निबंध – माँ के आँचल में (लेखक – गणेशशंकर विद्यार्थी)
वह आँधी सब जगह आयी, रूस, जर्मनी, आस्ट्रिया, हंगरी, टर्की, चीन सब देशों के वन-उपवन उसके झोंके से कंपित हो उठे। प्रजातंत्र की वह आँधी कई देशों में आयी और उसने जनता की छाती पर शताब्दियों से रूपे हुए सिंहासनों को उखाड़ कर फेंक दिया, जो राष्ट्र सुषुप्तावस्था में पड़े हुए, वे उन्निद्रित होकर अपनेपन को प्राप्त करने को दौड़ पड़े। देश-देशांतरों के घाटी-दर्रे स्वंतत्रता के झंझावात से घहरा उठे। आज भारतवर्ष ने यह भी सुना कि ईरान के बादशाह उस तख्त से उतार दिये गये, जिस पर बैठकर हुकूमत की मदिरापान करना वे अपना पुश्तैनी हक समझते थे। अब फारस के लोग अपना शासन आप करेंगे। वे अब किसी निरंकुश तानाशाह के इशारे पर न नाचेंगे। वहाँ अब कोई व्यक्ति यह हिम्मत न कर सकेगा कि वह जनता की कमाई के 18 लाख रुपए यूरोप-भ्रमण में नष्ट कर दे। प्राणनाश की क्रीड़ाओं का अब वहाँ अंत हो चुका। अब प्राण-रक्षा, आत्मनिर्णय, स्वाधीनता और उत्तरदायित्व का युग आरंभ होता है। दुनिया में सब तरफ, सब जगह, शक्तियों का केंद्रीभूत, निरंकुश, अनुत्तरदायिनी, पाषाणी शासन प्रणालियों का, इन असामयिक एकछत्र शासन पद्धतियों का अंत हो रहा है, जो लोग कल तक साधरण लोगों के मस्तक पर अपने श्रीचरण रखकर चलते थे, जो कल तक नीचे पड़े हुए पीड़ितों की पुकार को सुनना अपनी शान के खिलाफ समझते थे, जो लोग दीनों की फरियाद में अपनी हुकूमत की उदूली की परछाहीं देखा करते थे, वे ही मालिक लोग, वे आका आज उपेक्षा की गिरि-कंदराओं में अपना अपमानपूर्ण जीवन व्यतीत करने जा रहे हैं। वे सिर, जो कल तक कुचले जाते थे, आज ऊँचे और उससे भी ऊँचे उठ रहे हैं। यह युद्ध हमारे आसपास हो रहा है। हम प्रतिदिन एक-न-एक राज्यक्रांति घटित होती देख रहे हैं। परसों मध्य यूरोप में, कल टर्की में, तो आज फारस में वही लीला पुन:-पुन: हो रही है। एकछत्र शासन प्रणाली को नष्ट करने और जनसत्तात्मक राज्य-प्रथा को स्थापित करने की जो लहर भारतवर्ष के बौद्ध संघों तथा शाक्य और लिच्छिवियों की जनसत्तात्मक संस्थाओं में प्रकट हुई थी, जिस लहर ने एथेंस के शासनक्रम को कई रास्तों में घुमा-फिरा कर जनतंत्र विधि के राजमार्ग पर ला छोड़ा था, जो लहर अट्ठारहवीं शताब्दी में फ्रांस और अमेरिका में आयी थी, वही लहर आज फिर से उमड़ती हुई दिखलाई पड़ रही है। हम भारतवासी आश्चर्य और कौतूहल से इस गतिविधि को देख रहे हैं, लेकिन जो भविष्य के गर्भ में प्रवेश कर सकते हैं, उन्हें यह स्पष्ट दिखलायी पड़ रहा है कि शक्ति के मदमाते लोग काँपते हुए हाथों से अपने सिंहासनों को थामकर भयत्रस्त अवस्था का परिचय दे रहे हैं। यह नाटक नहीं है, यह तो विश्व के रंगमंच पर घटित घटनाओं का सुंदर प्रतिबिंब है। कहाँ जगतविजयी अलक्षेन्द्र के वे सेनानी और उनके द्वारा संचालित वह महाचमू, जो इस्सस के तट पर गगनभेदी कंठरव से गरजा करती थी। एक अंग्रेज महापुरुष के ये वाक्य आज प्रतिक्षण सत्य होते दिखायी पड़ रहे हैं। जिन कोट-कंगूरों के बनाने में, शासन के जिस भवन का निर्माण करने में, आतताइयों ने प्रजा के रक्त और पसीने को एक कर दिया था, वे भवन और कोट-कंगूरे आज विध्वस्त हो चुके हैं और अभी जो बाकी हैं, उनके लिए आगामी कल अपनी कराल कुदाली का बेंट ठीक कर रहा है। भारतमाता के आसपास यह सब हो रहा है। उत्थान-पतन और परिवर्तन का परम सत्य, परम ध्रुव नियम नित्य-प्रति अपने कर्तव्य दिखला रहा है। वह जादूगर एक ओर शून्य से संसार का निर्माण कर रहा है और दूसरी ओर संसार को शून्य में परिवर्तित कर रहा है। ‘पतन अभ्युदय बंधुर पंथा युग-युग धावित यात्री। तुमि चिर सारथी तब रथचक्रे मुखरित पथ दिन रात्रि। अरूण बिप्लव माझे शंखध्वनि बाजे।’ रवीन्द्र ठाकुर की ये अवलियाँ आज भारतवासियों के हृदय पर एक नवीन अर्थ अंकित कर रही हैं।
इस परिवर्तन और परिवर्द्धन को, इस प्राचीन नाश और नव्य निर्माण को संचालित करने वाली केवल इस चिरसारथी की शंखध्वनि ही है, किंतु वह दिन कहाँ है, जब हम भूमंडल में व्याप्त इस सर्वस्थानवासी पट-परिवर्तन को देख सकेंगे? हमारी आँखें अभ्युदय और परिवर्तन के दर्शन की प्यासी हैं। अड़ोस-पड़ोस के राष्ट्र अपना भाग्य-निर्णय कर रहे हैं, पर हम प्रमाद की चादर ओढ़े अपने पड़ोसियों की गतिविधि देखकर भी कर्मशील नहीं बनते! हाँ, यह जरूर है कि हमारे हृदयों में धड़कन अवशेष है, हमारी नाड़िका में स्पंदन बाकी है और हमारे फेफड़ों में श्वासोच्छवास लेने की शक्ति भी न जाने कैसे, इतना दम घुटने पर भी, बच रही है। जब आशा की आँधी से फारस, टर्की, चीन, रूस आदि के वेणुवन गूँज उठते हैं तो मारी बाँसुरी भी बजना चाहती है। हमारी माँ की गोदी में वह शिशु, जिसे परिवर्तन, अभ्युदय, विप्लव, या न जाने क्या, कहते हैं, कभी आन बैठे, ऐसे जैसे रात में फूल की गोदी में ओस की बूँद चुपके से आ बैठती है और वह शिशु हमारे मुर्दा दिलों के साथ क्रीड़ा करने लगे, यह मन की साध चित्त को व्यग्र कर देती है। इच्छा के बीज बोये जायें, उसकी जरूरत नहीं। श्वेत कमल की भाँति हमारे हृदय खिल उठें और शुभ्र क्रांति के लिए तैयार हो जायें, यही हम मना रहे है। हम विश्व में अनहोनी को सुगम सिद्ध कर दें, एक बार उथल-पुथल कर दें और खून के प्यासे संसार को यह सिखला दें कि खून की प्यास कैसे बुझाई जाती है, यही मनोभिलाषा हृदय को विचलित करती रहती है। माता की मूरत हमारे दिलों में बस जाये, उसकी नीरव, सौम्य, वेदनामयी आँखें हमारे हृदय में गड़ने लगें और माँ के आँचल को छोर निष्प्राण-सा लटकता रहे, फिर एकाएक माँ चंडी-स्वरूपा हो जायें, उनके केश कलाप खुल जायें, भयानक आँधी आवे और उस आँधी से आलोड़ित होकर माँ के आँचल के छोर में वह लहर उत्पन्न हो कि लोक-लोकांतर अपने निर्दिष्ट पथ से, एक मुहूर्त भर केक लिए तो अवश्य, इधर-उधर हो जायें और अंड-ब्रह्मांड के गायन (Music of the spheres) की तान केवल क्षण-भर को विकृत हो जाये, फिर सौम्यता और शांति का, प्रेम और स्नेह का, स्वातंतत्र्य और साम्य का प्रवाह माँ के मुखमंडल से बह उठे! ऐसे दर्शन की लालसा से आज हृदय व्याकुल है।
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