नाटक – श्रीरुक्मिणीरमणो विजयते – अध्याय 7 (लेखक – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध)
( जनवासे का एक विस्तृत भवन)
( शिशुपाल , जरासन्ध , शाल्व , विदूरथ , रुक्म , दन्तवक्र प्रभृति अनेक सूरमे यथास्थान बैठे हैं)
शि.- (भय से) मैंने सुना है, आज बहुत सी सेना लेकर बलराम श्रीकृष्ण यहाँ आया है, यदि यह सत्य है तो इस विवाह के मंगलकार्य में बिना कोई उत्पात हुए न रहेगा, क्योंकि जैसे दैविक उत्पात के चिह्न आकाशादि का अरुण होना और प्रतिमा प्रभृति का हँसना है, उसी प्रकार भौतिक उत्पात का चिह्न इन दोनों का किसी शुभकार्य में आगमन करना है। अतएव मैं पहले ही कहे देता हूँ कि हम लोगों को बहुत सतर्क रहना समुचित और योग्य है।
शा.- (हँसकर) क्या सिंह कभी छुद्रतम जन्तु शशक के त्रस से अपने किसी कार्य में सावधनी ग्रहण करता है? क्या टीड़ीदल अथवा कीडीदल समान यादवों की सेना हमसे सूरों का सामना कर सकती है?
वि.- इस विषय में विवाद कौन करे, किन्तु शत्रु को तुच्छ समझकर अपने कर्तव्य से समय पर चूक जाना नितान्त अयुक्ति है। भारतवर्ष में टीड़ीदल जिस क्षेत्र पर पड़ता है उसको बिलकुल सत्यानाश कर देता है। छुद्र पिपीलिका जब काल पाकर गजेन्द्र के शरीर में उत्पन्न हो जाती है, तो उसके समान बलिष्ठ जन्तु का नाश करने में भी नहीं चूकतीं।
ज.- सत्य है, पर उनकी सेना टीड़ीदल अथवा कीड़ीदल नहीं है। वह प्रचण्ड वायु के समान है जिसके सन्मुख पादक ऐसे दृढ़ सूरमों का भी पैर उखड़ जाता है, और वे छुद्रतम जन्तु शशक समान नहीं हैं, प्रचण्ड बलशाली गैण्डे के तुल्य हैं, जिसके खाँगों के भय से सिंह का भी कलेजा दहलता है।
दं.- तो क्या आप लोग शत्रु का बलकथन करके हमसे सूरमों का उत्साह भंग कर सकते हैं? कभी नहीं, रणभूमि में यदि काल स्वयं आकर सन्मुख हो तो भी हम लोग सशंकित नहीं हो सकते। कृष्ण बलराम किस गिनती में हैं।
ज.- मैं कुछ उनकी प्रशंसा नहीं करता, पर जो बात सत्य है, उसको छिपा भी नहीं सकता, महात्मा वशिष्ठ के तपोधन विश्वामित्र परम शत्रु थे। पर जिस कुल सती अरुन्धती ने पूर्णिमा के शशि की सुखमा अवलोकन कर उनसे पूछा इस समय संसार में ऐसा निर्मल यश किसका है। महात्मा बशिष्ठ ने ईर्षा छोड़कर कहा ऋषिवर्य विश्वामित्र का।
शा.- कृष्ण बलराम में ऐसी कौन विशेषता है, जिससे आपके कथन को हम सत्य जानें।
ज.- वो कुछ अप्रगट नहीं है। उन लोगों ने बाल्यावस्था में बड़े-बड़े दानवों को खेल में मार लिया। दुर्धर्ष अथच परमबलिष्ठ कंस को देखते-देखते मार गिराया। मेरे त्रयोविंशति अक्षौहिणीदल को सत्रह बार ऐसे काट डाला, जैसे कृषक क्षेत्र को बिना प्रयास काट डालता है। अठारहवीं बार न जाने क्यों मेरे सम्मुख से भागे, और एक पर्वत पर चढ़ गये, जब मैं ने पर्वत को जला दिया, वह लोग इस प्रकार अपना प्राण लेकर वहाँ से अन्तर्धान हो गये जैसे देवराज इन्द्र नृपति सगर के यज्ञशाला में से श्यामकर्ण लेकर अन्तर्धान हो गया, कि किसी ने देखा तक नहीं।
रु.- (शोक से स्वगत) आह। क्या कृष्ण ऐसा प्रबल है, यह सुनकर मेरा हृदय काँच की भट्ठी समान जल ही रहा था कि महाराज भीष्मक राजबाड़ी में उनसे मिलने के लिए गये थे। अब जरासंध के वाक्यों ने उस पर और रंग जमाया। पर हाय! उपाय क्या है, मैंने पिता से पूछा भी तो कि कृष्ण किसके बुलाया आया है, पर उन्होंने कुछ न बताया, प्रति वाक्यों से अपने को निर्दोष निश्चित किया। दैव बड़ा दुर्दान्त है जो अब इस प्रकार सुसज्जित नानाभाँति के सुन्दर व्यंजनों को विष डालकर बिगाड़ा चाहता है।
शा.- जो हो। पर एक कृष्ण नहीं यदि ऐसे-ऐसे सौ कृष्ण हों और एक बलराम नहीं सह्स्त्रों बलराम आवें, इन्द्र, शिव, सुरसेनपादि पृथ्वी में आकर उनकी सहायता करें, तो भी अकेला मैं उनको ऐसे जीत लूँगा, जैसे प्रात समय एकाकी भगवान दिवाकर ग्यारह सह्स्त्र राक्षसों को जीतकर उदय होतेहैं।
द.- अहा! युद्ध का नाम सुनते ही मेरी भुजाएँ कैसी फड़क उठी हैं, हृदय में कैसा वीररस का उद्रेक हो आया है, मन को कैसा रणोन्माद हो रहा है। मानो अभी संग्राम भूमि में चलकर अपने प्यासे बाणों को शत्रु के रुधिरपान से तृप्ति कराया चाहता हूँ।
ज.- ‘मुखमस्तीति वक्तव्यं दशहस्ता हरीतकी’ यों तो कहने के लिए मैं भी कह सकता हूँ। हम त्रिलोक बिना प्रयास क्षण भर में जय कर सकते हैं। पर जब रणभूमि का मुख देखना पड़ता है तो बहुतों के हाथ-पैर फूल जाते हैं। जिस प्रकार ओपशाली मार्तण्ड के उदय होते ही तारागणों का प्रकाश और तेज भली-भाँति जाना जाता है, उसी प्रकार रणभूमि में पदार्पण करते ही वाचालों का बल और पराक्रम सब पर प्रगट हो जाता है।
शा.- तो क्या आपकी इच्छा है कि पवित्र क्षत्रियशोणितोद्भूत होकर प्राण की आशंका से घर भाग चलें?
ज.- यह मैंने कब कहा है, मेरी यह इच्छा कदापि नहीं है, किन्तु मेरे कहने का अभिप्राय यह है कि ऐसा प्रयत्न किया जावे जिसमें उत्पात का भय ही न होवे। और जैसे भगवान विष्णु ने समुद्र का मंथन करके कौशल से ललनाललाटभूषा लक्ष्मी को प्राप्त किया। वैसे ही हम लोग अपनी सयुक्ति बल से राजनन्दिनी रुक्मिणी को निर्विघ्न प्राप्त करें क्योंकि यह युद्धविग्रह का समय नहीं है।
रु.- (क्रोध में) आप लोग पहरों से किसके लिए इतना भावित हो रहे हैं। मैं शपथ करके कहता हूँ कि युद्ध समय यदि इस गोपजात का प्रत्येक स्वास स्वासवीर्य के स्वास की भाँति एक वीर बन जावेगा, प्रत्येक रक्तबिन्दु रक्तवीर्य के रक्तबिन्दु समान एक योद्धा हो जावेगा, प्रत्येक छिन्न अंग पुरुभुज समान एक सूरमा बनकर खड़ा होगा। तब भी वह मेरे तीव्र बाणों से त्राण पाकर द्वारका न जा सकेगा। सैन्य की कथा ही क्या है।
दं.- सत्य है। सूरमाओं को ऐसा ही अभिमान रखना योग्य है। जय विजय तो ईश्वर के हाथ है।
( एक द्वारपाल का प्रवेश)
द्वा.- (प्रणाम करके) महाराज की आज्ञा थी, कि जिस समय राजनन्दिनी देवीपूजन के लिए नगर बाहर जाने लगें, उस समय हमको जता देना, सो राजनन्दिनी अब देवीपूजन के लिए जा रही हैं, क्या आज्ञा है?
शि.- (स्वगत) जरासंध के कथन से ज्ञात होता है कि कृष्ण समान वीर्यशाली हम लोगों में से कोई भी नहीं है। फिर उन योद्धाओं का किया क्या हो सकता है, जो हम लोगों से सर्व प्रकार बलहीन हैं। जिस प्रचण्डवायु के वेग से बड़े-बड़े प्रकाण्ड वृक्ष समूल नष्ट हो जाते हैं उसके सन्मुख अरण्ड की क्या गणना है। तथापि इस समय न्यायानुमोदित यही जान पड़ता है कि राजनन्दिनी की रक्षा के लिए अपने कतिपय सामन्तों को नियुक्त और संग्रह करूँ। (प्रगट)द्वारपाल! हमारे सूरसामन्तों और योद्धाओं से जाकर कह दो कि वे राजनन्दिनी की रक्षा के लिए उनके साथ रहें।
द्वा.- जो आज्ञा। (जाता है)
शि.- (सकल सभास्थितजनों से) मित्रगण! आप लोगों ने परस्पर विवाद तो बहुत कुछ किया, पर यह न बताया कि ऐसे अवसर पर क्या कर्तव्य है ?
शा.- कर्तव्य क्या है? हम लोगों को शुध्दान्त:करण से आपकी सहायता के लिए इस प्रकार परिकरबद्ध हो जाना योग्य है, जैसे देवासुर संग्राम समय सुरराज इन्द्र की सहायता के लिए भगवान विष्णु और कैलासपति शिव परिकरबद्ध हो जाते हैं।
दं.- केवल हम लोगों को ही परिकरबद्ध हो जाना उचित नहीं है, किन्तु
समस्त सामन्तों और सूरमाओं को भी कृष्ण के आगमन के समाचार
से अभिज्ञ करके सावधान कर देना योग्य है और सर्व आयुधों को भी ठोकठाक कर लेना उचित है, क्योंकि ‘सन्दीप्ते भवने तु कूपखननं प्रत्युद्यम: कीदृश:।”
रु.- (झुँझलाकर) आप लोगों को क्या हो गया है, जो आप लोग एक छुद्र व्यक्ति के लिए इतना प्रयत्न करना चाहते हैं। क्या तमसमूह के नाश करने के लिए सूर्य कभी कुछ उपाय करके उदय होता है? अथवा रज कण की उद्धतता निवारण के लिए घन कभी चिन्तातुर बनता है? जिस काल मेरे बाण सर्प समान फुंकार कर रणभूमि में प्रवेश करेंगे, शत्रुओं की सेना वधिर हो जावेगी। उनके नेत्र बन्द हो जावेंगे, सह्स्त्रश: कबन्ध रणस्थल में इधर-उधर फिरते दृष्टिगोचर होंगे, भूत प्रेत पिशाच मांस मेद मज्जा खाकर प्रलय तक के लिए तृप्त हो जावेंगे, योगिनियाँ खोपड़ियों द्वारा रुधिर पान करके आनन्द से पैर फैलाकर सो रहेंगी। युगान्तक भगवान शिव की मुण्डमाला जो आज तक अधूरी है पूरी हो जावेगी, और बड़े-बडे सूरमाओं का युद्ध का उमंग जाता रहेगा।
छन्द
जब बान और कमान लै रण मांहिं रिपु पर धाइहौं।
अस सुभट को जेहि मारिकै नहिं भूमि माहिं लुठाइहौं।
करि विकल सारथि रथिन को छन मांहिं मान उतारिहौं।
अरि अति अबल अहिकांहिं मैं जग प्रबल जिमि उरगारिहौं।
उर छेदि भेदि अनेक को रणभूमि मांहिं सुवाइहौं।
करि छिन्न भिन्न अपार रिपुदल चाव सकल नसाइहौं।
पुर समर जिमि त्रि पुरारि तिमि रिपु सकल गर्ब प्रहारिहौं।
पाकारि जिमि हियपाक को तिमि रिपुहियहिं गहि फारिहौं।
बहु कहब अनुचित होत याते अब कहत सकुचात हौं।
पै करब आपहँ लोग ऐसहिं यह अवसि पतियात हौं।
स.लो.- शाबाश! हम लोग भी यही चाहते हैं। ऐसा कौन होगा जो उसके लिए असि ग्रहण करेगा, जिसके नाश की सम्भावना केवल कर प्रहार से है किन्तु यह विशेष सतर्कता का समय अवश्य जान पड़ता है।
रु.- निस्सन्देह! किन्तु कोई चिन्ता नहीं। अब विवाह का समय समीप है यदि आप लोगों की आज्ञा हो तो मैं जाकर आवश्यक कार्यों का परिशोध करूँ ?
स.लो.- हाँ। आप जाइये, अब हम लोग भी उचित और आवश्यकीय कार्यों को करना चाहते हैं।
रु.- बहुत अच्छा। (जाता है)
(जवनिकापतन)
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