्यस्त होने पर हार जाता है।
चौथी वाणी पश्यन्ती है। इसमें उपरोक्त तीन वाणियों की तरह न्यूनाधिक मात्रा में भी शब्दों का प्रयोग नहीं करना पड़ता। वरन् इसे जागृत करने के लिए मौन रहने का अभ्यास करना पड़ता है ताकि इस क्षमता को पूरी तरह संग्रहित करके रखा जा सके।
मौन में शक्ति की बचत सबसे अधिक होती है। मनुष्य की प्राण शक्ति निरन्तर वार्त्तालाप करने में बहुत अधिक खर्च हो जाती है। ऐसी दशा में उसके दूरगामी परिणाम उत्पन्न करने जैसी क्षमता शेष नहीं रहती। वाचाल व्यक्ति दूसरों को उच्च प्रयोजनों के लिए प्रभावित नहीं कर सकता।
पश्यन्ती वाणी का भण्डार भरने के लिए साधक को ने केवल अधिक समय मौन रहना पड़ता है, वरन् उसे अपने शारीरिक, मानसिक दोष-दुर्गुणों को निराकरण करते हुए सर्वतोमुखी पवित्रता अर्जित करनी पड़ती है।
पश्यन्ती वाणी यदि सामान्य क्षमता की ही हो तो आने संकल्प बल से समीपवर्ती वातावरण में सद्विचारों का संचार कर सकती है। गिरों को उठा सकती है और उठों को बढ़ा सकती है। उसे कुछ कहने की आवश्यकता नहीं पड़ती। उसका कथन संकल्पमय हो जाता है।
अस्तु अनेकों को श्रेय पथ पर घसीट ले जाने की उसकी क्षमता काम करने लगती है। अरविन्द रमण जैसे आत्मबल के धनी लोगों ने अपने समय का वातावरण बदल देने में असाधारण स्तर की सफलता पाई थी। गाँधी और बुद्ध प्रभावशाली वक्ताओं में नहीं गिने जाते थे फिर भी उनकी सामान्य वाणी के सामान्य परामर्शों ने अनेकों कठिन मार्ग पर चलने के लिए कितने ही सामान्यजनों को दुस्साहस कर गुजरने के लिए सहमत कर लिया।
पश्यन्ती वाणी अत्यन्त ओजमय होती है। वह सीमित क्षेत्र में अवरुद्ध नहीं रहती। वरन् उसका प्रभाव दूरगामी और अत्यन्त प्रभावी होता है। व्यापक जन मानस का प्रवाह परिवर्तन करने में बैखरी वाणी काम नहीं आती।
वक्ता प्रचारक बहुत कुछ कहते रहते हैं, किन्तु उनके कथन का प्रभाव सीमित ही होता है किन्तु पश्यन्ती वाणी बिना एक शब्द कहे ही अनेकों को अनुगमन करने के लिए प्रेरित करने में सफल होती देखी गई है।
पश्यन्ती वाणी को उभारने में मौन के अतिरिक्त यह भी आवश्यक है कि चरित्र और लक्ष्य ऊँचा रहे। आहार और दिनचर्या में उत्कृष्टता का स्तर गिरने न पाये।
पश्यन्ती का उद्गम अन्तःकरण है जिसमें से प्रभावशाली प्रवाह उद्भूत करने के लिए यह आवश्यक है कि स्थूल शरीर के क्रिया-कलाप, सूक्ष्म शरीर के चिन्तन और कारण शरीर के सद्भाव उच्चकोटि के रहें। इन सब की संयुक्त उत्कृष्टता ही पश्यन्ती वाणी का निर्माण करती है।
वह इतनी प्रचण्ड हो सकती है कि अनाचार से लोहा ले सके और सत्प्रवृत्तियां दूरगामी क्षेत्र में सफल बनाने की भूमिका निभा सकें।
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