लेख – ऐनम् – (लेखक – राहुल सांकृत्यायन)
अभी हम जंगल और वनस्पति की भूमि में ही थे, लेकिन कुछ ही मीलों बाद उसका साथ चिरकाल के लिए छूटने वाला था। तातपानी से यहाँ तक, भोटकाशी के दोनों किनारों के पहाड़ हरे-भरे जंगलों से भरे थे, वृक्षों में छोटी बाँसी, बुराँश, बंज (बजराँठ, ओक) और देवदार जातीय वृक्ष बहुत थे। यहाँ का जंगल इसलिए भी सुरक्षित रह गया, क्योंकि यहाँ जनवृद्धि का डर नहीं है। तिब्बती लोगों में पांडव (सभी भाइयों का एक) विवाह होता है, एक पीढ़ी में दो भाई हैं, दूसरी में दस तो तीसरी पीढ़ी में फिर दो-तीन हो जाने की संभावना है, इस प्रकार न वहाँ घर बढ़ता है न खेत या संपति बँटती है। आदमियों के न बढ़ने के कारण जंगल काटकर नए खेतों के आबाद करने की भी आवश्यकता नहीं होती। यदि हम नेपाल के भीतर होते और दूसरी जाति के लोग यहाँ बसे रहते, तो आसपास के पहाड़ों में और भी कितने ही गाँव बसे दिखाई पड़ते। छोकसुम से भात खाकर साढ़े आठ बजे रवाना हुए थे। आगे रास्ता कठिन था और कहीं-कहीं बरफ भी थी, दो-एक मर्तबे नदी को भी आरपार करना पड़ा। यह नमक का मौसम था। नेपाल के इधर के पहाड़ों में तिब्बत का नमक चलता है, जो सस्ता भी होता है। नेपाली लोग अपनी पीठ पर मक्की, चावल या कोई अनाज लादकर ऐनम् पहुँचते हैं, और वहाँ से नमक लेकर लौट जाते हैं। इधर के गाँवों में हर जगह बौद्ध-चैत्य (स्तूप) या मंत्र खुदे हुए पत्थरों की दीवारें (मानी) रहती हैं। गाँव के पास आम तौर से वह देखे जाते हैं। नमक वाले अपनी टिकानों में पाखाना जाने के लिए सबसे अच्छा स्थान इन्हीं चैत्यों और मानियों को समझते हैं। बस्ती के आसपास तो गंदगी का ठिकाना नहीं। ढाई बजे हम ऐनम् पहुँचे और साहू ज्ञानमान के बत लाए अनुसार साहू जोगमान के यहाँ ठहरे। ऐनम् से पहले ही पहाड़ी दृश्य तिब्बत का हो जाता है, अर्थात् बिल्कुल नंगे पहाड़, जिनके ऊपर न कहीं वृक्ष हैं न वनस्पति, यहाँ तक कि झाड़ियाँ भी नहीं दिखाई पड़तीं। ऐनम् के पास पहुँचते समय हमें एवरेस्ट पर्वत भी दिखाई पड़ा, जो स्वच्छ नीले आकाश में बहुत समीप मालूम होता था। सरदी काफी थी। अभयसिंह को पहले-पहल उससे मुकाबला पड़ रहा था। इसलिए वह उसे अधिक महसूस करते थे। साहू जोगमान ने बतलाया, कि घोड़ों के लिए तीन-चार दिन ठहरना पड़ेगा।
ऐनम् में तिब्बत के मजिस्ट्रेट (जोड़्पोन्) रहते हैं। 17वीं सदी के मध्य में, जबकि तिब्बत का शासन वहाँ के एक मठाधीश (दलाई लामा) के हाथ में आया, तब से शासन-व्यवस्था में एक नई चीज कायम की गई, कि हर एक दिन के लिए जोड़ा अफसर हों-एक भिक्षु, और दूसरा गृहस्थ। कभी-कभी दोनों गृहस्थ भी दिखाई पड़ते हैं, यदि कोई मंत्रियों के अनुकूल साधु नहीं मिला। ऐनम् में दो जोड़्पोन् थे, जिनमें एक को जोड़्-शर (पूर्ववाला जोड़्) और दूसरा जोड़्-नुब (पश्चिम जोड़्पोन्) कहा जाता था। हम 24 अपैल को दस बजे जोड़्-नुब के पास गए। कितनी ही देर तक बातचीत होती रही। जोड़्पोन् लोग सरकारी काम करते हुए अपना व्यापार भी किया करते हैं, जिसके लिए उनके पास अपने घोड़े-खच्चर होते हैं। हम तो इस ख्याल से गए, कि उनसे किराए पर घोड़ा माँगेंगे, लेकिन कुछ देर बात करने के बाद उन्होंने कहा-नेपाली छोड़कर यहाँ से आगे किसी को जाने देना मना है। मैंने इस बात की ओर ख्याल नहीं किया था। समझता था, मैं दो बार तिब्बत हो आया हूँ और ल्हासा के बड़े-बड़े आदमियों से मेरा परिचय है, साथ ही यह जोड़्-पोन् अभी-अभी धर्मासाह के घर पर मुझे मिल चुका है, इसलिए वह क्यों रुकावट डालेगा? दरअसल वह रुकावट पैदा भी नहीं करना चाहता था, लेकिन सारी जिम्मेवारी अपने ऊपर लेना नहीं चाहता था; इसलिए उसने कहा-आप मेरे साथी जोड़्-शर् से भी आज्ञा ले लें। उसने यह भी कहा, कि हम सस्क्या तक के लिए घोड़ा भी दे देंगे। मैं वहाँ से जोड़्-शर् के पास गया। वह उस वक्त भोजन कर रहा था। जोड्पोनों की तनखाह 20-25 रुपए महीने से ज्यादा नहीं होती, लेकिन यह अपने जिले के बादशाह होते हैं। ल्हासा दूर होने से उनके न्याय और अन्याय की शिकायत भी कोई नहीं कर सकता और तिब्बत में कोई लिखित कानून तो हैं नहीं, सब फैसला अपनी विवेक बुद्धि से ही करना पड़ता है। हरेक मुकद्दमे में वादी और प्रतिवादी दोनों को जोड़्-पोन् की पूजा करना पड़ती है। मांस, मक्खन और अनाज तो बिना पैसे का उनके यहाँ भरा रहता है। ऐनम अब भी कम से कम नेपाल से आने वाले माल की व्यापारिक मंडी है। यहाँ से चावल, चूरा और कितनी ही चीजें तिब्बत जाती हैं। इस व्यापार में जोड़्पोन लोगों का भी हाथ होता है, जिससे उनको काफी आमदनी होती है, इसलिए 20-25 रुपया मासिक पाने वाले आदमी की स्त्रियाँ चीनी रेशम और मोती-मूँगा से लदी हो, तो आश्चर्य क्या? उनका रौब-दाब भी किसी बादशाह से कम नहीं होता। मुझे पहले तो बैठने के लिए कहा गया, इसके बाद कल आने का हुक्म हुआ। मेरी यात्रा फिर कुछ संदिग्ध-सी हो गई। जोड़्-शर के बारे में लोग कह रहे थे, कि ल्हासा का आदमी है और बड़े कड़े मिजाज का है।
अगले दिन (25 अप्रैल) फिर दस बजे जोड़्-शर के दरबार में गए। अपनी छपी हुई पुस्तकें और ल्हासा के कई मित्रों के चित्रों को दिखला कर यह विश्वास दिलाया, कि दो बार मैं राजधानी हो आया हूँ, और यह भी बतलाया कि मेरे जीने की मंशा है प्राचीन बौद्ध ग्रंथों का उद्धार। अंत में जोड़्-शर ने कहा-
वैसे तो आचार (भारतीय साधु आदि) को हम ऊपर नहीं जाने देते, किंतु आप धर्म-कार्य के लिए जा रहे हैं, इसीलिए हम दोनों जोड़्पोन् बात करके सब बंदोबस्त कर देंगें।
खैर, निराश होने की बात नहीं मालूम हुई। भारतीयों के लिए इतनी कड़ाई होने का कारण भी है। पिछली शताब्दी में जबकि अँग्रेजों की इच्छा भारत के उत्तरी सीमांत को पार करके और आगे हाथ मारने की थी, उनके गुप्तचर बनकर कितने ही भारतीय तिब्बत गए थे। जिनके कृत्यों के कारण तिब्बती लोगों के दिलों में भारतीयों के प्रति अविश्वास पैदा हो गया। उन्हें क्या पता था, कि मैं उस तरह का अंग्रेजी गुप्तचर नहीं हूँ, इसलिए कड़ाई होनी ही चाहिए थी। उसी दिन शाम को जोडनुब की ओर से चावल और मांस की भेंट मेरे पास आई। अभयसिंह जी के साथ मैं भी कुछ सौगात लेकर उनके पास पहुँचा। दोनों ने बात कर ली थी। जोड्बुन के पास खच्चर भी मौजूद थे, लेकिन वह कह रहा था: केवल तीन खच्चरों को अलग देना हमारे लिए मुश्किल है, जब पच्चीस खच्चरों का माल आ जाएगा, तो हम भेज देंगे। खैर, यात्रा का तो विघ्न टल गया, सिर्फ यात्रा के दिन की बात थी। यह भी मालूम हुआ, कि 25 खच्चरों का माल आ गया है, इसलिए अधिक दिन रुकना नहीं पड़ेगा। तीन-चार नेपाली भी शि-गर्-चे को जाने वाले थे। हमने 25 को तैयारी शुरू कर दी, लेकिन प्रस्थान 28 को करना पड़ा। हमें सस्क्या जाना था, जो कि शि-गर्-चे से तीन-चार दिन के रास्ते पर ही पड़ता था। तीन खच्चर वहाँ में छोड़कर लौट तो नहीं सकते थे, उन्हें तो आखिर जाना पड़ता, शि-गर्-चे तक ही इसलिए दोनों जगहों का किराया सवारी के खच्चर के लिए 50 साड़् (प्राय: बारह रुपया) और ढुलाई के खच्चर का 40 साड़् तय हुआ। हमने अपना पैसा नेपाल में साहू धर्ममान के यहाँ रख दिया था। समझा था, आगे तो उनकी कोठी या दूसरी दुकानों में पैसा मिल ही जाएगा, इसलिए साथ में ढोने की क्या आवश्यकता? लेकिन यहाँ जोगमान साहू रुपया देने में हिचकिचाने लगे, यद्यपि उनके लिए हम चिट्ठी लाए थे। बहुत कहने-सुनने पर 100 रुपए के भोटिया (तिब्बती) सिक्के उन्होंने दिए। चीजों के खरीदने के लिए अब हमारे पास काफी पैसा नहीं था। सस्क्या में न जाने कितने दिन ठहरना पड़े और पैसा देने वाले नेपाली सौदागर शि-गर्-चे में ही मिलने वाले थे।
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