पत्र – अग्रज के नाम (लेखक – गणेशशंकर विद्यार्थी)
प्रणाम।
झाँसी से लिखे हुए पत्र आपको मिल गये होंगे। उसके सबेरे ही मैं यहाँ बनापुर चतुर्वेदी जी के साथ चला आया। यहाँ अच्छी तरह से हूँ। कोई कष्ट नहीं। चतुर्वेदी जी की माता बड़े प्रेम से भोजन कराती हैं और उनके भाई सेवा करते हैं। आज होली का दिन है। आप लोगों को मेरी चिंता होगी, परंतु चिता तनिक भी न कीजिएगा। यहाँ कोई कष्ट नहीं है और सबका व्यवहार घर का-सा है। 5 ता. को यहाँ से चलेंगे और 6 ता. को सबेरे कानपुर पहुँचेंगे। घर पर पहुँच कर आप लोगों से मिल भी लेना है। हो सका, तो नहा-धोकर कुछ खा-पी लूँगा। उसके पश्चात् अपने को पुलिस के हाथों में दे देना है। उसी दिन फतेहपुर चला जाना होगा और 10-12 दिन के भीतर ही सब फैसला हो जाएगा। सजा कितनी होगी, सो नहीं कहा जा सकता। मेरा खयाल है कि एक वर्ष के लिए यह कष्ट सिर पर पड़ेगा। आप लोग मेरे दुर्बल शरीर के कारण चिंतित होंगे। आप इसकी चिंता न करें। मुझे कष्ट नहीं होगा। मैं आराम से रहूँगा। मुझे आराम पहुँचाने वाले सब जगह हैं और सबसे अधिक भरोसा ईश्वर का है। इस कष्ट का सहना आवश्यक हो गया है। यदि इस कष्ट के सहने से मैं अपना कदम पीछे हटाऊँगा, तो मेरा जीवन बहुत कडुआ हो जायेगा। इसलिए, आप लोग ईश्वर पर भरोसा रखकर, सहर्ष आज्ञा दीजिएगा। मुझे बाबूजी की चिंता है। बड़ा कठिन समय है। आप उन्हें धीरज दीजिएगा। आशा नहीं कि वह इस चोट को सह सकें। आप चिंता न करें और घर वालों को भी परमात्मा पर भरोसा बँधाएँ। मनुष्य के जीवन में बहुधा संकट के समय आया करते हैं, परंतु वे सदा नहीं रहते। मेरा तो वहाँ तक विश्वास है कि इस संकट में मुझे कोई विशेष लाभ होगा… अपने हृदय को तनिक भी न गिरने दीजिएगा। मुझे आशीर्वाद देते रहिये। अम्माँ को प्रणाम। बाबूजी को क्या लिखूँ। बच्चों को प्यार।
चरण सेवक
गणेशशंकर
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