निबंध – राष्ट्र की आशा (लेखक – गणेशशंकर विद्यार्थी)
‘हममें से प्रत्येक का कर्तव्य है कि वह अपनी आत्मा को एक देवालय के समान पवित्र बनावे। उससे अहंकार को दूर भगा दे और सच्चे धार्मिक भाव के साथ निज जीवन के महान प्रश्न (उद्देश) को अध्ययन द्वारा हल करने का प्रयत्न करे। फिर इस बात की खोज करे कि जिन स्त्री-पुरुषों के बीच वह रहता है, उनकी सबसे प्रबल तथा सबसे भारी आवश्यकता क्या है? इसके पश्चात् अपनी व्यक्तिगत शक्तियों तथा अपनी योग्यता की परीक्षा करे और फिर दृढ़ संकल्प के साथ बिना विश्राम किये निज शक्तियों तथा योग्यता का उस आवश्यकता के पूरा करने में प्रयोग करे।’
इटली देश के सुप्रसिद्ध देशभक्त जोजेफ मेज्जिनी के पूर्वोक्त वाक्यों का स्मरण कराते हुए आज हम विजयादशमी के इस शुभ अवसर पर ‘प्रताप’ के नवयुवक पाठकों को उनके कर्तव्य-पथ की एक झलक दिखलाने का साहस करते हैं।
एशिया का प्राचीन गौरव
पाठक! तुममें से बहुतों को पता होगा कि संसार के इतिहास में वह भी एक समय था जब भारत तथा एशिया महाद्वीप की अन्य विविध जातियाँ न केवल धर्मक्षेत्र में ही, वरन् दर्शन, विज्ञान, शिल्प, वाणिज्य तथा राजशासन में भी समस्त संसार की अग्रगामी थीं। आज से सहस्त्रों वर्ष पूर्व जबकि वर्तमान इंग्लैंड तथा जर्मनी निवासियों के पूर्व-पुरुष अन्य असभ्य जातियों के समान पहाड़ी कंदराओं तथा जंगल के गड्ढों में निवास करते थे और वस्त्रों के स्थान पर वृक्षों के पत्तों और छालों से अपना शरीर ढकते थे, भारत के रहने वाले न केवल सुंदर से सुंदर प्रासाद तथा उत्तम से उत्तम वस्त्र ही बना सकते थे, वरन् भाषा, दर्शन, गणित, वैद्यक तथा ज्योतिष में भी उन्नति के एक अत्युच्च शिखर तक पहुँच चुके थे। वह भी एक दिन था जबकि भारत के वैद्य तथा शिल्पज्ञ अत्यंत आदर के साथ ग्रीस तथा रोम में बुलाये जाते थे और वहाँ के निवासी उनकी योग्यता को देखकर चकित रह जाते थे। इस देश की कारीगरी तथा व्यापार के संबंध में आज से प्राय: 2000 वर्ष पूर्व का एक रोमन इतिहास लेखक प्लिनी हमको बतलाता है कि उन दिनों प्रतिवर्ष कम से कम 55 करोड़ सेस्टर अर्थात् लगभग 7 करोड़ रुपये का बना हुआ माल भारत से जाकर अकेले रोम में बिकता था। अधिक दूर जाने की आवश्यकता नहीं, आज से सौ-डेढ़ सौ वर्ष पूर्व तक भी ढाका की मलमल तथा मुर्शिदाबाद के रेशमी कपड़े लंदन तथा पेरिस में जाकर बिकते और वहाँ बड़े शौक के साथ पहने जाते थे। इनके अतिरिक्त यदि राजनैतिक सत्ता की ओर दृष्टि डाली जाये तो भी स्वीकार करना पड़ता है कि किसी समय में जल तथा स्थल दोनों पर भारत-निवासियों का असंदिग्ध प्रभुत्व था। यदि अधिक प्राचीन भारत के इतिहास को छोड़ दें तो भी अभी कल की बात है कि मरहठों की जल-सेना उस समय के स्पेन-निवासियों तथा पुर्तगाल-निवासियों की जल-सेनाओं से कहीं अधिक प्रबल थी और स्मरण रहे कि स्पेन तथा पुर्तगाल के निवासी उन दिनों यूरोप की विविध जातियों में सबसे अधिक उन्नत माने जाते थे। यूरोप की विविध जातियाँ 15वीं शताब्दी के अंत से यहाँ आने लगी थीं, किंतु उन गिरे हुए दिनों में भी जल तथा स्थल दोनों पर भारत का बल इतना बढ़ा हुआ था कि लगभग 250 वर्ष तक इन विदेशियों में से किसी को भारत में किसी प्रकार की राजनैतिक आकांक्षा प्रकट करने का साहस न हो सका। सच तो यह है कि जिस समय इस अभागी भूमि में फूट की खेती खूब पककर तैयार नहीं हो गयी, उस समय तक किसी भी विदेशी जाति को भारत के राजनैतिक जीवन में हस्तक्षेप करने का साहस होना असंभव था। अस्तु, भारत के समान एशिया के अन्य बड़े-बड़े देश भी इसी प्रकार किसी समय उन्नति के शिखर तक पहुँच चुके हैं। इतिहास हमें स्पष्ट बतलाता है कि अरब-निवासियों ने किसी समय यूनान के विद्वानों को दर्शन की शिक्षा दी थी और चीन वालों ने आज से सहस्त्रों वर्ष पूर्व ज्योतिष विद्या को परिपक्वता तक पहुँचाया था। चीन वाले ही थे जिनसे यूरोप के नाविकों ने पहले-पहल कम्पास का प्रयोग सीखा और जिन्होंने संसार को सबसे पहले टाइप द्वारा पुस्तकों का छापना सिखलाया।
एशिया का पतन तथा पाश्चात्य जातियों का उत्थान
किंतु धीरे-धीरे आपस की फूट, विशेषकर यहाँ के शासकों तथा शासक-कुलों में पारस्परिक ईर्ष्या, ऊँच-नीच के भेद, जन-समूह में राजनैतिक ज्ञान के अभाव, अर्थ-संचय और वैज्ञानिक उन्नति की ओर से उदासीनता तथा इन सबसे बढ़कर अंध-स्थितिपालकता ने एक-एक कर पूर्वी जातियों को गिराना आरंभ कर दिया और दूसरी ओर साहस, सार्वजनिक समता, राष्ट्रीय ऐक्य, वैज्ञानिक उन्नति अर्वाचीन शिक्षा तथा परिवर्तनशीलता ने पाश्चात्य जातियों को उभारना परिणाम यह हुआ कि आज से सहस्त्रों वर्ष पूर्व न केवल एशिया की उन्नति ही रूक गयी, वरन् गत शताब्दी के आरंभ तक प्राय: समस्त एशियायी जातियाँ यूरोप वालों के चरणों पर आ गिरीं। यहाँ तक कि लाल सिंह, तेज सिंह तथा मीर जाफ़र जैसे देशघातकों ने भारत के भाग्य का निपटारा विदेशियों के हाथों में सौंप दिया। चीन का समृद्ध साम्राज्य विविध पाश्चात्य जातियों की दृष्टि में सहज शिकार होने लगा। फ्रांस, रूस तथा इंगलिस्तान दोनों के पंजों में काँपने लगा और 19वीं शताब्दी के मध्य का इतिहास हमको बतलाता है कि वह जापान भी जो इस समय संसार की सबसे प्रबल शक्तियों में गिना जाता है, केवल 50 वर्ष पूर्व प्रबल यूरोपियन जातियों के सम्मुख अपनी स्वतंत्रता को मानों हथेली पर लिये हुए था।
भारत की अवनति
हम इस विषय को अधिक विस्तार न देकर इस स्थान पर केवल यह दिखलाना चाहते हैं कि इस एशियायी अध:पतन के समय अवनति के सबसे नीचे गढ़े में गिरना भी उसी देश के भाग्य में बदा था, जो इससे पूर्व समस्त एशियायी देशों में उन्नति के सर्वोच्च शिखर तक पहुँच चुका था। पाठक! यदि भारत के प्राचीन गौरव तथा उसके वर्तमान अध:पतन की आरे एक साथ दृष्टि डाली जाये तो उसके भेद के सामने आकाश-पाताल का भेद भी तुच्छ प्रतीत होता है और वह दृश्य भी इतना हृदय-विदारक है कि कोई सहृदय अन्य देश-निवासी भी देखकर बिना आँसू बहाए नहीं रह सकता। यदि प्राचीन भारत को समस्त संसार के गुरू होने का सौभाग्य प्राप्त था तो अर्वाचीन भारत को एशियायी जातियों में सबसे पूर्व यूरोप का चरण चूमने के लिए सिर झुकाना पड़ा। जिस देश के राजा किसी समय चक्रवर्ती कहलाते थे, हाँ! आज उसी देश के रहने वाले अपने ही घर में परतंत्र हैं। नि:संदेह राजनैतिक पराधीनता किसी जाति में उस समय तक घर नहीं करती, जिस समय तक वह जाति अपने चरित्र से न गिर गयी हो। यदि भारत की भूमि जयचंद, मीर जाफ़र, लाल सिंह जैसे देशघातक उत्पन्न करने में उपजाऊ न होती तो आज इस देश की यह दशा होना असंभव था। तथापि इसमें भी संदेह नहीं कि अर्वाचीन समय में राजनैतिक पराधीनता ही संसार के अनेक देशों के समस्त दु:खों का मूल है। इस उत्तरोत्तर अवनति तथा पराधीनता का परिणाम यह हुआ कि वह देश जो किसी समय सभ्यता का मूल स्त्रोत माना जाता था, आज कर्इ पीढि़यों से नहीं, बल्कि कई शताब्दियों से असभ्य लोगों का देश गिना जाने लगा। वह भारत जो किस समय संसार का सबसे अधिक निर्धन देश बन गया। जिस देश में मुसलमानी राज्य के अंत के दिनों तक मनमाना अन्न होता था और दूध तथा घी की नदियाँ बहती थीं, वहाँ आज 1/3 आबादी अर्थात् 10 कोटि से अधिक मनुष्य-तनुधारी ऐसे हैं, जिन्हें 24 घंटे में एक समय रूखी रोटी मिलना भी कठिन है। वह देश जिसे वैद्यक, गणित, भूगोल तथा ज्योतिष-जैसी विद्याओं को जन्म देने और उपनिषद् रचने का अभिमान था, आज अज्ञान के अंधकार में इतना लिपटा हुआ है कि संसार के किसी भी देश में फीसदी अशिक्षितों की संख्या इतनी अधिक नहीं मिलती, जितनी भारत में। लक्ष्मी आज लगभग एक शताब्दी से हमारा साथ छोड़ ही चुकी है, किंतु सरस्वती भी हमें इतनी घृणा की दृष्टि से देखती है कि आज सौ पीछे 94 भारतवासी ऐसे हैं जिन्हें संसार की किसी एक भाषा में अपना नाम तक लिखना नहीं आता। जिस देश ने किसी समय राम- जैसे वीर, कपिल- जैसे मस्तिष्कधारी तथा बुद्ध-जैसे आचार्य उत्पन्न किये वह आज कायरता, अज्ञानता तथा अनेक प्रकार के असंख्य मूढ़-विश्वासों का घर बना हुआ है।
पाठक! हमें दु:ख होता है कि इस विजयादशमी के शुभ दिन हमारे सम्मुख तुम्हारी विजयों की गाथा गाने के स्थान पर हम तुम्हारी पराजयों ही का रोना-रोने लगे हैं, किंतु हम विवश हैं। हमारा भरा हुआ हृदय हमें इस बात की इजाजत नहीं देता कि हम तुम्हारे देश के वर्तमान जीवन के साथ किसी प्रकार की भी वियज कस संपर्क घटा सकें। हमारा हृदय फटता है यह देखकर कि यह विदेशीय वाणिज्य के इन्द्रजाल द्वारा हमारी भूमि से उत्पन्न हुआ धन दूसरे देशों के कारीगरों तथा व्यापारियों को करोड़पति तथा अरबपति बना देवे और हमारे बालक तथा बालिकाएँ प्रतिवर्ष के दुष्काल में एक-एक दाने के लिए तरसते फिरें। हमें रोना आता है यह देखकर कि अज्ञान तथा अशिक्षा का हमारे देश में सबसे अधिक राज्य हो और इस पर भी हमारे नेता अपने देश के बच्चों को शिक्षा देने तक के कार्य में स्वतंत्र न हों। हम अपनी इस दुर्गति को विस्तारपूर्वक वर्णन करने की आवश्यकता नहीं समझते और न इसके लिए समय ही है, किंतु यह स्पष्ट कह देना चाहते हैं कि वीर शिरोमणि श्रीराम की लंका-विजय का स्मारक यह शुभ दिन भी हमारे दुखित नेत्रों को अधिक आर्द्र किये बिना नहीं रह सकता। इसके अतिरिक्त हम यह भी कर्तव्य समझते हैं कि अवसर-अवसर पर निज देशवासियों को राष्ट्र की वास्तविक स्थिति का बोध कराते रहें जिससे कि हमारे कर्तव्यपरायण नवयुवक किसी भी झूठे अथवा व्यक्तिगत सुख में पड़कर अपने वास्तविक धर्म से विमुख न होने पावें और निज देश की वास्तविक स्थिति को समझते हुए उसकी दशा सुधारने में तत्पर रहें। हम नहीं समझ सकते कि देश की वर्तमान स्थिति में किसी भी सच्चे भारतवासी को एक क्षण-भर के लिए आनंद अथवा सुख अनुभव करने का अवसर किस प्रकार मिल सकता है! जो हो, हमें इस अवस्था में सबसे अधिक शोक केवल इस बात का है कि इस अधोगति के होते हुए भी हमारे देश के नवयुवकों की एक बहुत बड़ी संख्या अभी तक अपने कर्तव्य-पालन से सर्वथा विमुख है।
आशा की छटक
तथापि निज मातृभूमि की वर्तमान दुर्गति को पूरी तरह समझते हुए भी हम कदापि हताश नहीं। हमें स्पष्ट दिखायी देता है कि रूस-जापान युद्ध तथा सुप्रसिद्ध कर्जनी बंगभंग के समय से समस्त भारत में एक नये जीवन का संचार हुआ है। हम गत नौ वर्ष से निज देश के राष्ट्रीय जीवन तथा उसकी उन्नति और अवनति की विविध लहरों की ओर ध्यान पूर्वक निहार रहे हैं और हमें निज राष्ट्रीय दुर्गति के भयंकर मेघों पर बारम्बार, नहीं-नहीं, लगातार आशारूपी बिजली की दमक दिखायी देती है। प्रिय पाठक! सच तो यह है कि हमारे हृदय-मंदिर का दीपक इसी आशा पर टिमटिमाता है कि एक दिन इस फुलवाड़ी में भी फिर से वसंत का आगमन होगा और शीघ्र ही इस देश के कर्तव्यपरायण युवक उन्नत देशों का अनुसरण और धीरे-धीरे अर्वाचीत सभ्यता के विविध अंगों में उन्नति करते हुए अपनी माता के समस्त दु:खों को दूर करेंगे। हमें अपने युवकों के परिश्रम तथा उनकी निस्वार्थता पर भरोसा है और हमारे हृदय में इस बात का अटल विश्वास है कि एक दिन हमारी आशा अवश्य पूरी होगी।
एशिया की जागृति
वास्तव में जिस एशियाई अध:पतन की ओर हम ऊपर संकेत कर आये हैं, उसकी लहर बहुत दिन हुए, मुड़ चुकी। एशिया की विविध जातियों में सबसे पहले वीर जापानियों ने इस लहर के मुख को मोड़ने तथा एशिया के विगलित शरीर पर स्वतंत्र जापान रूपी एक झूमर लटकाने का बीड़ा उठाया। हम समझते हैं कि इस संबंध में गत 50 वर्ष का जापानी इतिहास प्रत्येक देशभक्त एशिया-निवासी के लिए, चाहे वह किसी भी देश का हो, ध्यानपूर्वक पढ़ने योग्य है। इसके पश्चात् चीन ने जापान का अनुसरण करना आरंभ किया और यद्यपि अभी तक जापान के समान चीन संसार के सर्व-प्रबल देशों में नहीं गिना जाता तथापि, इसमें संदेह नहीं कि चीन का भविष्य अब असंदिग्ध है। भारत की मृतप्राय अस्थियों में भी नेय जीवन का संचार हुआ है। भारत में भी राष्ट्रीयता का जन्म हुआ। यद्यपि इस नयी लहर को अनेक आपत्तियों का सामना करना पड़ा, यद्यपि हमारे अनेक अदूरदर्शी शासकों ने भ्रम में पड़कर नयी लहर और राजद्रोह को झक तक समझ डाला और इसी से सरकार ने उस दमन-नीति का प्रयोग किया जिसकी भयंकर लपेट में पड़कर अनेक ऐसे निर्दोष सज्जनों को बड़े-बड़े कष्ट सहने पड़े जो निज मातृभूमि के सच्चे भक्त होने के साथ-साथ मनुष्य जाति के सच्चे प्रेमी थे, तथापि जिस किसी के नेत्र खुले हुए हैं, वह इस बात में तनिक भी संदेह नहीं कर सकता कि इन सात वर्षों के भीतर ही राष्ट्रीयता ने भारतवासियों के हृदय पर अपना अखंड शासन जमा लिया हैं। आज प्रत्येक शिक्षित भारतवासी, चाहे वह नैतिक निर्बलता के कारण अपने कर्तव्य पालन से विमुख हो, तथापि इस बात को भली प्रकार समझता है कि भारत में एक स्वतंत्र, समृद्ध तथा सुसंगठित राष्ट्र की रचना करना उसके जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य है।
हमारे शासक भी धीरे-धीरे अपने भ्रम तथा राष्ट्रीय लहर की अदम्यता को समझते हैं और गत नौ वर्ष का इतिहास हमें इस सत्यता का उपदेश देता है कि भारत की अधोगति अब सदा के लिए रूक चुकी हैं और, यद्यपि चाल कितनी भी मंद क्यों न हो, तथापि, इसमें संदेह नहीं कि यह देश धीरे-धीरे अवनति से हटकर उन्नति की ओर आगे पग बढ़ा रहा है।
भारत में उन्नति की मंद गति
इस मंद गति का मुख्य कारण केवल यह है कि, जैसा हम ऊपर कह आये हैं, हमारे देश के अधिकांश युवक अभी तक अपने कर्तव्यपालन से विमुख हैं। हमारे नवयुवक पाठको! हम तुम्हारे पुरूषार्थ की निंदा नहीं करते, किंतु तुम्हें यह बात स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए कि भविष्य के लिए राष्ट्र की आशा का निर्भर केवल मात्र तुम्हारे ही ऊपर है। स्मरण रखो कि संसार के किसी भी नये आंदोलन में वृद्धजनों, धनाढ्यों तथा उच्च पदवीधारियों का भाग अत्यंत कम होता है। जिस प्रकार अधिक आयु प्राय: मनुष्य को कायर बना देती है, उसी प्रकार अधिक धन तथा पदवियाँ मनुष्य को स्वार्थी बना देती हैं। संसार के समस्त उन्नतिशील आंदोलनों का इतिहास हमें स्पष्ट बतलाता है कि यदि उन आंदोलनों में से देश के नवयुवकों का भाग उठा दिया जात, तो उनमें से किसी भी, आंदोलन का फलीभूत होना सर्वथा असंभव था। गत नौ वर्ष के भीतर हमारे जिन नवयुवकों ने देश की उन्नति में भाग लिया है, उनकी हम हृदय से प्रशंसा करते हैं, किंतु उनकी संख्या अत्यंत तुच्छ तथा असंतोषदायक है और हमें दु:ख के साथ कहना पड़ता है कि यदि हमारे अधिकांश युवकों में अब भी राष्ट्र की ओर से इसी प्रकार उदासीनता बनी रही तो परिणाम अत्यंत भयंकर होगा। हमारे देश के नवयुवको! हम तुमसे प्रश्न करते हैं कि तुममें से कितने ऐसे हैं जिन्होंने अपनी साधरण शिक्षा के साथ-साथ निज देश की धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक तथा हर प्रकार की स्थिति के अध्ययन करने का संकल्प किया हो? तुममें से कितने हैं, जिन्हें इस बात का पता हो कि तुम्हारे करोड़ों देशवासियों को पेट-भर अन्न तथा अपना अंग ढकने को वस्त्र तक प्राप्त नहीं। तुममें से कितने हैं जिन्हें इस बात का पता हो कि तुम्हारे देश के सहस्त्रों ग्रामों में प्लेग, हैजा तथा मलेरिया ने सदा के लिए घर बना रखा है? तुममें से कितने हैं जिन्हें इस बात का पता हो कि आये दिन के दुष्कालों में इस उर्वरा भूमि के सहस्त्रों तथा लाखों निर्धन किसिानों को प्रतिवर्ष अपने बच्चों का पेट पालने के लिए अपने पशु तक बधिक के हाथ बेचने पड़ते हैं? तुममें से कितने हैं, जिन्होंने इस बात की खोज की हो कि इस अत्यंत उर्वरा भूमि में भी आये दिन दुष्काल क्यों पड़ते हैं? तुममें से कितने हैं, जिन्हें इस बात का बोध हो कि अर्वाचीन उन्नति के समय में, जबकि इंग्लैंड, अमेरिका, जर्मनी तथा जापान जैसे देशों में 99 फीसदी तक पुरुष तथा स्त्रियाँ शिक्षित हैं, इस देश में 94 फीसदी पुरुष तथा स्त्रियाँ ऐसे हैं जो शिक्षारूपी सूर्य के उजियाले से कासों दूर हैं? तुममें से कितने हैं, जिन्होंने इस भयंकर दारिद्रय तथा अज्ञानाधकार को यथाशक्ति दूर करने का बीड़ा उठाया हो? किनते हैं, जिन्हें इस बात पर दर्द आता हो कि आज तुममें से 7 करोड़ से अधिक अछूत कहलाने वाले भारतवासी तुम्हारे शताब्दियों के घोर अन्याय के कारण घृणित पशुओं के समान अपने दिन बिताकर तुम्हारे राष्ट्र-संगठन के कार्य को और भी अधिक दुष्कर बना रहे हैं? तुममें से कितने हैं जिन्हें इस बात की फिक्र हो कि तुम्हारे घरों की माताएँ और स्त्रियाँ शिक्षा की अत्यंत न्यूनता के कारण तुम्हारे हर प्रकार के मूढ़-विश्वासों तथा अंध-स्थितिपालन को देश में चिरस्थायी बना रही हैं? जिन्हें यह ज्ञान हो कि आज इस देश की लाखों ही बाल-विधवाएँ अपनी पाशविक प्रवृत्तियों में फँसकर तुम्हारे नाम को कलंकित तथा तुम्हारे राष्ट्रीय चरित्र को पतित बना रही हैं?
भारत के नवयुवकों का कर्तव्य
भारत के युवको! अब भी समय है कि तुम चेतो और अपने कर्तव्य को समझो। इस बात को सदा के लिए अपने हृदयों पर अंकित कर लो क इस देश के भविष्य का निपटारा तुम्हारे ही हाथों में हैं। दुखित माता अपने समस्त दु:खों को दूर करने के लिए तुम्हारे ही मुखड़ों की ओर निहार रही है। तुम्हारे ही कंधों पर राष्ट्र की रचना का समस्त भार है। सबसे पहली आवश्यकता इस बात की है कि तुम इस कार्य की महानता, गंभीरता तथा पवित्रता को अनुभव करो, जिसको पूरा करने का भार तुम्हारे ऊपर है। संक्षेप में, तुम्हारा कार्य भारत में एक ‘राष्ट्र की रचना करना’ है। जिन चार शब्दों को हमने चिनहों के अंदर बंद किया है, उस पर एक लेख नहीं, अगणित लेख तथा अगणित पुस्तकें रची जा सकती हैं। इसलिए आवश्यकता है कि तुम पहले भारत के इतिहास तथा भारत की वर्तमान स्थिति का ध्यानपूर्वक अध्ययन करो। उसके पश्चात् वर्तमान उन्नत जातियों, विशेषकर इंग्लैंड, जर्मनी, अमेरिका तथा जापान के इतिहास को आँख खोलकर पढ़ो और साथ-साथ अपने देश की स्थिति के साथ तुलना करते हुए इस बात का निश्चय करो कि तुम अपने देश की दशा सुधारने में उन देशों के इतिहास से क्या उपदेश ग्रहण कर सकते हो? फिर जिस देश की उन्नति के विविध क्षेत्रों में से जिस क्षेत्र में कार्य करने की ओर तुममें अधिक योग्यता तथा अधिक रूचि हो, उसमें अपने तन-मन के साथ प्रवृत्त हो जाओ। यही तुम्हारे जीवन का पवित्र लक्ष्य है।
युवको! स्मरण रखो, केवल दूसरों की प्रशंसा करने, यूरोप अथवा जापान के गुण गाने तथा प्राचीन भारत की डींग हाँकने से ही काम न चलेगा। दूसरों के उदाहरण से तुम नि:संदेह उपदेश ग्रहण और प्राप्त कर सकते हो, किंतु दूसरों की केवल-मात्र प्रशंसा करने और स्वयं निष्क्रिय बैठे रहने से तुम्हारे देश का उपकार न होगा। इसके अतिरिक्त हमारे अनेक युवकों को प्राचीन भारत के विषय में उचित से अधिक डींग मारने की आदत है, किंतु यदि तुम्हारे पूर्वज महान थे और हम स्वीकार करते हैं कि वे अनेक अंशों में महान थे, तो तुम्हारे लिए और भी अधिक लज्जा की बात है और तुम्हें और भी अधिक परिश्रम के साथ अपने देश की वर्तमान दशा को सुधारने में तत्पर हो जाना चाहिए।
नवयुवकों से प्रार्थना
भारत के नवयुवको! तुम्हारे सम्मुख कार्य अति महान है। सैकड़ों नहीं, सहस्त्रों नहीं, लाखों ही माता के लाल जिस समय तक निज देशवासियों की नन्य सेवा में अपना समस्त जीवन व्यतीत न करेंगे, उस समय तक इस महान कार्य का सिद्ध होना असंभव है। यदि तुम सच्चे मनुष्य बनना चाहते हो, तो अपनी शिक्षा का उचित प्रयोग करना सीखो। इस शिक्षा ने वकील, बैरिस्टर तथा सरकारी कर्मचारी बहुतेरे पैदा किये। अब माता को सच्चे देशभक्तों तथा सच्चे देशसेवकों की आवश्यकता है। स्वार्थ को त्याग दो। दरिद्रय-वृत धारण करो और हर प्रकार के व्यक्तिगत सुख-सौख्य को तिलांजलि दे, निज देशवासियों की सेवा में लग जाओ। तिलक, लाजपत, हंसराज, मुंशीराम, गोखले, अश्विनी, नीच जातियों का उद्धाद, सामाजिक सुधार, पत्र-संपादन, राजनैतिक आंदोलन, जिस कार्य में भी तुम प्रवेश करो, उसमें अपना सर्वस्व अपर्ण कर दो। निज मातृभूमि को मृत्यु से बचाकर अमरत्व की ओर ले जाने का यही उपाय है।
ऊपर के कामों में से तुम्हारा कर्मक्षेत्र चाहे कुछ भी हो, तथापि एक-दो बातों की ओर से तुम्हें सावधान कर देना हम आवश्यक समझते हैं। एक यह कि निर्धनता, कष्टसहन तथा किसी प्रकार के सांसारिक भय अथवा सांसारिक प्रलोभन तुम्हें तुम्हारी मर्यादा से न डिगा सकें। दूसरे यह कि किसी प्रकार का भी मजहबी पक्षपात तुम्हारे हृदय में स्थान न कर सके। स्मरण रहे, एकता, किसी भाव की भी एकता, राष्ट्रीय उन्नति का मूलमंत्र है। अर्वाचीन राष्ट्रीयता की नींव मजहब नहीं, वरन् देश है। इस संबंध में जापान तथा चीन का अर्वाचीन इतिहास ही तुम्हें बहुत शिक्षा दे सकता है। गत वर्षों के मोहर्रमी झगड़े और गोहत्या तथा गोबध के टंटे प्रत्येक सच्चे देशभक्त को दु:ख देते रहे हैं। विशेषकर गोबध-संबंधी झगड़ों के विषय में हमें दु:ख किंतु निर्भयता के साथ कहना पड़ता है कि इस देश के अधिकांश रहने वाले अभी तक देशभक्ति तथा देश-सेवा के अर्थों को नहीं समझते। प्रिय युवको! हम छोटे-से लेख में इस विषय पर अधिक लिखने में असमर्थ हैं, किंतु इससे मिलती-जुलती एक और तीसरी बात है जिसकी ओर से तुम्हें सावधान कर देना भी हम अपना कर्तव्य समझते हैं। वह यह है कि तुममें किसी प्रकार की नैतिक निर्बलता (Moral Weakness) अथवा आत्मबल की न्यूनता न होनी चाहिए। तुम्हारा कर्मक्षेत्र चाहे कुछ भी हो, किंतु सामाजिक कुरीतियों को तुमसे तनिक मात्र भी सहायता न मिले। ध्यान रखो, संस्थाएँ मनुष्य के लिए रची जाती हैं, मनुष्य संस्थाओं के लिए नहीं रचा गया। संसार की समस्त संस्थाएँ, चाहे वे आरंभ में कैसी भी लाभदायक रही हों, समय पाकर मनुष्य जाति की उन्नति में बाधा डालने लगती हैं और उस समय उनका विध्वंस कर देना ही बुद्धिमत्ता है। उन्नतिशीलता तथा अंधस्थितिपालन दोनों परस्पर विरोधिनी शक्तियाँ हैं। हम यह नहीं कहते और न यह चाहते हैं कि भारतवासी यूरोप वालों के अवगुणों को भी ग्रहण कर लें, और न हम यह चाहते हैं कि अधिकांश यूरोप-निवासियों के समान हम सब सामान्य अर्थों में ला-मजहब हो जावें, किंतु हम यह कहे बिना भी नहीं रह सकते कि जो लोग कुछ युवकों को सड़ी-गली हानिकारक रूढि़यों को तोड़ते हुए देखकर चिल्लाने लगते हैं कि ‘कौम डूबी। कौम डूबी’, वे चाहे कितने भी सच्चे देशभक्त क्यों न हों, किंतु राष्ट्र तथा राष्ट्रीयता के वास्तविक अर्थों को कदापि नहीं समझते। हम किसी भी मजहब के विरोधी नहीं। हम इस बात में पूर्ण विश्वास रखते हैं कि प्रत्येक उन्नत राष्ट्र में प्रत्येक पुरुष तथा स्त्री को मजहबी विचार रखने की पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त होनी चाहिए, किंतु हमारे दुखित हृदय से यह आवाज उठे बिना नहीं रह सकती कि आज शताब्दियों से मजहबी झगड़े हमारे देश की अधोगति का एक मुख्य कारण हैं। देशभक्त हिंदुओं तथा देशभक्त मुसलमानों दोनों को अपने-अपने मजहबों पर दृढ़ रहते हुए भी स्मरण रखना चाहिए कि राष्ट्र की रक्षा का निर्भर हिंदु कर्मकांड तथा हिंदु रस्मो-रिवाज अथवा मुसलमानी कर्मकांड तथा रस्मो-रिवाज की रक्षा करने के स्थान पर देश तथा राष्ट्र की रक्षा करना अपनी तथा मनुष्य जाति की उन्नति के लिए कहीं अधिक आवश्यक है।
जो हिंदू-स्वराज अथवा हिंदू-साम्राज्य के स्वप्न देखते हैं, वे ऐसे ही भ्रम में हैं, जैसे टर्की को अपना वतन समझने वाले भारतीय मुसलमान। हम मजहब की वास्तविक स्पिरिट को अत्यंत आदर की दृष्टि से देखते हैं, किंतु जो मजहब हमें उदारता नहीं सिखाता और विचारों का भेद होते हुए भी निज देशवासियों को अपनाना नहीं बताता, वह इस 20वीं शताब्दी में तिलांजलि देने के योग्य है। इसी प्रकार जो विचार हमें सार्वजनिक समता के पवित्र सिद्धांत से हटाकर ऊँच-नीच के गड्ढों में गिराये रखते हैं, अथवा हमारे मार्ग में रुकावट डालते हैं, उनकी अंत्येष्टि क्रिया कर डालना ही इस समय राष्ट्र-संगठन के कार्य को सच्ची सहायता देना है।
अंत में, इस लेख को समाप्त करते सतय महात्मा मेज्जिनी ही के शब्दों में हम भारत के युवकों से अंतिम निवेदन करते हैं:
‘देश के नवयुवको! जब तुम एक बार विचारपूर्वक अपनी आत्मा के भीतर अपने जीवन के उद्देश्य को स्थिर कर चुको, तो फिर संसार की कोई शक्ति तुम्हारे पैरों को आगे बढ़ने से न रोक सके! उस उद्देश्य को अपनी संपूर्ण शक्ति द्वारा पूरा करो! पूरा करो! चाहे तुम पर प्रेम की वर्षा हो और चाहे घृणा की बौछार, चाहे दूसरों की सहायता द्वारा तुम्हें बल प्राप्त हो और चाहे तुम्हें उस शोकमय निर्जनता में रहना पड़े, जिसका प्राय: सर्वदा ही निज आदर्श के शहीदों को सामना करना पड़ता है। तुम्हारे सम्मुख तुम्हारा मार्ग स्पष्ट है। फिर तुम कायर हो तथा स्वयं अपने देश के भविष्य के घातक हो, यदि तुम कष्टों तथा अपत्तियों के होते हुए भी अंत तक उस मार्ग का अनुसरण न करो।’
हमारा आशान्वित हृदय भीतर से साक्षी देता है कि हमारे राष्ट्र की आशा के स्तम्भ, हमारे नवयुवक, मेज्जिनी के इस लांछन के कदापि भागी न होंगे।
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