कविताएँ – कर्म सर्ग – कामायनी (लेखक – जयशंकर प्रसाद )

1jpdभाग-1

कर्मसूत्र – संकेत सदृश थी

 

सोम लता तब मनु को

 

चढ़ी शिज़नी सी, खींचा फिर

 

उसने जीवन धनु को।

 

 

हुए अग्रसर से मार्ग में

 

छुटे-तीर-से-फिर वे,

 

यज्ञ-यज्ञ की कटु पुकार से

 

रह न सके अब थिर वे।

 

 

भरा कान में कथन काम का

 

मन में नव अभिलाषा,

 

लगे सोचने मनु-अतिरंज़ित

 

उमड़ रही थी आशा।

 

 

ललक रही थी ललित लालसा

 

सोमपान की प्यासी,

 

जीवन के उस दीन विभव में

 

जैसे बनी उदासी।

 

 

जीवन की अभिराम साधना

 

भर उत्साह खड़ी थी,

 

ज्यों प्रतिकूल पवन में

 

तरणी गहरे लौट पड़ी थी।

 

 

श्रद्धा के उत्साह वचन,

 

फिर काम प्रेरणा-मिल के

 

भ्रांत अर्थ बन आगे आये

 

बने ताड़ थे तिल के।

 

 

बन जाता सिद्धांत प्रथम

 

फिर पुष्टि हुआ करती है,

 

बुद्धि उसी ‌‌ऋण को सबसे

 

ले सदा भरा करती है।

 

 

मन जब निश्चित सा कर लेता

 

कोई मत है अपना,

 

बुद्धि दैव-बल से प्रमाण का

 

सतत निरखता सपना।

 

 

पवन वही हिलकोर उठाता

 

वही तरलता जल में।

 

वही प्रतिध्वनि अंतर तम की

 

छा जाती नभ थल में।

 

 

सदा समर्थन करती उसकी

 

तर्कशास्त्र की पीढ़ी

 

“ठीक यही है सत्य!

 

यही है उन्नति सुख की सीढ़ी।

 

 

और सत्य ! यह एक शब्द

 

तू कितना गहन हुआ है?

 

मेघा के क्रीड़ा-पंज़र का

 

पाला हुआ सुआ है।

 

 

सब बातों में ख़ोज़ तुम्हारी

 

रट-सी लगी हुई है,

 

किन्तु स्पर्श से तर्क-करो

 

कि बनता ‘छुईमुई’ है।

 

 

असुर पुरोहित उस विपल्व से

 

बचकर भटक रहे थे,

 

वे किलात-आकुलि थे

 

जिसने कष्ट अनेक सहे थे।

 

 

देख-देख कर मनु का पशु,

 

जो व्याकुल चंचल रहती-

 

उनकी आमिष-लोलुप-रसना

 

आँखों से कुछ कहती।

 

 

‘क्यों किलात ! खाते-खाते तृण

 

और कहाँ तक जीऊँ,

 

कब तक मैं देखूँ जीवित

 

पशु घूँट लहू का पीऊँ ?

 

 

क्या कोई इसका उपाय

 

ही नहीं कि इसको खाऊँ?

 

बहुत दिनों पर एक बार तो

 

सुख की बीन बज़ाऊँ।’

 

 

आकुलि ने तब कहा-

 

‘देखते नहीं साथ में उसके

 

एक मृदुलता की, ममता की

 

छाया रहती हँस के।

 

 

अंधकार को दूर भगाती वह

 

आलोक किरण-सी,

 

मेरी माया बिंध जाती है

 

जिससे हलके घन-सी।

 

 

तो भी चलो आज़ कुछ

 

करके तब मैं स्वस्थ रहूँगा,

 

या जो भी आवेंगे सुख-दुख

 

उनको सहज़ सहूँगा।’

 

 

यों हीं दोनों कर विचार

 

उस कुंज़ द्वार पर आये,

 

जहाँ सोचते थे मनु बैठे

 

मन से ध्यान लगाये।

 

 

“कर्म-यज्ञ से जीवन के

 

सपनों का स्वर्ग मिलेगा,

 

इसी विपिन में मानस की

 

आशा का कुसुम खिलेगा।

 

 

किंतु बनेगा कौन पुरोहित

 

अब यह प्रश्न नया है,

 

किस विधान से करूँ यज्ञ

 

यह पथ किस ओर गया है?

 

 

श्रद्धा पुण्य-प्राप्य है मेरी

 

वह अनंत अभिलाषा,

 

फिर इस निर्ज़न में खोज़े

 

अब किसको मेरी आशा।

 

 

कहा असुर मित्रों ने अपना

 

मुख गंभीर बनाये-

 

जिनके लिये यज्ञ होगा

 

हम उनके भेजे आये।

 

 

यज़न करोगे क्या तुम?

 

फिर यह किसको खोज़ रहे हो?

 

अरे पुरोहित की आशा में

 

कितने कष्ट सहे हो।

 

 

इस जगती के प्रतिनिधि

 

जिनसे प्रकट निशीथ सवेरा-

 

“मित्र-वरुण जिनकी छाया है

 

यह आलोक-अँधेरा।

 

 

वे पथ-दर्शक हों सब

 

विधि पूरी होगी मेरी,

 

चलो आज़ फिर से वेदी पर

 

हो ज्वाला की फेरी।”

 

 

“परंपरागत कर्मों की वे

 

कितनी सुंदर लड़ियाँ,

 

जिनमें-साधन की उलझी हैं

 

जिसमें सुख की घड़ियाँ,

 

 

जिनमें है प्रेरणामयी-सी

 

संचित कितनी कृतियाँ,

 

पुलकभरी सुख देने वाली

 

बन कर मादक स्मृतियाँ।

 

 

साधारण से कुछ अतिरंजित

 

गति में मधुर त्वरा-सी

 

उत्सव-लीला, निर्ज़नता की

 

जिससे कटे उदासी।

 

 

एक विशेष प्रकार का कुतूहल

 

होगा श्रद्धा को भी।”

 

प्रसन्नता से नाच उठा

 

मन नूतनता का लोभी।

 

 

यज्ञ समाप्त हो चुका तो भी

 

धधक रही थी ज्वाला,

 

दारुण-दृश्य रुधिर के छींटे

 

अस्थि खंड की माला।

 

 

 

वेदी की निर्मम-प्रसन्नता,

 

पशु की कातर वाणी,

 

सोम-पात्र भी भरा,

 

धरा था पुरोडाश भी आगे।

 

 

“जिसका था उल्लास निरखना

 

वही अलग जा बैठी,

 

यह सब क्यों फिर दृप्त वासना

 

लगी गरज़ने ऐंठी।

 

 

जिसमें जीवन का संचित

 

सुख सुंदर मूर्त बना है,

 

हृदय खोलकर कैसे उसको

 

कहूँ कि वह अपना है।

 

 

वही प्रसन्न नहीं रहस्य कुछ

 

इसमें सुनिहित होगा,

 

आज़ वही पशु मर कर भी

 

क्या सुख में बाधक होगा।

 

 

श्रद्धा रूठ गयी तो फिर

 

क्या उसे मनाना होगा,

 

या वह स्वंय मान जायेगी,

 

किस पथ जाना होगा।”

 

 

 

पुरोडाश के साथ सोम का

 

पान लगे मनु करने,

 

लगे प्राण के रिक्त अंश को

 

मादकता से भरने।

 

 

संध्या की धूसर छाया में

 

शैल श्रृंग की रेखा,

 

अंकित थी दिगंत अंबर में

 

लिये मलिन शशि-लेखा।

 

 

श्रद्धा अपनी शयन-गुहा में

 

दुखी लौट कर आयी,

 

एक विरक्ति-बोझ सी ढोती

 

मन ही मन बिलखायी।

 

 

सूखी काष्ठ संधि में पतली

 

अनल शिखा जलती थी,

 

उस धुँधले गुह में आभा से,

 

तामस को छलती सी।

 

 

किंतु कभी बुझ जाती पाकर

 

शीत पवन के झोंके,

 

कभी उसी से जल उठती

 

तब कौन उसे फिर रोके?

 

 

कामायनी पड़ी थी अपना

 

कोमल चर्म बिछा के,

 

श्रम मानो विश्राम कर रहा

 

मृदु आलस को पा के।

 

 

धीरे-धीरे जगत चल रहा

 

अपने उस ऋज़ुपथ में,

 

धीरे-धीर खिलते तारे

 

मृग जुतते विधुरथ में।

 

 

अंचल लटकाती निशीथिनी

 

अपना ज्योत्स्ना-शाली,

 

जिसकी छाया में सुख पावे

 

सृष्टि वेदना वाली।

 

 

उच्च शैल-शिखरों पर हँसती

 

प्रकृति चंचल बाला,

 

धवल हँसी बिखराती

 

अपना फैला मधुर उजाला।

 

 

जीवन की उद्धाम लालसा

 

उलझी जिसमें व्रीड़ा,

 

एक तीव्र उन्माद और

 

मन मथने वाली पीड़ा।

 

 

मधुर विरक्ति-भरी आकुलता,

 

घिरती हृदय- गगन में,

 

अंतर्दाह स्नेह का तब भी

 

होता था उस मन में।

 

 

वे असहाय नयन थे

 

खुलते-मुँदते भीषणता में,

 

आज़ स्नेह का पात्र खड़ा था

 

स्पष्ट कुटिल कटुता में।

 

 

“कितना दुख जिसे मैं चाहूँ

 

वह कुछ और बना हो,

 

मेरा मानस-चित्र खींचना

 

सुंदर सा सपना हो।

 

 

जाग उठी है दारुण-ज्वाला

 

इस अनंत मधुबन में,

 

कैसे बुझे कौन कह देगा

 

इस नीरव निर्ज़न में?

 

 

यह अंनत अवकाश नीड़-सा

 

जिसका व्यथित बसेरा,

 

वही वेदना सज़ग पलक में

 

भर कर अलस सवेरा।

 

 

काँप रहें हैं चरण पवन के,

 

विस्तृत नीरवता सी-

 

धुली जा रही है दिशि-दिशि की

 

नभ में मलिन उदासी।

 

 

अंतरतम की प्यास

 

विकलता से लिपटी बढ़ती है,

 

युग-युग की असफलता का

 

अवलंबन ले चढ़ती है।

 

 

विश्व विपुल-आंतक-त्रस्त है

 

अपने ताप विषम से,

 

फैल रही है घनी नीलिमा

 

अंतर्दाह परम-से।

 

 

उद्वेलित है उदधि,

 

लहरियाँ लौट रहीं व्याकुल सी

 

चक्रवाल की धुँधली रेखा

 

मानों जाती झुलसी।

 

 

सघन घूम कुँड़ल में

 

कैसी नाच रही ये ज्वाला,

 

तिमिर फणी पहने है

 

मानों अपने मणि की माला।

 

 

 

जगती तल का सारा क्रदंन

 

यह विषमयी विषमता,

 

चुभने वाला अंतरग छल

 

अति दारुण निर्ममता।

 

 

 

भाग-2

 

जीवन के वे निष्ठुर दंशन

 

जिनकी आतुर पीड़ा,

 

कलुष-चक्र सी नाच रही है

 

बन आँखों की क्रीड़ा।

 

 

स्खलन चेतना के कौशल का

 

भूल जिसे कहते हैं,

 

एक बिंदु जिसमें विषाद के

 

नद उमड़े रहते हैं।

 

 

आह वही अपराध,

 

जगत की दुर्बलता की माया,

 

धरणी की वर्ज़ित मादकता,

 

संचित तम की छाया।

 

 

नील-गरल से भरा हुआ

 

यह चंद्र-कपाल लिये हो,

 

इन्हीं निमीलित ताराओं में

 

कितनी शांति पिये हो।

 

 

अखिल विश्च का विष पीते हो

 

सृष्टि जियेगी फिर से,

 

कहो अमरता शीतलता इतनी

 

आती तुम्हें किधर से?

 

 

अचल अनंत नील लहरों पर

 

बैठे आसन मारे,

 

देव! कौन तुम,

 

झरते तन से श्रमकण से ये तारे

 

 

इन चरणों में कर्म-कुसुम की

 

अंजलि वे दे सकते,

 

चले आ रहे छायापथ में

 

लोक-पथिक जो थकते,

 

 

किंतु कहाँ वह दुर्लभ उनको

 

स्वीकृति मिली तुम्हारी

 

लौटाये जाते वे असफल

 

जैसे नित्य भिखारी।

 

 

प्रखर विनाशशील नर्त्तन में

 

विपुल विश्व की माया,

 

क्षण-क्षण होती प्रकट

 

नवीना बनकर उसकी काया।

 

 

सदा पूर्णता पाने को

 

सब भूल किया करते क्या?

 

जीवन में यौवन लाने को

 

जी-जी कर मरते क्या?

 

 

यह व्यापार महा-गतिशाली

 

कहीं नहीं बसता क्या?

 

क्षणिक विनाशों में स्थिर मंगल

 

चुपके से हँसता क्या?

 

 

यह विराग संबंध हृदय का

 

कैसी यह मानवता!

 

प्राणी को प्राणी के प्रति

 

बस बची रही निर्ममता

 

 

जीवन का संतोष अन्य का

 

रोदन बन हँसता क्यों?

 

एक-एक विश्राम प्रगति को

 

परिकर सा कसता क्यों?

 

 

दुर्व्यवहार एक का

 

कैसे अन्य भूल जावेगा,

 

कौ उपाय गरल को कैसे

 

अमृत बना पावेगा”

 

 

जाग उठी थी तरल वासना

 

मिली रही मादकता,

 

मनु क कौन वहाँ आने से

 

भला रोक अब सकता।

 

 

खुले मृषण भुज़-मूलों से

 

वह आमंत्रण थ मिलता,

 

उन्नत वक्षों में आलिंगन-सुख

 

लहरों-सा तिरता।

 

 

नीचा हो उठता जो

 

धीमे-धीमे निस्वासों में,

 

जीवन का ज्यों ज्वार उठ रहा

 

हिमकर के हासों में।

 

 

जागृत था सौंदर्य यद्यपि

 

वह सोती थी सुकुमारी

 

रूप-चंद्रिका में उज्ज़वल थी

 

आज़ निशा-सी नारी।

 

 

वे मांसल परमाणु किरण से

 

विद्युत थे बिखराते,

 

अलकों की डोरी में जीवन

 

कण-कण उलझे जाते।

 

 

विगत विचारों के श्रम-सीकर

 

बने हुए थे मोती,

 

मुख मंडल पर करुण कल्पना

 

उनको रही पिरोती।

 

 

छूते थे मनु और कटंकित

 

होती थी वह बेली,

 

स्वस्थ-व्यथा की लहरों-सी

 

जो अंग लता सी फैली।

 

 

वह पागल सुख इस जगती का

 

आज़ विराट बना था,

 

अंधकार- मिश्रित प्रकाश का

 

एक वितान तना था।

 

 

कामायनी जगी थी कुछ-कुछ

 

खोकर सब चेतनता,

 

मनोभाव आकार स्वयं हो

 

रहा बिगड़ता बनता।

 

 

जिसके हृदय सदा समीप है

 

वही दूर जाता है,

 

और क्रोध होता उस पर ही

 

जिससे कुछ नाता है।

 

 

प्रिय कि ठुकरा कर भी

 

मन की माया उलझा लेती,

 

प्रणय-शिला प्रत्यावर्त्तन में

 

उसको लौटा देती।

 

 

जलदागम-मारुत से कंपित

 

पल्लव सदृश हथेली,

 

श्रद्धा की, धीरे से मनु ने

 

अपने कर में ले ली।

 

 

अनुनय वाणी में,

 

आँखों में उपालंभ की छाया,

 

कहने लगे- “अरे यह कैसी

 

मानवती की माया।

 

 

स्वर्ग बनाया है जो मैंने

 

उसे न विफल बनाओ,

 

अरी अप्सरे! उस अतीत के

 

नूतन गान सुनाओ।

 

 

इस निर्ज़न में ज्योत्स्ना-पुलकित

 

विद्युत नभ के नीचे,

 

केवल हम तुम, और कौन?

 

रहो न आँखे मींचे।

 

 

आकर्षण से भरा विश्व यह

 

केवल भोग्य हमारा,

 

जीवन के दोनों कूलों में

 

बहे वासना धारा।

 

 

श्रम की, इस अभाव की जगती

 

उसकी सब आकुलता,

 

जिस क्षण भूल सकें हम

 

अपनी यह भीषण चेतनता।

 

 

वही स्वर्ग की बन अनंतता

 

मुसक्याता रहता है,

 

दो बूँदों में जीवन का

 

रस लो बरबस बहता है।

 

 

देवों को अर्पित मधु-मिश्रित

 

सोम, अधर से छू लो,

 

मादकता दोला पर प्रेयसी!

 

आओ मिलकर झूलो।”

 

 

श्रद्धा जाग रही थी

 

तब भी छाई थी मादकता,

 

मधुर-भाव उसके तन-मन में

 

अपना हो रस छकता।

 

 

बोली एक सहज़ मुद्रा से

 

“यह तुम क्या कहते हो,

 

आज़ अभी तो किसी भाव की

 

धारा में बहते हो।

 

 

कल ही यदि परिवर्त्तन होगा

 

तो फिर कौन बचेगा।

 

क्या जाने कोइ साथी

 

बन नूतन यज्ञ रचेगा।

 

 

और किसी की फिर बलि होगी

 

किसी देव के नाते,

 

कितना धोखा ! उससे तो हम

 

अपना ही सुख पाते।

 

 

ये प्राणी जो बचे हुए हैं

 

इस अचला जगती के,

 

उनके कुछ अधिकार नहीं

 

क्या वे सब ही हैं फीके?

 

 

मनु ! क्या यही तुम्हारी होगी

 

उज्ज्वल मानवता।

 

जिसमें सब कुछ ले लेना हो

 

हंत बची क्या शवता।”

 

 

“तुच्छ नहीं है अपना सुख भी

 

श्रद्धे ! वह भी कुछ है,

 

दो दिन के इस जीवन का तो

 

वही चरम सब कुछ है।

 

 

इंद्रिय की अभिलाषा

 

जितनी सतत सफलता पावे,

 

जहाँ हृदय की तृप्ति-विलासिनी

 

मधुर-मधुर कुछ गावे।

 

 

रोम-हर्ष हो उस ज्योत्स्ना में

 

मृदु मुसक्यान खिले तो,

 

आशाओं पर श्वास निछावर

 

होकर गले मिले तो।

 

 

विश्व-माधुरी जिसके सम्मुख

 

मुकुर बनी रहती हो

 

वह अपना सुख-स्वर्ग नहीं है

 

यह तुम क्या कहती हो?

 

 

जिसे खोज़ता फिरता मैं

 

इस हिमगिरि के अंचल में,

 

वही अभाव स्वर्ग बन

 

हँसता इस जीवन चंचल में।

 

 

वर्तमान जीवन के सुख से

 

योग जहाँ होता है,

 

छली-अदृष्ट अभाव बना

 

क्यों वहीं प्रकट होता है।

 

 

किंतु सकल कृतियों की

 

अपनी सीमा है हम ही तो,

 

पूरी हो कामना हमारी

 

विफल प्रयास नहीं तो”

 

 

एक अचेतनता लाती सी

 

सविनय श्रद्धा बोली,

 

“बचा जान यह भाव सृष्टि ने

 

फिर से आँखे खोली।

 

 

भेद-बुद्धि निर्मम ममता की

 

समझ, बची ही होगी,

 

प्रलय-पयोनिधि की लहरें भी

 

लौट गयी ही होंगी।

 

 

अपने में सब कुछ भर

 

कैसे व्यक्ति विकास करेगा,

 

यह एकांत स्वार्थ भीषण है

 

अपना नाश करेगा।

 

 

औरों को हँसता देखो

 

मनु-हँसो और सुख पाओ,

 

अपने सुख को विस्तृत कर लो

 

सब को सुखी बनाओ।

 

 

रचना-मूलक सृष्टि-यज्ञ

 

यह यज्ञ पुरूष का जो है,

 

संसृति-सेवा भाग हमारा

 

उसे विकसने को है।

 

 

सुख को सीमित कर

 

अपने में केवल दुख छोड़ोगे,

 

इतर प्राणियों की पीड़ा

 

लख अपना मुहँ मोड़ोगे

 

 

ये मुद्रित कलियाँ दल में

 

सब सौरभ बंदी कर लें,

 

सरस न हों मकरंद बिंदु से

 

खुल कर, तो ये मर लें।

 

 

सूखे, झड़े और तब कुचले

 

सौरभ को पाओगे,

 

फिर आमोद कहाँ से मधुमय

 

वसुधा पर लाओगे।

 

 

सुख अपने संतोष के लिये

 

संग्रह मूल नहीं है,

 

उसमें एक प्रदर्शन

 

जिसको देखें अन्य वही है।

 

 

निर्ज़न में क्या एक अकेले

 

तुम्हें प्रमोद मिलेगा?

 

नहीं इसी से अन्य हृदय का

 

कोई सुमन खिलेगा।

 

 

सुख समीर पाकर,

 

चाहे हो वह एकांत तुम्हारा

 

बढ़ती है सीमा संसृति की

 

बन मानवता-धारा।”

 

 

हृदय हो रहा था उत्तेज़ित

 

बातें कहते-कहते,

 

श्रद्धा के थे अधर सूखते

 

मन की ज्वाला सहते।

 

 

उधर सोम का पात्र लिये मनु,

 

समय देखकर बोले-

 

“श्रद्धे पी लो इसे बुद्धि के

 

बंधन को जो खोले।

 

 

वही करूँगा जो कहती हो सत्य,

 

अकेला सुख क्या?”

 

यह मनुहार रूकेगा

 

प्याला पीने से फिर मुख क्या?

 

 

 

आँखे प्रिय आँखों में,

 

डूबे अरुण अधर थे रस में।

 

हृदय काल्पनिक-विज़य में

 

सुखी चेतनता नस-नस में।

 

 

छल-वाणी की वह प्रवंचना

 

हृदयों की शिशुता को,

 

खेल दिखाती, भुलवाती जो

 

उस निर्मल विभुता को,

 

 

जीनव का उद्देश्य लक्ष्य की

 

प्रगति दिशा को पल में

 

अपने एक मधुर इंगित से

 

बदल सके जो छल में।

 

 

वही शक्ति अवलंब मनोहर

 

निज़ मनु को थी देती

 

जो अपने अभिनय से

 

मन को सुख में उलझा लेती।

 

“श्रद्धे, होगी चन्द्रशालिनी

 

यह भव रज़नी भीमा,

 

तुम बन जाओ इस ज़ीवन के

 

मेरे सुख की सीमा।

 

 

लज्जा का आवरण प्राण को

 

ढ़क लेता है तम से

 

उसे अकिंचन कर देता है

 

अलगाता ‘हम तुम’ से

 

 

कुचल उठा आनन्द,

 

यही है, बाधा, दूर हटाओ,

 

अपने ही अनुकूल सुखों को

 

मिलने दो मिल जाओ।”

 

 

और एक फिर व्याकुल चुम्बन

 

रक्त खौलता जिसमें,

 

शीतल प्राण धधक उठता है

 

तृषा तृप्ति के मिस से।

 

 

दो काठों की संधि बीच

 

उस निभृत गुफा में अपने,

 

अग्नि शिखा बुझ गयी,

 

जागने पर जैसे सुख सपने।

 

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