गायत्री मन्त्र की सत्य चमत्कारी घटनाये – 36 (गई लक्ष्मी का पुनरागमन)
श्री शंभूचरण विश्वनोई, वीरपुर लिखते हैं कि हमारे पिता जी बड़े चतुर और बुद्घिमान थे। उन्होने अपने हाथों लगभग दस लाख की सम्पत्ति कमाई थी। जमींदारी, देन-लेन, घी और गल्ले का व्यापार तथा और भी अनेक मार्गों से उनकी आमदनी थी। वह रईसी व ठाठ-बाठ से रहते थे। सदा उनके साथ दरबार लगा रहा था। मैं उनका इकलौता पुत्र था। लाड़ प्यार की कमी न थी, जिस दुलार आनन्द और विलासिता से मेरा बचपन बीता वैसा किन्हीं बिरलों को ही नसीब होता था। भाग्य ने पलटा खाया। जब मैं तेरह वर्ष का था तो अचानक तीन दिन की बीमारी में पिता जी की मृत्यु हो गई। पिताजी के जितने मित्र थे उन सबने मेरी माता पर तथा मुझ पर बड़ी कृपा दिखाई।
हर एक ने यह विश्वास दिलाया कि हम लोगों की पूरी सहायता की जायगी। विश्वास करने के अतिरिक्त और कोई चारा न था। सबने कृपा की जो जितना अधिक हित चिन्तक बना, उसने उतनी ही बड़ा दगा किया। मिलकर दगा करने वालों की करतूतों का कोई मनोरंजन अनुभव सुनना चाहे तो उसे आप बीती कहानी कई दिनों तक सुनाये जा सकता हू। पाठकों का कीमती वक्त अधिक खराब करने से क्या फायदा, किस्सा तो यह है कि सात वर्ष के भीतर पिता जी की सारी जायदाद, सारी नकदी, सारी इज्जत आबरू बरबाद हो गई। उन नकली मित्रों ने अपना घर भरने के लिए खानदान भर से हमारी दुश्मनी करादी, तरह-तरह की बुराइयाँ, फिजूली खर्च, लापरवाही आदि के कारण तबाही बढ़ती गई।
माता जी भी, पिता जी के सात वर्ष बाद स्वर्ग सिधार गई। उनके मरते ही कर्जदारों ने अपने झूठे सच्चे दावे किये और पाँच-छ: महीने के भीतर ही बचा खुचा भी चला गया। बेबसी और शर्मिन्दगी से परेशान होकर मैंने घर छोड़ दिया। स्त्री को उसके मायके पहुँचा कर मैं रोजगार की तलाश में परदेश को निकल पड़ा। जगह-जगह की खाक छानता हुआ मारा-मारा फिर रहा था। इस वक्त की मुफलिसी का मुकाबला करता तो आँखों में आँसू भर आते। ऐसी ही चिन्ता और परेशानी में एक बगीचे में बैठा हुआ था और भी कई महानुभाव वहाँ बैठे हुये थे। उनमें गायत्री सम्बन्धी वार्तालाप हो रहा था।
बातें कुछ प्रिय लगीं, ध्यान से सुनने लगा, वे लोग ऐसी चर्चा कर रहे थे कि किस-किस व्यक्ति को किस प्रकार गायत्री साधना से लाभ हुआ। झिझकते हुए उन भद्र पुरुषों से पूछा कि क्या मैं भी गायत्री द्वारा लाभ उठा सकता हूँ? उन्होंने मेरा परिचय पूँछने के बाद उपासना के लिए प्रोत्साहन दिया ओर सारी विधि बता दी। दूसरे दिन से ही मैं साधना करने लगा। मेरा मन घर जाने को कर रहा था, घर लौट आया। अब मेरे स्वभाव में और विचारों में, समझ में भारी हेर-फेर हो रहा था। खेती करने की इच्छा हुई। अपने खानदान वालो से पश्चाताप और क्षमा याचना के साथ मिला। उनमें से कई बड़े उदार थे, भूतकाल में मेरे पिताजी द्वारा किये गये उपकारों की याद करके वे पिघल गये और मेरा पथ-प्रदर्शन और सहयोग करने को प्रसननता पूर्वक तैयार हो गये।
कुटुम्बियों के साथ मैंने खेती आरम्भ कर दी। लगातार कई वर्ष तक अच्छी फसलें हुई। भाव अच्छा लगा और तीन चार वर्ष में ही मेरे दिन फिर गये। जो लाभ खेती से होता था उससे पिताजी की भाँति घी, गल्ला, किश्त बाँटना, जेवर गिरवी रखना, देन-लेन का कारोबार करने लगा। सुसराल वालों ने सुना कि लड़का सुधर गया तो उन्होंने भी आर्थिक सहायता दी। सब दखियाओं में सफलता मिलती गई। लक्ष्मी को जाते कुछ देर नहीं लगती, पवर जब आती है, तमब भी दौड़ी हुई आती है। बूँद-बूँद से घड़ा भर जाता है। चारों ओर से जब ईश्वर की कृपा हुई तो हमारा खाली घर धन, प्रतिष्ठï, सन्तान, नौकर-चाकर आदि से भरा पूरा हो गया।
यह सब गायत्री माता की कृपा है। उस बगीचे में बैठे हुए सज्जनों की बातों को याद करता हूँ तो मेरा हृदय कृतज्ञता से भर जाता है। उन्होंने मुझे वह ज्ञान दिया जो हजारों रुपये नकद देने की अपेक्षा कहीं अधिक मूल्यवान है। गायत्री माता ने मेरे दु:ख दरिद्र को दूर कर दिया। उसका स्मरण और पूजन किये बिना मैं अन्न-जल ग्रहण नहीं करता। प्रति वर्ष गायत्री यज्ञ करता हूँ। मेरी देखा-देखी और भी कई मनुष्यों ने गायत्री का व्रत लिया है और वे भी फल-फूल रहे हैं। मैंने शास्त्र नहीं पढ़े, सीधी-साधी विधि से पूजन, जप और ध्यान करता हुं। मेरा विश्वास है कि जो माता के चरणों में शीश नवाता है वह जगजननी की कृपा अवश्य प्राप्त करता है।
सौजन्य – शांतिकुंज गायत्री परिवार, हरिद्वार
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