निबंध – प्रतीक्षा और प्रार्थना (लेखक – गणेशशंकर विद्यार्थी)
पतन और अभ्युदय के टेढ़े-मेढ़े मार्ग को तै करके, सदा आगे बढ़ने वाले राष्ट्रों के जीवन काल में एक युग ऐसा आता है, जिसके प्रभाव से एक पथगामिनी कार्य-धारा विभिन्न दिशाओं में बहने लगती है। समाज के ऊपर कुछ ऐसे बाह्याभ्यंतर प्रभावों का आघात-प्रतिघात होता है कि सार्वजनिक संस्कृति विश्रृंखल हो जाती है और मत-विभिन्नता अपना साम्राज्य कायम कर लेती है, जो कल तक एक-दूसरे में इस प्रकार घुले-मिले थे जैसे दूध और मिश्री, वे ही, इस विभाजक युग के प्रभाव से, एक-दूसरे से बहुत दूर चले जाते हैं। ऐसे समय में कोई एक-दूसरे की बात को सुनना नहीं चाहता। सुनकर भी उस पर विचार करना नहीं चाहता। बात-बात में विभिन्नता के गीत गाये जाते हैं। दलबिंदियों का जोर बढ़ता जाता है और मनोमालिन्य की आँधी सद्भावना के किसलय-चर को न जाने कहाँ उड़ा ले जाती हैं। समाज या देश ने जिन वस्तुओं को अपना ध्येय बना लिया था, वे चीजें ऐसे समय स्मृति पटल से ऐसे पुँछ जाती हैं जैसे बालक की स्लेट से धुला हुआ पूर्वदिन का पाठ। गौण विषय (idle issues) उठ खड़े होते हैं। मूल तत्तव का लोप हो जाता है। राजपथ छूट जाता है। हम गलियों में भटकने लगते हैं। जो आदर्श कुछ दिन पूर्व अंतस्थल के सिंहासन पर बैठा था, वही अब नीचे उतारकर फेंक दिया जाता है। जिस वस्तु की जिस बाजू को देखना भी हम गवारा नहीं करते, वही वस्तु हमारे हृदय की अधिष्ठात्री देवी बन जाती हैं। ऐसे समय जब आदर्श पदच्युत और भक्तिभाव अनादृत किया जाये, तब यह स्पष्ट हो जाता है कि युग-परिवर्तन का खेल आरंभ हो गया।
राष्ट्रों के जीवन में मुख्यतया चार युगों का समावेश होता रहता है। जागरण काल (Period of awakening) और संक्राति काल (Period of transition) का अनुभव गत 19वीं शताब्दी के अंत और बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ के वर्षों में हम कर चुके हैं। विप्लवकाल (Period of revolution) का अनुभव भी कुछ-कुछ बड़े-छोटे और अपर्याप्त रूप में हमें हुआ है। कल्याण साधन का काल (Period of realization) अभी हमारे देश के हिस्से में आया ही नहीं। जिस राष्ट्र ने विप्लवकाल की पीड़ाओं का अनुभव नहीं किया, उसे यह अधिकार प्राप्त नहीं कि वह कल्याण साधन के युग की मधुरिमा का रसास्वादन करें। हमारा राष्ट्र, हम सब, अभी परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं हुए हैं। विप्लवरूपी प्रचंड अग्नि कुंड में जब तक हमारी भावनाएँ स्नान नहीं कर लेतीं, तब तक कल्याण साधन का संजोग उन्हें प्राप्त नहीं हो सकता। सीता माता के सदृश परम साध्वी सती के लिये भी अग्नि स्नान अनिवार्य था। राम-संयोग, रूपी जीवन का परम कल्याण अग्नि कुंड से उस पार था और माता सीता उस धधकती हुई ज्वाला के इस पार। उस जीवन मोक्ष को प्राप्त करने के लिये परीक्षा के अग्नि कुंड को सदेह पार करना जरूरी था और उन्होंने, सीता देवी ने, परीक्षा दी और वे उत्तीर्ण हुईं और राम उनमें और वे राम में रम गयीं। हमारे राष्ट्र के लिये भी यह आवश्यक है कि कल्याण साधन के युग में पदार्पण करने के लिए यह विप्लव के युग से पार हो, परंतु यह तो हमारे आज के विषय के बाहर की बात है। हम तो अभी यह कह रहे थे कि राष्ट्रों का जीवन मुख्यतया चार युगों में विभक्त कियाजा सकता है, किंतु इन चारों युगों में एक बड़े विचित्र युग का समावेश रहता है। उस युग को हम विश्रृंखलता के युग (Period of chaos) के नाम से पुकारते हैं। यह युग सर्वकालव्यापी है। संक्रमण काल में भी इसका अस्तित्व पाया जाता है और जागरण काल में भी। विप्लवकालीन आकश में भी इस विश्रृंखल युग के बादल मँडराते रहते हैा और कल्याण साधन काल का क्षितिज भी इस काल के मेघों से यदा-कदा आवृत होता रहता है। इस युग को महात्मा गांधी ने प्रतीक्षा और प्रार्थना का काल कहा है। किसी व्यक्ति के जीवन में जब इसका आगमन होता है, तब लोग कहते हैं कि अमुक व्यक्ति यदि सोना भी छू ले तो वह मिट्टी हो जाता है। हम लोग आजकल संक्रांति युग की पीड़ाएँ तो अनुभव कर ही रहे हैं, इसके साथ ही इस विश्रृंखल-काल की व्यथा भी सहनी पड़ रही है। आदर्श की प्रकाश रेखा जो किसी समय बहुत उज्ज्वल रूप में हमारी थी, आज धुँधली-सी हो रही है। मार्ग की कठोर दुर्गमता और पैरों की थकावट हम से बार-बार कह रही है कि बैठ जाओ, कहाँ जाओगे, पर हम यह जानते हैं कि इस समय इस विश्रृंखलता-मिश्रित संक्रांति युग में हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाना पार है। जब आकाश नरम होता है, जब वायु शांत होती है, जब तटिनी अपने कूलों को विदारित न करके मंद गति से बहती हैं और जब तरंगें सुस्वर में गीत गाती हैं, तब तो कई ऐसे शौकीन मिल जाते हैं जो अपना बजरा धार में छोड़ देते हैं। जब आकाश का पता नहीं है, दिशाएँ धुआँधार हो जाती हैं, जब तूफानी वर्षा होती है और नदी का वेग किनारों को काटता हुआ घहर-घहर कर बहता है, ऐसे समय कितने मल्लाह है, जो अपनी कागज की नाव मझवार में छोड़ने का साहस कर सकते हैं। यह काल तो उच्छृंखलता और असंगति का युग है। ऐसे समय हम चुप कैसे रह सकते हैं? हम नहीं कहते कि हमारे दुर्बल हृदय में वह साहस है कि हम युगधारा को पलट दें, किंतु चुप बैठना भी ठीक नहीं समझते। इस समय, किसी एक काम में हाथ डाला नहीं जा सकता। किसी एक बात का विशेष रूप से प्रचार नहीं किया जा सकता, किंतु एक बात तो की जा सकती है। प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन के व्यवहार में उसके अनुसार कार्य कर सकता है। महात्मा गांधी ने इस युग का नाम प्रार्थना-प्रतीक्षा-युगधारा रखा है। इस समय हम महात्माजी के आदेशानुसार प्रार्थना और प्रतीक्षा कर सकते हैं। हम इस युग के आगमन की प्रतीक्षा कर सकते हैं। क्या जब आकश स्वच्छ होगा और उस समय के आने की अपनी मनुहार किन्हीं अदृष्ट चरण-द्वय में पहुँचा सकते हैं? यह बात न भूलना चाहिये कि महात्मा गांधी की प्रार्थना निष्क्रिय प्रार्थना नहीं है। उनकी प्रार्थना ऐसी नहीं कि भगवान का केवल जिह्वागत स्मरण मात्र ही काफी हो। उसके लिए मन, वचन और कर्म तीनों का सदुपयोग करने की जरूरत है। शरीर किसी भी अवस्था में क्यों न हो, महात्मा जी की प्रार्थना की जा सकती है।
देश में इस समय हिंदू-मुस्लिम प्रश्न, जातिगत प्रतिनिधित्व का प्रश्न, धर्मगत चुनाव का प्रश्न आदि-आदि कई ऐसे प्रश्न हैं, जिनका उचित उत्तर हमें देना चाहिये, परंतु उत्तर कैसे दिया जाये, इस समय यदि कोई आदमी यह बात कहता है तो उसके विरुद्ध कई आवाजे़ं उठती हैं। इसका अर्थ यह है कि इन जटिल प्रश्नों का उत्तर, आज इस काल में सामूहिक रूप से नहीं दिया जा सकता। इन समस्याओं ने अपना ऐसा रूप बना लिया है कि यदि किसी संस्था विशेष या सभा विशेष के द्वारा इनका उत्तर दिया जाये तो उसमें बहुत कम सफलता प्राप्त होगी। दिल्ली के मिलाप सम्मेलन की आयोजना इस दृष्टि से की गयी थी कि जातिगत वैमनस्य का हल सब मिल बैठकर ढूँढ़ निकालेंगे। महात्माजी के पुण्य उपवास से प्रसादित वह सम्मेलन अपने उद्देश्य की प्राप्ति में असफल हुआ। बिहार में भी सामूहिक रूप से इन प्रश्नों के सुलझाने का कुछ प्रयत्न सर अली इमाम आदि नेताओं ने किया था। वह भी कुछ विशेष कार्य न कर सका। सच तो यही है कि यह युग विभिन्नता का पोषक सिद्ध हो रहा है। मुसलमान समाज के नेताओं ने अभी तक अपनी आक्रमणकारी नीति नहीं छोड़ी है। फलत: हिंदू समाज के अग्रणी भी अपनी आत्मरक्षा के लिए बाध्य हो रहे हैं। ऐसे समय में ऐक्य और सद्भावना का पुन: स्थापन कैसे किया जाये? हम गत सप्ताह के अग्रलेख में समुद्र-मंथन के चिन्हों के दृष्टिगोचर होने की बात कह चुके हैं। हम यह दिखला चुके हैं कि वैयक्तिक रूप से कुछ लोग, जिनमें हिंदू और मुसलमान देानों शामिल हैं, इस बात का उद्योग कर रहे हैं कि समाज रसातल को न जाये और वैमनस्य के विषधर को किसी तरह नाथकर समुद्र-मंथन किया जाये। प्रत्येक राष्ट्रसेवक का यह धर्म है कि वह अपने दैनिक जीवन में इन भावनाओं को एकरस करे। हिंदू-मुस्लिम विद्वेष या राजनैतिक विडम्बना को दूर करने का प्रयत्न तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक कि प्रत्येक देशवासी भारतवर्ष के वातावरण को सौहार्द्र और पारस्परिक औदार्य से परिप्लावित न कर देगा। परिस्थिति का बनाना और बिगाड़ना, बहुत अंशों में, हमारे हाथ में है। यों तो बाह्य कारणों पर, किसी का आधिपत्य नहीं, परंतु जहाँ तक हमारे दैनिक व्यवहार का विस्तार फैला हुआ है, वहाँ तक सदा इस बात का प्रयत्न करना चाहिये कि हम न तो कोई ऐसा व्यवहार करें जिससे राष्ट्रीयता के पुनरुदय में व्याघात पहुँचे और न हमें जानबूझकर कोई ऐसे शब्द ही कहना चाहिये जिससे पारस्परिक विश्वास का पौधा नष्ट हो जाये। यह तो निश्चित है कि हृदयों की मथानी में दही बिलोया जा रहा है। साथ ही यह भी निश्चित है कि एक-न-एक दिन नवनीत निकलेगा। पर यह भी प्रकट है कि अभी ऐसे आदमियों की संख्या बहुत कम है जो इस नवीन आवाहन मंत्र का आकर्षण अनुभव करते हों। फिर भी वर्तमान विश्रृंखल अवस्था के प्रति बहुत से लोग घृणा की दृष्टि से देखने लगे हैं। यही समय है जब हम, अपने दैनिक कार्यों में प्रार्थना का संपुट देकर नवीन युग के आरंभ की वेला नजदीक ला सकते हैं। अपने कार्य की पूर्ति के लिये यह आवश्यक नहीं है कि हम आज सभा-सोसाइटियों का मुँह ताकें। जब समय आवेगा, अर्थात् जब हम समय को खींच लायेंगे, तब उद्देश्य की पूर्ति के लिये संस्थाएँ तो आप ही बन जायेंगी। हिंदू-मुस्लिम ऐक्य या राजनैतिक सद्भाव की इच्छा को बलवती करने के लिये हमें अपने सिद्धांतों और आवश्यक सामाजिक कार्यों के छोड़ने की जरूरत नहीं है। हम हिंदू-मुस्लिम ऐक्य के उपासक होते हुए भी अपनी बहू-बेटियों की रक्षा कर सकते हैं। हम यह कह सकते हैं कि आततायी की आँख यदि हमारी माँ-बहनों की ओर उठे तो हम उसे फोड़ दें। यही क्यों? राष्ट्रीयता और सामाजिक पवित्रता की स्थापना के लिये यह भी आवश्यक है कि यदि कोई हिंदू गुंडा किसी मुसलमान या ईसाई या अन्य धर्मावलंबिनी महिला की ओर बुरी निगाह से ताके तो हमें उससे रण ठान देना चाहिये। इसी प्रकार मुसलमानों का भी यही धर्म होना चाहिये कि यदि कोई मुसलमान गुंडा किस अन्य धर्म की बहू-बेटी के साथ दुर्व्यवहार करे तो वे उस दुष्ट को दंड दें, पर आज, कोई सभा या सोसायटी इस काम को नहीं कर सकती। हम सब अपने जीवन में व्यक्तिगत रूप से इन बातों को व्यवहृत कर सकते हैं। इसी प्रकार के आचरणों से इस देशव्यापी घृणा, द्वेष और भयातुरता का अंत हो सकता है। हम पहले ही कह चुके हैं कि इस समय हमारा देश (Period of chaos) विश्रृंखलता के युग से गुजर रहा है। अब जबकि सभाओं और संस्थाओं ने अपने हाथ समेट लिये हैं, व्यक्तियों को आगे आना चाहिये। जहाँ बड़ी-बड़ी संस्थाएँ असफल सिद्ध होती हैं वहाँ अंततोगत्वा, व्यक्तिगत उपाय ही काम में आये जाते हैं। देश की दशा पर दु:खी रहने वाली आत्माओं से हम आदरपूर्वक अनुरोध करते हैं कि वे अपने व्यवहारों में पवित्रता और सौजन्य का मिश्रण करके विश्रृंखलता के युग को वास्तव में प्रतीक्षा और प्रार्थना के युग में परिवर्तन कर दें। निराशा और हतोत्साह को हृदय में स्थान देने की जरूरत नहीं। हमारा यह विश्वास है कि देश स्वतंत्र होगा और इन कुभावनाओं से उसकी मुक्ति होगी।
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