कहानी – प्रेम का उदय – (लेखक – मुंशी प्रेमचंद)

Premchand_4_aभोंदू पसीने में तर, लकड़ी का एक गट्ठा सिर पर लिए आया और उसे जमीन पर पटककर बंटी के सामने खड़ा हो गया, मानो पूछ रहा हो ‘क्या अभी तेरा मिजाज ठीक नहीं हुआ ? ‘

संध्या हो गयी थी, फिर भी लू चलती थी और आकाश पर गर्द छायी हुई थी। प्रकृति रक्त शून्य देह की भाँति शिथिल हो रही थी। भोंदू प्रात:काल घर से निकला था। दोपहरी उसने एक पेड़ की छाँह में काटी थी। समझा था इस तपस्या से देवीजी का मुँह सीधा हो जायगा; लेकिन आकर देखा, तो वह अब भी कोप भवन में थी।

 

भोंदू ने बातचीत छेड़ने के इरादे से कहा, लो, एक लोटा पानी दे दो, बड़ी प्यास लगी है। मर गया सारे दिन। बाजार में जाऊँगा, तो तीन आने से बेसी न मिलेंगे। दो-चार सैंकडे मिल जाते, तो मेहनत सुफल हो जाती। बंटी ने सिरकी के अन्दर बैठे-बैठे कहा, ‘धरम भी लूटोगे और पैसे भी। मुँह धो रखो।’

 

भोंदू ने भॅवें सिकोड़कर कहा, ‘क्या धरम-धरम बकती है ! धरम करना हँसी-खेल नहीं है। धरम वह करता है, जिसे भगवान् ने माना हो। हम क्या खाकर धरम करें। भर-पेट चबेना तो मिलता नहीं, धरम करेंगे।’ बंटी ने अपना वार ओछा पड़ता देखकर चोट पर चोट की ‘संसार में कुछ ऐसे भी महात्मा हैं, जो अपना पेट चाहे न भर सकें, पर पड़ोसियों को नेवता देते फिरते हैं; नहीं तो सारे दिन बन-बन लकड़ी न तोड़ते फिरते। ऐसे धरमात्मा लोगों को मेहरिया रखने की क्यों सूझती है, यही मेरी समझ में नहीं आता। धरम की गाड़ी क्या अकेले नहीं खींचते बनती ? ‘ भोंदू इस चोट से तिलमिला गया। उसकी जिहरदार नसें तन गयीं; माथे पर बल पड़ गये। इस अबला का मुँह वह एक डपट में बंद कर सकता था; पर डॉट-डपट उसने न सीखी थी। जिसके पराक्रम की सारे कंजड़ों में धूम थी, जो अकेला सौ-पचास जवानों का नशा उतार सकता था, वह इस अबला के सामने चूँ तक न कर सका। दबी जबान से बोला, ‘मेहरिया धरम बेचने के लिए नहीं लायी जाती, धरम पालने के लिए लायी जाती है।’

 

यह कंजड़-दंपती आज तीन दिन से और कई कंजड़ परिवारों के साथ इस बाग में उतरा हुआ था। सारे बाग में सिरकियाँ-ही-सिरकियाँ दिखायी देती थीं। उसी तीन हाथ चौड़ी और चार हाथ लम्बी सिरकी के अन्दर एक-एक

 

पूरा परिवार जीवन के समस्त व्यापारों के साथ कल्पवास-सा कर रहा था। एक किनारे चक्की थी, एक किनारे रसोई का स्थान, एक किनारे दो-एक अनाज के मटके। द्वार पर एक छोटी-सी खटोली बालकों के लिए पड़ी थी।

 

हरेक परिवार के साथ दो-दो भैंसें या गधे थे। जब डेरा कूच होता था तो सारी गृहस्थी इन जानवरों पर लाद दी जाती थी। यही इन कंजड़ों का जीवन था। सारी बस्ती एक साथ चलती थी। आपस में ही शादी-ब्याह, लेन-देन,

 

झगड़े-टंटे होते रहते थे। इस दुनिया के बाहर वाला अखिल संसार उनके लिए केवल शिकार का मैदान था। उनके किसी इलाके में पहुँचते ही वहाँ की पुलिस तुरंत आकर अपनी निगरानी में ले लेती थी। पड़ाव के चारों तरफ चौकीदार का पहरा हो जाता था। स्त्री या पुरुष किसी गाँव में जाते तो दो-चार चौकीदार उनके साथ हो लेते थे। रात को भी उनकी हाजिरी ली जाती थी। फिर भी आस-पास के गाँव में आतंक छाया हुआ था; क्योंकि कंजड़ लोग बहुधा घरों में घुसकर जो चीज चाहते, उठा लेते और उनके हाथ में जाकर कोई चीज लौट न सकती थी। रात में ये लोग अकसर चोरी करने निकल जाते थे। चौकीदारों को उनसे मिले रहने में ही अपनी कुशल दीखती थी। कुछ हाथ भी लगता था और जान भी बची रहती थी। सख्ती करने में प्राणों का भय था, कुछ मिलने का तो जिक्र ही क्या; क्योंकि कंजड़ लोग एक सीमा के बाहर किसी का दबाव न मानते थे। बस्ती में अकेला भोंदू अपनी मेहनत की कमाई खाता था; मगर इसलिए नहीं कि वह पुलिसवालों की खुशामद न कर सकता था। उसकी स्वतंत्र आत्मा अपने बाहुबल से प्राप्त किसी वस्तु का हिस्सा देना स्वीकार न करती थी; इसलिए वह यह नौबत आने ही न देती थी।

 

बंटी को पति की यह आचार-निष्ठा एक आँख न भाती थी। उसकी और बहनें नयी-नयी साड़ियाँ और नये-नये आभूषण पहनतीं, तो बंटी उन्हें देख-देखकर पति की अकर्मण्यता पर कुढ़ती थी। इस विषय पर दोनों में कितने

 

ही संग्राम हो चुके थे; लेकिन भोंदू अपना परलोक बिगाड़ने पर राजी न होता था। आज भी प्रात:काल यही समस्या आ खड़ी हुई थी और भोंदू लकड़ी काटने जंगलों में निकल गया था। सैंकडे मिल जाते, तो आँसू पुंछते, पर आज सैंकडे भी न मिले। बंटी ने कहा, ‘ज़िनसे कुछ नहीं हो सकता, वही धरमात्मा बन जाते

 

हैं। रॉड़ अपने माँड़ ही में खुश है ? ‘

 

भोंदू ने पूछा, ‘तो मैं निखट्टू हूँ ? ‘

 

बंटी ने इस प्रश्न का सीधा-सादा उत्तर न देकर कहा, ‘मैं क्या जानूँ,तुम क्या हो ? मैं तो यही जानती हूँ कि यहाँ धेले -धेले की चीज के लिए तरसना पड़ता है। यहीं सबको पहनते-ओढ़ते, हँसते-खेलते देखती हूँ। क्या मुझे पहनने-ओढ़ने, हँसने-खेलने की साध नहीं है ? तुम्हारे पल्ले पड़कर जिंदगानी नष्ट हो गयी।’

 

भोंदू ने एक क्षण विचार-मग्न रहकर कहा, ‘ज़ानती है, पकड़ जाऊँगा,तो तीन साल से कम की सजा न होगी।’

 

बंटी विचलित न हुई। बोली, ‘ज़ब और लोग नहीं पकड़ जाते; तो तुम्हीं पकड़ जाओगे ? और लोग पुलिस को मिला लेते हैं, थानेदार के पाँव सहलाते हैं, चौकीदार की खुशामद करते हैं।’

 

‘तू चाहती है, मैं भी औरों की तरह सबकी चिरौरी करता फिरूँ ? ‘

 

बंटी ने अपना हठ न छोड़ा –‘मैं तुम्हारे साथ सती होने नहीं आयी। फिर तुम्हारे छुरे-गँड़ासे को कोई कहाँ तक डरे। जानवर को भी जब घास-भूसा नहीं मिलता, तो पगहा तुड़ाकर किसी के खेत में पैठ जाता है। मैं तो आदमी हूँ।’

 

भोंदू ने इसका कुछ जवाब न दिया। उसकी स्त्री कोई दूसरा घर कर ले, यह कल्पना उसके लिए अपमान से भरी थी। आज बंटी ने पहली बार यह धमकी दी। अब तक भोंदू इस तरफ से निश्चिन्त था। अब यह नयी

 

संभावना उसके सम्मुख उपस्थित हुई। उस दुर्दिन को वह अपना काबू चलते अपने पास न आने देगा।

 

आज भोंदू की दृष्टि में वह इज्जत नहीं रही, वह भरोसा नहीं रहा। मजबूत दीवार को टिकौने की जरूरत नहीं। जब दीवार हिलने लगती है, तब हमें उसको सँभालने की चिन्ता होती है। आज भोंदू को अपनी दीवार हिलती

 

हुई मालूम होती थी। आज तक बंटी अपनी थी। वह जितना अपनी ओर से निश्चिन्त था, उतना ही उसकी ओर से भी था। वह जिस तरह खुद रहता था उसी तरह उसको भी रखता था। जो खुद खाता था, वही उसको खिलाता था, उसके लिए कोई विशेष फिक्र न थी; पर आज उसे मालूम हुआ कि वह अपनी नहीं है, अब उसका विशेष रूप से सत्कार करना होगा, विशेष रूप से दिलजोई करनी होगी।

 

सूर्यास्त हो रहा था। उसने देखा, उसका गधा चरकर चुपचाप सिर झुकाये चला आ रहा है। भोंदू ने कभी उसकी खाने-पीने की चिन्ता न की थी; क्योंकि गधा किसी और को अपना स्वामी बनाने की धमकी न दे सकता था। भोंदू ने बाहर आकर आज गधे को पुचकारा, उसकी पीठ सहलायी और तुरन्त उसे पानी पिलाने के लिए डोल और रस्सी लेकर चल दिया। इसके दूसरे ही दिन कस्बे में एक धनी ठाकुर के घर चोरी हो गयी। उस

 

रात को भोंदू अपने डेरे पर न था। बंटी ने चौकीदार से कहा, ‘वह जंगल से नहीं लौटा। प्रात:काल भोंदू आ पहुँचा। उसकी कमर में रुपयों की एक थैली थी। कुछ सोने के गहने भी थे। बंटी ने तुरन्त गहनों को ले जाकर

 

एक वृक्ष की जड़ में गाड़ दिया। रुपयों की क्या पहचान हो सकती थी। भोंदू ने पूछा, ‘अगर कोई पूछे, इतने सारे रुपये कहाँ मिले, तो क्या कहोगी ?

 

बंटी ने आँखें नचाकर कहा, ‘क़ह दूँगी, क्यों बताऊँ ? दुनिया कमाती है, तो किसी को हिसाब देने जाती है ? हमीं क्यों अपना हिसाब दें।’

 

भोंदू ने संदिग्ध भाव से गर्दन हिलाकर कहा, ‘यह कहने से गला न छूटेगा, बंटी ! तू कह देना, मैं तीन-चार मास से दो-दो, चार-चार रुपये महीना जमा करती आई हूँ। हमारा खरच ही कौन बड़ा लंबा है।’

 

दोनों ने मिलकर बहुत-से जवाब सोच निकाले — ‘ज़ड़ी-बूटियाँ बेचते हैं।’

 

एक-एक जड़ी के लिए मुट्ठी-मुट्ठी भर रुपये मिल जाते हैं। खस, सैंकडे, जानवरों की खालें, नख और चर्बी, सभी बेचते हैं। इस ओर से निश्चिन्त होकर दोनों बाजार चले। बंटी ने अपने लिए तरह-तरह के कपड़े, चूड़ियाँ, टिकुलियाँ, बुंदे, सेंदुर, पान-तमाखू, तेल और मिठाई ली। फिर दोनों जने शराब की दूकान गये। खूब शराब पी। फिर दो बोतल शराब रात के लिए लेकर दोनों घूमते-घामते, गाते-बजाते घड़ी रात गये डेरे पर लौटे। बंटी के पाँव आज जमीन पर न पड़ते थे। आते ही बन-ठनकर पड़ोसियों को अपनी छवि दिखाने लगी। जब वह लौटकर अपने घर आयी और भोजन पकाने लगी, तब पड़ोसियों ने टिप्पणियाँ करनी शुरू कीं ‘कहीं गहरा हाथ मारा है।’

 

‘बड़ा धरमात्मा बना फिरता था।’

 

‘बगला भगत है।’

 

‘बंटी तो आज जैसे हवा में उड़ रही है।’

 

‘आज भोंदुआ की कितनी खातिर हो रही है। नहीं तो कभी एक लुटिया पानी देने भी न उठती थी।’

 

रात को भोंदू को देवी की याद आयी। आज तक कभी उसने देवी की वेदी पर बकरे का बलिदान न किया था। पुलिस को मिलाने में ज्यादा खर्च था। कुछ आत्म-सम्मान भी खोना पड़ता। देवीजी केवल एक बकरे में

 

राजी हो जाती हैं। हाँ, उससे एक गलती जरूर हुई थी। उसकी बिरादरी के और लोग साधारणतया कार्यसिध्दि के पहले ही बलिदान दिया करते थे। भोंदू ने यह खतरा न लिया। जब तक माल हाथ न आ जाय, उसके भरोसे पर देवी-देवताओं को खिलाना उसकी व्यावसायिक बुद्धि को न जँचा। औरों से अपने कृत्य को गुप्त रखना भी चाहता था; इसलिए किसी को सूचना भी न दी, यहाँ तक कि बंटी से भी न कहा, बंटी तो भोजन बना रही थी, वह बकरे की तलाश में घर से निकल पड़ा।

 

बंटी ने पूछा, ‘अब भोजन करने के जून कहाँ चले ? ‘

 

‘अभी आता हूँ।’

 

‘मत जाओ, मुझे डर लगता है।’

 

भोंदू स्नेह के नवीन प्रकाश से खिलकर बोला, ‘मुझे देर न लगेगी। तू न यह गँड़ासा अपने पास रख ले।’

 

उसने गँड़ासा निकालकर बंटी के पास रख दिया और निकला। बकरे की समस्या बेढब थी। रात को बकरा कहाँ से लाता ? इस समस्या को भी उसने एक नये ढंग से हल किया। पास की बस्ती में एक गड़रिये के पास

 

कई बकरे पले थे। उसने सोचा, वहीं से एक बकरा उठा लाऊँ। देवीजी को अपने बलिदान से मतलब है, या इससे कि बकरा कैसे आया और कहाँ से आया।

 

मगर बस्ती के समीप पहुँचा ही था कि पुलिस के चार चौकीदारों ने उसे गिरफ्तार कर लिया और मुश्कें बाँधकर थाने ले चले। बंटी भोजन पकाकर अपना बनाव-सिंगार करने लगी। आज उसे अपना जीवन सफल जान पड़ता था। आनंद से खिली जाती थी। आज जीवन में पहली बार उसके सिर में सुगन्धित तेल पड़ा। आईना उसके पास एक पुराना अंधा-सा पड़ा हुआ था। आज वह नया आईना लाई थी। उसके सामने बैठकर उसने

 

अपने केश सँवारे। मुँह पर उबटन मला। साबुन लाना भूल गयी थी। साहब लोग साबुन लगाने ही से तो इतने गोरे हो जाते हैं। साबुन होता, तो उसका रंग कुछ तो निखर जाता। कल वह अवश्य साबुन की कई बट्टियाँ लायेगी और रोज लगायेगी। केश गूँथकर उसने माथे पर अलसी का लुआब लगाया, जिसमें बाल न बिखरने पायें। फिर पान लगाये, चूना ज्यादा हो गया था। गलफड़ों में छाले पड़ गये; लेकिन उसने समझा शायद पान खाने का यही मजा है। आखिर कड़वी मिर्च भी तो लोग मजे में खाते हैं। गुलाबी साड़ी पहन और फूलों का गजरा गले में डालकर उसने आईने में अपनी सूरत देखी, तो उसके आबनूसी रंग पर लाली दौड़ गयी। आप ही आप लज्जा से उसकी आँखें झुक गयीं। दरिद्रता की आग से नारीत्व भी भस्म हो जाता है, नारीत्व की लज्जा का क्या जिक्र। मैले-कुचैले कपड़े पहनकर लजाना ऐसा ही है, जैसे कोई चबैने में सुगन्ध लगाकर खाये।

 

इस तरह सजकर बंटी भोंदू की राह देखने लगी। जब अब भी वह न आया, तो उसका जी झुँझलाने लगा। रोज तो साँझ ही से द्वार पर पड़ रहते थे, आज न-जाने कहाँ जाकर बैठ रहे। शिकारी अपनी बंदूक भर लेने

 

के बाद इसके सिवा और क्या चाहता है कि शिकार सामने आये। बंटी के सूखे ह्रदय में आज पानी पड़ते ही उसका नारीत्व अंकुरित हो गया। झुँझलाहट के साथ उसे चिन्ता भी होने लगी। उसने बाहर निकलकर कई बार पुकारा। उसके कंठस्वर में इतना अनुराग कभी न था। उसे कई बार भान हुआ कि भोंदू आ रहा है, वह हर बार सिरकी के अन्दर दौड़ आयी और आईने में सूरत देखी कि कुछ बिगड़ न गया हो। ऐसी धड़कन, ऐसी उलझन, उसकी अनुभूति से बाहर थी।

 

बंटी सारी रात भोंदू के इन्तजार में उद्विग्न रही। ज्यों-ज्यों रात बीतती थी, उसकी शंका तीव्र होती जाती थी। आज ही उसके वास्तविक जीवन का आरंभ हुआ था और आज ही यह हाल। प्रात:काल वह उठी, तो अभी कुछ अँधेरा ही था। इस रतजगे से उसका चित्त खिन्न और सारी देह अलसाई हुई थी। रह-रहकर भीतर से एक लहर

 

भी उठती थी, आँखें भर-भर आती थीं। सहसा किसी ने कहा, ‘अरे बंटी, भोंदू रात पकड़ गया।’

 

बंटी थाने पहुँची तो पसीने में तर थी और दम फूल रहा था। उसे भोंदू पर दया न थी, क्रोध आ रहा था। सारा जमाना यही काम करता है और चैन की बंसी बजाता है। उन्होंने कहते-कहते हाथ भी लगाया, तो चूक गये। नहीं सहूर था, तो साफ कह देते, मुझसे यह काम न होगा। मैं यह थोड़े ही कहती थी कि आग में फाँद पड़ो। उसे देखते ही थानेदार ने धौंस जमायी ‘यही तो है भोंदुआ की औरत, इसे भी पकड़ लो।’ बंटी ने हेकड़ी जतायी ‘हाँ-हाँ पकड़ लो, यहाँ किसी से नहीं डरते। जब कोई काम ही नहीं करते, तो डरे क्यों।’

 

अफसर और मातहत सभी की अनुरक्त आँखें बंटी की ओर उठने लगीं। भोंदू की तरफ से लोगों के दिल कुछ नर्म हो गये। उसे धूप से छाँह में बैठा दिया गया। उसके दोनों हाथ पीछे बँधो हुए थे और धूल-धूसरित काली देह पर भी जूतों और कोड़ों के रक्तमय मार साफ नजर आ रहे थे। उसने एक बार बंटी की ओर देखा, मानो कह रहा था ‘देखना, कहीं इन लोगों के धोखे में न आ जाना।’

 

थानेदार ने डॉट बतायी ‘ज़रा इसकी दीदा-दिलेरी देखो, जैसे देवी ही तो है; मगर इस फेर में न रहना। यहाँ तुम लोगों की नस-नस पहचानता हूँ। इतने कोड़े लगाऊँगा कि चमड़ी उड़ जायगी। नहीं तो सीधे से कबूल दो। सारा माल लौटा दो। इसी में खैरियत है।’ भोंदू ने बैठे-बैठे कहा, ‘क्या कबूल दें। जो देश को लूटते हैं, उनसे तो कोई नहीं बोलता, जो बेचारे अपनी गाढ़ी कमाई की रोटी खाते हैं, उनका गला काटने को पुलिस भी तैयार रहती

 

है। हमारे पास किसी को नजर-भेंट देने के लिए पैसे नहीं हैं।’

 

थानेदार ने कठोर स्वर से कहा, ‘हाँ-हाँ; जो कुछ कोर-कसर रह गयी हो, वह पूरी कर दे। किरकिरी न होने पाये। मगर इन बैठकबाजियों से बच नहीं सकते। अगर एकबाल न किया, तो तीन साल को जाओगे। मेरा क्या

 

बिगड़ता है। अरे छोटेसिंह, जरा लाल मिर्च की धूनी तो दो इसे। कोठरी बंद करके पसेरी-भर मिर्चे सुलगा दो, अभी माल बरामद हुआ जाता है।’

 

भोंदू ने ढिठाई से कहा, ‘दारोगाजी, बोटी काट डालो, लेकिन कुछ हाथ न लगेगा। तुमने मुझे रातभर पिटवाया है, मेरी एक-एक हड्डी चूर-चूर हो गयी है। कोई दूसरा होता तो अब तक सिधार गया होता। क्या तुम समझते हो, आदमी को रुपये-पैसे जान से प्यारे होते हैं ? जान ही के लिए तो आदमी सब तरह के कुकरम करता है। धूनी सुलगाकर भी देख लो।’ दारोगाजी को अब विश्वास आया कि इस फौलाद को झुकाना मुश्किल है। भोंदू की मुखाकृति से शहीदों का-सा आत्म-समर्पण झलक रहा था। यद्यपि उनके हुक्म की तामील होने लगी, कांस्टेबलों ने भोंदू को एक कोठरी में बंद कर दिया, दो आदमी मिर्चे लाने दौड़े, लेकिन दारोगा की युद्ध-नीति बदल

 

गयी थी। बंटी का ह्रदय क्षोभ से फटा जाता था। वह जानती थी, चोरी करके एकबाल कर लेना कंजड़ जाति की नीति में महान् लज्जा की बात है; लेकिन क्या यह सचमुच मिर्च की धूनी सुलगा देंगे ? इतना कठोर है इनका ह्रदय ?

 

सालन बघारने में कभी मिर्च जल जाती है, तो छींकों और खाँसियों के मारे दम निकलने लगता है। जब नाक के पास धूनी सुलगाई जायगी तब तो प्राण ही निकल जायँगे। उसने जान पर खेलकर कहा, ‘दारोगाजी, तुम समझते होगे कि इन गरीबों की पीठ पर कोई नहीं है; लेकिन मैं कहे देती हूँ, हाकिम से रत्ती-रत्ती हाल कह दूँगी। भला चाहते हो, तो उसे छोड़ दो, नहीं तो इसका हाल बुरा होगा।’

 

थानेदार ने मुस्कराकर कहा, ‘तुझे क्या, वह मर जायगा, किसी और के नीचे बैठ जाना। जो कुछ जमा-जथा लाया होगा, वह तो तेरे ही हाथ में होगी। क्यों नहीं एकबाल करके उसे छुड़ा लेती। मैं वादा करता हूँ, मुकदमा

 

न चलाऊँगा। सब माल लौटा दे। तूने ही उसे मंत्र दिया होगा। गुलाबी साड़ी, पान और खुशबूदार तेल के लिए तू ही ललच रही होगी। उसकी इतनी साँसत हो रही है और तू खड़ी देख रही है।’

 

शायद बंटी की अन्तरात्मा को यह विश्वास न था कि ये लोग इतने अमानुषीय अत्याचार कर सकते हैं; लेकिन जब सचमुच धूनी सुलगा दी गयी, मिर्च की तीखी जहरीली झार फैली और भोंदू के खाँसने की आवाजें कानों

 

में आयीं, तो उसकी आत्मा कातर हो उठी। उसका वह दुस्साहस झूठे रंग की भाँति उड़ गया। उसने दारोगाजी के पाँव पकड़ लिए और दीन भाव से बोली, ‘मालिक, मुझ पर दया करो। मैं सबकुछ दे दूँगी।’

 

धूनी उसी वक्त हटा ली गयी।

 

भोंदू ने सशंक होकर पूछा, ‘धूनी क्यों हटाते हो ? ‘

 

एक चौकीदार ने कहा, ‘तेरी औरत ने एकबाल कर लिया।’

 

भोंदू की नाक, आँख, मुँह से पानी जारी था। सिर चक्कर खा रहा था। गले की आवाज बंद-सी हो गयी थी; पर वह वाक्य सुनते ही वह सचेत हो गया। उसकी दोनों मुट्ठियाँ बँध गयीं। बोला, ‘क्या कहा, ? ‘

 

‘कहा, क्या, चोरी खुल गयी। दारोगाजी माल बरामद करने गये हुए हैं। पहले ही एकबाल कर लिया होता, तो क्यों इतनी साँसत होती ?’

 

भोंदू ने गरजकर कहा, ‘वह झूठ बोलती है।’

 

‘वहाँ माल बरामद हो गया, तुम अभी अपनी ही गा रहे हो।’

 

परम्परा की मर्यादा को अपने हाथों भंग होने की लज्जा से भोंदू का मस्तक झुक गया। इस घोर अपमान के बाद अब उसे अपना जीवन दया, घृणा और तिरस्कार इन सभी दशाओं से निखिद जान पड़ता था। वह अपने

 

समाज में पतित हो गया था। सहसा बंटी आकर खड़ी हो गयी और कुछ कहना ही चाहती थी कि

 

भोंदू की रौद्रमुद्रा देखकर उसकी जबान बन्द हो गयी। उसे देखते ही भोंदू की आहत मर्यादा किसी आहत सर्प की भाँति तड़प उठी। उसने बंटी को अंगारों-सी तपती हुई लाल आँखों से देखा। उन आँखों में हिंसा की आग

 

जल रही थी। बंटी सिर से पाँव तक काँप उठी। वह उलटे पाँव वहाँ से भागी। किसी देवता के अग्निबाण के समान वे दोनों अंगारों-सी आँखें उसके ह्रदय में चुभने लगीं।

 

थाने से निकलकर बंटी ने सोचा, अब कहाँ जाऊँ, भोंदू उसके साथ होता तो वह पड़ोसियों के तिरस्कार को सह लेती। इस दशा में उसके लिए अपने घर जाना असम्भव था। वे दोनों अंगारे-सी आँखें उसके ह्रदय में चुभी

 

जाती थीं; लेकिन कल की सौभाग्य-विभूतियों का मोह उसे डेरे की ओर खींचने लगा। शराब की बोतल अब भी भरी धारी थी। फुलौड़ियाँ छींके पर हाँड़ी में धारी थीं। वह तीव्र लालसा, जो मृत्यु को सम्मुख देखकर भी संसार के भोग्य पदार्थों की ओर मन को चलायमान कर देती है, उसे खींचकर डेरे की ओर ले चली।

 

दोपहर हो गया था। वह पहाड़ पर पहुँची, तो सन्नाटा छाया हुआ था।अभी कुछ देर पहले जो स्थान जीवन का क्रीड़ा-क्षेत्र बना हुआ था, बिलकुल निर्जन हो गया था। बिरादरीवालों के तिरस्कार का सबसे भयंकर रूप था।

 

सभी ने उसे त्याज्य समझ लिया। केवल उसकी सिरकी उस निर्जनता में रोती हुई खड़ी थी। बंटी ने उसके अंदर पाँव रखे, तो उसके मन की कुछ वही दशा हुई, जो अकेला घर देखकर किसी चोर की होती है। कौन-कौन-सी चीज समेटे। उस कुटी में उसने रो-रोकर पाँच वर्ष काटे थे; पर आज उसे उससे वही ममता हो रही थी, जो किसी माता को अपने दुर्गुणी पुत्र को देखकर होती है, जो बरसों के बाद परदेश से लौटा हो। हवा से कुछ चीजें इधर-उधर हो गयी थीं। उसने तुरन्त उन्हें सँभालकर रखा। फुलौड़ियों की हाँड़ी छींके पर कुछ ठंडी हो गयी थी। शायद उस पर बिल्ली झपटी थी। उसने जल्दी से हाँड़ी उतारकर देखी। फुलौड़ियाँ अछूती थीं। पान पर जो गीला कपड़ा लपेटा था, वह सूख गया था। उसने तुरन्त कपड़ा तर कर दिया।

 

किसी के पाँव की आहट पाकर उसका कलेजा धक्-से हो गया। भोंदू आ रहा है। उसकी वह दोनों अंगारे-सी आँखें ! उसके रोयें खड़े हो गये। भोंदू के क्रोध का उसे दो-एक बार अनुभव हो चुका था, लेकिन उसने दिल

 

को मजबूत किया। क्यों मारेगा ? कुछ कहेगा, कुछ पूछेगा, कुछ सवाल-जवाब करेगा कि योंही गँड़ासा चला देगा। उसने उसके साथ कोई बुराई नहीं की। आफत से उसकी जान बचायी। मरजाद जान से प्यारी नहीं होती। भोंदू को होगी, उसे नहीं है। क्या इतनी-सी बात के लिए वह उसकी जान ले लेगा। उसने सिरकी के द्वार से झाँका। भोंदू न था, केवल उसका गधा चला आ रहा था।

 

बंटी आज उस अभागे-से गधे को देखकर ऐसी प्रसन्न हुई, मानो अपना भाई नैहर से बतासों की पोटली लिये थका-माँदा चला आता हो। उसने जाकर उसकी गर्दन सहलायी और उसके थूथन को अपने मुँह से लगा लिया। वह उसे फूटी आँखों न भाता था; पर आज उससे उसे कितनी आत्मीयता हो गयी थी। वह दोनों अंगारे-सी आँखें उसे घूर रही थीं। वह सिहर उठी। उसने फिर सोचा क्या किसी तरह न छोड़ेगा ? वह रोती हुई उसके

 

पैरों पर गिर पड़ेगी। क्या तब भी न छोड़ेगा ? इन आँखों की वह कितनी सराहना किया करता था। इनमें आँसू बहते देखकर भी उसे दया न आयेगी ? बंटी ने चुक्कड़ में शराब उँड़ेलकर पी ली और छींके से फुलौड़ियाँ

 

उतारकर खायीं। जब उसे मरना ही है, तो साध क्यों रह जाय। वह दोनों अंगारे-सी आँखें उसके सामने चमक रही थीं। दूसरा चुक्कड़ भरा और पी गयी। जहरीला ठर्रा, जिसे दोपहार की गर्मी ने और भी घातक बना दिया

 

था, देखते-देखते उसके मस्तिष्क को खौलाने लगा। बोतल आधी हो गयी थी।

 

उसने सोचा भोंदू कहेगा, तूने इतनी दारू क्यों पी, तो वह क्या कहेगी। कह देगी हाँ, पी; क्यों न पीये, इसी के लिए तो वह सबकुछ हुआ। वह एक बूँद भी न छोड़ेगी। जो होना हो, हो। भोंदू उसे मार नहीं सकता। इतना

 

निर्दयी नहीं है, इतना कायर नहीं है। उसने फिर चुक्कड़ भरा और पी गयी। पाँच वर्ष के वैवाहिक जीवन की अतीत स्मृतियाँ उसकी आँखों के सामने खिंच गयीं। सैकड़ों ही बार दोनों में गृह-युद्ध हुए थे। आज बंटी को हर बार अपनी ज्यादती मालूम हो रही थी। बेचारा जो कुछ कमाता है, उसी के हाथों पर रख देता है। अपने लिए कभी एक पैसे की तम्बाकू भी लेता है तो पैसा उसी से माँगता है। भोर से साँझ तक बन-बन फिरा ही तो करता है ! जो काम उससे नहीं होता, वह कैसे करे।

 

यकायक एक कांस्टेबल ने आकर कहा, ‘अरी बंटी, कहाँ है ? चल देख, भोंदुआ का हाल-बे-हाल हो रहा है। अभी तक तो चुपचाप बैठा था। फिर न-जाने क्या जी में आया कि एक पत्थर पर अपना सिर पटक दिया। लहू

 

बह रहा है। अगर हम लोग दौड़कर पकड़ न लेते, तो जान ही दे दी थी।’

 

एक महीना बीत गया था। संध्या का समय था। काली-काली घटाएं छाई थीं और मूसलाधार वर्षा हो रही थी। भोंदू की सिरकी अब भी निर्जन स्थान पर खड़ी थी, भोंदू खटोली पर पड़ा हुआ था। उसका चेहरा पीला पड़ गया था और देह जैसे सूख गयी थी। वह सशंक आँखों से वर्षा की ओर देखता है, चाहता है उठकर बाहर देखूँ; पर उठा नहीं जाता। बंटी सिर पर घास का एक बोझ लिये पानी में लथ-पथ आती दिखलायी दी। वही गुलाबी साड़ी है, पर तार-तार, किन्तु उसका चेहरा प्रसन्न है। विषाद और ग्लानि के बदले आँखों से अनुराग टपक रहा है। गति में वह चपलता, अंगों में वह सजीवता है, जो चित्त की शान्ति का चिह्न है। भोंदू ने क्षीण स्वर में कहा, ‘तू इतना भीग रही है, कहीं बीमार पड़ गयी, तो कोई एक घूँट पानी देनेवाला भी न रहेगा। मैं कहता हूँ, तू क्यों इतना मरती है। दो गट्ठे तो बेच चुकी थी। तीसरा गट्ठा लाने का काम क्या था। यह हाँड़ी में क्या लाई है? ‘

 

बंटी ने हाँड़ी को छिपाते हुए कहा, ‘क़ुछ तो नहीं है, कैसी हाँड़ी ? ‘

 

भोंदू जोर लगाकर खटोली से उठा, अंचल के नीचे छिपी हुई हाँड़ी खोल दी और उसके भीतर नजर डालकर बोला, ‘अभी लौटा, नहीं तो मैं हाँड़ी फोड़ दूँगा।’

 

बंटी ने धोती से पानी निचोड़ते हुए कहा, ‘ज़रा आईने में सूरत देखो। घी-दूध कुछ न मिलेगा, तो कैसे उठोगे ? क़ि सदा खाट पर सोने का ही विचार है ? ‘

 

भोंदू ने खटोली पर लेटते हुए कहा, ‘अपने लिए तो एक साड़ी नहीं लायी। कितना कहके हार गया। मेरे लिए घी और दूध सब चाहिए ! मैं घी न खाऊँगा।’

 

बंटी ने मुस्कराकर कहा, ‘इसीलिए तो घी खिलाती हूँ कि तुम जल्दी से काम-धन्धा करने लगो और मेरे लिए साड़ी लाओ।’

 

भोंदू ने मुस्कराकर कहा, ‘तो आज जाकर कहीं सेंधा मारूँ ? ‘

 

बंटी ने उसके गाल पर एक ठोकर देकर कहा, ‘पहले मेरा गला काट देना, तब जाना।’

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