लेख – प्रेमतत्त्व – (लेखक – रामचंद्र शुक्ल )
प्रेम के स्वरूप का दिग्दर्शन जायसी ने स्थान-स्थान पर किया है। कहीं तो यह स्वरूप लौकिक ही दिखाई पड़ता है और कहीं लोकबंधन से परे। पिछले रूप में प्रेम इस लोक के भीतर अपने पूर्ण लक्ष्य तक पहुँचता हुआ नहीं जान पड़ता। उसका उपयुक्त आलंबन वही दिखाई पड़ता है जो अपने प्रेम से संपूर्ण जगत की रक्षा करता है।
प्रिय से संबंध रखनेवाली वस्तुएँ भी कितनी प्रिय होती हैं! प्रिय की ओर ले जानेवाला मार्ग नागमती को कितना प्रिय होगा, उसी के मुँह से सुनिए –
वह पथ पलकन्ह जाइ बोहारौं । सीस चरन कै चलौं सिधारौं॥
पथ पर पलक बिछाने या उसे पलकों से बुहारने की बात उस अवसर पर कही जाती है जब प्रिय उस मार्ग से आने को होता है, पर जहाँ उस मार्ग पर चलने के लिए नागमती ही तैयार है, जैसा कि प्रसंग के पड़ने से विदित होगा (दे. पद्मावती – नागमतीविलाप खंड), तो क्या वह अपने चलने के आराम के लिए सफाई करने को कह रही है? नहीं, उस मार्ग के प्रति जो स्नेह उमड़ रहा है, उसकी झोंक में कह रही है। जो मार्ग प्रिय की ओर ले जायगा उस पर भला पैर कैसे रखेगी, वह उस पर सिर को पैर बना कर चलेगी। प्रिय के संबंध से कितनी वस्तुओं से सुहृद भाव स्थापित हो जाता है। सच्चे प्रेमी को प्रिय ही नहीं, जो कुछ उस प्रिय का होता है, सब प्रिय होता है। जिसे यह जगत प्रिय नहीं, जो इस जगत के छोटे – बड़े सबसे सद्भाव नहीं रखता, जो लोक की भलाई के लिए सब कुछ सहने को तैयार नहीं रहता, वह कैसे कह सकता है कि ईश्वर का भक्त हूँ? गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि मैं भी वह भक्तजीवन प्राप्त कर सकूँगा और –
परहित निरत निरंतर मन क्रम वचन नेम निबहौंगो॥
यह दिखाया जा चुका है कि रत्नसेन पद्मावती का प्रेम विषम से सम की ओर प्रवृत्त हुआ है जिसमें एक पक्ष की कष्टसाधना दूसरे पक्ष में पहले दया और फिर तुल्य प्रेम की प्रतिष्ठा करती है। साधना का फलारंभस्वरूप उस दया की सूचना पाने पर जो तुल्यानुराग का पूर्वलक्षण है, रत्नसेन को समागम का सा ही आनंद होता है, उसकी संजीवनी शक्ति से वह मूर्च्छा से जाग उठता है –
सुनि पदमावति कै असि मया । भा बसंत, उपनी नइ कया॥
सुआ क बोल पवन होइ लागा । उठा सोइ हनुवँत अस जागा॥
तुल्यानुराग की सूचना के अद्भुत प्रभाव का अनुभव राजा पुरुरवा ने भी उस समय किया है जब उर्वशी ने अदृश्य भाव से भोजपत्र पर अपने अनुराग की दशा लिख कर गिराई है –
तुल्यानुरागपिशुनं ललितार्थबं धं पत्रो निवेशितमुदाहरणं प्रियाया : ।
उत्पक्ष्मणा , मम सखे ! मदिरेक्षणायास्तस्या : समागतमिवाननमाननेन॥
– (विक्रमोर्वशी, अंक 2)
राजा रत्नसेन ने ‘अनुराग’ शब्द का प्रयोग न कर के ’मया’ शब्द का प्रयोग किया है। यह उसके प्रेम के विकास के हिसाब से बहुत ठीक है। पहले पद्मावती को रत्नसेन के कष्टों की सूचना मिली है, तब उसका हृदय उसकी ओर आकर्षित हुआ है; अत: पद्मावती के हृदय में पहले दया का भाव ही स्वाभाविक है। पर उर्वशी और पुरुरवा का प्रेम आरंभ ही से सम था, केवल एक दूसरे के प्रेम का परिज्ञान नहीं था। आगे चल कर रत्नसेन जो हर्ष प्रकट करता है, वह तुल्यानुराग पर है। राजा रत्नसेन को जब सूली देने ले जा रहे थे तब हीरामन पद्मावती का यह संदेसा ले कर आया –
काढ़ि प्रान बैठी लेइ हाथा । मरै तौ मरौं, जिऔं एक साथा॥
इतना सुनते ही रत्नसेन के हृदय से सूली आदि का सब ध्यान हवा हो जाता है, वह आनंद में मग्न हो जाता है –
सुनि सँदेस राजा तब हँसा । प्रान प्रान घट घट महँ बसा॥
प्रेम के प्रभाव से प्रेमी की वेदना मानो उसके हृदय के साथ प्रिय के पास चली जाती है। अत: जब वह प्रेम चरम सीमा को पहुँच जाता है तब प्रेमी तो दु:ख की अनुभूति से परे हो जाता है और उसकी सारी वेदना प्रिय के मत्थे जा पड़ती है। संवेदना का यही उत्कर्ष तुल्य प्रेम है –
जीउ काढ़ि लेइ तुम अपसई। वह भा कया, जीव तुम भई॥
कया जो लाग धूप औ स। कया न जान, जान पै जीऊ॥
भोग तुम्हार मिला ओहि जाई। जो ओहि बिथा सो तुम्ह कहँ आई॥
योगियों के परकाया-प्रवेश का-सा रहस्य समझना चाहिए –
”अस वह जोगी अमर भा, पर काया परवेस॥ ”
प्रेम की प्राप्ति से दृष्टि आनंदमयी और निर्मल हो जाती है। जो बात पहले नहीं सूझती थी वे सूझने लगती हैं, चारों ओर सौंदर्य का विकास दिखाई पड़ने लगता है। पद्मावती की प्रशंसा सुनते ही जो प्रेम रत्नसेन के हृदय में संचरित होता है उसके प्रभाव का वर्णन वह इस प्रकार करता है –
सहसौ करा रूप मन भूला । जहँ जहँ दीठ कँवल जनु फूला॥
तीनि लोक चौदह खंड, सबै परै मोहि सूझि।
प्रेम छाँड़ि नहिं लोन किछु , जौ देखा मन बूझि॥
प्रेम का क्षीर-समुद्र अपार और अगाध है। जो इस क्षीर-समुद्र को पार करते हैं उसकी शुभ्रता के प्रभाव से ‘जीव’ संज्ञा को त्याग शुद्ध आत्मस्वरूप को प्राप्त हो जाते हैं। ‘जो एहि खीर समुद महँ परे। जीव गँवाइ, हंस होइ तरे।’ फिर तो वे ‘बहुरि न आइ मिलहि एहि छारा।’
प्रेम की यदि एक चिनगारी हृदय में पड़ गई और उसे सुलगाते बन पड़ा तो फिर ऐसी अद्भुत अग्नि प्रज्वलित हो सकती है जिससे सारे लोक विचलित हो जाय –
मुहमद चिनगी प्रेम कै सुनि महि गगन डेराइ।
धनि बिरही औ धनि हिया, जहँ अस अगिनि समाइ॥
भगवत्प्रेम की यह चिनगारी अच्छे गुरु से प्राप्त हो सकती है। पर गुरु एक चिनगारी भर डाल देगा, उसे सुलगाना चेले का काम है –
गुरु बिरह चिनगी जो मेला । जो सुलगाइ लेइ सो चेला॥
गुरु केवल उस प्रिय (ईश्वर) के रूप का बहुत थोड़ा-सा आभास भर दे सकता है – उसे शब्दों द्वारा पूर्ण रूप से व्यक्त करना असंभव है। भावना के निरंतर उत्कर्ष द्वारा शिष्य को उत्तरोत्तर अधिक साक्षात्कार प्राप्त होता जायगा और उसके प्रेम की मात्रा बढ़ती चली जायगी।
दुरारूढ़ प्रेम में प्रिय के साक्षात्कार के अतिरिक्त और कोई (सुख आदि की) कामना नहीं होती। ऐसा प्रेम प्रिय को छोड़ किसी अन्य वस्तु का आश्रित नहीं होता। न उसे सुराही चाहिए, न प्याला, न गुलगुली गिलमें, न गलीचा। न उसमें स्वर्ग की कामना होती है, न नरक का भय। ऐसी निष्कामता का अनुभव राजा रत्नसेन भयंकर समुद्र के बीच इस प्रकार कर रहा है –
ना हौं सरग क चाहौं राजू। ना मोहि नरक सेंति किछु काजू॥
चाहौं ओहिकर दरसन पावा। जेइ मोहि आनि प्रेम पथ लावा॥
प्रेम की कुछ विशेषताओं का वर्णन जायसी ने हीरामन तोते के मुँह से भी कराया है। सच्चा प्रेम एक बार उत्पन्न हो कर फिर जा नहीं सकता। पहले उत्पन्न होते और बढ़ते समय तो उसमें सुख ही सुख दिखाई पड़ता है; पर बढ़ चुकने पर भारी दु:ख का सामना करना पड़ता है। प्रेम बढ़ जाने पर और किसी भाव के लिए स्वतंत्र स्थान नहीं छोड़ता। जो और भाव उत्पन्न भी होते हैं वे सब उसके अधीन और वशवर्ती होते हैं –
प्रीति बेलि जिन अरुझै कोई। अरुझै, मुए न छूटै सोई॥
प्रीति बेलि ऐसे तन डाढ़ा। पलुहत सुख, बाढ़त दुख बाढ़ा॥
प्रीति अकेलि बेलि चढ़ि छावा। दूसर बेलि न सँचरै पावा॥
पद्मावती और नागमती के विवाद में जो ‘असूया’ का भाव प्रकट होता है वह स्त्री स्वभाव चित्रण की दृष्टि से है। वह प्रेम के लौकिक स्वरूप के अंतर्गत है। जिन कालिदास ने प्रेम की प्रारंभिक दशा में उर्वशी के मुँह से पुरुरवा की रानी की रूपश्री की प्रशंसा कराकर चित्रलेखा को ‘असूया पराङ्मुखं मंत्रितम्’ कहने का अवसर दिया उन्हीं ने आगे चल कर उर्वशी के लता रूप में परिणत हो जाने पर उसके संबंध में सहजन्या के मुँह से कहलाया कि ‘दूरारूढ़ खलु प्रणयोसहन:’। पर जायसी की दृष्टि इस लौकिक प्रेम से आगे बढ़ी हुई है। वे प्रेम का वह विशुद्ध रूप दिखाना चाहते हैं जो भगवत्प्रेम में परिणत हो सके। इसी से वे प्रेम की ओर भी दूरारूढ़ भावना कर के रत्नसेन के मुँह से विवादशांति का तत्त्व भरा उपदेश दिलाते हैं।
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