निबंध – राष्ट्र की नींव (लेखक – गणेशशंकर विद्यार्थी)
राष्ट्र महलों में नहीं रहता। प्रकृत राष्ट्र के निवास-स्थल वे अगणित झोंपड़े हैं, जो गाँवों और पुरवों में फैले हुए खुले आकाश के देदीप्यमान सूर्य और शीतल चन्द्र और तारागण से प्रकृति का संदेश लेते हैं और इसीलिए राष्ट्र का मंगल और उसकी जड़ मजबूत उस समय तक नहीं हो सकती, जब तक इन अगणित लहलहाते पौधों की जड़ों में जीवन का मजबूती का जल नहीं सींचा जाता। भारतीय राष्ट्र के निर्माण के लिए उसके गाँवों और पुरवों में जीवन की ज्योति की आवश्यकता है। आवश्यकता है कि हम अपने हाथ-पैर और कान-नाक को भी उस मिठास की कल्पना करने का निमंत्रण दें, जिसकी कल्पना हमारे मन में है। करोड़ों प्राणियों की जागृति के लिए हम आगे बढें और आगे बढ़ावें, जिनके बढ़ावे की शक्ति हमारे हाथों में है।
देश की म्यूनिसिपैलिटियों को अधिक स्वतंत्र बनाने के लिए सरकार ने कृपा करके अभी एक प्रस्ताव प्रकाशित किया था। यद्यपि उसमें सकपकाहट भरी हुई है और सरकार उन्नति के नाम पर अपनी ही लाठी के सहारे एक कदम भी आगे बढ़ाने का साहस प्रकट नहीं कर सकी है, तो भी यह नहीं कहा जा सकता कि उस प्रस्ताव में अच्छी बातें नहीं हैं। एक अच्छी बात यही थी कि गाँवों में पंचायतें स्थापित की जायें और जहाँ-जहाँ वे हैं, वहाँ दृढ़ की जायें। काम होने पर पता लग सकेगा कि सरकार गाँवों के लिए कितना आगे बढ़ सकती है। यह बात उल्टी भले ही प्रकट हो, पर एक समय था कि हमारे गाँव प्रजा-सत्ता के उस बड़े भाव के केन्द्र-स्थल थे, जिसके आधार पर आगे बढ़ना आज प्रत्येक उन्नतिशील देश अपना कर्तव्य समझता है। मुसलमानों ने देश केक अधिकांश भाग पर अपना झंडा फहरा दिया, पर बड़े से बड़े मुसलमान सम्राट का शासन या तो देश के बड़े-बड़े नगरों पर था और या उसीभूमि पर, जिस पर उसकी सेना के कदम पड़ते थे, पर देश के लाखों गाँवों में उन्हीं की तूती बोलती थी जो उन्हीं के थे और उन्हें पता भी न लगता था कि कौन आया और कौन गया? परंतु अंग्रेजी राज्य के स्थापित होते ही गाँवों की स्वाधीनता लोप हो चली। उन्हें मालूम हुआ कि हमारे हल्के सिरों पर शासकों का जर्बरदस्त लोहा पड़ गया। पंचायतें टूट चलीं और गाँव की कभी न टूटने वाली शांति ने अपना बोरिया-बंधन सँभाला। जहाँ प्रजासत्ता आनंद से विचरती थी, वहाँ स्वेच्छाचारिता का राज्य हुआ। कोयल के घोंसले में काक का निवास हुआ। चौकीदारों और पुलिसवालों ने सबको एक ही डंडे से हाँकना आरंभ कर दिया। जहाँ प्यार और आदर के सूत्र से सब बँधे हुए थे, वहाँ स्वेच्छाचारिता की छत्र-छाया में विरोध और कलह, उत्पात और नालिशबाजी ने अपना रंग जमाया। बना-बनाया खेल बिगड़ गया और इस टूटी हुई अट्टालिका के सुधार या उसकी नींव पर दूसरी अट्टालिका की नींव रखने का विचार भी उनके हृदयों में न पैदा हुआ, जिनके हाथों में बिगड़े हुओं के भाग्य की डोरी थी। वर्षों से देश के गाँवों की बुरी दशा है। प्रतिवर्ष उजड़ते जाते हैं। प्रतिवर्ष लाखों आदमी उनसे निकलकर नगरों में आ बसते हैं, कुछ रोजी कमाने के लिए और कुछ अपने गाँव के स्वेच्छाचारी सरकारी प्रतिनिधि की ज़ोर-जबर्दस्ती से बचने के लिए। पर, अब सरकार की दृष्टि उन पर पड़ी है। उसने उनमें पंचायतों के स्थापित करने की आवश्यकता समझी है। बात अच्छी है और भविष्य की उज्जवलता की कुछ आशा की जा सकती है, परंतु उस समय तक आशाओं के बहुत बड़े महल बनाने की आवश्यकता नहीं है, जब तक काम का रूप न देख लिया जाय। यदि कार्य उसी ढंग से आरंभ किया गया, जिस ढंग से आरंभ करने के अभ्यासी हमारे शासकगण हैं, तो विशेष लाभ की कोई आशा नहीं।
पंचायत स्वराज्य का एक रूप है। पंचायत को अपने गाँव के भीतरी मामलों में पूरी स्वाधीनता थी। वर्तमान आवश्यकताओं के लिहाज से एक पंचायत को अपने गाँव की पाठशाला, उसकी स्वाथ्य-रक्षा, उसके छोटे-छोटे मामलों के निपटारे आदि विषयों में पूरी स्वाधीनता प्राप्त होनी चाहिए, परंतु आज वर्षों से गाँवों में स्वाधीनता का ह्रास हो रहा है और स्वेच्छाचारी शक्तिमान लोग गाँव वालों पर अत्याचार करने, उन्हें धूल के बराबर समझने, उन्हें लड़ा मारने, उनकी कलह और मुकदमेबाजी से लाभ उठाने के पूरे अभ्यासी हो चुके हैं। इन स्वेच्छाचारियों को दाब में रखने से गाँव वाले कुछ सवाधीन हो सकते हैं, परंतु क्या ये लोग किन्हीं बंधनों में रखे जा सकेंगे? हमें संदेह है, क्योंकि इन स्वेच्छाचारियों में अधिकांश हमारे अधिकारी हैं और उनका दाबा जाना उस समय तक अत्यंत कठिन जान पड़ता है, जब तक देश के शासन में देश वालों का हाथ बहुत कुछ नहीं होता और जब तक सरकार की वर्तमान नीति अपने आदमियों का अनुचित पक्ष लेने की नीति का अंत नहीं होता। पर स्थिति चाहे जो हो, इसमें किसी को संदेह नहीं हो सकता कि गाँवों के उठाने की बड़ी भारी आवश्यकता है, न केवल गाँवों की दुर्दशा का मूलोच्छेदन करने के लिए उनमें से कलह, अज्ञान और मुकदमेबाजी दूर करने के लिए, परंतु देश में राष्ट्रीय भावों की जड़ों को पाताल तक पहुँचाने के लिए। सरकार कुछ करना चाहती है। वह बुरा हो या भला, इस आलोचना ही से हमारा काम समाप्त नहीं होता। हम, जिनके हृदयों में जागृति के कुछ भाव हैं और जो देश के अलग-अलग अंगों को जुड़ा हुआ देखना चाहते हैं और जो एक महान राष्ट्र का स्वप्न देख रहे हैं। हम, जो देश और देशवासियों के पूर्ण विकास और उनकी उन्नति रोकने पर दूसरों का तिरस्कार करते हैं और जो मनुष्यता के कल्याण ही में संसार का कल्याण समझते हैं, उस समय तक अपने कर्तव्य से गिरे हुए रहेंगे, जब तक हम स्वयं अपने हाथों से इस बड़े महल की नींव रखने के लिए आगे न बढ़ेंगे और आगे बढ़कर उन अपने करोड़ों भाइयों को आगे बढ़ने का रास्ता न देंगे, जो स्तब्ध होने के कारण हमें पीछे घसीटने वाले और देश के बोझ बन रहे हैं।
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