लेख – तिड़्री की ओर – (लेखक – राहुल सांकृत्यायन)
एक अपैल के नौ बजे हम आगे के लिए रवाना हुए। हमारे और अभयसिंह के अतिरिक्त चार नेपाली सवार साथी हुए, जिनमें शि-गर्-चे के नेपाली फोटोग्राफर तेजरत्न तथा उनकी तिब्बती स्त्री भी थी। जोड़् का नौकर भी घोड़े पर और खच्चरों की देखभाल के लिए एक आदमी था। पूरा काफिला था। तिब्बत तथा मध्य एशिया के और देशों में भी सवारी के घोड़ों पर खुर्जी में पंद्रह-बीस सेर सामान लटकाने का इंतजाम रहता है, इसलिए खान-पीने की कितनी ही चीजें हमारी अपनी खुर्जियों (ताडू) में थीं। सामान के लिए दो गधे थे, जिन्हें जोड़्पोन् का नौकर बेगार में जहाँ-तहाँ ले लिया करता था। हमारा खच्चर बूढ़ा था और अभयसिंह को एक दुबला घोड़ा मिला था। खैर, हमें घुड़दौड़ तो करनी नहीं थी, और अभयसिंह को घुड़सवारी से पहले-पहले वास्ता पड़ रहा था, इसलिए दुबला घोड़ा उनके लिए अच्छा नहीं था। ऐनम् से आगे बढ़े, तो रास्ते में सैकड़ों चमरियाँ नमक लादे ऐनम् की ओर जाती दिखाई पड़ी। अप्रैल का महीना बीत रहा था, लेकिन अभी यहाँ जुताई का काम जरा-जरा लगा था। तिब्बत के चारों तरफ के ऊँचे पहाड़, विशेषकर हिमालय, समुद्र से उठे बादलों को तिब्बत की ओर बढ़ने नहीं देते, जिसके कारण बरफ और वर्षा दोनों ही वहाँ कम होती है। शायद इस वक्त हम बारह हजार फुट के ऊपर चल रहे थे। लेकिन बरफ आसपास की पहाड़ियों पर ही कहीं-कहीं दिखलाई पड़ती थी। एक बजे के करीब सके गुंबा को पार कर दो बजे हम चाड़्-दो-ओमा गाँव में पहुँचे। शायद आज दस मील आए होंगे। जोड़्-शर भी ल्हासाजा रहा था। वह भी अपने कई अनुचरों के साथ यहाँ पहुँचा। सारे गाँव के नर-नारी उसकी अगवानी के लिए गए। इसे कहने की आवश्यकता नहीं, कि चाड़्-दो-ओम के किसानों के लिए जोड़्-शर किसी राजा से कम नहीं था। लोगों को उसके खाने-पीने, भेंट-पूजा करने, उसके नौकरों और जानवरों को खिलाने-पिलाने में अपना तन बेचकर इंतजाम करना पड़ा। कितना दुस्साह शासन उस समय तिब्बत में रहा, यह कहने की बात नहीं है। हाल में 23 नवंबर (1951) को ल्हासा से लिखी चिट्ठी मुझे 4 दिसंबर को मसूरी में मिली। उसमें लिखा है “चीनी लोगों के ल्हासा पहुँचने से पहले तक मध्यवर्ग और निम्नवर्ग के लोग कम्यूनिस्टों से बहुत आशा किए हुए थे। लेकिन चीनी लोग बड़ी संख्या में आने लगे और खाने-पीने की चीजें बहुत महँगी होने लगीं। अब तो वह बहुत निराश हुए और चीनियों को शंका की दृष्टि से देख रहे हैं। कूटा (अफसर) लोग तो चीनियों से घृणा कर रहे हैं, लेकिन लाचार होकर चुपचाप बैठे हैं।” कूटा लोग भला क्यों चीनियों के आने तथा नवीन तिब्बत के अविर्भाव को अच्छी आँखों से देखेंगे? कहाँ सारे तिब्बत के लोगों को लूट-मार कर मौज उड़ाना, और कहाँ अब नए शासन में उनका चारों ओर से रास्ता रुका होना। जोड़्-शर की यात्रा को देखने से ही हमें मालूम हो रहा था कि इनका शासन अत्यंत असह्य ही नहीं है, बल्कि कूटा (अफसर) कितना दोनों हाथ से जनसाधारण का शोषण कर रहे हैं। जोड्को अपने घोड़ो-खच्चरों के लिए घास-चारा पर भी पैसा खर्च करने की जरूरत नहीं थी। ऊपर से वह बेगार में जितने चाहें, उतने घोड़े, गधे या चमरियाँ ले सकते थे। यह मौज भला अब कहाँ मिलने वाली है। लेकिन आज से सौलह वर्ष पहले 1936 में जोड़्-शर और उसके भाई-बंधुओं को क्या मालूम था, कि आगे क्या आने वाला है।
29 अप्रैल-भोजनकर दस बजे रवाना हुए। शायद हमारे घोड़े भी बेगार के थे, इसलिए उन्हें बदलते रहना पड़ता था। उस दिन तक अभयसिंह की जरा हिम्मत भी खुल गई, और वह घोड़ा दौड़ते हुए आगे बढ़ गए। घोड़े वाला बहुत नाराज होने लगा। खैरियत यही हुई कि उसने गाली-गलौज नहीं की। नेपाली व्यापारियों को तिब्बती लोग साधारण बनियों की तरह कायर समझते हैं, इसलिए दो गाली दे देना भी उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं है। उस दिन हम रात को थूलुगड़् में थोड़्ला डांडे से कितने ही मील पहले ही रात के लिए ठहर गए-ऊँचाई चौदह-पंद्रह हजार फुट होगी। सरदी तो काफी होनी ही चाहिए। अभयसिंहजी नींद न आने की शिकायत कर रहे थे, और इससे पहले सिरदर्द भी हो चुका था। अधिक ऊँचाई पर कमजोर हृदय वालों के लिए प्राणों का खतरा होता है। कुछ चिंता होने लगी है, लेकिन यह जानकर धैर्य हुआ, कि उनके हृदय को साँस लेने में कोई कष्ट नहीं है।
30 अप्रैल को सूर्योदय के साथ-साथ हम आगे के लिए रवाना हुए। साढ़े आठ बजे एक जगह चाय पीने के लिए रुके और बारह बजे थोड़्ला के ऊपर पहुँचे। भारत से तिब्बत की ओर जाने वाले हिमालय के जितने बड़े-बड़े डांडे हैं, उनमें से यह एक है और बहुत ऊँचा है-सत्रह हजार फुट के करीब ऊँचा होगा। डांडे के पास जितने ही पहुँचते जाते थे, उतनी ही खड्ड में सफेद बरफ अधिक फूली-सी दिखाई पड़ रही थी। लेकिन जैसा कि पहले कहा, वर्षा-बादल के कम आने के कारण रास्ते में बहुत बरफ नहीं थी। डंडा पार करके हल्की उतराई उतरते हुए कोई पाँच घंटे में हमें लड़्कोर पहुँचे। अभयसिंहजी यहाँ न्यायाचार्य से वैद्याचार्य बन गए। इधर कोई अस्पताल या चिकित्सा का इंतजाम सरकार की ओर से नहीं है, इसलिए बीमार लोग आते-जाते लोगों से ही अपनी चिकित्सा कराते हैं। घर के मालिक को आतशक (गर्मी) की बीमारी थी। अभयसिंहजी ने उनको कोई दवाई दी। किसी को सिरदर्द था, उसे भी दवाई दी।
यानि कानिच मूलानि येन केनापि पिंशयेत।
यस्य कस्यापि दातव्यं यद्वा तद्वा भविष्यति॥
खैर, अभयसिंहजी कोई खतरे की दवाई नहीं दे रहे थे। लड़्कोर और तिड्रि में हम बारह-तेरह हजार फुट से नीचे थे, लेकिन यहाँ गरमी मालूम हो रही थी। यद्यपि वह मई के अनुरूप नहीं थी।
सात बजे चाय पीकर हम फिर रवाना हुए। जोड्पोन साहब का साथ था, इसलिए उनके अनुसार ही हमें भी करना पड़ता था। साढ़े दस बजे तीन घंटा चलकर कम तिड्रि पहुँच गए। तिड्रि नेपाल-तिब्बत वणिक्-पथ का एक महत्वपूर्ण व्यापारिक और सामरिक केंद्र है-है नहीं, ‘था’ कहना चाहिए, क्योंकि कलिम्पोड़्-ल्हासा का रास्ता खुल जाने पर इस वणिक्-पथ का उतना महत्व नहीं रहा, जिसके कारण अब तिड्रि की रौनक जाती रही। तिड्रि का अर्थ है समाधि-पर्वत। यहाँ एक पचासों वर्ग मील का खूब विस्तृत मैदान है, जिसके एक कोने पर, किंतु पर्वत माला से हटकर, एक छोटी पहाड़ी है, इसका ही नाम तिड्रि है। पहाड़ी के ऊपर जोड़् (गढ़) है, जहाँ पर इस इलाके का जोड़्पोन् रहता है। बस्ती पहाड़ी के एक तरफ है, जिसके पास से रास्ता जाता है। जोड्पोन को अपने भाई जोड़्पोन् से मिलना-जुलना था, इसलिए वह यहीं ठहर गए। उनके ठहरने पर हमें भी ठहरना जरूरी था, क्योंकि बेगार के घोड़े को ही हमें किराए पर दिया गया था। लड़्कोर और तिड्रि दोनों ही भारत से तिब्बत आने वाले पुराने रास्ते पर हैं, इसलिए यहाँ पुराने अवशेष होने ही चाहिए। लड़्कोर के मंदिर में भारतीय सिद्ध फदम्-पा सड्-ग्येस (सत्पिता बुद्ध) अपने भारत और तिब्बत की अनेक यात्राओं में ठहरा था। वहाँ के मंदिर में उसकी मूर्ति मौजूद है। यद्यपि मठ अच्छी हालत में नहीं है। तिड्रि भी अपने विहार के लिए कोई प्रसिद्धि नहीं रखता। तिब्बत की कृषि- योग्य भूमि का बहुत बड़ा भाग विहरों (मठों) और सामंतों की जागीरों में बँटा हुआ है, सीधे सरकार की जमीन बहुत ज्यादा नहीं है। हाँ सरकार अपने जागीदारों से नगद और जींस के रूप में भू-कर लेती है, तथा जागीर की बढ़ाई-छुड़ाई के अनुसार जागीदारों को आवश्यकता पड़ने पर अपने यहाँ से सेना के लिए जवान देना पड़ता है। वर्तमान शताब्दी के आरंभ तक तो उन्हें गोली-बारूद भी देनी पड़ती थी, लेकिन अब पुराने हथियारों के बेकार होने के कारण, वह उन्हें देना नहीं पड़ता। तिड्रि के पास ही एक बड़े विहार का शि-का है। शि-का (शिड्-का) का मतलब है, जागीदार की अपनी जिरातया सीर्। अपने ‘शि-कों’ में मठ अपना कोई एक होशियार कारिंदा भिक्षु भेज देता है, जो सारा इंतजाम करता है। पहली यात्रा में यहाँ के ऐसे ही एक शि-का में हम एक कारिंदा के यहाँ मेहमान हुए थे।
अभी ताजा मांस का मौसम नहीं आया था। जाड़ों के आरंभ होने पर घास-चारे की कमी के कारण पशु दुर्बल होने लगते हैं, इसलिए कई महीनों के लिए मांस को जाड़ा आरंभ होने से पहले ही पशुओं को मारकर रख लिया जाता है। जाड़े भर में भेड या याक ज्यादा सूख जाते हैं, इसलिए उनको मारना घाटे का सौदा है, फिर इसके बाद तिब्बती पंचांग का चौथा महीना साका-दावा (साक्य मास) आ जाता है, जो बुद्ध के जन्म, निर्माण और बुद्धत्व-प्राप्ति का महीना होने के कारण बहुत पुनीत माना जाता है। इसलिए उस समय प्राणी हिंसा करना बुरा समझा जाता है। उसके बाद से फिर ताजा मांस मिलना शुरू हो जाता है। इस प्रकार आजकल सूखा मांस ही मिलता था। तिब्बत में शत-प्रतिशत लोग मांसाहारी हैं, इसका यह अर्थ नहीं कि वहाँ मांस सुलभ है। बड़े घरों में सूखा मांस हमेशा तैयार रहता है, क्योंकि किसी मेहमान की खातिरदारी के लिए मांस आवश्यक चीज है। सूखा होने पर उसे पकाने की आवश्यकता नहीं समझी जाती। उसके दो-एक बड़े टुकड़े एक ऊँचे पाँव की तस्तरी पर रखकर नमक और चाकू के साथ मेहमान के सामने रख दिए जाते हैं। इसके साथ उस छोटी चौकी पर लकड़ी के सुंदर सत्तू दान में सत्तू और सुंदर चीनी प्याला चाय के लिए रखा जाता है तिड्रि जैसे स्थानों में मांस का मिलना उतना कठिन नहीं है। लेकिन मांस खाना और मांस पकाना जैसे एक चीज नहीं है, उसी तरह मांस काटने की भी कला है जैसे छुरी काँटे के पकड़ने का एक मान्य नियम है, उसी तरह मांस काटने के लिए इन देशों मे लंबा तजर्बे के आधार पर कुछ नियम बना लिए गए हैं, जिनके अनुसरण न करने पर लोग आपको अनाड़ी समझ कर मन से हँसेंगे, जिसका अर्थ है कि आप अभद्र भी हैं। साथ ही डर है, कि आप अपने को कहीं काट न लें। उस दिन मांसोदान के लिए मांस काटने का काम अभयसिंह ने लिया था और वह अपना अँगूठा काट बैठे। बाँए हाथ में मांस खंड लेकर दाहिने हाथ में चाकू पकड़कर काटते वक्त चाकू की धार अपनी ओर नहीं बल्कि बाहर की ओर रखनी चाहिए यह भी एक शिष्टाचार है। सारा दिन तिड्रि के मैदान को देखने, लोगों से बातचीत करने में गुजरा। जिस को हम सत्संग और संलाप कहते हैं, उसका मौका तिब्बत में बहुत कम जगहों पर मिलता है। तिब्बती लोगों से घनिष्ठता पैदा करने के साधन हैं शराब और गाना। यदि कोई विद्या प्रेमी या विद्वान हो, उससे संलाप द्वारा भी समीपता पैदा की जा सकती है। पहले साधनों से हम वंचित थे।
मैदान में इस समय अभी पीली-पीली घास दिखाई पड़ती है थी। दूर से देखने पर मालूम होता था, कि घास मखमल की तरह बिछी है परंतु नजदीक जाने पर हाथ-हाथ भर घास कहीं-कहीं तो पाँच-पाँच हाथ के अंतर में खड़ी थी। वर्षा के दिनों में सारा मैदान हरा-भरा मालूम होता होगा, इसमें संदेह नहीं। पिछली यात्रा में जब मैं इधर से ऊपर जा रहा था, तो यहाँ जंगली गधों (क्याड्) के झुण्ड चरते दिखाई पड़े थे, लेकिन इस वक्त वह यहाँ नहीं थे। भूमि में जहाँ-तहाँ स्वत: पानी निकल रहा था। अक्टूबर के महीने में ही ऐसा कितनी जगहों पर देखा जाता है। इस मैदान में वैसे खोतों को दस-गुना बीस-गुना बढ़ाया जा सकता है, लेकिन नेपाल की तरह यहाँ जनवृद्धि की समस्या नहीं है। यहाँ आसपास के पहाड़ों में वनस्पति के अभाव के कारण प्राकृतिक स्रोतों से खाद मिलने की संभावना नहीं है, आप उतनी ही भूमि में कोई चीज उगा सकते हैं, जितनी में गोबर या मेंगनी डाल सकें। पानी का प्रबंध आसानी से हो सकता है।
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