निबंध – कुली-प्रथा : शैतान बपतिस्मा ले रहा है (लेखक – गणेशशंकर विद्यार्थी)
1792 के पहले यूरोप तथा अमेरिका में गुलामों का निर्बाध व्यापार होता था। हब्शियों और नीग्रो लोगों को पकड़-पकड़कर यूरोपियन व्यापारी यूरोप तथा अमेरिका के रईसों और जमींदारों के हाथ बेचा करते थे। इन गुलामों की हालत क्या थी इसके कहने की आवश्यकता नहीं। उनसे हर तरह से मालिक लोग काम लेते थे और यूरोप और अमेरिका की सभ्य सरकारों ने इस व्यापार को कानूनों द्वारा सुरक्षित बना रखा था। गुलाम किसी तरह से भी भाग नहीं सकते थे। मनुष्य जाति के इतिहास में सभ्य मनुष्यों के नाम पर गुलाम व्यापार से अधिक कलंक की बात दूसरी कोई भी नहीं है। अठारहवीं शताब्दि के आरंभ में इस व्यापार के विरुद्ध कुछ उदार आत्माएँ उठीं। इस भयंकर व्यापार के विरुद्ध थामस क्लाकर्न, फोबेल व वसटन, शार्प ग्राविल तथा टामसपेन आदि उदारहृदय पुरुषों ने घोर आंदोलन उठाया। इंग्लैंड में इसके संबंध में सबसे पहले काम हुआ। 1792 ई. में यूरोप से यह भयंकर व्यापार उठने लगा। धीरे-धीरे अमेरिकन राज्यों ने भी 1834 में गुलामों को मुक्त कर दिया।
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1834 के बाद व्यापारियों और जमींदारों ने जिनके हाथों में सरकरों की नकेले थीं, गुलामी की प्रथा संशोधित रूप में फिर से जारी कर दिया। इसका नाम था ”कुली प्रथा” लोगों की नजरें भारतवर्ष की ओर गयीं। सबसे पहले ‘मिरच के टापू’ की सरकार ने भारत सरकार से प्रार्थना की कि शर्तबंदी प्रथा जारी करके भारतीय मजदूर वहाँ भेजे जाएँ। भारत सरकार सदा से परोपकारिणी रही है। वह दूसरों के कष्टों को न देख सकी। और अपने भारतीय मजदूरों के भेजने के संबंध में मिरच के टापू की सरकार द्वारा पेश की गयी लगभग सभी शर्तें स्वीकार कर लीं। 1834 में 7000 अभागे भारतवासी मिरच के टापू भेजे गये। फिर तो अन्य उपनिवेशों को भी भारतीय मजदूरों की आवश्यकता पड़ी। जमेका, ट्रिनीडाड, सेंट लूसिया ग्रेनेड, नैटाल और फीजी आदि में भी भारतीय कुली भेजे जाने लगे। इस प्रकार गुलामों के व्यापार का यह नया रूप खूब फला-फूला। इन भारतीय कुलियों की कष्ट-कहानी समस्त भारतवासियों पर प्रकट है। इस कुली-प्रथा के कारण संसार में भारतवर्ष का जितना अपमान हुआ उतना अपमान सभ्य संसार के इतिहास में शायद ही किसी जाति को सहना पड़ा हो। विदेशों में भारतीयों के अनादर का एक मात्र कारण यह कुली-प्रथा ही थी और इस समस्त अपमान का दायित्व है। भारत सरकार की उस नीति पर जिसके द्वारा उपनिवेशों की भलाई और भारत की बुराई होती है।
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दक्षिण अफ्रीका के आंदोलन तथा फीजी के भारतीयों की कष्ट-कथा के कारण भारतीय जनता ने 1904 में होश सँभाला। यदि वह आंदोलन न उठता और म. गाँधी सरीखे साहसी नेता घोर अमानुषित यंत्रणाएँ सह कर गुलामों के इस व्यापार की असलियत प्रकट न करते तो कुली-प्रथा अब भी जीती-जागती बनी रहती। इसलिए कुली-प्रथा के उठ जाने का श्रेय हम भारतवासियों के सिवा किसी को भी देने के लिए तैयार नहीं हैं।
कुली-प्रथा मर चुकी है। पर अभी उसके जन्मदाता उसे उजले कपड़े पहिना कर खड़ी करने के प्रयत्न में लगे हुए हैं। उपनिवेशों की सरकारें अमानुषिक अत्याचारों का चुपचाप सह लेने वाले और कानून-फरेब में पड़कर रोटी के टुकड़ों के लिए अपनी स्वाधीनता को बेच देने वाले भारतीय कुलियों के वियोग से छटपटा रही हैं। इंग्लैंड के औपनिवेशक मंत्री पुरानी प्रथा के लिए फिर से जारी कर दिए जाने के लिए उपनिवेशों की सरकारों से परामर्श करने और उन्हें नेक सलाहें देने के लिए हरदम तैयार रहते हैं। गत वर्ष कई डेपूटेशन भी उनके बहुत कुछ कहने सुनने के बाद आजकल भारत में आया हुआ है। बा. सुरेंद्रनाथ बनर्जी के प्रस्ताव करने पर वायसराय की कौंसिल के दस सदस्यों की एक कमेटी, जिसमें आठ भारतीय और दो यूरोपियन सदस्य हैं। इस डेपूटेशन की बातें सुनने के लिए संगठित की गयी है।
गत 10 फरवरी को उक्त कमेटी ने ब्रिटिश गाइना से आए हुए डेपूटेशन से बातचीत की और उसकी स्कीम सुनी। डेपूटेशन में इने-गिने दो आदमी थे। एक डॉ. ननेन जो कि यूरोपियन हैं और गाइना सरकार के अवटार्नी जनरल तथा व्यवस्थापक कौंसिल के मेंबर हैं। दूसरे मि. लक्खू। मि. लक्खू ब्रिटिश गाइना की व्यवस्थापक कौंसिल के एकमात्र भारतीय सदस्य है। साथ ही वह वहाँ के ईस्ट-इंडियन एसोसिएशन के सभापति भी हैं।
दिल्लगी यह है कि गाइना सरकार की तरफ से यह डेपूटेशन न भेजा जाकर वहाँ की व्यवस्थापक कौंसिल की तरफ से भेजा गया है। उसकी कौंसिल में सब मिलकर 21 सदस्य रहते हैं। जिसमें 7 मनोनीत और 14 निर्वाचित किए जाते हैं। 21 सदस्यों में सिफ एक भारतीय सदस्य रहता है। जबकि वहाँ की 2990044 की जनसंख्या में 129389 भारतीय है। समान प्रतिनिधित्व की पोल तो इसी बात से खुल जाती है। डेपूटेशन का यह भी कहना है कि हमारी यह स्कीम सस्ते मजदूर प्राप्त करने के लिए नहीं है। वरन् हमारी सरकार की इच्छा है कि ब्रिटिश गाइना भारतीयों का उपनिवेश बना दिया जाए। बात तो इतनी अच्छी है कि भारतीय जनता के मुँह में पानी भर आना चाहिए। पर पुराना अनुभव यह संदेश उत्पन्न कर रहा है कि कहीं नमक के ऊपर मिश्री की वार्निस तो नहीं की गयी है। डेपूटेशन का यह भी कहना है कि हमारी स्कीम को समस्त भारतीय प्रवासियों ने स्वीकार कर लिया है। और ईस्ट इंडियन एसोसिएशन ने इस पर स्वीकृति की मुहर कर दी है। वह बात बिल्कुल झूठ है। भले ही एसोसिएशन के सभापति मि. लक्खू इस स्कीम के पूरे समर्थक हों। पर एसोसिएशन ने 30 सितंबर, 1919 की बैठक में इस स्कीम को धोखा देने वाली और अव्यवहारिक बतलाया है। साथ ही यह भी कहा गया है कि डेपूटेशन के मैंबरों ने एसोसिएशन के नाम से इसे प्रकाशित करके संसार को धोखे में डालना चाहा है।
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डेपूटेशन ने ब्रिटिश गाइना में भारतीयों को भेजने के संबंध में बड़े विकट प्रलोभन रखे हैं। उनका कहना है कि हमारी सरकार ने संसार में खाद्य सामग्री के अभाव को मिटाने तथा नवीन साम्राज्यगत सहयोग नीति को बढ़ाने के लिए ही इस स्कीम को स्वीकार किया है। उसने यह भी निश्चित किया है कि आरंभिक 5 वर्ष के भीतर जो भारतीय वहाँ जाएँगे उन्हें जहाज तैयार मिलेंगे और किराये का एक टका भी न देना पड़ेगा। सरकार ने नौ हजार रुपये इसीलिए अलग रख छोड़े हैं। गाइना पहुँच कर भारतीय लोग चाहें तो स्वतंत्र खेती करें और चाहें तो मजदूरी करें। खेती के लिए उन्हें भूमि दी जाएगी और मजदूरी करने पर तीन रुपये रोज की मजदूरी। भारतीय औरतों को हलका काम भी मिल सकेगा और डेढ़ रुपये रोज की मजदूरी भी दी जाया करेगी। खाद्य पदार्थों के महँगे होने पर वेतन वृद्धि की जाएगी और इस काम के लिए एक सरकारी दफ्तर खोला जाएगा। मजदूरों को मकान दिए जाएँगे और जो लोग भारत आकर अपने स्त्री-बच्चों को ले जाना चाहेंगे उन्हें यात्रा के लिए सस्ते दामों पर टिकट दिला दिये जाया करेंगे। तीन वर्ष तक रहने के बाद भारतीयों को तराई की भूमि खेती के लिए मिल सकेगी। जो भारतीय भारत लौटना चाहेंगे, यदि भारत सरकार की तरफ से नियुक्त किए गये निरीक्षक गण सिफारिश करेंगे, तो उन्हें जहाज का किराया दिया जाएगा। वैसे भी तीन वर्ष रहने के बाद लौटने पर आधा किराया, 5 वर्ष के बाद लौटने पर पौन किराया और 7 वर्ष के बाद लौटने पर पूरा किराया मिला करेगा। इतने पर भी उनकी जो भूमि ब्रिटिश गाइना में होगी वह उनकी ही बनी रहेगी। भारत से जो धार्मिक उपदेशक, धर्मोपदेश करने के लिए जाया करेंगे। उन्हें आने-जाने का किराया मुफ्त में ही मिला करेगा। हिंदू अपने साथ अपने पाधा-पुरोहित और मुसलमान अपने काजियों को ले जा सकेंगे। उनके लिए मंदिर और मस्जिदें भी बन सकेंगी। डेपूटेशन म. गाँधी द्वारा प्रकट किए गये विचारों के आधार पर यह भी स्वीकार करने के लिए तैयार है कि एक निश्चित अवधि के बाद एक भारतीय नेता वहाँ की स्थिति की जाँच करने के लिए जाएँ। अपनी रिपोर्ट प्रकाशित करें और उसका खर्चा भी गाइना सरकार के मत्थे रहेगा। इस स्कीम की पूर्ति की जांच करने के लिए भारत सरकार तीन आदमियों की एक ऐसी टीम भेजें। जिसमें एक सरकारी एक मनोनीत गैर-सरकारी सदस्य तथा मिस्टर एंड्रयूज रहें। जब सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने ब्रिटिश गाइना के भारतीय कुलियों की मुक्ति का समाचार सुनाया तब डेपूटेशन ने कहा कि पारस्परिक समता और सहयोग के लिए ब्रिटिश गाइना से कुली प्रथा उठा दिया जाना तो आवश्यक ही था। डेपूटेशन ने अपनी बातों की गारंटी करने के संबंध में कहा था कि औपनिवेशिक मंत्री द्वारा ब्रिटिश गाइना में भारतीयों की राजनैतिक तथा व्यापारिक समता को कानूनी व्यवस्था दिलायी जा सकती है और उसके बाद हमारी सरकार उस पर दृढ़ रहने के लिए एक घोषणा भी करने के लिए तैयार है।
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सुरेंद्र कमेटी ने उक्त डेपूटेशन को अपनी कोई राय नहीं दी है। उसने निश्चित किया है कि तीन सदस्यों का एक डेपूटेशन वहाँ की स्थिति देखने और रिपोर्ट लिखने के लिए जाए।
व्यवसथापक कौंसिल में माननीय मालवीयजी ने इस कमेटी के संगठन का यह कहकर विरोध किया था कि यदि समस्त उपनिवेशों में रहने वाले भारतीयों का दायित्व इसको न सौंपा जाएगा तो इसके संगठित करने से लाभ ही क्या होगा? इसी कारण से वे कमेटी से अलग भी हो गये थे। बात भी ठीक है। यदि ब्रिटिश गाइना में स्वतंत्र रूप से परिश्रम और मजदूरी करने वाले भारतीयों के जाने की बात मान ली जाए तो वह 1834 वाली हालत सामने आ जाएगी। फौजी नेटाल ट्रिनीडाड आदि भी भारतीय कुलियों के लिए माँग करेंगे और उस समय बहुत बड़ी संभावना है कि सुरेंद्र कमेटी की स्वीकृति के अनुसार यदि उसने ब्रिटिश गाइना वाली शर्त मान ली तो भारत सरकार अपनी परोपकारिणी प्रवृति से प्रेरित होकर अन्य उपनिवेशों में भी भारतीयों के भेजे जाने पर जोर देगी। उस समय भारतीय जनता कुछ भी न कर सकेगी क्योंकि सुरेंद्र कमेटी आठ भारतीय और गैर-सरकारी सदस्य हैं और नए सुधारों की उदारता के प्रमाणस्वरूप उसका सभापति भी एक भारतीय है। इस प्रकार कमेटी का निर्णय भारतीय जनता का निर्णय माना जाएगा। फल वही होगा जो कुली-प्रथा का हुआ। अनुभव हमें हथ बढ़ाने से रोकता है और साम्राज्य गत सहयोग की नीति हमें सशंकित बनाए हुए है। खतरे की जगह में हम तब तक जाने के लिए तैयार नहीं है जब तक हमारी रक्षा का भार दूसरों के हाथों से निकल कर हमारे हाथों में नहीं आ जाता। ब्रिटिश गाइना अब भले ही मीठी-मीठी बातें करे पर हमें वहाँ पर भारतीयों के साथ होने वाले अत्याचार भूले नहीं है। हिंदू विवाह को कानूनी करार न देना, भारतीय संतानों को गैर-कानूनी ठहराना और भारतीय मजदूरों पर पुलिस द्वारा गोली छुड़वा देना आदि अब भी हमें याद हैं। हमें यह भी मालूम है कि ब्रिटिश गाइना से आब-हवा की खराबी तथा मजदूरी की कमी के कारण उसके आदि निवासी और चीनी तथा यूरोपियन मजदूर ट्रेनीडाड, वेस्टइंडीज तथा अमेरिका की तरफ चले गये है और इस कमी की पूर्ति के लिए ही भारतीयों के उपनिवेश की रचना का स्वांग रचा जा रहा है।
इस बेबसी और दीनता की हालत में भी हमारे प्रवासी भारतीय भाइयों के लिए देश में ही रूखी-सूखी रोटी मिल सकती है। भारत माता की गोद में उनके लिए उतना ही स्थान है जितना कि हमारे लिए।
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