कविता – गंधर्वसेन मंत्री खंड, रत्नसेन सूली खंड, रत्नसेन-पद्मावती-विवाह खंड, -पदमावती-रत्नसेन-भेंट खंड पदमावत – मलिक मुहम्मद जायसी – (संपादन – रामचंद्र शुक्ल )
राजै सुनि जोगी गढ़ चढ़े । पूछै पास जो पंडित पढ़े॥
जोगी गढ़ जो सेंधिा दै आवहिं । बोलहु सबद सिध्दि जस पावहिं॥
कहहिं बेद पढ़ि पंडित बेदी । जोगि भौंर जस मालति भेदी॥
जैसे चोर सेंधिा सिर मेलहिं । तस ए दुवौ जीउ पर खेलहिं॥
पंथ न चलहिं बेद जस लिखा । सरग जाए सूरी चढ़ सिखा॥
चोर होइ सूरी पर मोखू । देह जौ सूरि तिन्हहिं नहिं दोखू॥
चोर पुकारि बेधिा घर मूसा । खेलै राजभँडार मँजूसा॥
जस ए राजमँदिर महँ, दीन्ह रैनि कहँ सेंधिा।
तस छेंकहु पुनि इन्ह कहँ, मारहु सूरी बेधिा॥1॥
राँधा जो मंत्राी बोले सोई । ऐस जो चोर सिध्दि पै कोई॥
सिध्द निसंक रैनि दिन भवँहीं । ताका जहाँ तहाँ अपसवहीं॥
सिध्द निडर अस अपने जीवा । खड़ग देखि कै नाव¯ह गीवा॥
सिध्द जाइ पै जिउबधा जहाँ । औरहि मरन पंख अस कहाँ?॥
चढ़ा जो काँपि गगन उपराहीं । थोरे साज मरै सो नाहीं॥
जंबुक जूझ चढ़ै जौ राजा । सिंघ साज कै चहुँ तौ छाजा॥
सिध्द अमर, काया जस पारा । छरहिं मरहिं बर जाइ न मारा॥
छरहीं काज कृस्न कर, राजा चढ़ै रिसाइ।
सिध्द गिध्द जिन्ह दिस्टि गगन पर, बिनु छर किछु न बसाइ॥2॥
अबहीं करहु गुदर मिस साजू । चढ़हिं बजाइ जहाँ लगि राजू॥
होहि सँजोवल कुँवर जो भोगी । सब दर छेंकि धारहिं अब जोगी।
चौबिस लाख छत्रापति साजे । छपन कोटि दर बाजन बाजे॥
बाइस सहस हस्ति सिंघली । सकल पहार सहित महि हली॥
जगत बराबर वै सब चाँपा । डरा इंद्र, बासुकि हिय काँपा॥
पदुम कोट रथ साजै आवहिं । गिरि होइ खेह गगन कहँ धाावहिं॥
जनु भुइँचाल चलत महि परा । टूटी कमठ पीठि, हिय डरा॥
छत्राहिं सरग छाइगा, सूरुज गयउ अलोपि।
दिनहि राति अस देखिय, चढ़ा इंद्र अस कोपि ॥3॥
देखि कटक औ मैमँत हाथी । बोले रतनसेन कर साथी॥
होत आव दल बहुत असूझा । अस जानिय किछु होइहि जूझा॥
राजा तू जोगी होइ खेला । एही दिवस कहँ हम भए चेला॥
जहाँ गाढ़ ठाकुर कहँ होई । संग न छाँड़ै सेवक सोई॥
जो हम मरन दिवस मन ताका । आजु आइ पूजी वह साका॥
बरु जिउ जाइ, जाइ नहिं बोला । राजा सत सुमेरु नहिं बोला॥
गुरु केर जौ आयसु पावहिं । सौंह होहिं औ चक्र चलावहिं॥
आजु करहिं रन भारत, सत बाचा देइ राखि।
सत्य देख सब कौतुक, सत्य भरै पुनि साखि॥4॥
गुरु कहा चेला सिधा होहू । पेम बार होइ करहु न कोहू॥
जाकहँ सीस नाइ कै दीजै । रंग न होइ ऊभ जौ कीजै॥
जेहि जिउ पेम पानि भा सोई । जेहि रँग मिलै ओहि रँग होई॥
जौ पै जाइ पेम सौं जूझा । कित तप मरहिं सिध्द जो बूझा॥
एहि सेंति बहुरि जूझ नहिं करिए । खड़ग देखि पानी होइ ढरिए॥
पानिहि काह खड़ग कै धाारा । लौटि पानि होइ सोइ जो मारा॥
पानी सेंति आगि का करई । जाइ बुझाइ जौ पानी परई॥
सीस दीन्ह मैं अगमन, पेम जानि सिर मेलि।
अब सो प्रीति निबाहौं, चलौं सिध्द होइ खेलि॥5॥
राजै छेंकि धारे सब ओगी । दुख ऊपर दुख सहै वियोगी॥
ना जिउ धारक धारत होइ कोई । नाहीं मरन जियन डर होई॥
नाग फाँस उन्ह मेला गीवा । हरख न विसमौ एकौ जीवा॥
जेइ जिउ दीन्ह सो लेइ निकासा । बिसरै नहिं जौ लहि तन साँसा॥
कर किंगरी तेहि तंतु बजावै । इहै गीत बैरागी गावै॥
भलेहि आनि गिउ मेली फाँसी । है न सोच हिय, रिस सब नासी॥
मैं गिउ फाँद ओहि दिन मेला । जेहि दिन पेम पंथ होइ खेला॥
परगट गुपुत सकल महँ, पूरि रहा सो नाँव।
जहँ देखौं तहँ ओही, दूसर नहिं जहँ जाँव॥6॥
जब लगि गुरु हौं अहा न चीन्हा । कोटि ऍंतरपट बीचहि दीन्हा॥
जब चीन्हा तब और न कोई । तन मन जिउ जीवन सब सोई॥
हौं हौं करत धाोख इतराहीं । जय भा सिध्द कहाँ परछाहीं?॥
मारै गुरु, कि गुरु जियावै । और को मार? मरै सब आवै॥
सूरी मेलु, हस्ति करु चूरू । हौं नहिं जानौं, जानै गूरू॥
गुरु हस्ति पर चढ़ा सो पेखा । जगत जो नास्ति, नास्ति पै देखा॥
ऍंधा मीन जस जल महँ धाावा । जल जीवन चल दिस्टि नआवा॥
गुरु मोरे मारे हिये, दिए तुरंगम ठाठ।
भीतर करहिं डोलावै, बाहर नाचै काठ॥7॥
सो पदमावति गुरु हौं चेला । जोग तंत जेहि कारन खेला॥
तजि वह बार न जानौं दूजा । जेहि दिन मिलै, जातरा पूजा॥
जीउ काढ़ि भुइँ धारौं लिलाटा । ओहि कहँ देउँ हिये महँ पाटा॥
को मोहिं ओहि छुआवै पाया । नव अवतार देइ, नइ काया॥
जीउ चाहि जो अधिाक पियारी । माँगै जीउ देउँ बलिहारी॥
माँगे सीस, देउँ सह गीवा । अधिाक तरौं जौं मारै जीवा॥
अपने जिउ कर लोभ न मोहीं । पेम बार होइ माँगौं ओही॥
दरसन ओहि कर दिया जस, हौं सो भिखारि पतंग।
जो करवत सिर सारै, मरत न मोरौं अंग॥8॥
पदमावति कँवला ससि जोती । हँसैं फूल, रोवै सब मोती॥
बरजा पितै हँसी औ रोजू । लागे दूत, होइ निति खोजू॥
जबहिं सुरुज कहँ लागा राहू । तबहिं कँवल मन भएउ अगाहू॥
बिरह अगस्त जो बिसमौ उएऊ । सरवर हरष सूखि सब गएऊ॥
परगट ढारि सकै नहिं ऑंसू । घटि घटि माँसु गुपुत होइ नासू॥
जस दिन माँझ रैनि होइ आई । बिगसत कँवल गएउ मुरझाई॥
राता बदन गएउ होइ सेता । भँवत भँवर रहि गए अचेता॥
चित्ता जो चिंता कीन्ह धानि, रोवै रोवँ समेत।
सहस साल सहि आहि भरि, मुरुछि परी, गा चेत॥9॥
पदमावति सँग सखी सयानी । गनत नखत सब रैनि बिहानी॥
जानहिं मरम कँवल कर कोईं । देखि बिथा बिरहिन कै रोईं॥
बिरहा कठिन काल कै कला । बिरह न सहै, काल बरु भला॥
काल काढ़ि जिउ लेइ सिधाारा । बिरह काल मारे पर मारा॥
बिरह आगि पर मेलै आगी । बिरह घाव पर धााक बजागी॥
बिरह बान पर बान पसारा । बिरह रोग पर रोग सँचारा॥
बिरह साल पर साल नवेला । बिरह काल पर काल दुहेला॥
तन रावन होइ सर चढ़ा, बिरह भयउ हनुवंत।
जारे ऊपर जारै, चित मन करि भसमंत॥10॥
कोइ कुमोद पसारहिं पाया । कोइ मलयगिरि छिरकहिं काया॥
कोइ मुख सीतल नीर चुवावै । कोई अंचल सौं पौन डोलावै॥
कोइ मुख अमृत अनि निचोवा । जनु बिष दीन्ह, अधिाक धानिसोवा॥
जोवहिं साँस खिनहिं खिन सखी । कब जिउ फिरै पौन पर पँखी॥
बिरह काल होइ हिये पईठा । जीउ काढ़ि लै हाथ बईठा॥
खिनहिं मौन बाँधो खिन खोला । गही जीभ मुख आव न बोला॥
खिनहिं बेझि कै बानन्ह मारा । कँपि कँपि नारि मरै बेकरारा॥
कैसेहु बिरह न छाँड़ै भा ससि गहन गरास।
नखत चहूँ दिसि रोवहिं, अंधार धारति अकास॥11॥
घरी चारि इमि गहनगरासी । पुनि विधिा हिये जोति परगासी॥
निसँस ऊभि भरि लीन्हेसि साँसा । भा अधाार, जीवन कै आसा।
बिनवहिं सखी, छूट ससि राहू । तुम्हरी जाति जोति सब काहू॥
तू ससि बदन जगत उजियारी । केइ हरि लीन्ह, कीन्ह ऍंधिायारी?॥
तू गजगामिनि गरब गहेली । अब कस आस छाँड़ तू बेली॥
तू हरिलक हराए केहरि । अब कित हारि करति है हिय हरि॥
तू कोकिल बैनी जग मोहा । केइ ब्याधाा होइ गहा निछोहा॥
कँवल कली तू पदमिनि! गइ निसि भयउ बिहान।
अबहुँ न संपुट खोलसि, जब रे उआ जग भानु॥12॥
भानु नाँव सुनि कँवल बिगासा । फिरि कै भौंर लीन्ह मधाु बासा॥
सरद चंद मुख जबहिं उघेली । खंजन नैन उठे करि केली॥
बिरह न बोल आव मुख ताईं । मरि मरि बोल जीउ बरिआईं॥
दवैं बिरह दारुन हिय काँपा । खोलि न जाइ बिरह दुख झाँपा॥
उदधिा समुद जस तरँग देखावा । चख घूमहिं मुख बात न आवा॥
यह सुनि लहरि लहरि पर धाावा । भँवर परा जिव थाह न पावा॥
सखी आनि बिष देहु तौ मरऊँ । जिउ न पियार, मरै का डरऊँ॥
खिनहिं उठै, खिन बूडै, अस हिय कँवल सँकेत।
हीरामनहिं बुलावहि, सखी! गहन जिउ लेत॥13॥
चेरी धााय सुनत खिन धााई । हीरामन लेइ आइँ बोलाई॥
जनहु बैद ओषद लेइ आवा । रोगिया रोग मरत जिउ पावा॥
सुनत असीस नैन धानि खोले । बिरह बैन कोकिल जिमि बोले॥
कँवलहिं बिरह बिथा जस बाढ़ी । केसर बरन पीर हिय गाढ़ी॥
कित कँवलहिं भा पेम ऍंकुरू । जो पै गहन लेहि दिन सूरू॥
पुरइनि छाँह कँवल कै करी । सकल बिथा सुनि अस तुम हरी॥
पुरुष गँभीर न बोलहिं काहू । जो बोलहि तौ ओर निबाहू॥
एतनै बोल कहत मुख, पुनि होइ गई अचेत।
पुनि को चेत सँभारै? उहै कहत मुख सेत॥14॥
और दगथ का कहौं अपारा । सती जो जरै कठिन अस झारा॥
होइ हनुवंत पैठ है कोई । लंकादाहु लागु करै सोई॥
लंका बुझी आगि जो लागी । यह न बुझाइ ऑंच बज्रागी॥
जनहु अगिनि के उठहिं पहारा । औ सब लागहिं अंग ऍंगारा॥
कटि कटि माँसु सराग पिरोवा । रतक कै ऑंसु माँसु सब रोवा॥
खिन एक बार माँसु अस भूँजा । खिनहिं चबाइ सिंधा अस गूँजा॥
एहि रे दगधा हुँत उतिम मरीजै । दगधा न सहिय जीउ बरु दीजै॥
जहँ लगि चंदन मलयगिरि, औ सायर सब नीर।
सब मिलि आइ बुझावहिं, बुझै न आगि सरीर॥15॥
हीरामन जौ देखेसि नारी । प्रीति बेल उपनी हिय बारी॥
कहेसि कस न तुम्ह होहु दुहेली । अरुझी पेम जो पीतम बेली॥
प्रीति बेलि जिनि अरुझै कोई । अरुझे, मुए न छूटै सोई॥
प्रीति बेलि ऐसे तन डाढ़ा । पलुहत सुख, बाढ़त दुख बाढ़ा॥
प्रीति बेलि कै अमर को बोई? । दिन दिन बढ़ै, छीन नहिं होई॥
प्रीति बेलि सँग बिरह अपारा । सरग पतार जरै तेहि झारा॥
प्रीति अकेलि बेलि चढ़ि छावा । दूसरि बेलि न सँचरै पावा॥
प्रीति बेलि अरुझै जब, तब सुछाँह सुख साख।
मिलै पिरीतम आइ कै, दाख बेलि रस चाख॥16॥
पदमावति उठि टेकै पाया । तुम्ह हुँत देखौं पीतम छाया॥
कहत लाज औ रहै न जीऊ । एक दिसि आगि दुसर दिसि पीऊ॥
सूर उदयगिरि चढ़त भुलाना । गहनै गहा, कँवल कुँभिलाना॥
ओहट होइ मरौं तौ झूरी । यह सुठि मरौंजो नियर न दूरी॥
घट महँ निकट, विकट होइ मेरू । मिलहि न मिले, परा तस फेरू॥
तुम्ह सो मोर खेवक गुरु देवा । उतरौं पार तेही बिधिा खेवा॥
दमनहिं नलहिं जो हंस मेरावा । तुम्ह हीरामन नाँव कहावा॥
मूरि सजीवन दूर है, सालै सकती बानु।
प्रान मुकुत अब होत है, बेगि देखावहु भानु॥17॥
हीरामन भुई धारा लिलाटू । तुम्ह रानी जुग जुग सुखपाटू॥
जेहि के हाथ सजीवन मूरी । सो जानिय अब नाहीं दूरी॥
पिता तुम्हार राज कर भोगी । पूजै बिप्र मरावै जोगी॥
पौरि पौरि कोतबार जो बैठा । पेम क लुबुधा सुरँग होइ पैठा॥
चढ़त रैनि गढ़ होइगा भोरू । आवत बार धारा कै चोरू॥
अब लेइ गए देइ ओहि सूरी । तेहि सौं अगाह बिथा तुम्ह पूरी॥
अब तुम्ह जिउ काया वह जोगी । कया क रोग जानु पै रोगी॥
रूप तुन्हार जीउ कै, (आपन) पिंड कमावा फेरि।
आपु हेराइ रहा, तेहि काल न पाबै हेरि॥18॥
हीरामन जो बात यह कही । सूर के गहन चाँद तब गही॥
सूर के दुख सौं ससि भइ दुखी । सो कित दुख मानै करमुखी?॥
अब जौं जोगि मरै मोहि नेहा । मोहि ओहि साथ धारति गगनेहा॥
रहै त करौं जनम भरि सेवा । चलै त, यह जिउ साथ परेवा॥
कहेसि कि कौन करा है सोई । पर काया परवेस जो होई॥
पलटि सो पंथ कौन बिधिा खेला । चेला गुरु गुरु भा चेला॥
कौन खंड अस रहा लुकाई । आवै काल, हेरि फिरि जाई॥
चेला सिध्दि सो पावै, गुरु सौं करै अछेद।
गुरु करै जो किरिपा, पावै चेला भेद॥19॥
अनु रानी तुम गुरु वह चेला । मोहि बूझहु कै सिध्द नवेला॥
तुम्ह चेला कहँ परसन भई । दरसन देइ मँडप चलि गई॥
रूप गुरु कर चेलै डीठा । चित समाइ होइ चित्रा पईठा॥
जीउ काढ़ि लै तुम्ह अपसई । बह भा कया, जीब तुम्ह भई॥
कया जो लाग धाूप औ सीऊ । कया न जान, जान पै जीऊ॥
भोग तुम्हार मिला ओहि जाई । जो ओहि बिथा सो तुम्ह कहँआई॥
तुम ओहिके घट, वह तुम माहाँ । काल कहाँ पावै वह छाहाँ?॥
अस वह जोगी अमर भा, परकाया परवेस।
आवै काल, गुरुहि तहँ, देखि सो करै अदेस॥20॥
सुनि जोगी कै अमर जो करनी । नेवरी बिथा बिरह कै मरनी॥
कवँल करी होइ बिगसा जीऊ । जनु रवि देखि छूटिगासीऊ॥
जो अस सिध्द को मारै पारा ? निपुरुष तेइ जरै होइ छारा॥
कहौ जाइ अब मोर सँदेसू । तजौ जोग अब, होहु नरेसू॥
जिनि जानहु हौं तुम्ह सौं दूरी । नैनन्ह माँझ गड़ी वह सूरी॥
तुम्ह परदेस घटे घट केरा । मोहिं घट जीव घटत नहिं बेरा॥
तुम्ह कहँ पाट हिथे मँह साजा । अब तुम मोर दुहूँ जग राजा॥
जौं रे जियहिं मिलि गर रहिह, मरहिं तो एकै दोउ।
तुम्ह जिउ कहँ जिनि होइ किछु, मोहिं जिउ होउ सो होउ॥21॥
(1) सबद=व्यवस्था। सरग जाए=स्वर्ग जाना (अवधाी)। सूरि=सूली।
(2) राँधा=पास, समीप। भवँहीं=फिरते हैं। अपसवहीं=जाते हैं। मरनपंख=मृत्यु के पंख जैसे चींटों को जमते हैं। पारा=पारद। छरहिं=छल से, युक्ति से। बर=बल से।
(3) गुदर=राजा के दरबार में हाजिरी, मोजरा; अथवा पाठांतर ‘कदरमस’=युध्द। सँजोबल=सावधाान। दर=दल, सेना। बराबर चाँपा=पैर से रौंदकर समतल कर दिया। भुइँचाल=भूचाल, भूकंप। अलोपि गए=लुप्त हो गए।
(4) साका=पूजी, समय पूरा हुआ। बोला=बचन, प्रतिज्ञा।
(5) ऊभ=ऊँचा। एहि सेंति=इससे, इसलिए। पानिहि कहा…धाारा=पानी में तलवार मारने से पानी विदीर्ण नहीं होता, वह फिर ज्यों का त्यों बराबर हो जाता है। लौटि…मारा=जो मारता है वही उलटा पानी (कोमल या नम्र) हो जाता है।
(6) धारक=धाड़क। बिसमौ=विषाद (अवधा)। रिस सब नासी=क्रोधा भी सब प्रकार नष्ट कर दिया है।
(7) अहा=था। ऍंतरपट=परदा, व्यवधाान। इतराहीं=इतराते हैं, गर्व करते हैं। करु चूरू=चूर करे, पीस डाले। पै=ही। जल जीवन…आवा=जल सा यह जीवन चंचल है, यह दिखाई नहीं देता है। ठाठ=रचना, ढाँचा। काठ=जड़ वस्तु, शरीर।
(8) जातरा पूजा=यात्राा सफल हुई। पाटा=सिंहासन। करवत सिर सारै=सिर पर आरा चलावै।
(9) रोजू=रोदन, रोना। खोजू=चौकसी। अगस्त=एक नक्षत्रा जैसे, उदित अगस्त पंथ जल सोखा। बिसमौ=बिना समय के। भँवत भँवर…अचेता=डोलते हुए भौंरे अर्थात् पुतलियाँ निश्चल हो गईं।
(10) कोई=कुमुदिनी, यहाँ सखियाँ। काल कै कला=काल के रूप। नवेला=नया।
(11) पौनपर=पवन के परवाला अर्थात् वायु रूप। बेकरारा=बेचैन बेकरार। ऍंधार=ऍंधोरा।
(12) तु हरिलंक… … केहरि=तूने सिंह से कटि छीनकर उसे हराया। हारि करति है=निराश होती है, हिम्मत हारती है। निछोहा=निष्ठुर।
(13) फिरि के भौंर….मधाु बासा=भौंरों ने फिर मधाुवास लिया अर्थात् काली पुतलियाँ खुलीं। बरिआईं=जबरदस्ती। दबै=दबाता है, पीसता है। झाँपा=ढका हुआ। सँकेत=संकट। गहन=सूर्य रूप रत्नसेन का अदर्शन।
(14) ऍंकूरू=अंकुर। काहू=कभी।
(15) झारा=झार, ज्वाला। सराग=शलाका, सीख। गूँजा=गरजा। दगधा=दाह। उतिम=उत्ताम।
(16) दुहेली=दुखी। पलुहत=पल्लवित होते, पनपते हुए।
(17) तुम्ह हुँत=तुम्हारे व्दारा। ओहट=ओट में, दूर। मेरु=मेल, मिलाप। मिलहिं न मिले=मिलने पर भी पास होने पर भी नहीं मिलता। दमन=दमयंती। मुकुत होत है=छूटता है।
(18) रुप तुम्हार जीउ…फेरि=तुम्हारे रुप (शरीर)में अपने जीव को करके (परकाय प्रवेश करके) उसने मानो दूसरा शरीर प्राप्त किया।
(19) करमुखी=काले मुँहवाली। गगनेहा=गगन में, स्वर्ग में। करा=कला। चेला सिध्दि सो पावै…भेद=यह शुक का उत्तार है। अछेद=अभेद, भेदभाव का त्याग।
(20) अनु=फिर, आगे। मोहि बूझहु…नवेला=नया सिध्द बनाकर उलटा मुझसे पूछती हो। अपसई=चल दी। सीऊ=शीत। अदेस करै=नमस्कार करता है; ‘आदेश गुरु’ यह प्रणाम साधाुओं में प्रचलित है।
(21) नेवरी=निबटी, छूटी। निपुरुष=पुरुषार्थहीन। सूरी=शूली जो रत्नसेन को दी जानेवाली है। परसेद=प्रस्वेद, पसीना। घट=घटने पर। बेरा=देर, विलंब।
बाँधिा तपा आने जहँ सूरी । जुरे आइ सब सिंघलपूरी॥
पहिले गुरुहि देइ कहँ आना । देखि रूप सब कोइ पछिताना॥
लोग कहहिं यह होइ न जोगी । राजकुँवर कोइ अहै बियोगी॥
काहुहि लागि भएउ है तपा । हिये सो माल करहु मुख जपा॥
जस मारै कहँ बाजा तूरू । सूरी देखि हँसा मंसूरू॥
चमके दसन भएउ उजियारा । जौ जहँ तहाँ बीजु अस मारा॥
जोगी केर करहु पै खोजू । मकु यह होइ न राजा भोजू॥
सब पूछहिं, कहु जोगी! जाति जनम औ नाँव।
जहाँ ठाँव रोवै कर, हँसा सो कहु केहि भाव॥1॥
का पूछहु अब जाति हमारी । हम जोगी औ तपा भिखारी॥
जोगिहि कौन जाति, हो राजा । गारि न कोह, मारि नहिं लाजा॥
निलज भिखारि लाज जेइ खोई । तेहि के खोज परै जिनि कोई॥
जाकर जीउ मरै पर बसा । सूरी देखि सो कस नहिं हँसा?॥
आजु नेह सौं होइ निबेरा । आजु पुहुमि तजि गगन बसेरा॥
आजु कया पीजर बँदि टूटा । आजुहिं प्रान परेवा छूटा॥
आजु नेह सौं होइ निनारा । आज प्रेम सँग चला पियारा॥
आजु अवधिा सिर पहुँची, किए जाहु मुख रात।
बेगि होहु मोहिं मारहू, जिनि चालहु यह बात॥2॥
कहेन्हि सँवरु जेहि चाहसि सँवरा । हम तोहि करहिं केत करभँवरा॥
कहेसि ओहि सँवरौं हरि फेरा । मुए जियत आहौं जेहि केरा॥
औ सँवरौं पदमावति रामा । यह जिउ नेवछावरि जेहि नामा॥
रकत क बूँद कया जस अहही । ‘पदमावति पदमावति’ कहही॥
रहै त बूँद बूँद महँ ठाऊँ । परै त सोई लेइ लेइ नाऊँ॥
रोंव रोंव तन तासौं ओधाा । सूतहि सूत बेधिा जिउ सोधाा॥
हाड़हि हाड़ सबद सो होई । नस नस माँह उठै धाुनि सोई॥
जागा बिरह तहाँ का, गूद माँसु कै हान?।
हौं पुनि साँचा होइ रहा, ओहि के रूप समान॥3॥
जोगिहि जबहिं गाढ़ अस परा । महादेव कर आसन टरा॥
वै हँसि पारबती सौं कहा । जानहुँ सूर गहन अस गहा॥
आजु चढ़ै गढ़ ऊपर तपा । राजै गहा सूर तब छपा॥
जग देखै गा कौतुक आजू । कीन्ह तपा मारै कहँ साजू॥
पारबती सुनि पायन्ह परी । चलि महेस! देखैं एहि घरी॥
भेस भाँट भाँटिनि कर कीन्हा । औ हनुवंत बीर सँग लीन्हा॥
आए गुपुत होइ देखन लागी । वह मूरति कस सती सभागी॥
कटक असूझ देखि कै, राजा गरब करेइ।
दैउ क दमा न देखै, दहुँ का कहँ जय देइ॥4॥
आसन लेइ रहा होइ तपा । ‘पदमावति पदमावति’ जपा॥
मन समाधिा तासौं धाुनि लागी । जेहि दरसन कारन बैरागी॥
रहा समाइ रूप औ नाऊँ । और न सूझ बार जहँ जाऊँ॥
औ महेस कहँ करौं अदेसू । जेइ यह पंथ दीन्ह उपदेसू॥
पारबती पुनि सत्य सराहा । औ फिरि मुख महेस कर चाहा॥
हिय महेस जौं कहै महेसी । कित सिर नावहिं ए परदेसी?॥
मरतहु लीन्ह तुम्हारहिं नाऊँ । तुम्ह चित किए एहि ठाऊँ॥
मारत ही परदेसी, राखि लेहु एहि बीर।
कोइ काहू कर नाहीं जो होइ चलै न तीर॥5॥
लेइ सँदेस सुअटा गा तहाँ । सूरी देहिं रतन कहँ जहाँ॥
देखि रतन हीरामन रोवा । रजा जिउ लोगन्ह हठि खोवा॥
देखि रुदन हीरामन केरा । रोवहिं सब, राजा मुख हेरा॥
माँगहिं सब बिधिाना सौं रोई । कै उपकार छोड़ावै कोई॥
कहि सँदेस सब बिपति सुनाई । बिकल बहुत, किछु कहा न जाई॥
काढ़ि प्रान बैठी लेइ हाथा । मरै तौ मरौं, जिऔं एक साथा॥
सुनि सँदेस राजा तब हँसा । प्रान प्रान घट घट महँ बसा॥
सुअटा भाँट दसौंधाी भए, जिउ पर एक ठाँव।
चलि सो जाइ अब देख तहँ, जहँ बैठा रह राव॥6॥
राजा रहा दिस्टि कै औंधाी । रहि न सका तब भाँट दसौंधाी॥
कहेसि मेलि कै हाथ कटारी । पुरुष न आछे बैठ पेटारी॥
कान्ह कोपि जब मारा कंसू । तब जाना पूरुष कै बंसू॥
गंधा्रबसेन जहाँ रिस बाढ़ा । जाइ भाँट आगे भा ठाढ़ा॥
बोला गंधा्रबसेन रिसाई । कस जोगी कस भँट असाई॥
ठाढ़ देख सब राजा राऊ । बाएँ हाथ दीन्ह बरम्हाऊ॥
जोगी पानि, आगि तू राजा । आगिहि पानि जूझ नहिं छाजा॥
आगि बुझाइ पानि सौं, जूझु न, राजा! बूझु।
लीन्हें खप्पर बार तोहि, भिच्छा देहि, न जूझु॥7॥
जोगि न होइ, आहि सौ भोजू । जानहु भेद करहु सो खोजू॥
भारत ओइ जूझ जौ ओधाा । होहिं सहाय आइ सब जोधाा॥
महादेव रनघंट बजावा । सुनि कै सबद बरम्हा चलि आवा॥
फनपति फन पतार सौं काढ़ा । अस्टौ कुरी नाग भए ठाढ़ा॥
छप्पन कोटि बसंदर बरा । सवा लाख परबत फरहरा॥
चढ़े अत्रा लै कृस्न मुरारी । इंद्रलोक सब लाग गोहारी॥
तैंतिस कोटि देवता साजा । औ छानबे मेघदल गाजा॥
नवौ नाथ चलि आवहिं, औ चौरासी सिध्द।
आजु महाभारत चले, गगन गरुड़ औ गिध्द॥8॥
भइ अज्ञा को भाँट अभाऊ । बाएँ हाथ देह बरम्हाऊ॥
को जोगी अस नगरी मोरी । जो देइ सेंधिा चढ़ै गढ़ चोरी॥
इंद्र डरै निति नावै माथा । जानत कृस्न सेस जेइ नाथा॥
बरम्हा डरै चतुरमुख जासू । औ पातार डरै बलि बासू॥
मही हलै औ चलै सुमेरू । चाँद सूर औ गगन कुबेरू॥
मेघ डरै बिजुरी जेहि दीठी । कूरुम डरै धारति जेहि पीठी॥
चहौं आजु माँगौं धारि केसा । और को कीट पतंग नरेसा?॥
बोला भाँट, नरेस सुनु! गरब न छाजा जीउ।
कुँभकरन कै खोपरी, बूड़त बाँचा भीउँ॥9॥
रावन गरब बिरोधाा रामू । ओही गरब भएउ संग्रामू॥
तस रावन अस को बरिवंडा । जेहि दस सीस, बीस भुजदंडा॥
सूरुज जेहिकै तपै रसोई । नितिहिं बसंदर धाोती धाोई॥
सूक सुमंता, ससि मसिआरा । पौन करै निति बार बोहारा॥
जमहिं लाइकै पाटी बाँधाा । रहा न दूसर सपने काँधाा॥
जो अस बज्र टरै नहिं टारा । सोउ मुवा दुइ तपसी मारा॥
नाती पूत कोटि दस अहा । रोवनहार न कोई रहा॥
ओछ जानि कै काहुहि, जिनि कोइ गरब करेइ।
ओछे पर जो दैउ है, जीति पत्रा तेइ देइ॥10॥
अब जो भाँट उहाँ हुत आगे । बिनै उठा राजहि रिस लागे॥
भाँट अहै संकर कै कला । राजा सहुँ राखै अरगला॥
भाँट मीचु पै आप न दीसा । ता कहँ कौन करै अस रीसा?॥
भएउ रजायसु गंधा्रबसेनी । काहे मीचु के चढ़ै नसेनी?॥
कहा आनि बानी अस पढ़ै । करसि न बुध्दि भेंट जेहि कढ़ै॥
जाति भाँट कित औगुन लावसि । बाएँ हाथ राज बरम्हावसि॥
भाँट नाँव का मारौं जीवा? । अबहूँ बोलु नाइ कै गीवा॥
तुँ रे भाँट ए जोगी, तोहिं एहि काहे क संग?।
काह छरे अस पावा, काह भएउ चितभंग॥11॥
जौं सत पूछसि गँधा्रब राजा । सत पै कहौं परै नहिं गाजा॥
भाँटहिं काह मीचु सौं डरना । हाथ कटार, पेट हनि मरना॥
जंबूदीप चित्ताउर देसा । चित्रासेन बड़ तहाँ नरेसा॥
रतनसेन यह ताकर बेटा । कुल चौहान जाइ नहिं मेटा॥
खाँड़ै अचल सुमेरु पहारा । टरै न जौं लागै संसारा॥
दान सुमेरु देत नहिं खाँगा । जो ओहि माँग न औरहि माँगा॥
दाहिन हाथ उठाएउँ ताही । और को अस बरम्हावौं जाही?॥
नाँव महापातर मोहिं, तेहिक भिखारी ढीठ।
जौं खरि बात कहै रिस, लागै कहै बसीठ॥12॥
ततखन पुनि महेसमनलाजा । भाँट करा होइ विनवा राजा॥
गंधा्रबसेन! तुँ राजा महा । हौं महेस मूरति, सुनु कहा॥
जौ पै बात होइ भलि आगे । कहा चहिय, का भा रिस लागे॥
राजकुँवर यह, होहि न जोगी । सुनि पदमावति भएउ बियोगी॥
जंबूदीप राजघर बेटा । जो है लिखा सो जाइ न मेटा॥
तुम्हरहि सुआ जाहि ओहि आना । औ जेहि कर, बर कै तेइमाना॥
पुनि यह बात सुनी सिव लोका । करसि बियाह धारम है तोका॥
माँगे भीख खपर लेइ, मुए न छाँड़ै बार।
बूझहु कनक कचोरी, भीखि देहु नहिं मार॥13॥
ओहट होहु रे भाँटभिखारी । का तू मोहिं देहि असि गारी॥
को मोहिं जोग जगत होइ पारा । जा सहुँ हेरौं जाइ पतारा॥
जोगी जती आव जो कोई । सुनतहि त्राासमान भा सोई॥
भीख लेहिं फिरि माँगहिं आगे । ए सब रैनि रहे गढ़ लागे॥
जस हींछा, चाहौं तिन्ह दीन्हा । नाहिं बेधिा सूरी जिउ लीन्हा॥
जेहि अस साधा होइ जिउ खोवा । सो पतंग दीपक तस रोवा॥
सुर, नर, मुनि सब गंधा्रब देवा । तेहि को गनै? करहिं निति सेवा॥
मोसौं को सरवरि करै? सुनु, रे झूठे भाँट।
छार होइ जौ चालौं, निज हस्तिन कर ठाट॥14॥
जोगी घिरि मेले सब पाछे । उरए माल आए रन काछे॥
मंत्रिान्ह कहा, सुनहु हो राजा । देखहु अब जोगिन्ह कर काजा॥
हम जो कहा तुम्ह करहु न जूझू । होत आव दर जगत असूझू॥
खिन इक महँ झुरमुट होइ बीता । दर महँ चढ़ि जो रहै सो जीता॥
कै धाीरज राजा तब कोपा । अंगद आइ पाँव रन रोपा॥
हस्ति पाँच जो अगमन धााए । तिन्ह अंगद धारि सूँड़ फिराए॥
दीन्ह उड़ाइ सरग कहँ गए। लौटि न फिरे, तहँहिं के भए॥
देखत रहै अचंभौ जोगी, हस्ती बहुरि न आय।
जोगिन्ह कर अस जूझब। भूमि न लागत पाय॥15॥
कहहिं बात, जोगी अब आए । खिनक माहँ चाहत हैं भाए॥
जौ लहि धाावहिं अस कै खेलहु । हस्तिन केर जूह सब पेलहु॥
जस गज पेलि होहिं रन आगे । तस बगमेल करहु सँग लागे॥
हस्ति क जूह आय अगसारी । हनुवँत तबै लँगूर पसारी॥
जैसे सेन बीच रन आई । सबै लपेटि लँगूर चलाई॥
बहुतक टूटि भए नौ खंडा । बहुतक जाइ परे बरम्हंडा॥
बहुतक भँवत सोह ऍंतरीखा । रहे जो लाख भए ते लीखा॥
बहुतक परे समुद महँ, परत न पावा खोज।
जहाँ गरब तह पीरा, जहाँ हँसी तह रोज॥16॥
पुनि आगे का देखै राजा । ईसर केर घंट रन बाजा॥
सुना संख जो बिस्नू पूरा । आगे हनुवँत केर लँगूरा॥
लीन्हे फिरहिं लोक बरम्हंडा । सरग पतार लाइ मृदमंडा॥
बलि, बासुकि औ इंद्र नरिंदू । राहु, नखत, सूरुज औ चंदू॥
जावत दानव राच्छस पुरे । आठौ बज्र आइ रन जुरे॥
जेहि कर गरब करत हुत राजा । सो सब फिरि बैरी होइ साजा॥
जहवाँ महादेव रन खड़ा । सीस नाइ नृप पायन्ह परा॥
केहि कारन रिस कीजिए? हौं सेवक औ चेर।
जेहि चाहिय तेहि दीजिय, बारि गोसाईं केर॥17॥
पुनि महेस अब कीन्ह बसीठी । पहिले करुइ, सोइ अब मीठी॥
तू गंधा्रव राजा जग पूजा । गुन चौदह सिख देइ को दूजा॥
हीरामन जो तुम्हार परेवा । गा चितउर औ कीन्हेसि सेवा॥
तेहि बोलाइ पूछहु वह देसू । दहुँ जोगी, की तहाँ नरेसू॥
हमरे कहत न जौं तुम्ह मानहु । जो वह कहै सोइ परवाँनहु॥
जहाँ बारि, बर आवा ओका । करहिं बियाह धारम बड़ तोका॥
जो पहिले मन मानि न काँधौ । परखै रतन गाँठि तब बाँधौ॥
रतन छपाए ना छपै, पारिख होइ सो परीख।
घालि कसौटी दीजिए, कनक कचोरी भीख॥18॥
राजै जब हीरामन सुना । गएउ रोस, हिरदय महँ गुना॥
अज्ञा भई बोलावहु सोई । पंडित हुँते धाोख नहिं होई॥
एकहि कहत सहस्रक धााए । हीरामनहिं बेगि लेइ आए॥
खोला आगे आनि मँजूसा । मिला निकसि बहु दिनकर रूसा॥
अस्तुति करत मिला बहु भाँती । राजै सुना हिये भइ साँती॥
जानहुँ जरत आगि जल परा । होइ फुलवार रहस हिय भरा॥
राजै पुनि पूछी हँसि बाता । कस तन पियर भएउ मुख राता॥
चतुर बेद तुम पंडित, पढ़ै शास्त्रा औ बेद।
कहाँ चढ़ाएहु जोगिन्ह, आइ कीन्ह गढ़ भेद॥19॥
हीरामन रसना रस खोला । दै असीस, कै अस्तुति बोला॥
इंद्रराज राजेसर महा । सुनि होइ रिस, कछु जाइ न कहा॥
पै जो बात होइ भल आगे । सेवक निडर कहै रिस लागे॥
सुवा सुफल अमृत पै खोजा । होहु न राजा बिक्रम भोजा॥
हौं सेवक तुम आदि गोसाईं । सेवा करौं जिऔं जब ताईं॥
जेइ जिउ दीन्ह देखावा देसू । सो पै जिउ महँ बसै, नरेसू!॥
जो ओहि सँवरै ‘एकै तुहीं’ । सोई पंखि जगत रतमुहीं॥
नैन बैन ओ सरवन सब ही तोर प्रसाद।
सेवा मोरि इहै निति, बोलौं आसिरबाद॥20॥
जो अस सेवक जेइ तप कसा । तेहि क जीभ पैं अमृत बसा॥
तेहि सेवक के करमहिं दोषू । सेवा करत करैं पति रोषू॥
औ जेहि दोष निदोषहि लागा । सेवक डरा जीउ लेइ भागा॥
जो पंछी कहवाँ थिर रहना । ताकै जहाँ जाइ भए डहना॥
सप्त दीप फिर देखेउँ राजा । जंबूदीप जाइ तब बाजा॥
तहँ चितउरगढ़ देखेउँ ऊँचा । ऊँच राज सरि तोहिं पहूँचा॥
रतनसेन यह तहाँ नरेसू । एहि आनेउँ जोगी के भेसू॥
सुआ सुफल लेउ आएउँ, तेहि गुन तें मुख रात।
कया पीत सो तेहि डर, सँवरौं विक्रम बात॥21॥
पहिले भएउ भाँट सत भाखी । पुनि बोला हीरामन साखी॥
राजहि भा निसचय मन माना । बाँधाा रतन छोरि कै आना॥
कुल पूछा चौहान कुलीना । रतन न बाँधो होइ मलीना॥
हीरा दसन पाँन रँग पाके । बिहँसत सबै बीजु बर ताके॥
मुद्रा स्रवन विनय सौं चाँपा । राजपना उघरा सब झाँपा॥
आना काटर एक तुखारू । कहा सो फेरौ, भा असवारू॥
फेरा तुरय, छतीसौ कुरी । सबै सराहा सिंघलपुरी॥
कुँवर बतीसौ लच्छना, सहस किरिन जस भान।
काह कसौटी कसिए? कवन बारह बान॥22॥
देखि कुँवर बर कंचन जोगू । ‘अस्ति अस्ति’ बोला सब लोगू॥
मिला सो बंस अंस उजियारा । भा बरोक तब तिलक सँवारा॥
अनिरुधा कहँ जो लिखा जयमारा । को मेटै? बानासुर हारा॥
आजु मिली अनिरुधा कहँ ऊखा । देव अनंद, दैत सिर दूखा॥
सरग सूर, भुइँ सरवर केवा । बनख्रड भँवर होइ रसलेवा॥
पच्छिउँ कर बर पुरुब क बारी । जोरी लिखी न होइ निनारी॥
मानुष साज लाख मन साजा । होइ सोई जो विधिा उपराजा॥
गए जो बाजन बाजत, जिन्ह मारन रन माहिं।
फिर बाजन तेइ बाजे, मंगलचारि उनाहिं॥23॥
बोल गोसाईं कर मैं माना । काह सो जुगुति उतर कहँ आना?॥
माना बोल, हरष जिउ बाढ़ा । औ बरोक भा, टीका काढ़ा॥
दूवौ मिले मनावा भला । सुपुरुष आपु आपु कहँ चला॥
लीन्ह उतारि जाहि हित जोगू । जो तप करै सो पावै भोगू॥
वह मन चित जो एकै अहा । मारै लीन्ह न दूसर कहा॥
जो असकोई जिउ पर छेवा । देवता आइ करहिं नित सेवा॥
दिन दस जीवन जो दुखदेखा । भा जुग जुग सुख जाइ न लेखा॥
रतनसेन सँग बरनौं, पदमावति क बियाह॥
मंदिर बेगि सँवारा, मादर तूर उछाह॥24॥
(1) करहु मुख=हाथ से भी और मुख से भी। जस=जैसे ही।
(2) अवधिा सिर पहुँची=अवधिा किनारे पहुँची अर्थात् पूरी हुई। बेगि होहु=जल्दी करो।
(3) करहिं…भौंरा=हम तुम्हें सूली से ऐसा ही छेदेंगे जैसा केतकी के काँटे भौंरे का शरीर छेदते हैं। हरि=प्रत्येक। आहौं=हूँ। ओधाा=लगा, उलझा (स. आबध्द), जैसे सचिव सुसेवक भरत प्रबोधो। निज निज काज, पाय सिख ओधो॥-तुलसी। गूद=गूदा। हान=हानि। समान=समाया हुआ।
(4) गाढ़=संकट। देखन लागी=देखने के लिए।
(5)कर्रौअदेसू=आदेशकरताहूँ,प्रणामकरता
हूँ। चाहा= ताका। महेसी=पार्वती। हिय महेस…परदेसी=पार्वती कहती हैं कि जब महेश
इनके हृदयमेंहैं तब ये परदेसी क्यों किसी के सामने सिर झुकाएँ। तीर होइ चलै=साथ दे,
पास जाकर सहायता करे।
(6) हेरा=हेर, ताकते हैं। दसौंधाी=भाँटों की एक जाति। जिउ पर भए=प्राण देने पर उद्यत हुए।
(7) राजा=गँधार्वसेन। औंधाी=नीची। असाई=अताई (?) बेढंगा।
(8) भारत=महाभारत का सा युध्द। ओधाा=ठाना, नाँधाा। अस्टौ कुरी=अष्टकुल नाग। बसंदर=वैश्वानर, अग्नि। फरहरा=फड़क उठे। अत्रा=अस्त्रा। लाग गोहारी=सहायता के लिए दौड़ा। नवौ नाथ=गोरखपंथियों के नौ नाथ। चौरासी सिध्द=बौध्द वज्रयान योगियों के चौरासी सिध्द।
(9) अभाऊ=आदर भाव न जाननेवाला, अशिष्ट, बेअदब। बरम्हाऊ=बरम्हाव, आशीर्वाद। बासू=बासुकी। माँगौं धारि केसा=बाल पकड़कर बुला मँगाऊँ।
(10) बरिवंडा=बलवंत, बली। तपै=पकाता (था)। सूक=शुक्र। सुमंता=मंत्राी। मसिआरा=मसियार, मशालची। बार=द्वार। बहारा करै=झाडू देता था। सपने काँधाा=जिसे उसने स्वप्न में भी कुछ समझा। काँधाा=माना, स्वीकार किया। ओछ=छोटा।
(11) सहुँ=सामने। अरगला=(सं. अर्गल) रोक, टेक, अड़। नसेनी=सीढ़ी। भेंटि जेहि कढ़ै=जिससे इनाम निकले। बरम्हावसि=आशीर्वाद देता है। काह छरै अस पावा=ऐसा छल करने से तू क्या पाता है। चितभंग=विक्षेप।
(12) परे नहिं गाजा=चाहे वज्र ही न पड़े। महापातर=महापात्रा (पहले भाँटों की पदवी होती थी)।
(13) भाँट करा=भाँट के समान, भाँट की कला धाारण करके।
(14) ओहट=ओट, हट परे।
(15) मेले=जुटे। उरए=उत्साह या चाव से भरे (उराव=उत्साह, हौसला)। माल=मल्ल, पहलवान। दर=दल। झुरमुट=ऍंधोरा। होइ बीता=हुआ चाहता है। चढ़ि जो रहै=जो अग्रसर होकर बढ़ता है। अगमन=आगे। अचंभौ=अद्भुत व्यापार।
(16) अस कै=इस प्रकार। जूह=यूथ। जस=जैसे ही। तस=तैसे हो। बगमेल=सवारों की पंक्ति। अगसारी=अग्रसर, आगे। भँवत=चक्कर खाते हुए। ऍंतरीख=अंतरिक्ष, आकाश। लीखा=लिख्या, एक मान जो पोस्ते के दाने के बराबर माना जाता है। खोज=पता, निशान। रोज=रोदन, रोना।
(17) ईसर=महादेव। मृदमंडा=धूल से छा गया। फिरि=विमुख होकर। बारि=कन्या।
(18) बसीठी= दूत कर्म। पहिले करुइ जो पहले कड़वी थी। परवाँनहु=प्रमाण मानो। काँधौ=अंगीकार करता है, स्वीकार करता है। परीख=परखता है।
(19) रूसा=रुष्ट। साँती=शांति। फुलवार=प्रफुल्ल। रहस=आनंद।
(20) होहु न …भोजा=तुम विक्रम के समान भूल न करो। (कहानी प्रसिध्द है कि एक सूए ने राजा विक्रम को दो अमृतफल यह कहकर दिए कि जो यह फल खाएगा वह बुङ्ढे से जवान हो जाएगा। राजा ने फल रख छोड़े। संयोग से एकफल में साँप के दाँत लग गए। वही फल परीक्षा के लिए एक कुत्तो को खिलाया गया और वह मर गया। राजा ने क्रुध्द होकर सूए को मरवा डाला और बचे हुए दूसरे फल को बगीचे में फेंकवादिया।उसफल को एक बुङ्ढे माली ने उठाकर खा लिया और वह जवान हो गया। इस पर विक्रम बहुत पछताया)। रतमुही=लाल मुँहवाली।
(21) तप कसा=तप में शरीर को कसा। पति=स्वामी। निदोषहि=बिना दोष के। बाजा=पहुँचा। सरि=बराबरी। सँवरौं विक्रम बात=विक्रम के समान जो राजा गंधार्वसेन है उसके कोप का स्मरण करता हूँ; ऊपर कह आया है कि ‘होहु न राजा बिक्रम भोजा।’
(22) साखी=साक्षी। मुद्रा स्रवन…चाँपा=विनयपूर्वक कान की मुद्रा को पकड़ा। चाँपा=दबाया, थामा। झाँपा=ढका हुआ। काटर =कट्टर। तुखारू=घोड़ा। तुरय=घोड़ा। छतीसौ कुरी=छतीसौ कुल के क्षत्रिाय।
(23) ‘अस्ति अस्ति=हाँ हाँ, वाह वाह! बरोक=बरच्छा, फलदान। जयमारा=जयमाल। केवा=कमल (सं. कुव)। उनाहिं=उन्हीं के (मंगलाचार के लिए)।
(24) काह सो जुगुति…आना=दूसरे उत्तार के लिए क्या युक्ति है? लीन्ह उतारि…जोगू=रत्नसेन जिसके लिए ऐसा योग साधा रहा था उसे स्वर्ग से उतार लाया। मारै लीन्ह=मार ही डाला चाहते थे (अवधाी)। न दूसर कहा-पर दूसरी बात मुँह से न निकली। छेवा=(दु:ख) झेला, डाला (सं. क्षेपण) अथवा खेला।
लगन धारा औ रचा बियाहू । सिंघल नेवत फिरा सब काहू॥
बाजन बाजे कोटि पचासा । भा अनंद सगरौं कैलासा॥
जेहि दिन कहँ निति देव मनाया । सोइ दिवस पदमावति पावा॥
चाँद सुरुज मनि माथे भागू । औ गावहिं सब नखत सोहागू॥
रचि रचि मानिक माँड़व छावा । औ भुइँ रात बिछाव बिछावा॥
चंदन खाँभ रचे बहु भाँती । मानिक दिया बरहिं दिन राती॥
घर घर बंदन रचे दुवारा । जावत नगर गीत झनकारा॥
हाट बाट सब सिंघल, जहँ देखहु तहँ रात।
धानि रानी पदमावति, जेहिकै ऐसि बरात॥1॥
रतनसेन कहँ कापड़ आए । हीरा मोति पदारथ लाए॥
कुँवर सहस दस आइ सभागे । बिनय करहिं राजा सँग लागे॥
जाहि लागि तन साधोहु जोगू । लेहु राज औ मानहु भोगू॥
मंजन करहु, भभूत उतारहु । करि अस्नान चित्रा सब सारहु॥
काढ़हु मुद्रा फटिक अभाऊ । पहिरहु कुंडल कनक जराऊ॥
छोरहु जटा, फुलायल लेहू । झारहु केस, मकुट सिर देहू॥
काढ़हु कंथा चिरकुट लावा । पहिरहु राता दगल सोहावा॥
पाँवरि तजहु देहु पग, पौरि जो बाँक तुषार।
बाँधिा मौर, सिर छत्रा देइ, बेगिं होहु असवार॥2॥
साजा रजा, बाजन बाजे । मदन सहाय दुवौ दर गाजे॥
औ राता सोने रथ साजा । भए बरात गोहने सब राजा॥
बाजत गाजत भा असवारा । सब सिंघल नइ कीन्ह जोहारा॥
चहुँ दिसि मसियर नखत तराईं । सूरुज चढ़ा चाँद के ताईं॥
सब दिन तपे जैस हिय माँहा । तैस राति पाई सुख छाँहा॥
ऊपर रात छत्रा तस छावा । इंद्रलोक सब देखै आवा॥
आजु इंद्र अछरी सौं मिला । सब कविलास होहि सोहिला॥
धारति सरग चहूँ दिसि, पूरि रहे मसियार।
बाजत आवै मँदिर हूँ जहँ, होइ मंगलाचार॥3॥
पदमावति धाौराहर चढ़ी । दहुँ कस रवि जेहि कहँ ससि गढ़ी॥
देखि बरात सखिन्ह सौं कहा । इन्ह महँ सो जोगी को अहा?॥
केइ सो जोग लै ओर निबाहा । भएउ सूर, चढ़ि चाँद बियाहा॥
कौन सिध्द सो ऐस अकेला । जेइ सिर लाइ पेम सों खेला?॥
का सौं पिता बात अस हारी । उतर न दीन्ह, दीन्ह तेहि बारी1॥
का कहँ दैउ ऐस जिउ दीन्हा । जेइ जयमार जीति रन लीन्हा॥
धान्नि पुरुष अस नवै न नाए । बी सुपुरुष होइ देस पराए॥
को बरिवंड बीर अस, मोहिं देखै कर चाव।
पुनि जाइहि जनवासहि, सखि मोहिं बेगि देखाव॥4॥
सखी देखावहिं चमकै बाहू । तू जस चाँद, सुरुज तोर नाहू॥
छपा न रहै सूर परगासू । देखि कँवल मन होइ बिगासू॥
ऊ उजियार जगत उपराहीं । जग उजियार, सो तेहि परछाहीं॥
जस रवि, देखु, उठै परभाता । उठा छत्रा तस बीच बराता॥
ओहि माँझ भा दूलह सोई । और बरात संग सब कोई॥
सहसौ कला रूप बिधिा गढ़ा । सोने के रथ आवै चढ़ा॥
मनि माथे, दरसन उजियारा । सौंह निरखि नहिं जाइ निहारा॥
रूपवंत जस दरपन, धानि तू जाकर कंत।
चाहिय जैस मनोहर, मिला सो मनभावंत॥5॥
देखा चाँद सूर जस साजा । अस्टौ भाव मदन जनु गाजा॥
हुलसे नैन दरस मद माते । हुलसे अधार रंग रस राते॥
हुलसा बदन ओपि रवि पाई । हुलसि हिया कंचुकि न समाई॥
हुलसे कुच कसनी बँद टूटे । हुलसी भुजा, वलय कर फूटे॥
हुलसी लंक कि रावन राजू । राम लखन दर साजहिं आजू॥
आजु चाँद घर आवा सूरू । आजु सिंगार होइ सब चूरू॥
आजु कटक जोरा है कामू । आजु बिरह सौं होइ संग्रामू॥
अंग अंग सब हुलसे, कोइ कतहूँ न समाइ।
ठावहिं ठाँव बिमोही, गइ मुरछा तनु आइ॥6॥
सखी सँभारि पियावहिं पानी । राजकुँवरि काहे कुँभिलानी॥
हम तौ तोहि देखावा पीऊ । तू मुरझानि, कैस भा जीऊ॥
सुनहु सखी सब कहहिं बियाहू । मोह कहँ भएउ चाँद कर राहू॥
तु जानहु आवै पिउ साजा । यह सब सिर पर धाम धाम बाजा॥
जैत बराती औ असवारा । आए सबै चलावनहारा॥
सो आगम हौं देखति झ्रखी । रहन न आपन देखौं सखी!॥
होइ बियाह पुनि होइहि गवना । गवनब तहाँ बहुरि नहिं अवना॥
अब यह मिलन कहाँ होइ? परा बिछोहा टूटि।
तैसि गाँठि पिउ जोरब, जनम न होइहि छूटि॥7॥
आइ बजावति बैठि बराता । पान, फूल सेंदूर सब राता॥
जहँ सोने कर चित्तारसारी । लेइ बरात सब तहाँ उतारी॥
माँझ सिंघासन पाट सवारा । दूलह आनि तहाँ बैसारा॥
कनक खंभ लागे चहुँ पाँती । मानिक दिया बरहिं दिन राती॥
भएउ अचल धा्रुव जोगि पखेरू । फूलि बैठ थिर जैस सुमेरू॥
आजु दैउ हौं कीन्ह सभागा । जत दुख कीन्ह नेग सब लागा॥
आजु सूर ससि के घर आवा । ससि सूरहि जनु होइ मेरावा॥
आजु इंद्र होइ आएउँ, सजि बरात कबिलास।
आजु मिली मोहिं अपछरा, पूजी मन कै आस ॥8॥
होइ लाग जेवनार पसारा । कनकपत्रा पसरे पनवारा॥
सोन थार मनि मानिक जरे । राय रंक के आगे धारे॥
रतन जड़ाऊ खोरा खोरी । जन जन आगे दस-दस जोरी॥
गडुवन हीर पदारथ लागे । देखि बिमोहे पुरुष सभागे॥
जानहु नखत करहिं उजियारा । छपि गए दीपक औ मसियारा॥
गइ मिलि चाँद सुरुज कै करा । भा उदोत तैसे निरमरा॥
जेहि मानुष कहँ जोति न होती । तेहि भइ जोति देखि वह जोती॥
पाँति पाँति सब बैठे, भाँति भाँति जेवनार।
कनकपत्रा दोनन्ह तर, कननपत्रा पनवार॥9॥
पहिले भात परोसे आना । जनहुँ सुबास कपूर बसाना॥
झालर माँड़े आए पोई । देखत उजर पाग जस धाोई॥
लुचुई और सोहारी धारी । एक तौ ताती औ सुठि कोंवरी॥
ख्रडरा बचका औ डुभकौरी । बरी एकोतर सौ, कोंहड़ौरी॥
पुनि सँधााने आए बसाँधो । दूधा दही के मुरंडा बाँधो॥
औ छप्पन परकार जो आए । नहिं अस देख, न कबहूँ खाए॥
पुनि जाउरि पछियाउरि आई । घिरित खाँड़ कै बनी मिठाई॥
जेंवत अधिाक सुबासित, मुँह महँ परत बिलाइ।
सहस स्वाद सो पावै, एक कौर जो खाइ॥10॥
जेंवन आवा, बीन न बाजा । बिनु बाजन नहिं जेंवै राजा॥
सब कुँवरन्ह पुनि खैंचा हाथू । ठाकुर जेंव तौ जेंवैं साथू॥
विनय करहिं पंडित विद्वाना । काहे नहिं जेवहिं जजमाना?॥
यह कबिलास इंद्र कर बासू । जहाँ न अन्न न माछरि माँसू॥
पान फूल आसी सब कोई । तुम्ह कारन यह कीन्हि रसोई॥
भूख, तौ जनु अमृत है सूखा । धाूप, तौ सीअर नीबी रूखा॥
नींव, तौ भुइँ जनु सेज सपेती । छाँटहुँ का चतुराई एती?॥
कौन काज केहि कारन, बिकल भएउ जजमान।
होइ रजायसु सोई, बेगि देहिं हम आन॥11॥
तुम पंडित जानहु सब भेदू । पहिले नाद भएउ तब बेदू॥
आदि पिता जो बिधिा अवतारा । नाद संग जिउ ज्ञान सँचारा॥
सो तुम बरजि नीक का कीन्हा । जेंवन संग भोग बिधिा दीन्हा॥
नैन, रसन, नासिक, दुइ स्रवना । इन चारहु सँग जेंवै अवना॥
जेंवन देखा नैन सिराने । जीभहिं स्वाद भुगुति रस जाने॥
नासिक सबैं बासना पाई । स्रवनहिं काह करत पहुनाई?॥
तेहि कर होइ नाद सौं पोखा । तब चारिहु कर होइ सँतोखा॥
औ सो सुनहिं सबद एक, जाहि परा किछु सूझि।
पंडित! नाद सुनै कहँ, बरजेहु तुम का बूझि॥12॥
राजा! उतर सुनहु अब सोई । महि डोलै जौ बेद न होई॥
नाद, बेद, मद, पैंड़ जो चारी । काया महँ ते, लेहु बिचारी॥
नाद हिये, मद उपनै काया । जहँ मद तहाँ पैंड़ नहिं छाया॥
होइ उनमद जूझा सो करै । जो न वेद ऑंकुस सिर धारै॥
जोगी होइ नाद सो सुना । जेहि सुनि काय जरै चौगुना॥
कथा जो परम तंत मन लावा । घूम माति, सुनि और न भावा॥
गए जो धारमपंथ होइ राजा । तिन कर मुनि जो सुनै तौ छाजा॥
जस मद पिए घूम कोइ, नाद सुनै पै घूम॥
तेहितें बरजे नीक है, चढ़े रहसि कै दूम॥13॥
भइ जेवनार, फिरा ख्रड़वानी । फिरा अरगजा कुँहकुँह पानी॥
फिरा पान, बहुरा सब कोई । राग बियाहचार सब होई॥
माँड़ौ सोन क गगन सँवारा । बंदनवार लाग सब बारा॥
साजा पाटा छत्रा कै छाँहाँ । रतन चौक पूरा तेहि माहाँ॥
कंचन कलस नीर भरि धारा । इंद्र पास आनी अपछरा॥
गाँठि दुलह दुलहिन कै जोरी । दुऔ जगत जो जाइ न छोरी॥
बेद पढ़ैं पंडित तेहि ठाऊँ । कन्या तुला राशि लेइ नाऊँ॥
चाँद सुरुज दुऔ निरमल, दुऔ संजोग अनूप।
सुरुज चाँद सौं भूला, चाँद सुरुज के रूप॥14॥
दुऔ नाँव लै गावहिं बारा । करहिं सो पदमिनि मंगलचारा॥
चाँद के हाथ दीन्ह जयमाला । चाँद आनि सूरस गिउ घाला॥
सूरुज लीन्ह चाँद पहिराई । हार नखत तरइन्ह स्यों पाई॥
पुनि घनि भरि अंजुलि जल लीन्हा । जोबन जनम कंत कह दीन्हा॥
कंत लीन्ह, दीन्हा धानि हाथा । जोरी गाँठ दुऔ एक साथा॥
चाँद सुरुज सत भाँवरि लेहीं । नखत मोति नेवछावरि देहीं॥
फिरहिं दुऔ सत फेर घुटै कै । सातहु फेर गाँठि सौ एकै॥
भइ भाँवरि, नेवछावरि, राज चार सब कीन्ह।
दायज कहौ कहाँ लगि? लिखि न जाइ जत दीन्ह॥15॥
रतनसेन जब दायज पावा । गंधा्रबसेन आइ सिर नावा॥
मानुस चित्ता आनु किछु कोई । करै गोसाईं सोइ पै होई॥
अब तुम्ह सिंघलदीप गोसाई । हम सेवक अहहीं सेवकाई॥
जस तुम्हार चितउरगढ़ देसू । तस तुम्ह इहाँ हमार नरेसू॥
जंबूदीप दूरि का काजू? । सिंघलदीप करहु अब राजू॥
रतनसेन बिनवा कर जोरी । अस्तुति जोग जीभ कहँ मोरी॥
तुम्ह गोसाई जेइ छार छुड़ाई । कै मानस अब दीन्हि बड़ाई॥
जौ तुम्ह दीन्ह तौ पावा, जिवन जनम सुखभोग।
नातरु खेह पायँ कै, हौं जोगा केहि जोग॥16॥
धाौराहर पर दीन्हा बासू । सात खंड जहवाँ कविलासू।
सखी सहस दस सेवा पाई। जनहुँ चाँद सँग नखत तराई॥
होइ मंडल ससि के चहुँ पासा। ससि सूरहि लेइ चढ़ी अकासा॥
चलु सूरुज दिन अथवै जहाँ । ससि निरमल तू पावसि तहाँ॥
गंधा्रबसेन धाौरहर कीन्हा । दीन्ह न राजहि, जोगिहि दीन्हा॥
मिली जाइ ससि कै चहुँ पाहाँ । सूर न चाँपै पावै छाँहाँ॥
अब जोगी गुरु पावा सोई । उतरा जोग, भसम गा धाोई॥
सात खंड धाौराहर, सात रंग नग लाग।
देखत गा कविलासहि, दिस्टि पाप सब भाग॥17॥
सात खंड सातौ कबिलासा। का बरनौं जग ऊपर बासा॥
हीरा ईंट कपूर गिलावा । मलयागिरि चंदन सब लावा॥
चूना कीन्ह औटि गजमोती । मोतिहु चाहि अधिाक तेहि जोती॥
बिसुकरमै सो हाथ सँवारा । सात खंड सातहि चौपारा॥
अति निरमल नहिं जाइ बिसेखा। जस दरपन महँ दरसन देखा॥
भुइँ गच जानहु समुद हिलोरा । कनकखंभ जनु रचा हिंडोरा॥
रतन पदारथ होइ उजियारा। भूले दीपक औ मसियारा॥
तहँ अछरी पदमावति, रतनसेन के पास।
सातौ सरग हाथ जनु औ सातौ कविलास॥18॥
पुनि तहँ रतनसेन पगु धाारा । जहाँ नौ रतन सेज सँवारा॥
पुतरी गढ़ि गढ़ि खंभन काढ़ी । जनु सजीव सेवा सब ठाढ़ी॥
काहू हाथ चँदन कैं खोरी। कोइ सेंदुर कोइ गहे, सिधाोरी॥
कोइ कुहँकुहँ केसर लिहे रहै। लावै अंग रहसि जनु चहै॥
कोई लिहे कुमकुमा चोवा । धानि कब चहै ठाढ़ि मुख जोवा॥
कोइ बीरा, कोइ लीन्हे बीरी । कोइ परिमल अति सुगँध समीरी॥
काहू हाथ कस्तूरी मेदू । कोइ किछु लिहे लागु तस भेदू॥
पाँतिहि पाँति चहूँ दिसि, सब सोंधो कै हाट।
माँझ रचा इंद्रासन, पदमावति कहँ पाट॥19॥
(1) सोहागू=सौभाग्य या विवाह के गीत। रात=लाल। बिछाव=बिछावन। बंदन=बंदनवार।
(2) लाए=लगाए हुए। चित्रा सारहु=चंदन केसर की खौर बनाओ। अभाऊ=न भानेवाले, न सोहनेवाले। फुलायल=फुलेल। दगल=दगला, ढीला ऍंगरखा। पाँवरि=खड़ाऊँ।
(3) दर=दल। गोहने =साथ में। नइ=झुककर। मसियर=मशाल। सोहिला=सोहला या सोहर नाम के गीत।
(4) जेहि कहँ ससि गढ़ी=जिसके लिए चंद्रमा (पदमावती) बनाई गई। जयमार=जयमाल।
(5) नाहु=नाथ, पति। निरखि=दृष्टि गड़ाकर।
1. पाठांतर-का सौं पिता बैन अस दीन्हा। महादेव जेहि किरपा कीन्हा॥
(6) गाजा=गरजा। अस्टौ भाव=आठों भावों से, पाठांतर-‘सहसौ भाव’। कसनी=ऍंगिया। लंक=कटि और लंका। रावन=(1) रमण करनेवाला, (2) रावण। झ्रखी=झीककर, पछताकर।
(8) चित्तारसारी=चित्राशाला। जोगी पखेरू=पक्षी के समान एक स्थान पर जमकर न रहनेवाला योगी। फूलि=आनंद से प्रफुल्ल होकर। नेग लागा=(मुहा.) सार्थक हुआ, सफल हुआ, होने लगा।
(9) पनवार=पत्ताल। खोरा=कटोरा। मसियार=मशाल। करा=कला।
(10) झालर=एक प्रकार का पकवान, झलरा। माँड़े=एक प्रकार की चपाती। पाग=पागड़ी। लुचुई=मैदे की बहुत महीन पूरी। सोहारी=पूरी। कोंवरी=मुलायम। ख्रडरा=फेंटे हुए बेसन के, भाप पर पके हुए, चौखूँटे टुकड़े जो रसे या दही में भिगोए जाते हैं; कतरा रसाज। बचका=बेसन और मैदे को एक में फेंटकर जलेबी के समान टपका घी में छानते हैं, फिर दूधा में भिगोकर रख देते हैं। एकोतर सौ=एकोत्तार शत, एक सौ एक। कोहँड़ौरी=पेठे की बरी। सँधााने=अचार। बसाँधो=सुगंधिात। मुरंडा=भुने गेहूँ और गुड़ के लड्डू, यहाँ लड्डू। जाउरि=खीर। पछियाउरि=एक प्रकार का सिखरन या शरबत।
(11) भूख…सूखा=यदि भूख है तो रूखा-सूखा भी मानो अमृत है। नाद=शब्दब्रह्म, अनाहत नाद।
(12) सिरान=ठंढै हुए। पोख=पोषण।
(13) मद=प्रेममद। पैंड़=ईश्वर की ओर ले जानेवाला मार्ग, मोक्ष का मार्ग (बौध्दों का चौथा सत्य ‘मार्ग’ है। उन्हीं के यहाँ से वज्रयान योगियों के बीच होता हुआ शायद यह सूफियों तक पहुँचता है)। उनमद=उन्मत्ता। तिनकर पुनि…छाजा=राजधार्म में रत जो राजा हो गए हैं उनका पुण्य तू सुने तो शोभा देता है। चढ़े…दूम=मद चढ़ने पर उमंग में आकर झूमने लगता है।
(14) ख्रड़वानी=शरबत।
(15) हार नखत…सो पाई=हार क्या पाया मानो चंद्रमा के साथ तारों को भी पाया। स्यों=साथ। घुटै कै=गाँठ को दृढ़ करके, जैसे, आन गाँठि घुटि जाय त्यों मान गाँठि छुटि जाय।-बिहारी।
(16) आनु=लाए। नातरु=नहीं तो।
(17) चहुपाहाँ=चारों ओर। चाँपै=पावै दवाने पाता है।
(18) गिलावा=गारा। गच=फर्श। भूले=खो से गए। मसियार=मशाल। अछरी=आसरा।
(19) खोरी=कटोरी। सिंधाोरी=काठ की सुंदर डिबिया जिसमें स्त्रिायाँ ईंगुर या सिंदूर रखती हैं। बीरी=दाँत रँगने का मंजन। परिमल=पुष्पगंधा, इत्रा। सुगँधा समीरी=सुगंधा वायुवाला। सोंधो=गंधाद्रव्य।
सात खंड ऊपर कबिलासू । तहवाँ नारिसेज सुखबासू॥
चारि खंभ चारिहु दिसि खरे । हीरा रतन पदारथ जरे॥
मानिक दिया जरावा मोती । होइ उजियार रहा तेहि जोती॥
ऊपर राता चँदवा छावा । औ भुइँ सुरँग बिछाव बिछावा॥
तेहि महँ पालक सेज सो डासी । कीन्ह बिछावन फूलन्ह बासी॥
चहुँ दिसि गेंडुवा औ गलसूई । काँची पाट भरी धाुनि रूई॥
विधिा सो सेज रची केहि जोगू । को तहँ पौढ़ि मान रस भोगू?॥
अति सुकुवाँरि सेज सो डासी, छुवै न पारै कोइ।
देखत नवै खिनहिं खिन, पाँव धारत कसि होइ।1॥
राजै तपत सेज जो पाई । गाँठि छोरि धानि सखिन्ह छपाई॥
कहै कुँवर! हमरे अस चारू । आज कुँवरि कर करब सिंगारू॥
हरदि उतारि चढ़ाउब रंगू । तब निसि चाँद सुरुज सौं संगू॥
जस चातक मुख बूँद सेवाती । राजा चख जोहत तेहि भाँती॥
जोगि छरा जनु अछरी साथा । जोग हाथ कर भएउ बेहाथा॥
वै चातुरि कर लै अपसईं । मंत्रा अमोल छीनि लेइ गईं॥
बैठेउ खोइ जरी औ बूटी । लाभ न पाव, मूरि भइ टूटी॥
खाइ रहा ठगलाडू, तंत मंत बुधिा खोइ।
भा धाौराहर बनख्रड, ना हँसि आव, न रोइ॥2॥
अस तप करत गएउ दिन भारी । चारि पहर बीते जुग चारी॥
परी साँझ, पुनि सखी सो आईं । चाँद रहा, उपनी जो तराईं॥
पूँछहि गुरु कहाँ, रे चेला ! बिनु ससि रे कस सूर अकेला?॥
धाातु कमाय सिखे तैं जोगी । अब कस भा निरधाातु बियोगी?॥
कहाँ सो खोएहु बिरवा लोना । जेहि तें होइ रूप औ सोना॥
का हरतार पार नहिं पावा । गंधाक काहे कुरकुटा खावा॥
कहाँ छपाए चाँद हमारा? । जेहि बिनु रैनि जगत ऍंधिायारा॥
नैन कौड़िया, हिय समुद, गुरु सो तेहि महँ जोति।
मन मरजिया न होइ परे, हाथ न आवै मोति॥3॥
का पूछहु तुम धाातु, निछोही! । जो गुरु कीन्ह ऍंतरपट ओही॥
सिधिा गुटिका अब मो सँग कहा । भएउँ राँग, सत हिये न रहा॥
सो न रूप जासौं, मुख खोलौं । गएउ भरोस तहाँ का बोलौं॥
जहँ लोना बिरवा कै जाती । कहि कैं सँदेस आन को पाती?॥
कै जो पार हरतार करीजै । गंधाक देखि अबहिं जिउ दीजै॥
तुम्ह जोरा कै सूर मयंकू । पुनि बिछोहि सो लीन्ह कलंकू॥
जो एहि घरी मिलावै मोहीं । सीस देउँ बलिहारी ओही॥
होइ अबरक ईंगुर भया, फेरि अगिनि महँ दीन्ह।
काया पीतर होइ कनक, जौ तुम्ह चाहहु कीन्ह॥4॥
का बसाइ जौ गुरु अस बूझा । चकाबूह अभिमनु ज्यौं जूझा॥
विष जो दीन्ह अमृत देखराई । तेहि रे निछोही को पतियाई?॥
मरै सोइ जो होइ निगूना । पीर न जानै बिरह बिहूना॥
पार न पाव जो गंधाक पीया । सो हत्यार1 कहौ किमि जीया॥
सिध्दि गुटीका जा पहँ नाहीं । कौन धाातु पूछहु तेहि पाहीं॥
अब तेहि बाज राँग भा डोलौं । होइ सार तौ बर कै बोलौं॥
अबरक कै पुनि ईंगुर कीन्हा । सो तन फेरि अगिनि महँ दीन्हा॥
मिलि जो पीतम बिछुरही, काया अगिनि जराइ।
की तेहि मिले तन तप बुझै, की अब मुए बुझाइ॥5॥
सुनि कै बात सखी सब हँसीं । जनहुँ रैनि तरई परगसीं॥
अब सो चाँद गगन महँ छपा । लालच कै कित पावसि तपा?॥
हमहुँ न जानहिं दहुँ सो कहाँ । करब खोज औ बिनउब तहाँ॥
1. पाठांतर-हरतार।
औ अस कहब आहि परदेसी । करहि मया; हत्या जनि लेसी॥
पीर तुम्हारि सुनत भा छोहू । दैउ मनाउ, होइ अस ओहू॥
तू जोगी फिरि तपि करु जोगू । तो कहँ कौन राजसुख भोगू॥
वह रानी जहवाँ सुख राजू । बारह अभरन करै सो साजू॥
जोगी दिढ़ आसन करै, अहथिर धारि मन ठाँव।
जो न सुना तौ अब सुनहि, बारह अभरन नाँव1 ॥6॥
प्रथमै मज्जन होइ सरीरू । पुनि पहिरै तन चंदन चीरू॥
साजि माँग सिर सेंदुर सारै । पुनि लिलाट रचि तिलक सँवारै॥
पुनि अंजन दुहुँ नैनन्ह करै । औ कुंडल कानन्ह महँ पहिरै॥
पुनि नासिक भल फूल अमोला । पुनि राता मुख खाइ तमोला॥
गिउ अभरन पहिरै जहँ ताईं । औ पहिरै कर कँगन कलाई॥
कटि छुद्रावलि अभरन पूरा । पायन्ह पहिरै पायल चूरा॥
बारह अभरन अहैं बखाने । ते पहिरै बरहौ अस्थाने॥
पुनि सोरहौ सिंगार जस, चारिहु चौक कुलीन।
दीरघ चारि, चारि लघु, चारि सुभर चौ खीन॥7॥
पदमावति जो सँवारै लीन्हा । पूनिउँ राति दैउ ससि कीन्हा॥
करि मज्जन तहँ कीन्ह नहानू । पहिरे चीर, गएउ छपि भानू॥
रचि पत्राावलि, माँग सदूरू । भरे मोति औ मानिक चूरू॥
चंदन चीर पहिर बहु भाँती । मेघघटा जानहु बगपाँती॥
गूँथि जो रतन माँग बैसारा । जानहुँ गगन टूटि निसि तारा॥
तिलक लिलाट धारा तस दीठा । जनहुँ दुइज पर सुहल बईठा॥
कानन्ह कुंडल खूँट औ खूँटी । जानहुँ परी कचपची टूटी॥
पहिरि जराऊ ठाढ़ि भइ, कहि न जाइ तस भाव।
मानहुँ दरपन गगन भा, तेहि ससि तार देखाव॥8॥
बाँक नैन औ अंजनरेखा । खंजन मनहुँ सरद ऋतु देखा॥
जस जस हेर, फेर चख मोरी । लरै सरद महँ खंजन जोरी॥
भौहैं धानुक धानुक पै हारा । नैनन्ह साधिा बान विष मारा॥
करनफूल कानन्ह अति सोभा । ससिमुख आइ सूर जनु लोभा॥
सुरँग अधार औ मिला तमोरा । सोहै पान फूल कर जोरा॥
कुसुमगंधा, अति सुरँग कपोला । तेहि पर अलक भुअंगिनि डोला॥
तिल कपोल अलि कवँल बईठा । बेधाा सोइ जेइ वह तिल दीठा॥
देखि सिंगार अनूप विधिा, बिरह चला तब भागि।
काल कस्ट इमि ओनवा, सब मोरे जिउ लागि॥9॥
का बरनौं अभरन औ हारा । ससि पहिरे नखतन्ह कै मारा॥
चीर चारु औ चंदन चोला । हीर हार नग लाग अमोला॥
तेहि झाँपी रोमावलि कारी । नागिनि रूप डसै हत्यारी॥
कुच कंचूकी सिरीफल उभे । हुलसहिं चहहिं कंत हिय चुभे॥
बाहँन्ह वहुँटा टाँड़ सलोनी । डोलत बाँह भाव गति लोनी॥
तरवन्ह कवँल करी जनु बाँधाी । बसा लंक जानहु दुइ आधाी॥
छुद्रघंट कटि कंचन तागा । चलतै उठहिं छतीसौ रागा॥
चूरा पायल अनवट, पायन्ह परहिं बियोग।
हिये लाइ टुक हम कहँ, समदहु मानहुँ भोग॥10॥
अस बारह सोरह धानि साजै । छाह न और; ओहि पै छाजै॥
बिनवहिं सुखी गहरु का कीजै । जेइ जिउ दीन्ह ताहि जिउ दीजै॥
सँवरि सेज धानि मन भइ संका । ठाढ़ि तेवानि टेकि कर लंका॥
अनचिन्ह पिउ, कापौं मन माहाँ । का मैं कहब गहब जौ बाहाँ॥
बारि बैस गइ प्रीति न जानी । तरुनि भई मैमंत भुलानी॥
जोबन गरब न मैं किछु चेता । नेह न जानौं सावँ कि सेता॥
अब सो कंत जो पूछिहिं बाता । कस मुख होइहि पीत की राता॥
हौं बारी औ दुलहिनि, पीउ तरुन सह तेज।
ना जानौं कस होइहि, चढ़त कंत के सेज॥11॥
सुनु धानि! डर हिरदय तब ताईं । जौ लगि रहसि मिलै नहिं साईं॥
कौन कली जो भौंर न राई । डार न टूट पुहुप गरुआई॥
मातु पिता जौ बियाहै सोई । जनम निबाह कंत सँग सोई॥
भरि जीवन राखै जहँ चहा । जाइ न मेंटा ताकर कहा॥
ताकहँ बिलँब न कीजै बारी । जो पिउ आयसु सोइ पियारी॥
चलहु बेगि आय सु भा जैसे । कंत बोलाबै रहिए कैसे॥
मान न करसि पोढ़ कर लाडू । मान करत रिस मानै चाडू॥
साजन लेइ पठावा, आयसु जाइ न मेट।
तन मन जोबन, साजि के, देह चली लेइ भेंट॥12॥
पदमिनि गवन हंस गए दूरी । कुंजर लाज मेल सिर धाूरी॥
बदन देखि घटि चंद छपाना । दसन देखि कँ बीजु लजाना॥
खंजन छपे देखि कै नैना । कोकिल छपी सुनत मधाु बैना॥
गीव देखि कै छपा मयूरू । लंक देखि कै छपा सदूरू॥
भौंहन्ह धानुक छपा आकारा । बेनी बासुकि छपा पतारा॥
खड़ग छपा नासिका बिसेखी । अमृत छपा अधार रस देखी॥
पहुँचहिं छपी कवँल पौनारी । जंघ छपा कदली होइ बारी॥
अछरी रूप छपानी, जबहिं चली धानि साजि।
जावत गरब गहेली, सबै छपीं मन रागि॥13॥
मिलीं गोहने सखी तराईं । लेइ चाँद सूरज पहँ आईं॥
पारस रूप चाँद देखराई । देखत सूरुज गा मुरछाई॥
सोरह कला दिस्टि ससि कीन्ही । सहसौ कला सुरुज कै लीन्ही॥
भा रबि अस्त, तराई हँसी । सूर न रहा, चाँद परगसी॥
जोगी आहि न भोगी होई । खाइ कुरकुटा गा पै सोई॥
पदमावति जसि निरमल गंगा । तू जो कंत जोगी भिखमंगा॥
आइ जगावहिं ‘चेला जागै । आवा गुरु, पायँ उठि लागै’॥
बोलहिं सबद सहेली, कान लागि गहि माथ।
गोरख आइ ठाढ़ भा, उठु रे चेला नाथ॥14॥
सुनि यह सबद अमिय अस लागा । निद्रा टूटि, सोइ अस जागा1॥
गही बाँह धानि सेजबाँ आनी । अंचल ओट रही छपि रानी॥
सकुचै डरै मनहि मन बारी । गहु न बाँह, रे जोगि भिखारी?॥
ओहट होसि, जोगि! तोरि चेरी । आवै बास कुरकुटा केरी॥
देखि भभूति छूति मोहिं लागै । काँपै चाँद सूर सौं भागै॥
जोगि तोरि तपसी कै काया । लागि चहै मोरे ऍंग छाया॥
बार भिखारि न माँगसि भीखा । माँगै आइ सरग पर सीखा॥
जोगि भिखारी कोई, मँदिर न पैठै पार।
माँगि लेहु किछु भिच्छा, जाइ ठाढ़ होइ बार॥15॥
मैं तुम्ह कारन पेम पियारी । राज छाँड़ि कै भएउँ भिखारी॥
नेह तुम्हारा जो हिये समाना । चितउर सौं निसरेउँ होइ आना॥
जस मालति कहँ भौंर बियोगी । चढ़ा बियोग, चलेउँ होइ जोगी॥
भौंर खोजि जस पावै केवा । तुम्ह कारन मैं जिउ पर छेवा॥
भएउँ भिखारि नारि तुम्ह लागी । दीप पतंग होइ ऍंगएउँ आगी॥
एक बार मरि मिलै जो आई । दूसरि बार मरै कित जाई।
कित तेहि मीचु जो मरि कै जीया ? भा सो अमर, अमृत मधाुपीया॥
भौंर जो पावै कँवल कहँ, बहु आरति बहु आस।
भौंर होइ नेवछावरि, कँवल देइ हँसि बास॥16॥
अपने मुँह न बड़ाई छाजा । जोगी कतहुँ होहिं नाहि राजा॥
हौं रानी, तू जोगि भिखारी । जोगिहि भोगहि कौन चिन्हारी?॥
जोगी सबै छंद अस खेला । तू भिखारि तेहि माहिं अकेला॥
पौन बाँधिा अपसवहिं अकासा । मनसहिं जाहिं ताहि के पासा॥
एही भाँति सिस्टि सब छरी । एही भेखे रावन सिय हरी।
भौंरहिं मीचु नियर जब आवा । चंपा बास लेइ कहँ धाावा॥
दीपक जोति देखि उजियारी । आइ पाँखि होइ परा भिखारी॥
रैन सो देखै चँदमुख, ससि तन होइ अलोप।
तुहँ जोगी तस भूला, करि राजा कर ओप॥17॥
अनु, धानि तू निसिअर निसि माहाँ । हौं दिनिअर जेहि कै तूछाहाँ॥
चाँदहि कहाँ जोति औ करा । सुरुज के जोति चाँद निरमरा॥
भौंर बास चंपा नहिं लेई । मालति जहाँ तहाँ जिउ देई॥
तुम्ह हुँत भएउँ पतँग कै करा । सिंघलदीप आइ उड़ि परा॥
सेएऊँ महादेव कर बारू । तजा अन्न भा पवन अहारू॥
अस मैं प्रीति गाँठि हिय जोरी । कटै न काटे, छुटै न छोरी॥
सीतै भीखि रावनहिं दीन्हीं । तूँ असि निठुर ऍंतरपट कीन्ही॥
रंग तुम्हारेहि रातेऊँ, चढ़ेउँ गगन होइ सूर।
जहँ ससि सीतल तहँ तपौं, मन हींछा, धानि! पूर ॥18॥
जोगि भिखारि!करसिबहुबाता । कहसि रंग देखौं नहिं राता॥
कापर रँगे रंग नहिं होई । उपजै औटि रंग भल सोई॥
चाँद के रंग सुरुज जस राता । देखै जगत साँझ परभाता॥
दगधिा बिरह निति होइ ऍंगारा । ओही ऑंच धिाकै संसारा॥
जो मजीठ औटै बहु ऑंचा । सो रँग जनम न डोलै राँचा॥
जरै बिरह जस दीपक बाती । भीतर जरै उपर होइ राती॥
जरि परास होइ कोइल भेसू । तब फलै राता होइ टेसू॥
पान, सुपारी, खैर जिमि, मेरइ करै चकचून।
तौ लगि रंग न राँचै, जौ लगि होइ न चून॥19॥
का धानि! पान रंग, का चूना । जेहि तन नेह दाधा तेहि दूना॥
हौं तुम्ह नेह पियर भा पानू । पेड़ी हुँत सोनरास बखानू॥
सुनि तुम्हार संसार बड़ौना । जोगि लीन्ह, तन कीन्ह गड़ौना॥
करहिं जो किंगरी लेइ बैरागी । नौती होइ बिरह कै आगी॥
फेरि फेरि तन कीन्ह भुँजौना । औटि रकत रँग हिरदय औना॥
सूखि सोपारी भा मन मारा । सिरहिं सरौता करवत सारा॥
हाड़ चून भा बिरहहि दहा । जानै सोइ जो दाधा इमि सहा॥
सोई जान वह पीरा, जेहि दुख ऐस सरीर।
रकत पियासा होइ जो, का जानै पर पीर?॥20॥
जोगिन्ह बहुत छंद न ओराहीं । बूँद सेवाती जैस पराहीं॥
परहिं भूमि पर होइ कचूरू । परहिं कदलि पर होइ कपूरू॥
परहिं समुद्र खार जल ओहीं । परहिं सीप तो मोती होहीं॥
परहिं मेरु पर अमृत होई । परहिं नागमुख बिष होइ सोई॥
जोगी भौंर निठुर ए दोऊ । केहि आपन भए? कहै जी कोऊ॥
एक ठाँव ए थिर न रहाहीं । रस लेइ खेलि अनत कहुँ जाहीं॥
होइ गृही पुनि होइ उदासी । अंत काल दूबौ बिसवासी॥
तेहि सौं नेह का दिढ़ करै? रहहिं न एकौ देस।
जोगी, भौंर, भिखारी, इन्ह सौं दूरि अदेस॥21॥
थल थल नग न होहिं जेहि जोती । जल जल सीप न उपनहिंमोती॥
बन बन बिरिछ न चंदन होई । तन तन बिरह न उपनै सोई॥
जेहि उपना सो औटि मरि गयऊ । जनम निनार न कबहूँ भयेऊ॥
जल अंबुज, रवि रहै अकासा । जौं इन्ह प्रीति जानु एक पासा॥
जोगी भौंर जो थिर न रहाहीं । जेहि खोजहिं तेहि पावहिं नाहीं॥
मैं तोहि पायउँ आपन जीऊ । छाँड़ि सेवाति न आनहिं पीऊ॥
भौंर मालती मिलै जौ आई । सो तजि आन फूल कित जाई?॥
चंपा प्रीति न भौंरहि, दिन दिन आगरि बास।
भौंर जो पावै मालती, मुएहु न छाँड़ै पास॥22॥
ऐसे राजकुँवर नहीं मानौं । खेलु सारि पाँसा तब जानौं।
काँचे बारह परा जो पाँसा । पाके पैंत परी तनु रासा1॥
रहै न आठ अठारह भाखा । सोरह सतरह रहैं त राखा॥
सत जो धारै सो खेलनहारा । ढारि इगारह जाइ न मारा॥
तूँ लीन्हे आछसि मन दूवा । ओ जुग सारि चहसि पुनि छूवा॥
हौं नव नेह रचौं तोहि पाहाँ । दसवँ दाँव तोरे हिय माहाँ॥
तौ चौपर खेलौं करि हिया । जौ तरहेल होइ सौतिया॥
जेहि मिलि बिछुरन औ तपनि, अंत होइ जौ निंत।
तेहि मिलि गंजन को सहैे? बरु बिनु मिलै निचिंत॥23॥
बौलौं रानि! बचन सुनु साँचा । पुरुष क बोल सपथ औ बाचा॥
यह मन लाएउँ तोहिं अस नारी । दिन तुइ पासा औ निसि सारी॥
पौ परि बारहि बार मनाएउँ । सिर सौं खेलि पैंत जिउ लाएउँ॥
हौं अब चौक पँज तें बाँची । तुम्ह बिचगोट न आवहि काँची॥
पाकि उठाएउँ आस करीता । हौं जिउ तोहि हारा, तुम जीता॥
मिलि कै जुग नहिं होहु निनारी । कहाँ बीच दूती देनिहारी॥
अब जिउ जनम जनम तोहि पासा । चढ़ेउँ जोग, आएउँ कविलासा॥
जाकर जीव बसै जेहि, तेहि पुनि ताकरि टेक।
कनक सोहाग न बिछुरै, औटि मिलै होइ एक॥24॥
बिहँसी धानि सुनि कै सत बाता । निहचय तू मोरे रँग राता॥
निहचय भौंर कँवल रस रसा । जो जेहि मन सो तेहि मन बसा॥
जब हीरामन भएउ सँदेसी । तुम्ह हुँत मँडप गइउँ परदेसी॥
तोर रूप तस देखेउँ लोना । जनु, जोगी! तू मेलेसि टोना॥
सिधिा गुटिका जो दिस्टि कमाई । पारहिं मेलि रूप बैसाई॥
भुगुति देइ कहँ मैं तोहि दीठा । कँवल नैन होइ भौंर बईठा॥
नैन पुहुप, तू अलि भा सोभी । रहा बेधिा अस, उड़ा न लोभी॥
जाकरि आस होइ जेहि, तेहि पुगि ताकरि आस।
भौंर जो दाधाा कँवल कहँ, कस न पाव सो बास?॥25॥
कौन मोहनी दहुँ हुति तोही । जो तोहि बिथा सो उपनो मोही॥
बिनु जल मीन तलफ जस जीऊ । चातकि भयउँ कहत ‘पिउपीऊ’॥
जरिऊँ बिरह जस दीपक बाती । पंथ जोहत भइ सीप सेवाती॥
डाढ़ि डाढ़ि जिमि कोयल भई । भइउँ चकोरि, नींद निसि गई॥
तोरे पेम पेम मोहिं भयऊ । राता हेम अगिनि जिम तयऊ॥
हीरा दिपै जौ सूर उदोती । नाहिं त कित पाहन कहँ जोती!॥
रवि परगासे कँवल बिगासा । नाहिं तकितमधाुकर,कित बासा॥
तासौं कौन ऍंतरपट, जो अस पीतम पीउ।
नेवछावरि अब सारौं तन, मन जोबन, जीउ॥26॥
हँसि पदमावति मानी बाता । निहचय तू मोरे रँगराता॥
तू राजा दुहुँ कुल उजियारा । अस कै चरचिउँ मरम तुम्हारा॥
पै तूँ जंबूदीप बसेरा । किमि जानेसि कस सिंघल मोरा?॥
किमि जानेसि सो मानसर केवा । सुनि सो भौंर भा, जिउ परछेवा॥
ना तुइ सुनी, न कबहूँ दीठी । कैस चित्रा होइ चितहि पईठी?॥
जौ लहि अगिनि करै नहिं भेदू । तौ लहि औटि चुवै नहिं मेदू॥
कहँ संकर तोहि ऐस लखावा? । मिला अलख अस पेम चखावा॥
जैहि कर सत्य सँघाती, तेहि कर डर सोइ मेट।
सो सत कहु कैसे भा, दुवौ भाँति जो भेंट॥27॥
सत्य कहौं सुनु पदमावती । जहँ सत पुरुष तहाँ सुरसती॥
पायउँ सुवा, कही वह बाता । भा निहचय देखत मुख राता॥
रूप तुम्हार सुनेउँ अस नीका । ना जेहि चढ़ा काहु कहँ टीका॥
चित्रा किएउँ पुनि लेइ लेइ नाऊँ । नैनहि लागि हिये भा ठाऊँ॥
हौं भा साँच सुनत ओहि घड़ी । तुम होइ रूप आइ चित चढ़ी॥
हौं भा काठ मूर्ति मन मारे । चहै जो कर सब हाथ तुम्हारे॥
तुम्ह जौ डोलाइहु तबहीं डोला । मौन सांस जौ दोन्ह तौ बोला॥
को सोवै को जागै? अस हौं गएउँ बिमोहि।
परगट गुपुत न दूसर, जहँ देखौं तहँ तोहि॥28॥
बिहँसी धानि सुनि कै सत भाऊ । हौं रामा तू राबन राऊ॥
रहा जो भौंर कँवल के आसा । कस न भोग मानै रस बासा?॥
जस सत कहा कुँवर! तू मोही । तस मन मोर लाग पुनि तोही॥
जव हुँत कहि गा पंखि सँदेसी । सुनिउँ कि आवा है परदेसी॥
तब हुँत तुम बिनु रहै न जीऊ । चातक भइउँ कहत ‘पिउ पीऊ’॥
भइउँ चकोरि सो पंथ निहारी । समुद सीप जस नैन पसारी॥
भइउँ बिरह दहि कोइल कारी । डार डार जिमि कूकि पुकारी॥
कौन सो दिन जब पिउ मिलै, यह मन राता तासु।
वह दुख देखै मोर सब, हौं दुख देखौं तासु॥29॥
कहि सत भाव भई कँठलागू । जनु कंचन औ मिला सोहागू॥
चौरासी आसन पर जोगी । खट रस, बंधाक चतुर सो भोगी॥
कुसुममाल असि मालति पाई । जनु चंपा गहि डार ओनाई॥
कली बेधिा जनु भँवर भुलाना । हना राहु अरजुन के बाना॥
कंचन करी जरी नग जोती । बरमा सौं बेधाा जनु मोती॥
नारँग जाति कीर नख दिए । अधार आमरस जानहुँ लिए॥
कौतुक केलि करहिं दुख नंसा । खूँदहिं कुरलहिं जनु सर हंसा॥
रही बसाइ बासना, चोवा चंदन मेद।
जेहि अस पदमिनि रानी, सो जानै यह भेद॥30॥
रतनसेन सो कंत सुजानू । खटरस पंडित सोरह बानू॥
तस होइ मिले पुरुष औ गोरी । जैसी बिछुरी सारस जोरी॥
रची सारि दूनौ एक पासा । होइ जुग जुग आवहिं कविलासा॥
पिय धानि गही, दीन्हि गलबाहीं । धानि बिछुरी लागी उर माहीं॥
ते छकि रस नव केलि करेहीं । चोका लाइ अधार रस लेहीं?॥
धानि नौ सात, सात औ पाँचा । पूरुष दस ते रह किमि बाँचा?॥
लीन्ह बिधाांसि बिरह धानि साजा । औ सब रचन जीत हुत राजा॥
जनहुँ औटि कै मिलि गए, तस दूनौ भए एक।
कंचन कसत कसौटी, हाथ न कोऊ टेक॥31॥
चतुर नारि चित अधिाक चिहुँटी । जहाँ पेम बाढ़ै किमि छूटी॥
कुरला काम केरि मनुहारी । कुरला जेहिं नहिं सो न सुनारी॥
कुरलहि होइ कंत कर तोखू । कुरलहि किए पाव धानि मोखू॥
जेहि कुरला सो सोहाग सुभागी । चंदन जैस साम कँठ लागी॥
गेंद गोद कै जानहु लई । गेंद चाहि धानि कोमल भई॥
दारिउँ, दाख, बेल रस चाखा । पिय के खेल धानि जीवन राखा॥
भएउ बसंत कली मुख खोली । बैन सोहावन कोकिल बोली॥
पिउ पिउ करत जो सूखि रहि, धानि चातक की भाँति।
परी सो बूँद सीप जनु, मोती होइ सुख साँति॥32॥
भएउ जूझ जस रावन रामा । सेज बिधााँसि बिरह संग्रामा॥
लीन्हि लंक, कंचन गढ़ टूटा । कीन्ह सिंगार अहा सब लूटा॥
औ जोबन मैमंत बिधााँसा । बिचला बिरह जीउ जो नासा॥
टूटे अंग अंग सब भेसा । छूटी माँग, भंग भए केसा॥
कंचुकि चूर, चूर भइ तानी । टूटे हार, मोति छहरानी॥
बारी, टाँण सलोनी टूटी । बाँहू कंगन कलाई फूटी॥
चंदन अंग छूट अस भेंटी । बेसरि टूटि, तिलक गा मेटी॥
पुहुप सिंगार सँवार सब, जोबन नवल बसंत।
अरगज जिमि हिय लाइ कै, मरगज कीन्हेउ कंत॥33॥
बिनय करै पदमावति वाला । सुधिा न, सुराही पिएउ पियाला॥
पिउ आयसु माथे पर लेऊँ । जो माँगै नइ नइ सिर देऊँ॥
पै, पिय! बचन एक सुनु मोरा । चाखु पिया! मधाु थोरै थोरा॥
पेम सुरा सोई पै पिया । लखै न कोइ कि काहू दिया॥
चुवा दाख मधाु जो एक बारा । दूसरि बार लेत बेसँभारा॥
एक बार जो पी कै रहा । सुख जीवन, सुख भोजन लहा॥
पान फूल रस रंग करीजै । अधार अधार सौं चाखा कीजै॥
जो तुम चाहौ सो करौं, ना जानौं भल मंद।
जो भालै सो होइ मोहिं, तुम्ह पिउ! चहौं अनंद॥34॥
सुनु, धानि! पेम सुरा के पिए । मरन जियन डर रहै न हिए॥
जेहि मद तेहि कहाँ संसारा । की सो धाूमि रह, की मतवारा॥
सो पै जान पिये जो कोई । पी न अघाइ, जाइ परि सोई॥
जा कहँ होइ बार एक लाहा । रहै न ओहि बिनु, ओही चाहा॥
अरथ दरब सो देह बहाई । की सब जाहु, न जाइ पियाई॥
रातिहु दिवस रहै रस भीजा । लाभ न देख, न देखै छीजा॥
भोर होत तब पलुह सरीरू । पाव खुमारी सीतल नीरू॥
एक बार भरि देहु पियाला, बार बार को माँग?।
मुहमद किमि न पुकारै, ऐसे दाँव जो खाँग?॥35॥
भा बिहान ऊठा रवि साईं । चहुँ दिसि आईं नखत तराईं॥
सब निसि सेज मिला ससि सूरू । हार चीर बलया भए चूरू॥
सो धानि पान, चून भइ चोली । रंग रंगीली निरंग भइ भोली॥
जागत रैनि भएउ भिनसारा । भई अलस सोवत बेकरारा॥
अलक सुरंगिनि हिरदय परी । नारँग छुव नागिनि बिष भरी॥
लरी मुरी हिय हार लपेटी । सुरसरि जनु कालिंदी भेंटी॥
जनु पयाग अरइल बिच मिली । सोभित बेनी रोमावली॥
नाभी लाभु पुन्नि कैं, कासीकुंड कहाव।
देवता करहिं कलप सिर, आपुहि दोष न लाव॥36॥
बिहँसि जगावहिं सखी सयानी । सूर उठा, उठु पदमावति रानी॥
सुनत सूर जनु कँवल बिगासा । मधाुकर आइ लीन्ह मधाु बासा॥
जनहुँ माति निसयानी बसी । अति बेसँमार फूलि जनु अरसी॥
नैन कँवल जानहुँ दुइ फूले । चितवनि मोहि मिरिग जनु भूले॥
तन न सँभार कस औ चोली । चित अचेत जनु बाउरि भोली॥
भइ ससि हीन गहन अस गही । बिथुरे नखत, सेज भरि रही॥
कँवल माँह जनु केसरि दीठी । जोबन हुत सो गँवाइ बईठी॥
बेलि जो राखी इंद्र कहँ, पवन बास नहिं दीन्ह।
लागेउ आइ भौंर तेहि, कली बेधिा रस लीन्ह॥37॥
हँसि हँसि पूछहिं सखी सरेखी । मानहुँ कुमुद चंद्रमुख देखी॥
रानी! तुम ऐसी सुकुमारा । फूल बास तन जीव तुम्हारा॥
सहि नहिं सकहु हिये पर हारू । कैसे सहिउ कंत कर भारू?॥
मुख अंबुज बिगसै दिन राती । सो कुँभिलान कहहु केहि भाँती?॥
अधर कँवल जो सहा न पानू । कैसे सहा लाग मुख भानू?॥
लंक जो पैग देत मुरि जाई । कैसे रही जो रावन राई?॥
चंदन चोव पवन अस पीऊ । भइउ चित्रा सम, कस भा जीऊ?॥
सब अरगज मरगज भयउ, लोचन बिंब सरोज।
‘सत्य कहहु पदमावति’ सखी परीं सब खोज॥38॥
कहौं सखी! आपन सतभाऊ । हैं जो कहति कस रावन राऊ॥
काँपी भौंर पुहुप पर देखे । जनु ससि गहन तैस मोहिं लेखे॥
आजु मरम मैं जाना सोई । जस पियार पिउ और न कोई॥
डर तौ लगि हिय मिला न पीऊ । भानु के दिस्टि छूटि गा सीऊ॥
जत खन भानु कीन्ह परगासू । कँवल कली मन कीन्ह बिगासू॥
हिये छोह उपना औ सीऊ । पिउ न रिसाउ लेउ बरु जीऊ॥
हुत जो अपार बिरह दुख दूखा । जनहुँ अगस्त उदय जल सूखा॥
हौं रँग बहुतै आनति, लहरैं जैस समुंद।
पै पिउ कै चतुराई, खसेउ न एकौ बुँद॥39॥
करि सिंगार तापहँ का जाऊँ । ओही देखहुँ ठाँवहिं ठाँऊँ॥
जौ जिउ मँह तौ उहै पियारा । तन मन सौं नहिं होइ निनारा॥
नैन माँह है उहै समाना । देखौ तहाँ नाहिं कोउ आना॥
आपन रस आपुहि पै लेई । अधार सोइ लागे रस देई॥
हिया थार कुच कंचन लाडू । अगमन भेंट दीन्ह कै चाँड़ू॥
हुलसी लंक लंक सौं लसी । रावन रहसि कसौटी कसी॥
जोबन सबै मिला ओहि जाई । हौं रे बीच हुँत गइउँ हेराई॥
जस किछु देह धारै कहँ, आपन लेइ सँभारि॥
रहसि गारि तस लीन्हेसि, कीन्हेसि मोहि ठँठारि॥40॥
अनु रे छबीली! तोहि छबि लागी । नैन गुलाल कंत सँग जागी॥
चंप सुदरसन अस भा सोई । सोनजरद जस केसर होई॥
बैठ भौंर कुच नारँग बारी । लागे नख, उछरीं रँग धाारी॥
अधार अधार सों भीज तमोरा । अलकाउर मुरि मुरि गा तोरा॥
रायमुनी तुम औ रतमुहीं । अलिमुख लागि भई फुलचुहीं॥
जैस सिंगार हार सौं मिली । मालति ऐसि सदा रहु खिलीं॥
पुनि सिंगार करु कला नेवारी । कदम सेवती बैठु पियारी॥
कुंद कली सम बिगसी, ऋतु बसंत औ फाग।
फूलहु फरहु सदा सुख, औ सुख सुफल सोहाग॥41॥
कहि यह बात सखी सब धााईं । चंपावति पहँ जाइ सुनाईं॥
आजु निरँग पदमावति बारी । जीवन जानहुँ पवन अधाारी॥
तरकि तरकि गइ चंदन चोली । धारकि धारकि हिय उठै न बोली॥
अही जो कली कँवल रसपूरी । चूर चूर होइ गईं सो चूरी॥
देखहु जाइ जैसि कुँभिलानी । सुनि सोहाग रानी बिहँसानी॥
सेइ सँग सबही पदमावति नारी । आई जहँ पदमावति बारी॥
आइ रूप सो सबही देखा । सोनबरन होइ रही सो रेखा॥
कुसुम फूल जस मरदै, निरंग देख सब अंग।
चंपावति भइ बारी, चूम केस औ मंग॥42॥
सब रनिवास बैठ चहुँ पासा । ससि मंडल जनु बैठ अकासा॥
बोलीं सबै बारि कुँभिलानी । करहु सँभार, देहु खड़वानी॥
कँवल कली कोमल रँग भीनी । अति सुकुमारि, लंक कै छीनी॥
चाँद जैस धानि हुत परगासा । सहस करा होइ सूर बिगासा॥
तेहिके झार गहन अस गही । भई निरंग, मुख जोति न रही॥
दरब वारि किछु पुन्नि करेहू । औ तेहि लेइ संन्यासिहि देहू॥
भरि कै थार नखत गजमोती । वारा कीन्ह चंद कै जोती॥
कीन्ह अरगजा मरदन, औ सखि कीन्ह नहानु।
पुनि भइ चौदस चाँद सो, रूप गएउ ठपि भानु॥43॥
पुनि बहु चीर आन सब छोरी । सारी कंचुकि लहर पटोरी॥
फुँदिया और कसनिया राती । छायल बँद लाए गुजराती॥
चिकवा चीर मघौना लोने । मोति लाग औ छापे सोने॥
सुरँग चीर भल सिंघलदीपी । कीन्ह जो छापा धानि वह छीपी॥
पेमचा डरिया औ चौधाारी । साम, सेत, पीयर, हरियारी॥
सात रंग औ चित्रा चितेरे । भरि कै दीठि जाहिं नहिं हेरे॥
चँदनौता औ खरदुक भारी । बाँसपूर झिलमिल कै सारी॥
पुनि अभरन बहु काढ़ा, अनबन भाँति जराव।
हेरि फेरि नित पहिरै, जब जैसे मन भाव॥44॥
(1) पालक=पलँग। डासी=बिछाई। गेंडुआ=तकिया। गलसूई=गाल के नीचे रखने का छोटा तकिया। काँची=गोटा पट्टा। पौढ़ि=लेटकर। सुकुवाँरि=कोमल।
(2) तपत=तप करते हुए। चारू चार=रीति, चाल। हरदि उतारि=ब्याह के लग्न में शरीर में जो हल्दी लगती है उसे छुड़ाकर। रंगू=अंगराग। छरा=ठगा गया, खोया। कर=हाथ से। टूटि भइ=घाटा हुआ, हानि हुई। ठगलाडू=विष या नशा मिला हुआ लड्डू जिसे पथिकों को खिलाकर ठग लोग बेहोश करते थे।
(3) चाँद रहा…तराईं=पिर्निंी तो रह गई, केवल उसकी सखियाँ ही दिखाई पड़ीं। निरधाातु=निस्सार। बिरवा लोना=(क) अमलोनी नाम की घास जिसे रसायनी धाातु सिध्द करने के काम में लाते हैं। (ख) सुंदर वल्ली, पदमावती। रूप=(क) रूपा। (ख) चाँदी। कौड़िया=कौड़िल्ला पक्षी जो मछली पकड़ने के लिए पानी के ऊपर मँडराता है।
(4) निछोही=निष्ठुर। जो…ओही=जो उस गुरु (पदमावती) को तुमने छिपा दिया है। राँग=राँगा। जोरा कै=(क) एक बार जोड़ी मिलाकर? (ख) तोले भर राँगे और तोले भर चाँदी का दो तोले चाँदी बनाना रसायनियों की बोली में जोड़ा करना कहलाता है।
(5) का बसाइ=क्या वश चल सकता है? बाज=बिना। वर=बल।
(6) तपा=तपस्वी। जनि लेसी=न ले। दैउ मनाउ….ओहु=ईश्वर को मना कि उसे (पदमावती को) भी वैसी ही दया हो जैसी हम लोगों को तुझपर आ रही है।
(7) फूल=नाक में पहनने की लौंग। छुद्रावलि=क्षुद्रघंटिका, करधानी। चूरा=कड़ा। चौक चार=चार का समूह। कुलीन=उत्ताम। सुभर=शुभ्र।
(8) सँवारै=शृंगार को। पत्राावली=पत्राभंग रचना। दुइज=दूज का चंद्रमा। सुहल=सुहेल (अगत्स्य) तारा जो दूज के चंद्रमा के साथ दिखाई पड़ता है और अरबी फारसी काव्य में प्रसिध्द है। खूँट=कान का एक चक्राकार गहना। मानहुँ दरपन…देखाव=मानो आकाश रूपी दर्पण में जो चंद्रमा और तारे दिखाई पड़ते हैं वे इसी पदमावती के प्रतिबिंब हैं।
1. ग्रंथों में जो बारह आभरण गिनाए गए हैं वे ये हैं-नूपुर, किंकिणी, वलय, ऍंगूठी, कंकण, अंगद, हार, कंठश्री, बेसर, खूँट या बिरिया, टीका, सीसफूल। आभरणों के चार भेद कहे गए हैं-आबेधय, बंधानीय, क्षेप्य (जैसे कड़ा, ऍंगूठी) और आरोप्य (जैसे, हार)। जायसी ने सोलह शृंगार और बारह आभरण की बातें लेकर एक में गड़बड़ कर दिया है।
(9) खंजन….देखा=पदमावती का मुख चंद्र शरद के पूर्ण चंद्र के समान होकर शरद ऋतु का आभास देता है। हेर=ताकती है। धानुक=इंद्रधानुष। ओनवा=झुका, पड़ा। काल कस्ट…लागि=विरह कहता है कि यह कालकष्ट आ पड़ा सब मेरे ही जी के लिए।
(10) मारा=माला। झाँपी=ढाँक दिया। उभे=उठे हुए। बहुँटा और टाँड़=बाँह पर पहनने के गहने। पायल=पैर का एक गहना। अनवट=ऍंगूठे का एक गहना। समदहु मिलो=आलिंगन करो।
(11) गहरु=देर, विलंब। सँवरि=स्मरण करके। तेवानि=सोच या चिंता में पड़ गई। अनचिन्ह=अपरिचित। साँव=श्याम। पूछिहि=पूछेगा।
(12) राई=अनुरक्त हुई। डार न टूट…गरुआई=कौन फूल अपने बोझ से ही डाल से टूटकर न गिरा। पोढ़=पुष्ट। लाडू=लाड़, प्यार, प्रेम। चाड़ू=गहरी चाहवाला। साजन=पति।
(13) मेल=डालता है। सदूरू=शार्दूल, सिंह। पहुँचा=कलाई। पौनारी=पनर्िांल। खड़ग छपा=तलवार छिपी (म्यान में)। बारी होइ=बगीचे में जाकर। गरब गहेली=गर्व धाारण करनेवाली।
1. पाठांतर-गोरख सबद सिध्द भा राजा। राजा सुनि रावन होइ गाजा॥
(14) गोहने=साथ में। कुरकुटा=अन्न का टुकड़ा; मोटा रूखा अन्न। पै=निश्चयवाचक, ही। नाथ=जोगी (गोरखपंथी साधाु नाथ कहलाते हैं।)
(15) बार=द्वार। पैठे पार=घुसने पाता है।
(16) होइ आना=अन्य अर्थात् योगी होकर। केवा=कमल। छेवा=फेंका, डाला (सं. क्षेपण), या खेला। ऍंगएउँ=ऍंगेजा, शरीर पर सहा।
(17) चिन्हारी=जान-पहचान। छंद=कपट, धाूर्तता। तेहि माहिं अकेला=उनमें एक ही धाूर्त है। अपसवहिं=जाते हैं। मनसहिं=मन में धयान या कामना करते हैं।
(18) निसिअर=निशाकर, चंद्रमा। अनु=(अव्य.) फिर, आगे। करा=कला। तुम्ह हुँत=तुम्हारे लिए। पतँग कै करा=पतंग के रूप का। बारू=द्वार।
(19) देखैं जगत…परभाता=संध्या सवेरे जो ललाई दिखाई पड़ती है। धिाकै=तपता है। मजीठ=साहित्य में पक्के राग या प्रेम को मंजिष्ठा राग कहते हैं। जनम न डोलै=जन्म भर नहीं दूर होता। चकचून करै=चूर्ण करे। चून=चूना पत्थर या कंकड़ जलाकर बनाया जाता है।
(20) पेड़ी हुँत=पेड़ी ही से, जो पान डाल या पेड़ी में ही पुराना होता है, उसे भी पेड़ी ही कहते हैं। सोनरास=पका हुआ सफेद या पीला पान। बड़ौना=(क) बड़ाई। (ख) एक जाति का पान। गड़ौना=एक प्रकार का पान जो जमीन में गाड़कर पकाया जाता है। नौती=नूतन, ताजा। भुँजौना कीन्ह=भूना। औना=आता है, आ सकता है।
(21) ओराहीं=चुकते हैं। छंद=छल, चाल। कचूर=हलदी की तरह का एक पौधाा। दूरि अदेस=दूर ही से प्रणाम।
(22) न आनहिं पीऊ=दूसरा जल नहीं पीता। आगरि=अधिाक।
(23) सारी=गोटी।पैंत=दाँव। रास=ठीक। (ख) ग्यारह का दाँव। दूबा=(क) दुविधाा, (ख) दो कादावँ। जुग सारि=(क) दो गोटियाँ, (ख) कुच। दसबँ दाँव=(क) दसवाँ दाँव। (ख) अंत तक पहुँचाने वाली चाल। तरहेल=अधाीन, नीचे पड़ा हुआ। सौतिया=(क) तिया, एक दाँव। (ख) सपत्नी। गंजन=नाश, दु:ख।
1. पाठांतर-काँचै बारहि बार फिरासी। पाँके पौ फिर थिर न रहासी॥ सत=(क) सात का दाँव।
(ख) सत्य। इगारह=(क) दस इंद्रियाँ और मन।
(24) बाचा=प्रतिज्ञा।पैंत लाएउँ=दाँव पर लगाया। चौक पंज=(क) चौका पंजा दाँव। (ख) छल कपट, छक्का पंजा। तुम्ह बिच…काँची=कच्ची गोटी तुम्हारे बीच नहीं पड़ सकती। पाकि=पक्की गोटी। जुग निनारा होना=(क) चौसर में जुग फूटना। (ख) जोड़ा अलग होना। कहाँ बीच…देनिहारी=मधयस्थ होने वाली दूती की कहाँ आवश्यकता रह जाती है।
(25) सँदेसी=संदेसा ले जाने वाला। तुम्ह हुँत=तुम्हारे लिए। रूप=(क) रूपा, चाँदी। (ख) स्वरूप। बैसाई=बैठाया, जमाया। कँवल नैन…बईठा= मेरे नेत्रा कमल में तू भौंरा (पुतली के समान) होकर बैठ गया। कँवल कहँ=कमल के लिए।
(27) चरचिउँ=मैंने भाँपा (स्त्राी. क्रिया)। बसेरा=निवासी। केवा=कमल। छेवा=डाला या खेला।
(28) नैनहिं लागि=ऑंखों से लेकर। साँच=(क) सत्य स्वरूप (ख) साँचा। रूप=(क) रूप, (ख) चाँदी।
(29) रावन=(क) रमण करने वाला। (ख) रावण। जब हुँत=जब से। सुनिउँ=मैंने सुना (स्त्राी. क्रिया)। तब हुँत=तब से।
(30) चौरासी आसन=योग के और कामशास्त्रा के। बंधाक=कामशास्त्रा के बंधा। औनाई=झुकाई। राहु=रोहू मछली। बरमा=छेद करने का औजार। नंसा करहिं=नष्ट करते हैं। खूंदहि=कूदते हैं। कुरलहिं=हंस आदि के बोलने को कुरलना कहते हैं।
(31) बानू=वर्ण, दीप्ति, कला। गोरी=स्त्राी। सारि=चौपड़। चोका=चुहका, चूसने की क्रिया या भाव। चोका लाइ=चूसकर। नौ सात=सोलह शृंगार। सात औ पाँचा=बारह आभरण। पूरुष…बाँचा=वे शृंगार और आभरण पुरुष की दस उँगलियों से कैसे बचे रह सकते हैं।
(32) चिहूँटी=चिमटी। कुरला=क्रीड़ा। मनुहारी=शांति, तृप्ति। मोखू=मोक्ष, छुटकारा। चाहि=अपेक्षा, बनिस्बत।
(33) बिधााँसि=विधवंस की गई, बिगड़ गई। जीउ जो नासा=जिसने जीव की दशा बिगाड़ रखी थी। तानी=तनी, बँद। बारी=बालियाँ। अरगज=अरगजा नामक सुगंधा द्रव्य जिसका लेप किया जाता है। मरगज=मला, दला हुआ।
(34) नइ=नवाकर।
(35) जाइ परि सोई=पड़कर सो जाता है। छीजा=क्षति, हानि। पलुह=पनपता है। खाँग=कमी हुई।
(36) रवि=सूर्य और रत्नसेन। साईं=स्वामी। नखत तराई=सखियाँ। बलया=चूड़ी। पान=पके पान सी सफेद या पीली। चून=चूर्ण। निरँग=विवर्ण, बदरंग। अलस=आलस्ययुक्त। छुव=छूती है। लरी मुरी=बाल की काली लटें मोतियों के हार से लिपटकर उलझीं। नाभी लाभु…लाव=नाभि पुण्यलाभ करके काशी कुंड कहलाती है इसी से देवता लोग उस पर सिर काटकर मरते हैं पर उसे दोष नहीं लगता।
(37) सुनत सूर…मधाु बासा=कमल खिला अर्थात् नेत्रा खुले और भौंरे मधाु और सुगंधा लेने बैठे अर्थात् काली पुतलियाँ दिखाई पड़ीं। निसयानी=सुधा-बुधा खोए हुए। बिथुरे नखत=आभूषण इधार-उधार बिखरे हैं।
(38) सरेखी=सयानी, चतुर। फूल बास…तुम्हारा=फूल शरीर और बास जीव। रावन=(क) रमण करनेवाला। (ख) रावण। खोज परीं=पीछे पड़ीं।
(39) मोहिं लेखे=मेरे हिसाब से, मेरी समझ में। दूखा=नष्ट हुआ। खसेउ=गिरा।
(40) चाँडू=चाह। जस किछु देह धारै कहँ=जैसे कोई वस्तु धारोहर रखे और फिर उसे सहेजकर ले ले। ठँठारि=खुक्ख। (41) चंप सुदरसन…होई=तेरा वह सुंदर चंपा का रंग जर्द चमेली सा पीला हो गया है। उछरीं=पड़ी हुई दिखाई पड़ीं। धाारी=रेखा। तमोरा=तांबूल। अलकाउर=अलकावलि। तोरा=तेरा। रायमुनी=एक छोटी सुंदर चिड़िया। रतमुहीं=लाल मुँहवाली। फुलचुहीं=फुलसुँघनी नाम की छोटी चिड़िया। सिंगार हार=(क) सिंगार को अस्तव्यस्त करनेवाला, नायक। (ख) परजाता फूल।
(41) कला=नकलबाजी, बहाना (अवधी)। नेवारी=(क) दूर कर। (ख एक फूल। कदम सेवती=क) चरणों की सेवा करती हुई। (ख) कदंब और सेवती फूल। (मुदा अलंकार)।
(42) निरंग=विवर्ण, बदरंग।पवन अधाारी=इतनी सुकुमार है कि पवन ही के आधाार पर मानो जीवन है। अही=थी। सोनाबरन…रेखा=ऊपर कह आए हैं कि ‘रावन रहसि कसौटी कसी’। बारी भइ=निछावर हुई। मंग=माँग।
(43) झार=ज्वाला, तेज। वारि=निछावर करके। वारा कीन्ह=चारों ओर घुमाकर उत्सर्ग किया।
(44) लहर पटोरी=पुरानी चाल का रेशमी लहरिया कपड़ा। फुँदिया=नीवी या इजारबंद के फुलरे। कसनिया=कसनी, एक प्रकार की ऍंगिया। छायल=एक प्रकार की कुरती। चिकवा=चिकट नाम का रेशमी कपड़ा। मघौना=मेघवर्ण अर्थात् नील का रँगा कपड़ा। पेमचा=किसी प्रकार का कपड़ा (?) चौधाारी=चारखाना। हरियारी=हरी। चितेरे=चित्रिात। चँदनौता=एक प्रकार का लहँगा। खरदुक=कोई पहनावा (?)। बाँसपूर=ढाके की बहुत महीन तंजेब जिसका थान बाँस की पतली नली में आ जाता था। झिलमिल=एक बारीक कपड़ा। अनबन=अनेक।
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