जानिये रोग होने व निवारण के महत्वपूर्ण सिद्धांत को
जब दुनिया का लगभग हर आदमी हर समय अपने शरीर की किसी न किसी तकलीफ से परेशान या बहुत परेशान है, तो लोग ये क्यों नहीं समझ पाते की आजकल के बड़े या छोटे हॉस्पिटल्स में काम करने वाले डॉक्टर्स की बीमारी ठीक करने की औकात सीमित है !
डॉक्टर्स के इलाज से बार बार निराश होकर कई बार लोग अपने दर्द या तकलीफ से समझौता करके उसे बर्दाश्त कर जीते हैं ! ऐसे लोगों के शरीर में कोई दर्द तकलीफ है की नहीं, ये दूसरे नहीं जान पाते जब तक की वो उनसे खुद ना बताएं !
और आजकल के डॉक्टर्स भी वही जीवन शैली जी रहें हैं जो उनके मरीज, तो कोई ये कैसे भ्रम पाल सकता है कि डॉक्टर्स अन्दर से कोई तकलीफ या बीमारी नहीं झेलते होंगे वो भी सिर्फ इसलिए की उन्होंने कुछ साल डॉक्टरी की पढाई कर ली है !
तो लोग क्यों नहीं डॉक्टर्स के पार देखने की कोशिश करते ? या लोग क्यों नहीं रोग के कारण और निवारण का 100 प्रतिशत सफल फार्मूला खोजने की कोशिश करते ?
ऐसे एक नहीं बहुत से सफल फार्मूले का बहुत सुन्दर वर्णन है हमारे परम आदरणीय हिन्दू धर्म में !
दुःख की बात है की आजकल के बहुत से हिन्दुओं का कभी भी हिन्दू धर्म के ज्ञान विज्ञान के खजाने से पाला ही नहीं पड़ा और ना ही उन्होंने पूरी जिन्दगी कभी भी मुगलों और अंग्रेजों के बार बार के आक्रमण की वजह से नष्ट हुए प्राचीन और परम रहस्यमय हिन्दू धर्म के ज्ञान को खोजने की कोशिश की !
आईये देखते हैं क्या मूल भूत सिद्धांत बताता है हमारा परम आदरणीय हिन्दू धर्म, रोगों और रोगों के पूर्ण नाश पर !
अन्न से ही रज, वीर्य बनते हैं और इन्हीं से इस शरीर का निर्माण होता है। अन्न द्वारा ही देह बढ़ती है, पुष्ट होती है तथा अन्त में अन्नरूप पृथ्वी में ही भस्म होकर सड़- गलकर मिल जाती है।
अन्न का सात्त्विक अर्थ है—पृथ्वी का रस। पृथ्वी से ही जल, अनाज, फल, तरकारी, घास आदि पैदा होते हैं। उन्हीं से दूध, घी आदि भी बनते हैं। यह सब अन्न कहे जाते हैं।
अन्न से उत्पन्न होने वाला और उसी में मिल जाने वाली यह देह, प्रधानता के कारण ‘अन्नमय कोश’ कही जाती है। यह बात ध्यान रखने की है कि हाड़ मांस का जो यह पुतला दिखाई देता है, वह अन्नमय कोश की अधीनता में है, पर उसे ही अन्नमय कोश न समझ लेना चाहिए। मृत्यु हो जाने पर देह तो नष्ट हो जाती है, पर अन्नमय कोश नष्ट नहीं होता। वह जीव के साथ रहता है।
बिना शरीर के भी जीव भूतयोनि में या स्वर्ग- नरक में उन भूख- प्यास, सर्दी- गर्मी, चोट, दर्द आदि को सहता है जो स्थूल शरीर से सम्बन्धित हैं। इसी प्रकार उसे उन इन्द्रिय भोगों की चाह रहती है जो शरीर द्वारा भोगे जाने सम्भव हैं।
भूतों की इच्छाएँ वैसी ही आहार विहार की रहती हैं, जैसी शरीरधारी मनुष्यों की होती हैं। इससे प्रकट है कि अन्नमय कोश शरीर का संचालक, कारण, उत्पादक, उपभोक्ता आदि तो है, पर उससे पृथक् भी है। इसे सूक्ष्म शरीर भी कहा जा सकता है।
रोग हो जाने पर डॉक्टर, वैद्य, उपचार, औषधि, इञ्जेक्शन, शल्य क्रिया आदि द्वारा उसे ठीक करते हैं। चिकित्सा पद्धतियों की पहुँच स्थूल शरीर तक ही है, इसलिए वह केवल उन्हीं रोगों को दूर कर पाते हैं जो कि हाड़- मांस, त्वचा आदि के विकारों के कारण उत्पन्न होते हैं।
परन्तु कितने ही रोग ऐसे भी हैं जो अन्नमय कोश की विकृति के कारण उत्पन्न होते हैं, उन्हें शारीरिक चिकित्सक लोग ठीक करने में प्रायः असमर्थ ही रहते हैं। पैदा होते ही बीमार होना, दुर्घटना या अनजानी गलती की तकलीफ झेलना, क्या हैं इसके पीछे सिद्धान्त !
अन्नमय कोश की स्थिति के अनुसार शरीर का ढाँचा और रंग रूप बनता है। उसी के अनुसार इन्द्रियों की शक्तियाँ होती हैं। बालक जन्म से ही कितनी ही शारीरिक त्रुटियाँ, अपूर्णताएँ या विशेषताएँ लेकर आता है। किसी की देह आरम्भ से ही मोटी, किसी की जन्म से ही पतली होती है। आँखों की दृष्टि, वाणी की विशेषता, मस्तिष्क का भौंड़ा या तीव्र होना, किसी विशेष अंग का निर्बल या न्यून होना अन्नमय कोश की स्थिति के अनुरूप होता है।
माता- पिता के रज- वीर्य का भी उसमें थोड़ा प्रभाव होता है, पर विशेषता अपने कोश की ही रहती है। कितने ही बालक माता- पिता की अपेक्षा अनेक बातों में बहुत भिन्न पाए जाते हैं।
शरीर अन्न से बनता और बढ़ता है। अन्न के भीतर सूक्ष्म जीवन तत्व रहता है, वह अन्नमय कोश को बनाता है। जैसे शरीर में पाँच कोश हैं, वैसे ही अन्न में तीन कोश हैं—स्थूल, सूक्ष्म, कारण। स्थूल में स्वाद और भार, सूक्ष्म में प्रभाव और गुण तथा कारण के कोश में अन्न का संस्कार रहता है। जिह्वा से केवल भोजन का स्वाद मालूम होता है। पेट उसके बोझ का अनुभव करता है। रस में उसकी मादकता, उष्णता आदि प्रकट होती है।
अन्नमय कोश पर उसका संस्कार जमता है। मांस आदि अनेक अभक्ष्य पदार्थ ऐसे हैं जो जीभ को स्वादिष्ट लगते हैं, देह को मोटा बनाने में भी सहायक होते हैं, पर उनमें सूक्ष्म संस्कार ऐसा होता है, जो अन्नमय कोश को विकृत कर देता है और उसका परिणाम अदृश्य रूप से आकस्मिक रोगों के रूप में तथा जन्म- जन्मान्तर तक कुरूपता एवं शारीरिक अपूर्णता के रूप में चलता है।
इसलिए आत्मविद्या के ज्ञाता सदा सात्त्विक, सुसंस्कारी अन्न पर जोर देते हैं ताकि स्थूल शरीर में बीमारी, कुरूपता, अपूर्णता, आलस्य एवं कमजोरी की बढ़ोत्तरी न हो।
जो लोग अभक्ष्य खाते हैं, वे अब नहीं तो भविष्य में ऐसी आन्तरिक विकृति से ग्रस्त हो जाएँगे जो उनको शारीरिक सुख से वञ्चित रखे रहेगी। इस प्रकार अनीति से उपार्जित धन या पाप की कमाई प्रकट में आकर्षक लगने पर भी अन्नमय कोश को दूषित करती है और अन्त में शरीर को विकृत तथा चिररोगी बना देती है। धन सम्पन्न होने पर भी ऐसी दुर्दशा भोगने के अनेक उदाहरण प्रत्यक्ष दिखाई दिया करते हैं।
कितने ही शारीरिक विकारों की जड़ अन्नमय कोश में होती है। उनका निवारण दवा- दारू से नहीं, योग से ही सम्भव है चाहे वह भक्ति योग हो, राज योग हो या हठ योग !
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