निबंध – दीपमाला (लेखक – गणेशशंकर विद्यार्थी)
अंधकारमय निशा में दूर-दूर तक शुभ्र ज्योत्सना छिटकाने वाली दीपावली की दीपमाला! तेरा और तेरी रश्मियों का स्वागत। स्वागत इसलिये नहीं कि तेरी श्री, श्री की श्री है, संपन्नता की द्योतक और वैभव का रूप है, धनराशियों का प्रतिबिंब और सुख-क्रीड़ाओं की सूचना है। सुख और समृद्धि, आनंद और आहलाद की भावनाओं में वह शक्ति नहीं जो बुझे हुए मन और दबे हुए हृदयों को तेरी अभ्यर्थना, मेरे अभिवादन के लिये उत्कंठित कर सके। काल-चक्र की कुटिल गति के कारण आज भू-मंडल के इस भाग में जहाँ उत्सुकता तेरी बाट जोहती और पसरे हुए बाहु तेरा स्वागत करते, सुषमा की वह आभा जो तेरे अंतरतर में निहित है और आहलाद की वह छटा जिसे सर्वत्र छिटकाती हुई आती है, हृदयों को उठाने, उन्हें आगे बढ़ाने, उन्हें कुछ सुनाने और उनसे कुछ कहलाने में अशक्त-नितांत असमर्थ है। बात यह नहीं कि तुझमें बल नहीं रहा, तुझमें तत्व नहीं। तुझमें शक्ति है और विभूति है और इसका सबूत यह है कि अंधकार से ढकी हुई गिरी पड़ी दरिद्रता और रोग के आक्रमणों से जर्जरित झोंपड़ियों के सिरों पर निश्चिंतता और गर्व से मुस्कराती हुई अट्टालिकाएँ तेरी माला को मुकुट के रूप में धारण किये आज भी भारतीय आकाश से बातें करती दिखायी देती हैं। उन्हें मतलब नहीं कि जननी के किस अंचल में छेद हो गया। उन्हें सरोकार नहीं कि किस झोंपड़े की दीवारें अब गिरीं और तब गिरीं। वे जानना नहीं चाहतीं कि जिस घड़ी उनके यहाँ दीवाली है, उसी घड़ी दूसरों के यहाँ, उन्हीं के-से दूसरे, उन्हीं की-सी मिट्टी के बने दूसरे, और दूसरे भी नहीं, किंतु अपने ही के यहाँ दीवाला है। उनके यहाँ यदि, दीपमाला, तेरा प्रकाश है तो उन दूसरों के यहाँ आग लगी हुई। एक ओर यदि सुख और संपत्ति का प्रवाह है तो दूसरी ओर दरिद्रता और कष्ट की बाढ़। एक ओर संतोष और निश्चितंता की बाढ़ है तो दूसरी ओर क्लेश और अन्याय का राज्य। तेरी शक्ति का यह कैसा अच्छा परिचय है! तेरी महत्ता का यह कैसा प्रदर्शन! तो भी तेरा स्वागत है। स्वागत हृदय से, रोम-रोम से, आत्मा के अंतर-तर से। दीपावली के नाम पर नहीं, दीपकों के नाम पर। मिट्टी के पात्रो! तेल और बत्ती से सुसज्जित वस्तुओं! दीपावली के नाम पर नहीं, अपने गुणों के नाम पर, केवल उस प्रकाश के नाम पर, जो तुम उस समय भी देते जबकि तुम दीपावली को छोड़ कर और किसी अवसर पर प्रज्वलित किये जाते। अपना प्रकाश दूर तक, दूर-दूर तक फेंको, जहाँ तक फेंक सको वहाँ तक फेंको। तुम्हारा प्रकाश अंधे की आँखों की ज्योति का सहारा बने। वे आँखें खुल जायें जो बंद है और जो बंद कर ली गयी है। देश की भूली-भटकी मोह-माया के पाश में जकड़ी-रगड़ी आत्मा उठ बैठे, उसे दिखाई पड़े कि इने-गिने महलों के चारों ओर देश के असंख्य झोंपड़े टूटी हुई छतों और फटी हुई दीवारों को अपने अंक में लिये अपने रूप और गुण के बल से बघिर कानों तक में पहुँच सकने वाली ध्वनि के साथ कह रहे हैं कि देश की कुछ मखमली गद्दियों और षटरस-व्यंजन-युक्त थालियों पर मुग्ध होकर करोड़ों प्राणियों की व्यथा से आँखें मत चुराओ, तुम्हारे ही रक्त-मांस से बने हुए जीवों की हड्डियाँ और आत्मा मधुर मुरली की इस ध्वनि पर, कि देश का धन बढ़ता जा रहा है और भारतवासी अमीर होते जा रहे हैं, तुम्हारी मंद-बुद्धि शुष्कता और क्रूरता का उपहास करती है और कहती है कि दूसरों की बातों की अपेक्षा अपनी आँख और अपने हृदय पर अधिक विश्वास करना सीखो। दीपमाला! तेरे प्रकाश में, सुख और समृद्धि स्वरूपा इस ज्योति में देश की आत्मा, दरिद्रता के साथ, अपनी अशक्तता और असमर्थता का चित्र पूरे हृदय के साथ देखे। वह देखे भारतवासी कीट-पतंग की मौत मर रहे हैं। वह देखे भारतवासी घर और बाहर पिसे और पीसे जा रहे हैं। वह देखे, मार्ग, बंद है, मनुष्यता का पंचमांश न सही तो मनुष्यों के पंचमांश के हाथ-पैर बँधे हुए है, विकास और उन्नति रूक रही है। वह देखे कि अलापने वाली जिह्वाओं के न्याय और स्वाधीनता के रागों में कपट और क्रूरता की रागिनी घुसी हुई है, सांसारिक उन्नति के क्षेत्र में दूसरों के सिरों ही पर पैर रखकर दौड़ लगाने की होड़ लग रही है। और वह यह सब देखे, और भलीभाँति देखे और फिर दीपमाला! निर्जीव दीपकों की दैदीप्यवान लड़ी! तेरा काम समाप्त होता है। तेरे दिखाये दृश्य को देखकर भी मनुष्य की सजीव शक्ति, ईश्वर की अगम्य शक्ति का सहारा लेते हुए यदि आगे न बढ़े तो, दीपावली, फिर तेरी जागती ज्योति का दोष न होगा। समझा जायेगा कि मनुष्य में, मनुष्य कहलाते हुए भी देखने और समझने की शक्ति नहीं रही।
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