निबंध – स्व. श्रीयुत लक्ष्मीशंकर अवस्थी (लेखक – गणेशशंकर विद्यार्थी)
अवस्थी – यह केवल दुर्भाग्य ही नहीं, किंतु हृदय को हिला और उसे रुला देने वाली बात भी है कि इस प्रियजन के, जिसके बिछोह की कोई कल्पना भी न की गयी हो और जिसके उपयोगी जीवन और उज्ज्वल गुणों ने हृदय में बड़ी-बड़ी आशाओं को जन्म दे रखा हो, नाम के सामने असमय ही ‘स्वर्गवासी’ शब्द लिखना पड़े। आज हमें अत्यंत शोक के साथ ही दु:खजनक कार्य करना पड़ रहा है। स्वर्गीय अवस्थी जी उन पुरुषों में थे जिनके शुद्ध चरित्र, सरल हृदय, निष्कपट आचरण और मिष्ट सहृदयता से उनके मित्रों के हृदय को बल मिलता था और उनके संसर्ग में आने वालों को शिक्षा। उदारता उनमें इतनी थी कि बुरे आदमी तक की बुराई नहीं देखते थे और उनकी सरलता – मिश्रित उदारता का परिणाम यह होता था कि आदमी को उनके सामने किसी की बुराई करते हुए हिचकना पड़ता था। हर प्रकार से वे उच्च आदर्शों के पुरुष थे। उनकी उच्चाशयता उनकी इस असामयिक मृत्यु को और भी खेदनजक बनाती है। इस मृत्यु से हिंदी संसार की बड़ी हानि हुई है। उसने अपना एक सच्चा और बहुत ही उपयोगी लेखक खो दिया। अवस्थी जी अभी मुश्किल से 24-25 वर्ष के होंगे, साहित्य-क्षेत्र में उनसे अभी बहुत आशाएँ थीं, परंतु उन सब पर पानी फिर गया। वे जो कुछ थे अपने ही परिश्रम से बने थे। आज से 8-9 वर्ष पहले, 15-16 वर्ष की उम्र में, अवस्थी जी किसी प्रकार पं. मदनमोहन मालवीय जी की नजरों में पड़ गये थे। मालवीय जी ने उन्हें अपने पास रख लिया और एक वर्ष पश्चात् ‘अभ्युदय’ के संपादकीय विभाग में दे दिया। वहाँ वे सात वर्ष तक रहे और इसी बीच में उन्होंने अपनी शारीरिक दशा तक की कुछ परवाह न करते हुए ‘अभ्युदय’ की बहुत सेवा की। अनेक अवसरों पर उन्हें संपादक और मैनेजर दोनों का पूरा-पूरा कार्य करना पड़ा और उन्होंने सहर्ष उसे किया। इधर दो वर्ष से बहुत अधिक परिश्रम करने के कारण उनका शारीरिक ह्रास प्रत्यक्ष रूप से हो चला था और अंत में, वही मियादी ज्वर के रूप में घातक हो गया। आज से कुछ मास पहले उन्होंने कुछ विशेष कारणों से ‘अभ्युदय’ की नौकरी छोड़ दी थी और अपने पूर्व सहयोगी और मित्र श्रीयुत कृष्णकांत मालवीय के साथ ‘मर्यादा’ का कार्य करने लगे थे। शरीर की दशा बुरी हो गयी थी, परंतु इसके अब सुधर जाने की पूरी आशा थी, क्योंकि इधर से बहुत हल्का काम करते थे और शरीर की ओर उचित ध्यान देने लगे थे, परंतु शरीर पर उचित से कहीं अधिक परिश्रम पड़ चुकने के कारण जो निर्बलता उत्पन्न हो गयी थी, वह मियादी ज्वर के होते ही उनकी मौत का निमित्त बन गयी। इस प्रकार, एक होनहार युवक का शोकजनक अंत हो गया। इन पंक्तियों के लिखने वाले के लिए, यह दुर्घटना अत्यंत शोकजनक है। अवस्थी जी का और उसका बड़ा घना संबंध था। वह उनके साथ काम कर चुका था और उन स्मृतियों को जो उनके सहयोग के चिन्ह-स्वरूप हृदय में अंकित थीं, बड़े आदर और प्रेम की वस्तु समझता था। दु:ख और सुख के अवसरों पर, उस सरल हृदय का संसर्ग सुख और संतोष का मार्ग दिखाता था। मालूम पड़ता है कि आज एक बड़ी भारी कमी हो गयी – न पुरी होने वाली क्षति हो गयी। अवस्थी जी के वृद्ध माता-पिता, बाला पत्नी और युवक भ्राता सहानुभूति के पात्र हैं, परंतु किन शब्दों में हम उसे प्रकट करने का साहस करें।
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