कविता – कविता संग्रह – (लेखक – वृंदावनलाल वर्मा)

1415015854आगे चले चलो

अपवाद भय या कीर्ति प्रेम से निरत न हो,
यदि खूब सोच-समझ कर मार्ग चुन लिया।
प्रेरित हुए हो सत्य के विश्वास, प्रेम से,
तो धार्य नियम, शौर्य से आगे चले चलो।

वह अभीष्ट सामने बाएँ न दाहिने –
भटके इधर-उधर न बस फिर दृष्टि वहाँ है।
उस दिव्य शुद्ध-मूर्ति का ही ध्यान मन रहे,
और धुन रहे सदा ही यही – आगे चले चलो।

अह, दाहिने वह क्या है दूब? कमली? गुलाब?
और बाएँ लहर मारते नाले बुला रहे।
वह क्या वहाँ है गीत मृदुल, मंजु मनोहर।
पर इनसे प्रयोजन ही क्या – आगे चले चलो।

स्थिर चमक वह सूर्य-सी संकेत कर रही,
कहती है, “विघ्न-व्याधि को सह लो जरा-सा और।”
वह माद थकावट सभी होने को दूर है,
यह ध्यान रहे किंतु कि – आगे चले चलो।

कुछ देखते हैं चश्मा चढ़ाए हुए यह कृत्य :
होते हैं कभी क्रुद्ध तो हँसते हैं कभी-कभी।
वश हो के दुराग्रह के कभी भ्रष्ट भी कहते,
परवा न करो तुम कभी – आगे चले चलो।

यदि सत्य के आधार पर है मार्ग तुम्हारा,
चिंता नहीं जो विघ्न के काँटों से पूर्ण हो।
अफवाह है अशक्य तुम्हें भीत करने में,
बस अपनी धुन में मस्त रह – आगे चले चलो।

बस होना दुराग्रह के है मानव प्रकृति सदा,
निर्भर्न्तना,धुतकर्म, हँसी, संतती उसकी।
काँटे हैं और गर्त भी अनिवार्य उसके अंग।
पर सत्य तुम्हारी ही है – आगे चले चलो।

जो मित्र था कभी वह बनेगा अमित्र शीघ्र,
दम भरता जो सहाय का वह मुँह बनाएगा।
पीछे भी चलने वाले अब पिछड़ेंगे बहुत दूर,
एकांत शांत हो के तुम आगे चले चलो।

काँटे गड़ेंगे पग में अकेले सहोगे पीर,
उल्टे हँसेंगे लोग तुम्हारी कराह पर।
कुछ गालियाँ भी देंगे – पर यह तो स्वभाव है,
छोड़ो उन्हें उन्हीं को, तुम आगे चले चलो।

पद का लोहू न पोंछना यह विजय-चिह्न है,
छाती कड़ी करो तनिक, सिर को भी उठा लो।
अपवाद पर हँस दो जरा चिंता न कुछ करो,
उस सत्य को ले साथ बस – आगे चले चलो।

धमकी से न भयभीत हो, कुढ़ना भी न मन में
यदि कोई बुरा कहता है तो कहने दो उसे तुम।
निर्बल है भृकुटि-भंग वह तुम आँख मिला लो,
और ध्यान धर जगदीश का आगे चले चलो।
उन मुस्कानों की बलि जाऊँ
उन मुस्कानों की बलि जाऊँ
सती की चिता की दीपशिखा पर जो लहराती रहती हैं
निर्बल के कण-कण में भी जो ज्योति जगाती रहती हैं
बलिदानों की ध्वजा निरंतर जो फहराती रहती हैं
उन बलिदानों से बल पाऊँ उन वरदानों से भर पाऊँ
उन मुस्कानों की बलि जाऊँ।

तमिस्रा हुई गगन में लीन
तमिस्रा हुई गगन में लीन
दिशा ने पाई दृष्टि नवीन।
उदित हुई जब पूर्व के द्वार
पहिन कर ऊषा मुक्ता हार।
सजाया नेत्रों ने मृछु मार्ग
पलक प्रिय बने पाँवड़े पीन।
समीरित सौरभ ने ली तान
बजी पुलकित मुकुलों की बीन।

विनोद
है विनोद बिन जीवन भार
है विनोद बिन जड़ संसार
है विनोद बिन बुद्धि असार
है विनोद बिन देह पहार
है विनोद से बुद्धि विकास
ज्ञान-तंतुओं से परकास
शक्ति कवित्व इसी से निकली
ईश भावना इस से उजली।

सूरज के घोड़े
सूरज के घोड़े इठलाते तो देखो नभ में आते हैं
टापों की खटकार सुनाकर तम को मार भगाते हैं
कमल-कटोरों से जल पीकर अपनी प्यास बुझाते हैं
सूरज के घोड़े इठलाते तो देखो नभ में आते हैं।

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