लेख – घुमक्कड़ जातियों में पीछे आगे – घुमक्कड़-शास्त्र – (लेखक – राहुल सांकृत्यायन)
दुनिया के सभी देशों और जातियों में जिस तरह घूमा जा सकता है, उसी तरह वन्य और घुमक्कड़ जातियों में नहीं घूमा जा सकता, इसीलिए यहाँ हमें ऐसे घुमक्कड़ों के लिए विशेष तौर से लिखने की आवश्यकता पड़ी। भावी घुमक्कड़ों को शायद यह तो पता होगा कि हमारे देश की तरह दूसरे देशों में भी कुछ ऐसी जातियाँ है, जिनका न कहीं एक जगह घर है और न कोई एक गाँव। यह कहना चाहिए कि वे लोग अपने गाँव और घर को अपने कंधों पर उठाए चलते हैं। ऐसी घुमक्कड़ जातियों के लोगों की संख्या हमारे देश में लाखों है और यूरोप में भी वह बड़ी संख्या में रहती हैं। जाड़ा हो या गर्मी अथवा बरसात वे लोग चलते ही रहते हैं। जीविका के लिए कुछ करना चाहिए, इसलिए वह चौबीसों घंटे घूम नहीं सकते। उन्हें बीच-बीच में कहीं-कहीं पाँच-दस दिन के लिए ठहरना पड़ता है। हमारे तरुणों ने अपने गाँवों में कभी-कभी इन लोगों को देखा होगा। किसी वृक्ष के नीचे ऊँची जगह देखकर वह अपनी सिरकी लगाते हैं। यूरोप में उनके पास तंबू या छोलदारी हुआ करती है और हमारे यहाँ सिरकियाँ। हमारे यहाँ की बरसात में कपड़े के तंबू अच्छी किस्म के होने पर ही काम दे सकते हैं, नहीं तो वह पानी छानने का काम करेंगे। उसकी जगह हमारे यहाँ सिरकी को छोलदारी के तौर पर टाँग दिया जाता है। सिरकी सरकंडे का सिरा है, जो सरकंडे की अपेक्षा कई गुनी हल्की होती है। एक लाभ इसमें यह है कि सिरकी की बनी छोलदारी कपड़े की अपेक्षा बहुत हल्की होती है। पानी इसमें घुस नहीं सकता, इसलिए जब तक वह आदमी के सिर पर है भीगने का कोई डर नहीं। लचीली होने से वह जल्दी टूटने वाली भी नहीं है और पचकने वाली होने से एक दूसरे से दबकर चिपक जाती है और पानी का बूँद दरार से पार नहीं जा सकता। इस सब गुणों के होते हुए भी सिरकी बहुत सस्ती है। उसके बनाने में भी अधिक कौशल की आवश्यकता नहीं, इसलिए घुमक्कड़ जातियाँ स्वयं अपनी सिरकी तैयार कर लेती हैं। इस प्रकार पाठक यह भी समझ सकते हैं कि इन घुमक्कड़ों को क्यों ‘सिरकीवाला’ कहते हैं।
बरसात का दिन है, वर्षा कई दिनों से छूटने का नाम नहीं ले रही है। घर के द्वार पर कीचड़ का ठिकाना नहीं है, जिसमें गोबर मिलकर और भी पुरी तरह सड़ रहा है और उसके भीतर पैर रखकर चलते रहने पर चार-छ दिन में अँगुलियों के पोर सड़ने लगते है, इसलिए गाँव के किसान ऊँचे-ऊँचे पौवे (खड़ाऊँ) पहनते हैं। वही पौवे जो हमारे यहाँ गँवारी चीज समझे जाते हैं, और नगर या गाँव के भद्र पुरुष भी उसे पहनना असभ्यता का चिह्न समझते हैं, किंतु जापान में गाँव ही नहीं तोक्यो जैसे महानगर में चलते पुरुष ही नहीं भद्रकुलीना महिलाओं के पैरों में शोभा देता है। वह पौवा लगाए सड़क पर खट-खट करती चली जाती हैं। वहाँ इसे कोई अभद्र चिह्न नहीं समझता। हाँ, तो ऐसी बदली के दिनों में घुमक्कड़ बनने की इच्छा रखने वाले तरुणों में बहुत कम होंगे, जो घर से बाहर निकलने की इच्छा रखते हों -कम-से-कम स्वेच्छा से तो वह बाहर नहीं जाना चाहेंगे। लेकिन ऐसी ही सप्ताह वाली बदली में गाँव के बाहर किसी वृक्ष के नीचे या पोखरे के भिंडे पर आप सिरकी वालों को अपनी सिरकी के भीतर बैठे देखेंगे। इस वर्षा-बूँदी में चार हाथ लंबी, तीन हाथ चौड़ी सिरकी के घरों में दो-तीन परिवार बैठे होंगे। उनको अपनी भैंस के चारे की चिंता बहुत नहीं तो थोड़ी होगी ही।
सिरकीवाले अधिकतर भैंस पसंद करते हैं, कोई-कोई गधा भी। राजपूताना और बुंदेलखंडी में घूमने वाले घुमक्कड़ लोहार ही ऐसे हैं, जो अपनी एक बैलिया गाड़ी रखते हैं। सिरकी वालों की भैंस दूध के लिए नहीं पाली जाती। मैंने तो उनके पास दूध देने वाली भैंस कभी नहीं देखी। वह प्राय: बहिला भैंस रखते हैं, भैंसा भी उनके पास कम ही देखा जाता है। बहिला भैंस पसंद करने का कारण उनका सस्तापन है। बरसात में चारे की उतनी कठिनाई नहीं होती, घास जहाँ-तहाँ उगी रहती है, जिसके चराने-काटने में किसान विरोध नहीं करते। किंतु भैंस को खुला तो नहीं छोड़ा जा सकता, कहीं किसान के खेत में चली जाय तो? खैर, सिरकीवाला चाहे अपनी भैंस, गधे, कुत्ते की परवाह न करे, किंतु उसे बीवी-बच्चों की तो परवाह करनी है – वह प्रथम-द्वितीय श्रेणी का घुमक्कड़ नहीं है, कि परिवार रखने को पाप समझे। कई दिन बदली लगी रहने पर उसे चिंता भी हो सकती है, क्योंकि उसके न बैंक की चेक-बही है, न घर या खेत है, न कोई दूसरी जायदाद ही, जिस पर कर्ज मिल सके। ईमानदार है या बेईमान, इसकी बात छोड़िए। ईमानदार होने पर भी ऐसे आदमी पर कौन विश्वास करके कर्ज देगा, जो आज यहाँ है तो कल दस कोस पर और पाँच महीने बाद युक्तप्रांत से निकलकर बंगाल में पहुँच जाता है। सिरकीवाले को तो रोज कुँआ खोदकर रोज पानी पीना है, इसलिए उसकी चिंता भी रोज-रोज की है। सिरकी में चावल-आटा रखने पर भी उसे ईंधन की चिंता रहती है। बरसात में सूखा ईंधन कहाँ से आए? घर तो नहीं कि सूखा कंडा रखा है। कहीं से सूखी डाली चुरा-छिपाकर तोड़ता है, तो चूल्हे में आग जलती है।
सिरकीवाले के अर्थशास्त्र को समझना किसी दिमागदार के लिए भी मुश्किल है। एक-एक सिरकी में पाँच-पाँच छ-छ व्यक्तियों का परिवार है – सिरकीवाले ब्याह होते ही बाप से अपनी सिरकी अलग कर लेते हैं, तो भी कैसे छ के परिवार का गुजारा होता है? उनकी आवश्यकताएँ बहुत कम हैं, इसमें संदेह नहीं; किंतु पेट के लिए दो हजार कलोरी आहार तो चाहिए, जिसमें वह चल फिर सके, हाथ से काम कर सके। उसकी जीविका के साधनों में किसी के पास एक बंदर और एक बंदरी है, तो किसी के पास बंदर और बकरा, और किसी के पास भालू या साँप। कुछ बाँस या बेंत की टोकरी बनाकर बेचने के नाम पर भीख माँगते हैं, तो कुछ ने नट का काम सँभाला है। नट पहले नाटक-अभिनय करने वालों को कहा जाता था, लेकिन हमारे यह नट कोई नाटक करते दिखलाई नहीं पड़ते, हाँ, कसरत या व्यायाम की कलाबाजी जरूर दिखलाते हैं। बरसात में किसी-किसी गाँव में यदि नट एक-दो महीने के लिए ठहर जाते हैं, तो वहाँ अखाड़ा तैयार हो जाता है। गाँव के नौजवान खलीफा से कुश्ती लड़ना सीखते हैं। पहले गाँवों की आबादी कम थी, गाय-भैसें बहत पाली जाती थीं, क्योंकि जंगल चारों ओर था, उस समय नौजवान अखाड़िये का बाप खलीफा को एक भैंस विदाई दे देता था, लेकिन आज हजार रुपया की भैंस देने को तैयार है?
उनकी स्त्रियाँ गोदना गोदती हैं। पहले गोदने को सौभाग्य का चिह्न समझा जाता था, अब तो जान पड़ता है वह कुछ दिनों में छूट जायगा। गोदना गोदाने के लिए उन्हें अनाज मिल जाता था, आज अनाज की जिस तरह की महँगाई है, उससे जान पड़ता है कितने ही गृहस्थ अनाज की जगह पैसा देना अधिक पसंद करेंगे।
ख्याल कीजिए, सात दिनों से बदली चली आई है। घर की खर्ची खत्म हो चुकी है। सिरकीवाला मना रहा है – हे दैव! थोड़ा बरसना बंद करो कि मैं बंदर-बंदरियों को बाहर ले जाऊँ और पाँच मुँह के अन्न-दाना का उपाय करूँ। सचमुच बूँदाबादी कम हुई नहीं कि मदारी अपने बंदर-बंदरियों को लेकर डमरू गलियों या सड़कों में निकल पड़ा। तमाशा बार-बार देखा होने पर भी लोग फिर उसे देखने के लिए तैयार हो जाते हैं। लोगों के लिए मनोरंजन का और कोई साधन नहीं है। तमाशे के बदले में कहीं पैसा, कहीं अन्न, कहीं पुराना कपड़ा हाथ आ जाता है। अँधेरा होते-होते मदारी अपनी सिरकी में पहुँचता है। यदि हो से तो सिरकी को देखभाल किसी बुढ़िया को देकर स्त्रियाँ भी निकल जाती हैं। शाम को जमीन में खोदे चूल्हे में ईंधन जला दिया जाता है, सिरकी के बाँस से लटकती हंडिया उतार कर चढ़ा दी जाती है, फिर सबसे बुरे तरफ का अन्न डालकर उसे भोजन के रूप में तैयार किया जाने लगता है। उसकी गंध नाक में पड़ते ही बच्चों की जीभ से पानी टपकता है।
सिरकी वालों का जीवन कितना नीरस है, लेकिन तब भी वह उसे अपनाए हुए हैं। क्या करें, बाप-दादों के समय से उन्होंने ऐसा ही जीवन देखा है। लेकिन यह न समझिए कि उनके जीवन की सारी घड़ियाँ नीरस हैं। नहीं, कभी उनमें जवानी रहती है, ब्याह यद्यपि वे अपनी जाति के भीतर करते हैं, किंतु तरुण-तरुणी एक दूसरे से परिचित होते हैं और बहुत करके ब्याह इच्छानुरूप होता है। वह प्रणय कलह भी करते हैं और प्रणय-मिलन भी। वह प्रेम के गीत भी गाते हैं, और कई परिवारों के इकट्टठा होने पर नृत्य भी रचते हैं। बाजे के लिए क्या चिंता? सपेरे भी तो सिरकी वाले हैं, जिनकी महुबर पर साँप नाचते हैं, उस पर क्या आदमी नहीं नाच सकते? दुख और चिंता की घड़ियाँ भले ही बहुत लंबी हों, किंतु उन्हें भुलाने के भी उनके पास बहुत-से साधन हैं। युगों से सिरकी वाले गीत-गाते आए हैं। बरसों से रौंदी जाती भूमियों के निवासी उनके परिचित हैं। उनके पास कथा और बात के लिए सामग्री की कमी नहीं। किसी तरह अपनी कठिनाइयों को भुलाकर वह जीने का रास्ता निकाल ही लेते हैं। यह है हमारे देश की घुमक्कड़ जातियाँ, जिनमें बनजारे भी सम्मिलित हैं। इसे भूलना नहीं चाहिए, यह बनजारे किसी समय वाणिज्य का काम करते थे, अपना माल नहीं व्यापारी का माल वे अपने बैलों या दूसरे जानवरों पर लादकर एक जगह से दूसरी जगह ले जाते थे। इसके लिए तो उनको लदहारा कहना चाहिए, लेकिन कहा जाता था बनजारा।
भारतवर्ष में घुमक्कड़ जातियों के भाग्य में दु:ख-ही-दु:ख बदा है। जनसंख्या बढ़ने के कारण बस्ती घनी हो गई, जीवन-संघर्ष बढ़ गया, किसान का भाग्य छूट गया, फिर हमारे सिरकी वालों को क्या आशा हो सकती है। यूरोप में भी सिरकी वालों की अवस्था कुछ ही अच्छी है। जो भेद है, उसका कारण है वहाँ आबादी का उतनी अधिक संख्या में न बढ़ना, जीवन-तल का ऊँचा होना और घुमक्कड़ जातियों का अधिक कर्मपरायण होना। यह सुनकर आश्चर्य करने की जरूरत नहीं है कि यूरोप के घुमक्कड़ वही सिरकीवाले हैं जिनके भाई-बंद भारत, ईरान और मध्य-एसिया में मौजूद हैं, और जो किसी कारण अपनी मातृभूमि भारत को न लौटकर दूर-ही-दूर चलते गये। ये अपने को ‘रोम’ कहते हैं, जो वस्तुत: ‘डोम’ का अपभ्रंश है। भारत से गये उन्हें काफी समय हो गया, यूरोप में पंद्रहवी सदी में उनके पहुँच जाने का पता लगता है। आज उन्हें पता नहीं कि वह कभी भारत से आए थे। ‘रोमनी’ या ‘रोम’ से वे इतना ही समझ सकते हैं, कि उनका रोम नगर से कोई संबंध है। इंग्लैंड में उन्हें ‘जिप्सी’ कहते हैं, जिससे भ्रम होता है कि इजिप्ट (मिश्र) से उनको कोई संबंध है। वस्तुत: उनका न रोम से संबंध है न इजिप्ट से। रूस में उन्हें ‘सिगान’ कहते हैं। अनुसंधान से पता लगा है, कि रोमनी लोग भारत से ग्यारहवीं-बारहवीं सदी में टूटकर सदा के लिए अलग हुए। सात सौ बरस के भीतर वे बिलकुल भूल गये, कि उनका भारत में कोई संबंध है। आज भी उनमें बहुत ऐसे मिलते हैं, जो रंगरूप में बिलकुल भारतीय हैं। हमारे एक मित्र रोमनी बनकर इंग्लैंड भी चले गये और किसी ने उनके नकली पासपोर्ट की छानबीन नहीं की। तो भी यदि भाषा-शास्त्रियों ने परिश्रम न किया होता, तो कोई विश्वास नहीं करता, कि रोमनी वस्तुत: भारतीय सिरकी वाले हैं। यूरोप में जाकर भी वह वही अपना व्यवसाय – नाच-गाना बंदर-भालू नचाना – करते हैं। घोड़फेरी और हाथ देखने की कला में भी उन्होंने ख्याति प्राप्त की है। भाषा-शास्त्रियों ने एक नहीं सैंकड़ों हिंदी के शब्द जैसे-के-तैसे उनकी भाषा में देखकर फैसला कर दिया, कि वह भारतीय हैं। पाठकों को प्रत्यक्ष दिखलाने के लिए हम यहाँ उनकी भाषा के कुछ शब्द देते हैं-
अमरो – हमरो पानी – पानी
अनेस – आनेस् पुछे – पूछे
अंदली – आनल फुरान – पुरान
उचेस – ऊँचे फूरी – बूढ़ी
काइ – काँई (क्यों) फेन – बेन (बहिन)
कतिर – कहाँ (केहितीर) फेने – भनै
किंदलो, वि – किनल, वि (वेंचा) बकरो – बकरा
काको – काका (चाचा) बन्या – पण्य (शाला), दुकान
काकी – काकी (चाची) बोखालेस् – भुखालेस (अवधी)
कुच – कुछ (बहुत) ब्याव – ब्याह
गव् – गाँव मनुस – मानुस
गवरो – गँवारो मस -मांस
गिनेस – गिनेस (अवधी) माछो – माछो
चार – चारा (घास) याग – आग
च्योर – चोर याख – आँख
थुद – दूध रोवे – रोवै (भोजपुरी)
थुव – धुवाँ रुपए – रुपैया (जोल्तोइ)
तुमरो – तुमरो रीच – रीछ
थूलो – ठूलो (मोटा) ससुई – सास, ससुई (भोजपुरी)
दुइ – दुइ (दो)
ये हमारे भारतीय घुमक्कड़ हैं, जो पिछली सात शताब्दियों से भारत से बाहर चक्कर लगा रहे हैं। वहाँ सरकंडे की सिरकी सुलभ नहीं थी, इसलिए उन्होंने कपड़े का चलता-फिरता घर स्वीकार किया। वहाँ घोड़ा अधिक उपयोगी और सुलभ था, वह बर्फ की मार सह सकता था और अपने मालिक को जल्दी एक जगह से दूसरी जगह पहुँचा सकता था, साथ ही यूरोप में घोड़ों की माँग भी अधिक थी, इसलिए घोड़फेरी में सुभीता था, और हमारे रोमों ने अपना सामान ढोने के लिए घोड़ा-गाड़ी को पसंद किया। चाहे दिसंबर, जनवरी, फरवरी की घोर वर्षा हो और चाहे वर्षा की कीचड़, रोमनी बराबर एक जगह से दूसरी जगह घूमते रहते हैं। नृत्य और संगीत में उन्होंने पहले सस्तेपन और सुलभता के कारण प्रसिद्धि पाई और कलाकार के तौर पर भी उनका नाम हुआ। वह यूरोपीयों की अपेक्षा काले होते हैं, हमारी अपेक्षा तो वह अधिक गोरे हैं, साथ ही उन्हें सुंदरियों को पैदा करने का श्रेय भी दिया जाता है। अपने गीत और नृत्य के लिए रोमनियाँ जैसी प्रसिद्ध हैं, वैसी ही भाग्य भाखनें में भी वह प्रथम मानी जाती हैं। उनका भाग्य भाखना भीख माँगने का अंग है, यह देखते हुए भी लोग अपना हाथ उनके सामने कर ही देते हैं। हमारे देश में स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद लड़का चुराने वालों का बहुत जोर देखा जाता है, लेकिन यूरोप में रोमनी बहुत पहिले से बच्चा चुराने के लिए बदनाम थे। यद्यपि यूरोपीय रोमनियों का भारतीय सिरकीवालों की तरह बुरा हाल नहीं है, किंतु तब भी वह अपने भाग्य को अपने घर के साथ कंधे पर लिए चलते हैं। वहाँ भी रोज कमाना और रोज खाना उनका जीवन-नियम है। हाँ, घोड़े के क्रय-विक्रय तथा छोटी-मोटी चीज और खरीदते-बेचते हैं इसलिए जीविका के कुछ और भी सहारे उनके पास हैं; लेकिन उनका जीवन नीरस होने पर भी एकदम नीरस रहीं कहा जा सकता। जिस तरह ये घुमक्कड़ राज्यों की सीमाओं को तोड़कर एक जगह से दूसरी जगह स्वच्छंद विचरते हैं, और जिस तरह उनके न लिए न ऊधो का लेना न माधो का देना है, उसे देखकर कितनी ही बार दिल मचल जाता है। रूस के कालिदास पुश्किन तो एक बार अपने जीवन को उनके जीवन से बदलने के लिए तैयार हो गये थे। रोमनी की काली-काली बड़ी-बड़ी आँखें, उनके कोकिलकंठ, उनके मयूरपिच्छाकार केश-पाश ने यूरोप के न जाने कितने सामंत-कुमारों को बाँध लिया। कितनों ने अपना विलास-महल छोड़ उनके तंबुओं का रास्ता स्वीकार किया। अवश्य रोमनी जीवन बिल्कुल नीरस नहीं है। रोमनियों के साथ-साथ घूमना हमारे घुमक्कड़ों के लिए कम लालसा की चीज नहीं होगी। डर है, यूरोप में घुमंतू जीवन को छोड़कर जिस तरह एक जगह से दूसरी जगह जाने की प्रवृत्ति बंद हो रही है, उससे कहीं यह घुमंतू जाति सर्वथा अपने अस्तित्व को खो न बैठे। एकाध भारतीयों ने रोमनी जीवन का आनंद लिया है, लेकिन यह कहना ठीक नहीं होगा कि उन्होंने उनके जीवन को अधिक गहराई में उतरकर देखना चाहा। वस्तुत: पहले ही से कड़वे-मीठे के लिए तैयार तरुण ही उनके डेरों का आनंद ले सकते हैं। इतना तो स्पष्ट है, कि यूरोप में जहाँ-कहीं भी अभी रोमनी घुमंतू बच रहे हैं, वह हमारे यहाँ के सिरकीवालों से अच्छी अवस्था में हैं। समाज में उनका स्थान नीचा होने पर भी वह उतना नीचा नहीं हैं, जितना हमारे यहाँ के सिरकीवालों का।
यहाँ अपने पड़ोसी तिब्बत के घुमंतुओं के बारे में भी कुछ देना अनावश्यक न होगा। पहले-पहल जब मैं 1926 में तिब्बत की भूमि में गया और मैंने वहाँ के घुमंतुओं को देखा, तो उससे इतना आकृष्ट हुआ कि एक बार मन ने कहा – छोड़ो सब कुछ और हो जाओ इनके साथ। बहुत वर्षो तक मैं यही समझता रहा कि अभी भी अवसर हाथ से नहीं गया है। वह क्या चीज थी, जिसने मुझे उनकी तरफ आकृष्ट किया। यह घुमंतू दिल्ली और मानसरोवर के बीच हर साल ही घूमा करते हैं, उनके लिए यह बच्चों का खेल है। कोई-कोई तो शिमला से चीन तक की दौड़ लगाते हैं, और सारी यात्रा उनकी अपने मन से पैदल हुआ करती हैं। साथ में परिवार होता है, लेकिन परिवार की संख्या नियंत्रित है, क्योंकि सभी भाइयों की एक ही पत्नी होती हैं। रहने के लिए पतली छोलदारी रहती है। अधिक वर्षा वाले देश और काल से गुजरना नहीं पड़ता, इसलिए कपड़े की एकहरी छोलदारी पर्याप्त होती है। साथ में इधर-से-उधर बेचने की कुछ चीजें होती हैं। इनके ढोने के लिए सीधे-सादे दो तीन गधे होते हैं, जिन्हें खिलाने-पिलाने के लिए घास-दाने की फिक्र नहीं रहती। हाँ, भेड़ियों और बघेरों से रक्षा करने के लिए सावधानी रखनी पड़ती है, क्योंकि इन श्वापदों के लिए गधे रसगुल्ले से कम मीठे नहीं होते। कितना हल्का सामान, कितना निश्चिंत जीवन और कितनी दूर तक की दौड़! 1926 में मैं इस जीवन पर मुग्ध हुआ, अभी तक उसकी प्राप्ति में सफल न होने पर भी आज भी वह आकर्षण कम नहीं हुआ। एक घुमक्कड़ी इच्छुक तरुण को एक मरतबे मैंने प्रोत्साहित किया था। वह विलायत जा बैरिस्टर हो आए थे और मेरे आकर्षक वर्णन को सुनकर उस वक्त ऐसे तैयार जान पड़े, गोया तिब्बत का ही रास्ता लेने वाले हैं। ये तिब्बती घुमक्कड़ अपने को खंपा या ग्यग-खंपा कहते हैं। इन्हें आर्थिक तौर से हम भारतीय सिरकीवालों से नहीं मिला सकते। पिछले साल एक खंपा तरुण से घुमंतू जीवन के बारे में बात हो रही थी। मैं भीतर से हसरत करते हुए भी बाहर से इस तरह के जीवन के कष्ट के बारे में कह रहा था। खंपा तरुण ने कहा – ”हाँ, जीवन तो अवश्य सुखकर नहीं है, किंतु जो लोग घर बाँधकर गाँव में बस गये हैं, उनका जीवन भी अधिक आकर्षण नहीं मालूम होता। आकर्षण क्या, अपने को तो कष्ट मालूम होता है। शिमला पहाड़ में कौन किसान है, जो चाय, चीनी, मक्खन और सुस्वाद अन्न खाता हो? मानसरोवर में कौन मेषपाल है, जो सिगरेट पीता हो, लेमन-चूस खाता हो? हम कभी ऐसे स्थानों में रहते हैं, जहाँ मांस और मक्खन रोज खा सकते हैं, फिर शिमला या दिल्ली के इलाके में पहुँचकर भी वहाँ के किसानों से अच्छा खाते हैं।
बात स्पष्ट थी। वह खंपा तरुण अपने जीवन को किसी सुखपूर्ण अचल जीवन से बदलने के लिए तैयार नहीं था। यह उसके पैरों में था कि जब चाहे तब शिमला से चीन पहुँच जाय। रास्ते में कितने विचित्र-विचित्र पहाड़, पहले जंगलों से आच्छादित तुंग शैल, फिर उत्तुंग हिमशिखर, तब चौड़े ऊँचे मैदान वाली वृक्ष-वनस्पति-शून्य तिब्बत की भूमि में कई सौ मील फैला ब्रह्मपुत्र का कछार! इस तरह भूमि नापते चीन में पहुँचना! घुमक्कड़ी में दूसरे सुभीते हो सकते हैं, दिल मिल जाने पर उनके साथ दृढ़ बंधुता स्थापित हो सकती है; किंतु ये तिब्बत के ही घुमक्कड़ हैं, जो पूरी तौर से दूसरे घुमक्कड़ को अपने परिवार का व्यक्ति बना, सगा भाई स्वीकार कर सकते हैं – सगा भाई वही तो है, जिसके साथ सम्मिलित विवाह हो सके।
हमने नमूने के तौर पर सिर्फ तीन देशों की घुमक्कड़ जातियों का जीवन वर्णित किया। दुनिया के और देशों में ऐसी कितनी ही जातियाँ हैं। इन घुमक्कड़ों के घूमते परिवार के साथ साल-दो-साल बिता देना घाटे का सौदा नहीं है। उनके जीवन को दूर से देखकर पुश्किन ने कविता लिखी थी। फिर उनमें रहने वाला और भी अच्छी कविता लिख सकता है, यदि उसको रस आ जाय। भिन्न-भिन्न देशों में घुमंतुओं पर कितने ही लेखकों ने कलम चलाई है, लेकिन अब भी नए लेखक के लिए वहाँ बहुत सामग्री है। चित्रकार उनमें जा अपनी तूलिका को धन्य कर सकता है। जो घुमक्कड़ उनके भीतर रमना चाहते हैं, कुछ समय के लिए अपनी जीवन-धारा को उनसे मिलाना चाहते हैं, उन्हें ऐसा करने पर अफसोस नहीं होगा। घुमक्कड़ जाति के सहयात्री को जानना चाहिए कि उनमें सभी पिछड़े हुए नहीं हैं। कितनों की समझ और संस्कृति का तल ऊँचा है, चाहे शिक्षा का उन्हें अवसर न मिला हो। घुमक्कड़ उनमें जाकर अपनी लेखनी या तूलिका को सार्थक कर सकता है, उनकी भाषा का अनुसंधान कर सकता है।
भारत के सिरकीवालों पर वस्तुत: इस दिशा में कोई काम नहीं हुआ है। जो भाषा, साहित्य और वंश की दृष्टि से उनका अध्ययन करना चाहते हैं, उनके लिए आवश्यक होगा कि इन विषयों का पहिले से थोड़ा परिचय कर लें। अंग्रेजों ने एक तरह इस कार्य को अछूता छोड़ा है। यह मैदान तरुण घुमक्कड़ों के लिए खाली पड़ा हुआ है। उन्हें अपने साहस, ज्ञान-प्रेम और स्वच्छंद जीवन को इधर लगाना चाहिये।
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