कहानी – संयोग श्रृंगार – (लेखक – रामचंद्र शुक्ल )
यद्यपि ‘पद्मावत’ में वियोग श्रृंगार ही प्रधान है, पर संयोग श्रृंगार का भी पूरा वर्णन हुआ है। जिस प्रकार ‘बारहमासा’ विप्रलंभ के उद्दीपन की दृष्टि से लिखा गया है, उसी प्रकार षड्ऋतु वर्णन संयोग श्रृंगार के उद्दीपन की दृष्टि से। राजा रत्नसेन के साथ संयोग होने पर पद्मावती को पावस की शोभा का कैसा अनुभव हो रहा है –
पदमावति चाहत ऋतु पाई। गगन सोहावन भूमि सोहाई॥
चमक बीजु, बरसै जल सोना। दादुर मोर सबद सुठि लोना॥
रंगराती पीतम सँग जागी। गरजै गगन चौंकि गर लागी॥
सीतल बूँद ऊँच चौपारा। हरियर सब देखाइ संसारा॥
नागमती को जो बूँदें विरह दशा में बाण की तरह लगती हैं, पद्मावती को संयोग दशा में वे ही बूँदें कौंधे की चमक में सोने की सी लगती हैं। मनुष्य के आनंद या दु:ख के रंग में रँगी हुई प्रकृति को ही जायसी ने देखा है, स्वतंत्र रूप में नहीं। यह षड्ऋतुवर्णन रूढ़ि के अनुसार ही है। इसमें आनंदोत्सव और सुख संभोग आदि का कविप्रथानुसार वर्णन है।
विवाह के उपरांत पद्मावती और रत्नसेन के समागम का वर्णन कवि ने विस्तार के साथ किया है। ऐसे अवसर के उपयुक्त पहले कवि ने कुछ विनोद का विधान किया है। सखियाँ पद्मावती को छिपा देती हैं और राजा उससे मिलने के लिए आतुर होता है। पर इस विधान में जायसी को सफलता नहीं हुई है। विनोद का कुछ भाव उत्पन्न होने के पहले ही रसायनियों की परिभाषाएँ आ दबाती हैं। सखियों के मुँह से ‘धातु कमाय सिखे तै जोगी’ सुनते ही राजा धातुवादियों की तरह बर्राने लगता है जिसमें पाठक या श्रोता का हृदय कुछ भी लीन नहीं होता। कवियों के बहुज्ञताप्रदर्शन की जो प्रवृत्ति कुछ दिनों से चल पड़ी, उसके कारण कवियों के प्रबंधश्रित भावप्रवाह में कहीं-कहीं बेतरह बाधा पड़ी है। प्रथम समागम के रसरंग प्रवाह के बीच ‘पारे, गंधक और हरताल’ का प्रसंग अनुकूल नहीं पड़ता। यदि प्रसंग अनुकूल हो तो उसका समावेश रसधा के बाहर नहीं लगता, जैसा कि इसी समागम के प्रसंग में ‘सोलह श्रृंगार’ और ‘बारह आभरण’ का वर्णन। यह वर्णन नायिका अर्थात् आलंबन की रूपभावना में सहायक होता है। फिर भी वस्तुओं की गिनती से पाठक या श्रोता का जी अवश्य ऊबता है।
इस प्रकार के कुछ बाधक प्रसंगों के होते हुए भी वर्णन अत्यंत रसपूर्ण है। पद्मावती जिस समय श्रृंगार कर के राजा के पास जाती है उस समय कवि कैसा मनोहर चित्र खड़ा करता है –
साजन लेइ पठावा, आयसु जाइ न मेंट।
तन, मन, जोबन साजि कै देइ चली लेइ भेंट॥
इस दोहे में तन, मन और यौवन तीनों का अलग-अलग उल्लेख बहुत ही सुंदर है। मन का सजाना क्या है? समागम की उत्कंठा या अभिलाष। बिना इस मन की तैयारी के तन की सब तैयारी व्यर्थ हो जाती है। देखिए, प्रिय के पास गमन करते समय कविपरंपरा के अनुसार शेष सृष्टि से चुन कर सौंदर्य का कैसा संचार कैसी सीधी-सादी भाषा में किया गया है –
पदमिनि गवन हंस गए दूरी। कुंजर लाज मेल सिर धूरी॥
बदन देख घटि चंद समाना। दसन देखि कै बीजु लजाना॥
खंजन छपे देखि कै नैना। कोकिल छपी सुनत मधु बैना॥
पहुँचहि छपी कँवल पौनारी। जाँघ छपा कदली होइ बारी॥
संयोगवर्णन में जायसी पहले तो सहसा सौंदर्य के साक्षात्कार से हृदय के उस आनंद सम्मोहन का वर्णन करते हैं जो मूर्च्छा की दशा तक पहुँचा हुआ जान पड़ता है। फिर राजा अपने दु:ख की कहानी और प्रेममार्ग में अपने ऊपर पड़े हुए संकट का वर्णन कर के प्रेममार्ग की उस सामान्य प्रवृत्ति का परिचय देता है जिसके अनुसार प्रेमी अपने प्रियतम के हृदय में अपने ऊपर दया तथा करुणा का भाव जाग्रत करने का बराबर प्रयत्न किया करता है। इसी प्रवृत्ति की उत्कर्षव्यंजना के लिए फारसी या उर्दू शायरी में मुर्दे अपना हाल सुनाया करते हैं। सबसे बड़ा दु:ख होने के कारण ‘मरणदशा’ के प्रति सबसे अधिक दया या करुणा का उद्रेक स्वभावसिद्ध है। शत्रु तक का मरण सुन कर सहानुभूति का एक – आधा शब्द मुँह से निकल ही जाता है। प्रिय के मुख से सहानुभूति के वचन का मूल्य प्रेमियों के निकट बहुत अधिक होता है। ‘बेचारा बहुत अच्छा था’, प्रिय के मुख से इस प्रकार के शब्दों की संभावना ही पर वे अपने मर जाने की कल्पना बड़े आनंद से किया करते हैं। जो हमें अच्छा लगता है उसे हमारी भी कोई बात अच्छी लगे, यह अभिलाषा प्रेम का एक विशेष लक्षण है। इस अभिलाषापूर्ति की आशा प्रिय हृदय को दयार्द्र करने में सबसे अधिक दिखाई पड़ती है, इसी से प्रेमी अपने दु:ख और कष्ट की बात बड़े तूल के साथ प्रिय को सुनाया करते हैं।
नायक नायिका के बीच कुछ वाक्चातुर्य और परिहास भी भारतीय प्रेमप्रवृत्ति का एक मनोहर अंग है, अत: उसका विधान यहाँ के कवियों की श्रृंगारपद्धति में चला आ रहा है। फारसी, अँगरेजी आदि के साहित्य में हम इसका विधान नहीं पाते। पर नए प्रेम से प्रभावित प्रत्येक भारतीय हृदय इस प्रवृत्ति का अनुभव करता है। देश और काल के भेद से हृदय के स्वरूप में भी भेद होता है। भारतीय प्रकृति के अनुसार संयोग पक्ष की नाना वृत्तियों का भी कुछ विधान हो जाने से जायसी का प्रेम आनंदी जीवों द्वारा बिलकुल ‘मुहर्रमी’ कहे जाने से बाल बाल बच गया है।
पीछे तो उर्दूवालों में भी ‘खूबाँ से छेड़छाड़’ की रस्म चल पड़ी।
राजा की सारी कहानी सुन कर पद्मावती कहती है कि ”तू जोगी और मैं रानी, तेरा मेरा कैसा साथ?”
हौं रानी तुम जोगि भिखारी । जोगिहि भोगिहि कौनि चिन्हारी॥
जोगी सबै छंद अस खेला । तू भिखारि तिन्ह माँह अकेला॥
एही भाँति सिष्टि सब छरी । एही भेख रावन सिय हरी॥
संयोग श्रृंगार में कविपरंपरा ‘हावों’ का विधान करती आई है। अत: यहाँ पर यह कह देना आवश्यक है कि जायसी ने ‘हावों’ का सन्निवेश एक प्रकार से नहीं के बराबर किया है। केवल इसी प्रसंग में ‘विव्वोक हाव’ की कुछ झलक मिलती है, जैसे –
ओहट होसि, जोगि ! तोरि चेरी। आवै बास कुरकुटा केरी॥
जोगि तोरि तपसी कै काया। लागि चहै मोरे ऍंग छाया॥
‘हावों’ की सम्यक् योजना न होने से जायसी के संयोग पक्ष में वैसी सजीवता नहीं दिखाई देती।
राजा इस प्रेमगर्भ फटकार पर भी अपने कष्टपूर्ण प्रयत्नों और प्रेम की गंभीरता की बात कहता ही चला जाता है। इस पर पद्मावती सच्चे प्रेम की व्याख्या करने लगती है –
कापर रँगे रंग नहिं होई। उपजै औटि रंग भल सोई॥
जौ मजीठ औटै बहु ऑंचा। सो रँग जनम न डोलै राँचा॥
जरि परास होइ कोइल भेसू। तब फूलै राता होइ टेसू॥
पर सच पूछिए तो यह गंभीर व्याख्या अवसर के उपयुक्त नहीं है। इस प्रकार का निरूपण प्रशांत मानस में ही ठीक है, मोदतरंगाकुल मानस में नहीं। पर कवि अपनी चिंतनशील प्रकृति के अनुसार अवसर अनवसर का विचार न कर के ऐसी बातों को बीच बीच में बराबर घुसाया करता है।
पहले पद्मावती में प्रिय समागम का भय दिखा कर कवि ने उसे नवोढ़ा का रूप दिया। अत: उसके मुँह से इस प्रकार का प्रौढ़ परिहास या प्रगल्भता नायिकाभेद के उस्तादों को खटकेगी। समाधान केवल यही हो सकता है कि सूए ने पद्मावती को बहुत पहले से प्रेममार्ग में दीक्षित कर रखा था। राजा रत्नसेन के सिंहल आने पर सूआ संदेशों के द्वारा पद्मावती को प्रेम में पक्की करता रहा। अत: इस प्रकार के परिपुष्ट वचन अनुपयुक्त नहीं।
संभोग श्रृंगार की रीति के अनुसार जायसी ने अभिसार का पूरा वर्णन किया है। पद्मावती के समागम की कुछ पंक्तियाँ अश्लील भी हो गई हैं; पर सर्वत्र जायसी ने प्रेम का भावात्मक रूप ही प्रधान रखा है। शारीरिक भोग विलास का वर्णन कवि ने यहाँ कुछ ब्योरे के साथ किया है, पर इस विलासिता के बीच बीच में भी प्रेम का भावात्मक स्वरूप प्रस्फुटित दिखाई पड़ता है। राजा जिससे मतवाला हो रहा है वह प्रेम की सुरा है जिसका जिक्र सूफी शायरों ने बहुत ज्यादा किया है –
सुनु धानि ! प्रेम सुरा के पिए। मरन जियन डर रहै न हिए॥
जेहि मद तेहि कहाँ संसारा। की सो धूमि रह, की मतवारा॥
जाकहँ होइ बार एक लाहा। रहै न ओहि बिनु , ओही चाहा॥
अरथ दरब सो देइ बहाई। की सब जाहु, न जाहु पियाई॥
पद्मावती पासा खेलने का विचार करती है। नवदंपति का पासा खेलना बहुत पुरानी रीति है। अब भी बहुत जगह विवाह के समय वरकन्या के पासा खेलने की नकल चली आती है। पर इस प्रसंग में भी कवि ने श्लेष और अन्योक्ति आदि द्वारा उभय पक्ष का वाक्चातुर्य दिखाने का आयोजन बाँधा है जिससे पाठक का कुछ भी मनोरंजन नहीं होता। जैसा कि आगे चल कर दिखाया जायगा। जायसी की इस प्रवृत्ति के कारण प्रबंध के रसपूर्ण प्रवाह में बहुत जगह बाधा पड़ी है –
बिहँसी धनि सुनिकै सब बाता। निहचय तू मोरे रंग राता॥
जब हीरामन भयउ सँदेसी। तुम्ह हुँत मँडप गइउँ, परदेसी॥
तोर रूप तस देखिउँ लोना। जनु जोगी तू मेलेसि टोना॥
भुगुति देइ कहँ मैं तोहि दीठा। कँवल नयन होइ भँवर बईठा॥
नैन पुहुप, तू अलि भा सोभी। रहा बेधि अस, उड़ा न लोभी॥
कौन मोहिनी दहुँ हुति तोही। जो तोहि बिथा सो उपनी मोही॥
तोरे प्रेम प्रेम मोहि भएऊ। राता हेम अगिनि जौं तएऊ॥
प्रेम की पूर्वापर (युगपत् नहीं) स्थिति में एक की व्यथा से दूसरे को व्यथा या करुणा उत्पन्न हुई कि एक के प्रेमप्रवाह से दूसरे में प्रेम की नींव पड़ी समझनी चाहिए। रत्नसेन और पद्मावती का प्रेम पूर्वापर है। पद्मावती के अलौकिक रूपसौंदर्य को सुन कर पहले राजा रत्नसेन के हृदय में प्रेमव्यथा उत्पन्न होती है, पीछे पद्मावती के हृदय में उस व्यथा के प्रति सहानुभूति –
सुनि कै धानि, ‘जारी अस काया’। तन भा मयन, हिए भइ माया॥
यही ‘माया’ या सहानुभूति प्रेम की पवित्र जननी हो जाती है। सहसा साक्षात्कार के द्वारा प्रेम के युगपत् आविर्भाव में उक्त पूर्वापर क्रम नहीं होता इसलिए उसमें प्रेमी और प्रिय का भेद नहीं होता। उसमें दोनों एक दूसरे के प्रेमी और एक-दूसरे को प्रिय साथ-साथ होते हैं। उसमें यार की संगदिली या बेवफाई की शिकायत-निष्ठुरता के उपालंभ की जगह पहले तो नहीं होती, आगे चल कर हो जाय तो हो जाय। तुलसीदास द्वारा वर्णित जनकपुर के बगीचे में उत्पन्न सीता और राम का युगपत् प्रेम बराबर सम रहा। पर सूरदास द्वारा वर्णित गोपी कृष्ण का प्रेम आगे चल कर सम से विषम हो गया। इसीलिए अयोध्या से निर्वासित सीता राम की बेवफाई की कुछ भी शिकायत नहीं करतीं, पर गोपियाँ मारे शिकायतों के उद्धव के कान बहरे कर देती हैं। रत्नसेन और पद्मावती के प्रेम में आरंभ में विषमता है और गोपी कृष्ण के प्रेम में अंत में। दोनों की विषमता की स्थिति में यही अंतर है। गोपी कृष्ण का प्रेम समता से विषमता की ओर प्रवृत्त हुआ है और रत्नसेन पद्मावती का प्रेम विषमता से समता की ओर। इस समता की प्राप्ति की व्यंजना पद्मावती कैसे भोले – भाले शब्दों में अपनी सखियों से करती है –
आजु मरम मैं जानिउँ सोई। जस पियार पिउ और न कोई॥
हिए छाहँ उपना औ सीऊ। पिउ न रिसाउ लेउ बरु जीऊ॥
करि सिंगार तापहँ का जाऊँ। ओही देखहुँ ठावहिं ठाऊँ॥
जो जिउ महँ तौ उहै पियारा। तन मन सौं नहिं होइ निनारा॥
नैन माँह है उहै समाना। देखौं तहाँ नाहिं कोउ आना॥
अब यहाँ प्रश्न उठता है कि जायसी ने विषम प्रेम से क्यों आरंभ किया, आरंभ ही से सम प्रेम क्यों नहीं लिया। इसका उत्तर यह है कि जायसी को इस प्रेम को ले कर भगवत्पक्ष में भी घटाना था। ईश्वर के प्रति प्रेम का उदय पहले भक्त के हृदय में होता है। ज्यों ज्यों यह प्रेम बढ़ता जाता है, त्यों त्यों भगवान की कृपादृष्टि भी होती जाती है यहाँ तक कि पूर्ण प्रेमदशा को प्राप्त भक्त भगवान का भी प्रिय हो जाता है। प्रेमी हो कर प्रिय होने की यह पद्धति भक्तों की है। भक्ति की साधना का क्रम यही है कि पहले भगवान हमें प्रिय लगें, पीछे अपने प्रेम के प्रभाव से हम भी भगवान को प्रिय लगने लगेंगे।
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