कहानी – रामशास्त्री की निस्पृहता – (लेखक – वृंदावनलाल वर्मा)
दो सौ वर्ष के लगभग हो गए, जब पूना में रामशास्त्री नाम के एक महापुरुष थे। न महल, न नौकर-चाकर, न कोई संपत्ति। फिर भी इस युग के कितने बड़े मानव! भारतीय संस्कृति की परंपरा में जो उत्कृष्ट समझे जाते रहे हैं, उनमें से ही एक वह थे।
उस दिन अपनी साफ-सुथरी छोटी सी बैठक में बाँस की चटाई पर बैठे थे। निकट ही काठ की चौकी पर कटोरी से ढका, जल भरा लोटा रखा था। बैठक में और कुछ नहीं था।
खासी अच्छी वेशभूषा में एक पुरुष बाहर ही जूते उतारकर आया और नतमस्तक प्रणाम करके चटाई से कुछ दूर भूमि पर सिकुड़ा-सा बैठ गया। रामशास्त्री के पास किसी के भी आने का निषेध नहीं था।
शास्त्री ने आने का कारण पूछा। आगंतुक मुस्कराया, थोड़ा सा लजाया, आँखें नीची की, फिर ऊँची। घुमाईं-फिराईं, जरा सा खाँस-खखारकर हाथ जोड़े और बोला, ‘शास्त्री जी, मैं डरते-डरते आपकी सेवा में आया हूँ। कुछ कहने का साहस नहीं होता।’
शास्त्री ने प्रोत्साहित किया, ‘यहाँ तो कोई भी आ सकता है और कुछ भी कह सकता है। तुम्हें बड़े-से-बड़े जागीरदार या राजा के विरुद्ध कोई प्रवाद करना हो तो करो, यहाँ तक कि यदि पेशवा के अन्याय के विरुद्ध कुछ करना है तो कहने में न हिचको।’
आगंतुक ने फिर सिकुड़-फिकुड़ की। माथा खुजलाया। जरा दूसरी ओर देखते हुए बोला, ‘आपकी सेवा में बड़े सरदार आते, परंतु बीमार और निर्बल हैं, इसलिए मैं आया हूँ।’
उसने अपने ‘बड़े सरदार’ का नाम बतलाया।
‘तुम कौन हो?’ शास्त्री ने प्रश्न किया। उसने अपना पूरा परिचय दिया। वह उस बड़े सरदार की सेना का एक नायक था।
‘किस प्रयोजन से आए हो?’ शास्त्री ने पूछा।
उसने बगलें झाँकते हुए उत्तर दिया, ‘उसी के कहने के लिए डर लग रहा है।’
‘डर की कोई बात नहीं। कह डालो न!’ शास्त्री ने कहा।
नायक साहस बटोरकर बोला, ‘शास्त्री जी, आपका घर ऐसा संपत्ति-विहीन तो नहीं रहना चाहिए। दान-पुण्य, धर्म कर्म सब रुपये पैसे से ही होते हैं।’
शास्त्री ने आश्चर्य प्रकट किया, ‘यही सब कहने आए हो क्या तुम?’ स्पष्ट कहो, क्या चाहते हो?
उसने भूमिका बाँधी, ‘सुनता हूँ, आपको क्रोध आ जाता है, इसलिए साफ कहने से डरता हूँ।’
रामशास्त्री हँस पड़े। बोले, ‘तुमने गलत सुना है। मेरे पास और सब कुछ है, पर क्रोध नहीं है। निस्संकोच होकर कह डालो, जो कहना चाहते हो।’
आगंतुक को ढाँढ़स मिला। निस्संकोच होकर उसने कहा, ‘शास्त्री जी, सिंधिया सरकार रानोजी के देहांत होने पर जागीर अब केदारजी को मिलनी चाहिए। यह महादजी के बड़े भाई का पुत्र है।’
शास्त्री ने मुस्कराते हुए सम्मति दी, ‘जागीर और निजी संपत्ति में भेद है। जागीर तो कर्तव्य का भार मात्र है। जो उसका वहन कर सके, उसी के कंधे पर जाना चाहिए। निजी घरू संपत्ति की बात और है। जितनी जिसकी हो, वह उतनी अपने अपने अधिकार में रक्खे।’
रानोजी सिंधिया के देहांत पर यह समस्या खड़ी हुई थी। जागीर महादजी (माधवजी) सिंधिया को सौंपी गई थी। उस व्यवस्था के लौटने पलटने के लिए यह नायक शास्त्री के पास आया था।
शास्त्री के शिष्टाचार से आगंतुक को पर्याप्त प्रोत्साहन मिल चुका था। हाथ जोड़कर बोला, ‘शास्त्री जी, आपके घर में ढेरों सोना आज ही रख जाउँगा। आप ‘हाँ’ भर कर दें कि जागीर केदारजी को मिलेगी और उसकी अल्पवयस्कता के काल में रानोजी की विधवा उसकी अभिभावक रहेंगी।’
शास्त्रीजी के मुँह से निकला, ‘राम! राम!’ एक क्षण बाद उन्होंने कहा, ‘पूरी जागीर का प्रबंध माधवजी के हाथ में देने की आज ही लिखित व्यवस्था कर दूँगा। रह गया तुम्हारा सोना, सो यदि तुम उसका टट्टीघर बनवा दो तो उसमें टट्टी फिरने भी न जाऊँगा। मैं, जो अपने घर में एक दिन से आगे का भोजन तक नहीं रखता, तुम्हारे इस अपवित्र, निकृष्ट सोने का क्या करूँगा। जाओ निकलो।’
वह नायक बिना प्रणाम किए ही भीगी बिल्ली की तरह चला गया।
शास्त्री ने अपनी पत्नी को बुलाकर हँसते-हँसते पूछा, ‘सोना चाहिए, सोना तुमको?’
पत्नी मोटे-झोटे कपड़े पहने रहती थी। शास्त्री के उस जीवन की सहयोगिनी।
उसने भी हँसकर उत्तर दिया, ‘भाड़ में जाय सोना। मैं सब सुन रही थी।’
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