निबंध – अदालत के सामने लिखित बयान (लेखक – गणेशशंकर विद्यार्थी)
सरकारी रिपोर्टर ने मेरे व्याख्यान की जो रिपोर्ट की है वह अपूर्ण, गलत और कहीं-कहीं बिल्कुल विकृत है। मेरा मतलब यह नहीं है कि रिपोर्टर ने जान-बूझकर महज इसलिए उसमें वे शब्द घुसेड़ दिये (जो मैंने नहीं कहे थे) कि जिससे मेरे ऊपर राजद्रोह का मुकदमा चल सके। परंतु यह स्पष्ट है कि जिस भाषा में मैंने व्याख्यान दिया था, उस भाषा का उसे बहुत ही कम ज्ञान है और वह मेरी बातों का मतलब समझने तथा उनकी प्रासंगिकता और उपयुक्तता जानने में असमर्थ रहा। मेरे सवालों के जवाब में उसने यह मंजूर किया है कि उसने कई संस्कृत शब्द समझ में न आने के कारण छोड़ दिये। अपनी रिपोर्ट में भी उसने जिन वाक्यों और शब्दों की रिपोर्ट ठीक समझ कर की है, उनका अर्थ वह नहीं बता सका। वास्तव में जिन लोगों को विद्वान वक्ताओं और लेखकों द्वारा लिखी तथा बोली जाने वाली हिंदी भाषा का काम चलाऊ ज्ञान भी है, वे तुरंत यह देख लेंगे कि रिपोर्टर ने कई ऐसे शब्द लिख दिये हैं जिनका कोई अर्थ ही नहीं और जो वास्तव में, क्या हिंदी और क्या अन्य भाषा, किसी में भी नहीं पाये जाते। कई जगहों में उसने ऐसे शब्द लिख डाले हैं जिनका प्रसंगानुसार कोई अर्थ नहीं होता। बात यह मालूम होती है कि प्रत्यक्षत: दूसरे शब्द अटकल से लिख दिये। वास्तव में रिपोर्टर ने व्याख्यान की जैसी रिपोर्ट पेश की है, वह ऐसे संबंधहीन वाक्यों का ढेर मात्र है, जो एक दूसरे के साथ मेल नहीं खाते। कई वाक्य कुछ ऐसे शब्दों का संग्रह मात्र हैं, जिनका कोई भी अर्थ नहीं होता। मैं अच्छा वक्ता नहीं। न मैं ठीक-ठीक और सिलसिलेवार बोल सकता हूँ। यह बात रिपोर्टर ने स्वयं स्वीकार की है। रिपोर्टर ने जो कुछ कहा है उसके प्रतिकूल यह भी स्पष्ट है कि वह बहुत अच्छी तरह से शार्ट-हैंड रिपोर्टिंग नहीं जानता और उसके लिए यह असंभव था कि मुझ-जैसे शीघ्र वक्ता के भाषण की पूर्ण रिपोर्ट ले लेता। न केवल मेरे भाषण के कई वाक्यों और कई मुख्य अंगों की रिपोर्ट ही नहीं की गयी, बल्कि जिन वाक्यों की रिपोर्ट की गयी है उनमें से भी महत्वपूर्ण शब्द और शब्द-समूह छोड़ दिये गये हैं और रिपोर्टरों की आम आदत के मुताबिक कहीं-कहीं तो रिपोर्टर ने अपनी अक्ल के मुताबिक मेरे वाक्यों का मतलब ठीक करने के लिए अपने शब्द जोड़ दिये हैं। इसलिए मेरे रिपोर्ट किये हुये भाषण से जो आम असर पड़ता है, वह बहुत ही भ्रमोत्पादक है। रिपोर्टर ने शब्दों के जिस संग्रह को रिपोर्ट किया है, उसे मेरे भाषण की रिपोर्ट कहना भाषण की विडंबना करना है। असल में रिपोर्ट में मेरे भाषण को संक्षेप में देने की कोशिश की गयी है, सो भी एक ऐसे मनुष्य द्वारा जो न तो जल्दी-जल्दी रिपोर्ट ही ले सकता था और न भाषण को ही समझ सकता था। उदाहरण के लिए, रिपोर्ट में दिये गये नीचे के वाक्यों का अर्थ क्या हो सकता है?
देश में जितनी शिकायतें है उनको संचालित करने की कोशिश करूँगा।
मित्रों से कहना चाहता हूँ कि असहयोग उनकी सहानुभूति नहीं है।
जब तुम अहिंसा के बल से स्वराज्य लेना चाहते हो तो अब न कहो कि हम नहीं कर सकते।
उन सारी शिकायतों को जो इस तरह उसके सारे आदमियों को पहुँचती है, सब का मुखालिफ हूँ।
जब माता के बच्चे जने तो धुन के साथ यह कह दे।
आज कौंसिल में विरोध है, कल तिजारत में विरोध होगा।
लड़ाई चुप की नहीं है।
मैं माफी चाहता हूँ।
अदालत के जवाबों में मैंने अपने भाषण के कुछ आवश्यक वाक्यों को जहाँ तक मुझे पता था, वहाँ तक सुधार दिया। मैंने कुछ वाक्यों का, जो यद्यपि भद्दी तरह से रिपोर्ट किये गये हैं, परंतु जिनको शायद सरकार ने मेरे खिलाफ राजद्रोह का अभियोग चलाने का आधार माना है, अर्थ कर दिया है। अगर मेरे ऊपर यह आरोप किया गया हो कि मैं मौजूदा नौकरशाही से जरा भी प्रेम नहीं करता, मैं अपने श्रोताओं के मन में उसके काम के प्रति असंतोष उत्पन्न करना चाहता था और चाहता था उनके मन में वर्तमान शासन प्रणाली को दूर करने की उत्कट इच्छा उत्पन्न करना, तो स्वीकार करता हूँ कि मैं अपराधी हूँ। मैंने अपने भाषण में कहा था और मैंने उस समय जो भाव प्रकट किया था, उसे मैं आज भी ठीक समझता हूँ। उन तमाम हानिकर प्रभुत्वों को हटा देना चाहिये जो लोगों की न्यायोचित आकांक्षाओं का दमन करते हैं और उनको बंधनों में जकड़ रखने में मदद देते हैं।
फिर चाहे ऐसा प्रभुत्व शासक नौकरशाही का हो या जमींदारों का, धनवानों का हो या ऊँची जातियों का, परंतु अगर मेरे ऊपर यह आरोप है, जैसा कि मालूम होता है कि मैंने लोगों को उपद्रव के लिए उत्तेजित किया है तो मैं पूर्णतया उसका प्रतिवाद करता हूँ। सभा में वास्तव में जो कुछ हुआ, वह यह है कि मेरे मित्र मंडित गौरीशंकर मिश्र ने जो कांग्रेस के अपरिवर्तनवादी कहे जाने वाले दल के हैं, मेरी राय पर जो कौसिलों के पक्ष में थी, हमला कर दिया। इस संबंध में उन्होंने अहिंसा और अप्रतिरोध के सिद्धांत पर जोर दिया। ऐसा मालूम पड़ता था कि उनके निज के विचार में कौंसिल के चुनाव में खड़े होना एक तरह की हिंसा है। गोविंद बिहारी सर्किल इन्सपेक्टर ने अपने बयान में यह बात कही है कि पंडित गौरीशंकर मिश्र ने कहा कि कौसिलों में जाना हिंसा है। मिश्रजी ने दो घंटे तक लंबा भाषण दिया। उन्होंने हिंसा और अहिंसा के ढंग के गुण-अवगुणों की विस्तृत सैद्धांतिक विवेचना की। यह महत्वपूर्ण बात याद रखनी चाहिये कि इस विवाद में ‘हिंसा’ शब्द का प्रयोग हिंदू नीति शास्त्र के अनुसार दूसरे को किसी प्रकार का शारीरिक या मानसिक कष्ट पहुँचाने के अर्थ में किया गया था। पंडित गौरीशंकर मिश्र ने प्रेम और अहिंसा की दार्शनिक व्याख्या करते हुए कहा कि प्रेम और अहिंसा दार्शनिक अर्थ में स्वतंत्रता लेने के लिए की जाने वाली हर तरह की हिंसा के विरुद्ध है। संक्षेप में, उन्होंने राजनीति में पूर्ण प्रेम के साथ, किसी भी प्रकार का कष्ट पहुँचाने की समस्त इच्छाओं से मुक्त, असहयोग के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। अपरिवर्तनवादी होने के कारण उन्होंने कौंसिलवादी दल पर यह समझ कर हमला किया मानो उनकी राय में वह दल महात्मा गांधी द्वारा प्रतिपादित अहिंसात्मक असहयोग के सिद्धांत के विरुद्ध कुछ करने को तैयार था। मैं पंडित गौरीशंकर मिश्र के बाद बोला और मेरे भाषण पढ़ लिया जाय। इसीलिए मैंने अदालत से कहा था कि उनके भाषण की रिपोर्ट भी रिकार्ड में होनी चाहिये थी, परंतु अदालत ने यह बात न मानी। हिंसा और अहिंसा के संबंध में मैने जो कुछ कहा, उसे उस विवाद में एक भाषण स्वरूप पढ़ना चाहिये जिसको पंडित गौरीशंकर मिश्र ने शुरू किया। अहिंसात्मक असहयोग के प्रति मेरा व्यवहार क्या है, यह सरकारी रिपोर्ट में दिये गये इस वाक्य से पूर्णतया मालूम हो जाता है – मैं नान वायलेंस (अहिंसा) को शुरू से अपनी पालिसी मानता रहा हूँ। धर्म नहीं मानता रहा। मैंने अपने व्याख्यान में यह दिखाया कि मनसा और कर्मणा, अहिंसा साधारण मनुष्यों का सहज स्वभाव नहीं है और इसीलिये राजनैतिक संग्राम में उसे अपना साधारण हथियार नहीं बनाया जा सकता। जहाँ मैंने यह कहा है कि मैं लड़ाई का पक्षपाती हूँ, वहाँ स्पष्टतया मेरा मतलब यह है कि राजनैतिक संग्राम चाहता हूँ, यह जरूरी नहीं कि यह संग्राम प्रेम और अहिंसा के उस संग्राम पर आधारित हो जिसकी व्याख्या मिश्र जी ने की है। मुझमें और पंडित गौरीशंकर मिश्र में जो सैद्धांतिक-राजनीतिक विवेचना का विवाद हो रहा था, उसी विवाद में अपने सिद्धांत को अधिक स्पष्ट करने के लिए मैंने यहाँ तक कह डाला कि अगर ब्रिटिश सत्ता मेरे सामने प्रतिमा का रूप धारण करके आये तो मैं उसकी उपासना नहीं करूँगा बल्कि उसे खंडित करके प्रवाहित कर दूँगा। इसके बाद दूसरे ही वाक्य में मैंने दूसरी अवांछनीय सभाओं को, जैसे जमींदारों, धनवानों और ऊँची जातियों की सभा को जिक्र किया और कहा कि मैं इन सभी को हटा दूँगा। यह सवाल तो उठ ही नहीं सकता कि मैंने लोगों को शारीरिक हिंसा करने के लिए उत्तेजित किया, क्योंकि मैं कांग्रेसमैन हूँ। मैंने अपने भाषण में भी यह कह दिया था कि यद्यपि मैं अहिंसा को धर्म नहीं मानता तथापि मैं अपनी वर्तमान अवस्था में राजनैतिक संग्राम का सर्वोत्तम साधन मानता हूँ। परंतु जब मेरे एक मित्र यहाँ तक कह डालते हैं कि कौंसिलों में जाना भी हिंसा है तब मुझे उस धारण की परीक्षा करने के लिए, जिस पर यह सिद्धांत टिका हुआ है, इस प्रकार की अहिंसा के विरुद्ध अपनी आवाज बुलंद करनी पड़ती है। हिंसा, अहिंसा, अप्रतिरोध और राजनैतिक संग्राम, कौंसिलों में जाना अहिंसा सिद्धांत के विरुद्ध है या नहीं इत्यादि के संबंध में जो समस्त वाद-विवाद हुआ, वह सैद्धांतिक था। मुझमें और पं. गौरीशंकर मिश्र में केवल सिद्धांतों पर ही बहस हुई। लोगों को हिंसा के लिये उत्तेजित करने का विचार तो मेरे पास तक नहीं फटक सकता, क्योंकि मेरी दृष्टि से इससे अधिक अहमकाना और आत्मघातक बात और कोई हो ही नहीं सकती। सरकार की तरफ से सिर्फ देवीदयाल गै़र सरकारी गवाह की तौर पर पेश किया गया है। उसका कहना है कि उसके ऊपर मेरे वयाख्यान का यह असर पड़ा कि मैंने लोगों को हिंसा के लिए उत्तेजित किया। मैं इस व्यक्ति का इतमीनान नहीं करता। मैं अनुभव करता हूँ, मेरे भ्राताओं पर यह असर हरगिज न पड़ना चाहिये था। देवीदयाल की बातों से प्रकट होता है कि वह पुलिस का जीव है। मुकदमों में पुलिस अक्सर इससे गवाही दिलाती है। कांग्रेस आफिस के सामने बोर्ड पर कांग्रेस के जो नोटिस लिखे रहते हैं, पुलिस उसकी नकल ले लेती है। उस नकल पर यह दस्तखत किया करता है। इसे गोली-बारूद बेचने का लाइसेंस भी मिला हुआ है। इस प्रकार यह एक ऐसा आदमी है जो पुलिस ने मेरे बरखिलाफ अपनी इच्छानुकूल बातें कहलाने के लिये पेश किया। मेरी अन्तरात्मा मुझसे साफ-साफ कहती है कि मेरे मन में लोगों को हिंसा के लिए उत्तेजित करने का इरादा न था। परंतु यदि मेरे श्रोताओं में से एक के दिल पर वास्तव में यह असर पड़ा है तो मैं हृदय से दु:खी हूँ। अगर मुझे सच-सच यह मालूम हो जाय कि मैंने गलती की तो मैं तुरंत उसे स्वीकार कर लूँगा। अगर मेरे कोई वाक्य लोगों को हिंसा करने के लिये उत्तेजित करने वाले होते तो मैं सहर्ष उन्हें वापिस ले लेता, क्योंकि मैं कांग्रेस का एक विनम्र परंतु कट्टर सदस्य हूँ और लोगों को हिंसा के लिये उत्तेजित करना राष्ट्रीय महासभा के सिद्धांत के विरुद्ध है।
नि:संदेह मैं लड़ाई का पक्षपाती हूँ और टाल्सटाय और महात्मा गांधी की पूर्ण अहिंसा को जिस अर्थ में धार्मिक सिद्धांत मानते हैं, उस अर्थ में मैं इस पर विश्वास नहीं करता, परंतु मैं सशस्त्र क्रांति करने पर किसी को शारीरिक हानि पहुँचाने की हिंसा को भी अपनी वर्तमान अवस्था में ठीक नहीं समझता। हमारी वर्तमान व्यवस्था में तो उसका विचार करना तक मूर्खतापूर्ण और आत्मघातक है। मैंने जो कुछ कहा है, वह सब केवल अपनी स्थिति साफ करने के लिये कहा है, किसी को संतुष्ट या असंतुष्ट करने के लिये नहीं। जहाँ तक राजद्रोह से संबंध है, वहाँ तक मुझे एक शब्द भी नहीं कहना। मैं यह जानता हूँ कि हमारे देश में दफा 124-ए का प्रयोग कितनी गैर-जिम्मेदारी के साथ किया जाता है। किसी भी सच्चे राजनैतिक कार्यकर्ता के लिए क्षण भर के लिये भी यह अनुभव करना असंभव है कि वह इस समग्र धारा की व्यापक शब्दावली और उसके काम में लाये जाने वाले भाव से बचा हुआ है। मुझे छूट हुए अभी दस महीने नहीं हुए कि मेरी राजनैतिक क्रियाओं को बंद करने का एक अवसर तलाश किया गया। मुझे इस बात पर कोई आश्चर्य नहीं। मैं उस नौकरशाही से किसी प्रकार की आशा नहीं रखता, जिसके विरुद्ध हमारा सारा राजनैतिक संग्राम हो रहा है। परमात्मा मुझमें इतनी शक्ति दे कि मेरे ऊपर जो कुछ आये मैं प्रसन्नतापूर्वक सह लूँ और कठिन से कठिन अवसर पर भी जनता और मातृभूमि की सेवा के आदर्श को न भूलूँ।
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