कविता – नागमती सुआ संवाद खंड – पदमावत – मलिक मुहम्मद जायसी – (संपादन – रामचंद्र शुक्ल )
दिन दस पाँच तहाँ जो भए । राजा कतहुँ अहेरै गए॥
नागमती रुपवंती रानी । सब रनिवास पाट परधाानी॥
कै सिँगार कर दरपन लीन्हा । दरसन देखि गरब जिउ कीन्हा॥
बोलहु सुआ पियारे नाहाँ । मोर रूप कोइ जग माहाँ॥
हँसत सुआ पहँ आइ सो नारी । दीन्ह कसौटी ओपनिवारी॥
सुआ बानि कसि कहु कस सोना । सिंघलदीप तोर कस लोना॥
कौन रूप तोरी रुपमनी । दहुँ हौं लोनि, कि वै पदमिनी॥
जो न कहसि सत सुअटा, तोहि राजा कै आन।
है कोई एहि जगत महँ, मोरे रूप समान॥1॥
सुमिरि रूप पदमावति केरा । हँसा सुआ, रानी मुख हेरा॥
जेहि सरवर महँ हंस न आवा । बगुला तेहि सर हंस कहावा॥
दई कीन्ह अस जगत अनूपा । एक एक तें आगरि रूपा॥
कै मन गरब न छाजा काहू । चाँद घटा औ लागेउ राहू॥
लोनि बिलोनि तहाँ को कहै । लोनी सोइ कंत जेहि चहै॥
का पूछहु सिंघल कै नारी । दिनहिं न पूजै निसि ऍंधिायारी॥
पुहुप सुवास सो तिन्ह के काया । जहाँ माथ का बरनौं पाया?॥
गढ़ी सो सोने सोंधौ, भरी सो रूपै भाग।
सुनत रूखि भइ रानी, हिये लोन अस लाग॥2॥
जौ यह सुआ मँदिर महँ अहई । कबहुँ बात राजा सौं कहई॥
सुनि राजा पुनि होइ वियोगी । छाँड़ै राज, चलै होइ जोगी॥
बिख राखिय नहिं, होइ ऍंकूरू । सबद न देइ भोर तमचूरू॥
धााय दामिनी बेगि हँकारी । ओहि सौंपा हीये रिस भारी॥
देखु, सुआ यह है मँदचाला । भयउ न ताकर जाकर पाला॥
मुख कह आन, पेट बस आना । तेहि औगुन दस हाट बिकाना॥
पंखि न राखिय होइ कुभाखी । लेइ तहँ मारु जहाँ नहिं साखी॥
जेहि दिन कहँ मैं डरति हौं, रैनि छपावौं सूर।
लै चह दीन्ह कँवल कहँ, मोकहँ होइ मयूर॥3॥
धााय सुआ लेइ मारै गई । समुझि गियान हिये मति भई॥
सुआ सो राजा कर बिसरामी । मारि न जाइ चहै जेहि स्वामी॥
यह पंडित ख्रडित बैरागू । दोष ताहि जेहि सूझ न आगू॥
जो तिरिया के काज न जाना । परै धाोख, पाछे पछिताना॥
नागमती नागिन बुधिा ताऊ । सुआ मयूर होइ नहिं काऊ॥
जो न कंत के आयसु माहीं । कौन भरोस नारि कै वाहीं॥
मकु यह खोज होइ निसि आए । तुरय रोग हरि माथे जाए॥
दुइ सो छपाए ना छपै, एक हत्या एक पाप।
अंतहि करहिं बिनास लेइ, सेइ साखी देइँ आप॥4॥
राखा सुआ, धााय मति साजा । भयउ खोज निसि आयउ राजा॥
रानी उतर मान सौं दीन्हा । पंडित सुआ मजारी लीन्हा॥
मैं पूछा सिंघल पदमिनी । उत्तार दीन्ह तुम्ह, को नागिनी?॥
वह जस दिन, तुम निसि ऍंधिायारी । कहाँ बसंत, करील क बारी॥
का तोर पुरुष रैनि कर राऊ । उलू न जान दिवस कर भाऊ॥
का वह पंखि कूट मुँह कूटे । अस बड़ बोल जीभ मुख छोटे॥
जहर चुवै जो जो कह बाता । अस हतियार लिए मुख राता॥
माथे नहिं बैसारिय, जौ सुठि सुआ सलोन।
कान टुटैं जेहि पहिरे, का लेइ करब सो सोन॥5॥
राजै सुनि वियोग तस माना । जैसे हिय विक्रम पछिताना1॥
वह हीरामन पंडित सूआ । जो बोले मुख अमृत चूआ॥
पंडित तुम्ह खंडित निरदोखा । पंडित हुतें परै नहिं धाोखा॥
पंडित केरि जीभ मुख सूधाी । पंडित बात न कहै बिरूधाी॥
पंडित सुमति देइ पथ लावा । जो कुपंथि तेहि पंडित न भावा॥
पंडित राता बदन सरेखा । जो हत्यार रुहिर सो देखा॥
की परान घट आनहु मती । की चलि होहु सुआ सँग सती॥
जिन जानहु के ऑंगुन, मँदिर सोइ सुखराज।
आयसु मेटें कंत कर, काकर भा न अकाज॥6॥
चाँद जैस धानि उजियरि अही । भा पिउ रोस, गहन अस गही॥
परम सोहाग निबारिन पारी । भा दोहाग सेवा जब हारी॥
एतनिक दोस विरचि पिउ रूठा । जो पिउ आपन कहै सो झूठा॥
ऐसे गरब न भूलै कोई । जेहि डर बहुत पियारी सोई॥
रानी आइ धााय के पासा । सुआ मुआ सेवँर कै आसा॥
परा प्रीतिकंचन महँ सीसा । बिहरि न मिलै, स्याम पै दीसा॥
कहाँ सोनार पास जेहि जाऊँ । देइ सोहाग करै एक ठाऊँ॥
मैं पिउ प्रीति भरोसे, गरब कीन्ह जिउ माँह।
तेहि रिस हौं परहेली, रूसेउ नागर नाँह॥7॥
उतर धााय तब दीन्ह रिसाई । रिस आपुहि, बुधिा औरहि खाई॥
मैं जोकहा रिसजिनि करु बाला । को न गयउ एहि रिस कर घाला?॥
तू रिसभरी न देखेसि आगू । रिस महँ काकर भयउ सोहागू॥
जेहि रिस तेहि रस जोगै न जाई । बिनु रस हरदि होइ पियराई॥
बिरसि विरोधा रिसहि पै होई । रिस मारै, तेहि मार न कोई॥
जेहि रिस कै मरिए, रस जीजै । सो रस तजि रिस कबहुँ न कीजै॥
कंत सोहाग कि पाइय साधाा । पावै सोइ जो ओहि चित बाँधाा॥
रहै जो पिय के आयसु, औ बरतै होइ हीन।
सोइ चाँद अस निरमल, जनम न होइ मलीन॥8॥
जुआ हारि समुझी मन रानी । सुआ दीन्ह राजा कहँ आनी॥
मानु पीय! हौ गरब न कीन्हा । कंत तुम्हार मरम मैं लीन्हा॥
सेवा करै जो बरहौ मासा । एतनिक औगुन करहु बिनासा॥
जौं तुम्ह देइ नाइ कै गीवा । छाँड़हुँ नहिं बिनु मारे जीवा॥
मिलतहु महँ जनु अहौ निनारे । तुम्ह सौं अहै ऍंदेस, पियारे॥
मैं जानेउँ तुम्ह मोही माहाँ । देखौं ताकि तौ हौ सब पाहाँ॥
का रानी, का चेरी कोई । जा कहँ मया करहु भल सोई॥
तुम्ह सौं कोइ न जीता, हारे बररुचि भोज।
पहिलैं आपु जो खोवै, करै तुम्हार सो खोज॥9॥
(1) ओपनिवारी=चमकाने वाली। बानि=वर्ण। कसि=कसौटी पर कसकर। लोनि=लोनी, लावण्यमयी, सुंदरी। आन=शपथ, कसम।
(2) सोंधौ=सुगंधा से।
(3) तमचूर=ताम्रचूड़, मुर्गा। ‘सबद न देइ…तमचूरू’ अर्थात् मुर्गा कहीं पर्ािंवती रूपी प्रभात की आवाज न दे कि हे राजा उठ! दिन की ओर देख। कवि ऊपर कह चुका है कि ‘दिनहिं न पूजै निसि ऍंधिायारी।’ धााय=दाई, धाात्राी। दामिनी=दासी का नाम। मयूर=मोर। मोर नाग का शत्राु है, नागमती के वाक्य से शुक के शत्राु होने की धवनि निकलती है। ‘कमल’ में पर्ािंवती की धवनि है।
(4) बिसरामी=मनोरंजन की वस्तु। खंडित बैरागू=वैराग्य में चूक गया इससे तोते का जन्म पाया। काऊ=कभी। मकु=शायद, कदाचित्। तुरय=तुरग, घोड़ा। ताऊ=तासु, उसकी। हरि=बंदर। तुरय रोग हरि माथे जाए=कहते हैं कि घुड़साल में बंदर रखने से घोड़े निरोग रहते तथा उनका रोग बंदर पर जाता है। सेइ=वे ही, हत्या और पाप ही।
(5) कूट=कालकूट, विष। कूटे=कूट-कूटकर भरे हुए। बैसारिय=बैठाइए।
1. कहानी है कि राजा विक्रम के यहाँ भी एक हीरामन तोता था। उसने एक दिन राजा को एक फल यह कहकर दिया कि जो इसे खाएगा वह कभी बूढ़ा न होगा। राजा ने वह फल बगीचे में बोने को दिया। जब फल लगा तब माली ने राजा को लाकर दिया। राजा ने रानी को दिया। रानी ने परीक्षा के लिए कुत्तो को थोड़ा दिया। कुत्ताा मर गया। बात यह थी कि बगीचे में उस फल में साँप ने अपना विष डाल दिया था। राजा ने क्रुध्द होकर तोते को मरवा डाला। कुछ दिन पीछे फिर एक फल लगा जिसे मालिन ने रूठकर मरने के लिए खाया। वह बुढ्ढी से जवान हो गई। राजा को यह सुनकर बड़ा पछतावा हुआ।
(6) तुम्ह खंडित=तुमने खंडित या नष्ट किया। सुरेख=सज्ञान, चतुर। मती=विचार करके।
(7) दोहाग=दुर्भाग्य। बिरचि=अनुरक्त होकर। देइ सोहाग=(क) सौभाग्य, (ख) सोहागा दे। परहेली=अवहेलना की, बेपरवाही की।
(8) आगू=आगम, परिणाम। जोगै न जाई=रक्षा नहीं किया जाता।
(9) बिरस=अनबन। साधाा=साथ या लालसा मात्रा से। हीन=दीन, नम्र।
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