रत्नसेन जन्म खंड – पदमावत – मलिक मुहम्मद जायसी की कविता
चितउरगढ़ कर एक बनिजारा । सिंघलदीप चला बैपारा॥
बाम्हन हुत एक निपट भिखारी । सो पुनि चला चलत बैपारी॥
ऋन काहू सन लीन्हेसि काढ़ी । मकु तहँ गए होइ किछु बाढ़ी॥
मारग कठिन बहुत दुख भयऊ । नाँघि समुद्र दीप ओहि गयऊ॥
देखि हाट किछु सूझ न ओरा । सबै बहुत, किछु दीख न थोरा॥
पै सुठि ऊँच बनिज तहँ केरा । धानी पाव, निधानी मुख हेरा॥
लाख करोरिन्ह वस्तु बिकाई । सहसन केरि न कोउ ओनाई॥
सबहीं लीन्ह बेसाहना, औ घर कीन्ह बहोर।
बाम्हन तहवाँ लेइ का? गाँठि साँठि सुठि थोर॥1॥
झूरै ठाढ़ हौं, काहे क आवा ? बनिज न मिला, रहा पछितावा॥
लाभ जानि आएउँ एहि हाटा । मूर गँवाइ चलेउँ तेहि बाटा॥
का मैं मरन सिखावन सिखी । आएउँ मरै, मीचु हति लिखी॥
अपने चलत सो कीन्ह कुबानी । लाभ न देख, मूर भै हानी॥
का मैं बोआ जनम ओहि भूँजी ? खोइ चलेऊँ घरहू कै पूँजी॥
जेहि ब्यौहरिया कर ब्यौहारू । का लेइ देब जौ छेंकिहि बारू॥
घर कैसे पैठब मैं छूछे । कौन उतर देबौं तेहि पूछे॥
साथि चले, संग बीछुरा, भए बिच समुद पहार।
आस निरासा हौं फिरौं, तू विधिा देहि अधाार॥2॥
तबहीं ब्याधा सुआ लेइ आवा । कंचन बरन अनूप सुहावा॥
बेंचै लाग हाट लै ओही । मोल रतन मानिक जहँ होही॥
सुअहिं को पूछ? पतंग मँडारे । चल न दीख आछै मन मारे॥
बाम्हन आइ सुआ सौं पूछा । दहुँ, गुनवंत कि निरगुन छूछा?॥
कहु परबत्तो! गुन तोहि पाहाँ । गुन न छपाइय हिरदय माहाँ॥
हम तुम जाति बराम्हन दोऊ । जातिहि जाति पूछ सब कोऊ॥
पंडित हौ तौ सुनावहु बेदू । बिनु पूछे पाइय नहिं भेदू॥
हौं बाम्हन औ पंडित, बहु आपन गुन सोइ।
पढ़े के आगे जो पढ़ै, दून लाभ तेहि होइ॥3।
तब गुन मोहि अहा, हो देवा । जब पिंजर हुत छूट परेवा॥
अब गुन कौन जो बँद, जजमाना । घालि मँजूसा बेचै आना॥
पंडित होइ सो हाट न चढ़ा । चहौं बिकाय, भूलि गा पढ़ा॥
दुइ मारग देखौं एहि हाटा । दई चलावै दहुँ केहि बाटा॥
रोवत रकत भयउ मुख राता । तन भा पियर कहौं का बाता?॥
राते स्याम कंठ दुइ गीवाँ । तेहिं दुइ फंद डरौं सुठि जीवा॥
अब हौं कंठ फंद दुइ चीन्हा । दहुँ ए फंद चाह का कीन्हा?॥
पढ़ि गुनि देखा बहुत मैं, है आगे डर सोइ।
धाुंधा जगत सब जानि कै, भूलि रहा बुधिा खोइ॥4॥
सुनि बाम्हन बिनवा चिरिहारू । करि पंखिन्ह कहँ मया न मारू॥
निठुर होइ जिउ बधासि परावा । हत्या केर न तोहि डर आवा॥
कहसि पंखि का दोस जनावा । निठुर तेइ जे परमस खावा॥
आवहिं रोइ, जात पुनि रोना । तबहुँ न तजहिं भोग सुख सोना॥
औ जानहिं तन होइहि नासू । पोखैं माँसु पराये माँसू॥
जो न होहिं अस परमँस खाधाू । कित पंखिन्ह कहँ धारै बियाधाू?॥
जो ब्याधाा नित पंखिन्ह धारई । सो बेचत मन लोभ न करई॥
बाम्हन सुआ बेसाहा, सुनि मति वेद गरंथ।
मिला आइ कै साथिन्ह, भा चितउर के पंथ॥5॥
तब लगि चित्रासेन सर साजा । रतनसेन चितउर भा राजा॥
आइ बात तेहि आगे चली । राजा बनिज आए सिंघली॥
हैं गजमोति भरी सब सीपी । और वस्तु बहु सिंघलदीपी॥
बाम्हन एक सुआ लेइ आवा । कंचनबरन अनूप सोहावा॥
राते स्याम कंठ दुइ काँठा । राते डहन लिखा सब पाठा॥
औ दुइ नयन सुहावन राता । राते ठौर अमीरस बाता॥
मस्तक टीका, काँधा जनेऊ । कवि बियास, पंडित सहदेऊ॥
राजमँदिर मँह चाहिय, अस वह सुआ अमोल॥6॥
भै रजाइ जन दस दौराए । बाम्हन सुआ बेगि लेइ आए॥
बिप्र असीसि बिनति औधाारा । सुआ जीउ नहिं करौं निनारा।
पै यह पेट महा बिसवासी । जेइ सब नाव तपा संन्यासी॥
डासन सेज जहाँ किछु नाहीं । भुइँ परि रहै लाइ गिउ बाहीं॥
ऑंधार रहै, जो देख न नैना । गूँग रहै, मुख आव न बैना॥
बहिर रहै, जो स्रवन न सुना । पै यह पेट न रह निरगुना॥
कै कै फेरा नित यह दोखी । बारहिं बार फिरै न सँतोषी॥
सो मोहि लेइ मँगावै, लावै भूख पियास।
जौ न होत अस बैरी, केहु न केहु कै आस॥7॥
सुआ असीस दीन्ह बड़ साजू । बड़ परताप अखंडित राजू॥
भागवंत बिधिा बड़ औतारा । जहाँ भाग तहँ रूप जोहारा॥
कोइ केहु पास आस कै गौना । जो निरास डिढ़ आसन मौना।
कोइ बिन पूछे बोल जो बोला । होइ बोल माटी के मोला॥
पढ़ि गुनि जानि वेदमति भेऊ । पूछै बात कहै सहदेऊ॥
गुनी न कोई आपु सराहा । जो बिकाइ, गुन कहा सो चाहा॥
जौ लगि गुन परगट नहिं होई । तौ लहि मरम न जानै कोई॥
चतुरवेद हौं पंडित, हीरामन मोहि नाँव।
पदमावति सौं मेरवौं, सेब करौं तेहि ठाँव॥8॥
रतनसेन हीरामन चीन्हा । एक लाख बाम्हन कहँ दीन्हा॥
विप्र असीसि जो कीन्ह पयाना । सुआ सो राजमँदिर महँ आना॥
बरनौं काह सुआ कै भाखा । धानि सो नावँ हीरामन राखा॥
जौ बोलै राजा मुख जोवा । जानौ मोतिन हार परोवा॥
जौ बोलै तो मानिक मूँगा । नाहिं त मौन बाँधा रह गूँगा॥
मनहुँ मारि मुख अमृत मेला । गुरु होइ आप, कीन्ह जग चेला॥
सुरुज चाँद कै कथा जो कहेऊ । पेम क कहनि लाइ चित गहेऊ॥
जो जो सुनै धाुनै सिर, राजहिं प्रीति अगाहु।
अस गुनवंता नाहिं भल, बाउर करिहै काहु॥9॥
(1)बनिजारा=वाणिज्य करने वाला, बनिया। मकु=शायद, चाहे; जैसे, गगन मगन मकु मे धाहि मिलई-तुलसी। बहोर=लौटना। साँठि=पूँजी, धान। सुठि=खूब।
(2)झूरै=निष्फल, व्यर्थ। कुबानी=कुवाणिज्य, बुरा व्यवसाय। भूँजि बोआ=भूनकर बीज बोया (भूनकर बोने से बीज नहीं जमता।
(3) पतंग-मँड़ारे=चिड़ियों के मड़रे में या झावे में। चल=चंचल, हिलता, डोलता।
(4)मंजूसा=मंजूषा, डला। कंठ=कंठा, काली लाल लकीर जो तोतों के गले पर होती है। धाुंधा=अंधाकार।
(5) परमंस=दूसरे का मांस। खाधाू=खानेवाला।
बोल अरथ सौं बोलै, सुनत सीस सब डोल।
(6) सर साजा=चिता पर चढ़ा, मर गया।
(7) बिसवासी=विश्वासघाती। नाव=नवाता है, नम्र करता है। न रह निरगुना=अपने गुण या क्रिया के बिना नहीं रहता। बारहिं बार=द्वार द्वार
(8) डिढ़=दृढ़। मेरवाँ=मिलाऊँ।
(9) बाउर=बावला, पागल।
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