नाटक – श्रीरुक्मिणीरमणो विजयते – अध्याय 2 (लेखक – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध)
(स्थान-राजद्वार के सन्मुख की भूमि)
(महाराणी रुक्मिणी अटा पर विराजमान)
(कुछ याचकों का प्रवेश)
पहला याचक- अहा! यह नगर भी कैसा रमणीय है, विशेषत: स्वर्ग में कैलाश की भाँति, अथवा सत्यलोक में बैकुण्ठ समान इस नगर में यह राजद्वार कैसा अपूर्व है। किन्तु इसकी छबि और द्वारिका की छबि में चन्द्र और चन्द्रिका का-सा अन्तर है। जिस दिन से इन ऑंखों ने उस स्वर्ग बिनिन्दक नगर का अवलोकन किया है उस दिन से इनकी दृष्टि में कोई दूसरा नगर जँचता ही नहीं। भगवान श्रीकृष्ण और उनके चरित्र धन्य हैं। जिनके पदपाथोज राजग्रहण के कारण द्वारिका की ऐसी शोभा है।
(गाता है)
राग सोरठ
जय प्राची दिसि-देवकिचन्द।
श्रीबृषभानुनन्दिनी कैरबिकारक परमाऽनन्द।
असुरधवान्त जग तापमिटावन मुनिचकोर सुखदैन।
बिमल वेदपथ औष धि पोषक उचरि सुधा सम बैन।
पातक-रत पामर कपटी नृप कमल करन छबिहीन।
कल कौमुदी सरिस माया सों कारक जगत अ धी न।
नास्तिक चोर हियो सन्तापक विरहि खलन दुखदायक।
हरिऔध गोपिन राका रजनी हिय मोद बिधायक। 1 ।
दूसरा याचक-(झटपट उसी सुर में गाता हुआ)
जयति बनज यदुबंस तुमारी।
अखिल बिस्वबर ब्योमप्रकासक प्रगटित निसा अविद्याहारी।
जनमन चक्रवाक अनुमोदक खल उलूकगन हिय दुखदाई।
बान भौम आदिक तारागनहत प्रकास कर नृप समुदाई।
कुमुदसुयोधनादिअविकासकपौण्ड्रकादिजगधवान्त बिनासी।
हरिऔध मुनिभृंगबिनोदक बर बिचार पय कमल प्रकासी। 2 ।
तीसरा याचक- (द्वारिका के ध्यान में मग्न होकर) मित्रवरो! जब से मैंने द्वारिका का परित्याग किया है, उस दिवस से मेरी वही दशा हो रही है, जैसी उस जीव की होती है जो अपने तपोबल से कुछ दिवस स्वर्गवास करने के उपरान्त पुन: मृत्युलोक में निवास पाता है। भगवान श्रीकृष्ण की मन्द मुसकान, कमल सी ऑंखें, घुघुरारी अलकें, क्षणभर नहीं भूलतीं अतएव इन दिनों मेरी वैसी ही गति है जो गति उस चकोर की हो सकती है जो पृथ्वी के उस भाग को छोड़कर जहाँ वह परमोत्सुकता से पूण्र् चन्द की मयूखों का पान करता हो, किसी कारण से उस भाग में आ पड़े, जहाँ कुहू की काली रात हो।
(गाता है)
राग बिहाग
स्याम को रूप अनूप निहारी।
उपमा सकल मोहि लघु लागत सब वि धि कहत बिचारी।
बिबरनिबास कीनअहिकच लखिमुख लखि नभ निसि स्वामी।
नैन बिलोकि मीन मृग खंजन भये बिकल बनगामी।
नासा ग्रीवा कटि सुगमन लखि कीर कपोत सिंह गज लाजे।
लखि मृनाल प्रभु भुजप्रलम्ब को दुरयो जल जलज समाजे।
अंग अंग सब रुचिर मनोहर हरिऔध का पै कहि जाई।
नैनन लखो बैन किमि भाखै प्रभुसरूप जनमन सुखदाई।
चौथा याचक- (प्रसन्न होकर) प्रियवर! सत्य है! केवल तुमारी ही यह गति नहीं है, ऐसा कौन है जो महात्मा श्रीकृष्ण के सुन्दर स्वरूप का अवलोकन कर तन मन से उसका अनुरागी नहीं होता, जैसे जितना ही उत्तम दूरदर्शक यन्त्र होता है, आकाशमण्डल में उतने ही अधिक और बहुत तारे दीखने लगते हैं, वैसे ही भगवान के विषय में विचारदृष्टि से जितनी विवेचना की जाती है, उतने ही उनमें विशेष नवीन और विचित्र गुणगण दृष्टिमान होते हैं, और इसी कारण भगवान का नाम अनन्त है।
(गाता है)
चंचरीक
कहिये गुन कौन जदुपति असुरारी।
कमलज मनहरनवार सुरपति भ्रमकरनवार जलपति दुखदरनवार श्रीपति सुखकारी।
नाशककंसादि कूर जनगन सुखकरन भूर व्रजजन-आनन्दमूर सन्तनअघहारी।
कालिय सन्तापशमन अघ-बकबृषभादिदमन जमुना कलकूलरमन मोहन बनवारी।
बृन्दाबन रासकरन सुरमुनिमन मोदभरन असरनजन एकसरन गिरवर-करधारी।
द्विज तिय आनन्द भौन अखिल-दुहिततापदौन हरिऔध दास तौन चरनन बलिहारी। 4 ।
पाँचवाँ याचक-हाय! कैसी खेद और लज्जा की बात है कि भगवान वासुदेव में इन सब अद्भुत और अलौकिक गुण के रहते बहुत से पामर उनकी गोचारक इत्यादि विशेषणों से निन्दा करते रहते हैं। सत्य है। मच्छिकानिकर को सुन्दर अंग में वर्ण अथवा छिद्रही प्रिय होता है, रक्तपयोपूरित कुच में रुधिर को ही ग्रहण करती है। किसी ने कितना सच कहा है-
कवित्त
कमल सों आनन कुरंगन सो दृग जाके बाँकी कटिकेहरि मृनाल बाँहें ऐन है।
कोकिला सों कण्ठ कीर नासिका धनुष भौंहैं बानी सुभसर जाके लागे नहिं चैन है।
तियन को मोहत फिरत ग्राम आसपास जैसे बिरहिन के दाहिबे को पति रैन है।
पुनि मतिमन्द लोग जानत न भेष याको एते पर कहैं चरवारो स्याम धॆ न है। 5 ।
श्रीरुक्मिणी- (स्वगत) अहा। इस समय मेरे मन का कैसा भाव हो रहा है, याचकों के मधुर और सुस्वरगान सम्मिश्रित भगवत सुयश ने इसको लोहे चुम्बक समान अपनी ओर कैसा आकर्षित किया है। यद्यपि मैं इस को अधिकार में रखने की बहुत चेष्टा करती हूँ, तथापि यह कभी भगवतसंयोगसुखानुभव करना चाहता है, कभी उसको एक असंभाव्य विषय जानकर बिकल हो जाता है, कभी मुझको उपदेश करता है, कि जैसे श्रीअपर्णा ने अपनी तपस्या के बल से अप्राप्य भगवान शिव को प्राप्त किया, उसी प्रकार तू भी भगवान बासुदेव के लिए तपस्या कर! और मेरी अभिलाषा पूरी करके सुयश ले, कभी कछुवे समान अर्थात् जैसे वह अपने अण्डे के पक जाने के दिन की गणना बड़े स्मरण और प्रीति के साथ करता है, उसी प्रकार उस दिन की गणना किया चाहता है जिस दिन उसको भगवान के पदसरोज दर्शन की आशा होवे। हाय! नैनों ने तो अभी भगवान का लोक-मोहन स्वरूप देखा ही नहीं, केवल उनके सुयश को सुनकर प्रेम ने मन की यह दशा कर दी। अब तो यह भवन दु:ख-स्वरूप और कुलमर्याद महारोग ज्ञात होता है, क्षण भर का वियोग युग समान प्रतीत होता है, नेत्र स्वरूप देखने के लिए, श्रवण मधुर बैन सुनने के लिए बिकल हो रहे हैं। शरीर असमर्थ जान पड़ता है, हाथ पाँव कहने में नहीं हैं। सत्य है।
दोहा
नहिं सुप्रेम केवल लखे हिय मैं होत उदोत।
बहुधा यह गुन सुने ते प्रगट आपही होत।
मेरी यह दशा, शरीर की यह अवस्था, इन्द्रियों की यह गति, पर अब उपचार क्या हो सकता है, सीप का विदीर्ण हृदय स्वाति बुन्द के अभाव में कब पूरित हुआ है (चिन्ता नाटय करती है)
(नेपथ्य में वीणाध्वनि और गान)
जयति ब्रजबल्लवी प्रानबल्लभ परम।
तापसन्ताप उपताप पातकहरन दरन गहि दाप भौ भूरि भीषण भरम।
कठिन कलिकलुखकुलकाल कल्यान कर कोषकरतूति कौतुक अलौकिक करम।
धरनिधर धन्य धुरध्यान धारी ध्रुवादिक धराधीस के धाम धीरज धरम।
निखिलनयनीतिनि धि नवलनीरजनयन निपट नागर सुनवनीतहूँ ते नरम।
मंजु तम मैनमनहरन हरिऔध मंगल महामूल मं त्र दिमोचन मरम। 7 ।
श्रीरु.- (चकित सी होकर) अहा! यह अमृत की वर्षा कौन महाशय कर रहे हैं ?
प.या.- (सुनना नाटय करके) मित्रवरो! जान पड़ता है भगवान नारद आते हैं!
स.या.- (सानन्द) इसमें क्या आश्चर्य है। भगवत् गुणानुवाद गान का फल सन्तदर्शन होता ही है।
(भगवान नारद का प्रवेश)
नारद- (याचकों की ओर देखकर) याचकगन! मैं इस समय अन्तरिक्षपथ से कुछ आवश्यकीय कार्यों के लिए द्वारिका जा रहा था, अकस्मात् भगवान श्रीकृष्ण नामांकित तुम लोगों का मधुरगान श्रवणगोचर हुआ, अतएव मैं यहाँ आने के लिए बाध्य हुआ, कहो परम पराक्रान्त भगवान श्रीकृष्णप्रतिपालित द्वारिका की इन दिनों कैसी अवस्था है?
स.या.- (सादर प्रणिपात पुरस्सर) महात्मन्! विश्व का कोई विषय ऐसा नहीं जो आपको अनवगत हो, तथापि आपने जो द्वारिका का समाचार पूछकर हम लोगों को प्रतिष्ठा दी है अतएव हम लोगों को भी उस विषय को कुछ श्रीचरण की सेवा में निवेदन करना उचित है। यह एक दोहा महानुभाव के प्रश्न का पर्याप्त उत्तर होगा?
दोहा
खरे हार नृपगन रहत सुरगन जात सकात।
धन जनपूरित नगर लखि सर आनँद अ धि कात।
ना.- सत्य है! सत्य है!! बहुत सत्य है!!! बरन जिस नगर की पृथ्वी अक्लिष्टकर्मैकधाम भगवान श्रीकृष्ण के बज्रांकुशादि चिद्दित आरक्तिम पदतल से सुरंचिता होती रहती है, उसके लिए यह एक साधारण बात है
श्री रु.- आहा! मेरी कामना-पावकशिखा के लिए महात्मा नारद की बातें तो घी से भी बढ़कर हैं। उनके युक्तिसंगतप्रलाप से मम हृदयोद्भूत भगवान श्रीकृष्ण प्रेम अनुक्षण कैसा बढ़ता जाता है।
ना.- (स्वगत सुनना नाटय करके) क्या कहा? ”आह! मेरी कामनापावकशिखा के लिए महात्मा नारद की बातें तो घी से बढ़कर हैं” फिर क्या कहा? ”उनके युक्तिसंगतप्रलाप से ममहृदयोद्भूत भगवान श्रीकृष्ण प्रेम अनुक्षण कैसा बढ़ता जाता है” (ऊपर देखकर) क्या ये भीष्मकनन्दिनी कुमारी रुक्मिणी के वाक्य हैं? मैं कृतकार्य हुआ। जान पड़ता है मेरे आने के प्रथम याचकों के गान और वाक्यों ने ही कुमारी के हृदय में भगवत् प्रेम उत्पादन कर दिया था। चलो यह भी अच्छा हुआ, जिस कार्य के लिए मैं आया था, उसके लिए मुझको विशेष प्रयास नहीं करना पड़ा। तो अब यहाँ विशेष विलम्ब करने का कौन काम है (प्रगट) याचकगन! मैं तुम लोगों के उत्तर से बहुत प्रसन्न हुआ, और द्वारिका के समाचार से भी अभिज्ञ हो गया, अतएव अब जाना चाहता हूँ।
स.या.- जैसी महानुभाव की इच्छा।
(महात्मा नारद का उसी प्रकार गाते-गाते प्रस्थान)
ए.या.- (स्वगत) जैसे बसन्त ऋतु की शोभा अवलोकन करने से स्वभावत: हृदय में काम का संचार होता है, अथवा किसी महात्मा का दर्शन करने से अकस्मात हृदय में विज्ञान का प्रादुर्भाव होता है, उसी प्रकार इस राजद्वार की शोभा देखकर हम लोगों को स्वत: भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन का काल स्मरण हो आया, जिससे हम लोगों को ही परमानन्द नहीं हुआ, प्रत्युत समस्त भगवत्सुयशश्रवणकर्तार्ओं को भी अत्यन्त हर्ष हुआ। किन्तु अब भगवान तमारि स्वरश्मियों को आकर्षण कर अस्ताचल को पधारा चाहते हैं, अतएव हम लोगों को भी डेरे चलना उचित जान पड़ता है (प्रगट) मित्रगण! अब चलने में क्या विलम्ब है? क्योंकि सन्ध्या हुआ चाहती है।
स.या.- राजद्वार का दर्शन हुआ ही, साथ ही महात्मा नारद ने भी अनुग्रह किया, हम लोगों की कामना सफल हुई। फिर अब चलने में क्या विलम्ब है, चलो चलें!
(याचकगण ‘जय प्राचीदिशि देवकिचन्द’ इत्यादि गाते जाते हैं ,
साथ ही जवनिकापतन होता है)
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