जब हाथ में कटार लेकर दौड़े परम शक्ति तो पूरा ब्रह्माण्ड हाहाकार कर उठे
ताकत की चरम सीमा और खतरनाक इतनी की दुष्टों को देखते ही ह्रदय आघात हो जाय, ऐसी माँ चंडिका के चरणों में बारम्बार हाथ जोड़ कर विनती है कि हमारे भी सभी भय का नाश करें !
महाबली दैत्यों के घमन्ड को अपने पैरों तले कुचलने वाली माँ चंडिका, कृपया हमारे डर को भी ख़त्म करो !
जो भक्तों को हमेशा ममता मयी माँ के रूप में दिखती हैं और जिन्हे दुर्गा, काली, तारा, छिन्न मस्ता, रौद्री, काल रात्रि, मंगला भी कहा जाता है उनकी भक्तों पर अनुकम्पा अनन्त है !
महाबली दैत्य महिषासुर का मर्दन उनकी भक्त शरणागत वत्सलता का परम उदाहरण है !
देवी दुर्गा ने विजय दशमी (दशहरा) के दिन महिषासुर जिसे भैंस असुर के नाम से भी जाना जाता है, का वध किया था। पुराणों के अनुसार दुर्गा और महिषासुर का युद्ध नौ रातो तक चला जिसमें माँ दुर्गा की जीत हुयी और उसी जीत को नवरात्रि का नाम दिया गया।
जब पूरे दैत्य साम्राज्य ने महा बली, भीषण शूरवीर और प्रबल पराक्रमी महिषासुर को अपना राजा बनाया तो उसने दैत्यों की विशाल सेना लेकर पाताल और मृत्युलोक पर धावा बोल दिया। समस्त प्राणी उसके अधीन हो गये। फिर उसने इन्द्रलोक पर आक्रमण किया। इस युद्ध में महाबली महिषासुर के सामने सबको पराजय का मुख देखना पड़ा और देवलोक पर भी महिषासुर का अधिकार हो गया क्योंकि महिषासुर को वरदान था ब्रह्मा जी का, कि उसे कोई भी देवता, असुर, पुरुष आदि नहीं मार सकेंगे, उसे सिर्फ कोई स्त्री ही मार सकेगी !
राक्षसों के अत्याचारों से देवता भयभीत हो गए । जब उनके अत्याचारों को सहा न गया तब सब देवता परस्पर विचार-विमर्श कर के ब्रह्मा जी के आश्रय में गए। ब्रह्माजी से निवेदन किया कि महिषासुर का संहार करके उन्हें स्वर्ग वापस दिला दें।
ब्रह्मा जी ने अपनी असमर्थता जताई। देवता निराश हुए। वे सब एक पर्वत पर पहुंच कर उपाय सोचने लगे कि कैसे राक्षसों का दमन किया जाए। ब्रह्मा जी ने सुझाव दिया कि शिवजी इस कार्य में सहायता कर सकते हैं। अत: हम सब उनके पास जाकर निवेदन करेंगे।
देवताओं ने ब्रह्माजी से प्रार्थना की कि वे देवताओं का प्रतिनिधित्व करें। ब्रह्माजी ने देवताओं की प्रार्थना मान ली और उन सबको साथ लेकर शिवजी से भेंट करने के लिए कैलाश पहुंचे। शिवजी देवताओं की प्रार्थना सुनकर द्रवित हुए ओर उन्होंने कहा कि हम सब भगवान विष्णु के आश्रय में जाकर उनसे निवेदन करेंगे। वे निश्चय ही इस कार्य में सहायता करेंगे। अंत में सब लोग भगवान विष्णु के दर्शन करने निकले।
देवताओं ने ब्रह्माजी, शिवजी और भगवान विष्णु को महिषासुर के अत्याचारों का वृत्तांत सुनाया। शिवजी ने महिषासुर के अत्याचार सुनकर रौंद्र रूप धारण किया। उनके मुंह से एक तेज का आविर्भाव हुआ। इसी प्रकार ब्रह्माजी और विष्णुजी के अंगों से तेज प्रकट हुए। आखिर सभी तेज एक रूप में समाहित हुए।
शिवजी का तेज देह के प्रधान रूप को प्राप्त हुआ, विष्णुजी का तेज मध्य भाग, वरुण का तेज उरू और जांघ, भौम का तेज पृष्ठ भाग, ब्रह्माजी का तेज चरण और अन्य देवताओं के तेज शेष अंगों की आकृति में रूपान्तरित हुए। अंत में समस्त तेजों का सम्मिलित स्वरूप एक नारी की आकृति में प्रत्यक्ष हुआ। उस तेज स्वरूपिनी देवी को भगवान विष्णु तथा शिवजी और सभी ने अपने – अपने आयुध प्रदान किए। हिमवंत ने उसे एक सिंह भेंट किया।
वो परम तेजस्वी देवी सभी देवताओं को साथ लेकर सिंह पर आरूढ़ हो निकल पड़ी। दानवराज महिषासुर के नगर के समीप पहुंचकर देवी ने सिंहनाद किया। उस ध्वनि को सुन दसों दिशाएं हिल उठीं। पृथ्वी कंपित हुई। समुद्र कल्लोलित हो उठा। महिषासुर को गुप्तचरों के जरिए समाचार मिला कि देवी उसका संहार करने के लिए स्वर्ग द्वार तक पहुंच गई हैं। वह अपार सेना समेत देवी के साथ युद्ध करने के लिए निकल पड़ा।
देवी को स्वर्ग द्वार पर आक्रमण के लिए तैयार देख हुंकार करके महिषासुर ने अपनी सेना को देवी की सेना पर धावा बोलने का आदेश दिया। देवी ने प्रचंड रूप धारण कर राक्षस सेना को तहस – नहस करना प्रारंभ किया। उनके विश्वास से अपार सेना महिषासुर के सैन्य दलों पर टूट पड़ी और अपने भीषण अस्त्र-शस्त्रों से दानव सेना को गाजर-मूली की तरह काटने लगी। देवी ने स्वयं देवताओं की सेना का नेतृत्व किया। अपने वाहन बने सिंह को तेज गति से शत्रु सेना की ओर बढ़ाते हुए दैत्यों का संहार करने लगी।
देवी के क्रोध ने दावानल की तरह फैलकर दैत्य वाहिनी को तितर-बितर किया। युद्ध क्षेत्र लाशों से पट गया। उस भीषण दृश्य को देख राक्षस सेनापतियों के पैर उखड़ गए। वे भयभीत हो जड़वत अपने-अपने स्थानों पर खड़े रहे। महिषासुर ने देवी पर आक्रमण करने के लिए अपने सेनानायकों को उकसाया। दैत्य राजा का हुंकार और प्रेरणा सभी सेनानायक एकत्र हो सामूहिक रूप से देवी का सामना करने के लिए तैयार हुए।
महिषासुर ने भी देवी के समक्ष पहुंचकर उनको युद्ध के लिए ललकारा। इस बीच दैत्य सेनापति भी साहस बटोरकर देवी पर आक्रमण के लिए एक साथ आगे बढ़े। देवी ने समस्त सेनापतियों का वध किया। सारी सेना को समूल नष्ट करके महिषासुर के समीप पहुंची और गरजकर बोली कि अरे दुष्ट ! तेरे पापों का घड़ा भर गया है। मैं तेरे अत्याचारों का अंत करने आई हूं। मैं तेरा संहार करके देवताओं की रक्षा करूंगी। यह कहकर देवी ने महिषासुर को अपने अस्त्र से गिराया, उसके वक्ष पर भाला रखकर उसको दबाया और अपने त्रिशूल से उसकी छाती को चीर डाला।
त्रिशूल के वार से महिषासुर बेहोश हो गया। फिर थोड़ी देर में वह होश में आया। उसने पुन: देवी के साथ गर्जन करते हुए भीषण युद्ध किया। देवी ने रौद्र रूप धारण कर अपने खड्ग से दैत्यराज महिषासुर का सिर काट डाला। अपने राजा का अंत देख शेष राक्षस सेनाएं चतुर्दिक पलायन कर गई। युद्ध क्षेत्र में देवी का रौद्र रूप देखते ही बनता था आकाश में सूर्य का अकलंक तेज चारों तरफ भासमान था। वे स्वयं देवी के क्रोध को शांत नहीं कर पाय |
देवताओं ने देवी का जयकार किया और विनम्र भाव से हाथ जोड़कर सदा उनकी रक्षा करते रहने का निवेदन किया। देवी ने आश्वासन दिया। दैत्यराज महिषासुर का मर्दन (संहार) करने के कारण दुर्गा महिषासुर मर्दनी कहलाई। इसी घटना की याद में विजयदशमी मनाई जाती है। इस दिन यह उत्सव मनाया जाता है। देवी की नौ दिनों तक पूजा होती है। वह नवरात्रि उत्सव नाम से प्रसिद्ध है।
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