कहानी – डिमॉन्सट्रेशन – (लेखक – मुंशी प्रेमचंद)
महाशय गुरुप्रसादजी रसिक जीव हैं, गाने-बजाने का शौक है, खाने-खिलाने का शौक है और सैर-तमाशे का शौक है; पर उसी मात्र में द्रव्योपार्जन का शौक नहीं है। यों वह किसी के मुँहताज नहीं हैं, भले आदमियों की तरह हैं और हैं भी भले आदमी; मगर किसी काम में चिमट नहीं सकते। गुड़ होकर भी उनमें लस नहीं है। वह कोई ऐसा काम उठाना चाहते हैं, जिसमें चटपट कारूँ का खजाना मिल जाय और हमेशा के लिए बेफिक्र हो जायँ। बैंक से छमाही सूद चला आये, खायें और मजे से पड़े रहें। किसी ने सलाह दी नाटक-कम्पनी खोलो। उनके दिल में भी बात जम गई। मित्रों को लिखा मैं ड्रामेटिक कंपनी खोलने जा रहा हूँ, आप लोग ड्रामे लिखना शुरू कीजिए। कंपनी का प्रासपेक्टस बना, कई महीने उसकी खूब चर्चा रही, कई बड़े-बड़े आदमियों ने हिस्से खरीदने के वादे किये। लेकिन न हिस्से बिके, न कंपनी खड़ी हुई। हाँ, इसी धुन में गुरुप्रसादजी ने एक नाटक की रचना कर डाली और यह फिक्र हुई कि इसे किसी कंपनी को दिया जाय।
लेकिन यह तो मालूम ही था, कि कंपनीवाले एक ही घाघ होते हैं। फिर हरेक कंपनी में उसका एक नाटककार भी होता है। वह कब चाहेगा कि उसकी कंपनी में किसी बाहरी आदमी का प्रवेश हो। वह इस रचना में तरह-तरह के ऐब निकालेगा और कंपनी के मालिक को भड़का देगा। इसलिए प्रबन्ध किया गया, कि मालिकों पर नाटक का कुछ ऐसा प्रभाव जमा दिया जाय कि नाटककार महोदय की कुछ दाल न गल सके। पाँच सज्जनों की एक कमेटी बनाई गई, उसमें सारा प्रोग्राम विस्तार के साथ तय किया गया और दूसरे दिन पाँच सज्जन गुरुप्रसादजी के साथ नाटक दिखाने चले। तांगे आ गये। हारमोनियम, तबला आदि सब उस पर रख दिये गये; क्योंकि नाटक का डिमॉन्सट्रेशन करना निश्चित हुआ था। सहसा विनोदबिहारी ने कहा, ‘यार, तांगे पर जाने में तो कुछ बदरोबी होगी। मालिक सोचेगा, यह महाशय यों ही हैं। इस समय दस-पाँच रुपये का मुँह न देखना चाहिए। मैं तो अंग्रेजों की विज्ञापनबाजी का कायल हूँ कि रुपये में पंद्रह आने उसमें लगाकर शेष एक आने में रोजगार करते हैं। कहीं से दो मोटरें मँगानी चाहिए।
रसिकलाल बोले, ‘लेकिन किराये की मोटरों से वह बात न पैदा होगी, जो आप चाहते हैं। किसी रईस से दो मोटरें माँगनी चाहिए, मारिस हो या नये चाल की आस्टिन।’
बात सच्ची थी। भेष से भीख मिलती है। विचार होने लगा कि किस रईस से याचना की जाय। अजी, वह महा खूसट है। सबेरे उसका नाम ले लो तो दिन भर पानी न मिले। अच्छा सेठजी के पास चलें तो कैसा ? मुँह धो रखिए, उसकी मोटरें अफसरों के लिए रिजर्व हैं, अपने लड़के तक को कभी बैठने नहीं देता, आपको दिये देता है। तो फिर कपूर साहब के पास चलें। अभी उन्होंने नई मोटर ली है। अजी, उसका नाम न लो। कोई-न-कोई बहाना करेगा, ड्राइवर नहीं है, मरम्मत में है।
गुरुप्रसाद ने अधीर होकर कहा, ‘तुम लोगों ने तो व्यर्थ का बखेड़ा कर दिया। तांगों पर चलने में क्या हरज था ?’
विनोदबिहारी ने कहा, ‘आप तो घास खा गये हैं। नाटक लिख लेना दूसरी बात है और मुआमले को पटाना दूसरी बात है। रुपये पृष्ठ सुना देगा, अपना-सा मुँह लेकर रह जाओगे।’
अमरनाथ ने कहा, ‘मैं तो समझता हूँ, मोटर के लिए किसी राजा-रईस की खुशामद करना बेकार है। तारीफ तो जब है कि पाँव-पाँव चलें और वहाँ ऐसा-ऐसा रंग जमायें कि मोटर से भी ज्यादा शान रहे।’
विनोदबिहारी उछल पड़े। सब लोग पाँव-पाँव चलें। वहाँ पहुँचकर किस तरह बातें शुरू होंगी, किस तरह तारीफों के पुल बाँधो जाएंगे, किस तरह ड्रामेटिस्ट साहब को खुश किया जायगा, इस पर बहस होती जाती थी। हम लोग कम्पनी के कैंप में कोई दो बजे पहुँचे। वहाँ मालिक साहब, उनके ऐक्टर, नाटककार सब पहले ही से हमारा इन्तजार कर रहे थे। पान, इलायची, सिगरेट मँगा लिए थे।
ऊपर जाते ही रसिकलाल ने मालिक से कहा, ‘क्षमा कीजिएगा, हमें आने में देर हुई। हम मोटर से नहीं, पाँव-पाँव आये हैं। आज यही सलाह हुई कि प्रकृति की छटा का आनन्द उठाते चलें; गुरुप्रसादजी तो प्रकृति के
उपासक हैं। इनका बस होता, तो आज चिमटा लिये या तो कहीं भीख माँगते होते, या किसी पहाड़ी गाँव में वटवृक्ष के नीचे बैठे पक्षियों का चहकना सुनते होते।’
विनोद ने रद्दा जमाया -‘और आये भी तो सीधे रास्ते से नहीं, जाने कहाँ-कहाँ का चक्कर लगाते, खाक छानते। पैरों में जैसे सनीचर है।
अमर ने और रंग जमाया, ‘पूरे सतजुगी आदमी हैं। नौकर-चाकर तो मोटरों पर सवार होते हैं और आप गली-गली मारे-मारे फिरते हैं। जब और रईस मीठी नींद के मजे लेते होते हैं, तो आप नदी के किनारे उषा का श्रृंगार देखते हैं। मस्तराम ने फरमाया क़वि होना, मानो दीन-दुनिया से मुक्त हो जाना है। गुलाब की एक पंखड़ी लेकर उसमें न जाने क्या घंटों देखा करते हैं। प्रकृति की उपासना ने ही यूरोप के बड़े-बड़े कवियों को आसमान पर पहुँचा दिया है। यूरोप में होते तो आज इनके द्वार पर हाथी झूमता होता। एक दिन एक बालक को रोते देखकर आप रोने लगे। पूछता हूँ भाई क्यों रोते हो, तो और रोते हैं। मुँह से आवाज नहीं निकलती। बड़ी मुश्किल से आवाज निकली।
विनोद -‘ज़नाब ! कवि का ह्रदय कोमल भावों का ऱेत है, मधुर संगीत का भण्डार है, अनन्त का आईना है।
रसिक -‘क्या बात कही है आपने, अनन्त का आईना है ! वाह ! कवि की सोहबत में आप भी कुछ कवि हुए जा रहे हैं।’
गुरुप्रसाद ने नम्रता से कहा, ‘मैं कवि नहीं हूँ और न मुझे कवि होने का दावा है। आप लोग मुझे जबरदस्ती कवि बनाये देते हैं। कवि स्त्रष्टा की वह अद्भुत रचना है जो पंचभूतों की जगह नौ रसों से बनती है।’
मस्तराम-‘ आपका यही एक वाक्य है, जिस पर सैकड़ों कविताएंन्योछावर हैं। सुनी आपने रसिकलालजी, कवि की महिमा। याद कर लीजिए, रट डालिए।’
रसिकलाल -‘क़हाँ तक याद करें, भैया, यह तो सूक्तियों में बातें करते हैं। और नम्रता का यह हाल है कि अपने को कुछ समझते ही नहीं। महानता का यही लक्षण है। जिसने अपने को कुछ समझा, वह गया। (कम्पनी के
स्वामी से) आप तो अब खुद ही सुनेंगे, इस ड्रामे में अपना ह्रदय निकालकर रख दिया है। कवियों में जो एक प्रकार का अल्हड़पन होता है, उसकी आप में कहीं गन्ध भी नहीं। इस ड्रामे की सामग्री जमा करने के लिए आपने कुछ नहीं तो एक हजार बड़े-बड़े पोथों का अध्ययन किया होगा। वाजिदअली शाह को स्वार्थी इतिहास-लेखकों ने कितना कलंकित किया है, आप लोग जानते ही हैं। उस लेख-राशि को छाँटकर उसमें से सत्य के तत्त्व खोज निकालना आप ही का काम था !
विनोद -‘इसीलिए हम और आप दोनों कलकत्ता गये और वहाँ कोई छ: महीने मटियाबुर्ज की खाक छानते रहे। वाजिदअली शाह की हस्तलिखित एक पुस्तक की तलाश की। उसमें उन्होंने खुद अपनी जीवन-चर्चा लिखी है। एक बुढ़िया की पूजा की गई, तब कहीं जाके छ: महीने में किताब मिली।
अमरनाथ -‘पुस्तक नहीं रत्न है। मस्तराम उस वक्त तो उसकी दशा कोयले की थी, गुरुप्रसादजी ने उस पर मोहर लगाकर अशर्फी बना दिया। ड्रामा ऐसा चाहिए कि जो सुने, दिल हाथों से थाम ले। एक-एक वाक्य दिल में चुभ जाय। अमरनाथ संसार-साहित्य के सभी नाटकों को आपने चाट डाला और नाटय-रचना पर सैकड़ों किताबें पढ़ डालीं। विनोद ज़भी तो चीज भी लासानी हुई है। अमरनाथ लाहौर ड्रामेटिक क्लब का मालिक हफ्ते भर यहाँ पड़ा रहा, पैरों पड़ा कि मुझे यह नाटक दे दीजिए, लेकिन आपने न दिया। जब ऐक्टर ही अच्छे नहीं, तो उनसे अपना ड्रामा खेलवाना उसकी मिट्टी खराब कराना था। इस कम्पनी के ऐक्टर माशाअल्लाह अपना जवाब नहीं रखते और इसके नाटककार की सारे जमाने में धूम है। आप लोगों के हाथों में पड़कर यह ड्रामा धूम मचा देगा। विनोद एक तो लेखक साहब खुद शैतान से ज्यादा मशहूर हैं, उस पर यहाँ के ऐक्टरों का नाटय-कौशल ! शहर लुट जायगा।
मस्तराम –‘रोज ही तो किसी-न-किसी कम्पनी का आदमी सिर पर सवार रहता है, मगर बाबू साहब किसी से सीधे मुँह बात नहीं करते। विनोद बस एक यह कम्पनी है, जिसके तमाशे के लिए दिल बेकरार रहता है, नहीं तो और जितने ड्रामे खेले जाते हैं दो कौड़ी के। मैंने तमाशा देखना ही छोड़ दिया।’
गुरुप्रसाद –‘ नाटक लिखना बच्चों का खेल नहीं है; खूने-जिगर पीना पड़ता है। मेरे खयाल में एक नाटक लिखने के लिए पाँच साल का समय भी काफी नहीं। बल्कि अच्छा ड्रामा जिंदगी में एक ही लिखा जा सकता है। यों कलम घिसना दूसरी बात है। बड़े-बड़े धुरंधार आलोचकों का यही निर्णय है कि आदमी जिंदगी में एक ही नाटक लिख सकता है। रूस, फ्रांस, जर्मनी सभी देशों के ड्रामे पढ़े; पर कोई-न-कोई दोष सभी में मौजूद, किसी में भाव है तो भाषा नहीं, भाषा है तो भाव नहीं। हास्य है तो गाना नहीं, गाना है तो हास्य नहीं। जब तक भाव, भाषा, हास्य और गाना यह चारों अंग पूरे न हों, उसे ड्रामा कहना ही न चाहिए। मैं तो बहुत ही तुच्छ आदमी हूँ, कुछ आप लोगों की सोहबत में शुदबुद आ गया। मेरी रचना की हस्ती ही क्या। लेकिन ईश्वर ने चाहा, तो ऐसे दोष आपको न मिलेंगे।’
विनोद -‘ज़ब आप उस विषय के मर्मज्ञ हैं, तो दोष रह ही कैसे सकते हैं।’
रसिकलाल -‘दस साल तक तो आपने केवल संगीत-कला का अभ्यास किया है। घर के हजारों रुपये उस्तादों को भेंट कर दिये, फिर भी दोष रह जाय, तो दुर्भाग्य है।’
रिहर्सल
रिहर्सल शुरू और वाह ! वाह ! हाय ! हाय ! का तार बँधा। कोरस सुनते ही ऐक्टर और प्रोप्राइटर और नाटककार सभी मानो जाग पड़े। भूमिका ने उन्हें विशेष प्रभावित किया था, पर असली चीज सामने आते ही आँखें खुलीं। समाँ बँध गया। पहला सीन आया। आँखों के सामने वाजिदअली शाह के दरबार की तसवीर खिंच गई। दरबारियों की हाजिर-जवाबी और फड़कते हुए लतीफे ! वाह ! वाह ! क्या कहना है ! क्या वाक्य रचना थी, क्या शब्द योजना थी, रसों का कितना सुरुचि से भरा हुआ समावेश था ! तीसरा दृश्य हास्यमय था। हँसते-हँसते लोगों की पसलियाँ दुखने लगीं, स्थूलकाय स्वामी की संयत अविचलता भी आसन से डिग गई। चौथा सीन करुणाजनक था। हास्य के बाद करुणा, आँधी के बाद आनेवाली शान्ति थी। विनोद आँखों पर हाथ
रखे, सिर झुकाये जैसे रो रहे थे। मस्तराम बार-बार ठंडी आहें खींच रहे थे और अमरनाथ बार-बार सिसकियाँ भर रहे थे। इसी तरह सीन-पर-सीन और अंक-पर-अंक समाप्त होते गये, यहाँ तक कि जब रिहर्सल समाप्त हुआ, तो दीपक जल चुके थे।
सेठजी अब तक सोंठ बने हुए बैठे थे। ड्रामा समाप्त हो गया, पर उनके मुखारविंद पर उनके मनोविचार का लेशमात्र भी आभास न था। जड़ भरत की तरह बैठे हुए थे, न मुस्कराहट थी, न कुतूहल, न हर्ष; न कुछ। विनोदबिहारी ने मुआमले की बात पूछी तो इस ड्रामा के बारे में श्रीमान् की क्या राय है ? सेठजी ने उसी विरक्त भाव से उत्तर दिया, ‘मैं इसके विषय में कल निवेदन करूँगा। कल यहीं भोजन भी कीजिएगा। आप लोगों के लायक भोजन तो क्या होगा, उसे केवल विदुर का साग समझकर स्वीकार कीजिए।’
पंच पांडव बाहर निकले, तो मारे खुशी के सबकी बाछें खिली जाती थीं।
विनोद -‘पाँच हजार की थैली है। नाक-नाक बद सकता हूँ। अमरनाथ पाँच हजार है कि दस, यह तो नहीं कह सकता, पर रंग खूब जम गया।’
रसिक -‘मेरा अनुमान तो चार हजार का है।’
मस्तराम -‘और मेरा विश्वास है कि दस हजार से कम वह कहेगा ही नहीं। मैं तो सेठ के चेहरे की तरफ ध्यान से देख रहा था। आज ही कह देता; पर डरता था, कहीं ये लोग अस्वीकार न कर दें। उसके होंठों पर तो हँसी न थी; पर मगन हो रहा था।
गुरुप्रसाद -‘मैंने पढ़ा भी तो जी तोड़कर।’
विनोद -‘ऐसा जान पड़ता था तुम्हारी वाणी पर सरस्वती बैठ गई हैं।’
सभी की आँखें खुल गईं।
रसिक -‘मुझे उसकी चुप्पी से जरा संदेह होता है।’
अमर -‘आपके संदेह का क्या कहना। आपको ईश्वर पर भी संदेह है।’
मस्तराम -‘ड्रामेटिस्ट भी बहुत खुश हो रहा था। दस-बारह हजार का वारा-न्यारा है। भई, आज इस खुशी में एक दावत होनी चाहिए।ट
गुरुप्रसाद -‘अरे, तो कुछ बोहनी-बट्टा तो हो जाय।’
मस्त -‘ज़ी नहीं, तब तो जलसा होगा। आज दावत होगी।’
विनोद -‘भाग्य के बली हो तुम गुरुप्रसाद।’
रसिक -‘मेरी राय है, जरा उस ड्रामेटिस्ट को गाँठ लिया जाय। उसका मौन मुझे भयभीत कर रहा है।
मस्त -‘आप तो वाही हुए हैं। वह नाक रगड़कर रह जाय, तब भी यह सौदा होकर रहेगा। सेठजी अब बचकर निकल नहीं सकते।’
विनोद -‘हम लोगों की भूमिका भी तो जोरदार थी।’
अमर -‘उसी ने तो रंग जमा दिया। अब कोई छोटी रकम कहने का उसे साहस न होगा।’
अभिनय
रात को गुरुप्रसाद के घर मित्रों की दावत हुई। दूसरे दिन कोई 6 बजे पाँचों आदमी सेठजी के पास जा पहुँचे। संध्या का समय हवाखोरी का है। आज मोटर पर न आने के लिए बना-बनाया बहाना था। सेठजी आज बेहद खुश नजर आते थे। कल की वह मुहर्रमी सूरत अंतधर्धान हो गयी थी। बात-बात पर चहकते थे, हँसते थे, जैसे लखनऊ का कोई रईस हो। दावत का सामान तैयार था। मेजों पर भोजन चुना जाने लगा। अंगूर, संतरे, केले, सूखे मेवे, कई किस्म की मिठाइयाँ, कई तरह के मुरब्बे, शराब आदि सजा दिये गये और यारों ने खूब मजे से दावत खाई। सेठजी मेहमाननवाजी के पुतले बने हुए हरेक मेहमान के पास आ-आकर पूछते क़ुछ और मँगवाऊँ ? कुछ तो और लीजिए। आप लोगों के लायक भोजन यहाँ कहाँ बन सकता है। भोजन के उपरांत लोग बैठे, तो मुआमले की बातचीत होने लगी। गुरुप्रसाद का ह्रदय आशा और भय से काँपने लगा।
सेठजी -‘हुजूर ने बहुत ही सुंदर नाटक लिखा है। क्या बात है !’
ड्रामेटिस्ट -‘यहाँ जनता अच्छे ड्रामों की कद्र नहीं करती, नहीं तो यह ड्रामा लाजवाब होता।’
सेठजी -‘ज़नता कद्र नहीं करती न करे, हमें जनता की बिलकुल परवाह नहीं है, रत्ती बराबर परवाह नहीं है। मैं इसकी तैयारी में 40 हजार केवल बाबू साहब की खातिर से खर्च कर दूँगा। आपने इतनी मेहनत से एक चीज लिखी है, तो मैं उसका प्रचार भी उतने ही हौसले से करूँगा। हमारे साहित्य के लिए क्या यह कुछ कम सौभाग्य की बात है कि आप-जैसे महान् पुरुष इस क्षेत्र में आ गये। यह कीर्ति हुजूर को अमर बना देगी।’
ड्रामेटिस्ट -‘मैंने तो ऐसा ड्रामा आज तक नहीं देखा। लिखता मैं भी हूँ और लोग भी लिखते हैं। लेकिन आपकी उड़ान को कोई क्या पहुँचेगा ! कहीं-कहीं तो आपने शेक्सपियर को भी मात कर दिया है।’
सेठजी -‘तो जनाब, जो चीज दिल की उमंग से लिखी जाती है, वह ऐसी ही अद्वितीय होती है। शेक्सपियर ने जो कुछ लिखा, रुपये के लोभ से लिखा। हमारे दूसरे नाटककार भी धन ही के लिए लिखते हैं। उनमें वह बात कहाँ पैदा हो सकती है। गोसाईंजी की रामायण क्यों अमर है, इसीलिए कि वह भक्ति और प्रेम से प्रेरित होकर लिखी गई है। सादी की गुलिस्तॉ और बोस्तॉ, होमर की रचनाएं, इसीलिए स्थायी हैं कि उन कवियों ने दिल की
उमंग से लिखा। जो उमंग से लिखता है, वह एक-एक शब्द, एक-एक वाक्य, एक-एक उक्ति पर महीनों खर्च कर देता है। धनेच्छु को तो एक काम जल्दी से समाप्त करके दूसरा काम शुरू करने की फिक्र होती है।’
ड्रामेटिस्ट -‘आप बिलकुल सत्य कह रहे हैं। हमारे साहित्य की अवनति केवल इसलिए हो रही है कि हम सब धन के लिए या नाम के लिए लिखते हैं।’
सेठजी -‘सोचिए, आपने दस साल केवल संगीत-कला में खर्च कर दिये। लाखों रुपये कलावंतों और गायकों को दे डाले होंगे। कहाँ-कहाँ से और कितने परिश्रम और खोज से इस नाटक की सामग्री एकत्र की। न जाने कितने राजों-महाराजों को सुनाया। इस परिश्रम और लगन का पुरस्कार कौन दे सकता है।’
ड्रामेटिस्ट -‘मुमकिन ही नहीं। ऐसी रचनाओं के पुरस्कार की कल्पना करना ही उनका अनादर करना है। इनका पुरस्कार यदि कुछ है, तो वह अपनी आत्मा का संतोष है, वह संतोष आपके एक-एक शब्द से प्रकट होता है।’
सेठजी -‘आपने बिलकुल सत्य कहा, कि ऐसी रचनाओं का पुरस्कार अपनी आत्मा का संतोष है। यश तो बहुधा ऐसी रचनाओं को मिल जाता है, जो साहित्य के कलंक हैं। आपसे ड्रामा ले लीजिए और आज ही पार्ट भी तकसीम कर दीजिए। तीन महीने के अन्दर इसे खेल डालना होगा।’
मेज पर ड्रामे की हस्तलिपि पड़ी हुई थी। ड्रामेटिस्ट ने उसे उठा लिया। गुरुप्रसाद ने दीन नेत्रों से विनोद की ओर देखा, विनोद ने अमर की ओर, अमर ने रसिक की ओर, पर शब्द किसी के मुँह से न निकला। सेठजी ने मानो, सभी के मुँह-सी दिये हों। ड्रामेटिस्ट साहब किताब लेकर चल दिये।
सेठजी ने मुस्कराकर कहा, ‘हुजूर को थोड़ी-सी तकलीफ और करनी होगी। ड्रामा का रिर्हसल शुरू हो जायगा, तो आपको थोड़े दिनों कंपनी के साथ रहने का कष्ट उठाना पड़ेगा। हमारे ऐक्टर अधिकांश गुजराती हैं। वह हिन्दी भाषा के शब्दों का शुद्ध उच्चारण नहीं कर सकते। कहीं-कहीं शब्दों पर अनावश्यक जोर देते हैं। आपकी निगरानी से यह सारी बुराइयाँ दूर हो जायँगी। ऐक्टरों ने यदि पार्ट अच्छा न किया, तो आपके सारे परिश्रम पर पानी पड़ जायगा।’ यह कहते हुए उन्होंने लड़के को आवाज दी, ‘बॉय ! आप लोगों के लिए सिगार लाओ।’ सिगार आ गया। सेठजी उठ खड़े हुए। यह मित्र-मंडली के लिए विदाई की सूचना थी। पाँचों सज्जन भी उठे। सेठजी आगे-आगे द्वार तक आये।
फिर सबसे हाथ मिलाते हुए कहा, ‘आज इस गरीब कम्पनी का तमाशा देख लीजिए। फिर यह संयोग न जाने कब प्राप्त हो।’
गुरुप्रसाद ने मानो किसी कब्र के नीचे से कहा, ‘हो सका तो आ जाऊँगा।’
सड़क पर आकर पाँचों मित्र खड़े होकर एक-दूसरे का मुँह ताकने लगे। तब पाँचों ही जोर से कहकहा, मारकर हँस पड़े।
विनोद ने कहा, ‘यह हम सबका गुरुघंटाल निकला।’
अमर -‘साफ आँखों में धूल झोंक दी।’
रसिक -‘मैं उसकी चुप्पी देखकर पहले ही डर रहा था कि यह कोई पल्ले सिरे का घाघ है।
मस्त -‘मान गया इसकी खोपड़ी को। यह चपत उम्र भर न भूलेगी।’
गुरुप्रसाद इस आलोचना में शरीक न हुए। वह इस तरह सिर झुकाये चले जा रहे थे, मानो अभी तक वह स्थिति को समझ ही न पाये हों।
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