निबंध – स्वर्गीय राय देवीप्रसाद ‘पूर्ण’ (लेखक – गणेशशंकर विद्यार्थी)
धीरे-धीरे एक-एक दीपक बुझते जा रहे हैं। इस विनाश-लीला में दुर्भाग्य ने जिस मजबूती के साथ हमारे प्रांत का पल्ला पकड़ा है, वैसी मजबती से दूसरे का नहीं। वर्ष के भीतर ही बाबू गंगाप्रसाद और डॉ. सतीशचंद्र बनर्जी उठ गये। पूरा एक मास भी न बीता था कि हमें दु:ख भरे हृदय के साथ कहना पड़ता है कि गत 30 जून 1915 दिन बुधवार को हमारे नगर के राय देवीप्रसाद ‘पूर्ण’ का देहांत हो जाने से प्रांत को एक बड़ा धक्का और लगा। यद्यपित आज दो-तीन वर्ष से स्वर्गीय ‘पूर्ण’ जी का स्वास्थ्य बिगड़ गया था, पर यह आशंका न थी कि उनका देहांत इतनी जल्दी केवल 45 वर्ष की आयु में हो जायेगा। एक मास से अधिक हुआ, वे बीमार पड़े, ज्वर का बल बढ़ता ही गया, और अंत में गत बुधवार को दिन के 10 बजे हृदय की गति के रूक जाने से उनका देहांत हो गया। उनकी मृत्यु से कानपुर नगर की जो गहरी क्षति हुई है, वह हाल में तो किसी प्रकार भी पूरी होती नजर नहीं आती। वे यहाँ के सार्वजनिक जीवन के एक बड़े भाग के प्राण थे। राजनैतिक प्रश्नों पर जिस तत्परता के साथ विचार तथा आंदोलन करने के लिए वे तैयार रहते थे, कानपुर में वह तत्परता, गनीमत थी, और हमें शोक और लज्जा से कहना पड़ता है कि अब बहुत दिनों तक कानपुर में उस राजनैतिक तत्परता का देख पड़ना कठिन है। राय साहब आंदोलन के तत्व को जितना अच्छी प्रकार जानते थे, उतना अच्छी प्रकार उसका तत्व जानने वाले हमारे नगर में तो हैं ही नहीं, परंतु प्रांत में भी थोड़े ही निकलेंगे। अयोध्या की कुर्बानी का मामला एक सार्वदेशिक प्रश्न बन गया था, परंतु उसको इस प्रकार का रूप देने और उसे भलीभाँति अच्छी तरह निबाहने में जिस आंदोलन कुशलता से राय देवीप्रसाद ‘पूर्ण’ ने काम लिया, उसका पता थोड़े ही आदमियों को है। धार्मिक क्षेत्र में भी राय साहब का एक विशेष स्थान था। वे सनातन धर्मी थे और कानपुर सनातन धर्म महामंडल के सभापित थे। इस क्षेत्र में भी वे सदा क्रियाशील रहते थे। बहुधा उनकी इस क्रियाशीलता से धार्मिक वैमनस्य का जोर बढ़ जाया करता था, परंतु इस वैमनस्य के अंदर भी हमें उनकी कुछ विशेष बलवान शक्तियों का दृश्य देखने को मिलता था। पिछले ही वर्ष, जबकि वे बीमारी से उठे थे, एक धर्मोत्सव पर अपने विरोधियों का मुँह बंद करने के लिए उन्होंने बड़े जोश और अनेक युक्तियों के साथ अनेक विषयों पर अपनी जानकारी प्रकट करते हुए लगभग तीन घंटे तक जो लम्बा-चौड़ा व्याख्यान दिया था, भले ही उसके सिद्धांतों से किसी की सहमति न हो, पर उसके देने वाले की शक्तियों पर आश्चर्य न करना आसान नहीं है। वे बड़े अच्छे व्याख्यानदाता थे। प्रांत-भर में सार्वजनिक प्रश्नों पर ऐसा अच्छा बोलने वाले थोड़े ही से आदमी निकलेंगे। स्थानीय हिंदू सभा में बर्न्स सरक्यूलर पर उन्होंने जो जोरदार भाषण किया था और लखनऊ हिंदी साहित्य सम्मेलन में अपने व्याख्यान से हास्यरस की जो लहरें उन्होंने उठा दी थीं, वे उनकी इस शक्ति के प्रमाण हैं। हिंदी संसार के तो वे इने-गिने पुरुषों में थे। उनकी कविता अनूठी थी। उनकी आशुता पर आश्चर्य होता था। उन्होंने कई हिंदी नाटक रचे, पर उचित रीति से उनका प्रकाशन न होने के कारण थोड़े ही लोग अभी तक उन नाटकों से लाभ उठा सके। अपनी साहित्यिक विद्वता के कारण वे गोरखपुर हिंदी कान्फ्रेंस के सभापति चुने गये थे, और हम समझते हैं कि यदि वे जीते रहते तो बहुत करके इसी वर्ष वे साहित्य-सम्मेलन के सभापति चुने जाते। अंग्रेजी में उन्हें अच्छी योग्यता थी और संस्कृत, हिंदी, फारसी और उर्दू भी वे बहुत अच्छी भाँति जानते थे। दर्शनशास्त्र से उन्हें विशेष प्रेम था और वेदांत का उन्हें अच्छा ज्ञान था। संगीत और चिकित्सा शास्त्र में भी उन्हें विशेष ज्ञान प्राप्त था। बुद्धि की प्रखरता उनके हिस्से में पड़ी थी। ऐसा था वह सज्जन, जिसके वियोग से आज हमारा नगर व्यथित है, जिसकी मृत्यु का धक्का प्रांत-भर को लगा और जिसका स्थान हमारे नगर, हमारे प्रांत और हिंदी संसार में शीघ्र भरता-सा नहीं दीख पड़ता।
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