कविता -स्त्री – भेद- वर्णन खंड,पद्मावती-रूप चर्चा खंड, बादशाह-चढ़ाई खंड,राजा-बादशाह-युध्द खंड,- मलिक मुहम्मद जायसी – (संपादन – रामचंद्र शुक्ल )
पहिले कहौं हस्तिनी नारी । हस्ती कै परकीरति सारी॥
सिर औ पायँ सुभर गिउ छोटी । उर कै खीनि लंक कै मोटी॥
कुंभस्थल कुच मद उर माहीं । गयन गयंद ढाल जनु वाहीं॥
दिस्टि न आवै आपन पीऊ । पुरुष पराए ऊपर जीऊ॥
भोजन बहुतबहुत रति चाऊ । अछवाई न¯ह थोर बनाऊ॥
मद जस मंदबसाइ पसेऊ । औ बिसवासि छरै सब केऊ॥
डर औ लाज न एकौ हिये । रहै जो राखे ऑंकुस दिये॥
गज गति चलै चहूँ दिसि, चितवै लाए चोख।
कही हस्तिनी नारि यह, सब हस्तिन के दोख॥1॥
दूसरि कहौं संखिनी नारी । करै बहुत बल अलप अहारी॥
उर अति सुभर खीन अति लंका । गरब भरी मन करै न संका॥
बहुत रोष चाहै पिउ हना । आगे घाल न काहू गना॥
अपनै अलंकार ओहि भावा । देखिन सकै सिंगार परावा॥
सिंघ क चाल चलै डग ढीली । रोवाँ बहुत जाँघ औ फीली॥
मोटि माँसु रुचि भोजन तासू । औ मुख आव बिसायँधा वासू॥
दिस्टि तिरहुँड़ी हेर न आगे । जनु मथवाह रहै सिर लागे॥
सेज मिलत स्वामी कहँ, लावै उर नखबान।
जेहि गुन सबै सिंघ के, सो संखिनि सुलतान!॥2॥
तीसरि कहौं चित्रिानी नारी । महा चतुर रस प्रेम पियारी॥
रूप सुरूप सिंगार सवाई । अछरी जैसि रहै अछवाई॥
रोष न जानै हँसतामुखी । जेहि अस नारि कंत सो सुखी॥
अपने पिउ कै जानै पूजा । एक पुरुष तजि आन न दूजा॥
चंदबदनि रँग कुमुदिनि गोरी । चाल सोहाइ हंस कै जोरी॥
खीर खाँड़ रुचि अलप अहारू । पान फूल तेहि अधिाक पियारू॥
पदमावति चाहि घाटि दुइ करा । और सबै गुन ओहि निरमरा॥
चित्रिानि जैस कुमुद रँग, सोइ बासना अंग।
पदमावति सब चंदन असि, भँवर फिरहिं तेहि संग॥3॥
चौथी कहौं पदमावति नारी । पदुम गंधा ससि दैउ सँवारी॥
पदमिनि जाति पदुम रँग ओही । पदुम बास मधाुकर सँग होहीं॥
ना सुठि लाँबी, ना सुठि छोटी । ना सुठि पातरि, ना सुठि मोटी॥
सोरह करा रंग ओहि बानी । सो, सुलतान! पदमावति जानी॥
दीरघ चारि, चारि लघु सोई । सुभर चारि, चहुँ खीनो होई॥
औ ससि बदन देखि सब मोहा । बाल मराल चलत गति सोहा॥
खीर अहार न कर सुकुवाँरी । पान फूल के रहै अधाारी॥
सोरह करा सँपूरन, औ सोरहौ सिंगार।
अब ओहि भाँति कहत हौं, जस बरनै संसार॥4॥
प्रथम केस दीरघ मन मोहै । औ दीरघ ऍंगुरी कर सोहै॥
दीरघ नैन तीख तहँ देखा । दीरघ गीउ, कंठ तिनि रेखा॥
पुनि लघु दसन होहिं जनु हीरा । औ लघु कुच उत्तांग जँभीरा॥
लघु लिलाट दूइज परगासू । औ नाभी लघु, चंदन बासू॥
नासिक खीन खरग कै धाारा । खीन लंक जनु केहरि हारा॥
खीन पेट जानहुँ नहिं ऑंता । खीन अधार बिद्रुम रँग राता॥
सुभर कपोल, देख मुख सोभा । सुभर नितंब देखि मन लोभा॥
सुभर कलाई अति बनी, सुभर जंघ, गज चाल।
सोरह सिंगार बरनि कै, करहिं देवता लाल॥5॥
(1) अछवाई=सफाई। बनाऊ=बनाव-सिंगार। बसाइ=दुर्गंधा करता है। चोख=चंचलता या नेत्रा।
(2) सुभर=भरा हुआ। चाहै पिउ हाना=पति को कभी-कभी मारने दौड़ती है। घाल न गना=कुछ नहीं समझती, पसंगे बराबर नहीं समझती। फीली=पिंडली। तिरहुँड़ी=नीचा। हेर=देखती है। मथवाह=झालरदार पट्टी जो भड़कनेवाले घोड़ों के मत्थे पर इसलिए बाँधा दी जाती है जिसमें वे इधार-उधार की वस्तु देख न सकें। जेहि गुन सबै सिंघ के=कवि ने शायद शंखिनी के स्थान पर ‘सिंघिनी’ समझा है।
(3) सवाई=अधिाक। अछवाई=साफ, निखरी। चाहि=अपेक्षा, बनिस्बत। घाटि=घटकर। करा=कला। बासना=बास, महँक।
(4) सुठि=खूब, बहुत। दीरघ चारि…होइ=ये सोलह शृंगार के विभाग हैं।
(5) दीरघ लंबे। तीख=तीखे। तिनि=तीन। केहरि हारा=सिंह ने हार कर दी। ऑंता=ऍंतड़ी। सुभर=भरे हुए। लाल=लालसा।
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वह पदमावति चितउर जो आनी । काया कुंदन द्वादसबानी॥
कुंदन कनक ताहि नहिं बासा । वह सुगंधा जस कँवल बिगासा॥
कुंदन कनक कठोर सो अंगा । वह कोमल, रँग पुहुप सुरंगा॥
ओहि छुइ पवन बिरिछ जेहि लागा । सोइ मलयागिरि भयउ सभागा॥
काह न मूठि भरी ओहि देही ? असि मूरति केइ दैउ उरेही?॥
सबै चितेर चित्रा कै हारे । ओहिक रूप कोइ लिखै न पारे॥
कया कपूर हाड़ सब मोती । तिन्हतें अधिाक दीन्ह बिधिा जोती॥
सुरुज किरिन जसि निरमल, तेहितें अधिाक सरीर।
सौंह दिस्टि नहिं जाइ करि नैनन्ह आवै नीर॥1॥
ससि मुख जबहिं कहै किछु बाता । उठत ओठ सूरुज जस राता॥
दसन दसन सौं किरिन जो फूटहिं । सब जग जनहुँ फुलझरीछूटहिं॥
जानहुँ असि महँ बीजु देखावा । चौंधिा परै किछु कहै न आवा॥
कौंधात अह जस भादौं रैनी । साम रैनि जनु चलै उड़ैनी॥
जनु बसंत ऋतु कोकिल बोली । सुरस सुनाइ मारि सर डोली॥
ओहि सिर सेसनाग जौ हरा । जाइ सरन बेनी होइ परा॥
जनु अमृत होइ बचन बिगासा । कँवल जो बास बास धानि पासा॥
सबै मनहि हरि जाइ मरि, जो देखै तस चार।
पहिले सो दुख बरनि के, बरनौं ओहिक सिंगार॥2॥
कित हौं रहा काल कर काढ़ा । जाइ धाौरहर तर भा ठाढ़ा॥
कित वह आइ झरोखे झाँकी । नैन कुरगिनि चितवन बाँकी॥
बिहँसी ससि तरई जनु परी । की सा रैनि छुटीं फुलझरी॥
चमक बीजु जस भादौं रैनी । जगत दिस्टि भरि रहीं उड़ैनी॥
काम कटाछ दिस्टि बिष बसा । नागिनि अलक पलक महँ डसा॥
भौंह धानुष पल काजर बूड़ी । वह भइ धाानुक हौं भा ऊड़ी॥
मारि चली मारत हू हंसा । पाछे नाग रहा हौं डँसा॥
काल घालि पाछे रखा, गरुड़ न मंतर कोइ।
मोरे पेट वह पैठा, कासौं पुकारौं रोइ?॥3॥
बेनी छोरि झार जौ केसा । रैनि होइ जग दीपक लेसा॥
सिर हुँत बिसहर परे भुइँ बारा । सगरौं देस भयउ ऍंधिायारा॥
सकपकाहिं बिष भरे पसारे । लहिर भरे लहकहिं अति कारे॥
जानहुँ लोटहिं चढ़े भुऍंगा । बेधो बास मलयगिरि अंगा॥
लुरहिं मुरहिं जनु मानहिं केली । नाग चढ़े मालति कै बेली॥
लहरै देइ जनहुँ कालिंदी । फिरि फिरि भँवर होइ चित बंदी॥
चँवर ढुरत आछै चहुँ पासा । भँवर न उड़हिं जो लुबुधो बासा॥
होइ ऍंधिायार बीजु धान, लोपै जबहि चीर गहि झाँप।
केस नाग कित देख मैं, सँवरि सँवरि जिय काँप॥4॥
माँग जो मानिक सेंदुर रेखा । जनु बसंत राता जग देखा॥
कै पत्राावलि पाटी पारी । औ रुचि चित्रा बिचित्रा सँवारी॥
भए उरेह पुहुप सब नामा । जनु बग बिखरि रहे घन सामा॥
जमुना माँझ सुरसती मंगा । दुहुँ दिसि रही तरंगिनि गंगा॥
सेंदुर रेख सो ऊपर राती । बीरबहूटिन्ह कै जसि पाँती॥
बलि देवता भए देखि सेंदूरू । पूजै माँग भोर उठि सूरू॥
भोर साँझ रबि होइ जो राता । ओहि रेखा राता होइ गाता॥
बेनी कारी पुहुप लेइ, निकसी जमुना आइ॥
पूज इंद्र आनंद सौं, सेंदुर सीस चढ़ाइ॥5॥
दुइज लिलाट अधिाक मनियारा । संकर देखि माथ तहँ धाारा॥
यह निति दुइज जगत सब दीसा । जगत जोहारै देइ असीसा॥
ससि जो होइ नहिं सरवरि छाजै । होइ सो अमावस छपि मनलाजै॥
तिलक सँवारि जो चुन्नी रची । दुइज माँझ जानहुँ कचपची॥
ससि पर करवत सारा राहू । नखतन्ह भरा दीन्ह बड़ दाहू॥
पारस जोति लिलाटहि ओती । दिस्टि जो करै होइ तेहि जोती॥
सिरी जो रतन माँग बैठारा । जानहु गगन टूट निसितारा॥
ससि औ सूर जो निरमल, तेहि लिलाट के ओप।
निसि दिन दौरि न पूजहिं पुनि पुनि होहिं अलोप॥6॥
भौंहै साम धानुक जनु चढ़ा । बेझ करै मानुष कहँ गढ़ा॥
चंद क मूठि धानुक वह ताना । काजर पनच बरुनि विष बाना॥
जा सहुँ हेर जाइ सो मारा । गिरिवर टरहिं भौंह जो टारा॥
सेतुबंधा जेइ धानुष बिड़ारा । उहौ धानुष भौंहन्ह सौं हारा॥
हारा धानुष जा बेधाा राहू । और धानुष कोइ गनै न काहू॥
कित सो धानुष मैं भौंहन्ह देखा । लाग बान तिन्ह आउ न लेखा॥
तिन्ह बानन्ह झाँझर भा हीया । जा अस मारा कैसे जीया?॥
सूत सूत तन बेधाा, रोवँ रोवँ सब देह।
नस नस महँ ते सालहिं, हाड़ हाड़ भए बेह॥7॥
नैन चित्रा एहि रूप चितेरा । कँवल पत्रा पर मधाुकर फेरा॥
समुद तरंग उठहिं जनु राते । डोलहि औ धाूमहिं रस माते॥
सरद चंद मह खंजन जोरी । फिरि, फिरि लरै बहोरि बहोरी॥
चपल बिलोल डोल उन्ह लागे । थिर न रहै चंचल बैरागे॥
निरखि अघाहिं न हत्या हुँते । फिरि फिरि òवनन्ह लागहिं मते॥
अंग सेत मुख साम सो ओही । तिरछे चलहिं सूधा नहिं होहीं॥
सुर नर गंधा्रब लाल कराहीं । उलब चलहिं सरग कह जाहीं॥
अस वै नयन चक्र दुइ, भँवर समुद उलथाहिं।
जनु जिउ घालि हिंडोलहिं, लेइ आबहिं लेइ जाहिं॥8॥
नासिक खड़ग हरा धानि कीरू । जोग सिंगार जिता औ बीरू॥
ससि मुँह सीहँ खड्ग देइ रामा । रावन सौं चाहै संग्रामा॥
दुहुँ समुद्र महँ जनु बिच नीरू । सेतुबंधा बाँधाा रघुबीरू॥
तिल के पुहुप अस नासिक तासू । औ सुगंधा दीन्हीं बिधिा बासू॥
हीर फूल पहिरे उजियारा । जनहुँ सरद ससि सोहिल तारा॥
सोहिल चाहि फूल वह ऊँचा । धाावहिं नखत न जाइ पहूँचा॥
न जनौं कैस फूल वह गढ़ा । बिगसि फूल सब चाहहिं चढ़ा॥
अस वह फूल सुबासित, भयउ नासिका बंधा।
जेत फूल ओहि हिरकहिं तिन्ह कहँ होइ सुगंधा॥9॥
अधार सुरंग पान अस खीने । राते रंग अमिय रस भीने॥
आछहिं भिजे तँबोल सौं राते । जने गुलाल दीसहिं बिहँसाते॥
मानिक अधार दसन जनु हीरा । बैन रसाल खाँड़ मुख बीरा॥
काढ़े अधार डाभ जिमि चीरा । रुहिर चुवै जौ खाँड़ै बीरा॥
ढारै रसहि रसहि रस गीली । रबत भरी औ सुरँग रँगीली॥
जनु परभात राति रवि रेखा । बिगसे बदन कँवल जनु देखा॥
अलक भुअंगिनि अधार¯ह राखा । गहै जो नागिनि सो रस चाखा॥
अधार अधार रस प्रेम कर, अलक भुअंगिनि बीच।
तब अमृत रस पावै, जब नागिनि गहि खींच॥10॥
दसन साम पानन्ह रँग पाके । बिगसे कँवल माँह अलि ताके॥
ऐसि चमक सुख भीतर होई । जनु दारिउँ औ साम मरोई॥
चमकहिं चौक विहँस जौ नारी । बीजु चमक जस निसि ऍंधिायारी॥
सेत साम अस चमकतदीठी । नीलम हीरक पाँति बईठी॥
केइ सो गढ़े अस दसन अमोला । मारै छीजु बिहँसि जो बोला॥
रतन भीजि रस रँग भए सामा । ओही छाज पदारथ नामा॥
कित वै दसन देख रस भीने । लेइ गइ जोति नैन भए हीने॥
दसन जोति होइ नैन मग, हिरदय माँझ पईठ।
परगट जग ऍंधिायार जनु, गुपुत ओहि मैं दीठ॥11॥
रसना सुनहु जो कह रस बाता । कोकिल बैन सुनत मन राता॥
अमृत कोंप जीभ जनु लाई । पान फूल असि बात सोहाई॥
चातक बैन सुनत होइ साँती । सुनै सो परै प्रेम मधाु माती॥
बिरवा सूख पाव जस नीरू । सुनत बैन तस पलुह सरीरू॥
बोल सेवाति बूँद जनु परहीं । òवन सीप मुख मोती भरहीं॥
धानि वै बैन जो प्रान अधाारू । भूले òवनहिं देहिं अहारू॥
उन्ह बैनन्ह कै काहि न आसा । मोहहि मिरिग बीन बिस्वासा॥
कंठ सारदा मोहै, जीभ सुरसती काह।
इंद्र चंद्र रवि देवता, सबै जगत मुख चाह॥12॥
òवन सुनहु जो कुंदन सीपी । पहिरे कुंडल सिंघलदीपी॥
चाँद सुरुज दुहुँ दिसि चमकाहीं । नखतन्ह भरे निरखि नहिं जाहीं॥
खिन खिन करहिं बीजु अस काँपा । ऍंवर मेघ महँ रहहिं नझाँपा॥
सूक सनीचर दुहुँ दिसि मते । होहि निनार न òवनन्ह हुँते॥
काँपत रहहिं बोल जो बैना । òवनन्ह जौ लागहिं फिर नैना॥
जस जस बात सखिन्ह सौं सुना । दुहुँ दिसि करहिं सीस वै धाुना॥
खूँट दुवौ अस दमकहिं खूँटी । जनहु परै कचपचिया टूटी॥
वेद पुरान ग्रंथ जत, òवन सुनत सिखि लीन्ह।
नाद विनोद राग रस बंधाक, òवन ओहि बिधिा दीन्ह॥13॥
कँवल कपोल ओहि अस छाजै । और न काहु दैउ अस साजै॥
पुहुप पंक रस अमिय सँवारे । सुरँग गेंद नारँग रतनारे॥
पुनि कपोल बाएँ तिल परा । सो तिल बिरह चिनगि कै करा॥
जो तिल देख जाइ जरि सोई । बाएँ दिस्टि काहु जिनि होई॥
जानहुँ भँवर पदुम पर टूटा । जीउ दीन्ह औ दिए न छूटा॥
देखत तिल नैनन्ह गा गाड़ी । और न सूझै सो तिल छाँड़ी॥
तेहि पर अलक मनि जरी डोला । छुवै सो नागिनि सुरँग कपोला॥
रच्छा करै मयूर वह, नाँघि न हिय पर लोट।
गहि रे जग को छुइ सकै, दुइ पहार के ओट॥14॥
गीउ मयूर केरि जस ठाढ़ी । कुन्दै फेरि कुँदेरै काढ़ी॥
धानि वह गीउ का बरनौं करा । बाँक तुरंग जनहुँ गहि परा॥
घिरिनि परेवा गीउ का बरनौं करा । बाँक तुरंग जनहुँ गहि परा॥
गीउ सुराही कै अस भई । अमिय पियाला कारन नई॥
पुनि तेहि ठाँव परी तिनि रेखा । तेइ सोइ ठाँव होइ जो देखा॥
सुरुज किरिनि हुँत गिउ निरमली । देखे बेगि जाति हिय चली॥
कंचन तार सोह गिउ भरा । साजि कँवल तेहि ऊपर धारा॥
नागिनि चढ़ी कँवल पर चढ़ि कै बैठ कमंठ।
कर पसार जो काल कहँ सो लागै ओहि कंठ॥15॥
कनक दंड भुज बनी कलाई । डाँडी कँवल फेरि जनु लाई॥
चंदन खाँभहिं भुजा सँवारी । जानहुँ मेलि कँवल पौनारी॥
तेहि डाँड़ी सँग कँवल हथोरी । एक कँवल कै दूनौ जोरी॥
सहजहि जानुहु मेहँदी रची । मुकुताहल लीन्हें जनु घुँघची॥
करपल्लव जो हथोरिन्ह माथा । वै सब रकत भरे तेहि हाथा॥
देखत हिया काढ़ि जनु लेई । हिया काढ़ि कै जाइ न देई॥
कनक ऍंगूठी औ नग जरी । वह हत्यारिनि नखतन्ह भरी॥
जैसी भुजा कलाई, तेहि बिधिा जाइ न भाखि।
कंकन हाथ होइ जहँ, तहँ दरसन का साखि?॥16॥
हिया थार कुच कनक कचोरा । जानहुँ दुवौ सिरीफल जोरा॥
एक पाट वै दूनौ राजा । साम छत्रा दूनहुँ सिर छाजा॥
जानहुँ दोउ लटू एक साथा । जग भा लटू चढ़ै नहिं हाथा॥
पातर पेट आहि जनु पूरी । पान अधाार फूल अस फूरी॥
रोमावलि ऊपर लटु घूमा । जानहु दोउ साम औ रूमा॥
अलक भुअंगिनि तेहि पर लोटा । हिय घर एक खेल दुइ गोटा॥
बान पगार उठे कुच दोऊ । नाँघि सरन्ह उन्ह पाव न कोऊ॥
कैसहु नवहिं न नाए, जोबन गरब उठान।
जो पहिले कर लावै, सो पाछे रति मान॥17॥
भृंग लंक जनु माँझ न लागा । दुइ ख्रड नलिन माँझ जनु तागा॥
जब फिरि चली देख मैं पाछे । अछरी इंद्रलोक जनु काछे॥
जबहि चली मन भा पछिताऊ । अबहूँ दिस्टि लागि ओहि ठाऊँ॥
अछरी लाजि छपीं गति ओही । भईं अलोप न परगट होहीं॥
हंस लजाइ मानसर खेले । हस्ती लाजि धाूरि सिर मेले॥
जगत बहुत तिय देखी महूँ । उदय अस्त अस नारि न कहूँ॥
महिमंडल तौ ऐसि न कोई । ब्रह्ममंडल जौ होइ तौ होई॥
बरनेउँ नारि जहाँ लगि, दिस्टि झरोखे आइ।
और जो अही अदिष्ट धानि, सो किछु बरनि न जाइ॥18॥
का धानि कहौं जैसि सुकुमारा । फल के छुए होइ बेकरारा॥
पखुरी काढ़हिं फूलन सेंती । सोई डासहिं सौंर सपेती॥
फूल समूचै रहै जो पावा । ब्याकुल होइ नींद नहिं आवा॥
सहै न खीर खाँड़ औ घीऊ । पान अधाार रहै तन जीऊ॥
नस पानन्ह कै काढ़हिं हेरी । अधार न गड़ै फाँस ओहि केरी॥
मकरि क तार तेहि कर चीरू । सो पहिरे छिरि जाइ सरीरू॥
पालँग पावँ क आछै पाटा । नेत बिछाव चलै जौ बाटा॥
घालि नैन ओहि राखिय, पल नहिं कीजिय ओट।
पेम क लुबुधाा पाव ओहि, काहु सो बड़ का छोट॥19॥
जौ राघव धानि बरनि सुनाई । सुना साह गइ मुरछा आई॥
जनु मूरति वह परगट भई । दरस देखाइ माहिं छपि गई॥
जो जो मंदिर पदमावति लेखी । सुना जौ कँवल कुमुद अस देखी॥
होइ मालति धानि चित्ता पईठी । और पुहुप कोउ आव न दीठी॥
मन होइ भँवर भयउ बैरागा । कँवल छाँड़ि चित्ता और न लागा॥
चाँद के रंग सुरुज जस राता । और नखत सो पूछ न बाता॥
तब कह अलाउदीं जगसूरू । लेउं नारि चितउर कै चूरू॥
जौ वह पदमावति मानसर, कलि न मलिन होइ जात।
चितउर महँ जो पदमावति, फरि उहै कहु बात॥20॥
ए जगसूर! कहौं तुम पाहाँ । और पाँच नग चितउर माहाँ॥
एक हंस है पंखि अमोला । मोती चुनै पदारथ बोला॥
दूसर नग जो अमृत बसा । सो बिष हरै नाग कर डसा॥
तीसर पाहन परस पखाना । लोह छुए होइ कंचन बाना॥
चौथ अहै सादूर अहेरी । जो बन हस्ति धारै सब घेरी॥
पाँचव नग सो तहाँ लागना । राजपंखि पेखा गरजना॥
हरिन रोझ कोइ भागि न बाँचा । देखत उड़ै सचान होइ नाचा॥
नग अमोल अस पाँचौ, भेंट समुद ओहि दीन्ह।
इसकंदर जो न पावा सो सायर धाँसि लीन्ह॥21॥
पान दीन्ह राघव पहिरावा । दस गज हस्ति घोड़ सो पावा॥
औ दूसर कंकन कै जोरी । रतन लागि ओहि बत्तिास कोरी॥
लाख दिनार देवाई जेंवा । दारिद हरा समुद कै सेवा॥
हौं जेहि दिवस पदमावति पावौं । तोहि राघव! चितउर बैठावौं॥
पहिले करि पाँचौ नग मूठी । सो नग लेउँ जो कनक ऍंगूठी॥
सरजा बीर पुरुष बरियारू । ताजन नाग सिंघ असवारू॥
दीन्ह पत्रा लिखि बेगि चलावा । चितउर गढ़ राजा पहँ आवा॥
राजै पत्रिा बँचावा, लिखी जो करा अनेग।
सिंघल कै जो पदमावति, पठै देहु तेहि बेग॥22॥
(1) बासा=महक, सुगंधा। ओहि छुइ…सभागा=उसको छूकर वायु जिन पेड़ों में लगी वे मलयागिरि चंदन हो गए। काह न मूठि…देही=उस मुट्ठी भर देह में क्या नहीं है? चितेर=चित्राकार।
(2) साम रैनि=ऍंधोरी रात। उड़ैनी=जुगनू। सर=बाण। चार=ढंग, ढब। दुख=उसके दर्शन से उत्पन्न विकलता।
(3) काल कर काढ़ा=काल का चुना हुआ। पल=पलक। बूड़ी=डूबी हुई। धाानुक=धानुष चलानेवाली। ऊड़ी=पनडुब्बी चिड़िया। घालि…रखा=डाल रखा।
(4) झार=झारती है। जग दीपक लेसा=रात समझकर लोग दीया जलाने लगते हैं। सिर हुँत=सिर से। बिसहर=विषधार, साँप। सकपकाहिं=हिलते डोलते हैं। लहकहिं=लहराते हैं, झपटते हैं। लुरहिं=लोटते हैं। फिरि फिरि भँवर=पानी के भँवर में चक्कर खाकर। बंदी=कैदी, बँधाुआ। ढुरत आछै=ढरता रहता है। झाँप=ढाँकती है।
(5) पत्राावलि=पत्राभंगरचना। पाटी=माँग के दोनों ओर बैठाए हुए बाल। उरेह=विचित्रा सजावट। बग=बगला। पूजै=पूजन करता है।
(6) मनियारी=कांतिमान, सोहावना। चुन्नी=चमकी या सितारे जो माथे या कपोलों पर चिपकाए जाते हैं। पारस जोति=ऐसी ज्योति जिससे दूसरी वस्तु को ज्योति हो जाय। सिरी=श्री नाम का आभूषण। ओप=चमक। पूजहिं=बराबरी को पहुँचते हैं।
(7) बेझ करै=बेधा करने के लिए। पनच=पतंचिका, धानुष की डोरी। बिड़ारा=नष्ट किया। धानुष जो बेधाा राहू=मत्स्यवेधा करने वाला अर्जुन का धानुष। आउ न लेखा=आयु को समाप्त समझा। बेह=बेधा, छेद।
(8) नैन चित्रा…चितेरा=नेत्राों का चित्रा इस रूप से चित्रिात हुआ है। चितेरा=चित्रिात किया गया। बहोरि बहोरी=फिर फिर। फिरि फिरि=घूम घूमकर। मते=सलाह करने में। ऍंग सेत…ओही=ऑंखों के सफेद डेले और काली पुतलियाँ। लाल=लालसा।
(9) कीरू=तोता। सोहिल तारा=सुहेल तारा जो चंद्रमा के पास रहता है। बिगसि फूल…चढ़ा=फूल जो खिलते हैं मानों उसी पर निछावर होने के लिए।
(10) काढ़े अधार…चीरा=जैसे कुश का चीरा लगा हो ऐसे पतले ओठ हैं। जौ खाँड़ै बीरा जब=बीड़ा चबाती है। जनु परभात…देख=मानों विकसित कमलमुख पर सूर्य की लाल किरणें पड़ी हों।
(11) ताके=दिखाई पड़े। मकोई=जंगली मकोय जो काली होती है। कित वै दसन…भीने=कहाँ से मैंने उन रंगभीने दाँतों को देखा।
(12) कोंप=कोंपल, नया कल्ला। साँती=शांति। माती=मात कर। बिरवा=पेड़। सूख=सूखा हुआ। पलुह=पनपता है, हरा होता है। बीन बिस्वासा=बीन समझकर।
(13) कुंदन सीपी=कुंदन की सीप (ताल के सीपों का आधाा संपुट)। अंबर=वस्त्रा। खूँट=कोना, ओर। खूँटी=खूँट नाम का गहना। कचपचिया=कृत्तिाका नक्षत्रा।
(14) पुहुप पंक=फूल का कीचड़ या पराग। कै करा=के रूप, के समान। बाएँ दिस्टि…होई=किसी की दृष्टि बाईं ओर न जाय क्योंकि वहाँ तिल है। गा गाड़ी=गड़ गया। दुइ पहार=अर्थात् कुच।
(15) कुंदै=खराद पर। कुँदेरै=कुँदेरे ने। करा=कला, शोभा। घिरिनि परेवा=गिरहबाज कबूतर। तमचूर=मुर्गा। तेइ सोइ ठाउँ…देखा=जो उसे देखता है वह उसी जगह ठक रह जाता है। जाति हिय चली=हृदय में बस जाती है। नागिनि=अर्थात् केश। कमंठ=कछुए के समान पीठ या खोपड़ी।
(16) डाँड़ी कँवल लाई=कमलनाल उलटकर रखा हो। करपल्लव=उँगली। साखि=साक्षी। कंकन हाथ…साखि=हाथ कंगन को आरसी क्या?
(17) कचोरा=कटोरा। पाट=सिंहासन। साम छत्रा=अर्थात् कुच का श्याम अग्रभाग। लटु=लट्टई। फूरी=फूली। साम=शाम (सीरिया) का मुल्क जो अरब के उत्तार है। घर=खाना, कोठा। गोटा=गोटी। पगार=प्राकार या परकोटे पर।(18) देख=देखा। खेले=चले गए। ब्रह्ममंडल=स्वर्ग।
(19) बेकरारा=बेचैन। डासहिं=बिछाती हैं। सौंर=चादर। फाँस=कड़ा तंतु। मकरि क तार=मकड़ी के जाले सा महीन। छिरि जाइ=छिल जाता है। पालँग पावँ‑‑‑पाटा=पैर या तो पलँग पर रहते हैं या सिंहासन पर। नेत=रेशमी कपड़े की चादर (सं. नेत्रा)।
(20) माहिं=भीतर (हृदय के)। जो जो मंदिर…देखी=अपने घर की जिन-जिन स्त्रिायों को पद्मावती समझ रखा था वे पद्मावती (कँवल) का वृत्ताांत सुनने पर कुमुदिनी के समान लगने लगीं। चूरू कै=तोड़कर। मलिन=हतोत्साह।
(21) पदारथ=बहुत उत्ताम बोल। परस पखाना=पारस पत्थर। सादूर=शार्दूल, सिंह। लागना=लगनेवाला, शिकार करनेवाला। गरजना=गरजनेवाला। रोझ=नीलगाय। सचान=बाज। सायर=समुद्र।
(22) जेंवा=दक्षिणा में। ताजन नाग=नाग का कोड़ा। करा=कला से, चतुराई से।
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सुनि अस लिखा उठा जरि राजा । जानौ दैउ तड़पि घन गाजा॥
का मोहिं सिंघ देखावसि आई । कहौं तौ सारदूल धारि खाई॥
भलेहिं साह पुहुभीपति भारी । माँग न कोउ पुरुष कै नारी॥
जो सो चक्कवै ताकहँ राजू । मँदिर एक कहँ आपन साजू॥
अछरी जहाँ इंद्र पै आवै । और न सुनै न देखै पावै॥
कंस राज जीता जौ कोपी । कान्ह न दीन्ह काहु कहँ गोपी॥
को मोहिं तें अस सूर अपारा । चढ़ै सरग, खसि परै पतारा॥
का तोहिं जीउ मरावौं सकत आन के दोस?
जो नहिं बुझै समुद्र-जल सो बुझाइ कित ओस?॥1॥
राजा! अस न होहु रिस-राता । सुनु होइ जूड़, न जरि कहु बाता॥
मैं हौं इहाँ मरै कहँ आवा । बादसाह अस जानि पठावा॥
जो तोहि भार, न औरहि लेना । पूछहि कालि उतर है देना॥
बादसाह कहँ ऐस न बोलू । चढ़ै तौ परै जगत महँ डोलू॥
सूरहि चढ़त न लागहि बारा । तपै आगि जेहि सरग पतारा॥
परबत उड़हिं सूर के फूँके । यह गढ़ छार होइ एक झूँके॥
धाँसै सुमेरु, समुद गा पाटा । पुहुमी डोल, सेस-फन फाटा॥
तासौं कौन लड़ाई? बैठहु चितउर खास।
ऊपर लेहु चँदेरी, का पदमावति एक दासि?॥2॥
जौ पै घरनि जाइ घर केरी । का चितउर, का राज चँदेरी॥
जिउ न लेइ घर कारन कोई । सो घर देह जो जोगी होई॥
हौं रनथँभउर नाह हमीरू । कलपि माथ जेइ दीन्ह सरीरू॥
हौं सो रतनसेन सकबंधाी । राहु बेधिा जीता सैरंधाी॥
हनुवँत सरिस भार जेइ काँधाा । राघव सरिस समुद जो बाँधाा॥
विक्रम सरिस कीन्ह जेइ साका । सिंहलदीप लीन्ह जौ ताका॥
जौ अस लिखा भयउँ नहिं ओछा । जियत सिंघ कै गह को मोछा॥
दरब लेइ तौ मानौं, सेव करौं गहि पाउ।
चाहै जौ सो पदमावति, सिंहलदीपहि जाउ॥3॥
बोलु न राजा! आपु जनाई । लीन्ह देवगिरि और छिताई॥
सातौ दीप राज सिर नावहिं । औ सँग चली पदमावति आवहि॥
जेहि कै सेव करै संसारा । सिंहलदीप लेत कित बारा?॥
जिनि जानसि यह गढ़ तोहि पाहीं । ताकर सबै तोर किछु नाहीं॥
जेहि दिन आइ गढ़ी कहँ छेकिहि । सरवस लेइ हाथ को टेकिहि॥
सीस न छाँड़ै खेह के लागे । 1 सो सिर छार होइ पुनि आगे॥
सेवा करु जौ जियन तोहि भाई । नाहिं त फेरि माँख होइ जाई॥
जाकर जीवन दीन्ह तेहि, अगमन सीस जोहारि।
ते करनी सब जानै, काह पुरुष का नारि॥4॥
तुरुक! जाइ कहु मरै न धााई । होइहि इसकंदर कै नाई॥
सुनि अमृत कदलीबन धाावा । हाथ न चढ़ा रहा पछितावा॥
औ तेहि दीप पतँग होइ परा । अगिनि पहार पाँव देइ जरा॥
धारती लोह सरग भा ताँबा । जीउ दीन्ह पहुँचत कर लाँबा॥
यह चितउरगढ़ सोइ पहारू । सूर उठै तब होइ ऍंगारू॥
जौ पै इसकंदर सरि कीन्ही । समुद लेहु धाँसि जस वै लीन्ही॥
जो छरि आनै जाइ छिताई । तेहि छर औ डर होइ मिताई॥
महूँ समुझि अस अगमन, सजि राखा गढ़ साजु।
काल्हि होहि जेहि आवन, सो चलि आवै आजु॥5॥
सरजा पलटि साह पहँ आवा । देव न मानै बहुत मनावा॥
आगि जो जरै आगि पै सूझा । जरत रहै न बुझाए बूझा॥
ऐसे माथ न नावै देवा । चढ़ै सुलेमाँ मानै सेवा॥
सुनि कै अस राता सुलतानू । जैसे तपै जेठ कर भानू॥
सहसौ करा रोष अस भरा । जेहि दिसि देखै तेइ दिसि जरा॥
हिंदू देव काह बर खाँचा ? सरगहु अब न सूर सौं बाँचा॥
एहि जग आगि जो भरि मुख लीन्हा । सो सँग आगि दुहूँ जगकीन्हा॥
रनथँभउर जस जरि बुझा, चितउर परै सो आगि॥
फेरि बुझाए ना बुझै, एक दिवस जौ लागि॥6॥
लिखा पत्रा चारिहु दिसि धााए । जावत उमरा बेगि बोलाए॥
दुंद घाव भा इंद्र सकाना । डोला मेरु सेस अकुलाना॥
धारती डोलि कमठ खरभरा । मथन अरंभ समुद महँ परा॥
साह बजाइ चढ़ाजग जाना । तीस कोस भा पहिल पयाना॥
वितउर सौंह बारिगह तानी । जहँ लगि सुना कूच सुलतानी॥
उठि सरवान गगन लगि छाए । जानहु राते मेघ देखाए॥
जो जहँ तहँ सूता अस जागा । आइ जोहार कटक सब लागा॥
हस्ति घोड़ औ दर पुरुष जावत बेसरा ऊँट।
जहँ तहँ लीन्ह पलानै कटक सरह अस छूट॥7॥
चले पंथ बेसर1 सुलतानी । तीख तुरंग बाँक कनकानी॥
कारे, कुमइत, लील, सुपेते । खिंग, कुरंग, बीज, दुर केते॥
अबलक, अरबी, लखी सिराजी । चौघर चाल, सँमद भल, ताजी॥
किरमिज, नुकरा, जरदे, भले । रूपकरान, बोलसर, चले॥
पँचकल्यान, सँजाब, बखाने । महि सायर सब चुनि चुनि आने॥
मुशकी औ हिरमिजी, एराकी । तुरकी कहे भोथार बुलाकी॥
बिखरि चले जो पाँतिहि पाँती । बरन बरन औ भाँतिहि भाँती॥
सिर औ पूँछ उठाए, चहुँ दिसि साँस ओनाहिं।
रोष भरे जस बाउर, पवन तुरास उड़ाहिं॥8॥
लोहसार हस्ती पहिराए । मेघ साम जनु गरजत आए॥
मेघहि चाहि अधिाकवै कारे । भयउ असूझ देखि ऍंधिायारे॥
जसि भादौं निसि आवै दीठी । सरग जाइ हिरकी तिन्ह पीठी॥
सवा लाख हस्ती जब चाला । परबत सहित सबै जग हाला॥
चले गयंद माति मद आवहिं । भागहिं हस्ती गंधा जौ पावहिं॥
ऊपर जाइ गगन सिर धाँसा । औ धारती तर कहँ धासमसा॥
भा भुइँचाल चलत जग जानी । जहँ पग धारहिं उठै तहँ पानी॥
चलत हस्ति जग काँपा, चाँपा सेस पतार।
कमठ जो धारती लेइ रहा, बैठि गयउ गजमार॥9॥
चले जो उमरा मीर बखाने । का बरनौं जस उन्ह कर बाने॥
खुरासान औ चला हरेऊ । गौर बँगाला रहा न केऊ॥
रहा न रूम शाम सुलतानू । कासमीर ठट्टा मुलतानू॥
जावत बड़बड़ तुरुक कै जाती । माँडौवाले औ गुजराती॥
पटना, उड़िसा के सब चले । लेह गज हस्ति जहाँ लगि भले॥
कवँरु कामतना औ पिड़वाए । देवगिरि लेइ उदयगिरि आए॥
चला परवती लेइ कुमाऊँ । खसिया मगर जहाँ लगि नाऊँ॥
उदय अस्त लहि देस जो, को जानै तिन्ह नाँव?।
सातौ दीप नवौ खंड, जुरे आह इक ठाँव॥10॥
धानि सुलतान जेहिक संसारा । उहै कटक अस जोरै पारा॥
सबै तुरुक सिरताज बखाने । तबल बाज औ बाँधो बाने॥
लाखन मार बहादुर जंगी । जँबुर, कमानैं तीर खदंगी1॥
जीभा खोलि राग सौं मढ़े । लेजिम घालि एकाकिन्ह चढ़े॥
चमकहिं पाखर सार सँवारी । दरपन चाहि अधिाक उजियारी॥
बरन बरन औ पाँतिहि पाँती । चली सो सेना भाँतिहि भाँती॥
बेहर बेहर सब कै बोली । बिधिा यह खानि कहाँ दहुँ खोली?॥
सात सात जोजन कर, एक दिन होइ पयान।
अगिलहि जहाँ पयान होइ पछिलहि तहाँ मिलान॥11॥
डोले गढ़ गढ़पति सब काँपे । जीउ न पेट हाथ हिय चाँपे॥
काँपा रनथँभउर गढ़ डोला । नरवर गयउ झुराइ न बोला॥
जूनागढ़ औ चंपानेरी । काँपा माड़ौ लेइ चँदेरी॥
गढ़ गुवालियर परी मथानी । औ ऍंधिायार मथा भा पानी॥
कालिंजर मह परा भगाना । भागेउ जयगढ़ रहा न थाना॥
काँपा बाँधाव नरवर राना । डर रोहतास बिजयगिरि माना॥
काँप उदयगिरि देवगिरि डरा । तब सो छपाइ आपु कहँ धारा॥
जावत गढ़ औ गढ़पति, सब काँपे जस पात।
का कहुँ बोलि सौहँ भा, बादशाह कर छात?॥12॥
चितउरगढ़ औ कुंभलनेरै । साजे दूनौ जैस सुमेरै॥
दूतन्ह आइ कहा जहँ राजा । चढ़ा तुरुक आवै दर साजा॥
सुनि राजा दौराई पाती । हिंदू नावँ जहाँ लगि जाती॥
चितउर हिंदुन कर अस्थाना । सत्राु तुरुक हठि कीन्ह पयाना॥
आव समुद्र रहै नहिं बाँधाा ! मैं होइ मेड़ भार सिर काँधाा॥
पुरवहु साथ तुम्हारि बड़ाई । नाहिं त सत को पार छँड़ाई?॥
जौ लहि मेड़ रहै सुख साखा । टूटे बारि जाइ नहिं राखा॥
सती जौ जिउ महँ सत धारै, जरै न छाँड़ै साथ।
जहँ बीरा तहँ चून है, पान सोपारी काथ॥13॥
करत जो रायसाह कै सेवा । तिन्ह कहँ आइ सुनाव परेवा॥
सब होइ एकमते जो सिधाारे । बादसाह कहँ आइ जोहारे॥
है चितउर हिंदुन्ह कै माता । गाढ़ परे तजि जाइ न नाता॥
रतनसेन तहँ जौहर साजा । हिंदुन्ह माँझ आहि बड़ राजा॥
हिंदुन्ह केर पतँग कै लेखा । दौरि परहिं अगिनी जहँ देखा॥
कृपा करहु चित बाँधाहु धाीरा । नातरु हमहिं देहु हँसि बीरा॥
पुनि हम जाइ मरहिं ओहि ठाऊँ । मेटि न जाइ लाज सौं नाऊँ॥
दीन्ह साह हँसि बीरा, और तीन दिन बीचु।
तिन्ह सीतल को राखै, जिनहिं अगिनि महँ मीचु?॥14॥
रतनसेन चितउर महँ साजा । आइ बजाइ बैठ सब राजा॥
तोवँर, बैस,पवाँर, सो आए । औ गहलौत आइ सिर नाए॥
पत्ताी औ पँचवान बघेले । अगरपार, चौहान चँदेले॥
गहरवार, परिहार जो कुरे । औ कलहंस जो ठाकुर जुरे॥
आगे ठाढ़ बजावहिं ढाढ़ी । पाछे धाुजा मरन कै काढ़ी॥
बाजहिं सिंगी संख औ तूरा । चंदन खेवरे भरे सेंदूरा॥
सजि संग्राम बाँधा सब साका । छाँड़ा जियन, मरन सब ताका॥
गगन धारति जेइ टेका, तेहि का गरू पहार।
जौ लहि जिउ काया महँ, परै सो ऍंगवै भार॥15॥
गढ़ तस सजा जौ चाहै कोई । बरिस बीस लगि खाँग न होई॥
बाँके चाहि बाँक गढ़ कीन्हा । औ सब कोट चित्रा कै लीन्हा॥
खंड खंड चौखंड सँवारा । धारी बिषम गोलन्ह कै मारा॥
ठाँवहिं ठावँ लीन्ह तिन्ह बाँटी । रहा न बीचु जो सँचरै चाँटी॥
बैठे धाानुक कँगुरन कँगूरा । भूमि न ऑंटी ऍंगुरन ऍंगुरा॥
औ बाँधो गढ़ गज मतवारे । फाटै भूमि होहिं जौ ठारे॥
बिच बिच बुर्ज बने चहुँ फेरी । बाजहिं तबल ढोल औ भेरी॥
भा गढ़ राज सुमेरु जस, सरग छुवै पै चाह।
समुद न लेखे लावै, गंग सहसमुख काह?॥16॥
बादशाह हठि कीन्ह पयाना । इंद्र भँडार डोल भय माना॥
नबे लाख असवार जो चढ़ा । जो देखा सो लोहे मढ़ा॥
बीस सहस घहराहिं निसाना । गलगंजहिं भेरी असमाना॥
बैरख ढाल गगन गा छाई । चला कटक धारती न समाई॥
सहस पाँति गज मत्ता चलावा । धाँसत अकास धाँसत भुइँ आवा॥
बिरिछ उचारि पेड़ि सौं लेहीं । मस्तक झारि डारि मुख देहीं॥
चढ़हिं पहार हिये भय लागू । बनख्रड खोह न देखहिं आगू॥
कोइ काहू न सँभारै, होत आव तस चाँप।
धारति आपु कहँ काँपै, सरग आपु कहँ काँप॥17॥
चलीं कमानैं जिन्ह मुख गोला । आवहिं चली, धारति सब डोला॥
लागै चक्र बज्र के गढ़े । चमकहिं रथ सोने सब मढ़े॥
तिन्ह पर विषम कमानैं धारीं । साँचे अष्टधाातु कै ढरीं॥
सौ सौ मन वै पीयहिं दारू । लागहिं जहाँ सो टूट पहारू॥
माती रहहिं रथन्ह पर परी । सत्राुन्ह महँ ते होहिं उठि खरी॥
जौ लागै संसार न डोलहिं । होइ भुइँकंप जीभ जौ खोलहिं॥
सहस सहस हस्तिन्ह कै पाँती । खींचहिं रथ, डोलहिं नहिं माती॥
नदी नार सब पाटहिं, जहाँ धारहिं वै पाव।
ऊँच खाल बन बीहड़, होत बराबर आव॥18॥
कहौं सिंगार जैसि वै नारी । दारू पियहिं जैसि मतवारी॥
उठै आगि जौछाँड़हिं साँसा । धाुऑं जौ लागै जाइ अकासा॥
सेंदुर आगि सीस उपराहीं । पहिया तरिवन चमकत जाहीं॥
कुच गोला दुइ हिरदय लाए । चंचल धाुजा रहहिं छिटकाए॥
रसना लूक रहहिंमुख खोले । लंका जरै सो उनके बोले॥
अलक जँजीर बहुत गिउ बाँधो । खींचहिं हस्ती, टूटहिं काँधो॥
बीर सिंगार दोउ एक ठाँऊँ । सत्राुसाल गढ़भंजन नाऊँ॥
तिलक पलीता माथे, दसन बज्र के बान।
जेहि हेरहिं तेहि मारहिं, चुरकुस करहिं निदान॥19॥
जेहि जेहि पंथ चली वै आवहिं । तहँ तहँ जरै, आगि जनु लावहिं॥
जरहिं जो परबत लागि अकासा । बनख्रड धिाकहिं परास के पासा॥
गैंड गयंद जरे भए कारे । औ बन मिरिग रोझ झवँकारे॥
कोइल, नाग काग औ भँवरा । और जो जरे तिनहिं को सँवरा॥
जरा समुद्र पानी भा खारा । जमुना साम भई तेहि झारा॥
धाुऑं जाम, ऍंतरिख भए मेघा । गगन साम भा धाुऑं जो ठेघा॥
सूरुज जरा चाँद औ राहू । धारती जरी, लंक भा दाहू॥
धारती सरग एक भा, तबहुँ न आगि बुझाइ।
उठे बज्र जरि डुँगवै, धाूम रहा जग छाइ॥20॥
आवै डोलत सरग पतारा । काँपै धारति न ऍंगवै भारा॥
टूटहिं परबत मेरु पहारा । होइ चकचून उड़हिं तेहि झारा॥
सत ख्रड धारती भइ षटखंडा । ऊपर अष्ट भए बरम्हंडा॥
इंद्र आइ तिन्ह खंडन छावा । चढ़ि सब कटक घोड़ दौरावा॥
जेहि पथ चल ऐरावत हाथी । अबहुँ सो डगर गगन महँ आथी॥
औ जहँ जामि रही वह धूरी । अबहुँ बसै सो हरिचँद पूरी॥
गगन छपान खेह तस छाई । सूरुज छपा, रैनि होइ आई॥
गयउ सिकंदर कजरिबन, तस होइगा ऍंधिायार।
हाथ पसारे न सूझै, बरै लाग मसियार॥21॥
दिनहिं रात अस परी अचाका । भा रबि अस्त, चंद्र रथ हाँका॥
मंदिर जगत दीप परगसे । पंथी चलत बसेरै बसे॥
दिन के पंखि चरत उड़ि भागे । निसि के निसरि चरै सब लागे॥
कँवल सँकेता,कुमुदिनि फूली । चकवा बिछुरा, चकई भूली॥
चला कटक दल ऐस अपूरी । अगिलहि पानी, पछिलहि धाूरी॥
महि उजरी सायर सब सूखा । बनख्रड रहेउ न एकौ रूखा॥
गिरि पहार सब मिलिगे माटी । हस्ति हेराहिं तहाँ होइ चाँटी॥
जिन्ह घर खेह हेराने, हेरत फिरत सो खेह।
अब तो दिस्टि तब आवै, अंजन नैन उरेह॥22॥
एहि विधिा होत पयान सो आवा । आइ साह चितउर नियरावा॥
राजा राव देख सब चढ़ा । आव कटक सब लोहे मढ़ा॥
चहुँ दिसि दिस्टि परा गजजूहा । साम घटा मेघन्ह अस रूहा॥
अधा ऊरधा किछु सूझ न आना । सरगलोक घुम्मरहिं निसाना॥
चढ़ि धाौराहर देखहिं रानी । धानि तुइँ अस जाकर सुलतानी॥
की धानि रतनसेन तुइँ राजा । जा कहँ तुरुक कटक अस साजा॥
बैरख ढाल केरि परछाहीं । रैनि होति आवै दिन माहीं॥
अंधाकूप भा आवै, उड़त आव तस छार।
ताल तलावा पोखर, धाूरि भरी जेवनार॥23॥
राजै कहा करहु जो करना । भयउ असूझ, सूझ अब मरना॥
जहँ लगि राज साज सब होऊ । ततखन भयउ सँजोउ सँजोऊ॥
बाजै तबल अकूत जुझाऊ । चढ़े कोपि सब राजा राऊ॥
करहिं तुखार पवन सौं रीसा । कंधा ऊँच, असवार न दीसा॥
का बरनौं असऊँच तुखारा । दुइ पौरी पहुँचै असवारा॥
बाँधो मोरछाँह सिर सारहिं । भाँजहिं पूछ चँवर जनु ढारहिं॥
सजे सनाहा, पहुँची, टोपा । लोहसार पहिरे सब ओपा॥
तैसे चँवर बनाए, औ घाले गलझंप।
बँधो सेत गजगाह तहँ, जो देखै सो कंप॥24॥
राज तुरंगम बरनौं काहा? । आने छोरि इंद्ररथ बाहा॥
ऐस तुरंगम परहिं न दीठी । धानि असवार रहहिं तिन्ह पीठी!॥
जाति बालका समुद थहाए । सेत पूँछ जनु चँवर बनाए॥
बरन बरन पाखर अतिलोने । जानहुँ चित्रा सँवारे सोने॥
मानिक जड़े सीस औ काँधो । चँवर लाग चौरासी बाँधो॥
लागे रतन पदारथ हीरा । बाहन दीन्ह, दीन्ह तिन्ह बीरा॥
चढ़हिं कुँवर मन करहिं उछाहू । आगे घाल गनहिं नहिं काहू॥
सेंदुर सीस चढ़ाए, चंदन खेवरे देह।
सो तन कहा लुकाइय, अंत होइ जो खेह॥25॥
गज मैमँत बिखरे रजबारा । दीसहिं जनहुँ मेघ अति कारा॥
सेत गयंद पीत औ राते । हरे साम घूमहिं मद माते॥
चमकहिं दरपन लोहे सारी । जनु परबत पर परी ऍंबारी॥
सिरी मेलि पहिराई सूँड़ैं । देखत कटक पायँ तर रूँदैं॥
सोना मेलि कै दंत सँवारे । गिरिवर टरहिं सो उन्हके टारे॥
परबत उलटिभूमि महँ मारहिं । परै जो भीर पत्रा अस झारहिं॥
अस गयंद साजे सिंघली । मोटी कुरुम पीठि कलमली॥
ऊपर कनक मँजूसा, लाग चँवर औ ढार।
भलपति बैठे भाल लेइ, औ बैठे धानुकार॥26॥
असुदल गजदल दूनौ साजे । औ घन तबल जुझाऊ बाजे॥
माथे मुकुट छत्रा सिर साजा । चढ़ा बजाइ इंद्र अस राजा॥
आगे रथ सेना सब ठाढ़ी । पाछे धाुजा मरन कै काढ़ी॥
चढ़ा बजाइ चढ़ा जस इंदू । देवलोक गोहने भए हिंदू॥
जानहु चाँद नखत लेइ चढ़ा । सूर कै कटक रैनि मसि मढ़ा॥
जौ लगि सूर जाइ देखरावा । निकसि चाँद घर बाहर आवा॥
गगन नखत जस गने न जाहीं । निकसि आए तस धारती माहीं॥
देखि अनी राजा कै, जग होइ गयउ असूझ।
दहुँ कस होवै चाहै, चाँद सूर के जूझ॥27॥
(1) दैउ=(दैव)। आकाश में। मँदिर एक कहँ…साजू=घर बचाने भर को मेरे पास भी सामान है। पै=ही। कोपी=कोप करके। सकत=भरसक। दोस=दोष।
(2) राता=लाल। जो तोहि भार…लेना=तेरी जवाबदेही तेरे ऊपर है। डोलू=हलचल। बारा=देर। जेहि=जिसकी।
(3) घरनि=गृहिणी, स्त्राी। जिउ न लेइ=चाहे जी ही न ले ले। हमीरू=रणथंभौर गढ़ का राजा हम्मीर। सकबंधाी=साका चलानेवाला। सैरंधाी=सैरंधा्री, द्रौपदी। राहु=रोहू मछली। जाउ=जावै।
(4) आपु जनाई=अपने को बहुत बड़ा प्रकट करके। छिताई=कोई स्त्राी (?)। सीस न छाँड़ै लागे=धाूल पड़ जाने से सिर न कटा; छोटी सी बात के लिए प्राण न दे। माख=क्रोधा, नाराजगी।
(5) कै नाई=की सी दशा। धारती लोह…ताँबा=उस आग के पहाड़ की धारती लोहे के समान दृढ़ है और उसकी ऑंच से आकाश ताम्रवर्ण हो जाता है। जो पै इसकंदर कीन्ही=जो तुमने सिकंदर की बराबरी की है तो। छर औ डर=छल और भय दिखाने से।
1. पाठांतर-‘खीस के लागे’। खीस=खिसियाहट, रिस।
(6) देव=(क) राजा, (ख) राक्षस। सुलेमाँ=यहूदियों का बादशाह सुलेमान जिसने देवों और परियों को जीतकर वश में कर लिया था। बर खाँवा=क्या हठ दिखाता है। रनथँभउर=रणथंभौर का प्रसिध्द वीर हम्मीर अलाउद्दीन से लड़कर मारा गया था।
(7) दुंद घाव=डंके पर चोट। सकाना=डरा। अरंभ=शोर। बारिगह=बारगाह, दरबार (?)। बारिगह तानी=दरबार बढ़ा (?)। सरवान=झंडा या तंबू (?)। सूता=सोया हुआ। दर=दल, सेना। बेसरा=खच्चर। पलानै लीन्ह=घोड़े कसे। सरह=शलभ, टिव्ी।
(8) कनकानी=एक प्रकार के घोड़े जो गदहे से कुछ ही बड़े और बड़े कदमबाज होते हैं। कुमइत=कुम्मैत। खिंग=सफेद घोड़ा जिसके मुँह पर का पट्टा और चारों सुम गुलाबीपन लिये हों। कुरंग=कुलंग। लखी=लाखी। सिराजी=शीराज के। चौधार=सरपट या पोइयाँ चाल। किरमिज=किरमिजी रंग के। तुरास=बेग।
1. पाठांतर=’पैगह’।
(9) लोहसार=फौलाद। ऍंधिायारे=काले। हिरकी=लगी, सटी। तिन्ह=उनकी। हस्ती=दिग्गज। तर कहँ=नीचे को। उठै तहँ पागी=गङ्ढा हो जाता है और नीचे से पानी निकल पड़ता है।
(10) बाने=वेश, सजावट। हरेऊ=हरेव, ‘हरउअती’ (सं. सरस्वती, प्राचीन पारसी=हरह्नैती) या अरगंदाब नदी के आसपास का प्रदेश जो हिंदूकुश के दक्षिण-पश्चिम पड़ता है। गौर=गौड़, बंग देश की राजधाानी। शाम=अरब के उत्तार शाम का मुल्क। कामता, पिंडवा=कोई प्रदेश। मगर=अराकान जहाँ मग नाम की जाति रहती है।
1. पाठांतर=’तुफंगी’।
(11) जँबूर=जंबूर, एक प्रकार की तोप जो ऊँटों पर चलती थी। कमान=तोप। खदंगी=खदंग, बाण। जीभा=जीभ। लेजिम=एक प्रकार की कमान जिसमें डोरी के स्थान पर लोहे का सीकड़ लगा रहता है और जिससे एक प्रकार की कसरत करते हैं। एराकिन्ह=एराक देश के घोड़ों पर। पाखर=लड़ाई की झूल। सार=लोहा। बेहर-बेहर=अलग-अलग।
(12) माँड़ी लेइ=माँड़ौगढ़ से लेकर। मथानी परी=हलचल मचा। ऍंधिायार=ऍंधिायार और खटोला, दक्षिण के दो स्थान। पात=पत्ताा। बोलि=चढ़ाई बोलकर। छात=छत्रा।
(13) जैस सुमेरै=जैसे सुमेरु ही हैं। दर=दल। पाती=पत्राी, चिट्ठी। मेड़=बाँधा। काँधाा=ऊपर लिया। नाहिं त सत…छँड़ाई=नहीं तो हमारा सत्य (प्रतिज्ञा) कौन छुड़ा सकता है अर्थात् मैं अकेले ही अड़ा रहूँगा। टूटे=बाँधा टूटने पर। बारि=बारी, बगीचा।
(14) राय=राजा। परेवा=चिड़िया, यहाँ दूत। जौहर=लड़ाई के समय की चिता जो गढ़ में उस समय तैयार की जाती थी जब राजपूत बड़े भारी शत्राु से लड़ने निकलते थे और जिसमें हार का समाचार पाते ही सब स्त्रिायाँ कूद पड़ती थीं। पतँग कै लेखा=पतंगों का सा हाल है। बीरा देहु=बिदा करो कि हम वहाँ जाकर राजा की ओर से लड़ें।
(15) कुरे=कुल। ढाढ़ी=बाजा बजानेवाली एक जाति। खेबे=खौर लगाए हुए। ऍंगवै=ऊपर लेता है, सहता है।
(16) तस=ऐसा। खाँग=सामान की कमी। बाँके चाहि बाँक=विकट से विकट। मारा=माला, समूह बीचु=अंतर, खाली जगह। सँचरै=चले। चाँटी=चींटी। ठारे=ठाढ़े, खड़े। सहसमुख=सहò धाारावाली।
(17) इंद्रभँडार=इंद्रलोक। बैरख=बैरक, झंडे। पेड़ि=पेड़ी, तना। आगु=आगे। चाँप=रेलपेल, धाक्का।
(18) कमानैं=तोपें। चक्र=पहिए। दारू=(क) बारूद, (ख) शराब। माती=मतवाली (‘दारू’ शब्द का प्रयोग कर चुके हैं इसलिए)। बराबर=समतल।
(19) कहौं सिंगार…मतवारी=इन पद्यों में तोपों को स्त्राी के रूपक में दिखाया है। तरिवन=ताटंक नाम का कान का गहना। टूटहिं काँधो=हाथियों के कंधो टूट जाते हैं। बीर सिंगार=वीररस और शृंगाररस। बान=गोले। हेरहिं=ताकती हैं। चुरकुस=चकनाचूर।
(20) धिाकहिं=तपते हैं। पारस के बनखंड=पलास के लाल फूल जो दिखाई देते हैं वे मानो वन के तपेहुए अंश हैं। गैंड=गैंडा। रोझ=नीलगाय। झ्रवकारे=झाँवरे। ठेघा=ठहरा, रुका। डुँगवै=डूँगर, पहाड़।उठेबज्रजरि…छाइ=इस वज्र से (जैसे कि इंद्र के वज्र से) पहाड़ जल उठे।
(21) चकचून=चकनाचूर।सतख्रड…षटखंडा=पृथ्वी पर की इतनी धाूल ऊपर उड़कर जा जमी कि पृथ्वीके सात खंड या स्तरके स्थान पर छह ही खंड रह गए और ऊपर के लोकों के सात स्थान पर आठखंड हो गए। जेहि पथ…आथी=ऊपर जो लोक बन गए उनपर इंद्र ऐरावत हाथी लेकर चले जिसके चलने का मार्ग ही आकाशगंगा है। आथी=है। हरिचँद पूरी=वह लोक जिसमें हरिश्चंद्र गए। मसियार=मशाल।
(22) अचाका=अचानक, एकाएक। सँकेता=संकुचित हुआ। अपूरी=भरा हुआ। अगिलहि पानी…धाूरी=अगली सेना को तो पानी मिलता है पर पिछली को धाूल ही मिलती है। उजरी=उजड़ी। जिन्ह घर खेह…खेह=जिनके घर धाूल में खो गए हैं अर्थात् संसार के माया-मोह में जिन्हें परलोक नहीं दिखाई पड़ता है। उरेह=लगाए।
(23) रूहा=चढ़ा। सुलतानी=बादशाहत। की धानि…राजा=या तो राजा या तू धान्य है। बैरख=झंडा। परछाहीं=परछाईं से। जेवनार=लोगों की रसोई में।
(24) सँजोऊ=तैयारी। अकूत=एकाएक, सहसा अथवा बहुत से। जुझाऊ=युध्द के। तुखार=घोड़ा। रीसार्=ईष्या, बराबरी। पौरी=सीढ़ी के डंडे। मोरछाँह=मोरछल। सनाहा=बकतर। पहुँची=बचाने का आवरण। ओपा=चमकते हैं। गलझंप=गले की झूल (लोहे की)। गजगाह=हाथी की झूल।
(25) इंद्ररथ बाहा=इंद्र का रथ खींचनेवाले। बालका=टाँगन घोड़े। पाखर=झूल। चौरासी=घुँघुरुओं का गुच्छा। बाहन दीन्ह…बीरा=जिनको सवारी के लिए वे घोड़े दिए उन्हें लड़ाई का बीड़ा भी दिया। घाल गनहिं नहिं=कुछ नहीं समझते। सेंदुर=यहाँ रोली समझना चाहिए। खेवरे=खौरे, खौर लगाए हुए।
(26) रजबारा=राजद्वार। दरपन=चार आईन:, बकतर। लोहे सारी=लोहे की बनी। ऍंबारी=मंडपदार हौदा। सिरी=माथे का गहना। रूँदैं=रौंदते हैं। कलमली=खलबलाई। मँजूसा=हौदा। ढार=ढाल। भलपति=भाला चलानेवाले। धानुकार=धानुष चलानेवाले।
(27) असुदल=अश्वदल। देवलोक…इंद्र=जैसे इंद्र के साथ देवता चलते हैं वैसे ही राजा रत्नसेन के साथ हिंदू लोग चले। सूर क कटक=बादशाह की फौज। रैनि मसि=रात की ऍंधोरी। चाँद=राजा रत्नसेन। नखत=राजा की सेना। अनी=सेना। होवै चाहै=हुआ चाहता है।
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इहाँ राज अस सेन बनाई । उहाँ साह कै भई अवाई॥
अगिले दौरे आगे आए । पहिले पाछ कोस दस छाए॥
साह आइ चितउरगढ़ बाजा । हस्ती सहस बीस सँग साजा॥
ओनइ आए दूनौ दल साजे । हिन्दू तुरक दुवौ रन गाजे॥
दुवौ समुद दधिा उदधिा अपारा । दूनौ मरु खिखिंद पहारा॥
कोपि जुझार दुवौ दिसि मेले । औ हस्ती हस्ती सहुँ पेले॥
ऑंकुस चमकि बीजु अस बाजहिं । गरजहिं हस्ति मेघ जनु गाजहिं॥
धारती सरग एक भा, जूहहि ऊपर जूह।
कोई टरै न टारे, दूनौ बज्र समूह॥1॥
हस्ती सहुँ हस्ती हठि गाजहिं । जनु परबत सौं परबत बाजहिं॥
गरू गयंद न टारे टरहीं । टूटहिं दाँत, माथ गिरि परहीं॥
परबत आइ जो परहिं तराहीं । दर महँ चाँपि खेह मिलि जाहीं॥
कोई हस्ती असवारहि लेहीं । सूँड़ समेटि पायँ तर देहीं।
कोइ असवार सिंघ होइ मारहिं । हनि के मस्तक सूँड़ उपारहिं॥
गरब गयंदन्ह गगन पसीजा । रुहिर चुवै धारती सब भीजा॥
कोइ मैमंत सँभारहिं नाहीं । तब जानहिं जब गुद सिर जाहीं॥
गगन रुहिर जस बरसै, धारती बहै मिलाइ।
सिर धार टूटि बिलाहिं तस, पानी पंक बिलाइ॥2॥
आठौं बज्र जूझ जस सुना । तेहि तें अधिाक भएउ चौगुना॥
बाजहिं खड़ग उठै दर आगी । भुइँ जरि चहै सरग कहँ लागी॥
चमकहिं बीजु होइ उजियारा । जेहि सिर परै होइ दुइ फारा॥
मेघ जो हस्ति हस्ति सहुँ गाजहिं । बीजु जो खड़ग खड़ग सौंबाजहिं॥
बरसहिं सेल बान होइ काँदो । जस बरसै सावन औ भादों॥
झपटहिं कोपि, परहिं तरवारी । औ गोला ओला जस भारी॥
जूझे बीर कहौं कहँ ताईं । लेइ अछरी कैलास सिधााईं॥
स्वामि काज जो जूझे, सोइ गए मुख रात।
जो भागे सत छाँड़ि कै, मसि मुख चढ़ी परात॥3॥
भा संग्राम न भा अस काऊ । लोहे दुहुँ दिसि भए अगाऊ॥
ससि कंधा कटि कटि भुइँ परे । रुहिर सलिल होइ सायर भरे॥
अनँद बधााव करहिं मसखावा । अब भख जनम जनम कहँ पावा॥
चौंसठ जोगिनि खप्पर पूरा । बिग जंबुक घर बाजहिं तूरा॥
गिध्द चील सब माँड़ों छावहिं । काग कलोल करहिं औ गावहिं॥
आजु साह हठि अनी बियाही । पाई भुगुति जैसि चित्ता चाही॥
जेइँ जस माँसू भखा परावा । तस तेहि कर लेइ औरन्ह खावा?
काहू साथ न तन गा, सकति मुए सब पोखि।
ओछ पूर तेहि जानब, जो थिर आवत जोखि॥4॥
चाँद न टरै सूर सौं कोपा । दूसर छत्रा सौंह कै रोपा॥
सुना साह अस भएउ समूहा । पेले सब हस्तिन के जूहा॥
आजु चाँद तोर करौं निपातू । रहै न जग महँ दूसर छातू॥
सहस करा होइ किरिन पसारा । छेंका चाँद जहाँ लगि तारा॥
दर लोहा दरपन भा आवा । घट घट जानहु भानु देखावा॥
अस क्रोधिातकुठार लेइ धााए । अगिनि पहार जरत जनु आए॥
खड़ग बीजु सब तुरुक उठाए । ओड़न चाँद काल कर पाए॥
जगमग अनी देखि कै, धााइ दिस्टि तेहि लागि।
छुए होइ जो लोहा, माँझ आव तेहि आगि॥5॥
सूरुज देखि चाँद मन लाजा । बिगसा कँवल1 कुमुद भा राजा॥
भलेहि चाँद बड़ होइ निसि पाई । दिन दिनअर सहुँ कौन बड़ाई॥
अहे जो नखत चंद सँग तपे । सूर के दिस्टि गगन महँ छपे॥
कै चिंता राजा मन बूझा । जो होइ सरग न धारती जूझा॥
गढ़पति उतरि लड़ै नहिंधााए । हाथ परै गढ़ हाथ पराए॥
गढ़पति इंद्र गगन गढ़ गाजा । दिवस न निसर रैनि कर राजा॥
चंद रैनि रह नखतन्ह माँझा । सुरुज के सौंह न होइ चहँ साँझा॥
देखा चंद भोर भा, सूरुज के बड़ भाग।
चाँद फिरा भा गढ़पति, सूर गगन गढ़ लाग॥6॥
कठक असूझ अलाउदिं साही । आवत कोइ न सँभारैं ताही॥
उदधिा समुद्र जस लहरैं देखी । नयन देख मुख जाइ न लेखी॥
केते तजा चितउर कै घाटी । केते बजावत मिलि गए माटी॥
केतेन्ह नितहिं देह नव साजा । कबहुँ न साज घटै तस राजा॥
लाख जाहिं आवहिं दुइ लाखा । फरै झरै उपनै नव साखा॥
जो आवै गढ़ लागै सोई । थिर होइ रहै न पावै कोई॥
उमरा मीर रहे जहँ ताईं । सबहीं बाँटि अलँगैं पाईं॥
लाग कटक चारिहु दिसि, गढ़हि परा अगिदाहु।
सुरुज गहन भा चाहै, चाँदहिं भा जस राहु॥7॥
अथवा दिवस, सूर भा बासा । परी रैनि, ससि उवा अकासा॥
चाँद छत्रा देइ बैठा आई । चहुँ दिसि नखत दीन्ह छिटकाई॥
नखत अकासहि चढ़े दिपाहीं । टुटि टुटि लूक परहिं, न बुझाहीं॥
परहिं सिला जस परै बजागी । पाहन पाहन सौं उठ आगी॥
गोला परहिं कोल्हुढरकाहीं । चूर करत चारिउ दिसि जाहीं॥
ओनई घटा बरसि झरि लाई । आला टपकहिं, परहि बिछाई॥
तुरुक न मुख फेरहिं गढ़ लागे । एक मरै, दूसर होइ आगे॥
परहिं बान राजा के, सकै को सनमुख काढ़ि।
ओनई सेन साह कै, रही भोर लगि ठाढ़ि॥8॥
भएउ बिहानु, भानु पुनि चढ़ा । सहसहु करा दिवस बिधिा गढ़ा॥
भा धाावा गढ़ कीन्ह गरेरा । कोपा कटक लाग चहुँ फेरा॥
बान करोर एकमुख छूटहिं । बाजहिं जहाँ फोंक लहि फूटहिं॥
नखत गगन जिस देखहिं घने । तस गढ़ कोटन्ह बानन्ह हने॥
बान बेधिा साही कै राखा । गढ़ भा गरुड़ फुलावा पाँखा॥
ओहि रँग केरि कठिन है बाता । तौ पै कहै होइ मुख राता॥
पीठि न देहिं घाव के लागे । पैग पैग भुइँ चाँपहिं आगे॥
चारि पहर दिन जूझ भा, गढ़ न टूट तस बाँक।
गरुअ होत पै आवै, दिन दिन नाकहि नाक॥9॥
छेंका कोट जोर अस कीन्हा । घुसि कै सरग सुरँग तिन्ह दीन्हा॥
गरगज बाँधिा कमानैं धारीं । बज्र आगि मुख दारू भरी॥
हबसी, रूमी और फिरंगी । बड़ बड़ गुनी और तिन्ह संगी॥
जिन्हके गोट कोट पर जाहीं । जेहि ताकहिं चूकहिं तेहि नाहीं॥
अस्ट धाातु के गोला छूटहिं । गिरहिं पहार चून होइ फूटहिं॥
एक बार बसछूटहिं गोला । गरजै गगन, धारति सब डोला॥
फूटहिं कोटफूट जनु सीसा । औदरहिं बुरुज जाहिं सब पीसा॥
लंका रावट जस भई, दाह परी गढ़ सोइ।
रावन लिखा जरै कहँ, कहहु अजर किमि होइ॥10॥
राजगीर लागे गढ़ थवई । फूटै जहाँ सँवारहिं सबई॥
बाँके पर सुठि बाँक करेहीं । रातिहि कोट चित्रा कै लेहीं॥
गाजहिं गगन चढ़ा जस मेघा । बरिसहिं बज्र, सीस को ठेघा?॥
सौ सौ मन के बरसहिं गोला । बरसहिं तुपक तीर जस ओला॥
जानहुँ परहिं सरग हुत गाजा । फाटै धारति आइ जहँ बाजा॥
गरगज चूर चूर होइ परहीं । हस्ति घोर मानुष संघरहीं॥
सबै कहा अब परलै आई । धारती सरग जूझ जनु लाई॥
आठौ बज्र जुरे सब, एक डुंगवै लागि।
जगत जरै चारिउ दिसि, कँसेहु बुझै न आगि॥11॥
तबहूँ राजा हिये न हारा । राज पौरि पर रचा अखारा॥
सोह साह कै बैठक जहाँ । समुहें नाच करावै तहाँ॥
जंत्रा पखाउज औ जत बाजा । सुर मादर रबाब भल साजा॥
बीना बेनु कमाइच गहे । बाजे अमृत तहँ गहगहे॥
चंग उपंग नाद सुर तूरा । महुअर बँसि बाज भरपूरा॥
हुड़ुक बाज डफ बाजगँभीरा । औ बाजहिं बहु झाँझ मजीरा॥
तंत बितंत सुभर घनतारा । बाजहिं सबद होइ झनकारा॥
जग सिंगार मनमोहन, पातुर नाचहिं पाँच।
बादसाह गढ़ छेंका, राजा भूला नाच॥12॥
बीजानगर केर सब गुनी । करहिं अलाप जैस नहिं सुनी॥
छबौ राग गाए सँग तारा । सगरी कटक सुनै झनकारा॥
प्रथम राग भैरव तिन्ह कीन्हा । दूसर मालकोस पुनि लीन्हा॥
पुनि हिंडोल राग भल गाए । मेघ मलार मेघ बरिसाए॥
पाँचवँ सिरी राग भल किया । छठवाँ दीपक बरि उठ दिया॥
ऊपर भए सो पातुर नाचहिं । तर भए तुरुक कमानैं खाँचहिं॥
गढ़ माथे होइ उमरा झुमरा । तर भए देख मीर औ उमरा॥
सुनि सुनि सीस धाुनहिं सब, कर मलि मलि पछिताहिं।
कब हम माथ चढ़हिं ओहि, नैनन्ह कै दुख जाहिं॥13॥
छवौ राग गावहिंपातुरनी । औ पुनि छत्ताीसौ रागिनी॥
औ कल्यान कान्हराहोई । राग बिहाग केदारा सोई॥
परभाती होइ उठै बँगाला । आसावरी राग गुनमाला॥
धानासिरी औ सूहा कीन्हा । भएउ बिलावल, मारू लीन्हा॥
रामकली, नट, गौरी गाई । धाुनि खंमाच सो राग सुनाई॥
साम गूजरीपुनि भल भाई । सारँग औ बिभास मुँह आई॥
पुरबी, सिंधाी, देस, बरारी । टोड़ी, गौड़ सौं भई निरारी॥
सबै राग औ रागिनी, सुरै अलापहिं ऊँच।
तहाँ तीर कहँ पहुँचै, दिस्टि जहाँ न पहूँच?॥14॥
जहँवाँ सौंह साहकै दीठी । पातुरि फिरत दीन्ह तहँ पीठी॥
देखत साह सिंहासनगूँजा । कब लगि मिरिच चाँद तोहि भूजा1॥
छाँड़हिं बान जाहिंउपराहीं । का तैं गरब करसि इतराहीं?॥
बोलत बान लाख भए ऊँचे । कोइ कोट, कोइ पौरि पहूँचे॥
जहाँगीर कनउज करनाजा । ओहि क बान पातुरि के लागा॥
बाजा बान, जाँघ तस नाचा । जिउ गा सरग, परा भुइँ साँचा॥
उड़सा नाच, नचनियामारा । रहसे तुरुक बजाइ कै तारा॥
जो गढ़ साजै लाख दस, कोटि उठावै कोट।
बादशाह जब चाहै छपै, न कौनिउ ओट॥15॥
राजै पौरि अकास चढ़ाई । परा बाँधा चहुँ फेर लगाई॥
सेतुबंधा जस राघव बाँधाा । परा फेर, भुइँ भार न काँधाा॥
हनुवँत होइ सब लाग गोहारू । चहुँ दिसि ढाइ ढोइ कीन्ह पहारू॥
सेत फटिक अस लागै गढ़ा । बाँधा उठाइ चहूँ गढ़ मढ़ा॥
ख्रड ख्रड ऊपर होइ पटाऊ । चित्रा अनेक, अनेक कटाऊ॥
सीढ़ी होति जाहिं बहु भाँती । जहाँ चढ़ै हस्तिन कै पाँती॥
भा गरगज कस कहत न आवा । जनहुँ उठाइ गगन लेइ आवा॥
राहु लाग जस चाँदहि, तस गढ़ लागा बाँधा।
सरब आगि अस बरि रहा, ठाँव जाइ को काँधा?॥16॥
राजसभा सब मतै बईठी । देखि न जाइ, मूँदि गई दीठी॥
उठा बाँधा, चहुँ दिसि गढ़ बाँधाा । कीजै बेगि भार जस काँधाा॥
उपजै आगि आगि जस बोई । अब मत कोइ आन नहिं होई॥
भा तेवहार जौचाँचरि जोरी । खेलि फाग अब लाइय होरी॥
सम द फागमेलिय सिर धाूरी । कीन्ह जो साका चाहिय पूरी॥
चंदन अगर मलयगिरि काढ़ा । घर घर कीन्ह सरा रचि ठाढ़ा॥
जौहर कहँ साजा रनिवासू । जिन्ह सत हिये कहाँ तिन्हँ ऑंसू॥
पुरुषन्ह खड़ग सँभारै, चंदन खेवरे देह।
मेहरिन्ह सेंदुर मेला, चहहिं भई जरि खेइ॥17॥
आठ बरिस गढ़ छेंकारहा । धानि सुलतान कि राजा महा॥
आइ साह ऍंबराव जोलाए । फरे झरे पै गढ़ नहिं पाए॥
जौ तोरौं तौ जौहर होई । पदमावति हाथ चढ़ै नहिं सोई॥
एहि बिधिा ढील दीन्ह, तब ताईं । दिल्ली तैं अरदासैं आईं॥
पछिउँ हरेव दीन्हि जोपीठी । सो अब चढ़ा सौंह कै दीठी॥
जिन्ह भुइँ माथ गगन तेइ लागा । थाने उठे, आव सब भागा॥
उहाँ साह चितउर गढ़ छावा । इहाँ देस अब होइ परावा॥
जिन्ह जिन्ह पंथ न तृन परत बाढ़े बेर बबूर।
निसि ऍंधिायारी जाइ तब, बेगि उठै जौ सूर॥18॥
(1) बाजा=पहुँचा। गाजे=गरजे। दधिा=दधिासमुद्र। उदधिा=पानी का समुद्र। खिखिंद=किष्ंकिधाा पर्वत। सहुँ=सामने। पेले=जोर से चलाए। जूह=यूथ, दल।
(2) तराहीं=नीचे। दर=दल। चाँपि=दबकर। गरब=मदजल। गुद=सिर का गूदा। मिलाइ=धाूल मिलाकर।
(3) आठौं बज्र=आठों वज्रों का (?) दर=दल में। फारा=फाल, टुकड़ा। । काँदो=कीचड़। मुख रात=लाल मुख लेकर, सुर्खरू होकर। मसि=कालिमा, स्याही। परात=भागते हुए।
(4) काऊ=कभी। लोहे=हथियार। अगाऊ=आगे, सामने। तूरा=तुरही। माँड़ो=मंडप। अनी=सेना। सकति=शक्ति भर, भरसक। पोखि=पोषण करके। ओछ=ओछा, नीच। पूर=पूरा। जोखि आवत=विचारता आता है। जो थिर आवत जोखि=जो ऐसे शरीर को स्थिर समझता आता है।
(5) चाँद=राजा। सूर=बादशाह। समूहा=शत्राु सेना की भीड़। छातू=छत्रा। दर लोहा=सेना के चमकते हुए हथियार। ओड़न=ढाल, रोकने की वस्तु। ओड़न चाँद…पाए=चंद्रमा के बचाव के लिए समयविशेष (रात्रिा) मिला जब कि सूर्य सामने नहीं आता। जगमग=झलमलाती हुई। जगमग लागि=राजा ने गढ़ पर से बादशाह की चमकती हुई सेना को देखा। छुए…आगि=यदि लोहा सूर्य के सामने होने से तपता जाता है तो जो उसे छुए रहता है उसके शरीर में भी गरमी आ जाती है अर्थात् सूर्य के समान शाह की सेना का प्रकाश देख शस्त्राधाारी राजा को जोश चढ़ आया।
(6) कँवल=बादशाह। कुमुद=कुमद समान संकुचित। दिन…बड़ाई=दिन में सूर्य के सामने उसकी क्या बड़ाई है? तपे=प्रतापयुक्त थे। जो होइ सरग…जूझा=जो स्वर्ग (ऊँचे गढ़) पर हो वह नीचे उतरकर युध्द नहीं करता। हाथ परै गढ़=लूट हो लाय गढ़ में (मुहा.)। भा गढ़पति=किले में हो गया अर्थात् सूर्य के सामने नहीं आया।
(7) उदधिा समुद=पानी का समुद्र। केतेन्ह…साजा=न जाने कितनों को (जो नए भरती होते जाते हैं) नए-नए सामान देता है। तस राजा=ऐसा बड़ा राजा वह अलाउद्दीन है। अलंगैं=बाजू, सेना का एक-एक पक्ष। अगिदाहु=अग्निदाह। सुरुज गहन…राहु=सूर्य (बादशाह) चंद्रमा (राजा) के लिए ग्रहण रूप हुआ चाहता है, वह चंद्रमा (राजा के लिए राहु रूप हो गया है।
1. पाठांतर-‘कवँल’।
(8) भा बासा=अपने डेरे में टिकान हुआ। नखत=राजा के सामंत और सैनिक। लूक=अग्नि के समान बाण। उठ=उठती है। कोल्हु=कोल्हू। ढरकाहीं=लुढ़काए जाते हैं। सकै को…काढ़ि=उन बाणों के सामने सेना को कौन आगे निकाल सकता है?
(9) गरेरा=घेरा। एक मुख=एक ओर। बाजहिं=पड़तेहैं। फोंक=तीर का पिछला छोर जिसमें पर लगे रहते हैं। बाजहिं जहाँ… फूटहिं=जहाँ पड़ते हैं पिछले छोर तक फट जाते हैं, ऐसे जोर से वे चलाए जाते हैं। रँग=रणरंग। नाक=नाका, मुख्य स्थान।
(10) सुरँग=सुरंग, जमीन के नीचे खोदकर बनाया हुआ मार्ग (यह शब्द महाभारत में आया है और यूनानी ‘सिरिंगस’ से बना हुआ अनुमान किया गया है। श्री चिंतामणि वैद्य के अनुसार ‘भारत’ को ‘महाभारत’ के नाम से परिवधर्िात रूप सिकंदर के आने पर दिया गया है)। गरगज=परकोटे का वह बुर्ज जिसपर तोप चढ़ाई जाती है। कमानैं=तोपें। दारू=बारूद। फिरंगी=पुर्तगाली (फारस में यह शब्द रोम से आया जहाँ ‘धार्मयुध्द’ के समय योरप से आए हुए ‘फ्रांक’ लोगों के लिए पहले पहल व्यवहृत हुआ। फारस से यह शब्द हिंदुस्तान में आया और सबसे पहले आए पुर्तगालियों के लिए प्रयुक्त हुआ)। गोट=गोले। ओदरहिं=ढह जाते हैं। रावट=महल। अजर=जो न जले।
(11) थवई=मकान बनानेवाले (सं. स्थापित)। चित्रा=ठीक, दुरुस्त। तुपक=बंदूक। बाजा=पड़ते हैं। धारती सरग=आकाश और पृथ्वी के बीच। डुंगवा=टीला।
(12) समुहें=सामने। मादर=मर्दल, एक प्रकार का ढोल? रबाब=एक बाजा। कमाइच=(फा. कमानचा) सारंगी बजाने की कमान। उपंग=एक बाजा। तूरा=तूर, तुरही। महुअर=सूखी तुमड़ी का बना बाजा जिसे प्राय: सँपेरे बजाते हैं। हुड़ुक=डमरू की तरह का बाजा जिसे प्राय: कहार बजाते हैं। तंत=तंत्राी। घनतार=बड़ा झाँझ।
(13) ऊपर भए, तर भए=ऊपर से, नीचे से (पंचमी विभक्ति के स्थान पर ‘भए’ का प्रयोग अब तक पूरबी हिंदी में होता है)। गढ़ माथे=किले के सिरे पर। उमरा झुमरा=झूमर, नाच।
(14) पहुँच=पहुँचती है।
(15) फिरत=फिरते हुए। सिंघासन=सिंहासन पर। गूँजा=गरजा। मिरिग=मृग अर्थात् मृगनयनी। भूजा=भोग करेगा। भए ऊँचे=ऊपर की ओर चलाए गए। साँचा=शरीर। उड़सा=भंग हो गया। तारा=ताल, ताली।
(16) अकास चढ़ाई=और ऊँचे पर बनवाई। चहुँ फेर लगाई=चारों ओर लगाकर। मढ़ा=घेरा। पटाऊ=पटाव। गनेन लेइ=आकाश तक। ठाँव…काँधा=उस जगह जाने का भार कौन ऊपर ले सकता है?
1. पाठांतर-‘देखै चाँद, सूर भा भूजा’ अर्थात् चंद्रमा तो नाच देखे और सूर्य भुजवा हो गया कि उसकी ओर पीठ फेरी जाय।
(17) मतै=सलाह करने के लिए। कीजै बेगि…काँधाा=जैसा भारी युध्द आपने लिया है उसी के अनुसार कीजिए यही सलाह सबने दी। समदि=एक दूसरे से अंतिम बिदा लेकर। साका कीन्ह=कीर्ति स्थापित की है। चाहिय पूरी=पूरी होनी चाहिए। सरा=चिता। जौहर=गढ़ घिर जाने पर जब राजपूत गढ़ की रक्षा नहीं देखते थे तब स्त्रिायाँ शत्राु के हाथ में न पड़ने पाएँ इसके लिए पहले से ही चिता तैयार रखते थे। (जब गढ़ से निकलकर पुरुष लड़ाई में काम आ जाते थे तब स्त्रिायाँ चट चिता में कूद पड़ती थीं। यही जौहर कहलाता था)। खेवरे=खौर लगाई। मेहरिन्ह=स्त्रिायों ने। खेह=राख।
(18) आइ साह ऍंबराव…पाए=बादशाह ने आकर जो आम के पेड़ लगाए वे बड़े हुए, फलकर झड़ भी गए पर गढ़ नहीं टूटा। जो तोरौं=बादशाह कहता है कि यदि गढ़ को तोड़ता हूँ तो। अरदासैं=अर्जदाश्त, प्रार्थनापत्रा। हरेव=हेरात प्रदेश का पुराना नाम। थाने उठे=बादशाह की जो स्थान-स्थान पर चौकियाँ थीं वे उठ गईं। जिन्ह…बबूर=जिन जिन रास्तों में घास भी उगकर बाधाक नहीं हो सकती थी उनमें अब बादशाह के न रहने से बेर और बबूल उग आए हैं।
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