निबंध – युद्धोत्तर विश्व : आगामी महाभारत (लेखक – गणेशशंकर विद्यार्थी)
मनुष्य के हृदय में यह भाव निरंतर काम किया करता है कि वह दूसरों पर प्रभुता प्रापत करके अपने को सबसे ऊपर रखे। विकास और उन्नति की दृष्टि से यह भाव निंदनीय नहीं है। पर यह भाव उन लोगों के समस्त तर्कों का विरोधी है, जो संसार में समता और बंधुता के दावेदार बन कर विश्वव्यापी शांति के स्वप्न देखा करते हैं। सचमुच में समता और बंधुत्व सुख और शांति के भाव श्रेय है। यदि ऐसा न होता तो मनुष्य कभी इनकी दुहाई देते हुए अपनी प्रभुता स्थापित करने का स्वाँग न रचा करता। इन भावों में सार अवश्य है, पर उसके अनुसार सच्चे हृदयों से काम करने वाले इने-गिने हैं। वर्तमान युग की उलझने बतलाती हैं कि अभी इन सात्विक भावों के अनुगामियों की संख्या बढ़ भी नहीं सकती। बहुतों का खयाल है कि मनुष्य-स्वभाव प्रत्येक स्थिति में व्यक्तिगम अथवा समूह गत प्रभुता का इच्छुक रहेगा अतएव इस पृथ्वी पर शांति युग कभी नहीं आ सकता। विरोधियों का कहना है कि विश्वव्यापी शांति की कल्पना विश्राम तथा क्लांत पथिकों का उदगार मात्र है। क्योंकि संसार संग्राममय है। मनुष्य विज्ञान कला कौशल तथा कूटनीति द्वारा अपने स्वभावगत स्वार्थों की सफलता के लिए सदा प्रयत्न करता रहेगा। अत: शांतिवाद एक ऐसी सुंदर और सात्विक सनक (Maniac) है जो मनुष्यों के मस्तिष्कों में निवास करती हुई भी सफल न हो सकेगी।
एक दूसरे से संघर्ष करने वाले भाव इतने जोरों पर हैं कि कभी मनुष्य विकास और विनाश की परिभाषा के अद्वैत होने की कल्पना करने लगता है, परंतु शीघ्र ही दो पक्ष बन जाते हैं। एक का कहना है कि विकास के लिए यह आवश्यक है कि दूसरों की अपेक्षा आगे बढ़ा जाए। आगे बढ़ने के लिए वरन् अपेक्षित दृष्टि से शीघ्र आगे बढ़ने के लिए विज्ञान कला-कौशल तथा कूटनीति से काम लिया जाए। दूसरे पक्ष का कहना है कि आगे बढ़ा जाए पर वर्तमान साधनों को छोड़कर सबको साथ लेकर आगे बढ़ा जाए। समता बंधुत्व तथा शांति का ध्येय आगे रखकर आगे बढ़ा जाए। यह मतभेद इस केंद्र पर जाकर आपस में टकराता है कि विकास की ओर बढ़ने की परिभाषा क्या है। संघर्षवादियों का कहना है कि विकास की माप करने के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि कुछ लोग पिछड़े रहें। इस तर्क से समता और सर्वव्यापी शांति की भावना चूर-चूर हो जाती है। व्यक्तिगत अथ्वा समूहगत स्वार्थ विकास को कलंकित करता है। इस प्रकार लोकप्रियता तथा सम व्यापकता के भावों को ठुकराकर संसार का बहुत बड़ा जनसमूह संसार-संघर्ष में अपनी शक्तियाँ खर्च कर रहा है। शांतिवादियों की क्रियाशीलता मंद सी पड़ी हुई है। मार्ग से हट कर अलग विश्राम करने वाले बटोही की तरह से वे इस संघर्ष लीला को देख रहे हैं। उनका कहना है कि विज्ञान की नाशक शक्तियों, विलासिता की नई-नई सामग्रियों तथा व्यय (Consumption) की वर्तमान स्थिति की उन्नति करने में सच्चा विकास नहीं है। साम्यवाद या समष्टिवाद भी मनुष्य को विकास के उस शांतिप्रिय ध्येय की ओर नहीं ले जा सकता। इससे भी सुविधाओं (Facilities) की चढ़ा-ऊपरी तथा व्यय की वृद्धि की छूत लगी हुई है।
संघर्षवादी अपने ध्येय की ओर प्रत्यक्ष उन्नति कर रहे हैं। परंतु शांतिवादियों का कहना है कि जब मनुष्य वर्तमान संघर्ष की अंतिम सीमा तक पहुँचकर उससे ठोकर खाएगा तब हमारा काम आरंभ होगा।
चूँकि व्यक्तियों और समूहों से ही राष्ट्रों का निर्माण हुआ। अत: संसार के सभी राष्ट्र संघर्ष के संग्राम की ओर अग्रसर हो रहे हैं। इंग्लैंड अपनी प्रभुता को लोकसत्ता के नाम पर संसार की ओर अग्रसर हो रहे हैं। इंग्लैंड अपनी प्रभुता को लोकसत्ता के नाम पर संसार भर में स्थापित करना चाहता है। जापान और अमेरिका अपने व्यापार और कला-कौशल के आगे संसार के अन्य राष्ट्रों को माथा टेकने के लिए विवश करने के प्रयास में हैं। जर्मनी सोचता है कि यदि इंग्लैंड ने अपनी प्रभुता की छाप संसार भर पर छाप दी तो हमारा वैज्ञानिक तथा शैल्पिक विकास, नहीं वरन विनाश की सदृश है। मुस्लिम राष्ट्रों का कहना है कि यदि हमने अपनी धार्मिक कट्टरता की रक्षा न कर पाई तो हमारा विनाश समीप है। रूस का कहना है कि प्रत्येक व्यक्ति को खाने-पीने पहिरने ओढ़ने तथा सुख से अपना जीवन व्यतीत करने का समाधिकार है। यदि सुख और, पदार्थ-भोग प्राप्त हो तो सब को बराबर-बराबर प्राप्त हो। इस प्रकार प्रत्येक राष्ट्र अपने-अपने ध्येय को अपना-अपना विकास माने हुए बैठा है। उसकी पूर्ति के लिए संघर्ष-यज्ञ में अपनी आहूतियाँ देता जा रहा है। एक-एक आहूति बड़े-बड़े संग्रामों की रचना करती है। विज्ञान के भयंकर साधनों ने इस यज्ञ को इन दिनों इतना अधिक प्रज्ज्वलित कर दिया है कि उसकी नाशकारी लपटों के साथ शांति युग की भावना विलीन-सी होती जा रही है। रूस की राज्य क्रांति, जर्मनी का राजसत्ता-प्रेम, इंग्लैंड और अमेरिका की हड़तालें, फ्रांस की मजदूर क्रांतियाँ, स्पेन के विप्लव, इटली के साम्यवादी आंदोलन, टर्की के धर्मयुद्ध और गुलाम जातियों के स्वाधीन बनने के लिए होने वाले आंदोलन, सभी इस संघर्ष-यज्ञ के आहूतिदाता हैं।
अभी तक जितने संघर्षण हो चुके हैं, उनमें कुछ भी निर्णय नहीं हो पाया है। पता नहीं अभी कितने संघर्षण और होंगे! पर वर्तमान स्थिति से यह स्पष्ट पता चल रहा है कि संघर्षण स्वयं कुछ भी निर्णय न कर सकेंगे। हाँ, उनके परिणामों से ऐसे साधन अवश्य उत्पन्न हो जाएँगे जो सच्चे निर्णय की ओर जाने का मार्ग बतला सकेंगे। गत यूरोपीय महासंग्राम ने ऐसे कुछ साधन दिए हैं पर उतने से ही काम न चलेगा। इसीलिए फिर नये संग्राम की तैयारियाँ हो रही हैं भले ही यह आगामी महाभारत उतना बड़ा और उतना भयंकर न हो, पर हमें विश्वास है कि उसकी व्यापकता, पिछले महासंग्राम की अपेक्षा कहीं अधिक विस्तृत होगी।
मनुष्य की रक्तांजलियों से ही मनुष्य के कल्याण की स्वयं रचना होने जा रही है। कितना भीषण दृश्य है। पर अब स्थितियाँ बतलाती हैं कि वर्तमान उलझनों ने कोई दूसरा मार्ग ही नहीं छोड़ा है। यदि वास्तव में ऐसी स्थिति है तो हम मनुष्य जाति के सच्चे विकास और उद्धार के नाम पर सजल नेत्रों सहित इस विकराल संघर्ष का स्वागत करते हैं।
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