दुनिया का कौन आदमी ऐसा होगा जिसे गलत काम होते कैसे है, पता ना हो !
एक बार प्रसिद्ध दार्शनिक सुकरात ने कहा था कि मुझे भी अच्छी तरह से पता है कि कैसे किसी की हत्या की जाती है, मुझे ये भी पता है है कि कैसे चोरी, धोखा, बलात्कार, मारपीट, झगड़ा आदि सारे पाप किये जाते हैं ! पर मेरे और किसी क्रिमिनल में अंतर बस इतना है कि अपराधी अपने मन से हार जाता है और मै नहीं हारता ! मेरा मन किसी गलत काम को करने के लिए कहते कहते थक जाता है लेकिन मेरी बुद्धि मेरे शरीर को वो गलत काम करने ही नहीं देती !
मन इतना बड़ा नौटंकी चरित्र का है की किसी गलत चीज को पसंद होने पर उसे सही साबित करने के लिए तरह तरह के बहाने बनाता है !
मनुष्य को नारकीय एवं घृणित पतितावस्था तक पहुँचा देना अथवा उसे मानव- भूसुर बना देना मन का ही खेल है।
मन में प्रचण्ड प्रेरक शक्ति है। इस प्रेरक शक्ति से अपने कल्पना चित्रों को वह ऐसा सजीव कर देता है कि मनुष्य बालक की तरह उसे प्राप्त करने के लिए दौड़ने लगता है। रंग- बिरंगी तितलियों के पीछे जैसे बच्चे दौड़ते- फिरते हैं, तितलियाँ जिधर जाती हैं, उधर ही उन्हें भी जाना पड़ता है, इसी प्रकार मन में जैसी कल्पनाएँ, इच्छाएँ, वासनाएँ, आकांक्षाएँ, तृष्णाएँ उठती हैं, उसी ओर शरीर चल पड़ता है।
मन बड़ा चञ्चल और वासनामय है। यह सुख प्राप्ति की अनेक कल्पनाएँ किया करता है। कल्पनाओं के ऐसे रंग- बिरंगे चित्र तैयार करता है कि उन्हें देखकर बुद्धि भ्रमित हो जाती है और मनुष्य ऐसे कार्यों को अपना लेता है, जो उसके लिए अनावश्यक एवं हानिकारक होते हैं तथा जिनके लिए उसको पीछे पश्चात्ताप करना पड़ता है। अच्छे और प्रशंसनीय कार्य भी मन की कल्पना पर अवलम्बित हैं।
चूँकि सुख की आकांक्षा ही मन के अन्तराल में प्रधान रूप से काम करती है, इसलिए वह जिस बात में, जिस- जिस दिशा में सुख प्राप्ति की कल्पना कर सकता है, उसी के अनुसार एक सुन्दर मनमोहक रंग- बिरंगी योजना तैयार कर देता है। मस्तिष्क उसी ओर लपकता है, शरीर उसी दिशा में काम करता है। परन्तु साथ ही मन की चंचलता भी प्रसिद्ध है, इसलिए वह नई कल्पनाएँ करने में पीछे नहीं रहता। कल की योजना पूरी नहीं हो पाई थी कि उसमें भी एक नई और तैयार हो गई। पहली छोड़कर नई में प्रवृत्ति हुई। फिर वही क्रम आगे भी चला। उसे छोड़कर और नया आयोजन किया।
इस प्रकार अनेक अधूरी योजनाएँ पीछे छूटती जाती हैं और नई बनती जाती हैं। अनियन्त्रित मन का यह कार्यक्रम है। वह मृगतृष्णाओं में मनुष्य को भटकाता है और सफलताओं की, अधूरे कार्यक्रमों की अगणित ढेरियाँ लगाकर जीवन को मरघट जैसा ककर्श बना देता है।
वर्तमान युग में यह दोष और अधिक बढ़ गया है। इस समय मनुष्य भौतिकता के पीछे पागल हो रहा है। आत्मकल्याण की बात को सर्वथा भूलकर वह कृत्रिम सुख- सुविधाओं के लिए लालायित हो रहा है। जिनके पास ऐसे साधन जितने अधिक होते हैं, उसे उतना ही भाग्यवान् समझने लगता है। जो संयोगवश अथवा शक्ति के अभाव के कारण उन सुख- साधनों से वंचित रह जाते हैं, वे अपने को परम अभागा, दीन- हीन अनुभव करते हैं। उनका मन सदैव घोर उद्विग्न रहता है और अतृप्त लालसाओं के कारण भी शान्ति का अनुभव करने में असमर्थ रहते हैं।
गीता में कहा गया है कि ‘मन ही मनुष्य का शत्रु और मन ही मित्र है, बन्धन और मोक्ष का कारण भी यही है।’ वश में किया हुआ मन अमृत के समान और अनियन्त्रित मन को हलाहल विष जैसा अहितकर बताया गया है। कारण यह है कि मन के ऊपर जब कोई नियन्त्रण या अनुशासन नहीं होता, तो वह सबसे पहले इन्द्रिय भोगों में सुख खोजने के लिए दौड़ता है।
जीभ से तरह- तरह के स्वाद चाटने की लपक उसे सताती है। रूप यौवन के क्षेत्र में काम- किलोल करने के लिए इन्द्र के परिस्तान को कल्पना जगत में ला खड़ा करता है। नृत्य, गीत, वाद्य, मनोरंजन, सैर- सपाटा, मनोहर दृश्य, सुवासित पदार्थ उसे लुभाते हैं और उनके निकट अधिक से अधिक समय बिताना चाहता है। सरकस, थियेटर, सिनेमा, क्लब, खेल आदि के मनोरंजन, क्रीड़ास्थल उसे रुचिकर लगते हैं। शरीर को सजाने या आराम देने के लिए बहुमूल्य वस्त्राभूषण, उपचार, मोटर- विमान आदि सवारियाँ, कोमल पलंग, पंखे आदि की व्यवस्था आवश्यक प्रतीत होती है। इन सब भोगों को भोगने एवं वाहवाही लूटने, अहंकार की पूर्ति करने, बड़े बनने का शौक पूरा करने के लिए अधिकाधिक धन की आवश्यकता होती है। उसके लिए अर्थ संग्रह की योजना बनाना मन का प्रधान काम हो जाता है।
असंस्कृत, छुट्टल मन प्रायः इन्द्रिय भोग, अहंकार की तृप्ति और धन संचय के तीन क्षेत्र में ही सुख ढूँढ़ पाता है। उसके ऊपर कोई अंकुश न होने से वह उचित- अनुचित का विचार नहीं करता और ‘जैसे बने वैसे करने’ की नीति अपनाकर जीवन की गतिविधि को कुमार्गगामी बना देता है। मन की दौड़ स्वच्छन्द होने पर बुद्धि का अंकुश भी नहीं रहता। फलस्वरूप एक योजना छोड़ने और दूसरी अपनाने में योजना के गुण- दोष ढूँढ़ने की बाधा नहीं रहती।
पाशविक इच्छाओं की पूर्ति के लिए अव्यवस्थित कार्यक्रम बनाते- बिगाड़ते रहना और इस अव्यवस्था के कारण जो उलझनें उत्पन्न होती हैं, उनमें भटकते हुए ठोकर खाते रहना- साधारणतः यही एक कार्यप्रणाली सभी स्वच्छन्द मन वालों की होती है। इसकी प्रतिक्रिया जीवनभर क्लेश, असफलता, पाप, अनीति, निन्दा और दुर्गति होना ही हो सकता है।
मन का वश में होने का अर्थ उसका बुद्धि के, विवेक के नियन्त्रण में होना है। बुद्धि जिस बात में औचित्य अनुभव करे, कल्याण देखे, आत्मा का हित, लाभ, स्वार्थ समझे, उसी के अनुरूप कल्पना करने, योजना बनाने, प्रेरणा देने का काम करने को मन तैयार हो जाय, तो समझना चाहिए कि मन वश में हो गया है। क्षण- क्षण में अनावश्यक दौड़ लगाना, निरर्थक स्मृतियों और कल्पनाओं में भ्रमण करना अनियन्त्रित मन का काम है। जब वह वश में हो जाता है तो जिस एक काम पर लगा दिया जाए, उसमें लग जाता है।
मन की एकाग्रता एवं तन्मयता में इतनी प्रचण्ड शक्ति है कि उस शक्ति की तुलना संसार की और किसी शक्ति से नहीं हो सकती। जितने भी विद्वान्, लेखक, कवि, वैज्ञानिक, अन्वेषक, नेता, महापुरुष अब तक हुए हैं, उन्होंने मन की एकाग्रता से ही काम किया है।
सूर्य की किरणें चारों ओर बिखरी पड़ी रहती हैं, तो उनका कोई विशेष उपयोग नहीं होता; पर जब आतिसी शीशे द्वारा उन किरणों को एकत्रित कर दिया जाता है, तो जरा से स्थान की धूप से अग्नि जल उठती है और उस जलती हुई अग्नि से भयंकर दावानल लग सकता है। जैसे दो इञ्च क्षेत्र में फैली हुई धूप का केन्द्रीकरण भयंकर दावानल के रूप में प्रकट हो सकता है, वैसे ही मन की बिखरी हुई कल्पना, आकांक्षा और प्रेरणा शक्ति भी जब एक केन्द्रबिन्दु पर एकाग्र होती है, तो उसके फलितार्थों की कल्पना मात्र से आश्चर्य होता है।
पतञ्जलि ऋषि ने ‘योग’ की परिभाषा करते हुए कहा कि ‘योगश्चित्तवृत्ति निरोधः’ अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध करना, रोककर एकाग्र करना ही योग है। योग साधना का विशाल कर्मकाण्ड इसलिए है कि चित्त की वृत्तियाँ एक बिन्दु पर केंद्रित होने लगें तथा आत्मा के आदेशानुसार उनकी गतिविधि हो। इस कार्य में सफलता मिलते ही आत्मा अपने पिता परमात्मा में सन्निहित समस्त ऋद्धि- सिद्धियों का स्वामी बन जाता है। वश में किया हुआ मन ऐसा शक्तिशाली अस्त्र है कि उसे जिस ओर भी प्रयुक्त किया जाएगा, उसी ओर आश्वर्यजनक चमत्कार उपस्थित हो जाएँगे। संसार के किसी कार्य में प्रतिभा, यश, विद्या, स्वास्थ्य, भोग, अन्वेषण आदि जो भी वस्तु अभीष्ट होगी, वह वशवर्ती मन के प्रयोग से निश्चित ही प्राप्त होकर रहेगी। उसकी प्राप्ति में संसार की कोई शक्ति बाधक नहीं हो सकती।
सांसारिक उद्देश्य ही नहीं, वरन् उससे पारमार्थिक आकांक्षाएँ भी पूरी होती हैं। समाधि सुख भी ‘मनोबल’ का एक चमत्कार है। एकाग्र मन से की हुई उपासना से इष्टदेव का सिंहासन हिल जाता है और उसे गज के लिए गरुड़ को छोड़कर नंगे पैर भागने वाले भगवान् की तरह भागना पड़ता है। अधूरे मन की साधना अधूरी और स्वल्प होने से न्यून फलदायक होती है, परन्तु एकाग्र वशवर्ती मन तो वह लाभ क्षणभर में प्राप्त कर लेता है जो योगी लोगों को जन्म- जन्मान्तरों की तपस्या से मिलता है। सदन कसाई, गणिका, गिद्ध, अजामिल आदि असंख्य पापी जो जीवनभर दुष्कर्म करते रहे, क्षणभर के आर्त्तनाद से तर गए।
संकल्प की अपूर्व शक्ति से हमारे पूजनीय पूर्वज परिचित थे, जिन्होंने अपने महान् आध्यात्मिक गुणों के कारण समस्त भूमण्डल में एक चक्रवर्त्ती साम्राज्य स्थापित किया था और जिन्हें जगद्गुरु कहकर सर्वत्र पूजा जाता था। उसकी संकल्प शक्ति ने भूलोक, स्वर्गलोक, पाताल लोक को पड़ोसी- मुहल्लों की तरह सम्बद्ध कर लिया था। उस शक्ति के थोड़े- थोड़े भौतिक चमत्कारों को लेकर अनेक व्यक्तियों ने रावण जैसी उछल- कूद मचाई थी, परन्तु अधिकांश योगियों ने मन की एकाग्रता से उत्पन्न होने वाली प्रचण्ड शक्ति को परकल्याण में लगाया था।
अर्जुन को पता था कि मन को वश में करने से कैसी अद्भुत सिद्धियाँ मिल सकती हैं। इसलिए उसने गीता में भगवान् कृष्ण से पूछा—‘‘हे अच्युत ! मन को वश में करने की विधि मुझे बताइए, क्योंकि वह वायु को वश में करने के समान कठिन है।’’
वश में किया हुआ मन भूलोक का कल्पवृक्ष है। ऐसे महान् पदार्थ को प्राप्त करना कठिन होना भी चाहिए। अर्जुन ने ठीक कहा है कि मन को वश में करना वायु को वश में करने के समान कठिन है। वायु को तो यन्त्रों द्वारा किसी डिब्बे में बन्द किया भी जा सकता है, पर मन को वश में करने का तो कोई यन्त्र भी नहीं है।
भगवान् कृष्ण ने अर्जुन को दो उपाय मन को वश में करने के बताए— (१) अभ्यास और (२) वैराग्य। अभ्यास का अर्थ है- वे योग साधनाएँ जो मन को रोकती हैं। वैराग्य का अर्थ है- व्यावहारिक जीवन को संयमशील और व्यवस्थित बनाना। विषय- विकार, आलस्य- प्रमाद, दुर्व्यसन- दुराचार, लोलुपता, समय का दुरुपयोग, कार्यक्रम की अव्यवस्था आदि कारणों से सांसारिक अधोगति होती है और लोभ, क्रोध, तृष्णा आदि से मानसिक अधःपतन होता है।
शारीरिक, मानसिक और सामाजिक बुराइयों से बचते हुए सादा, सरल, आदर्शवादी, शान्तिमय जीवन बिताने की कला वैराग्य कहलाती है। कई आदमी घर छोड़कर भीख- टूक माँगते फिरना, विचित्र वेश बनाना, अव्यवस्थित कार्यक्रम से जहाँ- तहाँ मारे- मारे फिरना ही वैराग्य समझते हैं और ऐसा ही ऊटपटांग जीवन बनाकर पीछे परेशान होते हैं। वैराग्य का वास्तविक तात्पर्य है—राग से निवृत्त होना।
बुरी भावनाओं और आदतों से बचने का अभ्यास करने के लिए ऐसे वातावरण में रहना पड़ता है, जहाँ उनसे बचने का अवसर हो। तैरने के लिए पानी का होना आवश्यक है। तैरने का प्रयोजन ही यह है कि पानी में डूबने के खतरे से बचने की योग्यता मिल जाए। पानी से दूर रहकर तैरना नहीं आ सकता। इसी प्रकार राग- द्वेष जहाँ उत्पन्न होता है, उस क्षेत्र में रहकर उन बुराइयों पर विजय प्राप्त करना ही वैराग्य की सफलता है।
कोई व्यक्ति जंगल में एकान्तवासी रहे तो नहीं कहा जा सकता कि वैराग्य हो गया, क्योंकि जंगल में वैराग्य की अपेक्षा ही नहीं होती। जब तक परीक्षा द्वारा यह नहीं जान लिया गया कि हमने राग उत्पन्न करने वाले अवसर होते हुए भी उस पर विजय प्राप्त कर ली, तब तक यह नहीं समझना चाहिए कि कोई एकान्तवासी वस्तुतः वैरागी ही है। प्रलोभनों को जीतना ही वैराग्य है और यह विजय वहीं हो सकती है जहाँ वे बुराइयाँ मौजूद हों। इसलिए गृहस्थ में, सांसारिक जीवन में सुव्यवस्थित रहकर रागों पर विजय प्राप्त करने को वैराग्य कहना चाहिए।
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