कहानी – ढपोरसंख – (लेखक – मुंशी प्रेमचंद)

Premchand_4_aमुरादाबाद में मेरे एक पुराने मित्र हैं, जिन्हें दिल में तो मैं एक रत्न समझता हूँ पर पुकारता हूँ ढपोरसंख कहकर और वह बुरा भी नहीं मानते। ईश्वर ने उन्हें जितना ह्रदय दिया है, उसकी आधी बुद्धि दी होती, तो आज वह कुछ और होते ! उन्हें हमेशा तंगहस्त ही देखा; मगर किसी के सामने कभी हाथ फैलाते नहीं देखा। हम और वह बहुत दिनों तक साथ पढ़े हैं, खासी बेतकल्लुफी है; पर यह जानते हुए भी कि मेरे लिए सौ-पचास रुपये से उनकी मदद करना कोई बड़ी बात नहीं और मैं बड़ी खुशी से करूँगा, कभी मुझसे एक पाई के रवादार न हुए। अगर हीले से बच्चों को दो-चार रुपये दे देता हूँ, तो बिदा होते समय उसकी दुगनी रकम के मुरादाबादी बर्तन लादने पड़ते हैं। इसलिए मैंने यह नियम बना लिया है कि जब उनके पास जाता हूँ, तो एक-दो दिन में जितनी बड़ी-से-बड़ी चपत दे सकता हूँ, देता हूँ। मौसम में जो महँगी-से-महँगी चीज होती है, वही खाता हूँ और माँग-माँगकर खाता हूँ। मगर दिल के ऐसे बेहया हैं, कि अगर एक बार भी उधर से निकल जाऊँ और उससे न मिलूँ

तो बुरी तरह डॉट बताते हैं। इधर दो-तीन साल से मुलाकात न हुई थी। जी देखने को चाहता था।

 

मई में नैनीताल जाते हुए उनसे मिलने के लिए उतर पड़ा। छोटा-सा घर है, छोटा-सा परिवार, छोटा-सा डील। द्वार पर आवाज़ दी ढ़पोरसंख ! तुरन्त बाहर निकल आये और गले से लिपट गये। तांगे पर

 

से मेरे ट्रंक को उतारकर कंधों पर रखा, बिस्तर बगल में दबाया और घर में दाखिल हो गये। कहता हूँ, बिस्तर मुझे दे दो मगर कौन सुनता है। भीतर कदम रखा तो देवीजी के दर्शन हुए। छोटे बच्चे ने आकर प्रणाम किया। बस यही परिवार है। कमरे में गया तो देखा खतों का एक दफ्तर फैला हुआ है। खतों को सुरक्षित रखने की तो इनकी आदत नहीं ? इतने खत किसके हैं ? कुतूहल से पूछा, यह क्या कूड़ा फैला रखा है जी, समेटो।

 

देवीजी मुसकराकर बोलीं, ‘क़ूड़ा न कहिए, एक-एक पत्र साहित्य का रत्न है। आप तो इधर आये नहीं। इनके एक नये मित्र पैदा हो गये हैं। यह उन्हीं के कर-कमलों के प्रसाद हैं।’

 

ढपोरसंख ने अपनी नन्ही-नन्ही आँखें सिकोड़कर कहा, ‘तुम उसके नाम से क्यों इतना जलती हो, मेरी समझ में नहीं आता ? अगर तुम्हारे दो-चार सौ रुपये उस पर आते हैं, तो उनका देनदार मैं हूँ। वह भी अभी जीता-जागता है। किसी को बेईमान क्यों समझती हो ? यह क्यों नहीं समझतीं कि उसे अभी सुविधा नहीं है। और फिर दो-चार सौ रुपये एक मित्र के हाथों डूब ही जायें, तो क्यों रोओ। माना हम गरीब हैं, दो-चार सौ रुपये हमारे लिए दो-चार लाख से कम नहीं; लेकिन खाया तो एक मित्र ने !’

 

देवीजी जितनी रूपवती थीं, उतनी ही जबान की तेज थीं।

 

बोलीं -‘अगर ऐसों ही का नाम मित्र है, तो मैं नहीं समझती, शत्रु किसे कहते हैं।’

 

ढपोरसंख ने मेरी तरफ देखकर, मानो मुझसे हामी भराने के लिए कहा–

 

‘औरतों का ह्रदय बहुत ही संकीर्ण होता है।’

 

देवीजी नारी-जाति पर यह आपेक्ष कैसे सह सकती थीं, आँखें तरेरकर बोलीं —

 

‘यह क्यों नहीं कहते, कि उल्लू बनाकर ले गया, ऊपर से हेकड़ी जताते हो ! दाल गिर जाने पर तुम्हें भी सूखा अच्छा लगे, तो कोई आश्चर्य नहीं। मैं जानती हूँ, रुपया हाथ का मैल है। यह भी समझती हूँ कि जिसके भाग्य

 

का जितना होता है, उतना वह खाता है; मगर यह मैं कभी न मानूँगी, कि वह सज्जन था और आदर्शवादी था और यह था, वह था। साफ-साफ क्यों नहीं कहते, लंपट था, दगाबाज था ! बस, मेरा तुमसे कोई झगड़ा नहीं।’

 

ढपोरसंख ने गर्म होकर कहा, ‘मैं यह नहीं मान सकता।’

 

देवीजी भी गर्म होकर बोलीं -‘तुम्हें मानना पड़ेगा। महाशयजी आ गये हैं। मैं इन्हें पंच बदती हूँ। अगर यह कह देंगे, कि सज्जनता का पुतला था, आदर्शवादी था, वीरात्मा था, तो मैं मान लूँगी और फिर उसका नाम न लूँगी। और यदि इनका फैसला मेरे अनुकूल हुआ, तो लाला, तुम्हें इनको अपना बहनोई कहना पड़ेगा !’

 

मैंने पूछा, ‘मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है, आप किसका जिक्र कर रही हैं ? वह कौन था ?’

 

देवीजी ने आँखें नचाकर कहा, ‘इन्हीं से पूछो, कौन था ? इनका बहनोई था !’

 

ढपोरसंख ने झेंपकर कहा, ‘अजी, एक साहित्य-सेवी था क़रुणाकर जोशी। बेचारा विपत्ति का मारा यहाँ आ पड़ा था ! उस वक्त तो यह भी भैया-भैया करती थीं, हलवा बना-बनाकर खिलाती थीं, उसकी विपत्ति-कथा सुनकर टेसवे बहाती थीं और आज वह दगाबाज है, लंपट है, लबार है ?’

 

देवीजी ने कहा, ‘वह तुम्हारी खातिर थी। मैं समझती थी, लेख लिखते हो, व्याख्यान देते हो, साहित्य के मर्मज्ञ बनते हो, कुछ तो आदमी पहचानते होगे। पर अब मालूम हो गया, कि कलम घिसना और बात है, मनुष्य की

 

नाड़ी पहचानना और बात।’

 

मैं इस जोशी का वृत्तांत सुनने के लिए उत्सुक हो उठा ढ़पोरसंख तो अपना पचड़ा सुनाने को तैयार थे; मगर देवीजी ने कहा, ख़ाने-पीने से निवृत्त होकर पंचायत बैठे। मैंने भी इसे स्वीकार कर लिया। देवीजी घर में जाती हुई बोलीं -‘तुम्हें कसम है जो अभी जोशी के बारे में एक शब्द भी इनसे कहो। मैं भोजन बनाकर जब तक खिला न लूँ, तब तक दोनों आदमियों पर दफा 144 है।’

 

ढपोरसंख ने आँखे मारकर कहा, ‘तुम्हारा नमक खाकर यह तुम्हारी तरफदारी करेंगे ही !’

 

इस बार देवीजी के कानों में यह जुमला न पड़ा। धीमे स्वर में कहा, भी गया था, नहीं तो देवीजी ने कुछ-न-कुछ जवाब जरूर दिया होता। देवीजी चूल्हा जला चुकीं और ढपोरसंख उनकी ओर से निश्चिन्त हो गये, तो मुझसे बोले, ‘ज़ब तक वह रसोई में हैं, मैं संक्षेप में तुम्हें वह वृत्तांत सुना दूँ ?’

 

मैंने धर्म की आड़ लेकर कहा, ‘नहीं भाई, मैं पंच बनाया गया हूँ और इस विषय में कुछ न सुनूँगा। उन्हें आ जाने दो।’

 

‘मुझे भय है, कि तुम उन्हीं का-सा फैसला कर दोगे और फिर वह मेरा घर में रहना अपाढ़ कर देगी।’

 

मैंने ढाढ़स दिया -‘यह आप कैसे कह सकते हैं, मैं क्या फैसला करूँगा ?’

 

‘मैं तुम्हें जानता जो हूँ। तुम्हारी अदालत में औरत के सामने मर्द कभी जीत ही नहीं सकता।’

 

‘तो क्या चाहते हो तुम्हारी डिग्री कर दूँ !’

 

‘क्या दोस्ती का इतना हक भी नहीं अदा कर सकते ?’

 

‘अच्छा लो, तुम्हारी जीत होगी, चाहे गालियाँ ही क्यों न मिलें।’

 

खाते-पीते दोपहर हो गयी। रात का जागा था। सोने की इच्छा हो रही थी पर देवीजी कब माननेवाली थीं। भोजन करके आ पहुँचीं। ढपोरसंख ने पत्रों का पुलिंदा समेटा और वृत्तान्त सुनाने लगे। देवीजी ने सावधान किया एक शब्द भी झूठ बोले, तो जुर्माना होगा। ढपोरसंख ने गम्भीर होकर कहा, ‘झूठ वह बोलता है, जिसका पक्ष निर्बल होता है। मुझे तो अपनी विजय का विश्वास है।’

 

इसके बाद कथा शुरू हो गई।

 

दो साल से ज्यादा हुए, एक दिन मेरे पास एक पत्र आया, जिसमें साहित्य सेवा के नाते एक ड्रामे की भूमिका लिखने की प्रेरणा की गई थी। करुणाकर का पत्र था। इस साहित्यिक रीति से मेरा उनसे प्रथम परिचय हुआ।

 

साहित्यकारों की इस जमाने में जो दुर्दशा है, उसका अनुभव कर चुका हूँ, और करता रहता हूँ और यदि भूमिका तक बात रहे, तो उनकी सेवा करने में पसोपेश नहीं होता। मैंने तुरन्त जवाब दिया आप ड्रामा भेज दीजिए। एक सप्ताह में ड्रामा आ गया, पर अबके पत्र में भूमिका लिखने ही की नहीं कोई प्रकाशक ठीक कर देने की भी प्रार्थना की गयी थी। मैं प्रकाशकों के झंझट में नहीं पड़ता। दो-एक बार पड़कर कई मित्रों को जानी दुश्मन बना चुका हूँ। मैंने ड्रामे को पढ़ा, उस पर भूमिका लिखी और हस्तलिपि लौटा दी। ड्रामा मुझे सुन्दर मालूम हुआ; इसलिए भूमिका भी प्रशंसात्मक थी। कितनी ही पुस्तकों की भूमिका लिख भी चुका हूँ। कोई नई बात न थी; पर अबकी भूमिका लिखकर पिंड न छूटा। एक सप्ताह के बाद एक लेख आया, कि इसे अपनी

 

पत्रिका में प्रकाशित कर दीजिए। (ढपोरसंख एक पत्रिका के सम्पादक हैं।) इसे गुण कहिए या दोष, मुझे दूसरों पर विश्वास बहुत जल्द आ जाता है। और जब किसी लेखक का मुआमला हो, तो मेरी विश्वास-क्रिया और भी

 

तीव्र हो जाती है। मैं अपने एक मित्र को जानता हूँ जो साहित्यकारों के साये से भागते हैं। वह खुद निपुण लेखक हैं, बड़े ही सज्जन हैं, बड़े ही जिन्दा-दिल। अपनी शादी करके लौटने पर जब-जब रास्ते में मुझसे भेंट हुई, कहा, आपकी मिठाई रखी हुई है, भेजवा दूँगा, पर वह मिठाई आज तक न आई, हालाँकि अब ईश्वर की दया से विवाह-तरु में फल भी लग आये, लेकिन खैर, मैं साहित्यसेवियों से इतना चौकन्ना नहीं रहता। इन पत्रों में इतनी विनय, इतना आग्रह, इतनी भक्ति होती थी, कि मुझे जोशी से बिना साक्षात्कार के ही स्नेह

 

हो गया। मालूम हुआ, एक बड़े बाप का बेटा है, घर से इसीलिए निर्वासित है, कि उसके चाचा दहेज की लम्बी रकम लेकर उसका विवाह करना चाहते थे, यह उसे मंजूर न हुआ। इस पर चाचा ने घर से निकाल दिया। बाप के पास गया। बाप आदर्श भ्रातृ-भक्त था। उसने चाचा के फैसले की अपील न सुनी। ऐसी दशा में सिद्धान्त का मारा युवक सिवाय घर से बाहर निकल भागने के और क्या करता ? यों वन-वन के पत्ते तोड़ता, द्वार-द्वार ठोकरें खाता वह ग्वालियर आ गया था। उस पर मंदाग्नि का रोगी, जीर्ण ज्वर से ग्रस्त।

 

आप ही बतलाइए, ऐसे आदमी से क्या सहानुभूति न होती ? फिर जब एक आदमी आपको ‘प्रिय भाई साहब’ लिखता है, अपने मनोरहस्य आपके सामने खोलकर रखता है, विपत्ति में भी धैर्य और पुरुषार्थ को हाथ से नहीं छोड़ता, कड़े से कड़ा परिश्रम करने को तैयार है, तो यदि आप में सौजन्य का अणुमात्र भी है, तो आप उसकी मदद जरूर करेंगे। अच्छा, अब फिर ड्रामे की तरफ आइए। कई दिनों बाद जोशी का पत्र प्रयाग से आया। वह वहाँ के एक मासिक पत्रिका के सम्पादकीय विभाग में नौकर हो गया था। यह पत्र पाकर मुझे कितना संतोष और आनन्द हुआ, कह नहीं सकता। कितना उद्यमशील आदमी है ! उसके प्रति मेरा स्नेह और भी प्रगाढ़ हो गया। पत्रिका का स्वामी संपादक सख्ती से पेश आता था, जरा-सी देर हो जाने पर दिन-भर की मजदूरी काट लेता था, बात-बात पर घुड़कियाँ जमाता था; पर यह सत्याग्रही वीर सब कुछ सहकर भी अपने काम में लगा

 

रहता था। अपना भविष्य बनाने का ऐसा अवसर पाकर वह उसे कैसे छोड़ देता। यह सारी बातें स्नेह और विश्वास को बढ़ाने वाली थीं। एक आदमी को कठिनाइयों का सामना करते देखकर किसे उससे प्रेम न होगा, गर्व न होगा !

 

प्रयाग में वह ज्यादा न ठहर सका। उसने मुझे लिखा, मैं सब कुछ झेलने को तैयार हूँ, भूखों मरने को तैयार हूँ पर आत्मसम्मान में दाग नहीं लगा सकता, कुवचन नहीं सह सकता। ऐसा चरित्र यदि आप पर प्रभाव न डाल सके, तो मैं कहूँगा, आप चालाक चाहे जितने हों पर ह्रदय-शून्य हैं। एक सप्ताह के बाद प्रयाग से फिर पत्र आया यह व्यवहार मेरे लिए असह्य हो गया। आज मैंने इस्तीफा दे दिया। यह न समझिए कि मैंने हलके

 

दिल से लगी-लगाई रोजी छोड़ दी। मैंने वह सब किया, जो मुझे करना चाहिए था। यहाँ तक कि कुछ-कुछ वह भी किया, जो मुझे न करना चाहिए था; पर आत्मसम्मान का खून नहीं कर सकता। अगर यह कर सकता, तो मुझे घर छोड़कर निकलने की क्या आवश्यकता थी। मैंने बम्बई जाकर अपनी किस्मत आजमाने का निश्चय किया है। मेरा दृढ़ संकल्प है कि अपने घरवालों के सामने हाथ न फैलाऊँगा, उनसे दया की भिक्षा न माँगूँगा। मुझे कुलीगिरी करनी मंजूर है, टोकरी ढोना मंजूर है; पर अपनी आत्मा को कलंकित नहीं कर सकता।

 

मेरी श्रृद्धा और बढ़ गई। यह व्यक्ति अब मेरे लिए केवल ड्रामा का चरित्र न था, जिसके सुख से सुखी और दुख से दुखी होने पर भी हम दर्शक ही रहते हैं। वह अब मेरे इतने निकट पहुँच गया था, कि उस पर आघात होते देखकर मैं उसकी रक्षा करने को तैयार था, उसे डूबते देखकर पानी में कूदने से भी न हिचकता। मैं बड़ी उत्कंठा से उसके बंबई से आने वाले पत्र का इंतजार करने लगा। छठवें दिन पत्र आया। वह बंबई में काम खोज रहा था, लिखा था घबड़ाने की कोई बात नहीं है, मैं सबकुछ झेलने को तैयार हूँ। फिर दो-दो, चार-चार दिन के अन्तर से कई पत्र आये। वह वीरों की भाँति कठिनाइयों के सामने कमर कसे खड़ा था, हालाँकि तीन दिन से उसे भोजन न मिला था।

 

ओह ! कितना ऊँचा आदर्श है। कितना उज्ज्वल चरित्र ! मैं समझता हूँ, मैंने उस समय बड़ी कृपणता की। मेरी आत्मा ने मुझे धिक्कारा यह बेचारा इतने कष्ट उठा रहा है और तुम बैठे देख रहे हो। क्यों उसके पास कुछ रुपये नहीं भेजते ? मैंने आत्मा के कहने पर अमल न किया, पर अपनी बेदर्दी पर खिन्न अवश्य था। जब कई दिन की बेचैनी भरे हुए इन्तजार के बाद यह समाचार आया, कि वह एक साप्ताहिक पत्र के सम्पादकीय विभाग में जगह पा गया है, तो मैंने आराम की साँस ली और ईश्वर को सच्चे दिल से धन्यवाद दिया। साप्ताहिक में जोशी के लेख निकलने लगे। उन्हें पढ़कर मुझे गर्व होता था। कितने सजीव, कितने विचार से भरे लेख थे। उसने मुझसे भी लेख माँगे; पर मुझे अवकाश न था। क्षमा माँगी, हालाँकि इस अवसर पर उसको प्रोत्साहन

 

न देने पर मुझे बड़ा खेद होता था। लेकिन शायद बाधाएं हाथ धोकर उसके पीछे पड़ी थीं। पत्र के ग्राहक

 

कम थे। चन्दे और डोनेशन से काम चलता था। रुपये हाथ आ जाते, तो कर्मचारियों को थोड़ा-थोड़ा मिल जाता, नहीं आसरा लगाये काम करते रहते। इस दशा में गरीब ने तीन महीने काटे होंगे। आशा थी, तीन महीने का हिसाब होगा, तो अच्छी रकम हाथ लगेगी; मगर वहाँ सूखा जवाब मिला। स्वामी ने टाट उलट दिया, पत्र बन्द हो गया और कर्मचारियों को अपना-सा मुँह लिये बिदा होना पड़ा। स्वामी की सज्जनता में सन्देह नहीं; लेकिन रुपये कहाँ से लाता ! सज्जनता के नाते लोग आधे वेतन पर काम कर सकते थे लेकिन पेट बाँधकर काम करना कब मुमकिन था। और फिर बम्बई का खर्च। बेचारे जोशी को फिर ठोकरें खानी पड़ीं ! मैंने खत पढ़ा, तो बहुत दु:ख हुआ। ईश्वर ने मुझे इस योग्य न बनाया, नहीं बेचारा क्यों पेट के लिए यों मारा-मारा फिरता।

 

अबकी बार बहुत हैरान न होना पड़ा। किसी मिल में गाँठों पर नम्बर लिखने का काम मिल गया। एक रुपया रोज मजूरी थी। बम्बई में एक रुपया, इधर के चार आने बराबर समझो ! कैसे उसका काम चलता था, ईश्वर ही जाने।

 

कई दिन के बाद एक लम्बा पत्र आया। एक जर्मन एजेंसी उसे रखने पर तैयार थी; अगर तुरन्त सौ रुपये की जमानत दे सके। एजेंसी यहाँ की फौजों में जूते, सिगार, साबुन आदि सप्लाई करने का काम करती थी। अगर यह जगह मिल जाती, तो उसके दिन आराम से कटने लगते। लिखा था, अब जिन्दगी से तंग आ गया हूँ। हिम्मत ने जवाब दे दिया। आत्महत्या करने के सिवा और कोई उपाय नहीं सूझता। केवल माताजी की चिन्ता है। रो-रोकर प्राण दे देंगी ! पिताजी के साथ उन्हें शारीरिक सुखों की कमी नहीं; पर मेरे लिए उनकी आत्मा तड़पती रहती है। मेरी यही अभिलाषा है, कि कहीं बैठने का ठिकाना मिल जाता, तो एक बार उन्हें अपने साथ रखकर उनकी जितनी सेवा हो सकती, करता। इसके सिवा मुझे कोई इच्छा नहीं है; लेकिन जमानत कहाँ से लाऊँ ? बस, कल का दिन और है। परसों कोई दूसरा उम्मीदवार जमानत देकर यह ले लेगा और मैं ताकता रह जाऊँगा। एजेंट मुझे रखना चाहता है; लेकिन अपने कार्यालय के नियमों को क्या करे। इस पत्र ने मेरी कृपण प्रकृति को भी वशीभूत कर लिया। इच्छा हो जाने पर कोई-न-कोई राह निकल आती है। मैंने रुपये भेजने का निश्चय कर लिया। अगर इतनी मदद से एक युवक का जीवन सुधार रहा हो, तो कौन ऐसा है, जो मुँह छिपा ले। इससे बड़ा रुपयों का और क्या सदुपयोग हो सकता है। हिन्दी में कलम घिसनेवालों के पास इतनी बड़ी रकम जरा मुश्किल ही से निकलती; पर संयोग से उस वक्त मेरे कोष में रुपये मौजूद थे। मैं इसके लिए अपनी कृपणता का ऋणी हूँ। देवीजी की सलाह ली। वह बड़ी खुशी से राजी हो गईं; हालाँकि अब सारा दोष मेरे ही सिर मढ़ा जाता है। कल रुपयों का पहुँचना आवश्यक था, नहीं तो अवसर हाथ से निकल जायगा। मनीआर्डर तीन दिन में पहुँचेगा। तुरन्त तारघर गया और तार से रुपये भेज दिये। जिसने बरसों की कतर-ब्योंत के बाद इतने रुपये जोड़े हों और जिसे भविष्य भी अभावमय ही दीखता हो, वही उस आनन्द का अनुभव कर सकता है, जो इस समय मुझे हुआ। सेठ अमीरचन्द को दस लाख का दान करके भी इतना आनन्द न हुआ होगा। दिया तो मैंने ऋण समझकर ही; पर वह दोस्ती का ऋण था, जिसका अदा होना स्वप्न का यथार्थ होना है।

 

उस पत्र को मैं कभी न भूलूँगा, जो धन्यवाद के रूप में चौथे दिन मुझे मिला। कैसे सच्चे उद्गार थे ! एक-एक शब्द अनुग्रह में डूबा हुआ। मैं उसे साहित्य की एक चीज समझता हूँ। देवीजी ने चुटकी ली ‘सौ रुपये में उससे बहुत अच्छा पत्र मिल सकता है !’ ढपोरसंख ने कुछ जवाब न दिया। कथा कहने में तन्मय थे।

 

बम्बई में वह किसी प्रसिद्ध स्थान पर ठहरा था। केवल नाम और पोस्ट-बाक्स लिखने ही से उसे पत्र मिल जाता था। वहाँ से कई पत्र आये। वह प्रसन्न था।

 

देवीजी बोलीं प्रसन्न क्यों न होता, ‘कम्पे में एक चिड़िया जो फॅस गई थी। ‘

 

ढपोरसंख ने चिढ़कर कहा, ‘या तो मुझे कहने दो, या तुम कहो। बीच में बोलो मत।’

 

बम्बई से कई दिन के बाद एक पत्र आया कि एजेन्सी ने उसके व्यवहार से प्रसन्न होकर उसे काशी में नियुक्त कर दिया है और वह काशी आ रहा है। उसे वेतन के उपरान्त भत्ता भी मिलेगा। काशी में उसके एक मौसा थे

 

जो वहाँ के प्रसिद्ध डाक्टर थे; पर वह उनके घर न उतरकर अलग ठहरा। इससे उसके आत्मसम्मान का पता चलता है। मगर एक महीने में काशी से उसका जी भर गया। शिकायत से भरे पत्र आने लगे सुबह से शाम तक फौजी आदमियों की खुशामद करनी पड़ती है, सुबह का गया-गया दस बजे रात को घर आता हूँ, उस वक्त अकेला अँधेरा घर देखकर चित्त दुख से भर जाता है, किससे बोलूँ, किससे हँसूँ। बाजार की पूरियाँ खाते-खाते तंग आ गया हूँ। मैंने समझा था, अब कुछ दिन चैन से कटेंगे; लेकिन मालूम होता है अभी किस्मत में ठोकरें खाना लिखा है। मैं इस तरह जीवित नहीं रह सकता। रात-रात भर पड़ा रोता रहता हूँ, आदि। मुझे इन पत्रों में वह अपने आदर्श से गिरता हुआ मालूम हुआ। मैंने उसे समझाया, लगी रोजी न छोड़ो, काम किये जाओ। जवाब आया, मुझसे अब यहाँ नहीं रहा जाता ! फौजियों का व्यवहार असह्य है। फिर मैनेजर साहब मुझे रंगून भेज रहे हैं और रंगून जाकर मैं बच नहीं सकता। मैं कोई साहित्यिक काम करना चाहता हूँ। कुछ दिन आपकी सेवा में रहना चाहता हूँ। मैं इस पत्र का जवाब देने जा ही रहा था कि फिर पत्र आया। मैं कल देहरादून-एक्सप्रेस से आ रहा हूँ। दूसरे दिन वह आ पहुँचा। दुबला-सा आदमी, सांवला रंग, लम्बा मुँह, बड़ी-बड़ी आँखें, अँग्रेजी वेश, साथ में कई

 

चमड़े के ट्रंक, एक सूटकेस, एक होल्डाल। मैं तो उसका ठाट देखकर दंग रह गया। देवीजी ने टिप्पणी की-‘फ़िर भी तो न चेते ! मैंने समझा था, गाढ़े का कुर्त्ता, चप्पल, ज्यादा-से-ज्यादा फाउण्टेन पेन वाला आदमी होगा, मगर यह महाशय तो पूरे साहब बहादुर निकले। मुझे इस छोटे-से घर में उन्हें ठहराते हुए संकोच हुआ।

 

देवीजी से बिना बोले न रहा गया, ‘आते ही श्री-चरणों पर सिर तो रख दिया, अब और क्या चाहते थे।’

 

ढपोरसंख अबकी मुसकाये-‘देखो श्यामा, बीच-बीच में टोको मत। अदालत की प्रतिष्ठा यह कहती है कि अभी चुपचाप सुनती जाओ। जब तुम्हारी बारी आये, तो जो चाहे कहना।’

 

फिर सिलसिला शुरू हुआ था — तो दुबला-पतला मगर बड़ा फुर्तीला, बातचीत में बड़ा चतुर, एक जुमला अँग्रेजी बोलता, एक जुमला हिन्दी, और हिन्दी-अँग्रेजी की खिचड़ी, जैसे आप जैसे सभ्य लोग बोलते हैं। बातचीत शुरू हुई– ‘आपके दर्शनों की बड़ी इच्छा थी। मैंने जैसा अनुमान किया था, वैसा ही आपको देखा। बस, अब मालूम हो रहा है, कि मैं भी आदमी हूँ। इतने दिनों तक कैदी था।’

 

मैंने कहा, ‘तो क्या इस्तीफा दे दिया ?

 

‘नहीं, अभी तो छुट्टी लेकर आया हूँ। अभी इस महीने का वेतन भी नहीं मिला। मैंने लिख दिया है, यहाँ के पते से भेज दें। नौकरी तो अच्छी है; मगर काम बहुत करना पड़ता है और मुझे कुछ लिखने का अवसर नहीं

 

मिलता।’

 

खैर, रात को मैंने इसी कमरे में उन्हें सुलाया। दूसरे दिन यहाँ के एक होटल में प्रबन्ध कर दिया। होटलवाले पेशगी रुपये ले लेते हैं। जोशी के पास रुपये न थे। मुझे तीस रुपये देने पड़े। मैंने समझा, इसका वेतन तो

 

आता ही होगा, ले लूँगा। यहाँ मेरे एक माथुर मित्र हैं। उनसे भी मैंने जोशी का जिक्र किया था। उसके आने की खबर पाते ही होटल दौड़े। दोनों में दोस्ती हो गई। जोशी दो-तीन बार दिन में, एक बार रात को जरूर आते और खूब बातें करते। देवीजी उनको हाथों पर लिए रहतीं। कभी उनके लिए पकौड़ियाँ बन रही हैं, कभी हलवा। जोशी हरफनमौला था। गाने में कुशल, हारमोनियम में निपुण, इन्द्रजाल के करतब दिखलाने में कुशल। सालन अच्छा पकाता था। देवीजी को गाना सीखने का शौक पैदा हो गया। उसे म्यूजिक मास्टर बना लिया।

 

देवीजी लाल मुँह करके बोलीं -‘तो क्या मुफ्त में हलवा, पकौड़ियाँ और पान बना-बनाकर खिलाती थी ?’

 

एक महीना गुजर गया पर जोशी का वेतन न आया। मैंने पूछा, भी नहीं। सोचा, अपने दिल में समझेगा, अपने होटलवाले रुपयों का तकाजा कर रहे हैं। माथुर के घर भी उसने आना-जाना शुरू कर दिया। दोनों साथ घूमने जाते, साथ रहते। जोशी जब आते, माथुर का बखान करते, माथुर जब आते जोशी की तारीफ करते। जोशी के पास अपने अनुभवों का विशेष भंडार था। वह फौज में रह चुका था। जब उसकी मंगेतर का विवाह दूसरे आदमी से हो गया, तो शोक में उसने फौजी नौकरी छोड़ दी थी। सामाजिक जीवन की न जाने कितनी ही घटनाएं उसे याद थीं। और जब अपने माँ-बाप और चाचा-चाची का जिक्र करने लगता, तो उसकी आँखों में आँसू भर आते। देवीजी भी उसके साथ रोतीं।

 

देवीजी तिरछी आँखों से देखकर रह गईं। बात सच्ची थी।

 

एक दिन मुझसे अपने एक ड्रामे की बड़ी तारीफ की। वह ड्रामा कलकत्ते में खेला गया। और मदन कंपनी के मैनेजर ने उसे बधाइयाँ दी थीं। ड्रामे के दो-चार टुकड़े जो उसके पास पड़े थे, मुझे सुनाये। मुझे ड्रामा बहुत पसन्द आया। उसने काशी के एक प्रकाशक के हाथ वह ड्रामा बेच दिया था और कुल पचीस रुपये पर। मैंने कहा,उसे वापस मँगा लो। रुपये मैं दे दूँगा। ऐसी सुन्दर रचना किसी अच्छे प्रकाशक को देंगे, या किसी थियेटर कम्पनी से खेलवायेंगे। तीन-चार दिन के बाद मालूम हुआ कि प्रकाशक अब पचास रुपये लेकर लौटायेगा। कहता है, मैं इसका कुछ अंश छपा चुका हूँ। मैंने कहा,मँगा लो पचास रुपये ही सही। ड्रामा वी.पी. से वापस आया। मैंने पचास रुपये दे दिये। महीना खत्म हो रहा था। होटलवाले दूसरा महीना शुरू होते ही रुपये

 

पेशगी माँगेंगे। मैं इसी चिन्ता में था, कि जोशी ने आकर कहा, मैं अब माथुर के साथ रहूँगा। बेचारा गरीब आदमी है। अगर मैं बीस रुपये भी दे दूँगा, तो उसका काम चल जायगा। मैं बहुत खुश हुआ। दूसरे दिन वह माथुर के घर डट गया। जब आता, तो माथुर के घर का कोई-न-कोई रहस्य लेकर आता। यह तो मैं जानता था, कि माथुर की आर्थिक दशा अच्छी नहीं है। बेचारा रेलवे के दफ्तर में नौकर था। वह नौकरी भी छूट गई थी। मगर यह न मालूम था कि उसके यहाँ फाके हो रहे हैं। कभी मालिक मकान आकर गालियाँ सुना जाता है, कभी दूधवाला, कभी बनिया, कभी कपड़ेवाला। बेचारा उनसे मुँह छिपाता फिरता है। जोशी आँखों में आँसू भर-भरकर उसके संकटों की करुण कहानी कहता और रोता। मैं तो जानता था, मैं ही एक आफत का मारा हूँ। माथुर की दशा देखकर मुझे अपनी विपत्ति भूल गई। तुझे अपनी ही चिन्ता है, कोई दूसरी फिक्र नहीं। जिसके द्वार पर जा पडूँ दो रोटियाँ मिल जायँगी, मगर माथुर के पीछे तो पूरा खटला है। माँ, दो विधवा बहनें, एक

 

भांजी। दो भांजे, एक छोटा भाई। इतने बड़े परिवार के लिए पचास रुपये तो केवल रोटी-दाल के लिए चाहिए। माथुर सच्चा वीर है, देवता है जो इतने बड़े परिवार का पालन कर रहा है। वह अब अपने लिए नहीं, माथुर के लिए दुखी था।

 

देवीजी ने टीका की ‘ज़भी माथुर की भांजी पर डोरे डाल रहा था। दु:ख का भार कैसे हलका करता।’

 

ढपोरसंख ने बिगड़कर कहा, ‘अच्छा तो अब तुम्हीं कहो।’

 

मैंने समझाया –‘तुम तो यार, जरा-जरा सी बात पर तिनक उठते हो ! क्या तुम समझते हो, यह फुलझड़ियाँ मुझे न्याय-पथ से विचलित कर देंगी ?’

 

फिर कहानी शुरू हुई एक दिन आकर बोला, आज मैंने माथुर के उद्धार का उपाय सोच निकाला। मेरे एक माथुर मित्र बैरिस्टर हैं। उनसे जग्गो (माथुर की भांजी) के विवाह के विषय में पत्र-व्यवहार कर रहा हूँ। उसकी एक विधवा बहन को दोनों बच्चों के साथ ससुराल भेज दूँगा। दूसरी विधवा बहन अपने देवर के पास जाने पर राजी है। बस, तीन-चार आदमी रह जायँगे। कुछ मैं दूँगा, कुछ माथुर पैदा करेगा, गुजर हो जायेगा। मगर आज उसके घर का दो महीनों का किराया देना पड़ेगा। मालिक मकान ने सुबह ही से धारना दे रखा है। कहता है, अपना किराया लेकर ही हटूँगा। आपके पास तीस रुपये हों तो दे दीजिए। माथुर के छोटे भाई का वेतन कल-परसों तक मिल जायगा, रुपये मिल जायँगे। एक मित्र संकट में पड़ा हुआ है; दूसरा मित्र उसकी सिफारिश

 

कर रहा है। मुझे इनकार करने का साहस न हुआ ! देवीजी ने उस वक्त नाक-भौं जरूर सिकोड़ा था पर मैंने न माना, रुपये दे दिये।

 

देवीजी ने डंक मारा, ‘यह क्यों नहीं कहते, कि वह रुपये मेरी बहन ने बर्तन खरीदकर भेजने के लिए भेजे थे।’

 

ढपोरसंख ने गुस्सा पीकर कहा, ‘ख़ैर, यही सही ! मैंने रुपये दे दिये।’ मगर मुझे यह उलझन होने लगी, कि इस तरह तो मेरा कचूमर ही निकल जायगा। माथुर पर एक-न-एक संकट रोज ही सवार रहेगा। मैं कहाँ तक उन्हें उबारूँगा। जोशी भी जान खा रहा था कि कहीं कोई जगह दिला दीजिए। संयोग से उन्हीं दिनों मेरे एक आगरे के मित्र आ निकले। काउंसिल में मेम्बर थे। अब जेल में हैं। गाने-बजाने का शौक है, दो-एक ड्रामे भी लिख चुके हैं, अच्छे-अच्छे रईसों से परिचय है ! खुद भी बड़े रसिक हैं। अबकी वह आये, तो मैंने जोशी का उनसे जिक्र किया। उसका ड्रामा भी सुनाया। बोले तो उसे मेरे साथ कर दीजिए। अपना प्राइवेट सेक्रेटरी बना लूँगा। मेरे घर में रहे; मेरे साथ घर के आदमी की तरह रहे। जेब खर्च के लिए मुझसे तीस रुपये महीना लेता जाय। मेरे साथ ड्रामे लिखे। मैं फूला न समाया। जोशी से कहा,। जोशी भी तैयार हो गया; लेकिन जाने के पहले उसे कुछ रुपयों की जरूरत हुई। एक भले आदमी के साथ फटेहालों तो जाते नहीं बनता और न यही उचित था, कि पहले ही दिन से रुपये का तकाजा होने लगे। बहुत काट-छाँट करने पर भी चालीस रुपये का खर्च निकल आया। जूते टूट गये थे, धोतियाँ फट गई थीं, और भी कई खर्च थे जो इस वक्त याद नहीं

 

आते। मेरे पास रुपये न थे। श्यामा से माँगने का हौसला न हुआ।

 

देवीजी बोलीं -‘मेरे पास तो कारूँ का खजाना रखा था न ! कई हजार महीने लाते हो, सौ-दो सौ रुपये बचत में आ ही जाते होंगे।’ ढपोरसंख इस व्यंग्य पर ध्यान न देकर अपनी कथा कहते रहे –रुपये पाकर जोशी ने ठाट बनाया और काउन्सिलर साहब के साथ चले। मैं स्टेशन तक पहुँचाने गया। माथुर भी था। लौटा, तो मेरे दिल पर से एक बोझ उतर गया था।

 

माथुर ने कहा, ‘बड़ा मुहब्बती आदमी है।’

 

मैंने समर्थन किया -‘बड़ा। मुझे तो भाई-सा मालूम होता है।’

 

‘मुझे तो अब घर अच्छा न लगेगा। घर के सब आदमी रोते रहे। मालूम ही न होता था, कि कोई गैर आदमी है। अम्माँ से लड़के की तरह बातें करता था। बहनों से भाई की तरह।’

 

‘बदनसीब आदमी है, नहीं तो जिसका बाप दो हजार रुपये माहवार कमाता हो, वह यों मारा-मारा फिरे।’

 

‘दार्जिलिंग में इनके बाप की दो कोठियाँ हैं ?’

 

‘आई.एम.एस. हैं !’

 

‘जोशी मुझे भी वहीं ले जाना चाहता है। साल-दो-साल में तो वहाँ जायगा ही। कहता है, तुम्हें मोटर की एजेंसी खुलवा दूँगा।’ इस तरह खयाली पुलाव पकाते हुए हम लोग घर आये।

 

मैं दिल में खुश था, कि चलो अच्छा हुआ, जोशी के लिए अच्छा सिलसिला निकल आया। मुझे यह आशा भी बँध चली, कि अबकी उसे वेतन मिलेगा, तो मेरे रुपये देगा। चार-पाँच महीने में चुकता कर देगा। हिसाब लगाकर देखा, तो अच्छी-खासी रकम हो गई थी। मैंने दिल में समझा, यह भी अच्छा ही हुआ। यों जमा करता, तो कभी न जमा होते। इस बहाने से किसी तरह जमा तो हो गये। मैंने यह सोचा कि अपने मित्र से जोशी के वेतन के रुपये पेशगी क्यों न ले लूँ, कह दूँ, उसके वेतन से महीने-महीने काटते रहिएगा। लेकिन अभी मुश्किल से एक सप्ताह हुआ होगा कि एक दिन देखता हूँ, तो जोशी और माथुर, दोनों चले आ रहे हैं। मुझे भय हुआ, कहीं जोशीजी फिर तो नहीं छोड़ आये; लेकिन शंका को दबाता हुआ बोला, ‘क़हो भाई, कब आये ? मजे में तो हो ?’

 

जोशी ने बैठकर एक सिगार जलाते हुए कहा, ‘बहुत अच्छी तरह हूँ। मेरे बाबू साहब बड़े ही सज्जन आदमी हैं। मेरे लिए अलग एक कमरा खाली करा दिया है। साथ ही खिलाते हैं। बिलकुल भाई की तरह रखते हैं। आजकल किसी काम से दिल्ली गये हैं। मैंने सोचा, यहाँ पड़े-पड़े क्या करूँ, तब तक आप ही लोगों से मिलता आऊँ। चलते वक्त बाबू साहब ने मुझसे कहा था, मुरादाबाद से थोड़े-से बर्तन लेते आना, मगर शायद उन्हें रुपये देने की याद नहीं रही। मैंने उस वक्त माँगना भी उचित न समझा। आप एक पचास रुपये दे दीजिएगा। मैं परसों तक जाऊँगा और वहाँ से जाते-ही-जाते भिजवा दूँगा। आप तो जानते हैं, रुपये के मुआमले में वे कितने खरे हैं।’

 

मैंने जरा रुखाई के साथ कहा, ‘रुपये तो इस वक्त मेरे पास नहीं हैं।’

 

देवीजी ने टिप्पणी की -‘क्यों झूठ बोलते हो ? तुमने रुखाई से कहा, था, कि रुपये नहीं हैं ?’

 

ढपोरसंख ने पूछा, ‘और क्या चिकनाई के साथ कहा, था ?’

 

देवीजी -‘तो फिर कागज के रुपये क्यों दे दिये थे ?’ बड़ी रुखाई करनेवाले !

 

ढपोरसंख -‘अच्छा साहब, मैंने हँसकर रुपये दे दिये। बस, अब खुश हुईं। तो भई, मुझे बुरा तो लगा; लेकिन अपने सज्जन मित्र का वास्ता था।’

 

मेरे ऊपर बेचारे बड़ी कृपा रखते हैं। मेरे पास पत्रिका का कागज खरीदने के लिए पचास रुपये रखे हुए थे। वह मैंने जोशी को दे दिये। शाम को माथुर ने आकर कहा, ज़ोशी तो चले गये। कहते थे, बाबू साहब का तार आ गया है। बड़ा उदार आदमी है। मालूम ही नहीं होता, कोई बाहरी आदमी है। स्वभाव भी बालकों का-सा है। भांजी की शादी तय करने को कहते थे। लेन-देन का तो कोई जिक्र है ही नहीं, पर कुछ नजर तो देनी ही पड़ेगी। बैरिस्टर साहब, जिनसे विवाह हो रहा है, दिल्ली के रहने वाले हैं। उनके पास जाकर नजर देनी होगी। जोशीजी चले जायँगे। आज मैंने रुपये भी दे दिये। चलिए, एक बड़ी चिन्ता सिर से टली।

 

मैंने पूछा, ‘रुपये तो तुम्हारे पास न होंगे ?’

 

माथुर ने कहा, ‘रुपये कहाँ थे साहब ! एक महाजन से स्टाम्प लिखकर लिये, दो रुपये सैकड़े सूद पर।’

 

देवीजी ने क्रोध भरे स्वर में कहा, ‘मैं तो उस दुष्ट को पा जाऊँ तो मुँह नोच लूँ। पिशाच ने इस गरीब को भी न छोड़ा।’

 

ढपोरसंख बोला, ‘यह क्रोध तो आपको अब आ रहा है न। तब तो आप भी समझती थीं, कि जोशी दया और धर्म का पुतला है।’

 

देवीजी ने विरोध किया -‘मैंने उसे पुतला-पुतली कभी नहीं समझा। हाँ, तुम्हारी तकलीफों के भुलावे में पड़ जाती थी।’

 

ढपोरसंख -‘तो साहब, इस तरह कोई दो महीने गुजरे, इस बीच में भी जोशी दो-तीन बार आये; मगर मुझसे कुछ माँगे नहीं। हाँ, अपने बाबू साहब के संबंध में तरह-तरह की बातें कीं, जिनसे मुझे दो-चार गल्प लिखने की सामग्री मिल गई।

 

मई का महीना था। एक दिन प्रात:काल जोशी आ पहुँचे। मैंने पूछा, तो मालूम हुआ, उनके बाबू साहब नैनीताल चले गये। इन्हें भी लिये जाते थे; पर उन्होंने हम लोगों के साथ यहाँ रहना अच्छा समझा और चले आये।

 

देवीजी ने फुलझड़ी छोड़ी -‘क़ितना त्यागी था बेचारा। नैनीताल की बहार छोड़कर यहाँ गर्मी में प्राण देने चला आया।’ ढपोरसंख ने इसकी ओर कुछ ध्यान न देकर कहा, ‘मैंने पूछा, कोई नई बात तो नहीं हुई वहाँ ?’

 

जोशी ने हँसकर कहा, ‘भाग्य में तो नई-नई विपत्तियाँ लिखी हैं। उनसे कैसे जान बच सकती है। अबकी भी एक नई विपत्ति सिर पड़ी। यह कहिए, आपका आशीर्वाद था, जान बच गई, नहीं तो अब तक जमुनाजी में बहा

 

चला जाता होता। एक दिन जमुना किनारे सैर करने चला गया। वहाँ तैराकी का मैच था। बहुत-से आदमी तमाशा देखने आये हुए थे। मैं भी एक जगह खड़ा होकर देखने लगा। मुझसे थोड़ी दूर पर एक और महाशय एक युवती के साथ खड़े थे। मैंने बातचीत की, तो मालूम हुआ, मेरी ही बिरादरी के हैं। यह भी मालूम हुआ, मेरे पिता और चाचा, दोनों ही से उनका परिचय है। मुझसे स्नेह की बातें करने लगे तुम्हें इस तरह ठोकरें खाते तो बहुत दिन हो गये; क्यों नहीं चले जाते, अपने माँ-बाप के पास। माना कि उनका लोक-व्यवहार तुम्हें पसन्द नहीं; लेकिन माता-पिता का पुत्र पर कुछ-न-कुछ अधिकार तो होता है। तुम्हारी माताजी को कितना दु:ख हो रहा होगा। सहसा एक युवक किसी तरफ से आ निकला और वृद्ध महाशय तथा युवती को देखकर बोला, ‘आपको शर्म नहीं आती कि आप अपनी युवती कन्या को इस तरह मेले में लिये खड़े हैं।’

 

वृद्ध महाशय का मुँह जरा-सा निकल आया और युवती तुरन्त घूँघट निकालकर पीछे हट गई। मालूम हुआ कि उसका विवाह इसी युवक से ठहरा हुआ है। वृद्ध उदार, सामाजिक विचारों के आदमी थे, परदे के कायल न

 

थे। युवक, वयस में युवक होकर भी खूसट विचारों का आदमी था, परदे का कट्टर पक्षपाती। वृद्ध थोड़ी देर तक तो अपराधी भाव से बातें करते रहे, पर युवक प्रतिक्षण गर्म हो जाता था। आखिर बूढ़े बाबा भी तेज हुए।

 

युवक ने आँखें निकालकर कहा, ‘मैं ऐसी निर्लज्जा से विवाह करना अपने लिए अपमान की बात समझता हूँ।’

 

वृद्ध ने क्रोध से काँपते हुए स्वर में कहा, ‘और मैं तुम-जैसे लंपट से अपनी कन्या का विवाह करना लज्जा की बात समझता हूँ।’

 

युवक ने क्रोध के आवेश में वृद्ध का हाथ पकड़कर धक्का दिया। बातों से न जीतकर अब वह हाथों से काम लेना चाहता था। वृद्ध धक्का खाकर गिर पड़े। मैंने लपककर उन्हें उठाया और युवक को डॉटा। वह वृद्ध को छोड़कर मुझसे लिपट गया। मैं कोई कुश्तीबाज तो हूँ नहीं। वह लड़ना जानता था। मुझे उसने बात-की-बात में गिरा दिया और मेरा गला दबाने लगा। कई आदमी जमा हो गये थे। जब तक कुश्ती होती रही, लोग कुश्ती का आनंद उठाते रहे; लेकिन जब देखा मुआमला संगीन हुआ जाता है, तो तुरन्त बीच-बचाव कर दिया। युवक बूढ़े बाबा से जाते-जाते कह गया – तुम अपनी लड़की को वेश्या बनाकर बाजार में घुमाना चाहते हो, तो

 

अच्छी तरह घुमाओ, मुझे अब उससे विवाह नहीं करना है। वृद्ध चुपचाप खड़े थे और युवती रो रही थी। भाई साहब, तब मुझसे न रहा गया। मैंने कहा, महाशय, आप मेरे पिता के तुल्य हैं और मुझे जानते हैं। यदि आप

 

मुझे इस योग्य समझें तो मैं इन देवीजी को अपनी ह्रदयेश्वरी बनाकर अपने को धन्य समझूँगा। मैं जिस दशा में हूँ, आप देख रहे हैं। संभव है, मेरा जीवन इसी तरह कट जाय, लेकिन श्रृद्धा, सेवा और प्रेम यदि जीवन को सुखी बना सकता है, तो मुझे विश्वास है कि देवी के प्रति मुझमें इन भावों की कमी न रहेगी। बूढ़े बाबा ने गद्गद होकर मुझे कंठ से लगा लिया। उसी क्षण मुझे अपने घर ले गये, भोजन कराया और विवाह का सगुन कर दिया। मैं एक बार युवती से मिलकर उसकी सम्मति लेना चाहता था। बूढ़े बाबा ने मुझे इसकी सहर्ष अनुमति दे दी। युवती से मिलकर मुझे ज्ञात हुआ, कि वह रमणियों में रत्न है। मैं उसकी बुद्धिमत्ता देखकर चकित हो गया। मैंने अपने मन में जिस सुन्दरी की कल्पना की थी, वह उससे हूबहू मिलती है, मुझे उतनी ही

 

देर में विश्वास हो गया कि मेरा जीवन उसके साथ सुखी होगा। मुझे अब आशीर्वाद दीजिए। युवती आपकी पत्रिका बराबर पढ़ती है और आपसे उसे बड़ी श्रृद्धा है। जून में विवाह होना निश्चित हुआ है। मैंने स्पष्ट कह दिया मैं जेवर-कपड़े नाममात्र को लाऊँगा, न कोई धूमधाम ही करूँगा। वृद्ध ने कहा, मैं तो स्वयं यही कहनेवाला था। मैं कोई तैयारी नहीं चाहता, न धूमधाम की मुझे इच्छा है। जब मैंने आपका नाम लिया, कि वह मेरे बड़े के तुल्य हैं तो वह बहुत प्रसन्न हुए। आपके लेखों को वह बड़े आदर से देखते हैं।’

 

मैंने कुछ खिन्न होकर कहा, ‘यह तो सबकुछ है; लेकिन इस समय तुम्हें विवाह करने की सामर्थ्य भी नहीं है। और कुछ न हो, तो पचास रुपये की बँधी हुई आमदनी तो होनी ही चाहिए।’

 

जोशी ने कहा, ‘भाई साहब, मेरा उद्धार विवाह ही से होगा। मेरे घर से निकलने का कारण भी विवाह ही था और घर वापस जाने का कारण भी विवाह ही होगा। जिस समय प्रमीला हाथ बाँधो हुए जाकर पिताजी के

 

चरणों पर गिर पड़ेगी, उनका पाषाण ह्रदय भी पिघल जायगा। समझेंगे विवाह तो हो ही चुका, अब वधू पर क्यों जुल्म किया जाय। जब उसे आश्रय मिल जायगा, तो मुझे झक मारकर बुलायेंगे। मैं इसी जिद पर घर से निकला था, कि अपना विवाह अपने इच्छानुसार बिना कुछ लिये-दिये करूँगा और वह मेरी प्रतिज्ञा पूरी हुई जा रही है। प्रमीला इतनी चतुर है, कि वह मेरे घरवालों को चुटकियों में मना लेगी। मैंने तखमीना लगा लिया है। कुल तीन सौ रुपये खर्च होंगे और यही तीन-चार सौ रुपये मुझे ससुराल से मिलेंगे। मैंने सोचा है, प्रमीला को पहले यहीं लाऊँगा। यहीं से वह मेरे घर पत्र लिखेगी और आप देखिएगा तीसरे ही दिन चचा साहब गहनों की पिटारी लिये आ पहुँचेंगे। विवाह हो जाने पर वह कुछ नहीं कर सकते। इसलिए मैंने विवाह की खबर

 

नहीं दी।’

 

मैंने कहा, लेकिन मेरे पास तो अभी कुछ भी नहीं है भाई। मैं तीन सौ रुपए कहाँ से लाऊँगा ?

 

जोशी ने कहा, ‘तीन सौ रुपये नकद थोड़े ही लगेंगे। कोई सौ रुपये के कपड़े लगेंगे। सौ रुपये की दो-एक सोहाग की चीजें बनवा लूँगा और सौ रुपये राहखर्च समझ लीजिए। उनका मकान काशीपुर में है। वहीं से विवाह

 

करेंगे। यह बंगाली सोनार जो सामने है, आपके कहने से एक सप्ताह के वादे पर जो-जो चीजें माँगूँगा, दे देगा। बजाज भी आपके कहने से दे देगा। नकद मुझे कुल सौ रुपये की जरूरत पड़ेगी और ज्यों ही उधर से लौटा त्यों ही दे दूँगा। बारात में आप और माथुर के सिवा कोई तीसरा आदमी न होगा। आपको मैं कष्ट नहीं देना चाहता, लेकिन जिस तरह अब तक आपने मुझे भाई समझकर सहायता दी है, उसी तरह एक बार और दीजिए। मुझे विश्वास था, कि आप इस शुभ कार्य में आपत्ति न करेंगे। इसलिए मैंने वचन दे दिया। अब तो आपको यह डोंगी पार लगानी ही पड़ेगी।’

 

देवीजी बोलीं मैं कहती थी, ‘उसे एक पैसा मत दो। कह दो हम तुम्हारी शादी-विवाह के झंझट में नहीं पड़ते।

 

ढपोरसंख ने कहा, ‘हाँ, तुमने अबकी बार ज़रूर समझाया, लेकिन मैं क्या करता। शादी का मुआमला; उस पर उसने मुझे भी घसीट लिया था। अपनी इज्जत का कुछ खयाल तो करना ही पड़ता है।’

 

देवीजी ने मेरा लिहाज किया और चुप हो गईं।

 

अब मैं उस वृत्तान्त को न बढ़ाऊँगा। सारांश यह है, कि जोशी ने ढपोरसंख के मत्थे सौ रुपये के कपड़े और सौ रुपये से कुछ ऊपर के गहनों का बोझ लादा। बेचारे ने एक मित्र से सौ रुपये उधार लेकर उसके सफर खर्च को दिया। खुद ब्याह में शरीक हुए। ब्याह में खासी धूमधाम रही। कन्या के पिता ने मेहमानों का आदर-सत्कार खूब किया। उन्हें जल्दी थी; इसलिए वह खुद तो दूसरे ही दिन चले आये; पर माथुर जोशी के साथ विवाह के

 

अन्त तक रहा। ढपोरसंख को आशा थी, कि जोशी ससुराल के रुपये पाते ही माथुर के हाथों भेज देगा, या खुद लेता आयेगा। मगर माथुर भी दूसरे दिन आ गये, खाली हाथ और यह खबर लाये, कि जोशी को ससुराल में

 

कुछ भी हाथ नहीं लगा। माथुर से उन्हें अब मालूम हुआ कि लड़की से जमुना-तट पर मिलने की बात सर्वथा निर्मूल थी। इस लड़की से जोशी बहुत दिनों तक पत्र-व्यवहार करता रहा था। फिर तो ढपोरसंख के कान खड़े हो गये। माथुर से पूछा, ‘अच्छा ! यह बिलकुल कल्पना थी उसकी ?’

 

माथुर– ‘ज़ी हाँ।’

 

ढपोरसंख -‘अच्छा, तुम्हारी भांजी के विवाह का क्या हुआ ?’

 

माथुर -‘ अभी तो कुछ नहीं हुआ।

 

ढपोरसंख -‘मगर जोशी ने कई महीने तक तुम्हारी सहायता तो खूब की ?’

 

माथुर -‘मेरी सहायता वह क्या करता। हाँ, दोनों जून भोजन भले कर लेता था।’

 

ढपोरसंख -‘तुम्हारे नाम पर उसने मुझसे जो रुपये लिये थे, वह तो तुम्हें दिये होंगे ?’

 

माथुर -‘क्या मेरे नाम पर भी कुछ रुपये लिये थे ?’

 

ढपोरसंख -‘हाँ भाई, तुम्हारे घर का किराया देने के लिए तो ले गया था।’

 

माथुर -‘सरासर बेईमानी। मुझे उसने एक पैसा भी नहीं दिया, उलटे और एक महाजन से मेरे नाम पर सौ रुपयों का स्टाम्प लिखकर रुपये लिये।’

 

मैं क्या जानता था, कि धोखा दे रहा है। संयोग से उसी वक्त आगरे से वह सज्जन आ गये जिनके पास जोशी

 

कुछ दिनों रहा था। उन्होंने माथुर को देखकर पूछा, ‘अच्छा ! आप अभी जिंदा हैं। जोशी ने तो कहा था, माथुर मर गया है।’

 

माथुर ने हँसकर कहा, ‘मेरे तो सिर में दर्द भी नहीं हुआ।’

 

ढपोरसंख ने पूछा, ‘अच्छा, आपके मुरादाबादी बरतन तो पहुँच गये ?’

 

आगरा-निवासी मित्र ने कुतूहल से पूछा, ‘क़ैसे मुरादाबादी बरतन ?’

 

‘वही जो आपने जोशी की मारफत मँगवाये थे ?’

 

‘मैंने कोई चीज उसकी मारफत नहीं मँगवाई। मुझे जरूरत होती तो आपको सीधा न लिखता !’

 

माथुर ने हँसकर कहा, ‘तो यह रुपये भी उसने हजम कर लिये।’

 

आगरा-निवासी मित्र बोले -‘मुझसे भी तो तुम्हारी मृत्यु के बहाने सौ रुपये लाया था। यह तो एक ही जालिया निकला। उफ ! कितना बड़ा चकमा दिया है इसने ! जिन्दगी में यह पहला मौका है, कि मैं यों बेवकूफ बना।

 

बच्चा को पा जाऊँ तो तीन साल को भेजवाऊँ। कहाँ हैं आजकल ?’

 

माथुर ने कहा, ‘अभी तो ससुराल में है।’

 

ढपोरसंख का वृत्तान्त समाप्त हो गया। जोशी ने उन्हीं को नहीं, माथुर जैसे और गरीब, आगरा-निवासी सज्जन-जैसे घाघ को भी उलटे छुरे से मूड़ा और अगर भंडा न फूट गया होता तो अभी न-जाने कितने दिनों तक मूड़ता।

 

उसकी इन मौलिक चालों पर मैं भी मुग्ध हो गया। बेशक ! अपने फन का उस्ताद है, छॅटा हुआ गुर्गा।

 

देवीजी बोलीं –सुन ली आपने सारी कथा ?

 

मैंने डरते-डरते कहा, ‘हाँ, सुन तो ली।’

 

‘अच्छा, तो अब आपका क्या फैसला है ? इन्होंने घोंघापन किया या नहीं ? जिस आदमी को एक-एक पैसे के लिए दूसरों का मुँह ताकना पड़े, वह घर के पाँच-छ: सौ रुपये इस तरह उड़ा दे, इसे आप उसकी सज्जनता कहेंगे या बेवकूफी ? अगर इन्होंने यह समझकर रुपये दिये होते, कि पानी में फेंक रहा हूँ, तो मुझे कोई आपत्ति न थी; मगर यह बराबर इस धोखे में रहे और मुझे भी उसी धोखे में डालते रहे, कि वह घर

 

का मालदार है और मेरे सब रुपये ही न लौटा देगा; बल्कि और भी कितने सलूक करेगा। जिसका बाप दो हजार रुपये महीना पाता हो, जिसके चाचा की आमदनी एक हजार मासिक हो और एक लाख की जायदाद घर में हो, वह और कुछ नहीं तो यूरोप की सैर तो एक बार करा ही सकता था। मैं अगर कभी मना भी करती, तो आप बिगड़ जाते और उदारता का उपदेश देने लगते थे। यह मैं स्वीकार करती हूँ, कि शुरू में मैं भी धोखे में आ गई थी, मगर पीछे से मुझे उसका सन्देह होने लगा था। और विवाह के समय तो मैंने जोर देकर कह दिया था, कि अब एक पाई भी न दूँगी। पूछिए, झूठ कहती हूँ, या सच ? फिर अगर मुझे धोखा हुआ; तो मैं घर में रहनेवाली स्त्री हूँ। मेरा धोखे में आ जाना क्षम्य है, मगर यह जो लेखक और विचारक और उपदेशक बनते हैं, यह क्यों धोखे में आये और जब मैं इन्हें समझाती थी, तो यह क्यों अपने को बुद्धिमत्ता का अवतार समझकर मेरी बातों की उपेक्षा करते थे ? देखिए, रू-रिआयत न कीजिएगा, नहीं मैं बुरी तरह खबर लूँगी। मैं निष्पक्ष न्याय चाहती हूँ।’

 

ढपोरसंख ने दर्दनाक आँखों से मेरी तरफ देखा, जो मानो भिक्षा माँग रही थीं। उसी के साथ देवीजी की आग्रह, आदेश और गर्व से भरी आँखें ताक रही थीं। एक को अपनी हार का विश्वास था, दूसरी को अपनी जीत

 

का। एक रिआयत चाहती थी, दूसरी सच्चा न्याय। मैंने कृत्रिम गंभीरता से अपना निर्णय सुनाया मेरे मित्र ने कुछ भावुकता से अवश्य काम लिया है, पर उनकी सज्जनता निर्विवाद है। ढपोरसंख उछल पड़े और मेरे गले लिपट गये। देवीजी ने सगर्व नेत्रों से देखकर कहा, यह तो मैं जानती ही थी, कि चोर-चोर मौसेरे भाई होंगे।

 

तुम दोनों एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हो। अब तक रुपये में एक पाई मर्दों का विश्वास था। आज तुमने वह भी उठा दिया। आज निश्चय हुआ, कि पुरुष छली, कपटी, विश्वासघाती और स्वार्थी होते हैं। मैं इस निर्णय को नहीं

 

मानती। मुफ्त में ईमान बिगाड़ना इसी को कहते हैं। भला मेरा पक्ष लेते, तो अच्छा भोजन मिलता, उनका पक्ष लेकर आपको सड़े सिगरेटों के सिवा और क्या हाथ लगेगा। खैर, हाँड़ी गई, कुत्ते की जात तो पहचानी गई। उस दिन से दो-तीन बार देवीजी से भेंट हो चुकी है और वही फटकार सुननी पड़ी है। वह न क्षमा चाहती हैं; न क्षमा कर सकती हैं।

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