कविता – सिंहलद्वीप वर्णन खंड – पदमावत – मलिक मुहम्मद जायसी – (संपादन – रामचंद्र शुक्ल )
सिंघलद्वीप कथा अब गावौं। औ सो पदमिनि बरनि सुनावौं॥
निरमल दरपन भाँति बिसेखा। जो जेहि रूप सो तैसइ देखा॥
धानि सो दीप जहँ दीपक बारी। औ पदमिनि जो दई सँवारी॥
सात दीप बरनै सब लोगू। एकौ दीप न ओहि सरि जोगू॥
दियादीप नहिं तस उँजियारा। सरनदीप सर होइ न पारा॥
जंबूदीप कहौं तस नाहीं। लंकदीप सरि पूज न छाहीं॥
दीप गभस्थल आरन परा। दीप महुस्थल मानुस हरा॥
सब संसार परथमैं आए सातौं दीप।
एक दीप नहिं उत्तिाम सिंघलदीप समीप॥1॥
गधा्रबसेन सुगंधा नरेसू। सो राजा, वह ताकर देसू॥
लंका सुना जो रावन राजू। तेहु चाहि बड़ ताकर साजू॥
छप्पन कोटि कटक दल साजा। सवैं छत्रापनि औ गढ़ राजा॥
सोरह सहस घोड़ घोड़सारा। स्यामकरन अरु बाँक तुखारा॥
सात सहस हस्ती सिंघली। जनु कबिलास एरावत बली॥
अस्वपतिक सिरमौर कहावै। गजपतीक आंकुस गज नावै॥
नरपतीक कहँ और नरिंदू। भूपतीक जग दूसर इंदू॥
ऐस चक्कवै राजा चहूँ खंड भय होइ।
सबै आइ सिर नावहिं सरवरि करै न कोइ॥2॥
जबहिं दीप नियरावा जाई। जनु कबिलास नियर भा आई॥
धान अमराउ लाग चहुँ पासा। उठा भूमि हुत लागि अकासा॥
तरिवर सबै मलयगिरि लाई । भइ जग छाँह रैनि होइ आई॥
मलय समीर सोहावन छाहाँ। जेठ जाड़ लागै तेहि माहाँ॥
ओही छाँह रैनि होइ आवै । हरियर सबै अकास देखावै॥
पथिक जो पहुँचै सहि कै घामू। दुख बिसरै, सुख होइ बिसरामू॥
जेइ वह पाई छाँह अनूपा। फिरि नहिं आइ सहै यह धाूपा॥
अस अमराउ सघन घन बरनि न पारौं अंत।
फूलै फरै छवौ ऋतु, जानहु सदा वसंत॥3॥
फरे ऑंब अति सघन सोहाए । औ जस फरे अधिाक सिर नाए॥
कटहर डार पींड सन पाके । बड़हर, सो अनूप अति ताके॥
खिरनी पाकि खांड़ अस मीठी । जामुन पाकि भँवर अति डीठी॥
नरियर फरे फरी फरहरी । फुरै जानु इंद्रासन पुरी॥
पुनि महुआ चुअ अधिाक मिठासू । मधाु जस मीठ पुहुप जस बासू॥
और खजहजा अनबन नाऊँ । देखा सब राउन अमराऊँ॥
लाग सबै जस अमृत साखा । रहै लोभाइ सो जो चाखा॥
लवँग सुपारी जायफल सब फर फरे अपूर।
आसपास घन इमिली औ घन तार खजूर॥4॥
बसहिं पंखि बोलहिं बहु भाखा । करहिं हुलास देखि कै साखा॥
भोर होत बोलहिं चुहचूही । बोलहिं पाँडुक ‘एकै तूही’॥
सारौं सुआ जो रहचह करहीं । कुरहिं परेवा औ करबरहीं॥
‘पीव पीव’ कर लाग पपीहा । ‘तुही तुही’ कर गडुरी जीहा॥
‘कुहू कुहू’ करि कोइल राखा । औ भिंगराज बोल बहु भाखा॥
‘दही दही’ करि महरि पुकारा । हारिल बिनवै आपन हारा॥
कुहुकहि मोर सोहावन लागा। होइ कुराहर बोलहिं कागा॥
जावत पंखी जगत के भरि बैठे अमराउँ।
आपनि आपनि भाषा लेहिं दई कर नाउँ॥5॥
पैग पैग पर कुवाँ बावरी। साजी बैठक और पाँवरी॥
और कुंड बहु ठावहिं ठाऊँ । औ सब तीरथ तिन्ह के नाऊँ॥
मठ मंडप चहुँ पास सँवारे । तपा जपा सब आसन मारे॥
कोइ सु ऋषीसुर, कोइ संन्यासी। कोई रामजती बिसवासी॥
कोई ब्रह्मचार पथ लागे। कोइ सो दिगंबर बिचरहिं नाँगे॥
कोई सु महेसुर जंगम जती। कोई एक परखै देबी सती॥
कोइ सुरसती कोई जोगी। कोइ निरास पथ बैठ बियोगी॥
सेवरा, खेवरा, बानपर, सिधा, साधाक, अवधाूत।
आसन मारे बैठ सब जारि आतमा भूत॥6॥
मानसरोदक बरनौं काहा। भरा समुद अस अति अवगाहा॥
पानि मोति अस निरमल तासू। अमृत आनि कपूर सुबासू॥
लंकदीप कै सिला अनाई । बाँधाा सरवर घाट बनाई॥
ख्रड ख्रड सीढ़ी भईं गरेरी । उतरहिं चढ़हिं लोग चहुँ फेरी॥
फूला कँवल रहा होइ राता । सहस सहस पखुरिन कर छाता॥
उलथहिं सीप, मोति उतराहीं। चुगहिं हंस औ केलि कराहीं॥
खनि पतार पानी तहँ काढ़ा। छीर समुद निकसा हुत बाढ़ा॥1
ऊपर पाल चहूँ दिसि अमृत फल सब रूख।
देखि रूप सरबर कै गै पियास औ भूख॥7॥
पानि भरै आवहिं पनिहारी । रूप सुरूप पदमिनी नारी॥
पदुमगंधा तिन्ह अंग बसाहीं । भँवर लागि तिन्ह संग फिराहीं॥
लंकसिंघिनी, सारगनैनी । हंसगामिनी कोकिलबैनी॥
आवहिं झुंड सो पाँतिहि पाँती । गवन सोहाइ सु भाँतिहि भाँती॥
कनक कलस मुखचंद दिपाहीं । रहस केलि सन आवहिं जाहीं॥
जा सहुँ वै हेरै चख नारी । बाँक नैन जनु हनहिं कटारी॥
केस मेघावर सिर ता पाईं । चमकहिं दसन बीजु कै नाईं॥
माथे कनक गागरी आवहिं रूप अनूप। 2
जेहि के अस पनिहारी सो रानी केहि रूप॥8॥
ताल तलाब बरनि नहिं जाहीं । सूझै वार पार किछु नाहीं॥
फूले कुमुद सेत उजियारे । मानहुँ उए गगन महँ तारे॥
उतरहिं मेघ चढ़हिं लेइ पानी । चमकहिं मच्छ बीजु कै बानी॥
पौरहिं पंख सुसंगहिं संगा । सेत पीत राते बहु रंगा॥
चकई चकवा केलि कराहीं । निसि के बिछोह, दिनहिं मिलि जाहीं॥
कुररहिं सारस कर¯ह हुलासा । जीवन मरन सो एकहिं पासा॥
घोलहिं सोन ढेक बगलेदी । रही अबोल मौन जल भेदी॥
नग अमोल तेहि तालहिं दिनहिं बरहिं जस दीप।
जो मरजीया होइ तहँ सो पावै वह सीप॥9॥
आस पास बहु अमृत बारी । फरीं अपूर होइ रखवारी॥
नारँग नींबू सुरँग जँभीरा । औ बदाम बहु भेद ऍंजीरा॥
गलगल तुरँज सदा फर फरे । नारँग अति राते रस भरे॥
किसमिस सेव फरे नौ पाता । दारिउँ दाख देखि मन राता॥
लागि सुहाई हरफारयोरी । उनै रही केरा कै घौरी॥
फरे तूत कमरख औ न्यौजी । रायकरौंदा बेर चिरौंजी॥
संगतरा व छुहारा दीठे । और खजहजा खाटे मीठे॥
पानि देहिं ख्रड़बानी कुवहिं खाँड़ बहु मेलि।
लागी घरी रहट कै सींचहिं अमृतबेलि॥10॥
पुनि फुलवारि लागि चहुँ पासा । बिरिछ बेधिा चंदन भइ बासा॥
बहुत फूल फूलीं घनबेली । केवड़ा चंपा कुंद चमेली॥
सुरँग गुलाल कदम औ कूजा । सुगँधा बकौरी गंधा्रब पूजा॥
जाही जूही बगुचन लावा । पुहुप सुदरसन लाग सुहावा॥
नागेसर सदबरग नेवारीं । औ सिंगारहार फुलवारीं॥
सोनजरद फूलीं सेवती । रूपमंजरी और मालती॥
मौलसिरी बेइलि औ करना । सबै फूल फूले बहुबरना॥
तेहिं सिर फूल चढ़हिं वै जेहि माथे मनि भाग।
आछहिं सदा सुगंधा बहु जनु बसंत औ फाग॥11॥
सिंघलनगर देखु पुनि बसा । धानि राजा अस जे कै दसा॥
ऊँची पौरी ऊँच अवासा । जनु कैलास इंद्र कर बासा॥
राव रंक सब घर-घर सुखी । जो दीखै सो हँसता मुखी॥
रचि रचि साजे चंदन चौरा । पोतें अगर भेद औ गौरा॥
सधा चौपारहिं चंदन ख्रभा । ओठँघि सभापति बैठे सभा॥
मनहुँ सभा देवतन्ह कर जुरी । परी दीठि इंद्रासन पुरी॥
सबै गुनी औ पंडित ज्ञाता । संसकिरित सबके मुख बाता॥
अस कै मँदिर सँवारे, जनु सिवलोक अनूप।
घर घर नारि पदमिनी मोहहि सरसन रूप॥12॥
पुनि देखी सिंघल कै हाटा । नवौ निध्दि लछिमी सब बाटा॥
कनक हाट सब कुहकुहँ लीपी । बैठ महाजन सिंघलदीपी॥
रचहिं हथौड़ा रूपन ढारी । चित्रा कटाव अनेक सँवारी॥
सोन रूप भल भयउ पसारा । धावल सिरी पोतहिं घर बारा॥
रतन पदारथ मानिक मोती । हीरा लाल सो अनबन जोती॥
औ कपूर बेना कस्तूरी । चंदन अगर रहा भरपूरी॥
जिन्ह एहि हाट न लीन्ह बेसाहा । ता कहँ आन हाट कित लाहा॥
कोई करै बेसाहनी, काहू केर बिकाइ।
कोई चलै लाभ सन, कोई मूर गँवाइ॥13॥
पुनि सिंगारहाट भल देसा । किए सिंगार बैठीं तहँ बेसा॥
मुख तमोल, तन चीर कुसुंभी । कानेन कनक जड़ाऊ खुंभी॥
हाथ बीन सुनि मिरिग भुलाहीं । नर मोहहिं सुनि, पैग न जाहीं॥
भौंह धानुष, तिन्ह नैन अहेरी । मारहिं बान सान सौं फेरी॥
अलक कपोल डोल, हँसि देहीं । लाइ कटाछ मारि जिउ लेहीं॥
कुच कंचुक जानौ जुग सारी । अंचल देहिं सुभावहिं ढारी॥
केत खिलार हारि तेहि पासा । हाथ झारि उठि चलहिं निरासा॥
चेटक लाइ हरहिं मन, जब लगि होइ गथ फेंट।
साँठ नाठि उठि भए बटाऊ, ना पहिचान न भेंट॥14॥
लेइ के फूल बैठि फुलहारी । पान अपूरब धारे सँवारी॥
सोंधाा सबै बैठ लै गाँधाी । फूल कपूर खिरौरी बाँधाी॥
कतहूँ पंडित पढ़हिं पुरानू । धारमपंथ कर करहिं बखानू॥
कतहूँ कथा कहै किछु कोई । कतहूँ नाच कूद भल होई॥
कतहुँ चिरहँटा पंखी लावा । कतहुँ पखंडी काठ नचावा॥
कतहूँ नाद सबद होइ भला । कतहूँ नाटक चेटक कला॥
कतहुँ काहु ठगविद्या लाई । कतहुँ लेहिं मानुष बौराई॥
चरपट चोर गँठिछोरा मिले रहहिं ओहि नाच।
जो ओहि हाट सजग भा गथ ताकर पै बाँच ॥15॥
पुनि आए सिंघल गढ़ पासा । का बरनौं जनु लाग अकासा॥
तरहिं करिन्ह बासुकि कै पीठी । ऊपर इंद्र लोक पर दीठी॥
परा खोह चहुँ दिसि अस बाँका । काँपै जाँघ, जाइ नहिं झाँका॥
अगम असूझ देखि डर खाई । परै सो सपत पतारहिं जाई॥
नव पौरी बाँकी, नवखंडा । नवौ जो चढ़ैं जाइ बरम्हंडा॥
कंचन कोट जरे नग सीसा । नखतहिं भरी बीजु जनु दीसा॥
लंका चाहि ऊँच गढ़ ताका । निरखि न जाइ, दीठि तन थाका॥
हिय न समाइ दीठि नहिं जानहुँ ठाढ़ सुमेर।
कहँ लगि कहौं ऊँचाई, कहँ लगि बरनौं फेर॥16॥
निति गढ़ बाँचि चलै ससि सूरू । नाहि त होइ बाजि रथ चूरू॥
पौरी नवौ बज्र कै साजी । सहस सहस तहँ बैठै पाजी॥
फिरहिं पाँच कोतवार सुभौंरी । काँपै पावै चपत वह पौरी॥
पौरिहिं पौरि सिंह गढ़ि काढ़े । डरपहिं लोग देखि तहँ ठाढ़े॥
बहुविधाान वै नाहर गढ़े । जनु गाजहिं, चाहहिं सिर चढ़े॥
टारहिं पूँछ, पसारहिं जीहा । कुंजर डरहिं कि गुंजरि लीहा॥
कनक सिला गढ़ि सीढ़ी लाई । जगमगाहिं गढ़ ऊपर ताईं॥
नवौं खंड नव पौरी औ तहँ बज्र केवार।
चारि बसेरे सौं चढ़ै सत सौं उतरै पार॥17॥
नव पौरी पर दसवँ दुवारा । तेहि पर बाज राज घरियारा॥
घरी सो बैठि गनै घरियारी । पहर पहर सो आपनि बारी॥
जबहीं घरी पूजि तेइँ मारा । घरी घरी घरियार पुकारा॥
परा जो डाँड़ जगत सब डाँड़ा । का निचिंत माटी कर भाँड़ा?॥
तुम्ह तेहि चाक चढ़े हौ काँचे । आएहु रहै न थिर होइ बाँचे॥
घरी जो भरी घटी तुम्ह आऊ । का निचिंत होइ सोउ बटाऊ?॥
पहरहिं पहर गजर निति होई । हिया बजर, मन जाग न सोई॥
मुहमद जीवन जल भरन, रहँट घरी कै रीति।
घरी जो आई ज्यों भरी, घरी, जनम गा बीति॥18॥
गढ़ पर नीर खीर दुइ नदी । पनिहारी जैसे दुरपदी॥
और कुंड एक मोतीचूरू । पानी अमृत कीच कपूरू॥
ओहि कै पानि राजा, पै पीया । बिरिधा होइ नहिं जौ लहि जीया॥
कंचन-बिरिछ एक तेहि पासा । जस कलपतरु इंद्र कबिलासा॥
मूल पतार, सरग ओहि साखा । अमरबेलि को पाव को चाखा?॥
चाँद पात औ फूल तराईं । होइ उजियार नगर जहँ ताईं॥
वह फल पावै तप करि कोई । बिरिधा खाइ तौ जोवन होई॥
राजा भए भिखारी, सुनि वह अमृत भोग।
जेइ पावा सो अमर भा, ना किछु ब्याधिा न रोग॥19॥
गढ़ पर बसहिं चार गढ़पती । असुपति, गजपति, भू-नर पती॥
सब धाौराहर सोने साजा । अपने अपने घर सब राजा॥
रूपवंत धानवंत सभागे । परस पखान पौरि तिन्ह लागे॥
भोग-विलास सदा सब माना । दुख चिंता कोई जनम न जाना॥
मँदिर मँदिर सब के चौपारी । बैठि कुँवर सब खेलहिं सारी॥
पासा ढरहिं खेल भल होई । खड़गदान सरि पूज न कोई॥
भाँट बरनि कहि कीरति भली । पावहिं हस्ति घोड़ सिंघली॥
मँदिर मँदिर फुलवारी, चोवा चंदन बास।
निसि दिन रहै बसंत तहँ, छवौ ऋतु बारह मास॥20॥
पुनि चलि देखा राज दुआरा । मानुष फिरहिं पाइ नहीं बारा॥
हस्ति सिंघली बाँधो बारा । जनु सजीव सब ठाढ़ पहारा॥
कौनौ सेत पीत रतनारे । कौनौ हरे, धाूम औ कारे॥
बरनहिं बरन गगन जस मेघा । औ तिन्ह गगन पीठि जनु ठेघा॥
सिंघल के बरनौं सिंघली । एक एक चाहि एक एक बली॥
गिरि पहार वै पैगहि पेलहिं । बिरिछ उचारि डारि मुख मेलहिं॥
माते तेइ सब गरजहिं बाँधो । निसि दिन रहहिं महाउत काँधो॥
धारती भार न ऍंगवै, पाँव धारत उठ हालि।
कुरुम टुटै, भुइँ फाटै तिन हस्तिन्ह के चालि॥21॥
पुनि बाँधो रजवार तुरंगा । का बरनौं जस उन्हकै रंगा॥
लील, समंद चाल जग जाने । हाँसुल, भौंर गियाह बखाने॥
हरे, कुरंग, महुअ बहु भाँती । गरर, कोकाह, बुलाह सु पाँती॥
तीख तुखार चाँड़ औ बाँके । सँचरहिं पौरि ताज बिनु हाँके॥
मन तें अगमन डोलहिं बागा । लेत उसास गगन सिर लागा॥
पौन समान समुद पर धाावहिं । बूड़ न पाँव, पार होइ आवहिं॥
थिर न रहहिं, रिस लोह चबाहीं । भाँजहिं पूँछ, सीस उपराहीं॥
अस तुखार सब देखे जनु मन के रथवाह।
नैन पलक पहुँचावहिं जहँ पहुँचा कोइ चाह॥22॥
राजसभा पुनि देख बईठी । इंद्रसभा जनु परिगै डीठी॥
धानि राजा असि सभा सँवारी । जानहु फूलि रही फुलवारी॥
मुकुट बाँधिा सब बैठे राजा । दर निसान नित जिन्हके बाजा॥
रूपवंत, मनि दिपै लिलाटा । माथे छात, बैठ सब पाटा॥
मानहुँ कँवल सरोवर फूले । सभा क रूप देखि मन भूले॥
पान कपूर मेद कस्तूरी । सुगँधा बास भरि रही अपूरी॥
माँझ ऊँच इंद्रासन साजा । गंधा्रबसेन बैठ तहँ राजा॥
छत्रा गगन लगि ताकर, सूर तवै जस आप।
सभा कँवल अस बिगसैं, माथे बड़ परताप॥23॥
साजा राजमँदिर कैलासू । सोने कर सब धारति अकासू॥
सात खंड धाौराहर साजा । उहै सँवारि सकै अस राजा॥
हीरा ईंट, कपूर गिलावा । औ नग लाइ सरग लै लावा॥
जावत सबै उरेह उरेहे । भाँति-भाँति नग लाग उबेहे॥
भा कटाव सब अनवत भाँती । चित्रा कोरि कै पाँतिहिं पाँती॥
लाग खंभ-मनि-मानिक जरे । निसि दिन रहहिं दीप जनु बरे॥
देखि धाौरहर कर उँजियारा । छपि गए चाँद सुरुज औ तारा॥
सुना सात बैकुंठ जस, तस साजे ख्रड सात।
बेहर बेहर भाव तस, खंड खंड उपरात॥24॥
बरनौ राजमँदिर रनिवासू । जनु अछरीन्ह भरा कविलासू॥
सोरह सहस पदमिनी रानी । एक एक तें रूप बखानी॥
अति सुरूप औ अति सुकुवाँरी । पान फूल के रहहिं अधाारी॥
तिन्ह ऊपर चंपावति रानी । महा सुरूप पाट-परधाानी॥
पाट बैठि रह किए सिंगारू । सब रानी ओहि करहिं जोहारू॥
निति नौरंग सुरंगम सोई । प्रथम बैस नहिं सरवरि कोई॥
सकल दीप महँ जेती रानी । तिन्ह महँ दीपक बारह-बानी॥
कुँवरि बतीसो लच्छनी, अस सब माँह अनूप।
जावत सिंघलदीप के, सबै बखानैं रूप॥25॥
(1) बारी=बाला, स्त्राी। सरनदीप=अरबवाले लंका को सरनदीप कहते थे। भूगोल का ठीक ज्ञान न होने के कारण कवि ने स्वर्णद्वीप और सिंहल को भिन्न-भिन्न द्वीप माना है। हरा=शून्य।
(2) तुखार=तुषार देश का घोड़ा। इंदू=इंद्र। चाहि=अपेक्षा (बढ़कर), बनिस्बत। कबिलास=स्वर्ग।
(3) भूमि हुत=पृथ्वी से (लेकर)। लागि=तक।
(4) पींड=जड़ के पास की पेड़ी। फुरै=सचमुच। खजहजा=खाने के फल। अनबन=भिन्न-भिन्न।
(5) चुहचुही=एक छोटी चिड़िया जिसे फुलसुँघनी भी कहते हैं। सारौं=सारिका, मैना। महरि=महोख से मिलती-जुलती एक छोटी सी चिड़िया जिसे ग्वालिन और अहीरिन भी कहते हैं। हारा=हाल, अथवा लाचारी, दीनता।
(6) पैग पैग पर=कदम-कदम पर। पाँवरी=सीढ़ी। ब्रह्मचार=ब्रह्मचर्य। सुरसती=सरस्वती (दसनामियोंमें)। खेबरा-सेवड़ों का एक भेद।
(7) भईं=घूमी हैं। गरेरी=चक्करदार। पाल=ऊँचा बाँध या किनारा, भाटा।
(8) मेघावर=बादल की घटा। ता पाईं=पैर तक। बीजु=बिजली।
1. कुछ प्रतियों में इस चौपाई के स्थान पर यह है-कतक पंखि पौरहिं अति लोने। जानहु चित्रा लिखे सब सोने।
2. पाठांतर-मानहु मैन मूरती अछरी बरन अनूप।
(9) बानी=वर्ण, रंग, चमक। सोन=ढेक, बगलेदी=ताल की चिड़ियाँ। मरजीया=जान जोखिम में डालकर विकट स्थानों से व्यापार की वस्तुएँ लानेवाले, जीवकिया, जैसे, गोताखोर।
(10) हरफारयोरी=लवली। न्योजी=लीची। ख्रड़वानी=खाँड़ का रस।
(11) कूजा=कुब्जक। पहाड़ी या जंगली गुलाब जिसके फूल सफेद होते हैं। घनबेली=बेला की एक जाति। नागेसर=नागकेसर। बकौरी=बकावली। बगुचा=(गट्ठा) ढेर, राशि। सिंगारहार=हरिसिंगार, शेफालिका।
(12) मेद=मेदा, एक सुगंधिात जड़। गौरा=गोरोचन। ओठँघि=पीठ टिकाकर। (13) कुहकुहँ=कुंकुम, केसर। धावल=सफेदी। सिरी=श्री, रोली, लाल बुकनी (श्री का चिद्द तिलक में रोली से बनाते हैं इसी से रोली को श्री कहते हैं)ं दूकानदार प्राय: सिंदूर, रोली आदि के चिद्द दूकानों पर बनाते हैं। बेना=खस या गंधाबेन। बेसाहनी=खरीद। (14) बेसा=वेश्या। खुंभी=कान में पहनने का एक गहना, लौंग या कील। सारी=सारि, पासा। गथ=पूँजी। साँठ=पूँजी। नाठि=नष्ट हुई। (15) सोंधाा=सुगंधा द्रव्य। गाँधाी=गंधी। खिरौरी=केवड़ा देकर बाँधाी हुई खैर या कत्थे की टिकिया। चिरहँटा=बहेलिया। पखंडी=कठपुतली वाला।
(16) करिन्ह=दिग्गजों।
(17) पाजी=पैदल सिपाही। कोतवार=कोटपाल, कोतवाल। गूँजरि लीहा=गरजकर लिया। बसेरा=टिकान।
(18) रहँट-घरी=रहट में लगा छोटा घड़ा। घरियार=घंटा। घरी भरी=घड़ीपूरीहुईA
(19) पुराने समय में समय जानने के लिए पानी भरी नाँद में एक घड़िया या कटोरा महीन महीन छेद करके तैरा दिया जाता था। जब पानी भर जाने से घड़िया डूब जाती थी तब एक घड़ी का बीतना माना जाता था।
(20) परस पखान=स्पर्शमणि, पारस पत्थर। सारी=पासा। झारि=बिल्कुल या समूह। सरि पूज=बराबरी को पहुँचता है। खड़गदान=तलवार चलाना।
(21) बारा=द्वार। ठेघा=सहारा दिया। ऍंगवै=शरीर पर सहती है।
(22) रजवार=राजद्वार। समंद=बादामी रंग का घोड़ा। हाँसुल=कुम्मैत हिनाई, मेहंदी के रंग का और पैर कुछ काले। भौंर=मुश्की। कियाह=ताड़ के पके फल के रंग का। हरे=सब्जा। कुरंग=लाख के रंग का या नीला कुम्मैत। महुअ=महुए के रंग का। गरर=लाल और सफेद मिले रोएँ का, गर्रा। कोकाह=सफेद रंग का। बुलाह=बोल्लाह, गर्दन और पूँछ के बाल पीले। ताज=ताजियाना, चाबुक। अगमन=आगे। तुखार=तुषार देश के घोड़े, यहाँ घोड़े।
(23) दर=दरवाजा। मेदमेदा, एक प्रकार की सुगंधिात जड़। तवै=तपता है।
(24) उरेह=चित्रा। उबेहे=चुने हुए, बीछे हुए। कोरिकै=खोदकर। बेहर बेहर=अलग-अलग।
(25) बारहबानी=द्वादशवर्णी, सूर्य की तरह चमकने वाली।
कृपया हमारे फेसबुक पेज से जुड़ने के लिए यहाँ क्लिक करें
कृपया हमारे यूट्यूब चैनल से जुड़ने के लिए यहाँ क्लिक करें
कृपया हमारे एक्स (ट्विटर) पेज से जुड़ने के लिए यहाँ क्लिक करें
कृपया हमारे ऐप (App) को इंस्टाल करने के लिए यहाँ क्लिक करें
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण से संबन्धित आवश्यक सूचना)- विभिन्न स्रोतों व अनुभवों से प्राप्त यथासम्भव सही व उपयोगी जानकारियों के आधार पर लिखे गए विभिन्न लेखकों/एक्सपर्ट्स के निजी विचार ही “स्वयं बनें गोपाल” संस्थान की इस वेबसाइट/फेसबुक पेज/ट्विटर पेज/यूट्यूब चैनल आदि पर विभिन्न लेखों/कहानियों/कविताओं/पोस्ट्स/विडियोज़ आदि के तौर पर प्रकाशित हैं, लेकिन “स्वयं बनें गोपाल” संस्थान और इससे जुड़े हुए कोई भी लेखक/एक्सपर्ट, इस वेबसाइट/फेसबुक पेज/ट्विटर पेज/यूट्यूब चैनल आदि के द्वारा, और किसी भी अन्य माध्यम के द्वारा, दी गयी किसी भी तरह की जानकारी की सत्यता, प्रमाणिकता व उपयोगिता का किसी भी प्रकार से दावा, पुष्टि व समर्थन नहीं करतें हैं, इसलिए कृपया इन जानकारियों को किसी भी तरह से प्रयोग में लाने से पहले, प्रत्यक्ष रूप से मिलकर, उन सम्बन्धित जानकारियों के दूसरे एक्सपर्ट्स से भी परामर्श अवश्य ले लें, क्योंकि हर मानव की शारीरिक सरंचना व परिस्थितियां अलग - अलग हो सकतीं हैं ! अतः किसी को भी, “स्वयं बनें गोपाल” संस्थान की इस वेबसाइट/फेसबुक पेज/ट्विटर पेज/यूट्यूब चैनल आदि के द्वारा, और इससे जुड़े हुए किसी भी लेखक/एक्सपर्ट के द्वारा, और किसी भी अन्य माध्यम के द्वारा, प्राप्त हुई किसी भी प्रकार की जानकारी को प्रयोग में लाने से हुई, किसी भी तरह की हानि व समस्या के लिए “स्वयं बनें गोपाल” संस्थान और इससे जुड़े हुए कोई भी लेखक/एक्सपर्ट जिम्मेदार नहीं होंगे ! धन्यवाद !