महाभारत कथायें
महाभारत की शुरुआत में कर्ण के जन्म की कथा आती है। कर्ण की मां कुंती राजकुमारी थीं। एक दिन उनके राजमहल में महर्षि दुर्वासा आए।
दुर्वासा अपने क्रोध और शापों के कारण बहुत चर्चित थे। हर राजा उन्हें प्रसन्न करने के लिए हर संभव प्रयास करता था।
कुंतीराज ने भी दुर्वासा को अपना अतिथि बनाया। उनकी सेवा में कोई कमी ना रहे इसलिए उन्होंने उनके आतिथ्य की सारी जिम्मेदारी बेटी कुंती को सौंप दी। कुंती ने भी पूरे समर्पण के साथ महर्षि दुर्वासा की सेवा की।
कई दिनों तक सेवा का पूरा सिलसिला चलता रहा। दुर्वासा ने कुंती की कई कठिन परीक्षाएं भी लीं जिससे कि कुंती उन्हें अप्रसन्न कर सके लेकिन कुंती ने धैर्य नहीं खोया। वो महर्षि की हर परीक्षा में सफल रही। दुर्वासा उससे बहुत प्रसन्न हुए। जाते-जाते उसे एक ऐसा मंत्र दे गए, जिसके उच्चारण से जिस देवता को बुलाया जाए, वो उपस्थित हो जाता है।
कुंती को एकाएक इस पर भरोसा नहीं हुआ। उसने इस मंत्र के सत्य को जानने के लिए सूर्य का आवाहन कर लिया। तत्काल सूर्य देवता प्रकट हो गए। कुंती से वरदान मांगने को कहा तो कुंती ने कहा मुझे कुछ नहीं चाहिए।
सूर्य देवता ने उसे एक पुत्र दे दिया। विवाह के पहले पुत्र होना सामाजिक दृष्टि से अनुचित था इस कारण कुंती ने उस पुत्र को गंगा नदी में प्रवाहित कर दिया। जो बड़ा होकर कर्ण कहालाया।
पांडवों को मत्स्यदेश की राजधानी में रहते हुए दस महीने बीत गए। यज्ञसेन कुमारी द्रोपदी भी वहां दासी की तरह रहने लगी। जब एक वर्ष पूरा होने में कुछ ही समय बाकी रह गया मत्स्यनरेश का साला कीचक अपनी बहन से मिलने आया। तब उसकी नजर महल में काम करती हुई द्रोपदी पर पड़ी।
द्रोपदी की अद्भुत सुंदरता देखकर वह मुग्ध हो गया। उसने अपनी बहन से कहकर राजकुमारी द्रोपदी के पास आकर बोला- कल्याणी! तुम कौन हो? कहां से आई हो? सुंदरी अगर तुम चाहो तो मैं अपनी पहली स्त्रियों को त्याग दूंगा। उन्हें तुम्हारी दासी बनाकर रखूंगा।
बस तुम मेरी रानी बन जाओ। द्रोपदी ने कहा मुझसे ऐसा कहना उचित नहीं है। संसार के सभी प्राणी अपनी स्त्री से प्रेम करते हैं, तुम धर्म पर विचार कर ऐसा ही करो। मेरे पति गंधर्व हैं।उन्हें अगर ये बात पता चली तो वो आपको जीवित नहीं रहने देंगे।
द्रोपदी के इस तरह ठुकराने पर कीचक कामसंप्तत होकर अपनी बहन सुदेष्णा के पास जाकर बोला- बहिन जिस उपाय से भी सौरंध्री मुझे स्वीकार करे, सो करो नहीं तो मैं उसके मोह में अपने प्राण दे दूंगा। तब उसकी बहिन ने उसे समझाते हुए कहा मैं सौरंध्री को एकांत में तुम्हारे पास भेज दूंगी।
कुछ समय बाद रानी सुदेष्णा ने सौरंध्री को अपने पास बुलाकर कहा मुझे बहुत जोर से प्यास लग रही है। तुम कीचक के आवास पर जाओ और कुछ पीने योग्य लेकर आओ।तब द्रोपदी कीचक के महल में डरते-डरते गई। कीचक ने जब उसे देखा तो वह अपने आप को रोक नहीं पाया उसने द्रोपदी की तरफ बढऩे का प्रयास किया। कीचक का तिरस्कार कर द्रोपदी जब वहां से भागने लगी।
कीचक ने भी उसका पीछा किया और भागती हुई द्रोपदी के केश पकड़ लिए। फिर राजा के सामने ही उसे जमीन पर गिराकर लात मारी। उस समय राजसभा में युधिष्ठिर और भीमसेन भी बैठे थे।
जब पाण्डव द्वैत वन में रह रहे थे, तब दुर्योधन कुटिल उद्देश्य से वहाँ पहुँचा। वह पाण्डवों का अनिष्ट करना चाहता था। रास्ते में जब वह एक सरोवर में स्नान के लिए घुसा तो वहाँ के निवासी गन्धर्वों ने युद्ध करके उसे रानियों समेत बन्दी बना लिया।
युधिष्ठिर को जब यह समाचार मिला तो उन्होंने अपने भाइयों से कहा-तुम सब जाकर गन्धर्वों से दुर्योधन को छुड़ाए यद्यपि वह दुष्ट उद्देश्य से वहाँ आया था फिर भी इस समय वह विपत्ति में पड़ा हुआ है। आखिर है तो अपना भाई ही।
दूसरों के हाथों उसकी दुर्गति होते देखना हमारे लिए अशोभनीय है। दुर्योधन के उपकारों को भुलाकर हमें अपनी सहज उदारता से उसके साथ उपकार करना ही उचित है।
युधिष्ठिर की आज्ञानुसार अर्जुन ने गन्धर्वों से लड़कर दुर्योधन को रानियों सहित बन्धन मुक्त करा दिया।
आपत्तिजनक होने पर भी अपकार करने वालों की सहायता करना सज्जनों का कर्तव्य है।
महाभारत काल में द्रौपदी द्वारा श्री कृष्ण को तथा कुन्ती द्वारा अभिमन्यु को राखी बांधने के वृत्तांत मिलते हैं।
महाभारत में ही रक्षाबंधन से संबंधित कृष्ण और द्रौपदी का एक और वृत्तांत मिलता है। जब कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध किया तब उनकी तर्जनी में चोट आ गई।
द्रौपदी ने उस समय अपनी साड़ी फाड़कर उनकी उँगली पर पट्टी बाँध दी। यह श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था।
श्रीकृष्ण ने बाद में द्रौपदी के चीर-हरण के समय उनकी लाज बचाकर भाई का धर्म निभाया था।
महाभारत का प्रसंग है। युद्ध अपने अंतिम चरण में था। भीष्म पितामह शैय्या पर लेटे जीवन की अंतिम घडिय़ां गिन रहे थे। उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था और वे सूर्य के दक्षिणायन से उत्तरायण होने की प्रतिक्षा कर रहे थे।
धर्मराज युधिष्ठिर जानते थे कि पितामह उच्च कोटि के ज्ञान और जीवन संबंधी अनुभव से संपन्न हैं। इसलिए वे अपने भाइयों और पत्नी सहित उनके समक्ष पहुंचे और उनसे विनती की- पितामह। आप विदा की इस बेला में हमें जीवन के लिए उपयोगी ऐसी शिक्षा दें, जो हमेशा हमारा मार्गदर्शन करें।
तब भीष्म ने बड़ा ही उपयोगी जीवन दर्शन समझाया। नदी जब समुद्र तक पहुंचती है, तो अपने जल के प्रवाह के साथ बड़े-बड़े वृक्षों को भी बहाकर ले आती है। एक दिन समुद्र ने नदी से प्रश्न किया। तुम्हारा जलप्रवाह इतना शक्तिशाली है कि उसमें बड़े-बड़े वृक्ष भी बहकर आ जाते हैं।
तुम पलभर में उन्हें कहां से कहां ले आती हो? किंतु क्या कारण है कि छोटी व हल्की घास, कोमल बेलों और नम्र पौधों को बहाकर नहीं ला पाती। नदी का उत्तर था जब-जब मेरे जल का बहाव आता है, तब बेलें झुक जाती हैं और उसे रास्ता दे देती हैं। किंतु वृक्ष अपनी कठोरता के कारण यह नहीं कर पाते, इसलिए मेरा प्रवाह उन्हें बहा ले आता है।
इस छोटे से उदाहरण से हमें सीखना चाहिए कि जीवन में सदैव विनम्र रहे तभी व्यक्ति का अस्तित्व बना रहता है।सभी पांडवों ने भीष्म के इस उपदेश को ध्यान से सुनकर अपने आचरण में उतारा और सुखी हो गए।
जब महाभारत युद्ध होने का निश्चय हो गया तो उसके लिये जमीन तलाश की जाने लगी। श्रीकृष्ण जी बढ़ी हुई असुरता से ग्रसित व्यक्तियों को उस युद्ध के द्वारा नष्ट कराना चाहते थे। पर भय यह था कि यह भाई-भाइयों का, गुरु शिष्य का, सम्बन्धी कुटुम्बियों का युद्ध है।
एक दूसरे को मरते देखकर कहीं सन्धि न कर बैठें इसलिए ऐसी भूमि युद्ध के लिए चुननी चाहिए जहाँ क्रोध और द्वेष के संस्कार पर्याप्त मात्रा में हों। उन्होंने अनेकों दूत अनेकों दिशाओं में भेजे कि वहाँ की घटनाओं का वर्णन आकर उन्हें सुनायें।
एक दूत ने सुनाया कि अमुक जगह बड़े भाई ने छोटे भाई को खेत की मेंड़ से बहते हुए वर्षा के पानी को रोकने के लिए कहा। पर उसने स्पष्ट इनकार कर दिया और उलाहना देते हुए कहा – तू ही क्यों न बन्द कर आवे ?
मैं कोई तेरा गुलाम हूँ। इस पर बड़ा भाई आग बबूला हो गया। उसने छोटे भाई को छुरे से गोद डाला और उसकी लाश को पैर पकड़कर घसीटता हुआ उस मेंड़ के पास ले गया और जहाँ से पानी निकल रहा था वहाँ उस लाश को पैर से कुचल कर लगा दिया।
इस नृशंसता को सुनकर श्रीकृष्ण ने निश्चय किया यह भूमि भाई-भाई के युद्ध के लिए उपयुक्त है। यहाँ पहुँचने पर उनके मस्तिष्क पर जो प्रभाव पड़ेगा उससे परस्पर प्रेम उत्पन्न होने या सन्धि चर्चा चलने की सम्भावना न रहेगी। वह स्थान कुरुक्षेत्र था वहीं युद्ध रचा गया।
महर्षि वेदव्यास के कथनानुसार गांधारी के पेट से निकले मांस पिण्ड से सौ पुत्र व एक पुत्री ने जन्म लिया। महाभारत के आदिपर्व के अनुसार उनके नाम यह हैं-
गांधारी का सबसे बड़ा पुत्र था दुर्योधन। उसके बाद दु:शासन, दुस्सह, दुश्शल, जलसंध, सम, सह, विंद, अनुविंद, दुद्र्धर्ष, सुबाहु, दुष्प्रधर्षण, दुर्मुर्षण, दुर्मुख, दुष्कर्ण, कर्ण, विविंशति, विकर्ण, शल, सत्व, सुलोचन, चित्र, उपचित्र, चित्राक्ष, चारुचित्र, शरासन, दुर्मुद, दुर्विगाह, विवित्सु, विकटानन, ऊर्णनाभ, सुनाभ, नंद, उपनंद, चित्रबाण, चित्रवर्मा, सुवर्मा, दुर्विमोचन, आयोबाहु, महाबाहु, चित्रांग, चित्रकुंडल, भीमवेग, भीमबल, बलाकी, बलवद्र्धन, उग्रायुध, सुषेण, कुण्डधार, महोदर, चित्रायुध, निषंगी, पाशी, वृंदारक, दृढ़वर्मा, दृढ़क्षत्र, सोमकीर्ति, अनूदर, दृढ़संध, जरासंध, सत्यसंध, सद:सुवाक, उग्रश्रवा, उग्रसेन, सेनानी, दुष्पराजय, अपराजित, कुण्डशायी, विशालाक्ष, दुराधर, दृढ़हस्त, सुहस्त, बातवेग, सुवर्चा, आदित्यकेतु, बह्वाशी, नागदत्त, अग्रयायी, कवची, क्रथन, कुण्डी, उग्र, भीमरथ, वीरबाहु, अलोलुप, अभय, रौद्रकर्मा, दृढऱथाश्रय, अनाधृत्य, कुण्डभेदी, विरावी, प्रमथ, प्रमाथी, दीर्घरोमा, दीर्घबाहु, महाबाहु, व्यूढोरस्क, कनकध्वज, कुण्डाशी और विरजा।
गांधारी की पुत्री का नाम दुश्शला था जिसका विवाह राजा जयद्रथ के साथ हुआ था।
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