लेख – पिछड़ी जातियों में – घुमक्कड़-शास्त्र – (लेखक – राहुल सांकृत्यायन)
बाहरवालों के लिए चाहे वह कष्ट, भय और रूखेपन का जीवन मालूम होता हो, लेकिन घुमक्कड़ी जीवन घुमक्कड़ के लिए मिसरी का लड्डू है, जिसे जहाँ से खाया जाय वहीं से मीठा लगता है – मीठा से मतलब स्वादु से है। सिर्फ मिठाई में ही स्वाद नहीं है, छओं रसों में अपना-अपना मधुर स्वाद है। घुमक्कड़ की यात्रा जितनी कठिन होगी, उतना ही अधिक उसमें उसको आकर्षण होगा। जितना ही देश या प्रदेश अधिक अपरिचित होगा, उतना ही अधिक वह उसके लिए लुभावना रहेगा। जितनी ही कोई जाति ज्ञान-क्षेत्र से दूर होगी, उतनी ही वह घुमक्कड़ के लिए दर्शनीय होगी। दुनिया में सबसे अज्ञात देश और अज्ञात दृश्य जहाँ हैं, वहीं पर सबसे पिछड़ी जातियाँ दिखाई पड़ती हैं। घुमक्कड़ प्रकृति या मानवता को तटस्थ की दृष्टि से नहीं देखता, उनके प्रति उसकी अपार सहानुभूति होती है और यदि वह वहाँ पहुँचता है, तो केवल अपनी घुमक्कड़ी प्यास को ही पूरा नहीं करता, बल्कि दुनिया का ध्यान उन पिछड़ी जातियों की ओर आकृष्ट करता है, देशभाइयों का ध्यान छिपी संपत्ति और वहाँ विचरते मानव की दरिद्रता की ओर आकर्षित करने के लिए प्रयत्न करता है। अफ्रीका, एसिया या अमेरिका की पिछड़ी जातियों के बारे में घुमक्कड़ों का प्रयत्न सदा स्तुत्य रहा है। हाँ, मैं यह प्रथम श्रेणी के घुमक्कड़ों की बात कहता हूँ, नहीं तो कितने ही साम्राज्य लोलुप घुमक्कड़ भी समय-समय पर इस परिवार को बदनाम करने के लिए इसमें शामिल हुए और उनके ही प्रयत्न का परिणाम हुआ, तस्मानियन जाति का विश्व से उठ जाना, दूसरी बहुत-सी जातियों का पतन के गर्त में गिर जाना। हमारे देश में भी अंग्रेजी की ओर से आँख पोंछने के लिए ही आदिम जातियों की ओर ध्यान दिया गया और कितनी ही बार देश की परतंत्रता को मजबूत करने के लिए उनमें राष्ट्रीयता-विरोधी-भावना जागृत करने की कोशिश की गई। भारत में पिछड़ी जातियों की संख्या दो सौ से कम नहीं है। यहाँ हम उनके नाम दे रहे हैं, जिनमें भावी घुमक्कड़ों में से शायद कोई अपना कार्य-क्षेत्र बनाना चाहें। पहले हम उन प्रांतों की जातियों के नाम देते हैं, जिनमें हिंदी समझी जा सकती है –
1. युक्त प्रांत में-
(1) भुइयाँ (5) खरवार
(2) बैसवार (6) कोल
(3) बैगा (7) ओझा
(4) गोंड
2. पूर्वी पंजाब के स्पिती और लाहुल इलाके में तिब्बती-भाषा-भाषी जातियाँ बसती हैं, जो आंशिक तौर से ही पिछड़ी हुई हैं।
3. बिहार में –
(1) असुर (11) घटवार
(2) बनजारा (12) गोंड
(3) बथुडी (13) गोराइन
(4) बेटकर (14) हो
(5) बिंझिया (15) जुआंग
(6) बिरहोर (16) करमाली
(7) बिर्जिया (17) खडिया
(8) चेरो (18) खड़वार
(9) चिकबड़ाइक (19) खेतौड़ी
(10) गडबा (20) खोंड
(21) किसान (28) उडाँव
(22) कोली (29) पढ़िया
(23) कोरा (30) संथाल
(24) कोरवा (31) सौरियापहड़िया
(25) महली (32) सवार
(26) मलपहड़िया (33) थारू
(27) मुंडा
इनके अतिरिक्त निम्न जातियाँ भी बिहार में हैं-
(34) बौरिया (38) पान
(35) भोगता (39) रजवार
(36) भूमिज (40) तुरी
(37) घासी
4. मध्यप्रदेश में –
(1) गोंड (21) भुंजिया
(2) कवार (22) नगरची
(3) मरिया (23) ओझा
(4) मुरिया (24) कोरकू
(5) हलबा (25) कोल
(6) परधान (26) नगसिया
(7) उडाँव (27) सवारा
(8) बिंझवार (28) कोरवा
(9) अंध (29) मझवार
(10) भरिया-भुरिया (30) खड़िया
(11) कोली (31) सौंता
(12) भट्ट्रा (32) कोंध
(13) बैगा (33) निहाल
(14) कोलम् (34) बिरहुल (बिरहोर)
(15) भील (35) रौतिया
(16) भुंइहार (36) पंडो
(17) धनवार
(18) भैना
(19) परजा
(20) कमार
5. मद्रास प्रांत – हिंदी भाषा-भाषी प्रांतों के बाहर पहले मद्रास प्रांत को ले लीजिए – (1) बगता (24) कोटिया
(2) भोट्टदास (25) कोया (गौड़)
(3) भुमियाँ (26) मदिगा
(4) बिसोई (27) माला
(5) ढक्कदा (28) माली
(6) डोंब (29) मौने
(7) गडबा (30) मन्नाढ़ोरा
(8) घासी (31) मुरा ढ़ोरा
(9) गोंड़ी (32) मूली
(10) गौडू (33) मुरिया
(11) कौसल्यागौडू (34) ओजुलू
(12) मगथा गौडू (35) ओमा नैतो
(13) सीरिथी गौडू (36) पैगारपो
(14) होलवा (37) पलसी
(15) जदपू (38) पल्ली
(16) जटपू (39) पेंतिया
(17) कम्मार (40) पोरजा
(18) खत्तीस (41) रेड्डी ढ़ोरा
(19) कोडू (42) रेल्जी (सचंडी)
(20) कोम्मार (43) रोना
(21) कोंडाघारा (44) सवर
(22) कोंडा-कापू
(23) कोंडा-रेड्डी
6. बंबई-मद्रास की पिछड़ी जातियों में घुमक्कड़ के लिए हिंदी उतनी सहायक नहीं होगी, किंतु बंबई में उससे काम चल जायगा। बंबई की पिछड़ी जातियाँ हैं –
(1) बर्दा (13) मवची
(2) बवचा (14) नायक
(3) भील (15) परधी
(4) चोधरा (16) पटेलिया
(5) ढ़ंका (17) पोमला
(6) धोदिया (18) पोवारा
(7) दुबला (19) रथवा
(8) गमटा (20) तदवी भील
(9) गोंड (21) ठाकुर
(10) कठोदी (कटकरी) (22) बलवाई
(11) कोंकना (23) वर्ली
(12) कोली महादेव (24) वसवा
7. ओडीसा में-
(1) बगता (11) सौरा (सबार)
(2) बनजारी (12) उढ़ांव
(3) चेंपू (13) संथाल
(4) गड़बो (14) खड़िया
(5) गोंड (15) मुंडा
(6) जटपू (16) बनजारा
(7) खोंड (17) बिंझिया
(8) कोंडाडोरा (18) किसान
(9) कोया (19) कोली
(10) परोजा (20) कोरा
8. पश्चिमी बंगाल में –
(1) बोटिया (6) माघ
(2) चकमा (7) स्रो
(3) कूकी (8) उडांव
(4) लेपचा (9) संथाल
(5) मुंडा (10) टिपरा
9. आसाम में निम्न जातियाँ हैं –
(1) कछारी (9) देवरी
(2) बोरो-कछारी (10) अबोर
(3) राभा (11) मिस्मी
(4) मिरी (12) डफला
(5) लालुड. (13) सिड.फो
(6) मिकिर (14) खम्प्ती
(7) गारो (15) नागा
(8) हजोनफी (16) कूकी
यह पिछड़ी जातियाँ दूर के घने जंगलों और जंगल से ढँके दुर्गम पहाड़ों में रहती हैं, जहाँ अब भी बाघ, हाथी और दूसरे श्वापद निर्द्वंद्व विचरते हैं। जो पिछड़ी जातियाँ अपने प्रांत में रहती हैं, शायद उनकी ओर घुमक्कड़ का ध्यान नहीं आकृष्ट हो, क्योंकि यात्रा चार-छ सौ मील की भी न हो तो मजा क्या? 100-500 मील पर रहने वाले तो घर की मुर्गी साग बराबर हैं। लेकिन आसाम की पिछड़ी जातियों का आकर्षण भी कम नहीं होगा। आसाम की एक ओर उत्तरी बर्मा की दुर्गम पहाड़ी भूमि तथा पिछड़ी जातियाँ हैं, और दूसरी तरफ रहस्यमय तिब्बत है। स्वयं यहाँ की पिछड़ी जातियाँ एक रहस्य हैं। यहाँ नाना मानव वंशों का समागम है। इनमें कुछ उन जातियों से संबंध रखती हैं जो स्वाम (थाई) और कंबोज में बसती हैं, कुछ का संबंध तिब्बती जाति से हैं। जहाँ ब्रह्मपुत्र (लौहित्य) तिब्बत के गगनचुंबी पर्वतों की तोड़कर पूरब से अपनी दिशा को एकदम दक्षिण की ओर मोड़ देती है, वहीं से यह जातियाँ आरंभ होती हैं। इनमें कितनी हो जगहें हैं, जहाँ घने जंगल हैं, वर्षा तथा गर्मी होती है, लेकिन कितनी ऐसी जगहें भी हैं, जहाँ जाड़ों में बर्फ पड़ा करती है। मिस्मी, मिकिर, नागा आदि जातियाँ तथा उनके पुराने सीधे-सादे रिवाज घुमक्कड़ का ध्यान आकृष्ट किए बिना नहीं रह सकते। हमारे देश से बाहर भी इस तरह की पिछड़ी जातियाँ बिखरी पड़ी हुई हैं। जहाँ शासन धनिक वर्ग के हाथ में है, वहाँ आशा नहीं की जा सकती कि इस शताब्दी के अंत तक भी ये जातियाँ अंधकार से आधुनिक प्रकाश में आ सकेंगी।
मैं यह नहीं कहता कि हमारे घुमक्कड़ विदेशी पिछड़ी जातियों में न जायँ। यदि संभव हो तो मैं कहूँगा, वह ध्रुवकक्षीय एस्किमो लोगों के चमड़े के तंबुओं में जायँ, और उस देश की सर्दी का अनुभव प्राप्त करें, जहाँ की भूमि लाखों वर्षों से आज भी बर्फ बनी हुई है, जहाँ तापांक हिमबिंदु से ऊपर उठना नहीं जानता। लेकिन मैं भारतीय घुमक्कड़ को यह कहूँगा, कि हमारे देश की आरण्यक-जातियों में उसके साहस और जिज्ञासा के लिए कम क्षेत्र नहीं है। पिछड़ी जातियों में जाने वाले घुमक्कड़ को कुछ खास तैयारी करने की आवश्यकता होगी। भाषा न जानने पर भी ऐसे देशों में जाने में कितनी ही बातों का सुभीता होता है, जहाँ के लोग सभ्यता की अगली सीढ़ी पर पहुँच चुके हैं, किंतु पिछड़ी जातियों में बहुत बातों की सावधानी रखनी पड़ती है। सावधानी का मतलब यह नहीं कि अंग्रेजों की तरह वह भी पिस्तौल बंदूक लेकर जायँ। पिस्तौल-बंदूक पास रखने का मैं विरोधी नहीं हूँ। घुमक्कड़ को यदि वन्य और भयानक जंगलों में जाना हो, तो अवश्य हथियार लेकर जाय। पिछड़ी जातियों में जानेवाले को वैसे भी अच्छा निशानची होना चाहिए, इसके लिए चांदमारी में कुछ समय देना चाहिए। वन्यमानवों को तो उन्हें अपने प्रेम और सहानुभूति से जीतना होगा। भ्रम या संदेह वश यदि खतरे में पड़ना हो, तो उसकी पर्वाह नहीं। वन्यजातियाँ भी अपरिमित मैत्री भावना से पराजित होती हैं। हथियार का अभ्यास सिर्फ इसीलिए आवश्यक है कि घुमक्कड़ को अपने इन बंधुओं के साथ शिकार में जाना पड़ेगा। पिछड़ी जातियों में जानेवाले को उनके सामाजिक जीवन में शामिल होने की बड़ी आवश्यकता है। उनके हरेक उत्सव, पर्व तथा दूसरे दुख-सुख के अवसरों पर घुमक्कड़ को एकात्मता दिखानी होगी। हो सकता है, आरंभ में अधिक लज्जाशील जातियों में फोटो कैमरे का उपयोग अच्छा न हो, किंतु अधिक परिचय हो जाने पर हर्ज नहीं होगा। घुमक्कड़ को यह भी ख्याल रखना चाहिए, कि वहाँ की घड़ी धीमी होती है, काम के लिए समय अधिक लगता है।
आसाम की वन्यजातियों में जाने के लिए भाषा का ज्ञान भी आवश्यक है। आसाम के शिवसागर, तेजपुर, ग्वालपाड़ा आदि छोटे-बड़े सभी नगरों में हिंदीभाषी निवास करते हैं। वहाँ जाकर इन जातियों के बारे में ज्ञातव्य बातें जानी जा सकती हैं। अंग्रेजी की लिखी पुस्तकों से भी भूमि, लोग, रीति-रिवाज तथा भाषा के बारे में कितनी ही बातें जानी जा सकती हैं। लेकिन स्मरण रखना चाहिए, स्थान पर जा अपने उन बंधुओं से जितना जानने का मौका मिलेगा, उतना दूसरी तरह से नहीं।
पिछड़ी जातियों के पास जीवनोपयोगी सामग्री जमा करने के साधन पुराने होते हैं। वहाँ उद्योग-धंधे नहीं होते, इसीलिए वह ऐसी जगहों पर ही जीवित रह सकती हैं, जहाँ प्रकृति प्राकृतिक रूप से भोजन-छाजन देने में उदार हैं, इसीलिए वह सुंदर से सुंदर आरण्यक और पार्वत्य दृश्यों के बीच में वास करती है। घुमक्कड़ इन प्राकृतिक सुषमाओं का स्वयं आनंद ले सकता है और अपनी लेखनी तथा तूलिका द्वारा दूसरों को भी दिला सकता है। घुमक्कड़ को पहली बात जो ध्यान रखनी है, वह है समानता का भाव – अर्थात् उन लोगों में समान रूप से घुलमिल जाने का प्रयत्न करना। शारीरिक मेहनत का वहाँ भी उपयोग हो सकता है, किंतु वह जीविका कमाने के लिए उतना नहीं, जितना कि आत्मीयता स्थापित करने के लिए। नृत्य और वाद्य यह दो चीजें ऐसी हैं, जो सबसे जल्दी घुमक्कड़ को आत्मीय बना सकती हैं। इन लोगों में नृत्य, वाद्य और संगीत श्वास की तरह जीवन के अभिन्न अंग है। वंशीवाले घुमक्कड़ को पूरी बंधुता स्थापित करने के लिए दो दिन की आवश्यकता होगी। यद्यपि सभ्यता का मानदंड सभी जातियों का एक-सा नहीं है और एक जगह का सभ्यता-मानदंड सभी जगह मान्य नहीं हुआ करता, इसका यह अर्थ नहीं कि उसकी हर समय अवहेलना की जाय, तो भी सभ्य जातियों में जाने पर उनका अनुसरण अनुकरणीय है। यदि कोई यूरोपीय जूठे प्याले में चम्मच डालकर उससे फिर चीनी निकालने लगता है, तो हमारे शुद्धिवादी भाई नाक-भौं सिकोड़ते हैं। यूरोपीय पुरुष को यह समझना मुश्किल नहीं है, क्योंकि चिकित्सा विज्ञान में जूठे के संपर्क को हानिकर बतलाया गया है। इसी तरह हमारे सभ्य भारतीय भी कितनी ही बार भद्दी गलती करते हैं, जिसे देखकर यूरोपीय पुरुष को घृणा हो जाती है, जूठ का विचार रखते हुए भी वह कान और नाक के मल की ओर ध्यान नहीं देते। लोगों के सामने दाँत में अँगुली डाल के खरिका करते हैं, यह पश्चिमी के भद्रसमाज में बहुत बुरा समझा जाता है। इसी तरह हमारे लोग नाक या आँख पोंछने के लिए रूमाल का इस्तेमाल नहीं करते, और उसके लिए हाथ को ही पर्याप्त समझते हैं, अथवा बहुत हुआ तो उनकी धोती, साड़ी का कोना ही रूमाल का काम देता है। यह बातें शुद्धिवाद के विरुद्ध हैं।
पिछड़ी जातियों के भी कितने ही रीति-रिवाज हो सकते हैं, जो हमारे यहाँ से विरुद्ध हों, लेकिन ऐसे भी नियम हो सकते हैं, जो हमारी अपेक्षा अधिक शुद्धता और स्वास्थ्य के अनुकूल हों। रीति-रिवाजों की स्थापना में सर्वदा कोई पक्का तर्क काम नहीं करता। अज्ञात शक्तियों के कोप का भय कभी शुद्धि के ख्याल में काम करता है, कभी किसी अज्ञात भय का आतंक। नवीन स्थान में जाने पर यह गुर ठीक है कि लोगों को जैसा करते देखो, उसकी नकल तुम भी करने लगो। ऐसा करके हम उनको अपनी तरफ आकृष्ट करेंगे और बहुत देर नहीं होगी, वह अपने हृदय को हमारे लिए खोल देंगे।
वन्यजातियों में जानेवाला घुमक्कड़ केवल उन्हें कुछ दे ही नहीं सकता, बल्कि उनसे कितनी ही वस्तुएँ ले भी सकता है। उसकी सबसे अच्छी देन हैं दवाइयाँ, जिन्हें अपने पास अवश्य रखना और समय-समय पर अपनी व्यावहारिक बुद्धि से प्रयोग करना चाहिए। यूरोपीय लोग शीशे की मनियाँ, गुरियों और मालाओं को ले जाकर बाँटते हैं। जिसको एक-दो दिन रहना है। उसका काम इस तरह चल सकता है। घुमक्कड़ यदि मानव-वंश मानव-तत्व का कामचलाऊ ज्ञान रखता है, नेतृत्व के बारे में रुचि रखता है, तो वहाँ से बहुत-सी वैज्ञानिक महत्व की चीजें प्राप्त कर सकता है। स्मरण रखना चाहिए कि प्रागैतिहासिक मानव-इतिहास का परिज्ञान करने के लिए इनकी भाषा और कारीगरी बहुत सहायक सिद्ध हुई है। घुमक्कड़ मानव-तत्व की समस्याओं का विशेषत: अनुशीलन करके उनके बारे में देश को को बतला सकता है, उनकी भाषा की खोज करके भाषा-विज्ञान के संबंध में कितने ही नए तत्वों को ढूँढ़ निकाल सकता है। जनकला तो इन जातियों की सबसे सुंदर चीज है, वह सिर्फ देखने सुनने में ही रोचक नहीं है, बल्कि संभव है, उन से हमारी सभ्यता और सांस्कृतिक कला को भी कोई चीज मिले।
वन्यजातियों से एकरूपता स्थापित करने के लिए एक अंग्रेज विद्वान ने उन्हीं की लड़की ब्याह ली। घुमक्कड़ के लिए विवाह सबसे बुरी चीज है, इसलिए मैं समझता हूँ, इस सस्ते हथियार को इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। यदि घुमक्कड़ को अधिक एक बनने की चाह है, तो वह वन्यजातियों की पर्णकुटी में रह सकता है, उनके भोजन से तृप्ति प्राप्त कर सकता है, फिर एकतापादन के लिए ब्याह करने की आवश्कता नहीं। घुमक्कड़ ने सदा चलते रहने का व्रत लिया है, वह कहाँ-कहाँ ब्याह करके आत्मीयता स्थापित करता फिरेगा? वह अपार सहानुभूति, बुद्ध के शब्दों में – अपरिमित मैत्री – तथा उनके जीवन या जन-कला में प्रवीणता प्राप्त करके ऐसी आत्मीयता स्थापित कर सकेगा, जैसी दूसरी तरह संभव नहीं है। कहीं वह सायंकाल को किसी गाँव में चटाई पर बैठा किसी वृद्धा से युगों से दुहराई जाती कथा सुन रहा है, कहीं स्वच्छंदता और निर्भीकता की साकार मूर्ति वहाँ के तरुण तरुणियों की मंडली में वंशी बजा उनके गीतों को दुहरा रहा है, वह है ढंग जिससे कि वह अपने को उनसे अभिन्न साबित कर सकेगा। छ महीने – वर्ष भर रह जाने पर पारखी घुमक्कड़ दुनिया को बहुत-सी चीजें उनके बारे में दे सकता है।
आदमी जब अछूती प्रकृति और उसकी औरस संतानों में जाकर महीनों और साल बिताता है, उस वक्त भी उसे जीवन का आनंद आता है, वह हर रोज नए-नए आविष्कार करता है। कभी इतिहास, कभी नृवंश, कभी भाषा और कभी दूसरे किसी विषय में नई खोज करता है। जब वह वहाँ से,समय और स्थान दोनों में दूर चला जाता है, तो उस समय पुरानी स्मृतियाँ बड़ी मधुर थाती बनकर पास रहती हैं। वह यद्यपि उसके लिए उसके जीवन के साथ समाप्त हो जायँगी, किंतु मौन तपस्या करना जिनका लक्ष्य नहीं है, वह उन्हें अंकित कर जायँगे, और फिर लाखों जनों में सम्मुख वह मधुर दृश्य उपस्थित होते रहेंगे।
वन्य जातियों में घूमना, मनन, अध्ययन करना एक बहुत रोचक जीवन है। भारत में इस काम के लिए काफी प्रथम श्रेणी के घुमक्कड़ों की आवश्यकता है। हमारे कितने ही तरुण व्यर्थ का जीवन-यापन करते है। उस जीवन को व्यर्थ ही कहा जायगा, जिससे आदमी न स्वयं लाभ उठाता है न समाज को ही लाभ पहुँचाता है। जिसके भीतर घुमक्कड़ी का छोटा-मोटा भी अंकुर है, उससे तो आशा नहीं की जा सकती, कि वह अपने जीवन को इस तरह बेकार करेगा। किंतु बाज वक्त घुमक्कड़ी की महिमा को आदमी जान नहीं पाता और जीवन को मुफ्त में खो देता है। आज दो तरुणों की स्मृति मेरे सामने है। दोनों ने पच्चीस वर्ष की आयु से पहले ही अपने हाथों अपने जीवन को समाप्त कर दिया। उनमें एक इतिहास और संस्कृत का असाधारण मेधावी विद्यार्थी था, एक कालेज में प्रोफेसर बनकर गया था। उसे वर्तमान से संतोष नहीं था, और चाहता था और भी अपने ज्ञान और योग्यता को बढ़ाए। राजनीति में आगे बढ़े हुए विचार उसके लिए हानिकारक साबित हुए और नौकरी छोड़कर चला जाना पड़ा। उसके पिता गरीब नहीं थे, लेकिन पिता की पेंशन पर वह जीवन-यापन करना अपने लिए परम अनुचित समझता था। दरवाजे उसे उतने ही मालूम थे, जितने कि दीख पड़ते थे। तरुणों के लिए और भी खुल सकने वाले दरवाजे हैं, इसका उसे पता नहीं था। वह जान सकता था, आसाम के कोने में एक मिसमी जाति है या मणिपुर में स्त्री-प्रधान जाति है, जो सूरत में मंगोल, भाषा में स्यामी और धर्म में पक्की वैष्णव है। वहाँ उसे मासिक सौ-डेढ़ सौ की आवश्यकता नहीं होगी, और न निराश होकर अपनी जीवन-लीला समाप्त करने की आवश्यकता। सिर्फ हाथ-पैर हिलाने-डुलाने की आवश्यकता थी, फिर एक मिसमी वा मणिपुरी ग्रामीण तरुण के सुखी और निश्चिंत जीवन को अपनाकर वह आगे बढ़ सकता, अपने ज्ञान को भी बढ़ा सकता था, दुनिया को भी कितनी ही नई बातें बतला सकता था। क्या आवश्यकता थी उसकी अपने जीवन को इस प्रकार फेंकने की? इतने उपयोगी जीवन को इस तरह गँवाना क्या कभी समझदारी का काम समझा जा सकता है?
दूसरा तरुण राजनीति का तेज विद्यार्थी था और साधारण नहीं असाधारण। उसमें बुद्धिवाद और आदर्शवाद का सुंदर मिश्रण था। एम.ए. को बहुत अच्छे नंबरों से पास किया था। वह स्वस्थ सुंदर और विनीत था। उसका घर भी सुखी था। होश सँभालते ही उसने बड़ी-बड़ी कल्पनाएँ शुरू की थीं। ज्ञान-अर्जन तो अपने लघु-जीवन के क्षण-क्षण में उसने किया था, लेकिन उसने भी एक दिन अपने जीवन का अंत पोटासियम-साइनाइड खाके कर दिया। कहते हैं, उसका कारण प्रेम हुआ था। लेकिन वह प्रेमी कैसा जो प्रेम के लिए 5-7 वर्ष की भी प्रतीक्षा न कर सके, और प्रेम कैसा जो आदमी की विवेक-बुद्धि पर परदा डाल दे, सारी प्रतिभा को बेकार कर दे? यदि उसने जीवन को बेकार ही समझा था, तो कम-से-कम उसे किसी ऐसे काम के लिए देना चाहिए था, जिससे दूसरों का उपकार होता। जब अपने कुरते को फेंकना ही है, तो आग में न फेंककर किसी आदमी को क्यों न दे दें, जिसमें उसकी सर्दी-गर्मी से रक्षा हो सके। तरुण-तरुणियाँ कितनी ही बार ऐसी बेवकूफी कर बैठते हैं, और समाज के लिए, देश के लिए, विद्या के लिए उपयोगी जीवन को कौड़ी के मोल नहीं, बिना मोल फेंक देते हैं। क्या वह तरुण अपने राजनीति और अर्थशास्त्र के असाधारण ज्ञान, अपनी लगन, निर्भीकता तथा साहस को लेकर किसी पिछड़ी जाति में, किसी अछूते प्रदेश में नहीं जा सकता था? यह कायरता थी, या इसे पागलपन कहना चाहिए – शत्रु से बिना लोहा लिए उसने हथियार डाल दिया। पोटासिमय साइनाइड बहुत सस्ता है, रेल के नीचे कटना या पानी में कूदना बहुत आसान है, खोपड़ी में एक गोली खाली कर देना भी एक चवन्नी की बात है, लेकिन डटकर अपनी प्रतिद्वंद्वी शक्तियों से मुकाबला करना कठिन है। तरुण से आशा की जा सकती है, कि उसमें दोनों गुण होंगे। मैं समझता हूँ, घुमक्कड़ी धर्म के अनुयायी तथा इस शास्त्र के पाठक कभी इस तरह की बेवकूफी नहीं करेंगे, जैसा कि उक्त दोनों तरुणों ने किया। एक को तो मैं कोई परामर्श नहीं दे सकता था, यद्यपि उसका पत्र रूस में पहुँचा था, किंतु मेरे लौटने से पहले ही वह संसार छोड़ चुका था। मैं मानता हूँ, खास परिस्थिति में जब जीवन का कोई उपयोग न हो, और मरकर ही वह कुछ उपकार कर सकता हो तो मनुष्य को अपने जीवन को खत्म कर देने का अधिकार है। ऐसी आत्म-हत्या किसी नैतिक कानून के विरुद्ध नहीं, लेकिन ऐसी स्थिति हो, तब न? दूसरा तरुण मेरे भारत लौटने तक जीवित था, यदि वह मुझसे मिला होता या मुझे किसी तरह पता लग गया होता, तो मैं ऐसी बेवकूफी न करने देता। विद्या, स्वास्थ्य, तारुण्य, आदर्शवाद इनमें से एक भी दुर्लभ है, और जिसमें सारे हों, ऐसे जीवन को इस तरह फेंकना क्या हृदयहीनता की बात नहीं है? असली घुमक्कड़ मृत्यु से नहीं करता, मृत्यु की छाया से वह खेलता है। लेकिन हमेशा उसका लक्ष्य रहता है, मृत्यु को परास्त करना – वह अपनी मृत्यु द्वारा उस मृत्यु को परास्त करता है।
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