नाटक – श्रीरुक्मिणीरमणो विजयते – अध्याय 9 (लेखक – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध)
( स्थान-जनवासे का बाहरी प्रान्त)
( बहुत से सूरमे खड़े और शिशुपाल , शाल्व , दन्तवक्र , जरासन्ध इत्यादि बहुत से वीर बैठे हैं)
(एक दूत का प्रवेश)
दू.- (हाथ जोड़कर काँपते हुए) महाराज! बड़ा अनर्थ हुआ। भगवान श्रीकृष्ण राजनन्दिनी को आपकी सेना के मध्य से हर ले गये। हम लोगों ने किसी ने न जाना, सारी सेना चित्र की भाँति खड़ी देखती ही रही।
शि.- (क्रोध से) जैसे तुच्छ मृग पराक्रान्त मृगराज से शत्रुता करे, छुद्र पक्षी प्रचण्ड उरगारि से बैर बिसाहे, और लघु मीन बड़े ग्राह को ऑंख दिखावे, उसी प्रकार मृत्युमुखपतित कृष्ण हमसे प्रबल क्षत्रियों से बैर करके कुशल चाहता है। कुछ चिन्ता नहीं, दूत! तुम सेनावालों से जाकर कह दो कि वे संग्राम के लिए तत्काल संग्रह हों।
दू.- जो आज्ञा। (जाता है)
रु.- सत्य है। जैसे नादश्रवणलिप्सा से मृग अपने प्राण से पराङ्मुख होता है, प्रमत्तद्विरदस्वरूप दर्शनाकांक्षी होकर गर्त में पतित होता है, सरस सुगन्ध की आकांक्षा से षट्पदकमलकोष में बद्ध होता है, धवल बालुका राशि को जल समझ भ्रम आपतित कुरंग अपना प्राण गँवाता है, उसी प्रकार राजकन्या रुक्मिणी का इच्छुक होकर संग्रामीय निबिड़ जाल में फँस कृष्ण अपने जीवन से उदासीन हुआ चाहता है ”कालस्य कुटिला गति:”
शि.- (दम्भ से) मित्रवर! क्या उसने मेरे पराक्रम को नहीं सुना है, क्या वह मेरी अलौकिक रणक्षमता को नहीं जानता, जो ऐसा अन्यायानुमोदित कर्म करने के लिए बाध्य हुआ। आज मेरे पन्नग समकक्षी बाण उसके हृद्विवर में प्रवेश करके उसका ऊष्ण रुधिर पान करेंगे। मेरे प्रचण्ड दोर्दण्ड जिनकी प्रचण्डता पाकारि इन्द्र भली-भाँति जानता है, उसका प्रबल युध्दोन्माद क्षणभर में निवारण कर देंगे। जिस काल मेरा बज्रमानमर्दक चक्र छूटेगा, मैनाक की भाँति यदि वह अपारोदधि की शरण ग्रहण करेगा, तथापि त्राण न पा सकेगा, यह मेरी शाणित करवाल जिसकी प्रज्वाल सन्मुख नन्दन की शोभा क्षीण है, जब उसपर टूटेगी, दशमुख के भुज और मुख की भाँति उसके प्रत्येक अंगों का अनेक खंड कर देने में कदापि विलम्ब न करेगी।
सवैया
कोप कै लै जब दण्ड प्रचण्ड उदण्ड ह्नै शत्रु के सामुहे जैहों।
ताको प्रचारि कै मारि कै डारि कै हीय बिदारि कै मैं सुख पैहों।
छेदि अनेकन को हरिऔध कितेकन को कच सों गहि लैहों।
सेस सुरेस महेस गनेसहुँ आइ मिले नहिं संकित ह्नैहों।
शा.- प्रिय मित्र! हम क्षत्रियों को रण से विशेष इस विशाल संसार में और कौन प्रिय वस्तु है यों तो इस नश्वर जगत में जो उत्पन्न हुआ है, एक दिवस अवश्य मरेगा, किन्तु योगाभ्यास से और रणभूमि में करवाल ग्रहण करके मरना विरले ही को प्राप्त होता है। क्या यह थोड़े पुण्य का फल है कि क्षत्रियवंशधर यदि रणस्थल में विजय हस्तगत करता है तो संसार में अक्षयकीर्ति और बिपुल ऐश्वर्य का भागी बनता है। और यदि अकातर चित्त से स्ववीरत्वध्वज आरोपण करते हुए रणशैया पर शयन करता है तो योगीजन वांछनीय पवित्र स्वर्गसुख का अधिकारी होता है। अहा! धन्य है! जगतपावन क्षत्रिय धर्म!!!
दन्त.- (दाँत पीसकर) आज आप लोग मेरा युद्ध देखेंगे, जब तक युद्ध काल उपस्थित नहीं था, लोग मुझे बड़बोला जानकर मेरा उपहास करते थे, किन्तु आज मैं ऐसा युद्ध करूँगा कि भगवान शिव की समाधि भंग हो जावेगी, दिग्गज चिल्लाने लगेंगे! पृथ्वी थर्राने लगेगी। शेषनाग दहल जावेंगे! देवते चमत्कृत होंगे। भूतेश्वर की मुण्डमाल पूर्ण हो जावेगी। योगिनियाँ रुधिर पान से सन्तृप्त होकर नर्तन करेंगी। कबन्ध युद्ध करते दृष्टिगत होंगे! रुधिर की सरिता प्रवाहित होगी। कंक काक मांस खाकर शान्ति लाभ करेंगे।
कवित्ता
करिके प्रचण्ड कोप त्यागि हिय संक आज अरिदल दारि फारि पल मैं बिडारिहौं।
करि घमसान सब कसक निकारि लैहों सूर सरदारहूँ सगर मैं प्रचारि हौं।
औधहरि अरि के उमंग हिय जेती अहै कहत पुकारि ताको पल मैं निकारिहौं।
बढ़ि सर झारिहौं अनेकन को मारिहौं प्रवीर मद टारिहौं न भूलि रन हारिहौं।
जरा.- मैं क्या कहूँ, यद्यपि अपने मुख से अपनी प्रशंसा उचित नहीं होती, तथापि यह अवसर कुछ कहने ही का है, और कुछ कहना ही क्या! मैं बाण वृष्टि से आज प्रलय समान पृथ्वी आकाश को एक कर दूँगा। मेरे तीव्र शर निपातित एवं जर्जरित वीरों के शोणित से शैल काननकुन्तला धारणीकर्दमित हो जावेगी। पर्वतस्थ प्राचीन काक भुसुण्ड ने शुम्भ एवं महिषासुर के युद्ध में पर्वत के सिरोदेश से और प्रचण्ड पराक्रमशाली रावण के संग्राम समय पर्वत के निम्न भाग में अवतरण करके रुधिर पान किया था, किन्तु आज के मेरे युद्ध में यदि वे उस पर्वत के ऊपर एक ओर उन्नत वृक्ष पर जा बैठेंगे तो वहीं रक्तपान करके तृप्त हो जावेंगे, कर्तित एवं विद्ध बीरों की भुजा, सिर और अपर अंगों की राशि से पृथ्वी पर एक द्वितीय हिमाचल दृष्टिगोचर होगा। अनन्त गगन में टीड़ीदल सदृश बाण संक्रान्त इतने सिर उड़ते देखने में आवेंगे कि जिनके घनीभूत होने से आज का समुज्ज्वल दिवस तमसाच्छन्न भाद्रपद की काली रात बन जावेगा।
कवित्ता
दौरहु दिगन्त दाबि बीरबलशाली आज करिकै अपार कोप अरिहूँ अघाय देहू।
दलिमलि मारि चाव चूर करि सूरन को आन बान आपनेई हाथन नसाय देहूँ।
औधहरि बढ़ि बढ़ि बे धि बेधि बीरन को बहुत कहाँ लौं कहौं बिरद बुझायदेहु।
डाँटि कर देहु दूर दीहदाप द्रोहिन को गरजि गुमानिन को गरब गँवाय देहु।
सब वी.- पृथ्वीनाथ! हम सबों पर आपका बड़ा ऋण है। सो आज उस ऋण के परिशोध करने का, अपना पौरुष प्रगट करने का, संसार में अक्षयकीर्ति लाभ करने का, स्पृहणीय स्वर्गसुख हस्तगत करने का, उन्नतस्तनी अप्सराओं के प्रमुग्ध कर कटाक्ष अवलोकन करने का, अवसर उपस्थित हुआ है। जब तक हम लोगों के एक अंग में भी प्राण रहेगा, शरीर की एक सिरा में भी रुधिर प्रवाहित होगा, हम लोग शत्रु को साँस न लेने देंगे। आप देखेंगे कि हमलोगों के प्रबल आक्रमण से शत्रु सेना क्षणभर में ऐसे बिलाय जावेगी, जैसे जलबुद्बुद्। हम लोग दुराचारी रावण की सेना समान वाक्सूर और कापुरुष नहीं हैं, किन्तु पराक्रान्त शुंभ एवं महिषासुर की ओजस्विनीधवजिनी सदृश युद्ध कुशल और रणदुर्मद हैं।
शि.- शाबाश! बहादुरो! शाबाश!! धन्य हो। क्यों न हो। जब तुम लोग ऐसे हो तभी तो ऐसे लोमहर्षण व्यापार में पदार्पण करने के लिए कटिबद्ध हो, नहीं तो अपना प्राण किसको नहीं प्यारा है। किन्तु सूरमाओं की यह रीति केवल आज ही ऐसी नहीं है, सदा से इसकी पोषकता इसी प्रकार होती आयी है। देवासुर संग्राम में विकट वृत्रसुर की देवराज ने दोनों भुजाएँ काट दीं, पर क्या इससे वह भीत हुआ, अणु मात्र नहीं, वरन् द्विगुण्दर्प से लड़ता ही रहा। उद्धत रावण का सिर और भुजमूल बीर धुरन्धर भगवान रामचन्द्र काटते ही जाते थे, पर इससे क्या उसका उत्साहभंग होता था? नहीं। वह अनुक्षण प्रबल वेग से अधिक होताजाताथा।
शा.- अरे रणभीरु! कायरशिरोरत्न। तियचोर। दुराचार कृष्ण। यद्यपि तेरे दुष्कर्म और बंचकता से इस काल हम लोगों का हृदय कुम्हार के आवाँ की भाँति दग्ध हो रहा है, तथापि आपत्ति में पड़ा हुआ मृगेन्द्र छुद्र शृगाल के विनाश के लिए बहुत है। यदि आज तू रणभूमि में मायावी रावण समान अनेक स्वरूप धारण करके प्रगट होगा, प्रबल महिषासुर की भाँति नाना प्रकार की मूर्ति बनकर दृष्टिगोचर होगा, दनुवंश जातों का अनुकरण करके कभी अन्तर्धान कभी प्रगट होकर युद्ध करेगा, पक्षी बनकर नभोमण्डल की, जलचर स्वरूप धारण् करके अगाध उदधि की, सर्प होकर अवकाशवती धारणी की, वन्यपशु स्वरूप से अन्धाकाराच्छन्न गिरिकन्दर की, शरण लेगा, तथापि मेरे शाणित शरों से त्राण न पा सकेगा।
(एक दूत का प्रवेश)
दूत- महाराज! आपकी सम्पूर्ण सेना युद्ध के लिए तैयार खड़ी है और यादवों की सेना डंके बजाती, झण्डे उड़ाती, तूर्यनाद करती, उद्वेलित समुद्र समान कूलवर्ती पदार्थों को विनाशती, द्वारकाभिमुखयात्रा कर रही है।
रु.- (दर्प से) तो चलो अब हम लोग भी अगस्त सी शक्ति धारण करके उसके अकालोद्भूत अभिमान का निवारण करें?
शा.- (खडे होकर उच्चस्वर से)
छन्द
अबै सेहयो ले सबै बीर धाओ। रचो व्यूह सेना सजाओ सजाओ।
बली बीर के मान को दौरि दारो। बढे बैरि के हीय को फारि डारो।
उड़ाओ पताके नगाड़े बजाओ। महादाप कै मेदिनी को कँपाओ।
घने सूर सामन्त को धालि धाओ। चढ़ी चाव तिनको मिटाओ मिटाओ।
न छेड़ो कबौं जाहि पाओ प्रहारो। पुकारो पछारो प्रचारो पधारो।
कड़ाबीन को बेग दागे दगाओ। छुरी से हथी तेग गोला चलाओ।
गदा मारिकै गर्ब बैरीन ढाओ। नसाओ फँसाओ कँपाओ गिराओ।
करी कुम्भ को कोप कै कै बिदारो। जहाँ जाहि पाओ तहाँ ताहि मारो।
सब.- (मिलकर तुमुल शब्द से)
जहाँ जाहि पाओ तहाँ ताहि मारो।
जहाँ जाहि पाओ तहाँ ताहि मारो।
( कहते , हथियार निकालकर कूदते , ललकारते , कोलाहल करते घूमकर नेपथ्य में हो जाते हैं)
(जवनिका पतन होती है)
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