ऐसी गलत फहमी जिसने बहुतों को अंधेरे मे रखा है
अाज के युग मे ऐसे बहुत से धनपशु देखने को मिल जाते हैं जो अपने द्वारा कमाए हुये धन के जोर से अपना परलोक सुधारना चाहते हैं ! लेकिन वे भूल जाते हैं कि अगर उनके कमाए हुये धन मे थोड़ा सा भी हिस्सा अनैतिक होगा तो उस धन से किया गया कोई बढ़िया काम, भी उन्हें उस पाप के दंड से नही बचा सकता है और हर हाल मे उन्हें उस पाप का निश्चित प्रायश्चित करना ही पड़ेगा !
इसी सत्य को वर्णित करती है ब्रह्म पुराण मे दी गयी यह घटना –
एक समय कांचीपुर नामक गांव में वज्र नाम का एक चोर रहता था। चोर नाम के भांति ही वज्र ह्रदय का था। उसे जिसका जो मिलता चुरा लेता। उसे तनिक भी दया नहीं आती थी कि उस सामान के स्वामी को कितना कष्ट होगा !
वह चुराए हुए धन को सिपाहियों के भय से जंगल में जमीन के अंदर छुपा देता था !
एक रात विरदत्त नाम के लकड़हारे ने ये घटना देख ली। और चोर के जाने के पश्चात जमीन खोद कर उसके चुराए हुए धन का दसवां हिस्सा निकाल लिया और गड्ढे को पहले की भांति ढक दिया।
लकड़हारा इतनी चालाकी से सामान निकलता की चोर को इस चोरी का पता ही नहीं चल पता था।
एक दिन लकड़हारा अपनी पत्नी को धन देते हुए बोला, कि तुम रोज धन माँगा करती थी, लो आज पर्याप्त धन इक्कठा हो गया है।
उसकी पत्नी ने कहा, जो धन अपने परिश्रम से उपार्जित न किया गया हो वह स्थाई नहीं होता है। इसलिए इस धन को जनता की भलाई में लगा दीजिये।
विरदत्त को भी ये बात जच गयी !
इसलिए उसने इस धन से एक बहुत बड़ा तालाब खुदवाया जिसका पानी कभी भी नहीं सूखता था।
लेकिन इसमें सीढ़िया लगनी रह गयी थी और सारे पैसे समाप्त हो गये थे। तो वह फिर से छिपकर चोर का अनुसरण करने लगा की वह धन कहा छुपाता है। इसके बाद फिर उससे दसवां हिस्सा निकाल कर तालाब का काम पूरा करवाया !
तथा उसने भगवान शंकर और भगवान विष्णु के भव्य मंदिर बनवाए। बंजर जमीन पर खेत बनवाये और गरीबों में वितरित कर दिया। गरीबों ने उसकी सेवा से प्रसन्न होकर उसका नाम द्विजवर्मा रखा ।
जब द्विजवर्मा की मृत्यु हुई तब एक ओर से यमदूत आये और एक ओर से भगवान शंकर के गण आये। उनमे आपस में विवाद होने लगा इसी बीच वहां नारद जी पधारे।
नारद जी ने उनको समझाया, आप विवाद न करें इस लकड़हारे ने चोरी के धन से परोपकार के कामों को कराया है इसलिए जब तक यह कुमार्ग से अर्जित धन का प्रायश्चित नहीं कर लेता तब तक वायु रूप में अंतरिक्ष में विचरण करता रहेगा।
नारद जी की बात सुनकर सभी दूत वापस लौट गए तथा द्विजवर्मा बारह वर्षों तक प्रेत बनकर घूमता रहा।
नारद जी ने लकड़हारे की पत्नी से कहा, तुम ने अपने पति को सदमार्ग दिखाया इसलिए तुम ब्रम्ह्लोक जाओगी।
लेकिन लकड़हारे की पत्नी अपने पति के दुःख से दुखी थी। वह देवर्षि से बोली, जब तक मेरे पति को देह नहीं मिलती तब तक मैं यही रहूंगी। जो गति मेरे पति की हुई वही गति मैं भी चाहती हूँ !
ये बातें सुनकर देवर्षि बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने बताया की तुम अपने पति की मुक्ति के लिए शिव की आराधना करो।
उसने अपने पति की मुक्ति के लिए अथक मेहनत से भगवान शिव की आराधना की।
इससे उसके पति के चोरी का सारा पाप धूल गया। फिर दोनों पति पत्नी को उत्तम लोक मिला।
इस पौराणिक सत्य कथा का निष्कर्ष यही है की कोई भला काम करने का अच्छा फल जरूर मिलता है लेकिन कोई भला काम करने के लिए कभी किसी गलत काम का सहारा नही लेना चाहिए अन्यथा उस गलत काम का भी दंड जिंदा रहते या मरने के बाद जरूर भुगतना पड़ता है !
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