हरिऔध् ग्रंथावली – खंड : 4 – कल्पलता – (लेखक – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध)
प्रेम-प्रलाप
भरे हैं उसमें जितने भाव,
मलिन हैं, या वे हैं अभिराम,
फूल-सम हैं या कुलिश-समान,
बताऊँ क्या मैं तुझको श्याम!
हृदय मेरा है तेरा धााम।
गए तुम मुझको कैसे भूल,
किसलिए लूँ न कलेजा थाम,
न बिछुड़ो तुम जीवन-सर्वस्व!
चाहिए मुझे नहीं धान-धााम।
तुम्हीं मेरे हो लोक-ललाम।
रँग सका मुझे एक का रंग,
दूसरों से क्या मुझको काम,
भला या बुरा मुझे लो मान,
भले ही लोग करें बदनाम।
रमा है रोम-रोम में राम।
गरल होवेगा सुधाा-समान,
सुशीतल प्रबल अनल की दाह;
बनेगी सुमन-सजाई सेज,
विपुल कंटक-परिपूरित राह।
हृदय में उमड़े प्रेम-प्रवाह।
बताता है, खग-वृंद-कलोल,
सरस-तरु-पुंज, प्रसून-मरंद,
वायु-संचार, प्रफुल्ल मयंक,
हमारा व्रज-जीवन-नभ-चंद,
सत्य है, चित है, है आनंद।
राम
रक्त-रंजित था समय-प्रवाह;
चमक थी रही काल-करवाल।
कँप रहा था त्रिालोक अवलोक,
कालिका-नर्तन परम कराल।
दनुजता का दुरंत उत्साह,
लोक का करता था संहार।
सह न सकता था प्राणिसमूह
पाशविकता का प्रबल प्रहार।
विधाूनित था विधिा-बध्द विधाान;
दहल था रहा समस्त दिगंत।
विकंपित था वृंदारक-वृद;
हो रहा था मानवता-अंत।
तिमिर-पूरित हो-होकर व्योम,
कर रहा था बहुधाा उत्पात।
न सकता था पाहन-उर देख,
धारातल का वर्ध्दित उत्पात।
किसी अविचिंत्य शक्ति की ओर,
लगे थे जन आशा के नेत्रा।
हो गया इसी समय सुविकास;
हुआ उद्बुध्द शान्ति का क्षेत्रा।
सामने आया भव अनुकूल,
एक विभु वैभव लोक-ललाम।
कांत-वपु, जानु-विलंबित-बाहु,
कमल-दल-नयन, नीर-धार-श्याम।
वह पुरुष था मानवता-मूर्ति,
सत्य-संकल्प, सिध्दि-आधाार।
प्रेम-अवलंब, भक्ति-सर्वस्व,
नीति-निधिा, मर्यादा-अवतार।
वदन पर थी उसके वह ज्योति,
हुआ जिससे जगती-तम दूर।
देखकर मानस-ओज महान,
हो गया कदाचार-मद चूर।
बुध्दि से बँधाा सिंधाु में सेतु;
खुला कौशल से सुर-पुर द्वार।
कर परस कर पवि बना प्रसून,
हुआ पग से पाहन-निस्तार।
भरी थी उसमें स्वर्ग-विभूति,
रहा वह सकल-भुवन-अभिराम।
आर्य-कुल-गौरव, गेह-प्रदीप,
दिव्य-गुण-धााम, नाम था राम।
मेरा राम
कला-निधिा मंजु माधाुरी देख,
क्यों न उर-उदधिा बने अभिराम।
क्यों न अवलोक मूर्ति कमनीय,
कमल-से लोचन हों छवि-धााम।
रमा का पति है मेरा राम,
तप त्रिाविधा-ताप-तप्त के हेतु।
क्यों न दे सुखद जलद-सम काम,
सकल भव-रुज-दव-दग्धा-निमित्ता।
सजीवन कैसे बने न नाम,
जगत-जीवन है मेरा राम।
ललित लीला है महि आलोक,
सिता-सम है कल कीर्ति ललाम।
सुर-सदन का है सुंदर गान,
अलौकिकता-अंकित, गुण-ग्राम।
लोक-रंजन है मेरा राम,
छाँह छू बने अछूत अछूत।
हो गये पतित पूत ले नाम,
पग परस पापी हुए पुनीत।
मिला अधामों को उत्ताम धााम,
पतित-पावन है मेरा राम।
कौन है ऊँच, नीच है कौन,
रखो मत इन झगड़ों से काम।
सुनो तुम सबका अंतर्नाद,
किसी का मत अवलोको चाम।
रमा है सबमें मेरा राम।
अवलोकन
नभ-तल, जल , थल, अनल, अनिल में है छवि पाती;
कहाँ कलामय-कला नहीं है कला दिखाती।
रंजित जो रज को न लोक-रंजन कर पाते;
जन-रंजनता सकल कुसुम कैसे दिखलाते।
हरे-हरे तरु-पुंज की रुचिरतर हरियाली;
क्यों करती जी हरा जो न होती हरि-पाली।
क्यों ललामता लिये ललित लतिका लहराती;
जो न त्रिालोक-ललाम ललक लालित कर जाती।
श्यामल, कोमल, नवल तृणावलि तो न लुभाती;
घन-रुचि-तन से जो न रुचिर श्यामलता पाती।
कलित कमल-कुल सदन न कमला का कहलाता;
दल-दल को जो नहीं कमल-दृग कांत बनाता।
तो सकल विभाकर गगन के विभावान होते नहीं;
जो अखिल विभामय जगत में विभा-बीज बोते नहीं।
सबमें रमा राम
मुग्धाकर है उसका गुण-ग्राम;
रमा जगती-तल में है राम।
दिवस-मणि में वह दिखलाया,
उसे विधाु में हँसता पाया,
अछूते नीले नभ-तल पर
पड़ी है उसकी ही छाया।
मेघ है कैसा सुंदर श्याम।
चाँदनी क्यों खिलती आती,
दामिनी दमक कहाँ पाती,
यामिनी की नीली साड़ी।
मोतियों से क्यों टँक जाती।
जो न होता वह ललित ललाम।
रंग में सबसे न्यारा है,
इंद्र-धानुष कितना प्यारा है,
उसी की आभा है उसमें,
उसी ने उसे सँवारा है।
उसी का लीलामय है नाम।
उषा का नित्य रंग लाना,
पेड़ पर चिड़ियों का गाना,
वायु का मंद-मंद बहना,
चमकती किरणों का आना,
अलौकिकता का है परिणाम।
ताप क्यों पाहन-उर खोता,
बहाता कैसे रस-सोता,
जीवनी जड़ी-बूटियाँ दे,
मेरु-शिर ऊँचा क्यों होता।
जो न बनता कमनीय निकाम।
डालियों में है लहराता,
हरे दल में है दिखलाता,
कली में है खिलता जाता,
फूल में वह है मुसकाता,
बना क्षिति-तल उससे छवि-धााम।
रसों का रस है कहलाता,
सुधाा नभ से है बरसाता,
सर-सरित-लहरों में बिलसा,
मिला कल-कल रव में गाता।
सागरों में है मुक्तादाम।
मंजु छबि मानस में ऑंकी,
मूर्तियाँ अवलोकी बाँकी,
मंदिरों में झुक-झुक झाँका,
उसी की दिखलाई झाँकी।
कहाँ है नहीं लोक-अभिराम?
रमा जगती-तल में है राम।
प्यारा राम
कौन है, है जिसे न प्यारा राम!
राम के हम हैं, है हमारा राम।
है दुखी-दीन पर दया करता,
बेसहारों का है सहारा राम।
तब वहीं पर खड़ा मिला न किसे,
जब जहाँ पर गया पुकारा राम।
हैं सभी जीव जुगुनुओं-जैसे,
है चमकता हुआ सितारा राम।
है समझ-बूझ शीश का सेहरा,
सूझ की ऑंख का है तारा राम।
हैं जहाँ संत-हंस पल पाते,
मानसर का है वह किनारा राम।
है मनों में बसा हुआ सबके,
है दिलों का बड़ा दुलारा राम।
छू गये पाप-फूस है फुँकता,
है दहकता हुआ ऍंगारा राम।
भूत सिर का उतर सका जिससे,
है सयानों का वह उतारा राम।
तर गये लोग धाुन सुने जिसकी,
साधाुओं का है वह दुलारा राम।
हमारा राम
ताकते मुँह रहे तुम्हारा राम!
पर न तुमने हमें उबारा राम!
हम थके, तुम पुकार सुन न सके,
कब न हमने तुम्हें पुकारा राम!
मन गया हार बेसहारे हो,
पर न तुमने दिया सहारा राम!
सच है यह, हम सुधार नहीं पाए,
क्यों नहीं तुमने ही सुधारा राम!
ऑंख से हम उतर गये, तो क्या,
तुमने जी से है क्यों उतारा राम?
हाथ तुमने किया नहीं ऊँचा,
हाथ हमने न कब पसारा राम?
किस तरह काम तब सँवर पाते,
जब कि तुमने नहीं सँवारा राम?
क्या रहा, पत बची-खुची न रही,
अब तो सब कुछ सरग सिधारा राम!
देख बेचारपन हमारा यह,
सच कहो, तुमने क्या विचारा राम!
तुम सुनोगे न, तो कहें किससे?
दूसरा कौन है, हमारा राम!
(2)
लोक-रहस्य
अलौकिक गान
धारा-कालिमा रही रुधिार से धाुलनेवाली;
भव-करालता देख किलकिलाती थी काली।
विपुल-मनुज-वधा श्रेय-बीज था बोनेवाला;
मंगल-मूलक महासमर था होनेवाला।
शिव-मुंड-माल की कामना मूर्तिमान थी हो रही।
धाीरे-धाीरे थी वसुमती बची धाीरता खो रही।
काल-भाल का बंक अंक था विपुल कलंकित;
लोक-पाल थे चकित, सकल सुरपुर था शंकित।
बनी धाीर-गंभीर विश्व की शक्ति खड़ी थी;
भुवन-विजयिनी भूति भ्रांति-निधिा-मधय पड़ी थी।
थे कान कमलभव के खड़े, यम कपाल था ठोंकता;
भव किसी अलौकिक वदन को था आकुल अवलोकता।
इसी समय कर सकल अवनि-मंडल को मुखरित
एक अलौकिक गान हुआ विज्ञान-गौरवित।
स्वर-लहरी थी सरस, मधाुर धवनि मुग्धाकरी थी;
अति अनुपम थी तान, ललित लय सुधाा-भरी थी।
पावन-पदावली थी परम-पद-पावनता-पालिका;
कमनीय-कला थी पय-सलिल विमल-विवेक मरालिका।
सुन यह मोहक गान विमोहित हुए त्रिाशूली;
वीणा-वादन-रता करज-संचान भूली।
विधिा-विमुग्धाता बढ़ी, बिधाा नारद का मानस;
बरस गया सुर-सिध्द-वृंद पर परम मधाुर रस।
स्वर-राग-रागिनी के सधो, साधों भरीं अतीत में;
आई सजीवता सरसता सकल लोक-संगीत में।
कर मुरली का नाद मोहिनी जिसने डाली,
मन-मंदिर में पूत-प्रेम-प्रतिमा बैठाली।
जगती-तल को मोह-मोहकर मधाु बरसाया।
सुर, नर, मुनि क्या, खग-मृग तक को मुग्धा बनाया।
उसके पावनतम कंठ से कढ़े अलौकिक गान यह;
सारे अशांतिमय ओक में गया शांति का òोत बह।
टली भ्रांति की भ्रांति, प्रफुल्लित भव दिखलाया;
परम कलित हो गयी समर की अकलित काया।
रुधिार-धाार से सिंची लोक-हित-बेलि निराली;
करवालों से गयी शांति-ममता प्रतिपाली।
मानव-मानस की मत्ताता क्रान्ति महत्ता से भरी;
भुव-भार-भूत-संहार-मिष भव-विभूति बन अवतरी।
है अतीत का कंठ आज भी उसे सुनाता;
बना-बना बहु मुग्धा स्वर्ग-रस है बरसाता।
स्वर-सप्तक है समय-विपंची में सरसाता;
अवसर पर जन-श्रवण-रसायन है बन जाता।
करता है मानव-धार्म के भावों का एकीकरण;
उसके अपूर्व आलाप से परिपूरित वातावरण।
देश-काल-अनुकूल सदाशयता में ढाले;
सुने धारा के विविधा धार्म-संगीत निराले।
किंतु नहीं वह कलित कला उनमें दिखलाती,
जो बन पाती अखिल लोक की प्रियतम थाती।
इतनी ऊँची कब उठ सकी उनकी स्वर-लहरी ललित,
जिसके बल से सब अवनि-तल-हृत्तांत्राी होती धवनित।
मानवता की मंजु गूँज जिसमें न समाई;
समता की गिटकिरी मधाुर जिसमें न सुनाई।
जो कर कर रस-दान सरसता नहीं दिखाता;
घन-समान बन सकल धारातल-जीवन-दाता;
जो देश-जाति द्विविधाा-जनित मानस-मल धाोता नहीं,
वह विदित धार्म संगीत हो सार्वभौम होता नहीं।
जिसकी धवनि में विश्वबंधाुता धवनि हैं पाते,
हैं जिसके आरोह लोक-ममता में माते,
जिसका प्रिय अवरोह भुवन-मानस-विजयी है,
जिसकी महिमा-भरी मर्ूच्छना मुक्तिमयी है,
जिसकी रंजनता अवनि-जन-रंजन एक समान है,
वह गीता का भव-धार्म-धान परम अलौकिक गान है।
नियति-नियमन
नहीं जब रहता रंजन-योग्य
तमोमय रजनी का संभार,
राग-रंजित ऊषा उस काल
खोलती है अनुरंजन-द्वार।
नहीं जब रह जाता कमनीय
तारकावलि तम-मोचन-काम,
दमकता है तब दिव के मधय
दिवस-मणि सामणि लोक ललाम।
बहुत जब कर देता है तप्त
धारा को तप-रितु का उत्ताप,
तपन-भय कर देता है दूर
पयद तब बरस सुधाा-सम आप।
मलिनतामय बन गये दिगंत,
बढ़ गये जल प्लावन का त्राास।
बनाता है भूतल को भव्य
समुज्ज्वल सुंदर शरद-विकास।
बहुत कंपित करता है शीत
जब शिशिर को दे शक्ति महान,
जब हुए परम प्रबल हिम-पात
अवनि-तल बनता है हिमवान।
दलकने लगते हैं सब लोग,
काँप जब उठता है संसार,
मंद पड़ता है जीवन-òोत,
विशिख-विरहित बनता जबमार।
तब लिये कर में कुसुम-समूह,
मलय-शिर पर रख सौरभ-भार,
उमगता आता है ऋतुराज
कर नवल-जीवन का संचार।
कभी होने लगता है लाल,
कभी नभ-तल रहता है नील,
समय पर होता है भव-कार्य,
नियति है कितनी नियमनशील।
प्रेमा
उषा राग अनुराग रंग में है छवि पाती;
रवि की कोमल किरण जाल में है जग जाती।
रस बरसाती मिली कला-निधिा कला सहारे;
पाकर उसकी ज्योति जगमगाते हैं तारे।
है वह उज्ज्वल कांति कौमुदी उससे पाती;
जिसके बल से तिमिरमयी को है चमकाती।
इंद्र-चाप की परम रुचिर रुचि में है लसती;
है विकास मिस कलित भूत कलिका में हँसती।
मलयानिल के बड़े मनोहर मृदुल झकोरे;
सरि, सरि, सरसी तरल सलिल के सरस हिलोरे।
पल उसके कमनीय अंक में हैं कल होते;
मधाुर भाव के मंजु बीज उर में हैं बोते।
है वसंत के विभव पर पड़ी उसकी छाया;
इसीलिए वह किसे नहीं कुसुमति कर पाया।
वह अमोल रस उसे पूज पादप हैं लेते;
जिसके बल से परम रसीले फल हैं देते।
कर कर सुधाा-समान मधाुर सागर-जल खारा;
धार घन-माला-रूप सींचती है थल सारा।
ओस-बूँद बन कुसुम-अवलि में है सरसाती;
नहीं कहाँ पर प्रेममयी प्रेमा दिखलाती।
मयंक
टूटते रहते हो, तो क्या,
क्या हुआ घटने-बढ़ने से;
मान किसने इतना पाया
किसी के सिर पर चढ़ने से।
घूमते हो ऍंधिायाले में,
तुम्हें रजनीचर कहते हैं;
पर बता दो यह, किसका मुँह
लोग तकते ही रहते हैं।
कलंकी तुम्हें लोग कह लें,
तुम्हीं ऑंखों में बसते हो;
भले ही हों तुम पर धाब्बे,
किंतु रस तुम्हीं बरसते हो।
किसे वह मुग्धा नहीं करता,
पास जिसके मधाु-धारा हो;
सुधााकर तुम कहलाते हो,
क्यों न विष बंधाु तुम्हारा हो।
मोहता ही रहता है जो,
किस तरह मन उससे फेरें?
घूमते तुम हो ऑंखों में,
भले ही घन तुमको घेरें।
सदा चक्कर में रहते हो,
दिवस में हो मलीन बनते;
पर तुम्हीं अवनी-मंडल पर
ज्योति का हो वितान तनते।
दिव्यता किसकी अवलोके
तरंगित तोयधिा दिखलाया;
राहु कवलित कर ले, तो क्या?
कौन राका-पति कहलाया?
रचा किसने रवि-किरणें ले
चाँदनी का मंजुलतम तन;
लोग दोषाकर बतलावें,
पर तुम्हीं हो रजनी-रंजन।
नर-नारी
देख चंचलता चपला की
गरजते मेघों को पाया;
बिखर जाती है घन-माला,
वायु का झोंका जब आया।
देख करके रवि को तपता।
दु्रमों में छिपती है छाया।
चंद्रमा के पीछे-पीछे
चाँदनी को चलते पाया।
गोद में गिरिगण के बैठी
घाटियाँ शोभा पाती हैं;
दौड़ती जा करके नदियाँ
समुद्रों में मिल जाती हैं।
अंक में उपवन के विरची
क्यारियाँ कांत दिखाती हैं;
पादपों के सुंदर तन में
बेलियाँ लिपटी जाती हैं।
साथ जलते दीपक का कर
बत्तिायाँ जलती रहती हैं;
सितम मतवाले भौंरों का
तितलियाँ सहती रहती हैं।
मोतियों की माला अपनी
भोर को रजनी देती है;
अरुण का मुख देखे ऊषा
माँग अपनी भर लेती है।
देख कुसुमाकर को कोयल
गीत है बड़े मधाुर गाती;
मंजु मलयानिल से मिलकर
महँक है मोहकता पाती।
सामना उजियाले का कर
भाग जाती है ऍंधिायाली;
गगन-तल के नीलापन में
विलसती रहती है लाली।
फूल को हँसता अवलोके।
कब नहीं कलियाँ खिल जातीं;
कलेजा उनका तर करने
ओस की बूँदें हैं आतीं।
रंगतों से तारक-चय के
ज्योति रंजित बन जाती है;
देख राका-पति को निकला
बिहँसती राका आती है।
(3)
अंतर्नाद
असार जीवन
किसको अपना प्यार दिखाऊँ,
किसको गूँधाा हार पिन्हाऊँ,
कैसे बजा सुनाऊँ किसको मानस-तंत्राी की झनकार।
थे पादप फूले न समाते,
थे प्रसून विकसे सरसाते,
थे मिलिंद प्रमुदित मधाुमाते,
थे विहंग कल गान सुनाते,
यह विलोक उपवन में आई, खोजा, मिला न प्रेमाधाार।
देख पवन को सुरभि वितरते,
कुसुमित महि में मंद विचरते,
झरनों को उमंग से झरते,
जल-प्रवाह को मानस हरते,
मोह गयी, पर हुआ नयन-गोचर न मनोहरता-अवतार।
मिले विलसते नभ में तारे,
जगमग करते ज्योति सहारे,
उदित हुआ वर विधाु छवि धाारे,
सुधाा-सक्ति कर-निकर पसारे,
पर न बताया पता, कहाँ है वह त्रिालोक-सुंदर, सुकुमार।
खुले न हृदय-युग-नयन मेरे,
वर विवेक आ सका ने नेरे,
रहे मोद-मद-ममता घेरे,
बने न चारु भाव चित-चेरे,
सकल सहज सुख-साधा न पूजी, सारा जीवन हुआ असार।
विरह-निवेदन
नहीं खुल पाया तेरा द्वार;
कान में पड़ पाई न पुकार।
नहीं दया कर तूने देखी आकुल नयनों की जल-धाार।
सुख हैं सुर-तरु-तले न पाते;
प्यासे सुर-सरि-तट से जाते।
होते सुधाा-गेह से नाते;
हैं चकोर-सम आग चबाते।
शीतल नहीं हमें कर पाता मलय-समीर-सरस-संचार।
सरसित कुसुमाकर के होते;
मरु-सम हैं न विरसता खोते।
बहते सरस सुधाा के सोते;
हैं जल-हीन मीन बन रोते।
नंदन-वन में नहीं सुनाती मानस-अभिनंदन-झंकार।
जलद-जाल है जल बरसाता;
चातक है दो बूँद न पाता।
मधाु हो पादप-वृंद विधााता
है करील को क्यों कलपाता।
तरल-हृदय-तोयद क्यों भूला प्रीति-मत्ता मोरों का प्यार।
कैसे रवि को कमल तजेगा;
अलि कुसुमावलि को न भजेगा।
मधाु-निमित्ता क्यों तरु न सजेगा;
स्वर-विहीन क्यों वेणु बजेगा।
प्रेमिक जीव जिएगा कैसे तजे प्रेम-पय-पारावार।
उपहार
मंजुल-मानस-नंदन-वन में परम-रुचिर-रुचि के अनुकूल,
तोड़े हैं अनुरक्ति-करों से भावों के अति सुंदर फूल।
हैं ये नव-मरंद के मंदिर पारिजात-से सौरभवान;
कोमल-अमल-कमल-दल जैसे सरसित-सरस-प्रसून-समान।
चिंता-चारु-सूत्रा के द्वारा उनसे रचा मनोहर हार;
हीरक-मंजु-माल-सा मोहक मुक्तावलि-सा लसित अपार।
किंतु हमें वह मिला न मानव, जो हो मानवता-अवतार;
पड़कर जिसके कलित कंठ में हो न हार-गौरव-संहार।
सरस हृदय हैं रस के लोलुप, रसिक रसिकता में है चूर;
भूरि-भाव से भूखे भावुक हैं भावुकताओं से दूर।
योग, वियोग, मत्ता जन-मन है, भोगी भोगों का है दास;
विविधा विलासमयी अभिरुचि है हास-विलासों का आवास।
मधाुकर की मधाु मादकता है नहीं माधाुरी के अनुकूल;
सुंदर-सरस-मधाुर फलवाले हैं रसाल-से नहीं बबूल।
मुक्ता-मोल कोल क्या जाने, हैं न काक के पिक-से बोल;
हैं न कुंद खिलते कमलों-से, है न कनक-सा कनक अमोल।
सोच यही मैं सका न पहना किसी कंठ में अपना हार;
किसी कमल-कर में न पड़ा वह बना न कुल-ललना शृंगार।
निरवलंब-अवलंब तुम्हीं हो, इसे तुम्हीं लो प्रेमाधाार;
अकमनीय, कमनीय, सरस हो या असरस हो यह उपहार।
धाूल
धाूल बनी हूँ, धाूल रहूँ मैं, बदले बनूँ विमोहक फूल;
सुरभित कर-कर सरस पवन को मधाुप मधाुपता सकूँ न भूल।
अथवा नवल दूब-दल बन-बन खोलूँ दृगरंजन का द्वार;
मुक्ता मंजु ओस-बूँदें ले विरचूँ परम मनोहर हार।
सकल-लोक-लोचन जब आवें निज कर प्रात:काल पसार;
तो मैं विपुल पुलक-पूरित हो अर्पण करूँ प्रेम-उपहार।
श्यामल, ललित तृणावलि हो-हो सज्जित करूँ अवनि का अंक;
कर सेवा बहुप्राणिपुंज की हरती रहूँ कपाल-कलंक।
यदि वियोग-विधाुरा के ऑंसू तज मंजुल अनमोल कपोल;
बूँद-बूँद मुझ पर निपतित हों भूल-भूल मोती का मोल।
तो मैं उनसे विपुल सरस हो सरसित करूँ अंकगत बेलि;
जिनके कलित ललित किसलय में हो कमनीय कामना-केलि।
ऊँचे उठे भूतभावन के तन की बनूँ पुनीत विभूति;
जिसे विलोक लोक को होवे भव-महानुभवता-अनुभूति।
नीचे रहे लोक-पावन के पद-पंकज का बनूँ पराग;
जिससे विदित जगत को होवे पूजित पग-सेवन-अनुराग।
पद-प्रहार सह पतित कहाऊँ, पर न बनूँ जन-लोचन-शूल;
कंटक-कुल-जननी न कहाऊँ, हो न सकूँ महि के प्रतिकूल।
मैं हूँ तुच्छ, ज्ञान-विरहित हूँ, है न सहजतम सुंदर बोधा;
किंतु सकल जगतीतल-जीवन वांछित है, न अन्य अनुरोधा।
मनोव्यथा
बिछा है कूट-नीति का जाल,
कलह-कलकल है चारों ओर;
कालिमामय मानस का मौन
मचाता है कोलाहल घोर।
मंजु-पथ-मग्न सरोवर-हंस
बन गया परम कुटिल वक-काक;
जहाँ था पावन प्रेम-प्रवाह,
वहाँ है प्रबल पाप-परिपाक।
न करते हैं पुनीत रस-दान
सुर-सरित में विकसे अरविंद;
बसा है रच मायावी वेश
देव-सदनों में दानव-वृंद।
अधिाकतर है प्रतिहिंसा-धााम,
गरलमय है उसका आधाार;
जाति वैसी ही है निर्जीव,
सुधाा-धारा है नहीं सुधाार।
स्नेह का मृदुल, मंजुतम सूत्रा
हुआ कटुता-पटु कर से छिन्न;
अनय का सह-सह प्रबल प्रहार,
हित-सदन होता है उच्छिन्न।
जलन जी की ज्वालाएँ फेंक
लगाती है घर-घर में आग;
वमन करती है गरल अपार।
लाग बन-बनके काला नाग।
कुटिल-गति, विष-वदना, विकराल
साँपिनी-सी है उनकी नीति;
लाभ कर जो भव भूरि विभूति
दूर करते भारत की भीति।
जाति के जो हैं जीवन-मंत्रा,
सफलतामय है जिनका गात,
उन्हीं पर घिरे मोह का मेघ,
हो रहा है पल-पल पवि-पात।
पड़ी है भूल-भँवर में आज,
चल रहा है प्रतिकूल समीर;
डगमगाती है सुख की नाव,
दूर दिखलाता है सरि-तीर।
स्वर्ग-से नगर हो गये धवंस,
मिल गये रज में कंचन-धााम;
ललिततम लीलाओं की भूमि
काल-वश रही न लोक-ललाम।
हृदय-वेदना
हो रहा है गो-धान विधवंस,
कलपते हैं पय को कुल-लाल;
किसलिए गया सर्वथा भूल
गौरवित गोकुल को गोपाल!
भर गयी दानवता सब ओर,
बने मन मद-वारिधिा के मीन
मनुजता-श्रुति को कर रस-सिक्त
बजी मुरली मुरलीधार की न।
लोक लोलुपता में है लीन,
हो गया दूना दुख-संदोह;
बन गयी अवनी महा मलीन,
तजा क्यों मनमोहन ने मोह।
हो रहा है पल-पल पवि-पात,
बन गया काल-बदन विकराल;
कलंकित हुए सकल अकलंक,
कहाँ है आज कंस का काल।
हुआ जन-जन-जीवन रस-हीन,
सरसता नहीं श्याम अवदात;
विरस हो चली कामना-बेलि,
वारि बरसा कब वारिद गात।
कर रहा है कलि-काली-नाग
गरलमय रुचि रवि-तनया-धाार;
कर सका दूर नहीं दुख-द्वंद्व
लोक-अभिनंदन नंदकुमार।
गिरे हैं दुख-जल-मूसल-धाार,
घिरे परिताप-घन-जलद-जाल;
न अब तक सदय भाव गिरिराज
कर सका धाारण गिरिधार लाल!
कराता है पल-पल अपकार
परम अपकारी का अहमेव;
हुई क्यों दया दयामय की न,
हुआ क्यों द्रवित नहीं व्रज-देव।
महाभव-बंधान सका न टूट,
हो गयी मोहमयी मति कुंद;
गया है भूल मुक्ति का मंत्रा,
मुक्त करता क्यों नहीं मुकुंद।
तजी क्यों विपद-विमोचन-बान,
नहीं खुलते लोचन-अरविंद;
हुआ खल-वृंद बहु प्रबल आज,
देश को भूला क्यों गोविंद।
(4)
जातीय संगीत
विशाल भारत
विधिा-कांत- कर-सँवारा,
संसार का सहारा,
जय-जय विशाल भारत,
भुवनाभिराम प्यारा।
वर-वेद- गान-मुखरित,
उन्नत, उदार, सुचरित,
बहु पूत भूत पूजित
अनुभूत मंत्रा द्वारा।
सुर-सिध्द- वृंद-वंदित,
नंदन- वनाभिनंदित,
आनंद-मान्य- मंदिर,
सिंधाुर-वदन सुधारा।
जल-निधिा-सुता- सुलालित,
सुरसरि-सुवारि- पालित,
जग-वंदिनी- गिरा-गृह,
गिरिनंदिनी उबारा।
रवि-कर-निकर- मनोहर,
विधाु-कांति-कल- कलेवर,
सब दिव्यता-निकेतन,
दिवलोक का दुलारा।
मानस-सलिल- मनोरम,
मंजुल-मृदुल, मधाुरतम,
कंचन-अचल- अलंकृत,
भव-व्योम-भव्य-तारा।
सुंदर-विचार- सहचर,
सब रस परम रुचिर सर,
शुचि-रुचि-निकेत- केतन,
वर भाव कर उभारा।
सज्जन-समाज- पालक,
दुर्जन-समूह- घालक,
निर्बल-प्रबल- सहायक,
खल-दल-दलन-दुधारा।
सारी सुनीति-नायक,
जन-मुक्ति-गान- गायक,
सब सिध्दि चारु साधान,
सुख-साधा-सिध्द पारा।
नव-नव-विकास-विकसित,
मधाु-ऋतु-विभूति-विलसित,
मलयज-समीर- सेवित,
सिंचित-पियूष- धारा।
कुवलय-कलित सितासित,
खग-कुल-कलोल-पुलकित,
सज्जित वसुंधारा का
सौंदर्य-साज सारा।
कमनीयता- निमज्जित,
मणि-मंजु- रत्न-रंजित,
अवनी-ललाट- अंकित
सिंदूर-विंदु- न्यारा।
(5)
मंत्रा-साधान
सिध्दि-साधाना
कैसा आया समय, बदला काल का रंग कैसा,
होती जाती भरत-भुवि की आज कैसी दशा है;
ऑंखें खोलें विबुधा-समझें देश की सर्व बातें,
सोचें होके प्रयत, युग के धार्म का मर्म क्या है।
आशा होवे उदय उर में, दूर नैराश्य होवे,
सूझें सारे सुपथ, सफला युक्तियाँ हाें हमारी;
ऐसे बाँधों नियम, जिससे कालिमा दूर होवे,
आभावाले सकल दृग हों, ज्योति फैले जनों में।
प्यारी संख्या प्रतिदिवस है जाति की न्यून होती,
संतप्ता हो दुख-उदधिा में मग्न जातीयता है;
छीने जाते हृदय-धान हैं, पत्नियाँ छूटती हैं,
सोने-जैसा सुख-सदन है प्रायश: दग्धा होता।
ढाहे जाते सुर-सदन हैं, मूर्तियाँ टूटती हैं,
बाधाा होती अधिाकतर है पर्व औ’ उत्सवों में;
काँटे जाते प्रथित पथ में चाव से हैं बिछाए,
न्यारी शोभा-रहित नित है नंदनोद्यान होता।
की जाती हैं विफल छल से सिंधाुजा की कलाएँ,
टूटी-सी है परम मधाुरा भारती की सुवीणा;
क्रीड़ा द्वारा कलुषित बनी मंजु मंदाकिनी है,
लूटा जाता धानद-धान है, स्वर्ग है धवंस होता।
तो भी होता कलह नित है, वैर है वृध्दि पाता,
सद्भावों के सुमन-चय में हैं घुसे दंम-कीट;
सच्चिता की ललित लतिका हो गयी छिन्न-मूला,
उल्लासों के विपुल विटपी पुष्प ही हैं न लाते।
धार्मों की है निपतित धवजा, सत्यता वंचिता है,
हैं शास्त्राों की सबल विधिायाँ रूढ़ियों से विपन्ना;
सत्कर्मों की प्रगति बदली लोक-आडम्बरों से,
मोहों द्वारा बहु मथित हो आर्यता मर्ूच्छिता है।
वेदों की है अतुल महिमा, मंत्रा हैं सिध्दि-मंत्रा,
धााता-जैसी सृजन-पटु हैं उक्तियाँ आगमों की;
भूविख्याता पतित जनता-पावनी जाद्दवी है,
आर्यों के हैं सुअन, हममें कौन-सी न्यूनता है।
सच्ची शिक्षा सतत चित की उच्चता हैं सिखाती,
सद्वांछा है विदित करती-त्याग संकीर्णता दो;
उद्बोधाों के विपुल मुख से है यही नाद होता-
जागो-जागो, कटि कस उठो, काल की क्रान्ति देखो।
जो लोहू है गरम, यदि है गात में शेष शक्ति,
जो थोड़ी भी हृदय-तल में धार्म की वेदना है;
हो जाता है चित व्यथित जो जाति-उत्पीड़नों से,
तो हो जाओ सजग, सँभलो, सिध्दि का मंत्रा साधाो।
त्याग
भयंकर-भाव-विभव-अभिभूत,
स्वार्थ-तम-तोम-आवरित ओक,
लाभ करता है ललित विकास
त्याग-रवि तेज-पुंज अवलोक।
गृह-कलह-बेलि कठोर कुठार,
जाति-गत वैर-पयोद समीर,
निवारण-रत समाज-संताप
त्याग है सुरसरि शीतल नीर।
कालिमामय जिसका है अंक,
तिमिर-मज्जित है जिसका गात,
उस कुमति-रजनी का है त्याग
राग-अनुरंजित दिव्य प्रभात।
हो रहा है जिसके प्रतिकूल
काल का प्रबल प्रवाहित òोत,
दुख-जलधिा-निपतित है जो देश
त्याग है उसका अनुपम पोत।
सुजनता-सरसी सुंदर वारि,
संत मत कलित कपाल सुअंक,
त्याग है सुरुचि-कमलिनी भानु,
साधाुता – राका – निशा – मयंक।
मुग्धा होता है मानस-भृंग,
मिले उसका कमनीय सुवास,
बनाता है उर-सर को मंजु
त्याग सरसिज का सरस विकास।
सदा सुख-पय करता है पान,
चल अवनि-जन-मन-रंजन चाल,
चुग रुचिर गौरव-मोती चारु
नारि-मानस-गत त्याग-मराल।
बरसता है गृह-सुख वर-वारि,
प्राणि-शिखि-कुल को वितर विनोद,
पति प्रमुद सर को कर रस-धााम,
नारि-जीवन-नभ त्याग-पयोद।
बना दम्पति-सुख-तरु को कांत,
कर कलह-पीत-विपुल-दल अंत।
सजाता है सनेह उद्यान,
नारि-उर विलसित त्याग-वसंत।
मुक्तिमय सुन जिसकी झंकार
बने कितने परतंत्रा स्वतंत्रा,
भरित जिसमें है पर-हित-नाद,
त्याग वह है वर-वादन-यंत्रा।
सफलतामय है साधान-सूत्रा,
अमायिकता है जिसका तंत्रा,
मुग्धा जिस पर है सिध्दि समूह,
त्याग वह है जग-मोहन मंत्रा।
विमलतम भाव-मयंक-निकेत,
भूतिमय पूत विभव रवि धााम,
है रुचिर चिंतन-तारक-ओक,
त्याग का नभतल लोक ललाम।
प्रकाशित उससे है पाताल,
प्रभामय है उससे मृत लोक,
सुर-सदन का है रत्न प्रदीप,
त्याग है तीन-लोक-आलोक।
वे समझते हैं उसको वंद्य,
लोक-हित जिनका है अपवर्ग;
देव-पूजित दधाीचि से सिध्द
त्याग पर होते हैं उत्सर्ग।
देश-हित-पथ का प्रिय पाथेय,
समुन्नति-निधिा का सहज निजस्व,
भव-विपुल-विभव-परम अवलंब,
त्याग है जन-जीवन-सर्वस्व।
त्याग भूमि
बन गया मूर्तिमान आतंक
बहु प्रबल भूत पाप-परिपाक;
सत्यता-सूत्रा हो गया छिन्न;
धाूल में मिली धार्म की धााक।
किंतु किसके खुल पाए नेत्रा,
किया किस जन ने उसका त्रााण,
बिंधा किस धर्म वीर का मर्म,
दिया किस धर्म-प्राण ने प्राण।
पूजता जिसको निर्जर-वृंद,
अब कलुष-जर्जर है वह जाति;
नरक-दुख का वह बना निकेत,
स्वर्ग-जैसी जिसमें थी शांति।
देख, यह कौन हुआ कटिबध्द,
किया किस जन ने कर्म महान;
हो गया सत्य भाव से कौन
त्याग-बलि-वेदी पर बलिदान।
जहाँ थे साम्यवाद के सिध्द,
जहाँ का था स्वतंत्राता-मंत्रा;
वहन कर पराधाीनता-वृत्तिा
वहाँ का जन-जन है परतंत्रा।
पर इसे कौन सका अवलोक,
आज भी निद्रा हुई न भंग;
न संकट-पोत कर सकी भग्न
त्याग-जल-निधिा-उत्ताल तरंग।
लोक-प्रियता है विदलितप्राय,
है प्रबल भूत विविधा परिताप;
आर्य-गौरव-रवि है गत-तेज,
काल-कवलित है कीर्ति-कलाप।
खड़े हो सके न तो भी कान,
गर्म हो सका न तो भी रक्त;
रगों में सकी न बिजली दौड़,
हुआ उर शतधाा नहीं विभक्त।
हुआ खंडित मणि-मंडित क्रीट,
हो गया छिन्न रत्न-चय-हार;
छिन गया पारस बहु-श्रम-प्राप्त,
लुटा कनकाचल-सम संभार।
कर सका कौन आत्म-उत्सर्ग,
किया किसने उर-रक्त प्रदान;
जाति देकर कपाल की माल
कर सकी कब शिव का सम्मान।
देश जिससे बनता है स्वर्ग,
कहाँ है उर में वह अनुराग;
त्यागियों का सुनते हैं नाम,
कहाँ है त्याग भूमि में त्याग।
शिक्षा का उपयोग
शिक्षा है सब काल कल्प-लतिका-सम न्यारी;
कामद, सरस महान, सुधाा-सिंचित, अति प्यारी।
शिक्षा है वह धारा, बहा जिस पर रस-सोता;
शिक्षा है वह कला, कलित जिससे जग होता।
है शिक्षा सुरसरि-धाार वह, जो करती है पूततम;
है शिक्षा वह रवि की किरण, जो हरती है हृदय-तम।
क्या ऐसी ही सुफलदायिनी है अब शिक्षा?
क्या अब वह है बनी नहीं भिक्षुक की भिक्षा?
क्या अब है वह नहीं दासता-बेड़ी कसती?
क्या न पतन के पाप-पंक में है वह फँसती?
क्या वह सोने के सदन को नहीं मिलाती धाूल में?
क्या बनकर कीट नहीं बसी वह भारत-हित-फूल में?
प्रतिदिन शिक्षित युवक-वृंद हैं बढ़ते जाते;
पर उनमें हम कहाँ जाति-ममता हैं पाते?
उनमें सच्चा त्याग कहाँ पर हमें दिखाया?
देश-दशा अवलोक वदन किसका कुम्हलाया?
दिखलाकर सच्ची वेदना कौन कर सका चित द्रवित;
किसके गौरव से हो सकी भारतमाता गौरवित।
अपनी ऑंखें बंद नहीं मैंने कर ली हैं;
वे कंदीलें लखीं जो कि तम-मधय बली हैं।
वे माई के लाल नहीं मुझको भूले हैं।
सूखे सर में जो सरोज-जैसे फूले हैं।
कितनी ऑंखें हैं लगीं जिन पर आकुलता-सहित;
है जिनकी सुंदर सुरभि से सारा भारत सौरभित।
किंतु कहूँगा काम हुआ है अब तक जितना;
वह है किसी सरोवर की कुछ बूँदों-इतना।
जो शाला कल्पना-नयन-सामने खड़ी है;
अब तक तो उसकी केवल नींव ही पड़ी है।
अब तक उसका कल का कढ़ा लघुतम अंकुर ही पला;
हम हैं विलोकना चाहते जिस तरु को फूला-फला।
प्यारे छात्रा समूह, देश के सच्चे संबल,
साहस के आधाार, सफलता-लता-दिव्य-फल,
आप सबों ने की हैं सब शिक्षाएँ पूरी;
पाया वांछित ओक दूर कर सारी दूरी।
अब कर्म-क्षेत्रा है सामने, कर्म करें, आगे बढ़ें;
कमनीय कीर्ति से कलित बन गौरव-गिरिवर पर चढ़ें।
है शिक्षा-उपयोग यही जीवन-व्रत पालें;
जहाँ तिमिर है, वहाँ ज्ञान का दीपक बालें।
तपी भूमि पर जलद-तुल्य शीतल जल बरसे;
पारस बन-बन लौहभूत मानस को परसें;
सब देश-प्रेमिकों की सुनें, जो सहना हो वह सहें;
उनके पथ में काँटे पड़े हृदय बिछा देते रहें।
प्रभो, हमारे युवक-वृंद निजता पहचानें;
शिक्षा के महनीय मंत्रा की महिमा जानें।
साधान कर-कर सकल सिध्दि के साधान होवें;
जो धाब्बे हैं लगे, धौर्य से उनको धाोवें।
सब काल सफलताएँ मिलें, सारी बाधााएँ टलें;
वे अभिमत फल पाते रहें, चिर दिन तक फूलें-फलें।
शक्ति
जिसे है मानवता का ज्ञान,
नहीं पशुता से जिसकी प्रीति;
बिना त्यागे विनयन का पंथ
लोक-नियमन है जिसकी नीति।
क्रोधा जिसका है शांति-निकेत,
लोभ जिसका लालसा-विहीन;
मोह जिसका है महिमावान,
काम जिसका अकामनाधाीन।
न मद में मादकता का नाम,
न तन में अतन-ताप का लेश;
रूप जिसका है लोक-ललाम,
अवनि-रंजन है जिसका वेश।
न मस्तक पर कलंक का अंक,
न जिसका लहू भरा है हाथ;
बिहरती रहती है सब काल
लोक-लालनता जिसके साथ।
जलद-सम कर जन-जन को सिक्त,
रस बरसती जिसकी अनुरक्ति;
भरा है जिसमें भव का प्यार,
वही है विश्व-विजयिनी शक्ति।
(6)
प्रकृति-प्रमोद
मधाु-मत्ता
नया रस भव में सरसाया;
छलककर छिति-तल में छाया।
सरस होकर रसाल बौरे,
बनी किंशुकता मतवाली;
लाल फूलों में विलसित हुई
मत्ता करनेवाली लाली।
लता-दल पुलकित दिखलाया।
फूल हैं मुँह खोले हँसते,
विकसिती जाती हैं कलियाँ;
धारा को मादकता से भर
मना हैें रहे रंगरलियाँ।
देख कुसुमायुधा ललचाया।
झूमते-झुकते हैं भौंरे,
घूमते हैं मतवाले बन;
गूँजते हैं नव मधाु पीकर,
चूमते हैं कुसुमों का तन।
संग भ्रमरी का है भाया।
कूकता है निशि-दिन कोकिल,
दिशा है कलित काकलीमय;
समद है मंद-मंद बहता
मलय-मारुत बन मोद-निलय।
परिमलित कर मंजुल काया।
तरंगें उठीं अखिल उर में
पिए रस आसव का प्याला;
क्यों न हो अनुरंजित मानस,
बन उमग तरु मधाुमय थाला।
है सरस समय रंग लाया।
वसंत
चावमय लोचन का है चोर
नवल पल्लवमय तरु अभिराम;
प्रलोभन का है लोलुप भाव,
ललित लतिका का रूप ललाम।
मनोहरता होती है मत्ता
मंजरी-मंजुलता अवलोक;
हृदय होता है परम प्रफुल्ल
कुसुम-कुल-उत्फुल्लता विलोक।
कान में पड़ती है रस-धाार
सुने कोकिल का कल आलाप;
रसिकता बनी सरसता-धााम
देखि अलि-कुल का कार्य-कलाप।
सुरभिमय बनता है सब ओक
हुए मलयानिल का संचार;
भूरि छवि पा जाती है भूमि
पहन सज्जित सुमनों का हार।
गगन-तल होता है सुप्रसन्न
लाभ कर विमल मयंक-विकास;
विहँसती सित-वसना, सित-गात
सिता आती है भूतल-पास।
भव मधाुर नव-जीवन-आधाार,
लोक-कमनीय विभूति-निवास;
है प्रकृति-नवल-वधाू-शृंगार
सुविलसित सरस वसंत-विलास।
मधाुर विकास
गगन-तल क्यों निर्मल हो गया?
नीलिमा क्यों है भरित उमंग?
लोक-मोहन क्यों इतना बना
आज दिन उसका श्यामल रंग।
सभी को कर देने को सरस
किसलिए हुआ चौगुना चाव;
वारिधार मंजु वारि कर वहन
कर गया क्यों छिति पर छिड़काव।
बहुत क्यों हरा-भरा हो गया
पहन सुंदर फूलों का ताज;
मोतियों से सजकर है खड़ा
किसलिए नाना विटप-समाज।
बिछाई किसने है किसलिए
रजत-राजित चादर कर प्यार;
वहन कर निर्मल मंजुल सलिल
क्यों हुए सरि-सर सरस अपार।
किसलिए अनुरंजित बन भूरि
विपुलता से विकसे अरविंद;
बरसते हैं क्यों सुमन-समूह,
विलसते पारिजात-तरु-वृंद।
चंद्रिका-से हो करके चारु
किया है उसने क्यों शृंगार;
पहन रजनी ने क्यों है लिया
तारकावलि हीरक का हार।
किसलिए कोने-कोने मधय
उमड़ता पड़ता है आनंद;
दिशा है मंद-मंद हँस रही
देखने को किसका मुख-चंद।
बनाता है क्यों भू को भव्य
कौन-सा भव का भाव-विलास;
क्यों कहें, है किसका सर्वस्व
सित शरद का कमनीय विकास।
वर्षाकालिक सांधय गगन
संधया काल विरल घनावृत गगन
जहाँ-तहाँ पुंजीभूत अंजन अपार;
तिरोभूत विंदुपात मंदीभूत वायु,
हो चुका था बंद वृष्टि अवारित द्वार।
अस्तप्राय दिनमणि मंजु अंशु-जाल,
विरच रहा था बार-बार बहु चित्रा;
सुषमा-सदन ले-ले छिन्नभूत घन
नाना केलि करता था बनके विचित्रा।
उस काल अवलोक वारिवाह-व्यूह
सुरंजित आलोकित बहु वर्ण गात;
होता था विदित खुले विबुधा विमान
नाना रूप नाना रंग नाना अवदात।
कभी होता अवगत अमर-कुमार,
उमग उड़ा रहे हैं विविधा पतंग।
अथवा विशाल व्योम वारिनिधिा-मधय
विलस रही है बहु उत्ताल तरंग।
सोचता कभी था चित्ता, सुखाने के लिए
फैलाए गये हैं लोक-सुंदरी के पट;
किंवा हुए प्रदर्शित प्रमोद सदन
किसी चित्राकार के प्रचुर चित्रापट।
ऐसे हैं प्रतीत होते, मोहते हैं मन
घन के किनारे हो-हो किरण-कलित;
मानो सारी प्रकृति-वधूटी की असित
लैस के लगाए बनी बड़ी ही ललित।
कभी बहुरंजित विरच इंद्र-धानु
घन को पिन्हाती रत्न-खचित मुकुट;
किरण सँवारती दिगंगना-वसन
कभी दे-दे सप्तरंग द्वारा दिव्य पुट।
पा के उसे बनता था पुरहूत-चाप
स्वर्ग-द्वार-विलसित सुबंदनवार;
रंगिणी कादंबिनी सुलालित सुअन
लोक-कमनीयता-कामिनी का शृंगार।
पश्चिम दिशा में दिव्य दीर्घकाल घन
हो-होकर कनकाभ-किरण-कलित
बनता था प्रज्वलित पावक-समान
किंवा किसी स्वर्गिक विभूति से वलित।
उसे अवलोक यह होता था विचार,
हुई है प्रतीची जात रूप से जटित;
अथवा कनक-मेरु कांततम बन
हुआ है क्षितिज मंजुता में प्रकटित।
अंत हुए दिवस चिता की जगी आग,
किंवा हुआ एकत्रिात विद्युत-विकास;
तमोमयी रजनी समागत विलोक
किंवा केंद्रीभूत बना परम प्रकाश।
अंकगत दिवामणि अस्त अवलोक
प्रतीची-हृदय ज्वाला हुई प्रस्फुटित;
अथवा सहòकर-सहाय-निमित्ता
दिवलोक दिव्य आभा हुई संघटित।
अथवा है यह वह आलोक-भांडार,
आलोकित जिससे है मेदिनी का अंक;
पाके जिसे द्युतिमान बने हैं खद्योत,
जिसकी विभा से विभावान है मयंक।
काले घन-दनुजात-दहन-निमित्ता
रवि न चलाए हैं अमित अग्नि-बाण;
अथवा त्रिादश समवेत तेज:पुंज
करता है व्योम रमणीय मणि त्रााण।
रमा का है रत्न-कांत कनक-भवन,
किंवा है दमकता प्रकृति-भव्य-भाल;
विकसा गगन-सर में है स्वर्ण-पद्म,
किंवा किसी ज्वालामुखी की है ज्वाल-माल।
परिजात
बड़े मनोहर हरे-हरे दल किससे तुमने पाए हैं?
तुम्हें देखकर के मेरे दृग क्यों इतने ललचाए हैं?
कहाँ मिल गये इतने तुमको, क्यों ये इतने प्यारे हैं?
किसके सुंदर हाथों ने ये सुंदर फूल सँवारे हैं?
जब सित, पीत रंग कि खिलते फूल तुम्हें मिल जाते हैं,
जब निखरी हरियाली में ये अपनी छटा दिखाते हैं,
तब किसको हैं नहीं मोहते, किसको नहीं लुभाते हैं?
प्याला किसी निराले रस का किसको नहीं पिलाते हैं?
मंद पवन को सुरभि दान कर क्यों सुगंधा फैलाते हो?
किसके स्वागत के निमित्ता तुम भू पर फूल बिछाते हो?
किन कमनीय कामनाओं से सुमनों से भर जाते हो?
क्या शरदागम अवलोकन कर फूले नहीं समाते हो?
किन रीझों से रीझ रहे हो, क्यों उमंग में आते हो?
अपने अंतर्भावों को क्यों कुसुमित कर दिखलाते हो?
क्या प्रिय पावस की सुधिा करके परम सरस बन जाते हो?
मंजु वारि वे बरसाते, तो तुम प्रसून बरसाते हो।
देख चमकते तारक-चय को निर्मल नील गगनतल में
उनको प्रतिबिंबित अवलोके स्वच्छ सरोवर के जल में।
धाारण की है क्या वैसी ही छवि तुमने वसुधाातल में
श्वेत-सुमन-कुल को संचय कर निज कोमल श्यामल दल में?
छिटक-छिटक चाँदनी सुधाा-रस जब भू पर बरसावेगी,
लोक-रंजनी रजनी जब अनुरंजन करती आवेगी,
मंद-मंद हँस रसमय बनता जब मयंक को पाओगे,
क्या तब उन्हें सुमनता दिखला सुमन-माल पहनाओगे?
जब अनुराग-राग से रंजित होकर ऊषा आती है,
जब विहंग गाने लगते हैं, नभ में लाली छाती है,
तब क्यों सुमन-समूह गिराकर भूतल को भर देते हो?
क्या रवि का अभिनंदन करके कीर्ति लोक में लेते हो?
जिस धारती माता ने तुमको जन्म दिया, पोसा-पाला,
पिला-पिलाकर जीवन जिसने जड़ तन में जीवन डाला,
क्या उसके आराधान ही को है यह सारा आयोजन?
क्या ले कुसुम-समूह उसी के पग का करते हो अर्चन?
फूल तुम्हारे किसलय के-से कर से सदा चुने जावें;
वसन किसी के रँगे कंबु-से कंठों में शोभा पावें,
पारिजात, प्रतिदिन बिखेरती रहे ओस तुम पर मोती;
पाकर शरद सब दिनों फूलो, दिशा रहे सुरभित होती।
बहुरंगी फूल (गुल हजशरा)
इनके-ऐसे नयन विमोहन सुमन कहाँ अवलोके;
‘लोक-ललाम’ गात में किसके बसे ललिततम होके?
इनके-जैसी सहज विकचता मृदुता किसने पाई;
किसके अंतर में इतनी जन-रंजनता दिखलाई?
रंग-बिरंगे हैं इतने, है रंगत इतनी प्यारी,
जिससे विविधा कुसुम से विलसित बन जाती है क्यारी।
किसको नहीं लुभा लेती है लाल फूल की लाली?
देख अबीरी फूलों को रुचि होती है मतवाली।
उजले फूलों का उजलापन करता है उजियाला;
देख गुलाबी फूल छलक उठता है रस का प्याला।
लाल चिट लगे सित कुसुमावलि दल छवि जब अधिाकाती;
प्रकृति-वधाूटी के कर की तब कारु क्रिया दिखलाती।
इन फूलों में एक फूल जब लाल रंग का खिलता।
तब विनोद-रंगालय में मन नर्तन करता मिलता।
इस प्रसून का पौधाा जब फूलों से है लस जाता,
हरित दलों की हरियाली में जब रंगतें दिखाता,
तब ऐसी क्षितितल-विमोहिनी छटा लाभ है करता,
जिसको देख मुग्धा अलि-सा बन नयन भाँवरे भरता।
यह कुसुमित तरु इंद्र-चाप से चारु रंग है पाता;
या है इंद्र-चाप ही इसकी रुचिकर कांति चुराता।
या पाकर पावस दोनों ही हैं उमंग में आते;
गगन-अवनि में होड़ लगाकर हैं निज समाँ दिखाते।
इनके चारों ओर तितिलियाँ हैं फिरती दिखलाती;
अथवा इनके निकट निज छटा दिखलाने हैं आती।
किंवा बार-बार चुम्बन कर ये हैं इनको ठगती?
इनके तन की रंगत ले-ले अपना तन है रँगती।
मोती ले-लेकर के रजनी यदि है इन्हें सजाती?
तो रवि-किरण भोर होते ही मणि-माला पहनाती।
इन्हें समीर प्यार के पलने पर है पुलक झुलाता;
दिनकर अपने कलित करों से प्रतिदिन है रँग जाता।
अवनी इन्हें अंक में लेकर फूली नहीं समाती;
चहक-चहककर खग-माला है सुंदर गान सुनाती।
ऐसे अनुपम छविमय सुमनों ने है सुरभि न पाई;
गिने हुए हैं जीवन के दिन यह कैसी दानाई?
भव की इन प्रवंचनाओं को हम कैसे बतलाएँ;
अहह! विधााता की विधिा में हैं क्यों ऐसी बाधााएँ?
(7)
सूक्ति-समुच्चय
प्रकृत पाठ
प्यारे बालक! नयन खोल सब ओर विलोको;
दिव्य भाव से भरे भव-विभव को अवलोको,
बहु सज्जित तरु-पुंज, फल-भरी उनकी डाली,
परम मनोहर छटा, नयन-रंजन हरियाली।
मंजु रंग में रँगे सुरभि से मुग्धा बनाते;
विकसे नाना फूल मधाुर हँसते, सरसाते,
चित्रा-विचित्रा विहंग कलित कंठता दिखाते;
करते विविधा कलोल, गान स्वर्गीय सुनाते।
क्या नयनों में नहीं ज्ञान की ज्योति जगाते?
क्या कानों में नहीं सुधाा-बूँदें टपकाते?
क्या न हृदय की कलिका है उनसे खिल पाती?
रस की धारा क्या न उरों में है बह जाती?
मंद-मंद चल सरस पवन जब है तन छूती,
जब बनती है सुरभि वितर सुरपुर की दूती,
तरु-दल उसके कलित अंक में हैं जब हिलते,
उसके चुंबन किए जब कुसुम-कुल हैं खिलते।
तब क्या नहीं अनंत दयामय की यह धााती
है जग-जन को पूत प्रेम का पाठ पढ़ाती?
तब क्या बहती हुई लोक में भव-हित-धारा
नहीं सिखाती सरस हृदय का हित व्रत सारा?
जब आती है रात ओढ़कर चादर काली,
जग-विराम की लिये हाथ में सुंदर ताली,
जब घूँघट को खोल विधाुवदन है दिखलाती,
जब दृग से है ओस-बूँद-मिष वारि बहाती।
तब क्या जगत-प्रपंच नहीं है सम्मुख आता?
तब क्या दुख-सुख-चित्रा नहीं चित्रिात हो जाता?
तब तम पर क्या नहीं ज्योति है गरिमा पाती?
क्या करुणा है पापमयी में नहीं दिखाती?
घनमाला जब घूम-घूम है नभ में छाती,
सूखे को कर सरस वारि जब है बरसाती,
तरु-तृण तक को सींच ताप महि का है खोती,
जब देती है सिंधाु-सीप को सुंदर मोती।
तब क्या सबको द्रवणशीलता नहीं सिखाती?
क्या न भूत-हित-साधान का है सूत्रा बताती?
क्या न परम गंभीर नाद से है यह कहती-
”बनो तरल, उर हरो भव-पिपासाएँ महती?”
ऐसे प्यार प्रकृत पाठ हैं सब दिन पाते
वे बालक जो प्रकृति-देवि-पद हैं अपनाते,
रज-कण तक में भरी हुई है शिक्षा प्यारी;
हैं उसके सब खुले नयनवाले अधिाकारी।
कामना
उपजे महारथी प्रभु कोई;
हरे भार भारत-भूतल का भूति लाभ कर खोई।
अनुपम साहस-सलिल-धाार से जाय हित-धारा धाोई;
उलहे बेलि अलौकिक यश की विजय-अवनि में बोई।
पुलकित बने अपुलकित रह-रह विपुल प्रजा बहु रोई;
आशा-उषा राग-रंजित हो जागे जनता सोई।
तंत्राी के तार
टूट गये तंत्राी के तार;
रही नहीं अब वह स्वर-लहरी, रही नहीं अब वह झंकार।
कुसुमोपम मृदु उँगली से छिड़ नहीं बरसते हैं रस-धाार;
हैं प्रदान करते न पवन को मुग्धाकरी धवनि मधुर अपार।
हैं न कान को सुधाा पिलाते, हैं न हृदय हरते प्रति बार;
हैं न सुनाते सरस रागिनी, बनते हैं न सरसता-सार।
हैं न उमंगित करते मानस, हैं न तरंगित चित आधाार;
हैं न बहाते वसुधाातल में रसमय उर के सोत उदार।
मर्म-व्यथा
बिखर रहा है चंद हमारा।
सकल-लोक-मानस-अवलंबन, जगतीतल-लोचन का तारा;
राका-रजनि-अंक-अनुरंजन है आवरित निविड़ घन द्वारा।
है हो रहा अकांत कांत तन बहु नीरस सरसित रस-धारा;
अधाम सिंहिकानंदन से है अवनीतल-अभिनंदन हारा।
सुधाा-धााम है सुधा-विहीन-सा, मुद-विहीन है कुमुद-सहारा;
पानिप-हीन आज है होता प्रतिपल पाथ-नाथ-सुत प्यारा।
तदपि गगनतल है न विकंपित, अतुलित व्यथित न कोई तारा;
अहह रसातल है सिधाारता भव-वल्लभ, दिवलोक-दुलारा!
सम्मान
बरस जाती है रुचिकर वारि
विनय की मधाुर वचन की खोज;
मिले निर्मल-उर-रवि-कर मंजु
विलसता है सम्मान-सरोज।
नहीं होता कीने के पास
अछूते आव-भगत का वास;
बुझी कब बिना समादर-ओस
किसी सम्मान-सुमन की प्यास?
ललित हो क्यों पाता सुविकास
स्नेहमय मधाुर मिलन नभ अंक।
मधाुरता-सुधाा बरसता कौन
बिना सरसे सम्मान-मयंक?
दंभ का देखे असरस भाव
ठहरती कैसे सुमति समीप;
क्यों न घिरता अविनय-तम-तोम,
है न बलता सम्मान-प्रदीप।
पड़ी पत्ताों-फूलों पर ऑंख,
मूल को सका न मन पहचान;
क्यों बने सफल कामना-बेलि,
मिल सका नहीं सलिल-सम्मान।
मैं क्या हूँ
मैं मिट्टी से हूँ बना, किंतु हूँ सोना;
हूँ धाूल, फूल बनकर करता हूँ टोना।
मैं पानी का हूँ बूँद, किंतु हूँ मोती;
मैं हूँ मानव, पर हूँ सुरगुरु का गोती।
मैं मर हँ, किंतु अमर है मेरी सत्ता;
हूँ तरु-जीवन-आधाार, किंतु हूँ पत्ता।
हूँ विदित गरलवर, किंतु मंजु मणिधार हूँ;
हूँ परम कलंकी, किंतु कांत निशिकर हूँ।
यद्यपि हूँ पंक-प्रसूत, पंकज हूँ;
हूँ सरसीरुह-संजात, किंतु मैं अज हूँ।
पाहन द्वारा हूँ रचित, किंतु हूँ सुमनस;
मैं हूँ पर्वत-संभूत, किंतु हूँ पारस।
हूँ तमोमयी खनि-जनित, किंतु हूँ हीरा;
हूँ विविधा-स्वाद-सर्वस्व, किंतु हूँ जीरा।
हूँ दारुशरीरी, किंतु मलय-चंदन हूँ;
हूँ सरि-संभव, पर मैं सुरसरि-नंदन हूँ।
हूँ पशु परंतु हूँ कामधोनु-सा प्यारा;
हूँ असित-गात, पर हूँ ऑंखों का तारा।
हूँ तरु, परंतु सुर-तरु-समान हूँ आला,
हूँ काँच, किंतु हूँ सरस सुधाा का प्याला।
सौंदर्य
कांत रविकर-किरीट कमनीय,
अलंकृत ओस-युक्त मणि-माल,
विपुल स्वर्गीय विभूति-निकेत,
कुसुम-कुल-विलसित प्रात:काल।
उषा का जग-अनुरंजन राग,
दिग्वधाू का विमुग्धाकर हास,
पुरातन है, पर है अति दिव्य,
और है भव-सौंदर्य-विकास।
लोक का मूर्तिमान आनंद,
अवनितल परम अलौकिक लाल,
बहु विकच सुमन-समान प्रफुल्ल
विहँसता भोला-भाला बाल।
प्रतिदिवस के विकसे अरविंद,
तरु-निचय किसलय ललित ललाम,
नवल हैं, पर हैं रम्य नितांत,
वरन हैं अखिल-भुवन-अभिराम।
विश्व-जन-मोहन है सौंदर्य,
हृदयतल – अभिनंदन – आधाार,
मधाुरतम-मंजु सुधाा-रस-सिक्त,
सरसता-युवती का शृंगार।
किसी जग ज्योतिमयी की ज्योति
इसी में लोचन सका विलोक;
इसी में मिलता है सब काल
लोक को सकल-लोक-आलोक।
किंतु उसका अनुपम प्रतिबिंब
कुछ हृदय-मलिन मुकुर में आज
नहीं प्रतिबिंबित होता अल्प,
मलिनता के हैं नाना व्याज।
सुनाता है कल वेणु-निनाद,
सुशोभित है कालिंदी-कूल;
ललित लहरें हैं नर्तनशील,
हँस रहे हैं मुख खोले फूल।
मत्ताता छाई है सब ओर,
हो रहा है रस का संचार;
बरसते हैं सुर सुमन-समूह,
खुल गया है सुर-पुर का द्वार
कल्पना है यह अति कमनीय,
सुधाा-सर की है रुचिर तरंग;
पर न होंगे कुछ हृदय विमुग्धा,
क्योंकि यह है प्राचीन प्रसंग;
हो रहा है अतीत संगीत,
छिड़ रहा है बहु मोहक तार;
बना है मुखर मुग्धाता-मौन,
सुनाती है वीणा झंकार।
किंतु हैं कतिपय ऐसे कान,
नहीं है जिनको इनसे प्यार;
सरस को करता है रस-हीन
किसी छाया का क्षोभ अपार।
रूप रमणी का है रमणीय,
लोक-मोहकता का है सार;
है प्रकृति-भाल रुचिर सिंदूर
काम-कामुकता का आधाार।
कलाधार कलित कांति अवलंब,
कुसुम-कुल-निधिा है उसका हास;
जग सृजन रंजन का सर्वस्व
है वनजवदनी विविधा विलास।
भावमय रचनाएँ हैं भूरि,
हुआ जिनमें इनका सुविकास;
किंतु कुछ रुचियाँ हैं प्रतिकूल,
उन्हें कहती हैं कुरुचि-निवास।
अलौकिक रस-लोलुप कुछ भृंग
गूँजते हैं करके मधाु पान;
लाभ कर कतिपय नवल प्रसून
सज रहा है प्रमोद उद्यान।
कुछ विहग हो-हो विपुल विमुग्धा
गा रहे हैं गौरवमय राग;
उक्ति अनुपम प्यालों के मधय
छलक है रहा हृदय-अनुराग।
किंतु कुछ मानस हैं न प्रसन्न,
मोह से हो-होकर अभिभूत;
सकल भावों में लगी विलोक
न-जाने किस छाया की छूत।
उन्हीं का है यह अमधाुर भाव,
जिन्हें है सहृदयता-अभिमान;
हो रहा है वंचित रस बोधा
रसिकता को सिकता अनुमान।
सुनाते फिरते हैं जो लोग
सत्य, शिव, सुंदर का शुभ राग;
वे करें क्यों ऑंखें कर बंद
विविधा सुंदर भावों का त्याग।
अमंजुल उर का है यह मोह,
मानसिक रुज का है यह रोष,
बनेगा क्या मकरंद-विहीन
मधाुरिमा-कांत कमल का कोष।
घुसे क्यों कलित कुसुम में कीट,
रहे क्यों अकलंकित न मयंक;
लाभ क्यों करे मलिन कल्लोल
पूत-सलिला सुरसरि का अंक।
कंटकित सुमन-समूह-मरंद
पान करता है मुग्धा मिलिंद;
कहीं भी मिले क्यों न सौंदर्य,
तजे क्यों उसको सहृदय वृंद?
असहृदयता
है वही रंगमंच कवि-कर्म
जहाँ पर प्रकृति-नटी सब काल
दिखाकर रंग परम रमणीय
लुटाती है रत्नों का थाल।
यही है वह अनुपम उद्यान,
जहाँ खिलते हैं भाव-प्रसून;
यही है वह महान रस-òोत,
जिसे अरसिक सकता है छू न।
यही है सहृदयता-सर्वस्व,
रसिकता-रजनी-अमल-मयंक;
लोक-प्रतिभा-सरि-सलिल-प्रवाह,
भावना-भव्य-भाल का अंक।
रुचिर रुचिकर रचना का मूल
यही है ललित कला का ओक;
यही है रस नभ-तारक-वृंद,
इसी से सज्जित है सुरलोक।
इसी सरसिज का कर रस पान
मत्ता होता है मानस-भृंग;
इसी रवि की आभा कर लाभ
दमकता है गौरव-गिरि-शृंग।
किंतु कुछ मलिन मन-मुकुर-मधय
नहीं पड़ता उसका प्रतिबिम्ब;
हो गये रुचि विकार संचार,
आम्र समझा जाता है निंब।
कभी करता है विविधा प्रपंच
प्रवंचक प्राचीनता विराग;
बनाता है रवि को रज-पुंज
कभी नूतनताओं का त्याग।
रुज-ग्रसित हो नाना-रस-लुब्धा
नहीं छूता व्यंजन का थाल;
नहीं करता मुक्ता का मान
मोह-वश बन मद-अंधा मराल।
दीया
समय के सिर का है टीका,
बड़ा ही सुंदर चमकीला;
कंठ का उसके है जुगनू,
कलाएँ हैं जिसकी लीला।
वह सुनहलापन है इसमें,
सुनहली कर दीं दीवारें,
रूप ऐसा है मन-मोहन
फतिंगे जिस पर तन वारें।
तेज सूरज या तारों का
जहाँ पर पहुँच नहीं पाता;
वहाँ पर जगी जोत भरकर
जगमगाता है दिखलाता।
हवा के पाले पलता है,
आग का बड़ा दुलारा है;
नमूना किसी जलन का है,
बहुत ऑंखों का तारा है।
उँजाला ऍंधिायाले घर का,
दमक का है सुंदर देरा;
निराला फूल जोत का है,
लाल दमड़ी का है मेरा।
गीता-गौरव
है परम-दिव्य-ज्योति-संभूत,
वेद-आभा से आभावान;
उपनिषद् का कमनीय विकास,
विविधा आगम-निधिा-रत्न महान।
मनुजता-मंदिर- रत्न-प्रदीप,
चारु-चिंतन-नभ- रुचिर-मयंक;
कल्पना-कलिका-कांत-प्रभात,
भारती-भव्य-भाल का अंक।
है अखिल-अवनी-तल-तम-काल,
उसी से है आलोकित लोक;
ज्ञान-लोचन का है सर्वस्व;
अलौकिकतम गीता-आलोक।
अतीत संगीत
था भव-प्रात:काल, राग-रंजित था नभतल;
लोहितवसना ललित अंक था लोक समुज्ज्वल।
था अभिव्यक्ति-विकास प्रकृति-मानस में होता;
धाीरे-धाीरे तिमिर-पुंज था तामस खोता।
क्षितिज-अंक से निकल विभा के बहुविधा गोले
केलि-निरत थे विविधा कल्पना-कुसुमों को ले।
मंथर गति से पवन-प्रगति थी विकसित होती;
नव-जीवन का बीज नवल निधिा में थी बोती।
सलिल-निलय संसार-लहरियों द्वारा चुंबित;
अरुण असित सित विपुल बिंब से था प्रतिबिंबित।
किसी अकल्पित दिशा मधय कर महा उजाला;
एक अलौकिकतम तमारि था उगनेवाला।
इसी समय इस सलिल-राशि में महामनोहर;
एक अयुत-दल कमल हुआ भव-लोचन-गोचर।
उसकी परमिति किसी काल में गयी न मापी;
उसका था विस्तार अमित-जगतीतल-व्यापी।
विश्व-महान-विभूति-भूति थी उस पर विलसी;
जिसमें विविधा विधाान की विबुधाता थी निवसी।
था जिस काल असंख्य लोक लीलामय बनता;
भव कमनीय वितान जिस समय विभु था तनता।
उसी समय संसारमयी नीरवता टूटी;
महाकंठ का गान हुए रव-जड़ता छूटी।
उससे हुआ दिगंत धवनित नभ-निधिा लहराया;
सकल लोक के स्वर-समूह में जीवन आया।
गिरा हुई अवतीर्ण अनाहत नाद सुनाया;
कर की वीणा बजे विमोहित विश्व दिखाया।
लोकोत्तार झंकार अखिल लोकों में फैली;
विविधा-कंठ-आधाार बनी अवधाारित शैली।
जो ज्वलंत बहु पिंड व्योमतल में थे फिरते;
जहाँ-तहाँ जो विविधा रंग के धान थे घिरते।
महाउदधिा में तरल तरंगें जो उठ पातीं;
सरिताएँ जो मंद-मंद बहती दिखलातीं।
जितने थे सर-òोत, रहे जो झरने झरते;
अपर तरु-लता आदि जो विविधा रव थे करते।
उनमें भी थी बजी बीन ही झंकृत होती;
जिससे जागी जग-विकास की ममता सोती।
वेद-धवनि से धवनित हुआ भव-मंडल सारा;
लोक-लोक में बही मधाुर-स्वर-सप्तक-धारा।
श्रवण-रसायन बनी, मुग्धा मानस में निवसी;
विविधा-राग-रागिनी मधय बह बहुविधिा विलसी।
उससे होकर मत्ता गान वह शिव ने गाया;
जिसने सारे विबुधा-वृंद को चकित बनाया।
उसकी मंजुल गूँज भूरि भुवनों में गूँजी;
बनी विश्व के विविधा-धार्म-भावों की पूँजी।
उसके रस के सिंची लोक-भाषा-लतिकाएँ;
जिसमें विकसीं कलित-ललित-सुरभित कलिकाएँ।
वह सुकंठता उसे साधा नारद ने पाई;
जिसने सुरपुर-सदन-सदन में सुधाा बहाई।
उससे भर-भर मिले छलकते मानस-प्याले;
जिनको पी गंधार्व बने मधाुता-मतवाले।
नाच उठीं अप्सरा, गान वह मोहक गाया;
जिसने सारे स्वर-समूह को सरस बनाया।
ले-ले उसका स्वाद किन्नरों ने रस पाया;
सुना मनोहर तान वाद्य बहु मंजु बजाया।
उसकी ही कमनीय कला मुरली ने पाई;
मनमोहन ने जिसे महा मधाुमयी बनाई।
जब यह मुरली बड़े मधाुर स्वर से बजती थी;
प्रकृति उस समय दिव्य साज द्वारा सजती थी।
पाहन होते द्रवित पादपावलि छवि पाती;
रस-धारा थी लता-बेलियों पर बह जाती।
खग-मृग बनते मत्ता, नाचते मोर दिखाते;
विकसित होते फूल, फल मधाुर रस टपकाते।
रुकता सलिल-प्रवाह, कलित कालिंदी होती;
वृंदावन की भूमि मलिनताएँ थी खोती।
होता हृदय-विकास, मुग्धा मानस बन जाते;
साधाक-सिध्द पुनीत साधाना के फल पाते।
साहस-हीन, मलीन जनों में जीवन आता;
पातक होता दूर, मुक्ति-पथ मानव पाता।
क्या न कभी फिर मधाुर मुरलिका बज पावेगी;
क्या न कान में सरस सुधाा फिर टपकावेगी।
जो जन-जन में भर विनोद-रस बरसावेगा;
वह अतीत संगीत क्या न गाया जावेगा।
वैधा विहार
प्रकृति-मानस का प्रिय अनुराग,
लालसाओं का ललित मिलाप;
रसिकता का रस-सिध्द रहस्य,
मुग्धाता-मंजुल कार्य-कलाप।
अभिजनन का साधान सर्वस्व,
भवन-भावन- विलास-अवलंब;
युवकता-युवती का शृंगार,
नवल-यौवन- कल्लोल-कदंब।
मधाुरता-सरिता- सरस-प्रवाह,
मोद-मंदिर मौलिक आधाार;
लोक-उपचय का प्रबल प्रयोग,
वंश-वर्धान का वर आधाार।
युगल उर मिलन मनोरम सूत्रा,
परस्पर परिचय का उपचार;
विविधा-सुख-भोग-पयोधिा-मयंक,
केलि-वीणा का झंकृत तार।
काम-सिर का सेहरा कमनीय,
रति-गले का बहु मोहक हार;
कामना का है मधाुर विकास,
विविधा-नर-नारी-वैधा विहार।
(8)
कमनीय कामना
कांत कामना
ऐ नव-जीवन के जीवन-धान, ऐ अनुरंजन के आधाार;
ऐ मंजुलता के अवलंबन, ऐ रसमयता के अवतार!
ऐ उमंगमय मानस के मधाु, ऐ तरंगमय चित के चाव!
प्रकृति-कंठ के हार मनोहर, भव-भावुकता के अनुभाव!
ऐ कुसुमाकर, जो भारत को कुसुमित करते हो कर प्यार,
तो जीवन-विहीन में कर दो अभिनव-जीवन का संचार।
मलय-पवन नित मंद-मंद बह करे मंदता मन की दूर;
सौरभ-रहित भाव-भवनों में सरस सुरभि भर दे भरपूर।
कोकिल की काकली सुनावे वह अति कलित अलौकिक गान,
जिससे कुंठित विपुल कंठ में पूरित हो उत्कंठित तान।
भरी मत्ताता मोहकता से अलि-कुल की आकुल झंकार;
झंकृत करे अझंकृत मानस, छेड़े हृतंत्राी के तार।
तरु-किसलय की नवल लालिमा भरे लोचनों में अनुराग;
लता-बेलियों के विलास से विलसे अंतर का नव राग।
विकसे-विकसे कुसुम देख हो देश-प्रेम का परम विकास;
जाति-वासनाएँ बन जाएँ सरस वास का वर आवास।
लाली मुख की रखे मुखों पर लग-लग करके लाल गुलाल;
रंजित करे अरंजित जन को आरंजित अबीर का थाल।
रंग बिगड़ता रहे बनाता समय रंग रख-रख कर रंग;
भंग-भंग कर सके न गौरव सुउमंगित हो फाग उमंग।
मुरली की तान
कहलाते हैं हिंदू-बालक, बनते हैं हिंदू-कुल-काल;
हैं भारत-ललना से लालित, किंतु हैं न भारत के लाल।
रोम-रोम है देश-प्रेममय, रखते हैं न जाति से प्यार;
राजनीति के अनुपम नेता, पर कुनीति के हैं अवतार।
हैं कल-हंस, चाल बक की-सी, हैं कल-कंठ, किंतु हैं काक;
हैं कमनीय कुसुम-से कोमल, किंतु अकोमलता-परिपाक।
हैं गज-दंत-समान द्विविधा गति, सुमन-माल-सज्जित हैं नाग;
विष-परिपूरित कनक-कुंभ हैं, वधिाक-विपंची के हैं राग।
हिंदू ललना, लाल लालसा पर अपनी देते हैं वार;
है काढ़ता कलेजा निजता-प्रियता का नेतापन प्यार।
बात रहे, हठ रहे, रसातल जाय भले ही हिंदू-जाति;
वह खोवे सर्वस्व, किंतु हो मलिन न उनकी निर्मल ख्याति।
पर पग रज कर वहन झोंकते हिंदू ऑंखों में हैं धाूल;
हैं जिसकी छाया में जीवित, हैं उसको करते निर्मूल।
आग लगाता है निज घर में उनका परम निराला नेह;
होती सिंचित कीर्ति-लता है बरसे जाति-रुधिार का मेह।
आकुल हूँ, है हृदय व्यथित अति कुल-कमलों की गति अवलोक;
कैसे होगा दूर निविड़ तम, क्यों आलोकित होगा लोक।
मनमोहन, विमोह सब हर लो, गा दो जन-मन-मोहन गान;
समय देख सुर-लीन बना लो, फिर छेड़ो मुरली की तान।
वीणा-झंकार
नहीं लुभा लेता है उर को ललित लयों से पूरित गान;
मोह नहीं मानस लेती है सरस कंठ की सुंदर तान।
अंतर धवनित नहीं होता है सुने स्वर्ग धवनिमय आलाप;
नहीं अल्प भी मुग्धा बनाता अति मंजुल स्वर-ताल-मिलाप।
मौन हो गयी मंजु मुरलिका, टूटे हैं सितार के तार;
बंद हुई-सी है दिखलाती बहती हुई सुधाा की धाार।
रही नहीं अब वह प्रफुल्लता, रहा नहीं अब वह उत्साह;
नहीं प्रवाहित हो पाता है अब उन में आनंद-प्रवाह।
छिन्न हुआ सुख-सूत्रा हमारा, धाुला शांति-शिर का सिंदूर;
ज्ञान-नयन की जगतरंजिनी ज्योति हुई जाती है दूर।
हुआ भाल का अंक कलंकित बहु अनुकूल काल प्रतिकूल;
झोंक रही है चित-आकुलता भावुकता ऑंखों में धाूल।
रहा नहीं अब हृदय वह हृदय, रुध्द हुई उन्नति की राह;
चाव हो गया चूर, किंतु चिंतित चित को है इतनी चाह।
होवे किसी मंजु वीणा की लोक-चकित-कर वह झंकार,
जिससे हो जावे भारत के जन-जन में जीवन-संचार।
मंगल-कामना
मंगल गान सुर-वधाू गावे,
बहु विमुग्धा दिग्वधाू दिखावे;
विलस गगन-तल में छवि पावे,
सु-मनस-वृंद सुमन-झर लावे।
विविधा-विनोद-वितान विधिा-सदन में तने।
समय ललित लीलामय होवे,
काल कलंक-कालिमा धाोवे;
रंजन-बीज रजनिकर बोवे,
दिनमणि दिवस-मलिनता खोवे।
छाया हो छविमयी धाूप छिति पर छने।
जन-मन-रंजन ऋतु बन जावे,
मधाु मधाुमयता-मंत्रा जगावे;
मंजु वारि वारिद बरसावे,
पवन-प्रवाह सरसता पावे।
सदा सुधाा में रहें सुधााकर कर सने।
सब तरुवर मीठे फल लावें,
ललित लता बेलियाँ लुभावें;
सुमन सकल फूले न समझें,
तृण मुक्ता फल मंजु दिखावें।
विपुल अलौकिक जड़ी विपिन-अवनी जने।
कंचन-प्रसू नगर हों न्यारे,
ग्राम हों प्रकृति-सुकर-सँवारे;
बनें शस्य-श्यामल थल सारे,
सुंदर सरि सर सलिल सहारे।
नगमय हों नग-निकर, रत्न दे खनि खने।
जन-जन सिध्दि-साधाना जाने,
हों सब सृजन सुबोधा सयाने;
बुध्दि विमुक्ति-महत्ता माने,
विबुधा विबुधाता-पद पहिचाने।
हितविधाायिनी विविधा बात जी में ठने।
पूत प्रीति-रस प्रेम पिलावे,
सुमति-सुधाा मानस उमगावे;
बंधाु-भाव-व्यंजन भा जावे,
मानवता मधाु मुगधा बनावे।
रुचि उपजाएँ रुचिर चरित रुचिकर चने।
उभय लोक वैभव अपनावे,
निर्भय हो भय-भूत भगावे;
मंजुल भाव-भावना भावे,
भव भावुकता-भरित कहावे।
भूरि विभूति-निकेत भरत-भूतल बने।
कामना
विपुल अनुकूल कूल जिसका
है मनोरम मुखरित प्यारा;
जहाँ बहती है सरसा बन
कल्पना-कालिंदी- धारा।
कामना-कुंजें हैं जिसमेें
अधिाकतर जो है अनुरंजन;
बसो आकर उसमें मोहन,
हमारा मन है वृंदावन।
(9)
नीति-निचय
मन का
छेड़ता जो कि है जले तन को,
कौन कहता उसे नहीं सनका;
आग के साथ खेलना है यह,
यह पकड़ना है साँप के फन का।
गिर किसी जल रहे तवे पर वह
क्यों न जल-बूँद की तरह छनका;
जाति में आग जो लगाता है,
क्यों न गोला उसे लगा गन का।
धाूल में धााक मिल गयी सारी,
है कलेजा कढ़ा बड़प्पन का;
किस तरह ठान ठानती कोई,
जाति-माथा न आज भी ठनका।
छोड़ना एक आन में होगा,
हो भले ही मकान सौ खन का;
आ गयी साँस, या नहीं आई,
क्या ठिकाना हवा-भरे तन का।
मेघ की छाँह है, छलावा है,
क्यों किसी को गुमान है धान का;
धाूल में मिल गये महल लाखों,
छिन गये राज हो गया ‘छन’ का।
है जिन्हें पेट की पड़ी, उनको
मिल गया क्या न, फल मिले बनका;
पूछ लें मोल चींटियों से हम
चावलों के गिरे हुए कन का।
भूलते लोग सब रसों को हैं,
जागता भाग है मरे जन का;
हो सकेगी न पूछ अमृत की
मिल गये दूधा गाय के थन का।
है सिधााई बहुत भली होती,
है बुरा रंग काइयाँपन का;
साँसते हों, मगर सता पाएँ,
हम न यह ढंग सीख लें ‘संन’ का।
फूटने पर जुड़ा नहीं जोड़े,
ठेस थोड़ी लगे बहुत झनका;
क्यों न ऑंचें सहे, पिटे, टूटे,
ठीक बरताव है न बरतन का।
कौन उसकी रहा न मूठी में
सब कँपा देख रंग अनबन का।
है कहाँ, कौन मिल सका ऐसा,
जो कहा मानता नहीं मन का।
लहर
कलेजा कब चिचोरती नहीं
बन चुड़ैलों जैसी बद बहू;
दूधा जिस माँ का पीकर पली,
चूस लेती है उसका लहू।
हाथ से जिसके पल जी सकी,
गोद में जिसकी फूली-फली;
बेतहर लुटता है वह बाप,
छुरी गरदन पर उसकी चली।
सगा भाई-जैसा है कौन,
दबाती है उसका भी गला;
सदा जो अपने माने गये,
सिरों पर उनके आरा चला।
देख ऑंसू न पसीजी कभी,
लाख हा ऑंखें फोड़ी गईं;
प्यार से भरी प्यालियाँ बहुत
सितम-हाथों से तोड़ी गईं।
कलेजे कितने कुचले गए,
चाहतें कितनी ही पिस गईं;
फूल सी खिलती कितनी आस
चुटकियों में उसकी मिस गईं।
छिन गये लाखों मुख के कौर,
पेट कितने ही काटे कटे;
हो गये वे कौड़ी के तीन,
जो न तीनों लोकों में ऍंटे।
बन गये कितने हीरे-कनी,
कलेजे पत्थर जैसे हिले;
लगाए उसके लागें लगीं,
लाख हा लोग धाूल में मिले।
है सितम, साँसत पत्थर निरी,
काल साँपिनी, फूटती लवर;
जब मिली, मिली लहू से भरी,
किसी लोभी के मन की लहर।
शांति
प्रबल जिससे हों दानव-वृंद,
अबल पर हो बहु अत्याचार;
कुसुम-कोमल उर होवे बिध्द,
धारा पर बहे रुधिार की धाार।
सूत्रा मानवता का हो छिन्न,
सदयता का हो भग्न कपाल;
लुटे सज्जनता का सर्वस्व,
छिने सहृदयता-संचित माल।
हरण हो मानवीय अधिाकार,
लोक-बल जिससे होवे लुप्त;
आत्म-गौरव का हो संहार,
सकल जातीय भाव हो सुप्त।
दलित हो भव-जन-पूजित भाव,
अनादृत हों अवनी-अवतंस;
जाति-सुख-कल्प-वृक्ष हो दग्धा,
लोक-हित-नंदन-वन हो धवंस।
पाप का होवे तांडव नृत्य,
घरों में हो पैशाचिक कांड;
हो दनुज-अट्टहास की वृध्दि,
विलोड़ित हो जिससे ब्रह्मांड।
है परम दुर्बल चित की वृत्तिा,
भ्रांत मन की है भारी भ्रांति;
है अवनितल अशांति की मूल,
शांति वह कभी नहीं है शांति।
हाहाकार
वज्री के अति प्रबल वज्र-सम
वज्र-हृदय-जन का है काल;
दंडनीय जन के दंडन-हित
है अंतक का दंड कराल।
शूल-प्रदायक प्राणिपुंज को
है शूली का तीव्र त्रिाशूल;
चक्र-पाणि के चक्र-तुल्य है
कलि-चक्रांत-निपुण प्रतिकूल।
रक्त-पिपासू रक्त-पान-हित
है काली आरक्त-कृपाण;
लोक-निधान-रत निधान-हेतु है
निधानंजय पिनाक का बाण।
भूतों को सभीत करने को
है भैरव का भैरव नाद;
उसके लिए अशेष शेष फण
जिसको है विशेष उन्माद।
गरल-मान का अगरलकारी
गरल-कंठ का कंठ महान;
दहन-निपुण दाहन निमित्ता है
हर-तृतीय-दृग- दहन-समान।
प्रलय-काल के कुपित भानु-सम
बन-बनकर विकराल-अपार;
दग्धा बनाता है वसुधाा को
व्यथित हृदय का हाहाकार।
विबोधान
खुले न खोले नयन, कमल फूले, खग बोले;
आकुल अलि-कुल उड़े, लता-तरु-पल्लव डोले।
रुचिर रंग में रँगी उमगती ऊषा आई;
हँसी दिग्वधाू, लसी गगन में ललित लुनाई।
दूब लहलही हुई पहन मोती की माला;
तिमिर तिरोहित हुआ, फैलने लगा उँजाला।
मलिन रजनिपति हुए, कलुष रजनी के भागे;
रंजित हो अनुराग-राग से रवि अनुरागे।
कर सजीवता दान बही नव-जीवन-धारा;
बना ज्योतिमय ज्योति-हीन जन-लोचन-तारा।
दूर हुआ अवसाद गात गत जड़ता भागी;
बहा कार्य का òोत, अवनि की जनता जागी।
निज मधाुर उक्ति वर विभा से है उर-तिमिर भगा रही;
जागो-जागो भारत-सुअन है, जग-जननि जगा रही।
भारत के नवयुवक
जाति-धान, प्रिय नव-युवक-समूह,
विमल मानस के मंजु मराल;
देश के परम मनोरम रत्न,
ललित भारत-ललना के लाल।
लोक की लाखों ऑंखें आज
लगी हैं तुम लोगों की ओर;
भरी उनमें है करुणा भूरि,
लालसामय है ललकित कोर।
उठो, लो ऑंखें अपनी खोल,
बिलोको अवनी-तल का हाल;
अनालोकित में भर आलोक,
करो कमनीय कलंकित भाल।
भरे उर में जो अभिनव ओज,
सुना दो वह सुंदर झनकार;
धवनित हो जिससे मानस-यंत्रा,
छेड़ दो उस तंत्राी का तार।
रगों में बिजली जावे दौड़,
जगे भारत-भूतल का भाग;
प्रभावित धाुन से हो भरपूर,
उमग गाओ वह रोचक राग।
हो सके जिससे सुगठित जाति,
सुकंठों में गूँजे वह तान;
भाव जिसमें हों भरे सजीव,
करो ऐसे गीतों का गान।
कर विपुल-साहस वज्र-प्रहार-
विफलता-गिरि को कर दो चूर;
जगा दो सफल साधाना-ज्योति,
विविधा बाधाा-तम कर दो दूर।
गगन में जा, भूतल में घूम,
निकालो कार्य-सिध्दि की राह;
अचल को विचलित कर दो भूरि,
रोक दो वारिधिा-वारि-प्रवाह।
धाूल में क्यों मिलती है धााक,
बचा लो बची-बचाई आन;
मचा दो दोष-दलन की धाूम,
मसल दो दुख को मशक-समान।
लाभ-हित देश-प्रेम-रवि-ज्योति
ऑंख लो निज भावों की खोल;
त्याग करके निजता-अभिमान,
जाति-ममता का समझो मोल।
देश के हित निज-जाति-निमित्ता
अतुल हो तुम लोगों का त्याग,
अवनि-जन-अनुरंजन के हेतु
बनो तुम मूर्तिमान अनुराग।
अनाथों के कहलाओ नाथ,
हरो अबला जन-दुख अविलंब;
सबलता करो जाति को दान
अबल जन के होकर अवलंब।
बनो असहायों के सर्वस्व,
अबुधा जन की अनुपम अनुभूति;
वृध्द जन के लोचन की ज्योति,
अकिंचन जन की विुपल विभूति।
सरस रुचि रुचिर कंठ के हार,
सुजीवन-नव- घन-मत्ता-मयूर;
लोक-भावुकता तन-शृंगार,
सुजनता-भव्य- भाल-सिंदूर।
भरो भूतल में कीर्ति-कलाप
दिखा भारत-जननी से प्यार;
करो पूजन उनका पद-कंज
बना सुरभित सुमनों का हार।
(10)
मर्म-वेधा
देश
सबल हो लिबरल हैं बलहीन,
अहित को है हित-भाव प्रदत्ता;
पान कर मनमानापन-मदक
स्वराजी हैं नितांत मदमत्ता।
सुनाते हैं स्वतंत्राता-तान,
किंतु हैं कहाँ स्वतंत्रा स्वतंत्रा;
छेड़ते हैं हृत्तांत्राी-तार
अन्य दल भूल जाति-हित-मंत्रा।
बहुत ही है अनेकता-प्यार,
एकता पर है सारा कोप;
सभाएँ जाति-जाति की बनीं,
हुआ जातीय भाव का लोप।
फूट से फटे आज भी नहीं,
बढ़ रहा है दिन-दिन यह रोग;
मिटाना जाति-पाँति है, मगर
उसी पर मर मिटते हैं लोग।
कपट है पोर-पोर में भरा,
अधाम का काम, साधाु का वेश;
सभी हैं अहंभाव में मस्त,
कलह का क्रीड़ा-थल है देश।
हृदय-वेदना
कहाँ वह सरस वसंत रहा,
जो देता था भारत-भू में रस का òोत बहा।
पलाशों की बिलोक लाली
लहू ऑंखों में है आता;
देख उसमें का कालापन
दोष अपना है खल जाता।
दिल दहलाता है लोहू से दाड़िम-सुमन नहा।
अलि-अवलि का मतवालापन
मलिन कर देता है मानस;
याद वह बहु मद है होता,
सरस में रहा न जिससे रस।
सुन विधावा-विलाप कोकिल-रव जाता है न सहा।
मंद चल-चल कर मलय-पवन
मंदता है यह बतलाती;
जो विपुल कुल-बालाओं पर
बलाएँ नित नव है लाती।
है मधाूक-दल विकल बनाता हो रुधिाराम महा।
बहुलता नाना कल-छल की
विदित करती है कुसुमावलि;
कलह है किसलय-सम उपचित
हुई जिस पर विरुदावलि बलि।
कब मुँह खोल जाति कलकों को कलिका ने न कहा।
परम असरस फल-पुंज-जनक
सेमलों के कमनीय सुमन-
देश की नीरसता बतला
बनाते हैं बहु आकुल मन।
चित-अनुताप-अधाम तम ने है उमग मयंक गहा।
सूखा रंग
लाल-लाल कोंपल से तरुवर वैसे ही होते हैं लाल;
ललित विविधा सुमनों से सज्जित वैसी ही होती है डाल।
पावक-सम अरुणाभ फूल से बनते हैं कमनीय अनार;
वैसे ही लोहित कुसुमों से विलसित होता है कचनार।
सेमल वैसे ही लसते हैं, वैसे ही हैं ललित पलास;
वैसे ही पल्लव-कुल में है लोक-लालिमा मंजु विलास।
किंतु होलिके! तब मुख-लाली अब वैसी है नहीं रसाले;
वह गुलाल का चाव नहीं है, गाल है न वैसा ही लाल।
रंग-भरी तू है न दिखाती, है न अबीर-भरी तू आज;
पहले-जैसा है न दिखाता लाल रंग में डूबा साज।
है न गगन-तल रंजित होता, हैं न खेलते तारक फाग;
अवनी-तल का सारा रज-कण बना न मूर्तिमान अनुराग।
क्या है कोई हृदय-वेदना किंवा कोई अंतर्दाह;
अथवा म्लान तुझे करता है क्रूर काल प्रतिकूल प्रवाह।
क्या भारत में अब न कभी आवेगा वह अति मंजुल वार;
जिस दिन तेरा विभव पूर्ववत दिखलावेगा लसित अपार।
अंतर्दाह
किसलिए टूटी कितनी आस,
हुआ क्यों सुख में दुख का वास;
बतला दे होलिके! कहाँ वह गया मनोहर हास।
किसी का छिना भाल-सिंदूर,
किसी का टूटा सुंदर हार;
किसी का गया सुधाा-सर सूख,
किसी का लुटा स्वर्ण संसार।
क्या इससे ही भूल गयी तू अपना सरस विलास।
नेत्रा कितने हैं ज्योति-विहीन,
उरों से बही रुधिार की धाार;
सरस भावों के मंजुल कंज,
जल गये पड़े प्रपंच-तुषार।
इसीलिए क्या नहीं हो सका तेरा ललित विकास।
लालसाएँ हो चलीं विलीन,
रसातल है जा रही उमंग;
पड़ा रसमय रुचियों का काल,
है लहू-भरी विनोद-तरंग।
कैसे तो न लुप्त हो जाता तेरा नव-उल्लास।
बन गया है हित के प्रतिकूल
परम विकराल काल का कोप;
जाति-जीवन है विदलितप्राय,
हुआ जातीय भाव का लोप।
कैसे तो न धाूल में मिलता सुख-कल्पित-कैलास।
अंतर्नाद
कहाँ गयी मुखड़े की लाली,
किसने छीनी छटा निराली;
पीला क्यों पड़ गया होलिके! तेरा गोरा गाल।
नभ-तल में, छविमय छिति-तल में,
सदा सरस रस रहा छलकता;
देख लोक में ललित लुनाई।
किसका लोचन था न ललकता।
तेरे लिए हुआ क्यों इतना अकलित काल कराल।
तेरी केलि विपुल लीलामय,
देख लोक-लालसा लुभाती;
तेरी हास-विलास-मत्ताता,
थी विमुग्धाता को ललचाती।
कहाँ गया वह विभव, लुटा क्यों वह रत्नों का थाल।
कलकंठी की कलितकंठता,
क्यों है कुंठित होती जाती;
क्यों कितनी सुकुमार कलाएँ,
रज में हैं लुंठित दिखलाती।
किया कलंकित किस कठोर ने अति कमनीय कपाल।
जिसका परम मनोहर सौरभ,
सुरभित सारी दिशा बनाता;
जिस पर विलसित सुरसिकअलि-कुल,
कर रस-पान मुग्धा दिखलाता।
कैसे टूटी वही नव-कलित कंठ-विलंबित माल।
मनोवेदना
चिर दिन से ऑंखें आकुल हो लालायित हैं मेरी;
भारत-जननि, नहीं अवलोकी कांति अलौकिक तेरी।
वर विकासमय वारिज के सम विकसित बदन न देखा;
चारु अधार पर नहीं बिलोकी रुचिर हँसी की रेखा।
कहाँ गयी वह रूप-माधाुरी, जो थी मुग्धा बनाती;
कहाँ गयी वह भाव-मंजुता, जो भव-विभव कहाती।
कहाँ गयी वह कला-चातुरी लोक चकित कर चोखी;
कहाँ गयी वह गौरव-गरिमा जग-रंजिनी अनोखी।
क्यों तू है अवसन्न, दिखाती क्यों बहुचिंतित तू है;
क्यों परमाकुल नयन-युगल से ऑंसू पड़ता चू है।
बहु आलोकित होते भी क्यों तिमिर-भरित है काया;
क्यों महान मानस-नभ में है मोह-निविड़-घन-छाया।
अपने बहु कपूत पूतों की देख अपार कपूती;
बनी विलोक जाति-ममता को कामुकता की दूती।
अवलोकन करके कुलीन को कुल-कलंक उत्पाती;
क्या तू छन-छन छीज रही है छिले-छत-भरित छाती।
घर-घर कलह-वैर है फैला, जन-जन है मदमाता;
मनमानी की मची धाूम है, टूट रहा है नाता।
नए-नए नाना विचार में कपटाचार समाया;
जो लोचन हैं ज्योति-निकेतन, उन पर तम है छाया।
पावन प्रेम-पंथ को तजकर प्रेमिकता से ऊबी;
लोक-ललाम भूत-ललना है लोलुपता में डूबी।
है विलास-वासना लुभाती, अहंभाव है भाता;
नारि-धार्म को त्याग-रहित है समता-भाव बनाता।
देव-भवन में देव-भाव का है अभाव दिखलाता;
सुर-दुर्लभ-संपति-सुमेर है सदा छीजता जाता।
सूख रहा है सुधाा-सरोवर, स्वर्ग धवंस है होता;
रत्नाकर निज अंक-विराजित रत्न-राजि है खोता।
सहनशीलता कायर की कायरता है कहलाती;
चित की दुर्बलता दयालुता बन है आदर पाती।
सकल कुटिलता गयी, कल्पना राजनीति की मानी;
बहुवंचकता चरम चतुरता की है चारु कहानी।
रहा न धार्म, धार्म-आडंबर ही है धार्म कहाता;
जन मयंक छूने को वामन होकर है ललचाता।
नरक-वास कर लोग बात हैं सुरपुर की बतलाते;
हैं नंदन-वन-पथिक, किंतु हैं चले रसातल जाते।
क्या इन बातों को विचार तू प्रतिदिन है कुम्हलाती;
शोच-विवश ही कलित कांति क्या मलिन बनी है जाती।
कब तक जाएगा जगवंदिनि, यह महान दुख भोगा;
क्या अब नहीं सुदिन आवेंगे, स्वर्ण-सुयोग न होगा।
प्रलाप
विजयिनी बनती हो, तो बनो,
किसे है यहाँ विजय से काम;
वेदना है रग-रग में भरी,
कलप हैं रहे कलेजा थाम।
गर्व गत गौरव का क्यों करें,
हम रहे हैं रौरव-दुख भोग;
फफोलों से है छाती भरी,
उपजते नए-नए हैं रोग।
उमंगें कैसे उसमें भरें,
दूर उसका हो कैसे खेद;
कलेजा जिसका छलनी बना,
हुआ जिसकी छाती में छेद।
वीरता-वैभव को अवलोक
करें वे क्या, जो बने विरक्त;
न जिनमें है जीवन का नाम,
न जिनकी धामनी में है रक्त।
किस तरह वे समझें यह भेद-
है न हिंसक की हिंसा पाप;
काँपते हैं थर-थर जो लोग
समझ करके रस्सी को साँप।
रो रहे हैं, रोने दो, हमें
नहीं भाता है हास-विलास;
हटो, क्या करें तुम्हें लेकर?
कौन हो, क्यों आई हो पास?
अंतर्वेदना
किसलिए आई हो तुम आज,
चित व्यथित हुआ तुम्हें अवलोक;
हो गये पूर्व विभव की याद,
भर गया अंतस्तल में शोक।
जहाँ बहता था रस का òोत,
वहाँ है बरस रहा अंगार;
बन गया परम भयंकर व्याल
गले का कलित कुसुम का हार।
वहाँ अब छाया है तम तोम,
जहाँ था लसित ललित आलोक;
सकल आलय है भरित विषाद,
कलह-कोलाहलमय है लोक।
दिखाता नहीं शांति-मुख मंजु,
विकलता छाई है सब ओर;
सुखों पर होता है पवि-पात,
घहरता है आपद-घन घोर।
दश दिशा में जय-केतु-समान
रहे फैले जिसके दस हाथ;
सहचरी जिसकी थी सब काल
‘इंदिरा’ हंसवाहना साथ।
बसे जिसके ढिग मंगल-मूर्ति
देव-सेनापति-सहित सदैव;
भूति वह हुई प्रभाव-विहीन,
हो गया परम प्रबल दुर्दैव।
हमारी सिंहवाहिनी शक्ति
आज सोई है पाँव पसार;
सुनाता है नभ-तल को वेधा
विपुल-आकुल-जन-हाहाकार।
किसलिए लें न कलेजा थाम,
तुम्हें क्या दें विजये, उपहार;
हो गये हैं छाती में छेद,
नयन से बहती है जल-धाार।
करुण दशा
घर-घर ग्राम-ग्राम नगरों में भर जावेगा भूरि प्रकाश;
विभा बढ़ेगी, तो भी होगा क्या भारत-भूतल-तम-नाश?
अगणित दीपावलि चमकेगी, चमक उठेगा चारु दिगंत;
तो भी क्या तामस मानस के तमो भाव का होगा अंत?
आलोकित कर सकल थलों को सफलित होवेगा आलोक;
तो भी क्या तम-वलित विलोचन सकेंगे स्वहित वदन विलोक।
जहाँ-तहाँ कोने-कोने में जग जाएगी ज्योति अपार;
तो भी क्या विमुक्त होवेगा अंधाकार-अवरोधिात द्वार।
बड़ी व्यथामय ये बातें हैं, कैसे होवेगा निस्तार;
दीपमालिके, कर पावेगी क्या तू इसका कुछ प्रतिकार?
रक्त-सिक्त क्यों उत्सव होवे, क्षत-विक्षत क्यों हो सुख-पुंज;
हो विदलित बहु म्लान बने क्यों परम मनोरम शांति-निकुंज।
क्या जन-करुण दशा अवलोके तू न कलेजा लेगी थाम;
मलिन क्या नहीं बन जावेगा तेरा आनन लोक-ललाम?
व्यथित हो रहा हूँ, आएँगे क्या अब नहीं मनोहर बार;
वैसा फिर न चमक पावेगा क्या भारत का भव्य लिलार?
परिवर्तन
( 1)
टपकता ही रहता है क्यों,
पड़ा कैसे दिल में छाला;
उँजेले में क्यों रहता है
सामने दृग के ऍंधिायाला?
फूल खिल-खिल हँस-हँस करके
लुभा लेते थे दिल मेरा;
ऑंख उन पर पड़ते ही क्यों
दुखों ने मुझको आ घेरा?
महँकती हवा पास आए
थिरकने लगती थीं चाहें;
अहह! उसके आते ही क्यों
आज निकलीं मुँह से आहें?
कली का मँह जब खुल जाता,
बड़ी प्यारी बातें कहती;
रंगतें बदलीं, तो बदलीं,
किसलिए है वह चुप रहती?
देखकर फूली लतिकाएँ
ललचती रहती थीं ललकें,
उन्हें अवलोकन कर अब तो
उठ नहीं पाती हैं पलकें!
प्यार मैं करती चिड़ियों को,
गले से गला मिला गाती;
उन्हीं का मीठा गाना सुन
क्यों धाड़क उठती है छाती?
बहुत ऑंखें सुख पाती थीं
देख अलि को देते फेरी;
आज उनके अवलोके क्यों
फूटती हैं ऑंखें मेरी?
दिन रहे कितने चमकीले,
रात भी कालापन खोती;
भर गया क्यों अब उनमें तम,
आग क्यों रजनी है बोती?
क्यों नहीं पहले ही का-सा
लहर में सुख की बहता है;
किसलिए किस उलझन में पड़
जी उड़ा मेरा रहता है?
खिले फूलों-जैसा जो था,
हुआ कैसे काँटा वह तन;
ऑंख जलती है जल बरसे,
हो गया कैसा परिवर्तन?
(2)
भरा ऑंखों में था जादू,
हँसी होठों पर थी रहती;
बात टूटी-फूटी कहते,
किंतु रस-धारा-सी बहती।
गोद में बैठे रहते थे,
लोग थे मुँह चूमा करते;
स्वर्ग था तब घर बन जाता,
जब कभी किलकारी भरते।
बलाएँ माता लेती थी,
पिता मुझ पर बल-बल जाता।
दूसरे लोगों के मुँह से
प्यार का पुतला कहलाता।
जिधार ऑंखें मेरी फिरतीं,
समा न्यारा पाया जाता;
लबालब रस का प्याला भर
छलकता ही था दिखलाता।
गये जब ये दिन तब मैंने;
अजब अलबेलापन पाया;
चाँद-जैसा मुखड़ा चमका,
बनी कुंदन की-सी काया।
उमंगें उठीं बादलों-सी,
तरंगें लगीं रंग लाने;
हुई मिट्टी छूते सोना,
रस लगे मिलने मनमाने।
चाहतें कितने लोगों की
पिरोती थीं हित के मोती;
रीझती मुँह देखे दुनिया,
निछावर परियाँ थीं होतीं।
सामने सुख-निधिा लहराता,
हाथ आ जाता था पारस;
कारबन में मिलता हीरा,
कब कहाँ जाता हुन न बरस?
हुए क्या ऐसे सुंदर दिन,
काल ने मुझको क्यों लूटा।
किसलिए सारा तन सूखा,
पक गये बाल, दाँत टूटा।
बात सुन कान नहीं सकता,
ऑंख की जोत रही जाती;
बेतरह जी घबराता है,
रात में नींद नहीं आती।
पाँव कँपता ही रहता है,
हाथ में हाथ नहीं अपना;
नहीं मन मन की कर पाता,
हो गया तन का सुख सपना।
बात क्या बाहरवालों की,
नहीं सुनते हैं घरवाले;
बात ऐसी कह देते हैं,
पड़े जिससे दिल में छाले।
न लड़के-बाले हैं अपने,
न अपना धान है अपना धान;
समय भी रहा नहीं अपना;
हो गया कैसा परिवर्तन?
विजयागमन
आती हो प्रतिवर्ष दिखा जाती हो गरिमा;
भर जाती हो मुग्धा मनों में महा मधाुरिमा।
कितनी ही कमनीय कलाएँ हो कर जातीं;
विविधा जीवनी शक्ति जाति में हो भर पाती।
किंतु आज भी जाग न पाई भारत-जनता;
है इतनी बल-हीन, कुछ नहीं करते बनता।
चलती है वह चाल, पतन है जिससे होता;
गेह-गेह में कलह-बीज जन-जन है बोता।
गरल-हृदय हैं परम-मधाुर-मुख बने दिखाते;
जल-सेचन-रत जहाँ, तहाँ हैं आग लगाते।
ले सुधाार का नाम लोग हैं काँटे बोते;
पथ में लंबी तान लोक-नेता हैं सोते।
देश-प्रेम की लगन किसे सच्ची लग पाई;
कौन कर सका सत्य भाव से देश-भलाई।
देखा ऑंखें खोल कहाँ मिल सका उजाला;
घर-घर में है भरा हुआ अब भी ऍंधिायाला।
क्या दिगंतव्यापिनी कीर्ति फिर फैलाएगा?
उसका गौरव-गीत क्या जगत फिर गाएगा?
पूर्व विभव कर लाभ क्या पुन: प्रबल बनेगा?
विजये, क्या फिर विजय-माल भारत पहनेगा?
(11)
मर्म-स्पर्श
प्रेम-परख
(1)
प्रेम-धान से पुनीत प्रेम न कर
जो बनी प्रेम-रंकिनी है वह,
तो लगेंगे कलंक क्यों न उसे,
कामिनी-कुल-कलंकिनी है वह।
है अहंभाव प्रेम का बाधाक,
वह नहीं प्रेम-बीज है बोता;
ऊबता प्रेम है बनावट से,
प्रेम है प्रेम के किए होता।
तब कहाँ प्यार-रंग चढ़ पाया,
जब कि है नित्य ही लगा हम-तुम।
है कपट-कीट जो समाया, तो
है किसी काम का न प्रेम-कुसुम।
व्यर्थ फूली रही, मिला फल क्या?
बन किसी ऑंख की गयी फूली;
आपको जो न भूल पाई, तो
प्रेम कर प्रेमिका बहुत भूली।
प्रेम कर प्रेमदेव-हाथ बिके,
प्रेम-पथ-सूत्रा है यही पहला;
जो निबाहे न प्रेम निबाहा तो,
क्यों करे प्रेम प्रेमिका अबला।
(2)
रंग लाती हुई जहाँ पर है,
है वहाँ एकता-निवास कहाँ;
गाँस की फाँस है अगर जी में,
तो रही प्रेम में मिठास कहाँ?
जो नहीं है सनेह से चिकनी,
जो न उसमें हृदय-विकास मिले;
आग लग जाय तो लुनाई में,
धाूल में बात की मिठास मिले।
चाह-विष-बेलि जब बला लाई,
क्यों न तब सूख त्याग-तरु जाता;
पास समता-विचार-पादप के
प्रेम-पौधाा पनप नहीं पाता।
क्यों न अनुराग तो सहे ऑंचें
क्यों न तो पूत प्रीति रुचि जलतीं;
तो न उठतीं बिराग-लपटें क्यों,
लाग की आग है अगर बलती।
तो न चाहें, अगर न जी चाहे,
क्यों लगे ऑंख, जो लगे न लगन;
प्रेम से ऑंख जो चुराना है,
चित चुराती रहे न तो चितवन।
(3)
एक है सुरपुर-सुपथ-मंदाकिनी,
सुख-सरित है दूसरी मरु-राह में;
है बड़ा अंतर, असमता है बहुत,
प्रेम-ममता और समता चाह में।
पति-परायणता वहाँ कैसे पुजे,
है जहाँ फहरा रही ममता-धवजा;
प्रेम की अधाीनता क्यों प्रिय लगे,
चित्ता में स्वाधाीनता-डंका बजा।
चित-विमलता जो विमल करती नहीं,
तो अधार पर किसलिए विलसी हँसी;
जो मधाुरता है न उसमें प्रेम की,
तो मधाुर मुसकान क्या मुख पर लसी।
उस सरसता में सरसता है कहाँ,
है बनी जिसकी कि नीरसता सगी;
रंग सुख की चाह का कैसे रहे,
प्रेम रंगत में न रँगने से रँगी।
वह विना सच्ची-लगन-जल से सिंचे;
पा अलौकिक-भाव-दल पलता नहीं;
चित-विमलता-मंजु-अवनीतल बिना
प्रेम-पौधाा फूलता-फलता नहीं।
हृदय-दान
अलकावलि को केलिमयी कमनीय बनाया;
कोमल मंजुल-कुसुम-दाम से उसे सजाया।
किया रुचिर सिंदूर-बिंदु से भाल मनोहर;
सरस नयन में दिए भाव कुसुमायुधा के भर।
दसन सँवारे मधाुर वचन से, मधाु बरसाया;
बदन-इंदु का विभव कपोलों पर झलकाया।
कोकिल-कंठी बनी कलित कंठता दिखाई;
अंग-अंग में भरी लोक की ललित लुनाई।
हाव-भाव विभ्रम विलास से पल-पल विलसी;
बनी सरसता-रता लोक-मोहकता मिल-सी।
अलंकार-से लसे चारु चेटक कर पाया;
पग-नूपुर को बजा मोहनी मंत्रा जगाया।
पर न सफलता मिली, कामना हुई न पूरी;
प्रिय वश में कब हुआ, वासना रही अधाूरी।
बिना प्रेम में पगे बही कब रस की धारा;
कल्पलता-सम फलद बना कब जीवन सारा।
अहंभाव के तजे स्वरुचि-ममता के छोड़े;
गृह बनता है स्वर्ग स्वार्थ से नाता तोड़े।
जहाँ प्रीति के साथ विमल मानस है रहता;
वहाँ सदा है मोद-मंद-मलयानिल बहता।
यह जाने सुख-सेज सुमन से गयी सजाई;
नंदन-वन-सी छटा सकल छिति तल में छाई।
विभु विभूति से भरी भाव-भव-तिय का भाया;
किए हृदय का दान हृदय प्रियतम का पाया।
वितर्क
किंशुक की लालिमा कालिमा से न बची है।
कलित-काकलीमयी कलमुँही गयी रची है।
रसिक-प्रवर रसलीन परम-प्रेमिक है, तो भी।
मधाुकर है मद-मत्ता महा-चंचल मधाु-लोभी।
लाल-लाल कमनीय-कुसुम-कुल शोभित सेमल;
लाता है रस-हीन बिहग वंचक अरुचिर फल।
सरस मंद-गति मधाुर-मलय-मारुत है होता;
किंतु मदन-आवेग-बीज उर में है बोता।
चंद-चाँदनी चमक-दमक है चारु दिखाती;
पर बिधाुरा को बार-बार है व्यथित बनाती।
है कुसुमाकर रस-निकेत नव-जीवन-दाता;
किंतु है महा मत्ता रुज भवन मोह-विधााता।
यह क्या है? क्या है विधिा अविधिा? या विधाान स्वाधाीनता;
अथवा गुण-अवगुण गहनता या भव-अनुभव-हीनता।
कुल-ललना
ऑंख में लज्जा हो ऐसी,
फाड़ जो परदों को फेंके;
राह जो बुरे तेवरों की
पहाड़ी घाटी बन छेंके।
चाँद-सा मुखड़ा ऐसा हो,
न जिस पर हों धाब्बे काले;
चाँदनी उससे वह छिटके,
सुधाा जो वसुधाा पर ढाले।
हँसे, तो वह बिजली चमके,
गिरे जो पापी के सर पर;
बहे उससे वह रस-धारा,
करे जो खुलती ऑंखें तर।
कान सीपों-जैसे सुंदर,
मैल से सदा रहें डरते;
बड़ी ही सुंदर बातों के
मोतियों से होवें भरते।
हिलाएँ जो वे होठों को,
फूल तो मुँह से झड़ पावे;
रहे जिसमें ऐसी रंगत,
काठ उकठा भी फल लावे।
कलेजा उनका कमलों-सा
खुले में खिले रंग लावें;
दिशा जिससे मह-मह महके,
रमा जिसमें घर कर पावे।
रहे जी में सब दिन बहती
देश-ममता की वह धारा;
वेग से जिसके बह जावे
जमा कूड़ा-करकट सारा।
लगे निजता इतनी मीठी,
परायापन इतना कड़वा
कि जिससे गिलास काँच के ले
न फेंकें गंगा-जल-गड़वा।
अलग जो कर दे पय पानी,
हंस की-सी वे चालें चलें;
जहाँ ऍंधिायाला दिखलावे,
वहाँ पर दीपक जैसी बलें।
सदा अपने हाथों में ले
लोक-हित-फूलों की डाली;
कुलवती ललनाएँ रख लें
लाल के मुखड़े की लाली
शक्ति
प्रेम का वह अनुपम उद्यान,
जहाँ थे भाव-कुसुम कमनीय,
सुरभि थी जिसकी भुवन-विभूति,
मंजुता भव-जन-अनुभवनीय।
हो रहा है वह क्यों छवि-हीन,
छिना क्यों उसका सरस विकास;
बना क्यों अमनोरंजन-हेतु
विमोहक उसका विविधा विलास?
रहा जो मानस-शुचिता-धााम,
रहे बहते जिसमें रस-सोत,
मिले जिसमें मोती अनमोल,
भर रहे हैं क्यों उसमें पोत?
वचन जो करते बहुत विमुग्धा,
सुधाा-रस का था जिसमें वास,
मिल रहा है क्यों उसमें नित्य
अवांछित असरसता-आभास?
सरलता-मृदृता-मंजुल-बेलि,
हृदय-रंजन था जिसका रंग;
बन रही है किसलिए अकांत
मंजु-मन मधाु-ऋतु का तज संग।
हो गयी गरल-वलित क्यों आज
सुधाा-सिंचित सुंदर अनुरक्ति;
बनी क्यों कुसुम-समान कठोर
कुसुम-जैसी कोमलतम शक्ति।
परिवर्तन
वासनाएँ होवेें सुरभित,
कामनाएँ हों मंजुलतम;
भावनाएँ हों भाव-भरित,
कल्पनाएँ हों कुसुमोपम।
कमल-मुख सदा मिले विकसित,
कालिमा लगे न कुम्हलाए;
नयन रस-भरे रहें, मोती
बूँद ऑंसू की बन जाए।
हँसी बिजली-जैसी चमके,
किंतु सरसे हो रस-धारा;
दाँत कोई क्यों गड़ जाए
बने मोती-जैसा प्यारा।
भुजा क्यों पाश रहे बनती,
ललित लतिका-सी कहलावे;
रहे माखन-सा मृदुल हृदय,
कभी पत्थर क्यों हो जावे।
पिता जो है सुर-सरिता का,
चाल पापी की वह न चले;
पाँव सरसीरुह-सा कहला
क्यों कलेजा कोई कुचले।
बने नवनी-सा पवि मानस,
सुधाा-रस-पूरित पावक तन;
लगें काँटे कुसुमों-जैसे,
प्रभो, ऐसा हो परिवर्तन।
सहेली
तो मानवता-वदन विकच किस भाँति मिलेगा,
सुमतिदायिनी मति जो बनती है मतवाली;
कैसे तो न अमंजु मंजु मानसता होगी,
जो मायामय बने मधाुरतम मानसवाली।
तो कैसे सिर सकल सरस साधों न धाुनेंगी,
सुखविधाायिनी जो विधाान सुविधाा न बरेगी;
हित-तरु हो पल्लवित फल-प्रसू कैसे होगा,
परम हितरता अहित-बीज जो वपन करेगी।
तो दृग-जल से सिक्त क्यों न सहृदयता होगी,
परम सहृदया हृदय-हीन जो हो जाएगी;
किसका वदन विलोक सदयता दिन बीतेंगे,
दयामयी जो दया-हीनता दिखलाएगी।
कैसे तो न अपूत प्रीति-पावनता होगी,
जो जीवन सहचरी नीति बन जाय पहेली;
कैसे तो न प्रतीति-रहित वसुधाातल होगा,
जो बतलाती रहे सुरा को सुधाा सहेली।
(12)
संजीवन रस
सफलता-सूत्रा
दूर कर अवनी-तल-तम-तोम,
तमी-तामस का कर संहार;
दलन कर दानव-दल का व्यूह
भानु करता है प्रभा-प्रसार।
प्रतिदिवस कला-हानि अवलोक
कलानिधिा होता नहीं सशंक;
समय पर सकल कला कर लाभ
सरस करता है भूतल अंक।
वायु से ताड़ित हो बहु बार
टला कब वारिवाह गंभीर;
सघनता कर संचय सब काल
बरसता है वसुधाा पर नीर।
विटप-कुल होकर पत्रा-विहीन,
बना कुसुमाकर को अनुकूल;
पुन: पाता है बहु कमनीय
नवल, श्यामल दल औ’ फल-फूल।
शोक हर शोकित-लोक अशोक,
सहन कर ललना-पाद-प्रहार;
पहनता है तज अविकच भाव
विकच सुमनों का सुंदर हार।
धाीर धार, ले धारती अवलंब,
अधिाक नुच कट-छँटकर बहु बार,
पद-दलित प्रतिदिन हो-हो दूब
पनपती है रख पानिप-प्यार।
कुसुम-तरु-कंटक को अवलोक
समाकुल होता नहीं मिलिंद;
सफलता पाता है सब काल
छिन्न हो कदली-पादप-वृंद।
टले है करतब हिम बल देख
विघ्न-बाधाा कृमि-कुल का व्यूह;
सहमता है पौरुष-तम देख
विफलता गृह-मक्षिका-समूह।
हुई जिसको अवगत यह बात,
सका यह मर्म मनुज जो जान,
मिली जिसको अनुभूति-विभूति,
हुआ जिसको भव-हित का ज्ञान।
सजाने को जीवन कल-कंठ
कर सुयश-सौरभ का विस्तार;
वही ले साहस-सुमन-समूह
सफलता का गूँधोगा हार।
सफल लोक
विकसित, कुसुमित लता कंटकित है दिखलाती;
रुधिार-रहित है नहीं पूत पय-पूरित छाती।
रस से भरे रसाल-मधय हैं बीए होते,
मिले कहाँ मल-हीन सलिल के सुंदर सोते।
सुख-दुख का है साथ, तेज-तम मिले हुए हैं;
कीच बीच कमनीय कमल-कुल खिले हुए हैं।
तिमिरमयी रजनी प्रभात-आभा है लाती;
पा वसंत रस-हीन तरु-लता है सरसाती।
नियति नियम है यही, यही विधिा की है लीला;
नव-नव-केलि-कला-निकेत है नभतल नीला।
सफल लोक है वही, काल-गति जो अवलोके;
रखे न प्रिय फल-चाह बीज विष-तरु के बोके।
कभी कुलिश हो, कभी कुसुम-कोमल बन जावे,
विधाु-सा मधाुर विकास, तपन-सा ताप दिखावे।
वारिधिा-सा गंभीर, धाीर, मर्यादित होवे;
सुरसरि-सलिल-समान मलिन मानव-मल धाोवे।
मानस होवे सकल गौरवित गुण-तरु-थाला;
उर पर विलसे रुचिर नीति-सुमनावलि-माला।
इस रहस्य को जान बन प्रकृति-देवि-उपासी;
हों प्रवास-सुख-सुखित प्रवासी भारतवासी।
युवक
जाति-आशा-निशि-मंजु-मयंक;
कामना-लतिका-कुसुम-कलाप;
युवक है लोक-कालिमा-काल,
देश – कमनीय – कंठ – आलाप।
जगाता है नव-जीवन-ज्योति
राग-आरंजित जिसका गात;
लोक-लोचन का है जो ओक,
युवक है वह भव-भव्य-प्रभात।
सुमनता है जिसकी स्वर्गीय,
सफलता वसुधाा-सिध्दि-विधाान,
मिली जिसमें मोहकता दिव्य
युवक है वह महान उद्यान।
बने महिमा-मंडित अवनीप
दे जिसे स्व-मुकुट-मंडन-मान;
अचल है जिसकी अंतर्ज्योति,
युवक है वह महि-रत्न महान।
बहा वसुधाा पर सुधाा-प्रवाह,
बन सका जो मंडन भव शीश;
तिमिर में भरता है जो भूति,
युवक है वह राका-रजनीश।
ललित लय जिसकी है प्रलयाग्नि,
या परम-द्रवण-शील-नवनीत;
भरित है जिसमें विजयोल्लास,
युवक है वह स्वदेश-संगीत।
नरक जिससे बनता है स्वर्ग,
मरु महीतल नंदन-उद्यान;
कल्पतरु-सम कमनीय करील,
युवक है वह अनुभूत विधाान।
प्रबल है जिसका हृदयोल्लास
उदधिा-उत्ताल- तरंग-समान;
पवि-पतन है जिसका विक्षोभ,
युवक है वह प्रचंड उत्थान।
दग्धा कर शिर पर पड़ उर वेधा
दुर्जनों का करता है अंत;
भयंकर प्रलय-भानु, यम-दंड,
युवक है काल-सर्प-विष-दंत।
प्रलय-पावक का प्रबल प्रकोप,
अग्नि-गिरि का ज्वलंत उद्गार;
त्रिालोचन-अनल-वमन-रत-नेत्रा,
युवक है मूर्तिमंत संहार।
(13)
जीवन-संग्राम
जीवन-रण-नाद
सभी चाहता है कि चमके सितारा;
रहे सब जगह रंग रहता हमारा।
पलक मारते काम हो जाय सारा;
जगे भाग का सब दिनों हो सहारा।
सँवरता रहे घर सुखों के सहारे;
रहें फूल बनते दहकते ऍंगारे।
किसे है नहीं चाह, आराम पाएँ;
उमंगों-भरे जीत के गीत गाएँ।
बड़ी धाूम से धाक अपनी बँधााए;
बड़े घाघ को उँगलियों पर नचाएँ।
खिले फूल-जैसा खिलें, रंग लाएँ;
ऍंधोरे घरों में चमकते दिखाएँ।
मगर चाह से कुछ कभी है न होता;
अगर कोई अपनी कसर है न खोता।
फलों से न वह किस तरह हाथ धाोता;
रहा बीज को जो कि ऊसर में बोता।
नहीं काम की है लगन जिसमें पाती,
कमाई उसे है ऍंगूठा दिखाती।
बड़े दिन-ब-दिन जो बने जा रहे हैं,
अमन-चैन के गीत जो गा रहे हैं,
हुनर से भरे जो कि दिखला रहे हैं,
जिन्हें आज फूला-फला पा रहे हैं,
बड़े-से-बड़े काम करके हैं छोड़े;
उन्होंने उचक करके तारे हैं तोड़े।
पसीना गिरे जो कि लोहू गिरावें;
पड़े काम सर को गँवा काम आवें।
कहा जाय जो कुछ, वही कर दिखावें;
समय आ गये जान पर खेल जावें।
बता दीजिए, हममें कितने हैं ऐसे;
भला फिर नहीं खायँगे मुँह की कैसे?
सदा ऑंख के सामने हो उजाला;
बने बात बिगड़ी, रहे बोलबाला।
सगे हों सगे, हो भरा प्यार-प्याला;
खुले खोलने से सभी बंद ताला।
यही धाुन है, पर हाथ में है न ताली।
रहेगी भला किस तरह मुँह की लाली।
रुके काम आकाश में दौड़ जावें;
लगा ठोकरें पर्वतों को गिरावें।
वनों को ख्रगालें, धारा को हिलावें;
उतरकर समुद्रों में हल-चल मचावें।
न जब रह गये जाति में वीर ऐसे;
रसातल चले जायँगे तब न कैसे?
कभी भाग ऐसा हमारा न फूटा;
गया घर कभी यों किसी का न लूटा।
कभी इस तरह जाति का सिर न टूटा;
कभी साथियों का न यों साथ छूटा।
मगर आज भी ऑंख है खुल न पाती;
न फटती दिखाती है पत्थर की छाती।
हमें आज है कौन-सा दुख न मिलता;
छिनी ऑंख की पुतलियाँ, मुँह है सिलता।
खुले आग हम पर सगा है उगिलता;
मगर हिल गये भी नहीं दिल है हिलता।
कलपतों को देखे नहीं जी कलपता;
कलेजा कढ़े है कलेजा न कँपता।
चले बात, जो हैं हमारे कहाते;
वही आज हैं घर हमारे ढहाते।
जिन्हें चाहिए था कि ऑंसू बहाते;
हमारे लहू से वही हैं नहाते।
बहुत डगमगा है रहा जाति-बेड़ा;
लगा मुँह पर उनके न अब तक थपेड़ा।
किसी में है धाुन धााँधाली की समाई;
लगी है किसी के कलेजे में काई।
किसी की समझ को गयी छू है बाई,
किसी की सनक है नया रंग लाई।
कहें किससे क्या जाय दुख क्यों ऍंगेजा,
बिपत कहते आता है मुँह को कलेजा।
सभी जातियों को है जिसने जगाया;
जगी जोत से है भरी जिसकी काया।
नरक को भी जिसने सरग है बनाया;
कमल जिसने है ऊसरों में खिलाया।
नहीं रह सकेगी जो वह जाति जीती;
तो दुनिया रहेगी लहू-घूँट पीती।
बिना जल कमल हैं न खिलते दिखाते;
बिना जड़ नहीं पेड़ फल-फूल लाते।
रहे हाथ का जो कि पारस गँवाते।
उन्हें देख पाया न सोना बनाते।
नपेगा गला जाति-गरदन नपाए;
न होगा भला आग घर में लगाए।
कई सौ बरस से यही हो रहा है;
हमें भाग बिगड़ा हुआ खो रहा है।
इधार सुधा गँवाकर सुदिन सो रहा है;
उधार देख हमको समय रो रहा है।
तो दिन जाति का और ही आज होता;
हमारा कुदिन जो नहीं आग बोता।
उठो हिंदुओ, धााक अपनी जमा लो;
सचाई के बल से बला सिर की टालो।
सँभलकर बहकते दिलों को सँभालो;
बिपत में पड़ी जाति अपनी बचा लो।
विजय का घहरता रहेगा नगारा;
फहरता रहेगा फरेरा तुम्हारा।
(14)
विविधा रचनावली
कवींद्र-पंचक
महाचमत्कारक, लोल-लोचना,
विचार-धारा-वलिता, विचक्षणा,
चतुर्मुखी, रोचक-चित्रा-चित्रिाता,
विचित्रा है केशव-चित्ता-चातुरी।
समुद्र-उत्ताल-तरंग-सी लसी,
सुमेरु के शृंग-समान शोभिता,
विरक्ति-हीना, अनुरक्ति से भरी,
अचिन्त्य है केशव-उक्ति-उच्चता।
सुधाा-समाना, सरसा, मनोहरा,
सुरापगा-सी सितता-विभूषिता,
सिता-समा है वसुधाा विकासिनी,
सुहासिनी केशवर्-कीत्तिा-सुंदरी।
बड़ी रसीली, मधाु माधाुरीमयी,
लसी लता-सी, सरि-सी तरंगिता,
प्रसून-सी है लसिता विकासिता,
कलामयी केशव-कांत-कल्पना।
नहीं बनाती किसको विमोहिता,
नहीं बढ़ाती किसकी विमुग्धाता;
विदग्धाता आकलिता सुझंकृता,
अलंकृता केशव की पदावली।
स्वागत-गान
(1)
आज कैसा सुंदर दिन आया।
जिसकी सुंदरता की जन-मन-मुकुर में पड़ी छाया।
काशी धााम-समान दूसरा धार्म-पीठ न सुनाया;
कहाँ विलसती है, निशि-वासर विश्वनाथ की माया।
कौन विविधा विद्या-विवेक का सिध्द पीठ कहलाया;
बुध्ददेव ने धार्म-चक्र रच कहाँ सिध्दि-फल पाया।
सुरसरि-पावन, सुरपुर-सम यह पुर क्यों गया सजाया;
क्यों महिमामय काशिराज को यहाँ गया पधाराया।
देश-देश से आज क्या वही विबुधाों का दल आया;
गिरादेवि अंकम में जिसकी पली कीर्तिमय काया।
पलक-पाँवड़ा जन-जन ने स्वागत के लिए बिछाया;
पाकर ऐसे विबुधा यह नगर फूला नहीं समाया।
उसने उनको चारु चाव का चंदन तिलक लगाया;
प्रेम-सहित आनंद-कुसुम का गजरा गूँथ पिन्हाया।
विद्या-बल से टले अविद्या, हो भव का मनभाया;
इस महान शिक्षा-सम्मेलन का हो सुयश सवाया।
(2)
सादर हम स्वागत करते हैं।
बरसाने के लिए कल कुसुम मंजुल अंजलि में भरते हैं।
अंतरज्योति जगाकर उसकी क्यों न जाय आरती उतारी;
जिस प्रभु की प्रभुता अवलोके हुई जन-विबुधाता बलिहारी।
जिसने बन आनंद-वन-अधिाप मन को आनंदित करडाला;
क्यों न निछावर नयन करे उस पर अपनी मुक्ताकीमाला।
(3)
आज खुल गया भाग हमारा।
जहाँ दिखाते थे दुख-सोते, बही वहाँ रस-धारा।
दिन फिर गये पड़ी धारती के, सूखा पौधाा फूला;
हुआ आज जंगल में मंगल, मिला सुख समय भूला।
जो श्रीमान् श्रीमती को ले करके कृपा पधाारे;
तो हुन बरस गया ऊसर में, काम सधा गये सारे।
ऐसे ही सुंदर दिन आवें, सुयश रहे जग छाया;
सदा सब सुजन जन के सिर पर बना रहे प्रभु-साया।
(4)
हम हैं प्रभु को शीश नवाते।
उमग-उमग स्वागत करते हैं, फूले नहीं समाते।
बड़े भाग से ऐसे अवसर कभी-कभी हैं आते;
लघु जन पर श्रीमानों-जैसे जन हैं कृपा दिखाते।
नाम आपका ले जीते हैं, कीर्ति आपकी गाते;
मिले आपका बल पलते हैं, सोया भाग जगाते।
हाथ जोड़कर मंगलमय से हम हैं यही मनाते;
फूलें-फलें, सुयश ले जीवें, रहें सकल सुख पाते।
समाज
बजाए वह वीणा रमणीय,
मधाुरतम हो जिसकी झंकार;
मर्ूच्छनाओं में हो वह मोह,
मुग्धा हो जिसको सुन संसार।
बताए वह अनुपमतम सूत्रा,
सकल पद जिसके हों बहु पूत;
साधानाओं में हो वह मंत्रा,
सिध्दियाँ जिसकी हों अनुभूत।
विलसती हो जिसमें सब काल
व्यंजना-लतिका बन छविमान;
खिले हों जिसमें पुलक-प्रसून,
रचे वह रुचिर-भाव-उद्यान।
साधा सीपों को दे बर बूँद
बनाए गौरव मुक्तावान;
करे जीवन-विहीन को पीन
जलद-सम करके जीवन-दान।
कलाएँ उसमें हों अति कांत,
भावनाएँ बहु अनुभवनीय;
कल्पनाएँ इतनी मृदु भूत
भरी हों जिसमें धवनि स्वर्गीय।
सुधााकर-कर-सा बन कमनीय
सजाए सारे सुखकर साज;
सरसता कर वसुधाा को दान,
सुधाा-रस बरसे सुजन-समाज।
क्रान्ति
हाथ में उसके हो वह दीप,
जो तिमिर भव का कर दे दूर;
स्नेह-पूरित हो जिसका अंक,
ज्योति जिसमें होवे भरपूर।
पास उसके हो वह वर बीन,
विनयमय हो जिसकी झंकार;
सुनावें विश्व-बंधाुता-राग
छिड़े पर जिसके ध्वनिमय तार।
धारा जिससे होती है धान्य,
मिले उसको वह मंजुल प्यार;
चयन कर सरसभाव सुप्रसून,
रचे वह जिससे भव-हित-हार।
कांति जिसकी हो भव कमनीय,
बदन पर जिसके हो बहु शांति,
भरे हों जिसमें हितकर भाव,
भरत-भूतल में हो वह क्रांति।
सहेली
उलझे जाए सुलझ, भूलती राह बताए;
मुँह न चिढ़ाए, बने रंगरलियाँ कर प्यारी।
कभी गुदगुदाए इतना न कि ऑंसू आए;
सदा सींचती रहे हृदयतल की फुलवारी।
रहे खीज में रीझ कलेजे में कोमलता;
सुख देखे हो सुखी, दुखों में दुखी दिखाए।
जो बिजली-सी कौंधा-कौंधा दहलाए दिल को;
तो बादल की तरह पिघलकर रस बरसाए।
मीठी बातें कहे, चुटकियाँ ले-ले छेड़े;
गाए सुंदर गीत कहानी चुनी सुनाए।
दे सीखें हित-भरी, बंद ऑंखों को खोले;
बड़े ढंग से बहुत ऊबता जी बहलाए।
मचल-मचलकर नई रंगतें रहे जमाती;
बेलमाती ही रहे मनों को बन अलबेली।
ऑंखों में हो प्यार, फूल मुँह से झड़ पाए;
हँस-हँस जी की कली खिलाती रहे सहेली।
राजस्थान
जहाँ वीरता मूर्तिमंत हो हरती थी भूतल का भार,
जहाँ धाीरता हो पाती थी धार्म-धाुरीण-कंठ का हार,
जहाँ जाति-हित-बलि-वेदी पर सदा वीर होते बलिदान,
जहाँ देश का प्रेम बना था सुरपुर का सुखमय सोपान,
जिस अवनी के बाल-वृंद ने काटे बलवानों के कान,
चमकीं जहाँ वीर बालाएँ रणभू में करवाल-समान,
किए जहाँ के नृपति-कुल-तिलक ने कितने लोकोत्तार काम,
जिस लीलामय रंगअवनि में उपजे नाना लोक ललाम,
वहाँ आज क्यों सुन पड़ता है कलह-कंठ का प्रबल निनाद;
है बन रहा वहाँ पर प्रतिदिन क्यों प्रपंचियों का प्रासाद?
क्यों कायरता थिरक रही है गा-गाकर विलासिता-गान?
क्यों गौरव है रौरव बनता कर मदांधाता-मधाु का पान?
जिसके एक-एक रज-कण पर लगी राजपूतों की छाप,
जिसका वातावरण समझता रण में पीठ दिखाना पाप,
जिसके पत्तो मर्मर रव कर रहे पढ़ाते प्रभुता-पाठ,
जिसके जीवन-संचारण से हरित हुआ था उकठा काठ,
अहह! आज किसलिए बन गया वह निर्जीवों का सिरमौर;
गरल वमन करता है क्यों वह, सुधाा-भरित था जिसका कौर।
सुने धार्म का नाम हृदय में उसके क्यों होती है दाह?
क्यों बहता है मद-प्रवाह में, क्यों उसकी पंकिल है राह?
उठा-उठाकर अपने शिर को व्यथित अर्वली बारंबार,
अवलोकन करता है घिरता प्रिय प्रदेश में तिमिर अपार।
कभी विविधा निर्झर-मिष उसके दृग से बहती है जल-धाार,
कभी धारा में धाँस जाता है वह विलोककर अत्याचार।
परम सरसता-सहित प्रवाहित सरस्वती का पीकर आप,
दूर किया था मरुअवनी ने अपने अंतर का बहु ताप।
किंतु आज निज मातृभूमि की अति दयनीय दशा अवलोक,
प्रतिपल प्रतपित हो जाती है, शोकित बन जाता है ओक।
दूर खड़ा चित्ताौड़-दुर्ग भी दिन-दिन होती दुर्गति देख,
चिंतित हो-होकर पढ़ता है निज कुंठित कपाल का लेख।
पुष्कर-सलिल-लहरियों के मिष बार-बार बनकर बहु लोल,
विदित व्यथा अपनी करता है, किंतु नहीं मुख सकता खोल।
उत्साहित प्रतिपल करते हैं किसी शक्ति के कुछ संकेत;
सुन पड़ती है अति अपूर्व धवनि, क्यों हो जाता नहीं सचेत।
किसी देव की दिव्य ज्योतियाँ हैं तन में कर रही प्रवेश;
मानस के शुचि-भाव-मुकुर में प्रतिबिंबित है भव आदेश।
जाग-जाग, तू बहुत सो चुका, अब तो अपने बल को तोल;
तिमिर टल चला, सूरज निकला, खोल-खोल, ऑंखों को खोल।
भारतमाता मुग्धा खड़ी है, जन-जन-मन है आशावान;
भारत तेरा बदन देखता है आकुल बन राजस्थान।
विडंबना
कंटकित हो क्यों कुसुमित सेज,
बने क्यों अकलित कुसुम-कलाप;
किसी की विलसित ललित उमंग
बने क्यों क्रंदन-बलित विलाप।
हरें क्यों अलकावलि का मान
किसी के पलित पुरातन केश;
मधाुरतम-स्वर- लालायित-कान
सुने क्यों नीरस कंठ-निदेश।
दले क्यों कोई अमृदुल वृत्तिा
किसी के कोमल कितने भाव;
रोक दे क्यों सुख-सरस-प्रवाह
मरुमहीतल-सम शुष्क स्वभाव।
जराजित, मोह-राहु-अभिभूत
रहे क्यों यौवन-मंजु-मयंक;
हरे क्यों नवला-हृदय-विनोद
किसी कंकाल भूत का अंक।
सुनाते हैं यम का संदेश
श्वेत हो-होकर जिसके बाल;
विवश को क्यों लेवे वह बाँधा
ग्रंथि-बंधान का बंधान डाल।
कुचल दे क्यों कुसुमायुधा हीन
किसी की विकच कामना-बेलि;
करे क्यों युवती-सुख का लोप
किसी गत-यौवन-जन की केलि।
काल-बलि-भूत मिलिंद निमित्ता
कमलिनी का क्यों हो बलिदान;
करे क्यों दलित कुसुम के हेतु
नवलतम कलिका जीवन-दान।
काठ उकठा क्यों हो उत्कंठ
वनज-सम विकसित वदन विलोक;
बने क्यों अतन-बाण से विध्द
गलित तन नूतन तन अवलोक।
गये जिसके रस-सोते सूख,
लालसा से क्यों हो वह लोल;
करे क्यों मदनमयी को दग्धा
काम-विरहित का काम-कलोल।
राग क्यों हो विराग-आधाार,
रहे क्यों अनुरंजन से दूर;
बने क्यों किसी भाल का काल
असुंदर हो सुंदर सिंदूर।
(15)
कामद कवित्ता
(1)
भाव-भक्ति
पादप के पत्तो हैं प्रताप के पताके हरे,
क्यारियाँ सुमन की सुमनता सँवारी हैं;
तेरे अनुराग-राग ही से रंजिता है उषा,
नाना रवि तेरे तेज ही से तेजधाारी हैं।
‘हरिऔधा’ तेरे रंग ही में रजनी है रँगी,
विधाु की कलाएँ कर-कंज की सुधाारी हैं;
महा प्रभावान पूत नख की प्रभा से लसे
सारे नभ-तारे तेरे पग के पुजारी हैं।
सेमल को लाल-लाल सुमन मिले हैं कहाँ,
पीले-पीले पुष्प दिए किसने बबूलों को;
तुली तूलिकाएँ ले-ले कैसे साजता है कौन
सुललित लतिका के कलित दुकूलों को।
‘हरिऔधा’ किसके खिलाए कलिकाएँ खिलीं
दे-दे दान मंजुल मरंद अनुकूलों को;
किससे रँगीली साड़ियाँ हैं तितली को मिली,
कौन रँगरेज रँगता है इन फूलों को?
किसके करों से है धावलिमा निराली मिली,
किसके धाुलाए हैं धावल फूल धाुलते;
किसके कहे से ओस-बिंदु सुमनावली के
मोहकर मानस हैं मोतियों से तुलते।
‘हरिऔधा’ किसके सहारे से समीर द्वारा
मंजुल मही में हैं मरंद-भार ढुलते;
किसके लुभाने के बहाने मनमाने कर
रात में खजाने रत्न-राजि के हैं खुलते।
झर-झर झरने उछाल वारि-बिंदुओं को
अंक किसका है मंजु मोतियों से भरते;
पादप के पत्तो हिल-हिल हैं रिझाते किसे,
खिल-खिल फूल क्यों सुगंधा हैं वितरते।
‘हरिऔधा’ किसी ने न इसका बताया भेद,
सकल फबीले फल क्यों हैं मन हरते;
बजते बधाावे क्यों उमंग-भरे भृंग के हैं,
क्यों हैं रंग-रंग के विहंग गान करते?
कामना-कलित-कलिका को है खिलाता कौन,
मधाु है मिलाता कौन मानस-हिलोरे में;
कौन है विलसता सरस वासना के मधय,
रस भरता है कौन प्रमद कमोरे में।
‘हरिऔधा’ लालायित होती है ललक काहें,
कौन लसता है लोक-लालसा के कोरे में;
कौन लाभ हुआ लोने-लोने लोचनों के मिले,
जो न लाली लाल की दिखाई लाल डोरे में।
लगन लगे भी लालसाएँ जो ललाती रहीं,
कैसे तो न लोक-लाल लोलुपों को टोकेंगे;
वसुधाा विकासिनी विभूति-विरहित जन
सुधाा को प्रवाह कैसे मानस में रोकेंगे।
‘हरिऔधा’ कैसे कांत-कामना-विहीन कर
मनुजात जीवन-महान-फल लोकेंगे;
जो न बने मानस-मुकुर मल-मोचन, तो
कैसे लोक-लोचन को लोचन विलोकेंगे।
किस लोक मंजु की महान मंजुता से रीझ
महँक रही है वायु महँक अधिाक ले;
किस मधाु-सिंधाु को सुनाता है मधाुर गान
अति कमनीय तान मधाुप रसिक ले।
‘हरिऔधा’ कूक-कूक किसे है बनाता मुग्धा
रुचिर रसाल-मंजरी का रस पिक ले;
किसे अवलोके फूल खिलते अघाते नहीं,
किसके विलोके कुंद के हैं दाँत निकले।
जिसकी पुनीत भावना में उर लीन रहे,
क्या न वह भाव-भरी मुरली बजाएँगे;
क्यों न रोम-रोम में भरेंगे तमहारी तेज,
क्या न मीत जन को अमीत कर पाएँगे।
‘हरिऔधा’ जिसकी सजीवता सजीवन है,
लोग जाग जिससे जगत को जगाएँगे;
क्या न वह गान फिर गाएँगे कृपानिधाान,
क्या न वह मंजु तान कान को सुनाएँगे।
किसे लाभ कर महि महिमामयी है हुई,
किसकी पुनीत केलि कीर्ति-कलसी-सी है;
मानवता किसकी महान मति से है लसी,
दानवता किसके पदों से गयी पीसी है।
‘हरिऔधा’ ऐसी पति-देवता कहाँ है मिली,
किसकी प्रतीति प्रीति प्रगति सती-सी है;
कौन पाप-पीन-जन पातक-निकंदिनी है,
कौन जग-बंदिनी जनक नंदिनी-सी है।
(2)
गंगा-गौरव
अंग-अंग में है लोक-पावन प्रसंग भरा,
रूप अवलोकनीय रंग बहु न्यारा है;
तरल तरंग में हैं मंजु भावनाएँ बसी,
संचित विभूति में लसित भाव प्यारा है।
‘हरिऔधा’ अंक अलौकिकता निकेतन है,
कमनीय कला कांत कलित किनारा है;
सारा मलहारी सतोगुण का सहारा महा,
सुधाा-से सरस गंगा तेरी रस-धारा है।
भारत-धारा में भरी ऐसी भव-भावनाएँ,
जिससे विभूतिमान बना भिखमंगा है;
काल-अनुकूल लगे कूल की कलित वायु
ललित विचारवाला बनता लफंगा है।
‘हरिऔधा’ देखे देव-दारिका-सी दिव्य भूति
दबता दुरंत यमदूत-दल-दंगा है;
भूतल की रंगा रंग रंजनाओं-से है लसी,
पावन-प्रसंगा गंगा तरल-तरंगा है।
पूजन-भजन कर कुजन सुजन बने,
भारत का जन-जन जानता है इसको;
भव में भवानी-पति-सा ही भूतिमान किया,
भाव से भरितभावना दे जिस-तिसको।
‘हरिऔधा’ सगर-सुअन का सँवारा जन्म,
तारा उसे, कोई तार पाता नहीं जिसको;
सुधाा को उधाार वसुधाातल-सहारा बनी,
सुरसरि-धारा ने सुधारा नहीं किसको?
शंभु के गरल की गरलता न दूर होती,
सहज तरलता न सिंधाु की निबहती;
हिमवान महिमा-निधाान बन पाता नहीं,
शुचिता न लोक में महत्ता पाती महती।
‘हरिऔधा’ पावनता मिलती पाताल को न,
भूतल में भरित अपावनता रहती;
करते असुरता असुर के समान सुर,
सुरसरि-धारा जो सहारा दे न बहती।
पूत सरि-धारा की सफल भूत साधाना है,
सुर-पुर-धााम की मनोरम निसेनी है;
पावन है परम अपावन मनुज-मन,
सरस, सुहावन, सकल सुख-देनी है।
‘हरिऔधा’ लाल, सित, असित विकासमयी
भारत-वसुंधारा की विलसित बेनी है;
त्रिादिव त्रिादेव-सी पवित्राता-निकेतन है,
त्राासिनी त्रिाताप की त्रिालोक में त्रिाबेनी है।
सुरसरि-धारा है उपासना सतोगुण की,
सब सुख-सौधा की अलौकिक निसेनी है;
कलित कलिंद-नंदिनी-सम सुकेलिमयी
घन रुचि तन की समाधिा सुख-देनी है।
‘हरिऔधा’ लोक-अनुरंजनी सु अनुरक्ति,
शारदा-सी पाहन कुछावन की छेनी है;
सिकता-विधाायिनी है तामस रसिकता की,
मानव की पूत मानसिकता त्रिाबेनी है।
भारत-विभूति
सब-भूत-हित की विभूति विलसी है कहाँ,
विश्व-बंधाुता की निधिा किसकी बही में है;
मानवता कहाँ है कुसुम-कलिका-सी खिली;
दिव्यता कहाँ के कवि-कुल की कही में है।
‘हरिऔधा’ आलोकित लोक? किससे है हुआ,
सुरपुर-सत्ता बसी किसकी सही में है;
भुवन-विमोहिनी महान मंजुता है कहाँ,
भारत ही मंजुतम मंजुल मही में है।
सारी वसुधाा में है बगारती विमल मति,
पाहन-समूह में है प्रतिभा पसारती;
वारिधार-सदृश विवेक-वारि बरसा के
भूतल में स्वर्गिक विभूति है उतारती।
‘हरिऔधा’ भावना सुधाारती है भावुक की,
मानस में पूत भूत भाव है उभारती;
भरत कुमार भूति भारती की मूल भूत
भारतीयता से भरी भारत की भारती।
आया क्यों धारा में, क्यों कहाया भारतीय जन,
भूत जो भगाया नहीं भारभूत पापी का;
पूज-पूज सुर-वृंद कौन-सी विभूति पाई,
बल जो बिलाया नहीं प्रबल प्रलापी का।
‘हरिऔधा’ कैसे तो सपूती न कपूती होती,
न गया मिटाया जो प्रमाद आपाधाापी का;
देश परितापी को तपाया जो न दे-दे ताप,
पाया जो न पौरुष प्रताप से प्रतापी का।
भारतीय भारती तो आरती उतारती क्यों,
भारत-धारा की धाीरता में जो न सनते;
कैसे जन करता यजन कर गुण-गान,
जन्मभूमि वैरियों की जड़ जो न खनते।
‘हरिऔधा’ कैसे देवी-देवता तो देते मान,
तन वारि सुयश-वितान जो न तनते;
जय बोल-बोल जाति बलि-बलि जाती कैसे,
जो न बलि-वेदी के प्रताप बलि बनते।
विधिा-विधाान
अकलित कुसुम ललित पल्लवोें में मिले,
भावुकता भूल-सी विलोके भाल-अंक में;
समझे तिमिर में अलोचनता लोचन की,
निवसे अकिंचनता कंचन की लंक में।
‘हरिऔधा’ विधिा की है वंकता विदित होती,
पाए गये रंकता करंकी भूत रंक में;
अवलोके सुरसरि मंजु अंक को सपंक,
कलुष कलंक देखे मानस-मयंक में।
कुल-लाल होते हैं अकाल काल-कवलित,
सेंदुर विपुल बालिका का धाुल जाता है;
लाखों मालामाल, लाखों पेट हैं न पाल पाते,
लाखों सुखी, लाखों का कपाल कलपाता है।
‘हरिऔधा’ देव-कुल होता है दलित नित,
फूला-फला दानव का दल दिखलाता है;
अबुधा-अबुधाता विधाान है बताता यह,
विबुधा भले ही बने बुधा न विधााता है।
मोह-महत्ता
सुख को असुख, महा नीरस रसों को कर
कलित कुसुम को कुलिश कर पाता है;
देता है मलिन बक-माला को मराल-पद,
ललित रसाल को बबूल बतलाता है।
‘हरिऔधा’ विधाना-विधाान है विबोधा जन,
सुधाा-सम वसुधाा का जीवन-विधााता है;
आप ही मनुज-कुल लाल को कराल काल
काला नाग मंजु मणि-माल को बनाता है।
बहु सुख-लालसा दिखाती है लहू से भरी,
लोभ लाखों लोगों का रुधिार पी ललाता है;
धाूल में मिलाता है सुमेरु-सेसदन मद,
कोप-दव दिवि को दहन कर पाता है।
‘हरिऔधा’ पामरता-पूरित कलंक अंक
कामना-कसाइनी ललाट पै दिखाता है;
करके अमानवता फूला है समाता नहीं,
महि में न कौन पाप मानव कमाता है।
भव को प्रपंच मान भोग के न भोगी रहे,
श्रम बहु भाया भगवान के भजन का;
उचित विराग राग के न अनुरागी रहे,
झूठा ज्ञान रहा यजनीय के यजन का।
‘हरिऔधा’ अयथा विवेक के विवेकी रहे,
बोधा न हो पाया बुधा बोधाक वचन का;
गगन-सुमन-अनुमोदक सदैव रहे,
खाते रहे मोदक समोद हम मन का।
बड़े-बड़े लोचन के लालची बने ही रहे,
बिसर न पाई बात बेंदी बिकसी की है;
छीछी-छीछी कहैं लोग, छीछी की किसे है सुधा,
सुछवि न भूल पाई छाती उकसी की है।
‘हरिऔधा’ चूक-चूककर भी न चूक चुकी,
कसक सकी न कढ़ कंचुकी कसी की है;
उकस-उकस आज भी न कस में है मन,
अकस न छूट पाई काम अकसी की है।
प्राकृतिक दृश्य
रजत विराजित विलोक तरु-राजि-दल,
मोहकता अवलोक अवनी अपंक की;
भाए विभा-वलित दिगंगना विशद भाल,
छाए छवि-पुंजता रुचिर छवि रंक की।
‘हरिऔधा’ राका-रजनी-सी रंगिणी के मिले,
छीर-निधिा की-सी छटा देखे सरि अंक की;
चाँदनी-समान चारु हासिनी विकास व्याज
बिहँस रही है आज मंजुता मयंक की।
नाना स्वाद-सदन मनोहर सिता-समान
वसुधाा विनोदन सुधाा-निधिा में धाँसे हैं;
दाख-से सरस मधाु-मंजु कंज-कमनीय,
माधाुरी की मधाुर कसौटी पर कसे हैं।
‘हरिऔधा’ लालायित होता है विलोक लोक,
लोच भरे लालची विलोचन में बसे हैं;
आहा! कैसे तरु में फबीले सौरभीले भले
पीले-पीले परम रसीले आम लसे हैं।
नीलम के हार-से लसे हैं हरे पल्लवों में,
पादप की मोद-भरी मंजुता के थल हैं;
बानर के व्यंजन, विहंगम के मेवे मंजु,
केकी के कलोल, काक-कुल के कवल हैं।
‘हरिऔधा’ मेदिनी विकास के सलोने लाल,
डाल के हैं माल, बाल-मंडली के बल हैं;
मतवाले भृंग-से निराले घन लाले पाले,
काले-काले छविवाले जामुन के फल हैं।
सरस बनाती है विलोचन प्रभात काल
लिये ओस-बिंदुओं की छोटी-छोटी कलसी;
करती है पुलक वलित केलि कामुक को,
बन-बन किरण कला की कांत कलसी।
‘हरिऔधा’ पाई अभिरामता धारा में रम,
नेह-पगे गयी गात श्यामता में ढल-सी;
नीले-नीले फूलों में बसी है क्या निराली छटा,
हरे-हरे-दल में लसी है कैसी अलसी।
ऊषा-सुंदरी क्यों राग-रंजित द्विगुण हुई?
लालिमा चढ़ी है क्यों दिगंगना-दुकूलों पर?
रोली-भरा थाल कौन लाल लौट गया आज,
परम ललाम भूत लोक-छवि-मूलों पर।
‘हरिऔधा’ कौन-सा सरस उर होली खेल
बरस रहा है रंग निज अनुकूलों पर;
किसके अबीर फेंके महुए हुए हैं लाल,
किसने गुलाल डाला सेमल के फूलों पर?
मुँह खोल-खोल जब बान हँसने की पड़ी,
तब हँस-हँस क्यों न सबको हँसाएँगे?
महँ-महँ महँक रहे हैं जो महँक भरे,
कैसे तो न महती मही को मँहकाएँगे।
‘हरिऔधा’ पाई है बहार तब कैसे नहीं,
हार किसी महिमामयी को पहिनाएँगे;
रंगवाले मिले आज दुगुने रँगीले बने,
कैसे फूल रंग ला न रंग दिखलाएँगे।
लाली मिले किसकी कलित किसलय हुए,
पत्तो महुए के हो गये हैं क्यों ललिततर;
रँग गया रोचन से रुचिर फलों के साथ
वट के नवलदल कौन कमनीय कर।
‘हरिऔधा’ कोई क्यों नहीं है बतलाता हमें,
सारे कचनार क्यों अबीर से गये हैं भर;
रंग खेल किससे पलास हो गये हैं लाल,
किसने गुलाल फेंका ऊषा के कपोल पर।
विविधा विषय
लोग बोली बोलेंगे, करेंगे बोलती तो बंद,
बाल-बाल बीनेंगे बला जो बन जाएँगे;
चाल जो चलेंगे, तो चलेंगे हम लाखों चाल,
मुँह नोच लेंगे, कभी मुँह जो बनाएँगे।
‘हरिऔधा’ वैरियों को दम लेने देंगे नहीं,
ऑंख तो निकाल लेंगे, ऑंख जो दिखाएँगे;
बात-बात ही में बात उनकी बिगाड़ देंगे,
सौ-सौ बात एक बात के कहे सुनाएँगे।
कामद कला से कांत कलित कलेवर है,
कमनीय कांत कौमुदी है रमी अंक में;
भावमयी मत्ताता मधाुर भूत माधाुरी है,
लोक लोभनीयता है कल्पना कलंक में।
‘हरिऔधा’ सरसे बरसता सरस रस,
बिकच सरोज-सा लसा है भाव अंक में;
विबुधा-विमोहिनी विभूति बहुधाा है बनी,
वसुधाा सुधाा है मंजु मानस मयंक में।
बहु वंदनीय जन द्वारा वंदनीय बने,
वंकता अवंकता हुई है बाल-वंक की;
लोकपति लोचन कहाए मुख लाली बची,
कलित कला में डूबी कालिमा कलंक की।
‘हरिऔधा’ पाए द्विजराज-सा पवित्रा पद,
वंचना पुनीत बनी पूत रुचि अंक की;
पाप-पंक-मज्जित हुए भी न हुई मलीन,
भव-भाल-अंक बनी महिमा मयंक की।
आलस-तिमिर-तोम मिहिर मरीचियाँ हैं,
बहु विधा बाधाा विहगावलि तुफंगें हैं;
उर-सर-विलसित विलुलित वीचियाँ हैं,
मानस-गगन में विराजित पतंगें हैं।
‘हरिऔधा’ सुरभि सुरुचि सुमनालि की हैं,
प्रचुर प्रयास-पयोनिधिा की तरंगें हैं;
हास-भरी विविधा विलास-भरी आस-भरी,
यौवन-विकास-भरी युवक-उमंगें हैं।
ज्वालामुखी-ज्वाल-माल-सी हैं बड़ी विकराल,
महा काल-कर की अकुंठित तुफंगें हैं;
फुँकरत शेष के सहò फन की है फूँक,
अग्निमयी प्रलय प्रभंजन-तरंगें हैं।
‘हरिऔधा’ विदित कराल कालव्यालिनी हैं,
पातकी प्रकांड गिरिधवंसिनी सुरंगें हैं;
भैरव भयंकरी अशंकरी कपालिका-सी,
लोक-प्रलयंकरी युवक की उमंगें हैं।
तम-तोम काँप उठा, महि मुसुकाने लगी,
उर में समीर के निवास किया रस ने;
विकसे प्रसून, विटपावलि विकच बनी,
लता-बेलि-तन में विलास लगा बसने।
‘हरिऔधा’ उमगी दिगंगना विहँस उठी,
गगन में विपुल विनोद लगा लसने;
भागी जाती यामिनी के पीछे पड़े तारे देख,
खिल गयी चाँदनी मयंक लगा हँसने।
विबुधा-समूह हो विवेकी लोक वंदनीय,
नेता मतिमान नीति-नियम-निरत हो;
जन-जन में हो नवजीवन विराजमान,
समय-प्रवाह जनता को अवगत हो।
‘हरिऔधा’ लोक कमनीय कामना है यही,
युवक-समाज धाीर, वीर, धार्म-रत हो;
देश औ’ विदेश की विलोके वर्तमान दशा,
सच्ची देश-सेवा देश-सेवक का व्रत हो।
जो न सँभलेंगे, मुँह के बल गिरेंगे क्यों न,
ठीक न चलेंगे, ठोकरें तो क्यों न खाएँगे;
बात-बात में जो बहँके, तो क्यों रहेगी बात,
बात बिगड़ेगी क्यों न, बात जो बनाएँगे।
‘हरिऔधा’ बिना मुँह खोले क्यों खुलेंगे भेद,
ऑंख न खुली, तो कैसे खुल खेल पाएँगे;
रंग उतरा, तो कैसे फिर से चढ़ेगा रंग,
रंग बिगड़ा, तो कैसे रंग दिखलाएँगे।
खाइए न मुँह की, बखेरिए न वैर-काँटे,
कर लाल ऑंख लहू संगों का न गारिए;
लाग से लगाइए न आप घर ही में आग,
ऊब आप ही न पत अपनी उतारिए।
‘हरिऔधा’ सोचिए, बिगाड़िए न बातें बनीं,
जोम से न हित की जमी जर उखारिए;
ऑंख होते करिए न छाती के छतों में छेद,
छूतछात से बच अछूत को उतारिए।
दो सवैए
थी तितली जिनका मुख चूमती, भौंर विलोक जिन्हें ललचाते;
जो हँस के हरते जन-मानस, मंजुल वायु को जो महँकाते।
ए ‘हरिऔधा’ हरे दल में खिल जो लतिका में बड़ी छवि पाते;
सूख गये, बिखरे, मिले धाूल में, आज वे फूल नहीं दिखलाते।
स्वर्ग गया अथवा शिव-लोक में, या कमलापति-धााम सिधारा;
सोम बना या बना दिननायक, या बना व्योम का कोई सितारा।
सूखती है क्यों नहीं ‘हरिऔधा’ विलोचन से बहती जल-धारा;
क्या हुआ, कैसे कहाँ क्यों गया वह रामजीलाल-सा बंधाु हमारा।
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