गायत्री मन्त्र की सत्य चमत्कारी घटनाये – 39 (सकाम से निष्काम साधना)
श्री पं. रामस्वरुप जी चाचोदिया, राठ का कहना है सामान्यतया मनुष्य तत्काल के लाभ को देखता है। तात्कालिक लोभ के लिए वह भविष्य की भारी हानि का खतरा भी उठाता है।
इसके विपरीत यदि किसी काम मे तुरन्त लाभ न हो किन्तु भविष्य में किसी बड़े सुख की सम्भावना हो तो भी उसे करने का उत्साह नहीं होता। तुरन्त का लाभ लोगों का प्रधान एकमात्र दृष्टिकोण बना हुआ है। ऐसे कोई विरले ही हैं जो भविष्य के स्थाई लाभ के लिए आज के लाभों कों छोड़ने का साहस कर पाते हैं।
आध्यात्मिक साधना में तत्काल कोई लाभ नहीं होता, बल्कि समय खर्च करना पड़ता है एक नीरस कर्मकाण्ड की नियमित साधना का बन्धन अपने ऊपर लेना पड़ता है, हवन, दान पुण्य आदि में कुछ खर्च भी पड़ता है, यह सब तात्कालिक हानियाँ ही हैं।
व्रत, उपवास, तीर्थ यात्रा, संयम, नियम आदि का झंझट और मित्र मंडली में उपहास यह सब बातें भी हानि में ही गिनी जा सकती हैं। भविष्य में इससे कोई लाभ होगा या नहीं, इसका भी निश्चय नहीं, इन सब कारणों से कोई विरले ही आध्यात्मिकता के मार्ग को अपनाते हैं।
जो अपनाते हैं वे सरल-सा कार्यक्रम पूरा करते हैं, दान, तीर्थ, यात्रा, कथा ब्रह्मïभोज, हवन आदि के लिए एक दिन कुछ पैसा खर्च करके ही उनकी नजर में पुण्य हो जाता है, रोज- रोज का झंझट नहीं रखते। कथा प्रवचन सुनने या कीर्तन की स्वर लहरी में सहयोग देने का कार्य भी सुगम है, पर नित्य नियत समय पर मन मार का जप, ध्यान, भजन, पूजन के लिए बैठना और उसे देर तक निभाये रहना सामान्यत: बड़ा अरुचिकर होता है। लोग अरुचिकर कार्यों के लिए प्राय: तैयार नहीं होते।
उपरोक्त दृष्टिकोण वाले असंख्यों मनुष्यों में से ही एक मैं भी था। मेरी रुचि जप, तप में जरा भी न होती थी, परन्तु भगवान की कृपा बड़ी विलक्षण है, जिस पर वे कृपा करते हैं उसकी बुद्धि फेरते भी उन्हें देर नहीं लगती। एक दिन मुझे एक मित्र से गायत्री सम्बन्धी पुस्तकें पढऩे को मिलीं।
उनमें से गायत्री द्वारा अनेक सांसारिक लाभ होने का भी वर्णन था, साथ ही ऐसे कुछ उदाहरण भी दिये हुए थे जिनसे विदित होता था कि अमुक व्यक्ति ने इस साधना द्वारा अमुक लाभ उठाये हैं। मेरा मन भी ललचाया। तात्कालिक लाभ सभी का इष्ट है, मुझे भी इसी की आवश्यकता थी।
अपना लाभ या स्वार्थ जिस तरह से भी पूरा होता है वही मार्ग ठीक है चाहे वह गायत्री उपासना हो, चाहे व्यापार, चाहे नौकरी या चाहे और कुछ।
साधना से मुझे वस्तुत: कोई प्रेम न था। अपना प्रयोग सिद्ध करने के लिए गायत्री की परीक्षा कर देखने की इच्छा हुई। लाभ के लोभ से मैंने गायत्री को अपनाया व जानकारों से पूछकर जप, ध्यान, हवन आदि की विधियाँ मालूम कीं और नियमित रुप से उन्हें करने लगा। जीवन में पहली बार यह पथ चुना इसलिये इस सम्बन्ध में उत्साह और कौतूहल विशेष था।
इसने मुझे अधिक जानने के लिए प्रेरित किया मैंने गायत्री सम्बन्धी अनेकों पुस्तकें पढ़ डालीं। जिस छोटे प्रयोजन को लेकर मैंने अनुष्ठान प्रारम्भ किया था वह सफल हो गया जो आशंकाएँ और बाधाएँ दिखाई पड़ती थीं वे एक भी बाधक नहीं हुई और परिणाम सुखद रहा।
साधारणतया स्वार्थ सिद्ध हो जाने पर साधन वस्तुओं का छोड़ दिया जाता है, पर वैसा न कर सका। क्योंकि उपासना में एक आन्तरिक रस भी आने लगा था। इस सम्बन्ध में अधिक जानकारी प्राप्त करने की रुचि ने आध्यात्मिक ज्ञान को इतना बढ़ा दिया कि संसारिक लाभों की तुलना में आत्मलाभ का महत्व अनेक गुना अधिक मालूम होने लगा।
माता के प्रति अगाध भक्ति बढ़ती गई और साधना द्वारा लाभ उठाने की अपेक्षा स्वयं साधना ही एक महान लाभ प्रतीत होने लगी। अब मैं पूर्ण निष्काम भाव से उपासना करता हूँ और उसका वह प्रतिफल पाता हूँ जो बड़ी से बड़ी कामना पूर्ण होने की अपेक्षा अधिक सरस है। साकाम उपासना अन्तत: निष्काम मातृ श्रद्धा में बदल जाती है।
ऐसा मैंने कई अन्य व्यक्तियों के उदाहरणों से भी देखा है। परन्तु यह ध्यान रखने की बात है कि प्रारम्भ में छोटी से छोटी ही कामना करनी चाहिए।
प्रारम्भिक साधक की श्रद्धा और साधना अत्यंत निर्बल होती है। जो लोग रत्ती भर श्रम का लाख मन फल पाने का अमर्यादित लोभ करते हैं और प्रबल कर्म भोगों को एक माला फेर कर ही हटाना चाहते हैं उनकों निराशा ही होती है। फिर भी जितना शुभ प्रयत्न कर लेते हैं व किसी न किसी रूप में उनके लिए सहायक ही होता है।
अपने को असफल समझने वाले गायत्री साधकों का प्रयत्न भी कभी व्यर्थ नहीं जाता, मनोकामना पूर्ण न होने पर भी किसी न किसी प्रकार सत्परिणाम अवश्य मिल ही जाता है।
(सौजन्य – पं० श्रीराम शर्मा आचार्य वांग्मय – 11)
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