हरिऔध् ग्रंथावली – खंड : 4 – पद्य-प्रमोद (लेखक – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध)
[षट्पद]
चाँद औ सूरज गगन में घूमते हैं रात दिन।
तेज औ तम से, दिशा होती है उजली औ मलिन।
वायु बहती है, घटा उठती है, जलती है अगिन।
फूल होता है अचानक वज्र से बढ़कर कठिन।
जिस अलौकिक देव के अनुकूल केलि-कलाप बल।
वह करे सब काल में संसार का मंगल सकल।1।
क्या नहीं है हाथ में वह नाथ क्या करता नहीं।
चाहता जो है, उसे करते कभी डरता नहीं।
सुख मिला उसको न, दुख जिसका कि वह हरता नहीं।
कौन उसको भर सके जिसको कि वह भरता नहीं।
है अछूती नीति, करतूतें निराली हैं सभी।
भेद का उसके पता कोई नहीं पाता कभी।2।
है बहुत सुन्दर बसे कितने नगर देता उजाड़।
है मिलाता धाूल में कितने बड़े ऊँचे-पहाड़।
एक झटके में करोड़ों पेड़ लेता है उखाड़।
एक पल में है सकल ब्रह्माण्ड को सकता बिगाड़।
काँपते सब देखते आतंक से हैं रात दिन।
मोम करता है उसे, है जो कि पत्थर से कठिन।3।
देखते हैं राज पाकर हम जिसे करते बिहार।
माँगता फिरता रहा कल भीख वह कर को पसार।
एक टुकड़े के लिए जो घूमता था द्वार द्वार।
आज धारती है कँपाती उसके धाौंसे की धाुकार।
नित्य ऐसी सैकड़ों लीला किया करता है वह।
रंक करता है कभी सिर पर मुकुट धारता है वह।4।
जड़ जमा कितने उजड़तों को बसाता है वही।
बात रख कितने बिगड़तों को बनाता है वही।
गिर गयों को कर पकड़ करके उठाता है वही।
भूलतों को पथ बहुत सीधाा बताता है वही।
इस धारा पर सुन सका कोई नहीं जिसकी कही।
उस दुखी की सब व्यथा सुनता समझता है वही।5।
डाल सकता शीश पर जिसके पिता छाया नहीं।
गोद माता की खुली जिसके लिए पाया नहीं।
है पसीजी देखकर जिसकी व्यथा जाया नहीं।
काम आती दीखती जिसके लिए काया नहीं।
बाँह ऐसे दीन की है प्यार से गहता वही।
सब जगह सब काल उसके साथ है रहता वही।6।
वह ऍंधोरी रात जिसमें है घिरी काली घटा।
वह बिकट जंगल, जहाँ पर शेर रहता है डटा।
वह महा मरघट, पिशाचों का जहाँ है जम घटा।
वह भयंकर ठाम जो है लोथ से बिलकुल पटा।
मत डरो ये कुछ किसी का कर कभी सकते नहीं।
क्या सकल संसार पाता है पड़ा सोता कहीं।7।
जिस महा मरुभूमि से कढ़ती सदा है लू-लपट।
वारि की धारा मधाुर रहती उसी के है निकट।
जिस विशद जल-राशि का है दूर तक मिलता न तट।
है उसी के बीच हो जाता धारातल भी प्रगट।
वह कृपा ऐसी किया करता है कितनी ही सदा।
लाभ जिससे हैं उठाते सैकड़ों जन सर्वदा।8।
जिस ऍंधोरे को नहीं करता कभी सूरज शमन।
उस ऍंधोरे को सदा करता है वह पल में दमन।
भूल करके भी किसी का है जहाँ जाता न मन।
वह बिना आयास के करता वहाँ भी है गमन।
देवतों के धयान में भी जो नहीं आता कभी।
उस खेलाड़ी के लिए हस्तामलक है वह सभी।9।
जगमगाती व्योम मण्डल की विविधा तारावली।
फूल फल सब रंग के खिलती हुई सुन्दर कली।
सब तरह के पेड़ उनकी पत्तिायाँ साँचे ढली।
रंग बिरंगे पंख की चिड़ियाँ प्रकृति हाथों पलीं।
ऑंख वाले के हृदय में हैं बिठा देती यही।
इन अनूठे विश्व-चित्राों का चितेरा है वही।10।
देख जो पाया ‘अरोराबोरिएलिस’ का समा।
रंग जिसकी ऑंख में है मेघमाला का जमा।
जो समझ ले व्यूह तारों का अधार में है थमा।
जो लखे सब कुछ लिये है घूमती सारी क्षमा।
कुछ लगाता है वही करतूत का उसकी पता।
भाव कुछ उसके गुणों का है वही सकता बता।11।
है कहीं लाखों करोड़ों कोस में जल ही भरा।
है करोड़ों मील में फैली कहीं सूखी धारा।
है कहीं पर्वत जमाये दूर तक अपना परा।
देख पड़ता है कहीं मैदान कोसों तक हरा।
बह रहीं नदियाँ कहीं, हैं गिर रहे झरने कहीं।
किस जगह उसकी हमें महिमा दिखाती है नहीं।12।
जी लगाकर ऑंख की देखो क्रिया कौतुक भरी।
इस कलेजे की बनावट की लखो जादूगरी।
देख कर मेजा बिचारो फिर विमल बाजीगरी।
इस तरह सब देह की सोचो सरस कारीगरी।
फिर बता दो यह हमें संसार के मानव सकल।
इस जगत में है किसी की तूलिका इतनी प्रबल।13।
जब जनमने का नहीं था नाम भी हमने लिया।
था तभी तैयार उसने दूधा का कलसा किया।
प्यार की बहु आपदायें, बुध्दि बल वैभव दिया।
की भलाई की न जाने और भी कितनी क्रिया।
तीनपन बीते मगर तब भी तनिक चेते नहीं।
हैं पतित ऐसे कि उसका नाम तक लेते नहीं।14।
हे प्रभो! है भेद तेरा वेद भी पाता नहीं।
शेष, शिव, सनकादि को भी अन्त दिखलाता नहीं।
क्या अजब है जो हमें गाने सुयश आता नहीं।
व्योम तल पर चींटियों का जी कभी जाता नहीं।
मन मनाने के लिए जो कुछ ढिठाई की गयी।
कीजिए उसको क्षमा, है बात जो अनुचित हुई।15।
लोकसत्ता
[चौपदे]
काम बनता निकाम सुन्दर क्यों।
कान्ति कमनीयता स्वयं खोती।
विधाु ललाता ललाम होने को।
जो न प्रभु की ललामता होती।1।
मोहती तरु हरीतिमा कैसे पाते।
क्यों गगन नीलिमा लुभा लेती।
मंजु तम श्यामघन न बन पाते।
श्याम रुचि जो न श्यामता देती।2।
क्यों विभाकर बिभा बलित बनता।
दामिनी क्यों चमक-दमक पाती।
तारकावलि न जगमगा सकती।
जागती ज्योति जो न जग जाती।3।
तो न होती ललित नवल-लतिका।
तो न बनती कलित कुसुम क्यारी।
तो न सरसिज सुहावने लगते।
जो छिटकती नहीं छटा न्यारी।4।
खग रुचिर पंख, तितलियों का तनु।
इन्द्रधानु रंग किस तरह लाता।
है जगत रंग में रँगा जिसके।
यदि वही रंगतें न दिखलाता।5।
चारुता दे सुचारु चन्दन सी।
किस तरह दारु दारुता खोती।
जो न मिलती सुरभि सुरभि-खनि से।
सौरभित क्यों मलय-पवन होती ।6।
माधाुरी की न माधाुरी रहती।
हो न सकता मधाुर-मधाुप कलरव।
माधावी मधाुरिमा न जो होती।
मधाु न पाते कदापि मधाु माधाव।7।
सुधा सदाकर किसी सुधाा-निधिा की।
जो सुधाा में प्रकृति नहीं सनती।
क्यों सुधााधार सरस सुधाा òवता।
क्यों सुधाामय वसुंधारा बनती।8।
तो न रहता रसिक जनों का रस।
मेघ रस किस तरह बरस पाता।
जो न होता सकल रसों का रस।
तो सरस क्यों सरस कहा जाता।9।
कह सके बुधा जिसे ‘रसो वै स:’।
जो न उनकी रसालता होती।
तो रसोपल न रस उपल बनते।
निज सरसता सकल रसा खोती।10।
मनोव्यथा
[द्विपद]
ऐ प्रेम के पयोनिधिा भवरुज पियूष प्याले।
उपताप ताप पातक परिताप तम उँजाले।1।
प्रतिदिन अनेक पीड़ा पीड़ित बना रही है।
कब तक रहें निपीड़ित प्रभु पपर्िांणि पाले।2।
चलती नहीं अबल की कुछ सामने सबल के।
क्यों आपकी सबलता सँभली नहीं सँभाले।3।
जी-जान से लिपट कर हम टालते नहीं कब।
संकट समूह संकट मोचन टले न टाले।4।
सब रंग ही हमारा बदरंग हो रहा है।
पर रंग में हमारे प्रभु तो ढले न ढाले।5।
क्यों काल कालिमायें करती कलंकिता हैं।
दिल के कलंक भंजन हम थे कभी न काले।6।
है हो रही छलों से उसकी टपक छ गूनी।
क्यों दिल छिले हुए के देखे गये न छाले।7।
दुख दे कभी किसी को होते नहीं सुखी हम।
सुख-निधिा पड़े रहे क्यों सुख के सदैव लाले।8।
हैं क्यों न दूर होते पातक अपार मेरे।
वे आपके निरालेपन से नहीं निराले।9।
जो काम ही हमारा होता तमाम है तो।
कमनीयता कहाँ है कमनीय कान्ति वाले।10।
भारत-गीत
यह भारत भूमि हमारी।
है तीन लोक से न्यारी।
है हिमगिरि गौरव दाता, मलयानिल चँवर हिलाता।
धान मुक्तमाल पहिनाता, है जलधिा चूम पग जाता।
जग ने आरती उतारी।1।
है यहीं ज्योति वह फूटी, जिससे ऍंधिायारी टूटी।
है यहीं मिली वह बूटी, जिससे जग जड़ता छूटी।
मानव रुचि गयी सँवारी।2।
है यहीं सुरसरी धारा, जिसने पतितों को तारा।
है यहीं नगर वह न्यारा, जो है विमुक्ति का द्वारा।
हैं यहीं सिध्दियाँ सारी।3।
कपिलादिक से विज्ञानी, शिवि बलि दधाीचि से दानी।
शुकदेव बुध्द से ज्ञानी, सुरसरि सुत से सेनानी।
हरि यहीं हुए तनधाारी।4।
कमनीय प्रकृति कर पाले, रुचि रुचिर सुधाा के प्याले।
सब सुगुण सुतरु के थाले, मानवता के मत वाले।
हैं यहीं विपुल नर-नारी।5।
कर कान्तिमान मणि मोती, है यहीं कान्त ऋतु होती।
है यहीं वह सरस सोती, जो प्रकृति क्लान्ति है खोती।
कर उसे मधाुर मृदु प्यारी।6।
हैं यहीं हुए गिरि-धाारी, जलनिधिा बन्धान अधिाकारी।
वसुधाा गोदोहन कारी, रवि शशि समान नभचारी।
इस अवनी की बलिहारी।7।
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जय जय जय भारत माता।
सुर वंदित नमित विधााता।
हिम मेरु है मुकुट न्यारा, बह रही सुरसरी धारा।
कटिबन्धा विन्धय गिरि प्यारा, पग है विधाौत निधिा द्वारा।
मणि कांचन मण्डित गाता।1।
रवि ज्योति जाल उज्वलिता, कमनीय कौमुदी कलिता।
ललिताभ सलिल धार ललिता, बहु धावलित धााम धावलिता।
अति लोकोत्तार अवदाता।2।
पारन विभूतिदा धाूनी, सरसा सुरपुर से दूनी।
वह विभवमयी चौगूनी, अलका सेछबि छगूनी।
सुजला सुफला विख्याता।3।
जन तीस कोटि की जननी, जगविदिता वीर-प्रसविनी।
कलकीर्ति कुसुम संचयनी, अवनीतल सकल विजयिनी।
सुर सुरपति सुरपुर त्रााता।4।
मुक्तिदा अनिर्वचनीया, महती महिमा महनीया।
कामदा परम कमनीया, भजनीय सतत यजनीया।
नरनिकर अभय वरदाता।5।
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महती महा पुनीता मधाुरा मनोहरा है।
वसुधाा ललामभूता भारत वसुंधारा है।1।
नव शस्य-शालिनी है सुप्रसून मालिनी है।
विदिता रसालिनी है सुप्रसिध्द उर्वरा है।2।
सर्वाú-सुन्दरी है प्रियकारिता भरी है।
सुखशान्ति सहचरी है सुविभूति निर्भरा है।3।
गुरु गिरि विमंडिता है शुभ सरि समन्विता है।
बहु सर अलंकृता है सरसा ससागरा है।4।
वरबोधा विधाुरजनि है सुविचार चारु खनि है।
मति मानता जननि है शुचिरुचि सहोदरा है।5।
कमनीय कृतिवती है लसिता यती सती है।
वर वीरता व्रती है गति मति अगोचरा है।6।
गौरव गरीयसी है महिमा महीयसी है।
विपुला बलीयसी है उज्ज्वल कलेवरा है।7।
आमोद मोदिता है परमा प्रमोदिता है।
विभुता विनोदिता है प्रथिता धानुर्धारा है।8।
सब सिध्दिदायिका है वांछित विधाायिका है।
संसृति सहायिका है अनुरक्त श्रुतिवरा है।9।
अति दिव्यतम त्रिाया है भव भव्यतर क्रिया है।
स्वाधाीनता प्रिया है कर्तव्य तत्परता है।10।
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महती महा पुनीता मधाुरा मनोहरा है।
वसुधाा ललामभूता भारत वसुंधारा है।1।
लसती कहीं लता है फूले कहीं कमल हैं।
कल काँच सा कहीं पर निर्मल सलिल भरा है।2।
मनमोहता कहीं है कलरव बिहंग कुल का।
औ सोहता कहीं पर पादप हरा भरा है।3।
बहती मलय पवन है मुक्तानिकेत घन है।
नन्दन समान बन है मणिमय यहाँ धारा है।4।
हो गौरवित यहीं के गौरव समूह द्वारा।
जग के समस्त गिरि का गिरिराज सिर धारा है।5।
है मानसर यहीं पर मण्डित मराल माला।
कश्मीर महि यहाँ की कुसुमित कलेवरा है।6।
आये बसंत सुनकर पिक-काकली कलित तर।
कर में यहीं कुसुमशर ले काम अवतरा है।7।
माधार्ुय्य का यहीं पर मंडप मनोज्ञतम है।
सौंदर्य्य का यहीं पर अति चारु चौतरा है।8।
पाते यहीं भवन हैं बहु भव्य, भारती का।
मिलता यहीं रमा का मंजुल महल सरा है।9।
बहती मिली यहीं पर धारा सरस सुधाा की।
है कल यहीं कलाधार राका रुचिर तरा है।10।
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महती विमुग्धातामय मधाुरा मनोहरा है।
वसुधाा विभूतिपूता भारत वसुंधारा है।1।
बहुवंश में यहाँ ही बुधावृन्द हैं बिलसते।
वर वीर धाीर का भी बँधाता यहीं परा है।2।
पाये गये कहाँ पर ऐसे पुनीत मानव।
पाहन अपूत जिनका पग पूत छू तरा है।3।
तन मन सहित सकल धान कर कान्त पर निछावर।
मुखड़ा कुलांगना का होता यहीं हरा है।4।
पतिदेवता कहाँ पर ऐसी किसे मिली हैं।
यह आप देख जिनकी तेजस्विता डरा है।5।
विद्या परा।परा की गुरुता गरीयसी का।
सिर पर यहीं मनुज के सेहरा गया धारा है।6।
अब भी सुरुचि सरलता शुचिता सुशीलता का।
फहरा रहा यहीं पर कमनीय फर हरा है।7।
लोकोपकार अथवा उध्दार धार्म के हित।
मरना समझ अमरता मानव यहीं मरा है।8।
विधिा साथ कर यहीं पर सब कामना समर्पित।
संसार सार विभु को वर भक्ति ने वरा है।9।
आलोकमय बना के मानव-समूह मानस।
परलोक-तम यहीं के आलोक ने हरा है।10।
कामना
सदा भारत-भू फूले फले।
सफल कामनाएँ हों उसकी मिले सफलता गले।
पुलकित रहे प्रिय सुअन प्रतिदिन सुख पालने में पले।
भव-हित-रत भावुक मानस में भरे भाव हों भले।
दुख दल दलित रहे, कोई खल कर खलता न खले।
छूटे क्षोभ, क्षुद्रजन को भी छली न छल कर छले।
सकल समल मन परम विमल हो छूटे तन मल मले।
धााम धााम हो धाूम धााम धवनि अधाम अधामता टले।1।
भारत भूल में न पड़ भूले।
क्या फल होगा, अंगारों को फूल समझ कर फूले।
लिख न सकेंगे लेख लेखनी कर में लेकर लूले।
कनक न होवेंगे पुआल के पीले पीले पूले।
मलय समीर समान मनोरम बनते नहीं बगूले।
बहीं नहीं लू कलित कुसुम की मत्ताकरी बर बू ले।
काले को कोई क्यों कामिनी कल कुंतल कह छू ले।
परम अकाम अंक कैसे कामद काम बधाू ले।2।
विद्या
[द्विपद]
इस चमकते हुए दिवाकर से।
रस बरसते हुए निशाकर से।1।
जो अलौकिक प्रकाश वाली है।
बहु सरसता भरी निराली है।2।
वह जगद्वंदनीय विद्या है।
अति अनूठा प्रभाव जिसका है।3।
ज्योति रवि की जहाँ नहीं जाती।
यह वहाँ भी विकास है पाती।4।
जो शशी को सरस नहीं कहते।
हैं इसीसे अपार रस लहते।5।
यह सुधाा है; अमर बनाती है।
यह सुयश-वेलि को उगाती है।6।
हो गये व्यास, वालमीक अमर।
आज भी है सुकीर्ति भूतल पर।7।
कामदा यह सुकल्प-लतिका है।
शान्ति-दात्राी विचित्रा बटिका है।8।
कालिदासादि कामुकों का दल।
पा चुका है अनन्त इच्छित फल।9।
शान्ति इससे शुकादि ने पाई।
दीप्ति जिनकी दिगन्त में छाई।10।
यह अमर सरि पवित्रा धारा है।
जिसने जाबालि को उधारा है।11।
नीच को ऊँच यह बनाती है।
काठ में भी सुफल फलाती है।12।
था विदुर का कहाँ नहीं आदर।
कौन कहता उन्हें न नयनागर।13।
सद्गुणों का प्रदीप्त पूषण था।
वह विबुध्द-मण्डली-विभूषण था।14।
शक्ति है अति अपूर्व विद्या की।
धाूम सी है विचित्रा क्षमता की।15।
विश्व के बीच वस्तु है जितनी।
एक में भी न शक्ति है इतनी।16।
स्वच्छ नीले अनन्त नभ-तल का।
सर्ूय्य, बुधा, सोम, शुक्र, मंगल का।17।
इन चमकते हुए सितारों का।
पूँछ वाले अनन्त तारों का।18।
भेद सब यह हमें बताती है।
म×जु दिल की कली खिलाती है।19।
सैकड़ों कोस एक कोस बना।
रेल की है अजब हुई रचना।20।
जो समाचार साल में आता।
तार उसको तुरंत है लाता।21।
है रसायन की वह सुचारु क्रिया।
सब धारा-गर्भ जिसने छान लिया।22।
बन गयी हैं विचित्रा नौकाएँ।
जो जलधिा-गर्भ में चली जाएँ।23।
था असम्भव अनन्त में उड़ना।
युक्ति से दिव्य व्योमयान बना।24।
हैं नये फूल फल उपज पाते।
अब मृतक हैं सजीव बन जाते।25।
देखने भालने लगे अंधो।
पुतलियाँ कर रही हैं सब धांधो।26।
बात बहरे समस्त सुनते हैं।
वस्त्रा बंदर अनेक बुनते हैं।27।
बोलने चालने लगे गूँगे।
बन गये रंग रंग के मूँगे॥़28।
दूरबीनें, कलें, बनीं ऐसी।
हैं न देखी सुनी गयी जैसी।29।
किन्तु यह सब कमाल है किसका।
गुण-मयी एक दिव्य विद्या का।30।
जो हुए वेद-मन्त्रा के द्रष्टा।
हो गये उपनिषद् के जो òष्टा।31।
आज भी उन महर्षियों का रव।
है धारातल विबुधा गिरा गौरव।32।
तर्क, गौतम, कणाद, जैमिनि का।
कृत्य पण्डित्य-पूर्ण पाणिनि का।33।
शंकराचार्य्य का स्वमत-मंडन।
सूरि श्रीहर्ष का प्रबल खंडन।34।
आज भी है अजò काम आता।
है जगत में प्रकाश फैलाता।35।
यह सभी है विभूति विद्या की।
है उसीकी सुकीर्ति यह बाँकी।36।
माघ, भवभूति का सुधाा-वर्षण।
भारवी का अपूर्व संभाषण।37।
यह सदा ही श्रवण कराती है।
दिव्य कल-कंठता दिखाती है।38।
है जननि के समान क्षेमकरी।
है पिता के समान प्रीतिभरी।39।
है रमणी सम सदा रमण करती।
कीर्ति को है दिगन्त में भरती।40।
धान रहित के लिए महा धान है।
यह कुजन के लिए सुशासन है।41।
है निबल के लिए अलौकिक बल।
है समुद्योग का समुत्ताम फल।42।
है विमल तेज तेज-हीनों को।
रत्न की मंजु खानि, दीनों को।43।
है जरा-ग्रस्त के लिए लकुटी।
व्यग्रजन के निमित्ता शान्ति कुटी।44।
यह बिपत में बिरामदायिनि है।
क्लान्ति में मोद की विधाायिनी है।45।
सहचरी है अनिन्द्य कर्मों में।
है व्यवस्था विशुध्द धार्मों में।46।
यह निरवलम्ब का सहारा है।
तप्त उरकी सवारि-धारा है।47।
कालिमा की कलिन्द-नन्दिनी है।
पाप के पुंज की निकन्दिनी है।48।
है कलित कंठ कोकिला ऐसी।
गुणमयी है मरालिका जैसी।49।
मोर के पक्ष लौं सुचित्रिात है।
यन्त्रा की भाँति यह नियन्त्रिात है।50।
है विकच-मल्लिका विनोद भरी।
पल्लवित वेलि है विमुग्धा करी।51।
है हृदय-तम विनाशिनी सुप्रभा।
है सदाचार की विचित्रा सभा।52।
है कला उक्ति-युक्ति में ढाली।
है तुला बुध्दि तौलने वाली।53।
स्वर्ग की सैर यह कराती है।
मंजु अलकापुरी दिखाती है।54।
है सजाती नवल जलद-माला।
है पिलाती पियूष का प्याला।55।
है सुनाती मधाुर भ्रमर-गूँजन।
पक्षि-कुल का अलाप कल-कूजन।56।
है दिखाती हरी भरी डाली।
फूल-फल से लदी सुछबि वाली।57।
है जहाँ पर त्रिाविधा पवन बहती।
है जहाँ मत्ता कोकिला रहती।58।
जो सदा सौरभित सुपुष्पित है।
जो सुक्रीड़ित व मंजु मुखरित है।59।
इस तरह के अनेक उपवन में।
बाग में कु×ज-पु×ज में, वन में।60।
है हमें यह बिहार करवाती।
है छटा का रहस्य बतलाती।61।
स्वच्छ जल-राशिमय सरोवर पर।
हिम-धावल कर प्रदीप्त गिरिवर पर।62।
यह हमें है सप्रेम ले जाती।
है सुछबि का विकास दिखलाती।63।
बुध्दि जाती जहाँ न मन जाता।
जो सदा है अचिन्त्य कहलाता।64।
जो न मिलता हमें विचारों से।
हैं न पाते जिसे सहारों से।65।
है उसे भी यही लखा देती।
थाह उसका है कुछ यही लेती।66।
विश्व-विद्या-करों विशेष पला।
है इसी से हुआ अशेष भला।67।
है अकथ और असीम-गुण-माला।
है उसे कौन ऑंकने वाला।68।
है यहाँ पर कहा गया जितना।
वह अखिल के समीप है कितना।69।
कुछ नहीं है, महा अकिंचित-कर।
जिस तरह बूँद और रत्नाकर।70।
इसलिए ‘नेति’ ‘नेति’ कहते हैं।
मुग्धा होते हैं मौन गहते हैं।71।
वेद हैं
[छप्पै]
सब विद्या के मूल, जनक हैं सकल कला के।
विविधा-ज्ञान आधाार, रसायन हैं अचला के।
सुरुचि विचार विवेक विज्ञता के हैं आकर।
हैं अपार अज्ञान तिमिर के प्रखर प्रभाकर।
परम खेलाड़ी प्रभु करों के लोकोत्तार गेंद हैं।
भव-सागर के सेतु ए जगत उजागर वेद हैं।1।
जब सारा संसार अचेतन पड़ा हुआ था।
निज पाँवों पर जीव नहीं जब खड़ा हुआ था।
रहा जिन दिनों अंधाकार भूतल पर छाया।
जब न ज्ञान रवि-बिम्ब निकलने भी था पाया।
तभी प्रगट हो जिन्होंने बतलाये सब भेद हैं।
वे ही सारे लोक के दिव्य विलोचन वेद हैं।2।
जिनके सिर पर मुकुट जगत गुरुता का राजे।
जिनके मुख पर लोक चकित कर ज्योति बिराजे।
जिनके कर में भुक्ति-मुक्ति का सूत्रा लसा है।
जिनका सारा अंग अलौकिक सुरभि बसा है।
जिनके पूत प्रभाव से मिटे भव-जनित खेद हैं।
सकल अपावनता दमन ए जग-पावन हैं।3।
कामधोनु सी कामद उनकी रुचिर ऋचा है।
उनका पूत प्रसंग निराली सुधाा सिंचा है।
वे हैं चिंतामणि समान चिन्तित फलदाता।
उनसे सब कुछ जगत कल्पतरु लौं है पाता।
परम अगम भव-पंथ चल जोजन डूबे स्वेद हैं।
उनको मलया-सीर लौं महामोद-प्रद वेद हैं।4।
वे बहु साधान विटप वृन्द के हैं वर थाले।
सकल यम नियम गये गोद में उनकी पाले।
श्रध्दा और विश्वास हुए लालित उन से ही।
विमल सरोवर भक्ति कमलिनी के हैं वे ही।
अपरा विद्या मेदिनी मूल-भूत इव मेद हैं।
सुरभि पर विद्या सुमन बुधा जन वंदित वेद हैं।5।
इनमें से ही ज्योति जगमगा कर वह फूटी।
जिससे विकसित हुई सभ्यता जड़ता छूटी।
उसकी ही अभिनन्दनीय कल-कान्ति सहारे।
दमक रहे हैं सकल जगत मत के दृग तारे।
ऑंख डालकर देखिए मिलते अल्प विभेद हैं।
सकल धार्म सिध्दान्त के अवलम्बन ए वेद हैं।6।
बुध्द देव का परम दिव्य दीपक अवलोका।
ईसा का बहु विदित दमकता लंप विलोका।
देखी अति कमनीय शमा जश्र-दश्त जलाई।
निपट कान्त कन्दील मुहम्मद की दिखलाई।
पर विकास की दृष्टि से ए सर्वथा अभेद हैं।
करते आलोकित इन्हें आलोकाकर वेद हैं।7।
चाहे त्रिापिटक निज विभूति उनको बतलावें।
चाहे उनको जैन ग्रन्थ निज वस्तु बतावें।
निज अनुभव फल उन्हें क्या न इनजील बखाने।
उनको जिश्न्द कुरान भले ही स्वविभव माने।
किन्तु सत्य हम कथन कर नहिं करते विच्छेद हैं।
सार्वभौम सिध्दान्त के आदि प्रवर्तक वेद हैं।8।
प्लेतो कोमत का अलाप अनुपम सुन पाया।
केंट के परम ललित लयों ने बहुत रिझाया।
सुपनहार के मधाुर तान ने हृदय लुभाया।
स्पेंसर के अति सरस राग ने मुग्धा बनाया।
दान्ते के कल गीत से मिटते मानस क्लेद हैं।
पर स्वर से जाना, उन्हें स्वरित बनाते वेद हैं।9।
ऐसा व्यक्ति विशेष सभी मत है बतलाता।
जिसके माने बिना मुक्ति कोई नहीं पाता।
किन्तु एक वैदिक मत ही ऐसा है प्यारे।
जिसमें नर तरता है निज व्यक्तित्व सहारे।
रख सुकर्म्म रत फलों में उपजाते निर्वेद हैं।
केवल ज्ञान-प्रभाव से मुक्ति दिलाते वेद हैं।10।
किसी जाति मत पंथ का मनुज कोई होवे।
जो प्रभु पद को गहे मलिनता चित की खोवे।
सदाचार रत रहे पाप तज जग हित साधो।
तो वह होगा मुक्त बिना प्रति भू आराधो।
गिरा परम गंभीर से करते भ्रम उच्छेद हैं।
मुक्त-कंठ से बात यह कहते केवल वेद हैं।11।
जब उपासनाएँ प्रतीक हैं काम चलाती।
नर उर में विज्ञान ज्योति है जब जग जाती।
मधय दशाओं सहित दशा यह आदिम अंतिम।
जिनमें पड़कर हुई मनुज की महिमा अप्रतिम।
उनके अति व्यापक फलद कहे भेद उपभेद हैं।
क्योंकि सर्वदर्शी विशद सर्व ज्ञानमय वेद हैं।12।
किसी ग्रन्थ मत पंथ धार्म साधान का खंडन।
वे नहिं करते मिले क्योंकि वे हैं महि मंडन।
वे हैं उनके जनक विकासक जीवन दाता।
वे तब थे जब था न किसी का नाम सुनाता।
इसीलिए यद्यपि नहीं वे रखते संभेद हैं।
तो भी उन पर प्रेम जल वर्षण करते वेद हैं।13।
पंचभूत जल पवन आदि ऊपर है जैसा।
प्राणिमात्रा अधिाकार वेद पर भी है वैसा।
उनकी ऊँची ऑंख नहिं कहीं पर है अड़ती।
वह समान सब जाति देश पर ही है पड़ती।
सदा तुल्य उनके लिए यूरप अन्तर्वेद हैं।
सकल जगत हित में निरत विश्व प्रेम-रत वेद हैं।14।
थोड़ा अन्तर भ्रातृ-भाव में है रह जाता।
वैदिक मत है इसीलिए यह पाठ पढ़ाता।
मानव ही को नहीं सभी जीवों को मानो।
निज आत्मा समान आत्मा सब की जानो।
वंश जाति गत दृष्टि का वे करते उद्भेद हैं।
है कुटुम्ब वसुधाा सकल यह बतलाते वेद हैं।15।
आये दिन ए शैव वैष्णव रगड़े कैसे।
धार्म्म सभा के औ समाज के झगड़े कैसे।
हमें बता दो सौर शक्ति क्यों हैं लड़ पड़ते।
क्यों वेदान्ती लोग कुछ दृगों में है गड़ते।
लोग परस्पर किसलिए करते वृथा कुरेद हैं।
जब कि धार्म के विषय में मान्य सभी के वेद हैं।16।
हैं विचित्राताएँ विचार रुचि की स्वाभाविक।
किन्तु न होगा उचित काक बन जावे यदि पिक।
भिन्न भिन्न मत गत विचित्राता ही है जीवन।
यदि समाज के लिए बने वह जड़ी सजीवन।
किन्तु लोक-हित हृदय में जो जन करते छेद हैं।
वे न जानते मर्म्म हैं न तो मानते वेद हैं।17।
विविधा गठन और रूप रंग जिनका हैं पाते।
वे बाजे हैं सदा मिलाने से मिल जाते।
रखते हुए स्वकीय भाव सारा ढँग न्यारा।
वे मिलते हैं एक देह-व्यापी स्वर द्वारा।
बने भले ही नित रहें जितने उचित प्रभेद हैं।
पर वे हृदय मिले रहें जिनमें बसते वेद हैं।18।
गजरों में है बिबिधा फूल को सूत्रा मिलाता।
गहनों में है बिबिधा नगों का मेल दिखाता।
वे सब न्यारा रूप रंग अपना नहिं खोते।
पर तो भी हैं एक सिध्दि के साधान होते।
यों ही शुभ उद्देश्य से, हम पूछते सखेद हैं।
क्या वे मिल सकते नहीं जिन्हें मिलाते वेद हैं?।19।
मिल सकते हैं, जो न भूल अपने को जावें।
करें सत्य को प्यार कलह को मार भगावें।
धार्म ओट में कभी न जी का मैल निकालें।
रखें प्रेम का मान सुजनता को प्रति पालें।
पर को खेदित कर न जो रहते स्वयं अखेद हैं।
मुख उन का संसार में उज्ज्वल करते वेद हैं।20।
प्रभो! प्रभा वैदिक मत की भूतल में फैले।
लघु बातों के लिए न होवें मानस मैले।
सब सच्चे जी से कुटुम्ब वसुधाा को माने।
विश्व-प्रेम के महामन्त्रा की महिमा जाने।
हुए वितण्डावाद में जिनके बाल सुपेद हैं।
वे अभिज्ञ हों, देवता शान्ति मंत्रा के वेद हैं।21।
प्रेमधारा
[छप्पै]
उसका ललित प्रवाह लसित सब लोकों में है।
उसका रव कमनीय भरा सब ओकों में है।
उसकी क्रीड़ा-केलि कल्प-लतिका सफला है।
उसकी लीला लोल लहर कैवल्य कला है।
मूल अमरपुर अमरता सदा प्रेमधारा रही।
वसुंधारा तल पर वही लोकोत्तारता से बही।1।
रवि किरणें हैं इसी धाार में उमग नहाती।
इसीलिए रज तक को हैं रंजित कर जाती।
कला कलानिधिा कलित बनी पाकर वह धारा।
जिससे हुआ पियूष सिक्त वसुधाा तल सारा।
श्याम-घटा में प्रेम की धारा ही है सरसती।
इसीलिए वह सभी पर रस धारा है बरसती।2।
सब अग जग को गगन गोद में है ले लेता।
किसके मुख को तेज नहीं उज्ज्वल कर देता।
मंद मंद चल पवन मुग्धा सब को है करती।
देती है फल फूल रुचिर कृमि तक को धारती।
निज शीतलता से सलिल सब को करता है सुखित।
मूल प्रेम धारा प्रकृति पंचतत्तव में है निहित।3।
रिपु के कर में भी प्रसून है बिकच दिखाता।
छेदन रत नख निचय सुरभि उससे है पाता।
जिसके कर से कटा दसन से गया विदारा।
फल करता है मुदित उसे स्वादित रस द्वारा।
तरु से धााया कब नहीं पाहन हन्ता को मिली।
परस प्रेम धारा नहीं किस की कृति कलिका खिली।4।
पाहन गठित अपार नेरु उर को सुद्रवित कर।
वह लहराती मिली रूप सरिसोतों का धार।
निकली सुरसरि सदृश कहीं पावन सलिला वन।
करके सफलित धारा धााम मल रहित मलिन मन।
मरुमहि भूति मतीर का सलिल सुशीतल है वही।
विविधा मूर्ति धार कर कहाँ नहीं प्रेमधारा बही।5।
ओस, तृणलता कुसुम विपट पल्लव सिंचन रत।
बहु तरु चंदन करी सुरभि मलयाद्रि अंक गत।
विविधा दिव्यमणि जनित ज्योति उज्ज्वल उपकारी।
बहु ओषधाी प्रसूत शक्ति-जीवन संचारी।
जगत जीव प्रतिपालिका पय धारा उरजों भरी।
क्या है? नानामूर्ति धार प्रेमधाार ही अवतरी।6।
जो सत्ता है नित्य सत्य चिन्मयी अनूपा।
संसृति मूली भूत परम आनन्द स्वरूपा।
विश्व-व्यापिनी विपुल-सूक्ष्म जिसकी है धारा।
वस्तुमात्रा में है विकास जिसका अति न्यारा।
धारा ही में प्रेम की वह होती है प्रतिफलित।
इस सुमुकुर में ही दिखा पड़ी मूर्ति उसकी कलित।7।
बुझ जाता है कलह-विरोधा प्रबल दावानल।
बह जाता है मोह मूल बहु मानस का मल।
जाता है सविकार मैल धाुल जी का सारा।
गिर जाता है टूट टूट कर कुरुचि करारा।
धारा द्वारा प्रेम का ढह जाता है विटप मद।
किये अपार प्रयत्न भी टिकता नहीं प्रमाद पद।8।
बन जाती है सुछबिवती पर हित रति क्यारी।
हो जाती है सरस सुरुचि प्रियता फुलवारी।
धारा बंधाुता मानवता की सिंच जाती है।
सहृदयता कृषि वांछनीय जीवन पाती है।
धारा ही से प्रेम की कल कृति विटपावलि पली।
सहज सुजनता वाटिका पुलकित हो फूली फली।9।
कपट-जाल शैवाल समूह उपज नहिं पाता।
मोह पटल र्आवत्ता नहीं पड़ता दिखलाता।
बुध्दुद कुत्सित भाव कदापि नहीं उठ पाते।
नहिं नाना कुविचार फेन बहते उतराते।
कुमति मलिनता प्रेम की धारा में आती नहीं।
छल-छाया प्रतिबिम्बता कथमपि हो पाती नहीं।10।
मिलती हैं वे भावमयी लहरें लहराती।
जो कि मंजुतर मनुज मनों को हैं कर जाती।
भावुक जन वह रत्न-राजि अनुपम है पाता।
जिससे मंडित हो वसुधाा को है अपनाता।
धारा में ही प्रेम का खिलता है वह कल कमल।
सुरभित होता है सुरभि से जिसकी सब अवनि-तल।11।
वीर उर बसी विजय प्रेम धारा के द्वारा।
है मृणाल के तन्तु-तुल्य लगती असि धारा।
निज प्रियतम के प्रेम धाार में डूबी बाला।
गिनती है अंगार पुंज को पंकज माला।
शान्त हुआ इस प्रेम की धारा ही से वह अनल।
जिससे जन प्रहलाद को मिला अलौकिक भक्ति फल।12।
जिसे धान विभव विविधा प्रलोभन हैं न लुभाते।
हाव-भाव सुविलास जिसे वश में नहिं लाते।
रूप माधाुरी बदन कान्ति कोमलता प्यारी।
नहिं करती अनुरक्त जिसे आकृति अति न्यारी।
अनुगत कर पाती नहीं जिसको बहु अनुनय विनय।
वश में करता है उसे अंतर प्रेम प्रवाहमय।13।
वे लोचन हैं लोक लोचनों को बेलमाते।
वे उर हैं संसार उरों में सुधाा बहाते।
वह प्रदेश है भाव राज्य की भू बन जाता।
वह समाज है शान्ति शिखर पर शोभा पाता।
वांछित धाृति से धार्म वे धाारण करते हैं मही।
जिनमें समुचित प्रगति से पूत प्रेम धारा बही।14।
देश जाति कुल जनित भिन्नता चरित विषमता।
रुचि विचार आचार शील व्यवहार असमता।
परम कठिनता मयी मेदिनी है पथरीली।
होती है पा जिन्हें प्रेम धारा गति ढीली।
किन्तु इसी के अति सरस प्रबल प्रवाहों में पड़े।
वारिधिा विविधा विभेद के बनते हैं जल के घडे।15।
परम प्रशंसित राजकीय सत्ताएँ सारी।
बड़ी-बड़ी सामरिक विजय भूतल वशकारी।
प्रेम-प्रवाह-प्रसूत विजय सत्ताओं जैसी।
व्यापक हितकर हृदय रंजिनी उनके ऐसी।
किसी काल में कब हुई वैसी कोमल उज्वला।
वे हैं बिजली की विभा ए हैं राकापति कला।16।
प्रबल नृपति आतंक, वाहिनी जगत विजयिनी।
प्रलय-कारिणी तोप रण धारा काल प्रणयिनी।
निधिा उत्ताल तरंग मान गिरि पावक òावी।
जन-समूह कार् आत्ता नाद पाहन उर द्रावी।
जिन वीरों के पवि उरों को न प्रभावित कर सके।
किसी प्रेम धारा मयी रुचि के हाथों वे बिके।17।
पावन वेद प्रसूत प्रेम की व्यापक धारा।
हुई प्रवाहित परम सरस कर भूतल सारा।
उससे भारत धारा यदि हुई स्वर्ग समाना।
तो पाया सुख अन्य अखिल देशों ने नाना।
मानव भूरे सित असित पीत लाल औ साँवले।
सदा इसी के कूल पर ललित हो फूले-फले।18।
वैदिक ऋषिगण परम सरल भावुक उर द्वारा।
बुध्ददेव के सदय हृदय का ढँढ़ सहारा।
ईसा और मुहम्मदादि अंतर कर प्लावित।
हुई प्रेम धारा मधाुमयता सहित प्रवाहित।
कई कोटि जन आज भी उसके प्रबल प्रभाव से।
बँधो एकता सूत्रा में रहते हैं सद्भाव से।19।
प्रति हिंसा प्रिय दनुज देवता है बन जाता।
विविधा विभव मद अंधा दिव्य लोचन है पाता।
पर स्वतंत्राता हरण पिपासा कुटिल पिशाची।
प्रबल राज्य विस्तार कामना सुमुखि घृताची।
बन जाती हैं देवियाँ सकल सदाशयता मयी।
पड़कर प्रेम-प्रवाह में हो पाहनता पर जयी।20।
कभी न लोहित अवनि रुधिार धारा से होती।
पर की ममता कभी नहीं मद धारा खोती।
कभी किसी का प्रकृत स्वत्व औ गौरव सारा।
नाश न होता कुटिल नीति धारा के द्वारा।
मनुजोचित अधिाकार भी कभी नहीं जाता छिना।
जो बह पातीं प्रेम की धाराएँ बाधाा बिना।21।
कहीं सामने देश भेद के मेरु खड़े हैं।
कहीं जाति बंधान के ऊँचे बाँधा पड़े हैं।
कहीं भित्तिा है धार्म भिन्नता कठिन शिला की।
कहीं कंकरों मयी धारा है रुचि प्रियता की।
किन्तु मेरु को बेधा कर औरों का करके दलन।
वह निकलेंगी प्रेम की धाराएँ अविछिन्न बन।22।
प्रकृत बात कब तक कुहकों में पड़ी रहेगी।
कब तक कटुता कूट नीति सत्यता सहेगी।
होंगे दूर विभेद परस्पर प्यार बढ़ेगा।
टले पयोद प्रमाद मयंक प्रमोद कढ़ेगा।
आवेंगे वे दिवस जब छटा बढ़ाती छेम की।
बहती होगी धारा पर अविरल धारा प्रेम की।23।
व्यापक धार्म समूह मूल सिध्दान्त एकता।
सब देशों के विबुधा वृन्द की वर विवेकता।
भ्रातापन का भाव जातिगत स्वार्थ महत्ता।
मानवता का मंत्रा विविधा स्वाभाविक सत्ता।
दूर करेंगी उरों से सकल अवांछित भिन्नता।
शमन करेगी प्रेम की धारा मानस खिन्नता।24।
उस दिन सारे देश बनेंगे शान्ति निकेतन।
फहरेंगे सब ओर सदाशयता के केतन।
सभी जातियाँ सभ्य सुखी स्वाधाीन रहेंगी।
स्नेह तरंगों बीच उमंगों सहित बहेंगी।
होवेगी जनता सकल निज अधिाकारों पर जयी।
हो जावेगी सब धारा प्रकृत प्रेम धारा मयी।25।
धार्म्मवीर
[षट्पद]
यह जगत जिसके सहारे से सदा फूले-फले।
ज्ञान का दीया निराली ज्योति से जिसके जले।
ऑंच में जिसके पिघल कर काँच हीरे सा ढले।
जो बड़ा ही दिव्य है, तलछट नहीं जिसके तले।
हैं उसे कहते धारम, जिस से टिकी है, यह धारा।
तेज से जिसके चमकता है, गगन तारों-भरा।1।
पालनेवाला धारम का है कहाता धार्म्मवीर।
सब लकीरों में उसी की है बड़ी सुन्दर लकीर।
है सुरत्नों से भरी संसार में उसकी कुटीर।
वह अलग करके दिखाता है जगत को छीर नीर।
है उसी से आज तक मरजाद की सीमा बची।
सीढ़ियाँ सुख की उसी के हाथ की ही हैं रची।2।
एक-देशी वह जगत-पति को बनाता है नहीं।
बात गढ़ कर एक का उसको बताता है नहीं।
रú अपने ढú का उस पर बढ़ाता है नहीं।
युक्तियों के जाल में उसको फँसाता है नहीं।
भेद का उसके लगाता है वही सच्चा पता।
ठीक उसका भाव देती है वही सब को बता।3।
तेज सूरज में उसीका देख पड़ता है उसे।
वह चमकता बादलों के बीच मिलता है उसे।
वह पवन में और पानी में झलकता है उसे।
जगमगाता आग में भी वह निरखता है उसे।
राजती सब ओर है उसके लिए उसकी विभा।
पत्थरों में भी उसे उसकी दिखाती है प्रभा।4।
पेड़ में उसको दिखाते हैं हरे पत्तो लगे।
वह समझता है सुयश के पत्रा हैं उसके टँगे।
फूल खिलते हैं, अनूठे रú में उसके रँगे।
फल, उसे, रस में उसीके, देख पड़ते हैं पगे।
एक रजकण भी नहीं है ऑंख से उसकी गिरा।
राह का तिनका दिखाता है उसे भेदों भरा।5।
सोचता है वह, जो मिलते हैं उसे पर्वत खड़े।
हैं उसी की राह में सब ओर ये पत्थर गड़े।
जो दिखाते हैं उसे मैदान छोटे या बड़े।
तो उसे मिलते वहाँ हैं ज्ञान के बीये पड़े।
वह समझता है पयोनिधिा प्रेम से उसके गला।
जंगलों में भी उसे उसकी दिखाती है कला।6।
हैं उसीकी खोज में नदियाँ चली जाती कहीं।
है तरावट भूलती उसकी कछारों को नहीं।
याद में उसकी सरोवर लोटता सा है वहीं।
निर्झरों के बीच छींटें हैं उसी की उड़ रहीं।
वह समझता है उसी की धाार सोतों में बही।
झलमलाता सा दिखाता झील में भी है वही।7।
भीर भौंरों की उसी की भर रही है भाँवरें।
गान गुण उसका रसीले कण्ठ से पंखी करें।
भनाभना कर मक्खियाँ हर दम उसी का दम भरें।
तितलियाँ हो हो निछावर धयान उसका ही धारें।
वह समझता है, न है, झनकार झींगुर की डगी।
है सभी कीड़े मकोड़ों को उसी की धाुन लगी।8।
है अछूती जोत उसकी मंदिरों में जग रही।
मसजिदों गिरजाघरों में भी दरसता है वही।
बौध्द-मठ के बीच है दिखला रहा वह एक ही।
जैन-मंदिर भी, छुटा उसकी छटा से है नहीं।
ठीक इनमें दीठ जिसकी है नहीं सकती ठहर।
देख पड़ती है उसी की ऑंख में उसको कसर।9।
शद्म उसके ही लिए देता जगत को है जगा।
बाँग भी सबको उसी की ओर देती है लगा।
गान इन ईसाइयों का ताल औ लय में पगा।
इस सुरत को है उसी की ओर ले जाता भगा।
जो बिना समझे किसी को भी बनाता है बुरा।
वह समझता है, वही सच पर चलाता है छुरा।10।
हो तिलक तिरछा, तिकोना, गोल, आड़ा या खड़ा।
गौन हो, दस्तार हो, या बाल हो लाँबा बड़ा।
जो बनावट का बुरा धाब्बा न हो इन पर पड़ा।
तो सभी हैं ठीक, देते हैं दिखा पारस गड़ा।
जो इन्हें लेकर झगड़ता या उड़ाता है हँसी।
जानता है, वह समझ है जाल में उसकी फँसी।11।
गेरुआ कपड़ा पहनना, घूमना, दम-साधाना।
राख मलना, गरमियों में आग जलती तापना।
जंगलों में वास करना, तन न अपना ढाँकना।
बाँधाना कंठी, गले में सेल्हियों का डालना।
वह इन्हें मन जीत लेने की जुगुत है जानता।
जो न उतरा मैल तो सूखा ढचर है मानता।12।
पतजिवा, रुद्राक्ष, तुलसी की बनी माला रहे।
या कोई तसवीह हो या पोर उँगली की गहे।
या बहुत सी कंकड़ी लेकर कोई गिनना चहे।
या कि प्रभु का नाम अपनी जीभ से योंही कहे।
लौ लगाने को बुरा इनमें नहीं है एक भी।
ऑंख में उसकी नहीं तो, काठ मिट्टी हैं सभी।13।
धयान, पूजा, पाठ, व्रत, उपवास, देवाराधाना।
घूमना सब तीरथों में, आसनों को साधाना।
योग करना, दीठ को निज नासिका पर बाँधाना।
सैकड़ों संयम नियम में इन्द्रियों को नाधाना।
वह समझता है सभी हैं ज्ञान-माला की लड़ी।
जो दिखावट की न भद्दी छींट हो इन पर पड़ी।14।
बौध्द, त्रिापिटिक, बाइबिल, तौरेत, या होवे कुरान।
जिन्दबस्ता, जैन की ग्रन्थावली, या हो पुरान।
वेद-मत का ही बहुत कुछ है हुआ इनमें बखान।
है बहा बहु धाार से इनमें उसीका दिव्य ज्ञान।
ठीक इसका भेद गुण लेकर वही है बूझता।
है बुरी वह ऑंख अवगुण ही जिसे है सूझता।15।
बुध्द, जिन, ईसा, मुहम्मद, और मूसा को भला।
कौन कह सकता है, दुनिया को इन्होंने है छला।
सोच लो जश्रदश्त भी है क्या कहीं उलटा चला।
ये लगाकर आग दुनिया को नहीं सकते जला।
वह इसीसे है समझता वेद के पथ पर चढ़े।
ये समय और देश के अनुसार हैं आगे बढ़े।16।
बौध्द, हिन्दू, जैन, ईसाई, मुसलमाँ, पारसी।
जो बुराई से बचें, रक्खे न कुछ उसकी लसी।
धार्म की मरजाद पालें हो सुरत हरि में बसी।
तो भले हैं ये सभी, दोनों जगह होंगे जसी।
वह उसीको है बुरा कहता किसी को जो छले।
है धारम कोई न खोटा ठीक जो उस पर चले।17।
बौध्द-मत, हिन्दू-धारम, इसलाम या ईसाइयत।
हैं, जगत के बीच जितने जैन आदिक और मत।
वह बताता है सभों की एक ही है असलियत।
है स्वमत में निज विचारों के सबब हर एक रत।
ठौर है वह एक ही, यह राह कितनी हैं गयी।
दूधा इनका एक है, केवल पियाले हैं कई।18।
वह क्रिया से है भली जी की सफाई जानता।
पंडिताई से भलाई को बड़ी है मानता।
वह सचाई को पखंडों में नहीं है सानता।
वह धारम के रास्ते को ठीक है पहचानता।
ज्ञान से जग-बीच रहकर हाथ वह धाोता नहीं।
आड़ में परलोक की वह लोक को खोता नहीं।19।
तंग करना, जी दुखाना, छेड़ना भाता नहीं।
वह बनाता है, कभी सुलझे को उलझाता नहीं।
देखकर दुख दूसरों का चैन वह पाता नहीं।
एक छोटे कीट से भी तोड़ता नाता नहीं।
लोक-सेवा से सफल होकर सदा बढ़ता है वह।
धाूल बनकर पाँव की जन शीश पर चढ़ता है वह।20।
धान, विभव, पद, मान, उसको और देते हैं झुका।
प्रेम बदले के लिए उसका नहीं रहता रुका।
वह अजब जल है उसे जाता है जो जग में फँका।
बैरियों से वह कभी बदला नहीं सकता चुका।
प्यार से है बाघ से विकराल को लेता मना।
वह भयंकर ठौर को देता तपोवन है बना।21।
हैं कहीं काले बसे, गोरे दिखाते हैं कहीं।
लाल, पीले, सेत, भूरे, साँवले भी हैं यहीं।
पीढ़ियाँ इनकी कभी नीची, कभी ऊँची रहीं।
रँग बदलने से बदलती दीठ है उसकी नहीं।
भेद वह अपने पराये का नहीं रखता कभी।
सब जगत है देश उसका जाति हैं मानव सभी।22।
वह समझता है-सभी रज बीर्य से ही हैं जना।
मांस का ही है कलेजा दूसरों का भी बना।
आन जाने पर न किसकी ऑंख से ऑंसू छना।
दूसरे भी चाहते हैं मान का मुट्ठी चना।
खौलना जिसका किसी से भी नहीं जाता सहा।
है रगों में दूसरों की भी वही लोहू बहा।23।
वह तनिक रोना, कलपना और का सहता नहीं।
हाथ धाोकर और के पीछे पड़ा रहता नहीं।
बात लगती वह किसी को एक भी कहता नहीं।
चोट पहुँचाना किसी को वह कभी चहता नहीं।
जानता है दीन दुखियों के दरद को भी वही।
बेकसों की आह उससे है नहीं जाती सही।24।
ए चुडैलें चाह की उसको नहीं सकतीं सता।
प्यार वह निज वासनाओं से नहीं सकता जता।
मोह की जी में नहीं उसके उलहती है लता।
है कलेजे में न कोने का कहीं मिलता पता।
रोस की, जी में कभी उठती नहीं उसके लपट।
छल नहीं करता किसी से वह नहीं करता कपट।25।
गालियाँ भातीं नहीं, ताने नहीं जाते सहे।
आग लग जाती है कच्ची बात जो कोई कहे।
देख कर नीचा किसकी ऑंख कब ऊँची रहे।
ठोकरें खाकर भला किसी को नहीं ऑंसू बहे।
वह समझता है न इतना घाव करती है छुरी।
ठेस होती है बड़ी ही इस कलेजे की बुरी।26।
देख करके तोप को जाता कलेजा है निकल।
यह बुरी बंदूक लखकर जी नहीं सकता सम्हल।
बरछियाँ, तलवार, भाले हैं बना देते विकल।
गोलियाँ, बारूद, छर्रे, ऑंख करते हैं सजल।
उस समय तो और भी उसका तड़पता है जिगर।
जब समझता है कि इनमें है भरी जी की कसर।27।
क्यों बहाने को लहू हथियार सब जाते गढ़े।
दूसरों पर दूसरे फिर किसलिए जाते चढ़े।
किसलिए रणपोत, बनते और वे जाते मढ़े।
नासमझ का काम करते किसलिए लिक्खे पढ़े।
जो उसी की भाँति उठती प्यार की सब की भुजा।
तो दिखाती शान्ति की सब ओर फहराती धाुजा।28।
पेट भरने के लिए कटता किसीका क्यों गला।
एक भाई के लिए क्यों दूसरा होता बला।
इस जगत में किसलिए जाता कभी कोई छला।
बहु बसा घर क्यों कलह की आग में होता जला।
ठीक सुन्दर नीति उसकी जो सदा होती चली।
तो कटी डालें दिखातीं आज दिन फूली फली।29।
है विभव किस काम का वह हो लहू जिसमें लगा।
आग उस धान में लगे जिसमें हुई कुछ भी दगा।
गर्व वह गिर जाय जिसका है सताना ही सगा।
धाूल में वह पद मिले जो है कलंकों से रँगा।
वह विवश होकर सदा दुख से सुनाता है यही।
वह धारा धाँस जाय जिस पर हैं कभी लोथें ढही।30।
यह भला है, यह बुरा है, वह समझता है सभी।
भूसियों में, छोड़कर चावल नहीं फँसता कभी।
जब ठिकाने है पहुँचता मोद पाता है तभी।
बात थोथी है नहीं मुँह से निकलती एक भी।
है जहाँ पर चूक उसकी ऑंख पड़ती है वहीं।
जड़ पकड़ता है उलझता पत्तिायों में वह नहीं।31।
आदमी का ऐंठना, बढ़ना, बहकना, बोलना।
रूठना, हँसना, मचलना, मुँह न अपना खोलना।
संग बन जाना, कभी इन पत्तिायों सा डोलना।
वह समझता है तराजू पर उसे है तोलना।
है उसी ने ही पढ़ी जी की लिखावट को सही।
गुत्थियाँ उसकी सदा है ठीक सुलझाता वही।32।
देखता अंधाा नहीं, उजले न होते हैं रँगे।
दौड़ता लँगड़ा नहीं, सोये नहीं होते जगे।
क्यों न वह फिर रास्ते पर ठीक चलने से डगे।
हैं बहुत से रोग, जिसके एक ही दिल को लगे।
देखकर बिगड़ा किसी को वह नहीं करता गिला।
काम की कितनी दवाएँ हैं उसे देता पिला।33।
देखकर गिरते उठाता है, बिगड़ जाता नहीं।
वह छुड़ाता है फँसे को, और उलझाता नहीं।
राह भूले को दिखा देता है भरमाता नहीं।
है बिगड़ते को बनाता, ऑंख दिखलाता नहीं।
सर ऍंधोरे में भला किसका न टकराया किया।
वह ऍंधोरा दूर करता है, जलाता है दिया।34।
जीव जितने हैं जगत में, हैं उसे प्यारे बड़े।
दुख उसे होता है जो तिनका कहीं उनको गड़े।
एक चींटी भी कहीं जो पाँव के नीचे पड़े।
तो अचानक देह के होते हैं सब रोयें खड़े।
हैं छुटे उसकी दया से ये हरे पत्तो नहीं।
तोड़ते इनको उसे है पीर सी होती कहीं।35।
कँप उठे सब लोक पत्तो की तरह धारती हिले।
राज, धान जाता रहे, पद, मान, मिट्टी में मिले।
जीभ काटी जाय, फोड़ी जाँय ऑंखें, मुँह सिले।
सैकड़ों टुकड़े बदन हो, पर्त चमड़े की छिले।
छोड़ सकता उस समय भी वह नहीं अपना धारम।
जब हैं हर एक रोयें नोचते चिमटे गरम।36।
धार्म्मवीरों की चले, सब लोग हो जावें भले।
भाइयों से भाइयों का जी न भूले भी जले।
चन्द्रमा निकले धारम का, पाप का बादल टले।
हे प्रभो संसार का हर एक घर फूले फले।
इस धारा पर प्यार की प्यारी सुधाा सब दिन बहे।
शान्ति की सब ओर सुन्दर चाँदनी छिटकी रहे।37।
कर्म्मवीर
[ षट्पद ]
देख कर बाधाा विविधा, बहु विघ्न घबराते नहीं।
रह भरोसे भाग के दुख भोग पछताते नहीं।
काम कितना ही कठिन हो किन्तु उकताते नहीं।
भीड़ में चंचल बने जो बीर दिखलाते नहीं।
हो गये एक आन में उनके बुरे दिन भी भले।
सब जगह सब काल में वे ही मिले फूले फले।1।
आज करना है जिसे करते उसे हैं आज ही।
सोचते कहते हैं जो कुछ कर दिखाते हैं वही।
मानते जी की हैं सुनते हैं सदा सब की कही।
जो मदद करते हैं अपनी इस जगत में आप ही।
भूल कर वे दूसरों का मुँह कभी तकते नहीं।
कौन ऐसा काम है वे कर जिसे सकते नहीं।2।
जो कभी अपने समय को यों बिताते हैं नहीं।
काम करने की जगह बातें बनाते हैं नहीं।
आजकल करते हुए जो दिन गँवाते हैं नहीं।
यत्न करने में कभी जो जी चुराते हैं नहीं।
बात है वह कौन जो होती नहीं उनके किए।
वे नमूना आप बन जाते हैं औरों के लिए।3।
व्योम को छूते हुए दुर्गम पहाड़ों के शिखर।
वे घने जंगल जहाँ रहता है तम आठों पहर।
गर्जते जल-राशि की उठती हुई ऊँची लहर।
आग की भयदायिनी फैली दिशाओं में लवर।
ये कँपा सकतीं कभी जिसके कलेजे को नहीं।
भूलकर भी वह नहीं नाकाम रहता है कहीं।4।
चिलचिलाती धाूप को जो चाँदनी देवें बना।
काम पड़ने पर करें जो शेर का भी सामना।
जो कि हँस हँस के चबा लेते हैं लोहे का चना।
”है कठिन कुछ भी नहीं” जिनके है जी में यह ठना।
कोस कितने ही चलें पर वे कभी थकते नहीं।
कौन सी है गाँठ जिसको खोल वे सकते नहीं।5।
ठीकरी को वे बना देते हैं सोने की डली।
रेग को करके दिखा देते हैं वे सुन्दर खली।
वे बबूलों में लगा देते हैं चंपे की कली।
काक को भी वे सिखा देते हैं कोकिल-काकली।
ऊसरों में हैं खिला देते अनूठे वे कमल।
वे लगा देते हैं उकठे काठ में भी फूल फल।6।
काम को आरंभ करके यों नहीं जो छोड़ते।
सामना करके नहीं जो भूल कर मुँह मोड़ते।
जो गगन के फूल बातों से वृथा नहिं तोड़ते।
संपदा मन से करोड़ों की नहीं जो जोड़ते।
बन गया हीरा उन्हीं के हाथ से है कारबन।
काँच को करके दिखा देते हैं वे उज्ज्वल रतन।7।
पर्वतों को काटकर सड़कें बना देते हैं वे।
सैकड़ों मरुभूमि में नदियाँ बहा देते हैं वे।
गर्भ में जल-राशि के बेड़ा चला देते हैं वे।
जंगलों में भी महा-मंगल रचा देते हैं वे।
भेद नभ तल का उन्होंने है बहुत बतला दिया।
है उन्होंने ही निकाली तार तार सारी क्रिया।8।
कार्य्य-थल को वे कभी नहिं पूछते ‘वह है कहाँ’।
कर दिखाते हैं असंभव को वही संभव यहाँ।
उलझनें आकर उन्हें पड़ती हैं जितनी ही जहाँ।
वे दिखाते हैं नया उत्साह उतना ही वहाँ।
डाल देते हैं विरोधाी सैकड़ों ही अड़चनें।
वे जगह से काम अपना ठीक करके ही टलें।9।
जो रुकावट डाल कर होवे कोई पर्वत खड़ा।
तो उसे देते हैं अपनी युक्तियों से वे उड़ा।
बीच में पड़कर जलधिा जो काम देवे गड़बड़ा।
तो बना देंगे उसे वे क्षुद्र पानी का घड़ा।
बन ख्रगालेंगे करेंगे व्योम में बाजीगरी।
कुछ अजब धाुन काम के करने की उनमें है भरी।10।
सब तरह से आज जितने देश हैं फूले फले।
बुध्दि, विद्या, धान, विभव के हैं जहाँ डेरे डले।
वे बनाने से उन्हीं के बन गये इतने भले।
वे सभी हैं हाथ से ऐसे सपूतों के पले।
लोग जब ऐसे समय पाकर जनम लेंगे कभी।
देश की औ जाति की होगी भलाई भी तभी।11।
जीवनमुक्त
[ अरिल ]
किसे नहीं ललना-ललामता मोहती।
विफल नहीं होता उसका टोना कहीं।
किसे नहीं उसके विशाल दृग बेधाते।
किसे कुसुम सायत कंपित करता नहीं।1।
निज लपटों से करके दग्धा विपुल हृदय।
कलह, वैर, कुवचन-अंगारक प्रसवती।
करके भस्मीभूत विचार, विवेक को।
किसके उर में क्रोधा आग नहिं दहकती।2।
अनुचित उचित विचार-विहीन, उपद्रवी।
प्रतिहिंसा-प्रिय, हठी, निमज्जित अज्ञता।
असहन-शील, कठोर, दांभिक, मंद-धाी।
किसे नहीं करती प्रमत्ता, मद-मत्ताता।3।
कहीं कान्त-स्वर-ग्राम रूप में है रमा।
कहीं सरस रस परिमल बन कर सोहता।
सुत-कलत्रा ममता-स्वरूप में है कहीं।
मधाुर मूर्ति से मोह किसे नहिं मोहता।4।
तीन लोक का राज तथा सारा विभव।
पा करके भी तृप्ति नहीं होती जिसे।
रुधिार-पात पर-पीड़न का जो हेतु है।
भला लोभ विचलित करता है नहिं किसे।5।
चाहे द्रोह, प्रमाद, असूया आदि हो।
चाहे हो मत्सर, चाहे हो पिशुनता।
काम, क्रोधा, मद, मोह, लोभ जैसे अपार।
दोष हैं न, ये सकल दोष के हैं पिता।6।
अनुपम साधान तथा आत्मबल अतुल से।
जिसका जीवन इन दोषों से मुक्त है।
पूत-चरित लोकोत्तार-गुण-गरिमा-बलित।
वही इस अवनि-तल पर जीवनमुक्त है।7।
क्या सकामता उसमें होती है नहीं?
होती है, पर वह होती है सुरुचि-मय।
बन जाता है पर फलद औ पूत तम।
काम-बिशिख छू अति पावन उसका हृदय।8।
नहिं विलासिता हेतु बनी उसके लिए।
किसी काल में कामिनी-कुल-कमनीयता।
वरन उसे सब काल दिखा उसमें पड़ी।
उस महान महिमा-मय की महनीयता।9।
उस पावक सा पूत कोप उसका मिला।
जो कंचन को तपा बनाता है विमल।
या होता है वह उस बाल पतंग सा।
जो समुदित हो देता है तम-तोम दल।10।
उस आतप सा भी कह सकते हैं उसे।
जिसके पीछे सुखद सलिल है बरसता।
वह सुतप्त जल भी उसका उपमान है।
तन जिससे पाता है अनुपम निरुजता।11।
यह वह शासन है जिससे सुधारे कुधाी।
यह वह नियमन है जिसमें है हित निहित।
वह प्रयोग है मुक्त जनों का कोप यह।
जिससे अविहित रत पाता है पथ विहित।12।
आत्म-त्याग का अति पुनीत मद पान कर
वह रहता है सदा विमुग्धा प्रमत्ता सा।
होती हैं इसलिए भूत-हित में रँगी।
सकल भावनाएँ उसकी मद-संभवा।13।
पर-दुख-कातरता पर वरता बंद्यता।
अहंमन्यता को मानवता पगों पर।
सदा निछावर करता है वह मुग्धा हो।
पर-हित-प्रियता पर गौरव-गरिमा अपर।14।
कर विलोप साधान नभ-तारक-पुंज का।
दिन-नायक सा नहिं होता उसका उदय।
समुदित होता है वह कुमुदिन-कान्त सा।
सप्रभ, अविकलित, रंजित, रख तारक निचय।15।
होता है उर मोह महत्ताओं भरा।
होती हैं भ्रम-मयी न उसकी पूर्तियाँ।
मधाुमयता, ममता, विमुग्धाता में उसे।
विश्व-प्रेम की मिलती हैं शुचिर् मूत्तिायाँ।16।
सुन्दर-स्वर लहरी उसकी चित-वृत्तिा को।
ले जाती हैं खींच अलौकिक लोक में।
बहती है अति पूत प्रेम-धारा जहाँ।
भक्ति-सुधाा-सँग दिव्य ज्ञान आलोक में।17।
भाव ‘रसो वै स:’ का उसमें है भरा।
परिमल करता है मानस को परिमलित।
पाठ सिखा देता है समता का उसे।
मनन-शीलता सुत-कलत्रा ममता-जनित।18।
कभी लोक-सेवा-लोलुपता-रूप में।
कभी उच्चतम-प्रेम ललक की मूर्ति बन।
मुक्त जनों का लोभ विलसता है कभी।
पा भावुकता-लसित-लालसा-पूत-तन।19।
रज-समान गिन तीन लोक के राज को।
लोक चित्ता-रंजन-हित लालायित रहा।
बना रहा वह विहित लाभ का लालची।
सदा विभव तज भव-हित-धारा में बहा।20।
रक्त-पात नियमन मदान्धाता दमन का।
सत्य, न्याय, को समुचित मान प्रदान का।
उसके जी से लोभ न जाता है कभी।
जीव-दया, सच्ची स्वतन्त्राता दान का।21।
देव-बुध्दि
कर लिये करवाल अकुण्ठिता।
कनक-कश्यप ने जब यों कहा।
तब महाप्रभु क्या परिव्याप्त है।
इस महाजड़ प्रस्तर-स्तम्भ में।1।
तब अकम्पित औ दृढ़ कण्ठ से।
यह कहा प्रहलाद प्रबुध्द ने।
जब महाप्रभु व्यापक विश्व है।
तब नहीं वह है किस वस्तु में।2।
पत्तो पत्तो प्रगट करते कीर्ति लोकोत्तारा हैं।
कीटोें में भी प्रथित महिमा की प्रभा व्यंजिता है।
कैसे होगी न प्रभु-वर की स्तम्भ में दिव्य सत्ता।
जो धाूली के सकल कण में है कला दृष्टि आती।3।
कोई भी है न इस जग में वस्तु ऐसी कहीं भी।
पाया जाता न कुछ जिसमें अंश आकाश का हो।
मैं पाता हूँ वियत सँगवाँ वायु और तेज को भी।
कैसे होगी न फिर उसमें नाथ की सूक्ष्म सत्ता।4।
ये बातें ऐ सहृदय जनो! हैं यही तो बताती।
जो है, अज्ञा, तिमिर-वलिता है वही दानवी भी।
ऐसे ही जो परम शुचि है दिव्य ज्योतिर्मयी है।
सद्भावों की प्रसव-भुवि है, है वही देव-बुध्दि।5।
कुलीनता
[वंशस्थ]
विवेक, विद्या, सुविचार, सत्यता।
क्षमा, दया, सज्जनता, उदारता।
क्रिया, सदाचार, परोपकारिता।
सदा समाधाार कुलीनता रही।1।
परन्तु है आज विचित्रा ही दशा।
विडम्बिता है नित ही कुलीनता।
सप्रेम है अर्पित हो रही सुता।
उसे बता वंशगता कुलागता।2।
किसी बड़े पूज्य महान व्यक्ति का।
सुवंश-सम्मान प्रदान योग्य है।
परन्तु तद्वंशज अज्ञ अग्रणी।
कदापि कन्यार्पण का न पात्रा है।3।
गुणों बिना केवल वंश, विश्व में।
कदापि सम्मानित हो सका नहीं।
इसे सदा है करती प्रमाणिता।
कथावली पंकज कज्जलादि की।4।
अवश्य है अंधा-परम्परा किये।
हमें विवेकादि विहिन-मंद-धाी।
भला नहीं तो हम क्यों विलोकते।
स्वलोचनों से स्वसुता कदर्थना।5।
न मूढ़ ही हैं अविवेक में फँसे।
यही दशा है मतिमान वृन्द की।
समर्थ हैं जो तम के विनाश में।
स्वयं वही हैं तम-पुंज में पड़े।6।
पढ़ा, लिखा, अर्जन ज्ञान का किया।
सुधाी बने, जीत सभा अनेक ली।
परन्तु पाई न विवेक-बुध्दि तो।
वृथा हुई सर्व अनुष्ठिता क्रिया।7।
उठा दृगों को कह दो मनीषियो!
बनी रहेगी कब लौं समाद्रिता।
कुलीनता के मिस निन्दिता प्रथा।
कुलीन के व्याज विमूढ़-मण्डली।8।
न काम आई प्रतिभा गरीयसी।
न बुध्दि विद्या विबुधाों भरी सभा।
निपातिता जो न हुई प्रयत्न से।
प्रवर्ध्दमाना कुप्रथा-पिशाचिनी।9।
स्वजाति सेवा-व्रत है विडम्बना।
समस्त व्याख्यान प्रलाप मात्रा है।
विवेक-शीला वर बुध्दि आप की।
विलुप्त होवे यदि कार्य्य-काल में।10।
समाज के सम्मुख औ सभादि में।
जिसे बतावें अति कुत्सिता क्रिया।
करें उसी को यदि कार्य्य आ पड़े।
न अन्य तो है कुप्रवृत्तिा ईदृशी।11।
विलोक ली मुग्धा-करी विदग्धाता।
मनस्विता वाक्-पटुता सयत्नता।
शरीर की है धामनी सरक्त तो।
हमें दिखा दो निज कार्य्य-वीरता।12।
कुलीनता है अब भी अनेकश:।
सुवंश में शेष बची सुरक्षिता।
परन्तु योंहि यदि वंचिता रही।
विचित्रा क्या है यदि हो तिरोहिता।13।
जहाँ अविद्वान विमूढ़ क्षुद्र-धाी।
वरेण्य हैं केवल वंश-सूत्रा से।
वहाँ बनेगा जन कौन सद्गुणी।
सयत्न हो अर्जुन को कुलीनता।14।
विघातिनी है गुरुता स्वदेश की।
विलोपिनी है कुल-वन्दनीयता।
विनाशिनी है सुख-शान्ति जाति की।
अपूज्यता पूज्य, अपूज्य पूज्यता।5।
आरम्भ-शूरता
[ अरिल्ल ]
देश, जाति के अधा:पतन का मूल है।
उन्नति का बाधाक अपयश का कोष है।
कार्य्य-सिध्दि के लिए कृतान्त-स्वरूप है।
अति निन्दित आरम्भ-शूरता दोष है।1।
वह साहस है जल-बुद्बुद सा बिनसता।
वह उत्साह प्रभात-सोम से है बढ़ा।
वह उमंग है सिकता-विरचित भीत सी।
जिस पर है आरम्भ शूरता रँग चढ़ा।2।
उसने देखा कभी सफलता-मुख नहीं।
कभी कामना-वेलि नहीं उसकी खिली।
कभी न उसका भाग्य-गगन उज्ज्वल हुआ।
जिसकी कृति आरम्भ-शूरता से हिली।3।
वह उद्योग-समूह मिलेगा धाूल में।
वह सयत्नता होगी असफलता ग्रसी।
वह प्रिय कार्य्य सकेगा नहिं सम्पन्न हो।
जिसमें है आरम्भ-शूरता आ बसी।4।
डूब गया गौरव-मयंक निज कान्ति खो।
हुई अचानक लोप देश-शोभी कला।
किसी काल में कहीं किसी समुदाय का।
हुआ नहीं आरम्भ-शूरता से भला।5।
किन्तु बात यह कहते होता हूँ व्यथित।
हम लोगों में यह अवगुण है अधिाकतर।
इसीलिए है जगत यही अवलोकता।
सकते नहीं महान कार्य्य हम एक कर।6।
धाूम धााम से खुलीं सभाएँ सैकड़ों।
सँभलीं नहीं अकाल काल-कवलित हुईं।
पड़ कर इस आरम्भ शूरता-पेच में।
असमय बुझीं अनेक लोक-हित-कर धाुईं।7।
समारम्भ ही जिसका सिध्दि-निदान था।
पल में जिसकी विपुल-विघ्न-बाधाा नसी।
आज उसी जड़-भूता हिन्दू जाति की।
नस नस में आरम्भ-शूरता है धाँसी।8।
कभी प्रगटती है वह मिस आलस्य के।
कभी हेतु बनती है कल्पित-सभ्यता।
कलह, अमूलक हिंसा, असहन-शीलता।
कभी उसे उपजाती है अल्पज्ञता।9।
नहिं करते आरम्म विघ्न-भय से अधाम।
विघ्न हुए मधयम जन हैं मुख मोड़ते।
बाधाा विघ्न सहòों सम्मुख आ पड़े।
उत्ताम जन आरम्भ कर नहीं छोड़ते।10।
यह सुउक्ति है युक्तिमयी जिस जाति की।
क्यों उसमें आरम्भ-शूरता आज की।
और कहूँ क्या मैं इतना ही कहूँगा।
उसमें है कर्तव्य-शीलता की कमी।11।
किन्तु कथन करता हूँ यह स्वर तार से।
सुन ऐ हिन्दू जाति ज्ञान-गौरवमयी।
बिना तजे आरम्भ-शूरता दोष को।
कभी न होगी कर्म्म क्षेत्रा में तू जयी।12।
मन
[चौपदे]
बह गये कान्त भक्ति कालिन्दी।
कूल जिसके सदा मिले घन तन।
बज उठे लोक प्रीति बर बंशी।
कौन मन बन गया न बृन्दाबन।1।
हैं भले भाव मंजुतम मोती।
बहु बिलसता विपुल-विमल रस है।
सोहता हंस हंस जैसा है।
मानसर के समान मानस है।2।
योग जीवन समाधिा अवलम्बन।
साधाना सूत्रा सिध्दि का साधान।
मंत्रा का बीज तंत्रा का सम्बल।
भक्ति-सर्वस्व मुक्ति मठ है मन।3।
हैं विविधा बाजे घटों में बज रहे।
है सदा जिनसे सुधाारस झर रहा।
मुग्धा अनहद नाद सुन कर है सुरति।
किन्तु मन है सुर सबों में भर रहा।4।
है कलश दिननाथ उसके सामने।
चंद्रमा है एक चाँदी का पदक।
जगमगाया सब जगत जिस ज्योति से।
उस निराली ज्योति का है मन जनक।5।
क्रीट-मंडित कान्त कुंडल से कलित।
वर वसन विलसित परम कमनीय तन।
मधाुमयी मुरली मधाुर वादन निरत।
दो बना बन जायगा घनश्याम मन।6।
भर गये प्रेमरंग रग रग में।
हो गये अति अप्रतीति पूरित मति।
भावना बन गयी भवानी है।
भाव मन का बना भवानीपति।7।
जिस बड़े ही भावमय मन में बसीं।
प्रेम औ प्रतीति की ही सूरतें।
संग है उसके लिए सत्संग सम।
मूरतें हैं ज्ञानमय की मूरतें।8।
है कहाँ पास उस मनुज के मन।
जो मनन कर न भ्रम निवार सका।
आप आकार वान होकर भी।
जो न साकार को सकार सका।9।
है सकल मंजु गान का वह गेय।
है अखिल वंदनीय पथ-पाथेय।
मन अननुमेय और है अनुमेय।
धयान का धयेय ज्ञान का है ज्ञेय।10।
तम सदैव समाधिा में उसको मिला।
कालिमा मन से नहीं जिसके टली।
हो सका जिसका विमल मानस उसे।
ज्योतिमय की ज्योति मंदिर में मिली।11।
योग जप यज्ञ यातना सम है।
है सकल साधाना उपाधिा उसे।
साधाने से सधाा न मन जिसका।
आधिा है व्याधिा है समाधिा उसे।12।
वह बरसता कभी दुसह द्रव है।
है कभी वह सरस सुधाा òावी।
है उसी में भरी सकल माया।
कौन है मन समान मायावी।13।
जब पकड़ पथ लिया असुबिधाा का।
कर रही है विमुग्धा क्यों सुबिधाा।
जब द्विविधा भाव है भरा मन में।
हो सके दूर किस तरह द्विविधाा।14।
बीज है वीररस सरस तरु का।
वीर बर-बोधा बंक का है धान।
वारि है वीरभाव वारिद का।
है ‘बना’ वीरता ‘बनी’ का मन।15।
वह बिकच बारिज बदन का है मधाुप।
रूप सर का मीन विधाु है छबिधारा।
कामिनी ही है परम कामद उसे।
काम से है कामियों का मन भरा।16।
मान मोती उसे मिले कैसे।
किस तरह नीर छीर पहचाने।
मानवों के महान भावों को।
हंस मन जो न मानसर माने।17।
है बनाता सरस नहीं उसको।
रस बरस रागरंग नाना घन।
सुख सरित नीर पी नहीं पलता।
लोकहित स्वाति जल पपीहा मन।18।
वह रहा दूकानदारी में फँसा।
जब टिका तब पाप पैंठों में टिका।
मति कनौड़ी ने कनौड़ा कर दिया।
मन रहा मणि मोल कौड़ी के बिका।19।
पौरुष
[चौपदे]
क्यों न उसकी सदा रहे चाँदी।
पा कनक के नये-नये आकर।
जो मनुज-रत्न यत्न कर पाया।
क्यों उसे रत्न दे न रत्नाकर।1।
जो अमल हैं बिकच कमल जैसे।
बुध्दि जिनकी बनी रही बिमला।
काम में जो कमाल रखते हैं।
मिल सकी कब उन्हें नहीं कमला।2।
जब निकाला करें कमर कस कर।
मोतियों से न क्यों भरे डाेंगे।
जो रखेंगे कुबेर सा काबू।
क्यों न तो धानकुबेर हम होंगे।3।
पाँव अपने जमा कमर को कस।
कर कमाई कमा कमा पैसे।
जो विभववान हम न बन पाये।
भव विभव दान तो करें कैसे।4।
क्यों सुनेगा असिध्दि की बातें।
है सदा ऋध्दि सिध्दि चाह जिसे।
कर रहा है असाधय साधान वह।
साधाना से मिली न सिध्दि किसे।5।
जब कमर काम के लिए कस ली।
क्यों नहीं तो कमाल करते वे।
पास जिनके विचार का पर है।
क्यों नहीं व्योम में बिचरते वे।6।
एक वैसा कर दिखाता है वही।
जब कभी जी में रहा जैसा ठना।
करतबी ही को न क्यों पारस कहें।
छू जिसे लोहा सदा सोना बना।7।
घेरती है जिन्हें न कायरता।
जो पड़े काम हैं न कतराते।
डर जिन्हें है नहीं विफलता का।
हैं सफलता सदा वही पाते।8।
जो हमें मिल सका नहीं चावल।
किस तरह तोष दे सके तो तुष।
उस पुरुष को पुरुष कहें कैसे।
पास जिसके न पा सके पौरुष।9।
वैसी ही सिध्दि मिल सकी उनको।
लोग थे सिध्द बन सके जैसे।
जो नहीं हैं विभूतियों वाले।
पा सकेंगे विभूतियाँ कैसे।10।
तब भला रीझती रमा कैसे।
साधानों में न जब रमा है मन।
जब न करतूत धान धानी होंगे।
तो धानद भी न दे सकेगा धान।11।
साहित्य
[ छप्पै ]
भाव गगन के लिए परम कमनीय कलाधार।
रस उपवन के लिए कुसुम कुल विपुल मनोहर।
उक्ति अवनि के लिए सलिल सुरसरि का प्यारा।
ज्ञान नयन के लिए ज्योतिमय उज्ज्वल तारा।
है जन मन मोहन के लिए मधाुमय मधाुऋतु से न कम।
संसार सरोवर के लिए है साहित्य सरोज सम।1।
जाति जीवनी शक्ति देश दुख जड़ी सजीवन।
जीवन हीन अनेक जीवितों का नवजीवन।
बुधा जन का सर्वस्व अबुधा जन बोधा विधााता।
निर्जीवों का जीव सजीवों का सुख दाता।
है घनीभूत तम-पुंज में लोकोत्तार आलोक वह।
है लौकिक विविधा विधाान का सकल अलौकिक ओक वह।2।
उसमें सरस वसंत सब समय है सरसाता।
सब ऋतु में है मंद मंद मलयज बह जाता।
है कोकिल कमनीय कंठ सब काल सुनाता।
विकसित सरसीरुह समूह है सदा दिखाता।
कर कर अनुपम अठखेलियाँ हैं जन मानस मोहती।
हैं कलित ललित लतिका सकल सब दिन उसमें सोहती।3।
भवनों को जो बालभाव हैं स्वर्ग बनाते।
श्रुति में जो कल कथन हैं सुधाा òोत बहाते।
कामिनी कुल की कला कान्ति कोमलता न्यारी।
बहुउदार चित्ता वृत्तिा विकच कलिका सी प्यारी।
नाना विलास लीला विविधा हाव भाव अनुभाव सब।
उसमें विकसित हो लसित हो करते नहीं प्रफुल्ल कब।4।
है अरूप आलाप को रुचिर-रूप बनाता।
बोल चाल को परम अलंकृत है कर पाता।
रसना जनिता उक्ति को रसिकता है देता।
कल्पलता है विविधा कल्पना को कर लेता।
बहु अललित भाव समूह में भर देता लालित्य है।
नीरस विचार को भी सरस कर देता साहित्य है।5।
बड़े बडे क़वि अमर कीर्तियाँ कैसे पाते।
जीवित कैसे विपुल अजीवित जन कहलाते।
क्यों दिगन्त में सुयश सुयशवाले फैलाते।
कैसे गुण गुणवान जनों के गाये जाते।
इतिहास विदित वसुधााधिापति नाम सुनाता क्यों कहीं।
साहित्य सुधाा से अमरता जो उनको मिलती नहीं।6।
मधाुर मधाुर धवनिसहित धवनित कर मानव मानस।
बहा बहा कर अमित अन्तरों में नव नव रस।
बहु विमुग्धाता बितर बितर स्वर लहरी द्वारा।
सिक्त बना कर सरस राग से भूतल सारा।
भर भुवन विमोहन भाव सब परम रुचिर पद-पुंज में।
बजती है प्रतिभा मुरलिका नित साहित्य निकुंज में।7।
साथ लिये अनुकूल कलामय कामिनी का दल।
गान वाद्य पटु राग रंग रत मानव मंडल।
धार्म प्रचारक विबुधावृन्द बहु उन्नत चेता।
धाीर वीर धाीमान धाराधिाप नाना नेता।
अति अनुपम अभिनेता बने करते अभिनय हैं जहाँ।
है भूतल में साहित्य सा रंगमंच सुन्दर कहाँ।8।
वह विधाान जो है विधाान वालों का साधान।
वह विवेक जो है विवेकमय मानस का धान।
वह सुनीति जो नीतिमान की है रुचि न्यारी।
पूत प्रीति वह, प्रीतिमान की जो है प्यारी।
भव में भव हितकर अन्य जो वर विचार वरणीय हैं।
वे सब साहित्य समुद्र के रत्न निकर रमणीय हैं।9।
स्वर व्यंजन आकलित अखिल पद है अवलम्बन।
रुचिकर रुचिर विचारमयी रचना है मण्डन।
अतुल विभव है भाव उक्ति सरसा है सम्बल।
है वर बुध्दि प्रसूत प्रखर प्रतिभा समधिाक बल।
संसार सार साहित्य का रस सहजात निजस्व है।
कविता है जीवन सहचरी कवि जीवन सर्वस्व है।10।
चित्ताौड़ की एक शारद रजनी
[चतुष्पदी]
मयंक मृदु मंद हँस रहा था।
असीम नीले अमल गगन में।
सुधाा अलौकिक बरस रहा था।
चमक रहा था छत्रा-गन में।1।
सुरंजिता हो रही धारा थी।
खिली हुई चारु चाँदनी से।
रजत-मयी हो गयी बिभा थी।
कला कुमुदिनी-विकासिनी से।2।
दसों दिशा दिव्य हो गयी थीं।
सुदुग्धा का òोत बह रहा था।
नभापगा भी प्रभा-मयी थी।
प्रवाह पारद उमड़ रहा था।3।
चमक रहे थे असंख्य तारे।
सुदीप्ति सब ओर ढल रही थी।
विमुग्धा-कर ज्योति-पुंज धाारे।
अपार आभा उथल रही थी।4।
सुअर्बली शैल के शिखर पर।
असंख्य हीरे ढलक रहे थे।
प्रकाश-मण्डित मयंक के कर।
अपार छबि से छलक रहे थे।5।
सुदूर विस्तृत विशाल गिरिवर।
सुज्योति संचित जगा रहा था।
अपूर्व कल-कान्ति-युक्त कलेवर।
रजत जटित जगमगा रहा था।6।
विचित्रा तरु-पत्रा की छटा थी।
प्रदीप्ति से दीप्तिमान होकर।
विराजती स्वच्छ शुभ्रता थी।
हरीतिमा का विकास खोकर।7।
प्रकाश के हैं कढ़े फुआरे।
प्रदीप्त भूतल विदार करके।
कि हैं प्रभा से गये सँवारे।
समस्त पादप प्रदेश भर के।8।
सुज्योति-सम्पन्न थीं लताएँ।
किरण-मयी बेलियाँ हुई थीं।
हरी भरी श्याम दूर्वाएँ।
प्रकाश से शुभ्र हो गयी थीं।9।
समस्त गिरि-शृंग का हिमोपल।
विचित्राता से दमक रहा था।
हरेक तृण था हुआ समुज्ज्वल।
समस्त रजकण चमक रहा था।10।
सरित-सरोवर समूह का जल।
बना हुआ दिव्य, था झलकता।
सुवीचियों-बीच स्वच्छ उज्ज्वल।
प्रकाश का बिम्ब था ढलकता।11।
हरी भरी भूमि का सरोवर।
सुभव्य था चारुता बड़ी थी।
रजत बनाई विशाल चादर।
सुशष्प के मधय में पड़ी थी।12।
अनेक छोटे बड़े जलाशय।
जहाँ तहाँ थे अजब दमकते।
प्रदीप्त नभ में नछत्रा कतिपय।
सतेज हैं जिस तरह चमकते।13।
अनेक सितकर प्रदीप्त निर्झर।
असंख्य मोती उछालते थे।
निसार करके कवीक पति पर।
उमंग अपनी निकालते थे।14।
तमोमयी शैल कन्दराएँ।
महा तिमिर-वान झाड़ियाँ सब।
कहो न क्यों आज जगमगाएँ।
स्वयं तमा है प्रभा-मयी जब।15।
बना हुआ था विशाल जंगल।
प्रकाश के पुंज का अखाड़ा।
मयंक-कर ने जहाँ सदल बल।
प्रचंड तम-तोम को पछाड़ा।16।
प्रसून पर काश के विभावस।
विचित्रा है चारुता दिखाती।
अमल धावल केश राशि पावस।
रची गयी ज्योति की जनाती।17।
विविधा बगीचे अनेक उपवन।
विकास से हैं महा विकासित।
कि मेदिनी पर कला-निकेतन।
अनन्त तजकर हुआ प्रकाशित।18।
न एक सित पुष्प ही मनोहर।
ससाम्य-बश ओप में बढ़ा था।
हरे असित नील पुष्प-चय पर।
प्रकाश का रंग ही चढ़ा था।19।
समस्त क्यारी कलित हुई थी।
प्रभा बलित थी अखिल प्रणाली।
सुधाा सरस कुंज में चुई थी।
दमक रही थी मलीन डाली।20।
कटी छँटी बेलि बूटियों पर।
छँटी हुई ज्योति टिक रही थी।
हरी भरी बाँस खूँटियों पर।
किरण अछूती छिटक रही थी।21।
खिले हुए फूल पर न केवल।
कमाल थी कौमुदी दिखाती।
मुँदे हुए थे अनेक उत्पल।
जिन्हें कला थी मुकुट पिन्हाती।22।
समस्त समतल विशाल प्रान्तर।
प्रकाशमय थे बिछी रुई थी।
सु अंकुरित खेत खेत होकर।
प्रभा परम पल्लवित हुई थी।23।
प्रवेश करके विशद नगर में।
प्रकाश तमराशि खो रहा था।
डगर डगर औ बगर बगर में।
जगर मगर आज हो रहा था।24।
प्रशस्त प्राकार मन्दिरों में।
फटिक शिला शुभ्र लग गयी थी।
समग्र ऑंगन घरों दरों में।
नवल धावल ज्योति जग गयी थी।25।
अटारियाँ खिड़कियाँ मनोहर।
प्रकाश की कोठियाँ बनी थीं।
सुभग मुँडेरों सु कँगनियों पर।
लगी हुई बज्र की कनी थी।26।
हुए छतों पर विचित्रा टोने।
समस्त छाजन ज्वलित हुई थी।
कला फिरी थी हरेक कोने।
झलक रही भूमि की सुई थी।27।
सकल गली ओ समस्त कूँचे।
चमक दमक चारु थे दिखाते।
चऊतरे चौखटे समूचे।
अजीब थे आज जगमगाते।28।
बना हुआ ठाट हाट का था।
रजतमयी सब दुकान ही थी।
सुचमकियों से बसन टँका था।
मिठाइयों पर सुधाा बही थी।29।
भया प्रभावान भव्य भाजन।
हुआ विभूषण सुरत्न-मण्डित।
कलाबतू बदला बना सन।
अखिल उपस्कर हुए अलंकृत।30।
गिलम गलीचे मलिन दरी भी।
चमक दमक चारुता-मयी थी।
पड़ी सड़क में कुकंकरी भी।
प्रभावती पोत बन गयी थी।31।
सुधाा धावल धााम ही न केवल।
हुआ प्रभा-पुंज से सुशोभन।
बुरा निकेतन महा मलिन थल।
सुदर्पणों सा बना सुदर्शन।32।
रचा हुआ घास का कुघर भी।
प्रदीप्त था, ज्योति भर रही थी।
पड़ी झोंपड़ी समस्त पर भी।
कला करामात कर रही थी।33।
कलित किरण थी प्रदीप्ति-बोरी।
प्रकाश में तेज सन गया था।
जकी चकी थी खड़ी चकोरी।
कवीकपित भानु बन गया था।34।
सुचाँदनी की चटक निकाई।
पयोधिा का कान काटती थी।
जिसे बड़े चाव से बिलाई।
बिचार कर दूधा चाटती थी।35।
निशा हुई थी महा समुज्ज्वल।
समस्त नभ श्वेत था दिखाता।
कभी अचानक बिहंग का दल।
प्रभात का राग था सुनाता।36।
दिगन्त में भूमि तल गगन पर।
त्रिालोक की स्वेतता बसी है।
वितुल कलितर्-कीत्तिा-रूप धारकर।
स्वयंभु की या प्रकट लसी है।37।
महा सिताभा असीम नभ-तल।
प्रदीप्त करके हुई सुप्लावित।
निमग्न करके समग्र भूतल।
कि है पयोराशि पय प्रवाहित।38।
अमल सतोगुण विशुध्द उज्ज्वल।
स्वरूप धार कर प्रकट दिखाया।
विभा बलित सित सरोज दल या।
बसुंधारा पर गया बिछाया।39।
कलितकला जिस रुचिर नगरपर।
सुकान्ति का है प्रसार करती।
उसी नगर में महा मनोहर।
बिभावती एक है सुधारती।40।
रचे गुणी जन इसी धारा पर।
अनेक प्रासाद हैं चमकते।
सदैव जिनके कलश रुचिर तर।
दिनेश की भाँति हैं दमकते।41।
इन्हीं सुप्रासाद-पंक्ति-भीतर।
अपूर्व है एक हर्म्य शोभित।
विचित्रा जिसकी बनावटों पर।
न दृष्टि किसकी हुई प्रलोभित।42।
इसी विशद हर्म्य में मनोहर।
प्रकोष्ठ है एक अति सुसज्जित।
जिसे कलाधर कला निराली।
vtò थी कर रही सुरंजित।43।
शनै:-शनै: एक जन उसी पर।
प्रशान्त-गति से टहल रहा था।
प्रफुल्ल मुख कान्ति-मान होकर।
प्रासाद की ओर ढल रहा था।44।
विशाल-भुज-वक्ष यह युवा जन।
मयंक की माधाुरी मनोहर।
विलोक कर था महा मुदित मन।
अपूर्व-उच्छ्वास-पूर्ण-अन्तर।45।
प्रकोष्ठ की कारु-कार्य्य-वाली।
खुली रुचिर सित-शिला-रची छत।
सकल – उपस्कर – सुरत्न – शाली।
सुबर्न-चूड़ा परम समुन्नत।46।
मयंक कर से चमक दमक कर।
मनोज्ञतर दृष्टि थे दिखाते।
जिन्हें युवा एक दृष्टि लख कर।
प्रमोद-पय-राशि पैर जाते।47।
जड़े हुए दिव्य रत्न सुन्दर।
निकालते ज्योति थे निराली।
बना युवा मन्त्रा-मुग्धा लख कर।
हुई हृदय देश में दिवाली।48।
शिखर समुज्ज्वल, प्रदीप्त प्रान्तर।
अनेक पादप प्रकाश-मंडित।
सुकर-समाच्छन्न बहु सरोवर।
बिपुल बगीचे विभा-अलंकृत।49।
प्रकोष्ठ से दृष्टि पर पड़ रहे थे।
समस्त का कुछ अजब समा था।
युवा हृदय मधय गड़ रहे थे।
सुदृश्य प्रति रोम में रमा था।50।
कभी युवा देखता गगन-तल।
कभी धारातल विमुग्धा होकर।
कभी धावल धााम हर्म्य उज्ज्वल।
कभी समुद्दीप्त, शुभ्र परिसर।51।
पवन सुधाा-सिक्त मन्द-गामी।
सकल कला-पूर्ण कल कलाधार।
सुचंद्रिका चारुर्-कीत्तिा-कामी।
दिशा महा मंजु अति मनोहर।52।
युवा उन्हीं में रमा हुआ था।
शरीर की सुधिा नहीं रही थी।
प्रमोद-पंकज खिला हुआ था।
विनोद की वेलि लहलही थी।53।
प्रतीच्य आकाश में इसी छन।
हुआ प्रकट एक दाग काला।
शनै: शनै: वह बना क्षुद्र घन।
पुन: हुआ मंजु मेघमाला।54।
अभी क्षितिज क्षुद्रभाग तजकर।
न था जलद व्योम मधय छाया।
कि बीच ही वायु ने सम्हलकर।
उसे वहीं धाूल में मिलाया।55।
परन्तु पल में पुन: उसी थल।
हुए जलद-खण्ड दृष्टिगोचर।
हुआ प्रथम लौं सुपुष्ट दल बल।
शनै: शनै: वर्ध्दमान हो कर।56।
उठी हवा भी उसी तरह फिर।
तुरंत जिससे जलद गया टल।
पयोद आया पुन: पुन: घिर।
पुन: पुन: वायु भी पड़ी चल।57।
रही दशा यह नियत समय तक।
पयोद दलता रहा प्रभंजन।
परन्तु पीछे हुआ अचानक।
सकल-गगन-प्रान्त में प्रबल घन।58।
जहाँ तहाँ इस समय गगन में।
बिपुल जलद-खण्ड थे बिचरते।
घरों, दरों, सैकड़ों सहन में।
कलित कौमुदी मलीन करते।59।
कहीं हुए पर्वताकार घन।
कहीं सदल बल विहर रहे थे।
कहीं गये थे महा निविड़ बन।
कहीं खण्डश: विचर रहे थे।60।
शनै: शनै: हो गयी दशा यह।
लगा कलाधार मलीन होने।
न रह गया था प्रदीप्त नभ वह।
चला तिमिर था प्रकाश खोने।61।
प्रथम गगन के विपुल थलों पर।
परास्त था वायु से हुआ घन।
परन्तु इस काल शान्त बन कर।
स्वयं हुआ था विजित प्रभंजन।62।
प्रचण्डता जिस प्रबल पवन की।
सकल-जलद-जाल छिन्न करती।
न शक्ति उसमें रही शमन की।
भला न क्यों शान्त वह बिचरती।63।
विशद-गगन के अधिाक थलों पर।
सजल जलद इस समय जमा था।
वहाँ चमकता न था कलाधार।
न चाँदनी का वहाँ समा था।64।
कभी कभी भेद कर सघन घन।
प्रकाश निज कान्ति था दिखाता।
कभी कभी यामिनी-विमोहन।
झलक जलद-जाल-बीच जाता।65।
परन्तु अब भी विशद गगन के।
बचे हुए थे विभाग ऐसे।
जहाँ छबीले नछत्रा-गण के।
प्रकोष्ठ थे दिव्य पूर्व जैसे।66।
सु-चाँदनी वैसी ही यहाँ थी।
प्रकाश था पूर्व लौं मनोहर।
सुधाा सरस वैसी ही बनी थी।
प्रदीप्त था पूर्ववत् कलाधार।67।
परन्तु ऐसे विभाग में भी।
धावल जलद-खण्ड फिर रहे थे।
कई निबिड़ वारि-वाह से भी।
विचित्राता साथ घिर रहे थे।68।
तथापि दो एक भाग अब भी।
बचे हुए थे प्रपंच घन से।
नछत्रा-गण थे सशंक तब भी।
प्रफुल्लता दूर थी बदन से।69।
कभी किसी भाग का प्रभंजन।
प्रचण्डता पूर्ववत् दिखाता।
परन्तु अति दीर्घ काय दृढ़ घन।
प्रयत्न उसका विफल बनाता।70।
विशेषत: वात अब अबल था।
वरंच था वह घनानुसारी।
अत: जलद-जाल अति प्रबल था।
बना हुआ था अक्लिष्ट कारी।71।
समय हुआ और ही बदल कर।
रही न सद्बुध्दि अब सँघाती।
कला बनाता मलीन जलधार।
कला जलद को कलित बनाती।72।
कवीकपति का विलोप साधान।
जलद तटल का प्रधाान व्रत था।
परन्तु घन को गगन-विभूषन।
सँवारने में समोद रत था।73।
विशद-गगन-बीच जो पयोधार।
कभी कहीं भी न था दिखाता।
वही बिबिधा रूप रंग रच कर।
दिगंत में भी न था समाता।74।
सरस सुधाा सिक्त शशि समुज्ज्वल।
समीर से सेब्यमान होकर।
शनै: शनै: घेर कर गगन-तल।
हुआ अप्रति-हत-प्रताप जलधार।75।
सकल जलद-जाल की क्रिया यह।
विलोकता आदि से युवा था।
परन्तु इस काल था व्यथित वह।
प्रसन्न आनन मलिन हुआ था।76।
रुक्मिणी-सन्देश
[ रोला ]
परम रम्य था नगर एक कुण्डिनपुर नामक।
जहाँ राज्य करते थे नृप-कुल-भूषण भीष्मक।
सकल-सम्पदा-सुकृति-धााम था नगर मनोहर।
वहाँ उलहती बेलि नीति की थी अति सुन्दर।1।
एक सुता थी परम-दिव्य उनकी गुणवाली।
रूप-राशि से ढँकी अलौकिक साँचे ढाली।
थी अपूर्व मुख-ज्योति छलकती थी छबि न्यारी।
नाम रुक्मिणी था, वह थी सबकी अति प्यारी।2।
जब विवाह के योग्य हुई यह कन्या सुन्दर।
कलह-बीज-अंकुरित हुआ गृह मधय भयंकर।
नृपति, द्वारकाधाीश-कृष्ण को देकर कन्या।
उसे चाहते थे करना अवनी-तल-धान्या।3।
रुक्म नाम का एक पुत्रा भूपति-वर का था।
परम क्रूर, क्रोधाी महान, वह कुटिल महा था।
सहमत वह नहिं हुआ नृपति से पूर्ण रूप से।
उसने निश्चित किया ब्याह शिशुपाल भूप से।4।
यत: रुक्म था बड़ा उम्र अतिशय हठकारी।
शक्तिमान युवराज, राज्य का भी अधिाकारी।
अत: नृपति ने व्यर्थ बखेड़ा नहीं बढ़ाया।
माना उसका कहा यदपि वह उन्हें न भाया।5।
उक्त नृपति के निकट रुक्म ने तिलक पठा कर।
ब्याह कार्य के लिए किया लोगों को तत्पर।
तिथि निश्चित हो गयी बात यह सबने जानी।
आता है ब्याहने चेदि भूपति अभिमानी।6।
विबुधा-बरों, गायकों, विविधा गुणियों के द्वारा।
सुयश, श्रवण करके विचित्रा, अनुपम अति प्यारा।
यत: हृदय दे चुकी हाथ में थीं यदुवर के।
अत: व्यथित अति हुई रुक्मिणी यह सुन करके।7।
पर सम्भव था नहीं रुक्म का सीधाा होना।
उससे कुछ कहना था निज गौरव का खोना।
अत: हुईं वे गुप्त-भाव से उद्यमशीला।
वृथा न रोयीं, औ न बनाया मुखड़ा पीला।8।
सोचा यदि मैं नीति-निपुण गुण-निधिा प्रभुवर को।
परम विज्ञ, करुणा-निधाान, यदुवंश-प्रवर को।
सकल हृदय का भाव स्वच्छता से जतलाऊँ।
औ लिख कर सन्देश यहाँ का सकल पठाऊँ।9।
तो अवश्य वे अखिल आपदा को टालेंगे।
मर्य्यादा निश्चय अपने कुल की पालेंगे।
शमन करेंगे ताप हृदय की व्यथा हरेंगे।
सकल हमारी मनोकामना सफल करेंगे।10।
जी में ऐसा सोच लिख एक पत्रा उन्होंने।
जिसके अक्षर ऑंखों पर करते थे टोने।
अपना आशय प्रकट किया यों सम्मत होकर।
हे करुणाकर प्रणत-पाल, यदुवंश-दिवाकर।11।
मैं न कहूँगी एक नृपति की कन्या हूँ मैं।
मुझे लाज लगती है जो परिचय यों दूँ मैं।
बरन कहूँगी हूँ चकोरिका चन्द-बदन की।
प्रभु मैं हूँ चातकी किसी नव-जलधार तन की।12।
पावन पद-पंकज-पराग की मैं भ्रमरी हूँ।
अतिशय अनुपम-रूप-राशि-पानिप-सफरी हूँ।
मैं कुरंगिनी हूँ पवित्रा कल-कंठ नाद की।
मैं समुत्सुका-रसना हूँ प्रभु सुयश-स्वाद की।13।
जैसे देखे बिना रूप भी सौरभ का जन।
हो जाता है सानुराग सब काल सुखित वन।
वैसे ही प्रभु-रूप बिना देखे अति प्यारा।
हुई हृदय से सानुराग हूँ तज भ्रम सारा।14।
सुचरित, सद्गुण, सुकृति, आपकी है, महि-व्यापी।
इन सबने ही प्रभु सुमूर्ति है उर में थापी।
रूप-जनित अनुराग क्षणिक है, अस्थायी है।
रूप गये औ मोह नसे नहिं सुखदायी है।15।
पर सद्गुण-सुचरित्रा जनित अनुराग सदा ही।
अचल अटल है अत: वही है अति उर-ग्राही।
सुकर उसी के मैं उमंग के साथ बिकी हूँ।
निश्चल, नीरव, समुद, उसी के द्वार टिकी हूँ।16।
एक मूढ़ जन इस मेरे अनुराग-òोत को।
करके गौरव-हीन प्रशंसित, प्रथित गोत को।
निज इच्छा अनुकूल चाहता है लौटाना।
पर उसने यह भेद नहीं अब लौं प्रभु जाना।17।
कौन फेर सकता प्रवाह है सुर-सरिता का।
रोक कौन सकता है जलनिधिा-पथ का नाका।
कौन प्रवाहित कर सकता है यत्नों द्वारा।
पश्चिम दिशि में भानु-नन्दिनी की खर धारा।18।
प्रणय-राज्य में बल-प्रयोग अति कायरता है।
मंगल-मय विवाह में कौशल पामरता है।
जिस परिणय का हृदय-मिलन उद्देश्य नहीं है।
वह अवैधा है विधिा का उसमें लेश नहीं है।19।
जहाँ परस्पर-प्रेम पताका नहिं लहराती।
वहाँ धवजा है कलह कपट की नित फहराती।
प्रणय-कुसुम में कीट स्वार्थ का जहाँ समाया।
वहाँ हुई सुख और शान्ति की कलुषित काया।20।
यह प्रपंच सब अनमिल ब्याहों से होते हैं।
जो दम्पति-जीवन का अनुपम सुख खोते हैं।
अहह प्रभो ऐसा प्रण क्यों भ्राता ने ठाना।
जिससे दुख में मुझको जीवन पड़े बिताना।21।
अब प्रभु तज नहिं अन्य हमारा है हितकारी।
निरवलम्बिनी हो, मैं आई शरण तुम्हारी।
प्रभु-पद-नख की ज्योति हरेगी तिमिर हमारा।
वही एक अवलम्बन है, है वही सहारा।22।
पवन बिना प्राणी, औ मणि विन फणि, जी जावे।
यह सम्भव है त्रााण बिना जल मछली पावे।
है परन्तु यह नहिं कदापि संभव मैं जीऊँ।
जो न प्रभु-कृपा-सुधाा यथा-रुचि सादर पीऊँ।23।
तरु हरीतिमा नसे, उड़े बिन पंख पखेरू।
हीरा वन जावे, बहु उज्ज्वल होकर गेरू।
जल शीतलता तजे, त्याग गति करे प्रभंजन।
तदपि न होगा मम विचार में कुछ परर्िवत्तान।24।
नाथ समर्पित हृदय अन्य को कैसे दूँगी।
हूँगी जो सेविका प्रभु-कमल-पग की हूँगी।
कभी अन्यथा नहीं करूँगी मैं न टलूँगी।
विष खाऊँगी, प्राण तजँगी, कर न मलूँगी।25।
मैं हूँ परम अबोधा बालिका प्रभु बुधावर हैं।
मैं हूँ बहु दुखपगी आप अति करुणाकर हैं।
मैं हूँ कृपा-भिखारिणि प्रभु अति ही उदार हैं।
मैं हूँ विपत-समुद्र पड़ी प्रभु कर्ण-धाार हैं।26।
जैसे मेरी लाज रहे मम धार्म्म न जावे।
देव-भाग को दनुज न बल-पूर्वक अपनावे।
जिससे कलुषित बने नहीं मम जीवन सारा।
होवे वही, निवेदन है प्रभु यही हमारा।27।
इस प्रकार चीठी लिख वे चिन्ता में डूबीं।
भेजूँ क्यों कर किसे सोच ये बातें ऊबीं।
छिपी नहीं यह बात रहेगी अन्त खुलेगी।
उग्र रुक्म से कभी किसी की नहीं चलेगी।28।
संभव है मम उपकारक को वह दुख देवे।
उसे नाश करके सरवस उसका हर लेवे।
अत: उन्होंने एक योग्य ब्राह्मण के द्वारा।
पत्रा द्वारिका नगर भेजना भला विचारा।29।
क्योंकि विप्र का किसी काल में बधा नहिं होता।
वह अब्याहत गति में है बहु विघ्न डुबोता।
सखियों द्वारा सब बातें पहले बतलाई।
फिर बुलवा कर उसे आप कोठे पर आई।30।
बातायन में बैठ पत्रा को कर में लेकर।
झुकीं विप्र के देने को अति आतुर होकर।
दोनों कर से बसन इधार द्विज ने फैलाया।
लेने को वह पत्रा, शीश हो चकित उठाया।31।
इसी काल का चित्रा हुआ है अंकित सुन्दर।
देखो द्विज का भाव, रुक्मिणी बदन मनोहर।
यद्यपि धाीर, गँभीर, मुखाकृति राज-सुता की।
लोचन स्थिरता, व्यंजक है उर की दृढ़ता की।32।
तदपि सामयिक, उत्सुकता, शंका, चंचलता।
अंकित है की गयी चित्रा में सहित निपुणता।
शीश अचानक लज्जा-शीला का खुल जाना।
परम शीघ्रता वश सम्हालने वस्त्रा न पाना।33।
पत्रा-दान की तन्मयता को है जतलाता।
अति सशंकता, चंचलता है प्रकट दिखाता।
जो असावधाानता हुई थी आतुरता से।
उसको भी है वही बताता चातुरता से।34।
कसी हुई कटि, लोटा डोरी काँधो पर की।
पत्रा-ग्रहण की रीति, भाव-भंगी द्विज-वर की।
यात्राा की तत्परता को है सूचित करती।
उर में नाना भाव सरलता का है भरती।35।
सती सीता
[ षट्पद ]
वह शरद ऋतु के अनूठे पंकजों सा है खिला।
तेज है उसको अलौकिक कान्ति-मानो सा मिला।
वह सुधाा कमनीय अपने कान्त हाथों से पिला।
मर रही सुकलत्राता को है सदा लेता जिला।
इस कलंकित मेदिनी में है सतीपन वह रतन।
पा जिसे है पूत होता कामिनी-अपुनीत-तन।1।
वह गगन यह है जहाँ उठता नहीं अविचार-घन।
है नहीं जिसमें कलह-रज लेश यह वह है पवन।
है नहीं जिसमें कपट का कीट यह वह है सुमन।
है पड़ी जिस पर न मतलब छींट यह वह है वसन।
है न जिसमें मान मद कटता यही है वह सुफल।
यह सलिल है वह, नहीं जिसमें मनो-मालिन्य-मल।2।
सुख-सदन का दीप यह है नीति-निधिा का बिधाुविमल।
यह परस्पर-प्यार-सर के अंक का है कल कमल।
वर गुणों, विनयादि की उत्पत्तिा का है मंजु थल।
प्रेम के अभिराम-व्रत का है बड़ा ही दिव्य-फल।
यह सुभावुकता-सरोजिनि के लिए है भानु कर।
पूत-चरितावलि मही-रुह के लिए है वारिधार।3।
हैं सुलझ जातीं इसी के हाथ से जग-उलझनें।
स्वर्ग से, जंजाल में डूबे सदन, इससे बनें।
दुख-भरे परिवार इससे ही हुए मन-भावने।
पूत-दम्पति-सुख इसी से ही सुधाा में हैं सने।
ज्ञान की गरिमा-रँगी भव के प्रपंचों की जयी।
जाति बनती है इसी की गोद में गौरवमयी।4।
राजती जिनमें सतीपन की रही पूरी कला।
पा जिन्हें सुपुनीत होकर देश यह फूला फला।
गा चरित जिनका हुआ बहुकामिनी-कुल का भला।
अंक में जिसके सुगौरव आर्यगण का है पला।
हो गयी भारतधारा में हैं कई ऐसी सती।
हैं उन्हीं में एक मेदिनी-नन्दिनी शुचि रुचिवती।5।
बंक भौंहों को बना जप कोप धााता ने किया।
जब पिता ने राम को चौदह बरस का बन दिया।
राज-श्री ने फेर जब उनसे बदन अपना लिया।
तज सकीं उन दुर्दिनों में भी नहीं उनको सिया।
कंज से कमनीय कोमल गात पर ऑंचें सहीं।
किन्तु अपने प्राणपति की वे बनी छाया रहीं।6।
राज-सुख था, थे जनक से, तात, दशरथ से ससुर।
सम्पदा सुरलोक की थी, औ विभव भी था प्रचुर।
कौसिला सी सास का शुभ अंक था अति ही मधाुर।
मुख-कमल था जोहता उत्कण्ठ होकर सर्व पुर।
किन्तु पति को छोड़ कर वे रह सकीं गृह में नहीं।
क्या कलाधार त्याग कर है कौमुदी रहती कहीं।7।
सुर सदन की सी सुहाती थी कुटी पत्ताों बनी।
व्यंजनों से थी सरसता कंद मूलों में घनी।
शीश पर फैली लताएँ थीं वितानों सी तनी।
धाूप लगती थी उन्हें राका-रजनि की चाँदनी।
श्याम-घन सी तन-छटा अवलोक ऑंखों बर बदन।
था हुआ-नन्दन-विपनि सा मुग्धाता आधाार बन।8।
काल पाकर वे हुईं निज प्राण-प्यारे से अलग।
प्रेम में उनके गया लंकेश सा लोकेश पग।
खुल गया उनके लिए सब राज-सुख का मंजु पग।
चूमने बहु सम्पदा उनकी लगी फिर कंज-पग।
दृग उठाकर किन्तु उनकी ओर ताका तक नहीं।
रात दिन बनके तपस्वी के लिए रोती रहीं।9।
जिस दिवस रघुवंश-मणि उर में हुआ भ्रम का उदय।
वह दिवस उनके लिए था और भी आवेग-मय।
ऑंख में ऑंसू नहीं था पर विहरता था हृदय।
क्षोभ औ संताप से थी बन गयी धारती निरय।
किन्तु ऐसे काल में भी वे नहीं बिचलीं तनक।
है निखरती और भी पड़ ऑंच में आभा कनक।10।
है जिसे अपनी पड़ी, है प्रेमिका सच्ची न वह।
प्राण-पति कहती जिसे हैं, है उसी का प्राण यह।
है वृथा जीना, मलिनता जो गयी चितबीच रह।
क्या नहीं सकती सती पति के लिए भू मधय सह।
सोच यह पति की प्रतीति निमित्ता तन ममता तजी।
कूद-पावक-मधय, उसमें से कढ़ीं पुष्पों सजी।11।
आह! आया वह दिवस भी जब उन्हें पति ने तजा।
जा बसीं अकेली विपिन के बीच जब जनकांगजा।
छोड़ सारा राजसुख कनकायतन फूलों सजा।
जब बिताने वे लगीं निजबार दुख किंगरी बजा।
जब सगा वे खोज कर भी थीं नहीं पाती कहीं।
देख जब उनकी दशा बन पत्तिायाँ रोती रहीं।12।
उन दिनों भी इस सती का राम-मय-जीवन रहा।
जब कहा कुछ तब यही अपने कमल मुख से कहा।
राज्य-पालन पंथ में है लोक-रंजन-व्रत महा।
है वही नृप, रख इसे, जिसने मही पर यश लहा।
जो प्रथित था औ उचित था है वही पति ने किया।
है पतित, निन्दित, नृपति वह जो कलंकित हो जिया।13।
जो नरोंसा ही नृपति भी मोह-ममता में फँसे।
प्यार सुत-वित-नारि का, उर में उन्हीं सा जो बसे।
जो न उसमें आत्मबल हो जो न वह चित को कसे।
तो न है नृप वह, वृथा सिर पर मुकुट उसके लसे।
है वही नर-नाथ जो है न्याय-पथ पहचानता।
आत्म-हित से लोक-हित को जो महत है मानता।14।
स्वार्थ का ही अब समय है, प्यास समता है बढ़ी।
घिर घटा है उर गगन में आत्म-गौरव की चढ़ी।
है अधिाक संभव कहें सुकुमारियाँ लिक्खी पढ़ी।
जानकी-सम्बन्धिानी बातें बहुत सी हैं गढ़ी।
हों गढ़ी, पर आत्म सुख त्यागे बिना तज कामना।
है न होता लोक-हित होती है नित अवमानना।15।
सुतवती सीता
[ छप्पै ]
कुसुम सु कोमल अल्प-वयस दो बालकवाली।
रहित केश-विन्यास प्रकृति-पावन कर पाली।
एक आधा गहने पहने साधाारण-वसना।
मुख-गंभीरता नहिं जिसकी कह सकती रसना।
यह देवि स्वरूपा कौन है बन-भूतल में भ्राजती?
कुसुमित पौधाों के मधय में क्या है रमा बिराजती?।1।
वन निवास के समय बहु विटप निम्न निरन्तर।
जो अवलोकी गयी पति प्रणयरता प्रचुर तर।
तरु-अशोक के तले पुरी लंका में प्रतिपल।
जिसका विकसित हुआ अलौकिक चारु चरितबल।
उस तपो भूमि में, जहाँ से रामचरित-धारा बही।
यह उसी सती की अति रुचिर मातृ-मूर्ति है लस रही।2।
निकट विलसते लव कुश नामक युगल तनय हैं।
भोले भाले परम सरलता-निधिा मुदमय हैं।
पति-वियोग-विधाुरा व्यथिता के प्रिय सम्बल हैं।
दुख-पयोधिा में विवश पतित के पोत युगल हैं।
परितापवंत चित सुतरुहित युग कलसे हैं सलिल मय।
तम वलित उर सदन के ज्योति मान हैं दीप द्वय।3।
अग्रज को अवलोक लिये एक कुसुम मनोहर।
फिर करते आलाप देख जननी से प्रिय तर।
हुआ कुसुम के लिए द्वितीय बालक भी चंचल।
औ जा बैठा पुष्प बेलि ढिग मंद मंद चल।
प्रिय सुमन तोड़ने के समय जो सुषमा मुख पर लसी।
वह अति अनुपम है प्रात रविप्रभा कमलपर आ बसी।4।
कुसुम लाभ, उसके अवलोकन का विनोद मिल।
अति सुन्दरता संग उठा है आनन पर खिल।
क्या राका-पति अंक विकचता उफन पड़ी है।
अथवा खिले गुलाब में सरसता उमड़ी है।
नन्दन कानन के अति कलित विकसित किसी प्रसून पर।
अथवा अनुपमता सँग लसी स्वर्ग ज्योति कमनीय तर।5।
सम्मुख पाकर कुसुम वान बालक को सीता।
हस्त कमल के साथ उसे पकड़े हो प्रीता।
जिस रसालता मृदुता सँग हैं समालाप-रत।
हो सकता है वह भावुक जन को ही अवगत।
अवलोक बदन गम्भीरता उठी तर्जनी कलामय।
कलनीय कान्त भावों बलित नहीं होता किसका हृदय।6।
माता है मानव-जीवन की नींव जमाती।
उसे पूत उन्नत, उदार है वही बनाती।
ज्यों सोनार भूषण-स्वरूप का है निर्माता।
त्योंही है माता-विचार जन-हृदय-विधााता।
बालक उर मृदु महि मधय जो मा बोती है बीज चय।
फल बहु बिधिा लाता है वही हो अंकुरित यथा समय।7।
सिय मुख परर् कत्ताव्य बुध्दि यह बहु व्यंजित है।
उससे उसकी गुरु गँभीरता अति रंजित है।
जो प्रसून उनका बालक है उन्हें दिखाता।
मंजुल वचन वही उनके मुख पर है लाता।
वे जिस वत्सलता, सरसता से हैं बातें कह रहीं।
वह केवल अनुभवनीय है सुकथनीय कथमपि नहीं।8।
क्या वह यह कहती हैं ऐ उर-उदधिा-कलाधार।
तेरे जैसा ही प्रसून भी है अति सुन्दर।
प्राणि-नयन-रंजिनी परम न्यारी छबि वाली।
तव कपोल अधारों सी है इसकी भी लाली।
कोमलता इस पर वैसिही है लसती मन मोहती।
तेरे तन की सुकुमारता जैसी हूँ अवलोकती।9।
है समानता तुझमें और सुमन में इतनी।
किन्तु तात इसमें गुण गरिमाएँ हैं कितनी।
बहुत प्यार कर सुर शिर पर सानंद चढ़ावे।
या पाँवों से मसल धाूल में इसे मिलावे।
पर यह सुबास तजता नहीं यों रहता है एक रस।
कैसे ही उनमें बिरसता नहिं होती जो हैं सरस।10।
यह सुरभित केवल तिल ही को नहीं बनाता।
निज सुगंधिा दे रज का भी है मान बढ़ाता।
निज प्रफुल्लता से नर ही को नहिं पुलकाता।
बनता है बहु मधाुप कीट का भी सुख-दाता।
जो हैं जग में सच्चे सुमन क्या कह उन्हें सराहिए।
उनकी गुणमयता विकचता होती है सब के लिए।11।
यह प्रसून काँटों में ही रहता पलता है।
पर कैसी इसमें सुमधाुरता कोमलता है।
पड़ कुसंग में कभी नहीं वे निजता खोते।
जो भावुक गंभीर उच्च रुचि के हैं होते।
जैसे समीप की पवन को यह करता है परिमलित।
वैसे उनका सहवास भी होता है बहु गुण-वलित।12।
अल्प मोल का फूल, मुकुटमणि का है मण्डन।
मोहित होता है उस पर पृथ्वी-पति का मन।
अमर-वृन्द-मस्तक पर है वह शोभा पाता।
वह सुवर्ण भूषण को भी है सछबि बनाता।
क्यों! क्या यह बतला दूँ तुझे? सुन ऐ सुवन सुकौशली।
सब काल रही सम्मानिता बसुधाा-बीच गुणावली।13।
जितनी वस्तु अवनि-मण्डल में है दिखलाती।
उन सबको मैं बिबिधा गुणों-पूरित हूँ पाती।
सुवन सभी को तुम विचार दृग से बिलोक कर।
उनके गुण-गण गहो, बनो कुल-कुमुद कलाधार।
कर-पल्लव शोभित कुसुम के सकल सुगुण पहले गहो।
जिससे इनकी अवहेलना देवोपम शिशु से न हो।14।
मेरे जी में यही लालसा है ऐ प्यारे!
तेरे पिता-सदृश तेरे गुण होवें न्यारे।
प्रजा-पुंज-रंजन सुनीति तेरी हो वैसी।
पूत-चरित-रघुकुल-रवि की भू में है जैसी।
सब काल सत्य संकल्प, सत्कर्म-निरत संयत रहो।
निज पूज्य जनक के तुल्य तब जीवन रहित कलंक हो।15।
वीरवर सौमित्रा
[ छप्पै ]
कर करवाल लिये रण-भू में निधारक जाना।
बिधा कर विशिखादिक से पग पीछे न हटाना।
लख कर रुधिार-प्रवाह और उत्तोजित होना।
रोम रोम छिद गये न दृढ़ता चित की खोना।
गिरते लख करके लोथ पर लोथ देख शिरका पतन।
नहिं विचलित होना अल्प भी हुआ देख शत-खंड-तन।1।
तोपों का लख अग्नि-काण्ड आकुल न दिखाना।
न काँपना लख शिर पर से गोलों का जाना।
भिड़ना मत्ता गयंद संग केहरि से लड़ना।
कर द्वारा अति क्रुध्द व्याल को दौड़ पकड़ना।
लख काल-वदन विकराल भी त्याग न देना धाीरता।
अकेले भिड़ना भट विपुल से यद्यिप है बड़ी वीरता।2।
किन्तु वीरता उच्चकोटि की और कई हैं।
कथित वीरताओं से जो वर कही गयी हैं।
करना स्वार्थ-त्याग क्रोधा से विजित न होना।
विपत-काल औ कठिन समय में धौर्य न खोना।
ऐसी ही कितनी और हैं द्वितीय भाँति की वीरता।
जिनमें न चाहिए विपुल बल और न वज्र-शरीरता।3।
रामानुज में द्विविधा वीरता है दिखलाती।
समय समय पर जो चित को है बहुत लुभाती।
पति बन जाता देख सिया थी जब अकुलाई।
सुत-वियोग वश जब कौशल्या थी बिलखाई।
उस काल सुमित्राा-सुवन ने जो दिखलाया आत्मबल।
वह उनके कीर्ति-निकेत का कलित खंभ है अति अचल।4।
तजा उन्होंने राज-भवन-सुख सुर-उर-ग्राही।
तजी सुमित्राा-सदृश जननि सब भाँति सराही।
आह! न जिसका विरह कभी जन सम्मुख आया।
तजी उर्मिला जैसी परम सुशीला जाया।
पर बाल-प्रीति को डोर में बँधा भायपरँग में रँगे।
वह तज न सके प्रिय बन्धाु को विपिन गये पीछे लगे।5।
यों उनका तिय-जननि-राज-सुख को तज जाना।
यती-भाव से बन में चौदह बरस बिताना।
राम-सिया को मान पिता, माता और स्वामी।
बन में सह दुख बिपुल बना रहना अनुगामी।
संसार चकित-कर कार्य है मिलित मनोरम धाीरता।
है यही आत्म-बल-संभवा परम अलौकिक वीरता।6।
कुसुम चयन करते अलकावलि बीच लगाते।
जब सीता सँग बिबिधा-केलि-रत राम दिखाते।
उसी काल सौमित्रा रुचिर उटजादि बनाते।
र्कत्तान करते मंजु शाल-शाखा दिखलाते।
सो किशलय पर जो यामिनी राम बिताते सुमुखि सह।
वह निशि व्यतीत करते लखन नखतावलि गिन सजग रह।7।
कभी जानकी पट-भूषण पेटिका लिये कर।
वे दिखला पड़ते चढ़ते गिरि दुरारोह पर।
लता, बेलि काटते, कटीले तरु छिनगाते।
सुपथ बनाते गहन विपिन में कभी दिखाते।
पथ कभी सिय-कुटी से सरसि तक का हित गगनागमन।
चिन्हित करते वे दीखते बाँधा पादपों में बसन।8।
यक तुषार से मलिन-चन्द्रिकावती रयन में।
जब वह थी गत-प्राय बड़ी सरदी थी बन में।
वे थे देख गये वारि सरसी में भरते।
सीकरमय तृण-राजि-बीच बचकर पग धारते।
यक जलद-मयी यामिनी में शिर पर जलधारादि ले।
चूती कुटीर के काज वे तृण, पत्तो लाते मिले।9।
यह अति कोमल राज-कुँवर कुवलय-करलालित।
सुवरन का-सा कान्ति-मान सुख में प्रति पालित।
कुसुम-सेज पर शयन-निपुण, मृदु-भूतल-चारी।
वर व्यंजन पर बसन वर विभव का अधिाकारी।
जब कानन में था दीखना करते परम कठोर व्रत।
तब अवगत था जग को हुआ वह कितना है राम-रत।10।
कपि-दल लेकर राम जलधिा-तट पर जब आये।
उसका देख कराल रूप कपि-पति अकुलाये।
सुन गर्जन र्आवत्ता सहित लख तुंग तरंगें।
हो विलीन सी गयी चमू की सकल उमंगें।
पर विचलित हुए न अल्प भी शूर-शिरोमणि श्री लखन।
कर धानु, शायक, लेकर कहे परम ओजमय ये वचन।11।
वही वीर है जोर् कत्ताव्य-विमूढ़ न होवे।
कार्य-कला को जो नहिं बन आकुल चित खोवे।
क्या है यह जलराशि कहो शर मार सुखाऊँ।
या कर इसे प्रभाव-हीन घट तुल्य बनाऊँ।
पर मर्यादा का तोड़ना कभी नहीं होता उचित।
इसलिए करो सुजतन, विवश हो करके न बनो दुचित।12।
इसी सुमित्राा-सुवन-कथन का सुफल हुआ यह।
जो बारिधिा था अगम गया गिरि से बाँधाा वह।
उस पर से ही उतर पार सेना सब आई।
फिर लंका पर धाूम धााम से हुई चढ़ाई।
रण छिड़ जाने पर लखन ने जो दिखलाया विपुल बल।
वह अकथनीय है अगम है बीर-बृन्द में है बिरल।13।
सुनकर धानु-टंकार मेदिनी थर्राती थी।
दिग्दंती की द्विगुण दलक उठती छाती थी।
विशिख-वृन्द से नभ-मण्डल था पूरित होता।
जो था दश दिशि बीच बहाता शोणित सोता।
प्रलय-बद्दि थी दहकती त्रिापुरान्तक थे कोपते।
जिस कला बीर सौमित्रा थे रणभू में पग रोपते।14।
अगर वृन्द जिसके भय से था थर थर कँपता।
जो प्रचंड पूषण सा था रण-भू में तपता।
पाहन द्वारा गठित हुई थी जिसकी काया।
बिबिधा-भयंकरर्-मूत्तिा-मती थी जिसकी माया।
वह परम साहसी अति प्रबल मेघनाद सा रिपु-दमन।
जिसके कोपालन में जला धान्य वह सुमित्राा-सुवन।15।
वाल्मीकि मुनि-पुंगव ने बदनाम्बुज द्वारा।
चरित सुमित्राा-सुत का जो अति सरस उचारा।
वह नितान्त तेजोमय है अति ओज-भरा है।
एक राम-जीवन-मय है निरुपम सुथरा है।
निज रुचि-प्रियता-ममतादि का है न पता उसमें कहीं।
धाराएँ उसमें राम-हित जो शुचिता सँग हैं बहीं।16।
अकपट-चित से बन अनन्यमन रोप युगल पग।
वे करते अनुसरण राम का नीरवता सँग।
उसी काल यह मौन तपस्वी जीभ हिलाता।
जब रघुपति-हित-सुयश-मान पर संकट आता।
जग-जनित ताप उपशमन के लिए त्याग निजता गिला।
सौमित्रा आत्मरति नीर था राम-प्रीति पय में मिला।17।
कुंठितमति पौरुष-विहीनता, परवशता से।
वे न सिया-पति अनुगत थे स्वारथ-परता से।
वरन हृदय में भ्रातृभक्ति उनके थी न्यारी।
जिसने थी मोहनी अपर भावों पर डारी।
उनके जीवन-हिम-गिरि-शिखर पर अमरावति से खसी।
राका-रजनी-चाँदनी सी स्नेह-वीरता थी लसी।18।
वे वासर थे परम मनोहर दिव्य दरसते।
जब थे भारत-मधय लखन से बंधाु विलसते।
आज कलह, छल, कूट-कपट घर घर है फैला।
हृदय बंधाु से बंधाु का हुआ है अति मैला।
हे प्रभो! बंधाु सौमित्रा से फिर उपजें, गृह गृह लसें।
शुचि-चरित सुखी परिवार फिर भारत वसुधाा में बसें।19।
उर्मिला
[ षट्पद ]
किसी ऊबती से न जो जी बचावें।
न दुख और का देख जो ऊब जावें।
कढ़ी आहें बेचैन जिनको बनावें।
जिन्हें प्यार की है परख वे बतावें।
किसी दिन भी दो बूँद ऑंसू गिरा कर।
हमारी पड़ी ऑंख है उर्मिला पर।1।
उसी उर्मिला पर न जिसने जताया।
किसी को दरद औ न दुखड़ा सुनाया।
तड़पता कलेजा न जिसने दिखाया।
न कोसा किसी को न मुखड़ा बनाया।
बिरह-बेलि जिसने हृदय बीच बोई।
जली रात दिन फूट कर जो न रोई।2।
जिसे प्यार कर, थी न फूले समाती।
न जिसका वदन देख कर थी अघाती।
न जिसके बिना थी कभी चैन पाती।
मधाुर बात जिसकी बहुत थी लुभाती।
रही पद-सलिल प्रात ही जिसका पीती।
रही देख जिसकी कनक-कान्ति जीती।3।
उसी ने किया आह उससे किनारा।
न आई दया औ न दुख को बिचारा।
न एक बार उसके बदन को निहारा।
न देखी दृगों से गिरी वारि-धारा।
न दस पाँच दिन या बरस दो बरस को।
चला वह गया बन में चौदह बरस को।4।
सिसकती रही वह पड़ी एक कोने।
सुना सब, निकल किन्तु आई न रोने।
कलेजे में दुखके पड़े बीज बोने।
उसे सब सुखों से पड़े हाथ धाोने।
न तब भी विकल प्राण-पति को बनाया।
न मुखड़ा हुआ ऑंसुओं में दिखाया।5।
जनक-नन्दिनी राम के पास आई।
किसी से तनिक भी न सहमी लजाई।
विलख कर बिरह वेदनाएँ सुनाई।
दृगों में भरी वारि बूँदें दिखाई।
अवधा कँप उठा मर्म वेधाी विरह से।
हिली तक नहीं उर्मिला निज जगह से।6।
जनक के सदन में पली उर्मिला थी।
सिया की सखी उच्च-कुल कन्यका थी।
इसी से कहूँगा न वह निष्ठुरा थी।
वरन प्रेम रँग में रँगी प्रेमिका थी।
तनिक भी नहीं जो जगह से हिली वह।
बड़ी ही समझ बूझ की बात थी यह।7।
रहे राम स्वाधाीन जेठे सहोदर।
उन्हें था न संकोच सकते थे सब कर।
सुमित्राा सुवन थे पराधाीन सहचर।
बिबिधा राम-सेवादि में रत निरन्तर।
इसी से न वह साथ सकते थे ले जा।
सुमुखि उर्मिला को कठिन कर कलेजा।8।
उसे ले, अगर साथ सौमित्रा जाते।
बड़े काम तो एक भी कर न पाते।
कहाँ तक लजाते ढिठाई दिखाते।
बड़ों की बड़ाई कहाँ तक निभाते।
असुविधाा सभी बात में मुख दिखाती।
बँधाी मेंड़ मरजाद की टूट जाती।9।
समझती रही उर्मिला बात सारी।
रही पति-हृदय से उसे जानकारी।
नहीं मानती थी उसे वह सु-नारी।
जिसे-कंत-अनुगामिता हो न प्यारी।
इसी से नहीं निज जगह से टली वह।
जहाँ थी वहीं दब बिरह में जली वह।10।
नहीं नारि जो पति हृदय जान पाती।
नहीं आप ही जो उचित कर दिखाती।
कठिन काल में जो नहीं काम आती।
नहीं जो कि पति-हेतु निजता गँवाती।
न कोई सकेगा उसे कुल-बधाू कह।
न है प्यार के पंथ की पंथिनी वह।11।
भरी बात में हो बड़ी ही मिठाई।
लगी किन्तु होवे कलेजे में काई।
तनिक स्वार्थ बू प्यार में हो समाई।
दुई की झलक हो दृगों रंग लाई।
भला है न तो ब्याह-मंडप में आना।
भरे लोग में नेह-गाँठें गठाना।12।
रही उर्मिला कुल-बधाू आर्य्य-बाला।
मिला था उसे उर बड़ा प्यार वाला।
इसी से बहुत जी को उसने सम्हाला।
पकड़ कर कलेजा सहा सब कसाला।
बड़े लाड़ औ प्यार के साथ पोसी।
जली औ घुली मोम की बत्तिायों सी।13।
न तब भी किसी ने गले आ लगाया।
न पोंछा सलिल जो दृगों ने बहाया।
न कर तक उसे बोधाने को बढ़ाया।
दिखाई पड़ी तक किसी की न छाया।
न सोचा किसी ने कभी ऑंख भर कर।
गयी बीत क्या इस सरल बालिका पर।14।
बड़ों को सभी ऑंख है देख पाती।
दुखी दीन की है किसे याद आती।
नहीं दुंद जो रो कलप कर मचाती।
नहीं पीर अपनी किसी को जनाती।
सदा ही यही ढंग जग का दिखाया।
उदधिा नाद में कब नदी रव सुनाया।15।
सच्चा प्रेम
[ ललित पद ]
अमरलोक से आ उतरी सी एक अलौकिक बाला।
क्षितितल पर निज छवि छिटकाती करती रूप उँजाला।
कलित किनारी बलित परम कमनीय वसन तन पहने।
विलसित हैं जिसके अंगों पर रत्न-खचित बर गहने।1।
रखे कमल-सम दायें कर पर लोटा सजल निराला।
लिए वाम-कर में कुसुमों की थाली अनुपम आला।
जैसे ही निज कान्त सदन से पुलकित बाहर आई।
वैसे ही एकर् मूत्तिा अलौकिक सम्मुख पड़ी दिखाई।2।
था उसका अभिराम श्याम तन कोटि-काम-मद-हारी।
जिस पर नव विभूति विलसित थी भव-विभूति से न्यारी।
शिर पर मंजुल जटा-छटा थी तन पर था मृग-छाला।
कंबु मनोरम मृदुल गले में थी विराजती माला।3।
सकमंडल कर में लकुटी थी कानों में मुद्राएँ।
अंकित थीं सुविशाल भाल पर रुचिर तीन रेखाएँ।
विकच-नील-अरविन्द-विनिन्दक थी मुख-इन्दु-निकाई।
युगल भौंह ने जिस पर उपमा अलि-अवली की पाई।4।
अनुरंजित अनुराग-लाग में डूबे सहज फबीले।
रतनारे, न्यारे, कजरारे, थे युग नयन रसीले।
ललित अधार पर विलस रही थी हँसी सरस अभिरामा।
अंग अंग थी सुछबि छलकती देख ललकतीं बामा।5।
तिरछी ऑंखों से विलोक कर यह मूरत मन-हारी।
चकित हुई मृग-शावक-लोचनि विकच बनी उर क्यारी।
उठे न पाँव, पधाार सकी नहिं पड़ी प्यार के पाले।
श्याम स्वरूप अनूप रूप ने औचक फंदे डाले।6।
चकित, थकित, पुलकित, नवला को देख श्याम-वपु बोले।
अपनी रुचिर वचन-रचना में सरस सुधाा रस घोले।
ऐ विधिा की कलर् कीत्तिा-लता की कुसुमावलि में आला।
जग-ललामता कोमलता की कान्ति-विधाायिनि बाला।7।
मानव-रत्न कौन है वह, तू है जिसके रँग-राती।
जिसके हित पूजने उमा-पति प्रति वासर है जाती।
होगा बड़ा भाग-वाला वह, मैं हूँ महा अभागा।
विधिा-वश सुर-दुर्लभ विभूति से जो मम मन अनुरागा।8।
देख सामने खिली मालती मैं हूँ बल बल जाता।
पर उसके सँग जी बहलाने पल भर भी नहिं पाता।
मैं हूँ वह प्यासा, समीप जिसके है रस का प्याला।
किन्तु उसे छू सकने तक का पड़ा हुआ है लाला।9।
उमड़ घुमड़ है घन सनेह का दया-वारि बरसाता।
पर निज चातक को दो बूँदें देते है अकुलाता।
पारावार अपार रूप का लहराता है आगे।
पर अनुकूल लहर पा करके भाग न मेरे जागे।10।
कल मलयानिल अति समीप से बहुधाा है बह जाता।
किन्तु कभी भी मम ही तल को शीतल नहीं बनाता।
यह प्रपंच अवलोक जगत का मेरा जी अकुलाया।
योगी बन मैं बन वन घूमा अंग भभूत रमाया।11।
किन्तु चित्ता ने चैन न पाया मन भी हाथ न आया।
टली न आधिा, समाधिा लगी नहिं, मिटी न ममता माया।
आसन मार रोक मन को जब मैं हूँ धयान लगाता।
तब उसका ही रम्य-रूप मम उर में है खिल जाता।12।
कोमल किसलय, कल कुसुमावलि, मंजुल वंजुल कुंजें।
पारावत केकी-पिक-संकुल-मुखारित बिपुल-निकुंजें।
उस ललामता खनि की मुझको प्रति-पल याद दिला के।
परमाकुल करती हैं कितनी ललित कला दिखला के।13।
रजनि सुन्दरी जब नखतावलि मुक्तमाल है पाती।
जब चाँदनि मिस मृदु मुसकाती, है विधाुबदन दिखाती।
तब मैं पुलकित क्या होऊँगा अति विचलित हूँ होता।
बड़े वेग से बह जाता है उर में बहु दुख-सोता।14।
सरस पवन जब सन सन चलकर है सुर मधाुर सुनाती।
तब हो सुरति विभूषण-धवनि की भर आती है छाती।
प्रात:काल मृदुल रवि कर जब हैं कमलिनि को छूते।
तब होता हूँ विपुल विकल ऑंसू चख से हैं चूते।15।
किसी काल में जैसे तन को नहीं छोड़ती छाया।
निकल नहीं सकता वैसे ही उर में रूप समाया।
सुर-दुर्लभ विभूति को मुझ सा पामर जन नहिं पाता।
दिवि-ललाम-भूता ललना से क्या है कपि का नाता।16।
चरम शान्ति कीर् मूत्तिा सुशीले तू बतला इतना ही।
कैसे शान्ति मिलेगी मुझको क्यों होगी चित-चाही।
तू है सरल, शिरोमणि तू है प्रेम-पंथ-पथिक की।
इसीलिए हूँ दवा पूछता तुझसे हृदय-बिथा की।17।
निज-कर-कमल राजते जल लौं तू उर तरल बनावे।
फिर उसकी सनेह-धारा सों सारा ताप नसावे।
कर की सुमनवती थाली लौं सुमनवती वन बाले!
मुझ ऊबे, वियोग वारिधा में डूबे को अपना ले।18।
जैसे मान सके मेरा मन वैसे इसे मना दे।
अधिाक क्या कहूँ मेरी बिगड़ी जैसे बने बना दे।
इतना कह कर मौन हुआ वह प्रेम-पंथ-मतवाला।
ललना के तन-मन-नयनों पर जादू डाल निराला।19।
मुदित दिशाएँ हुईं, मंजु लतिकाएँ मृदु मृदु डोलीं।
खिले प्रसून, बेलियाँ विकसीं, चिड़ियाँ स्वर से बोलीं।
इसी काल का चित्रा मनोहर यह सामने विलोको।
उसमें चित्राकार कर-कमलों का कौशल अवलोको।20।
प्रेमिक की सुन प्यारी बातें प्रेम रंग में डूबी।
पहले हुई अतिचकित बाला फिर चंचल हो ऊबी।
जिसकी प्रीति-लाभ हित प्रतिदिन था पुरारि को पूजा।
जिसके तुल्य ऑंख में उसकी था न अवनि में दूजा।21।
उसको निज अनुरक्त देख यों देह-दशा वह भूली।
प्रेम-उमंग-रंग-रंजित हो ललित लता लौं फूली।
फिर प्रतिपल अति पुलकित होती छबि विलोकती वाँकी।
उसने उसी सलिल-सुकुसुम से प्रियतम की पूजा की।22।
जो दो उर थे संगम-कामुक पडे प्रेम के पाले।
वो यों आज मिले दिखला कर अपने ढंग निराले।
जिस पर जिसका सत्य प्रेम भूतल में है हो जाता।
है सन्देह न कुछ भी इसमें वह उसको है पाता।23।
संयुक्ता
[ छप्पै ]
आर्यवंश की विमलर् कीत्तिा की धवजा उड़ाती।
क्षत्रिाय-कुल-ललना-प्रताप-पौरुष दिखलाती।
कायरउर में वीर भाव का बीज उगाती।
निबल नसों में नवल रुधिार की धाार बहाती।
विपुल वाहिनी को लिये अतुल वीरता में भरी।
सबल बाजि पर जा रही है संयुक्ता सुन्दरी।1।
प्रबल नवल-उत्साह-अंक में शक्ति बसी है?
या साहस की गोद मधय धाीरता लसी है?
परम ओज के संग विलसती तत्परता है।
या पौरुष के सहित राजती पीवरता है।
चपल तुरग की पीठ पर चाव-चढ़ी चित-मोहती।
या दिलीश उत्संग में है संयुक्ता सोहती।2।
शिशु-स्नेह
[छप्पै]
सहज सुन्दरी अति सुकुमारी भोली भाली।
गोरे मुखड़े, बड़ी बड़ी कल ऑंखों वाली।
खिले कमल पर लसे सेवारों से मन भाये।
खुले केश, जिसके सुकपोलों पर हैं छाये।
बहु-पलक-भरी मन-मोहिनी कुछ भौंहें बाँकी किये।
यह सरल बालिका कौन है अंक नवल बालक लिये।1।
खिली कमलिनी-अंक गुलाब कुसुम विकसा है।
या भोलापन परम सरलता-संग लसा है।
या विधिा न्यारे करके कलित खिलौने ये हैं।
जो जन की युग ऑंखों पर करते टोने हैं।
या जीवन-तरु-रस-मूल के ये फल हैं प्यारे परम।
या प्रकृति-कोष कमनीय के ये हैं रत्न मनोज्ञतम।2।
अपना विकसित बदन बड़े चावों से रख कर।
खिले फूल से शिशु के सुन्दर मुखड़े ऊपर।
कौन अनूठा भाव बालिका है बतलाती।
कौन अनोखा दृश्य दृगों को है दिखलाती।
क्या सूचित करती है उन्हें, हैं भावुक जो भूमि पर।
ये युगल कलाधार हैं मिले उर कुमोद उत्फुल्ल कर।3।
युग शिशु-उर में प्यार-बीज अंकुरित नहीं है।
क्यों होता है विकच बदन यह विदित नहीं है।
किसी काल जब मिल जाते हैं दो प्यारे जन।
क्यों होता है मोद, विकस जाता है क्यों मन।
इस गूढ़ बात का मरम भी यदपि नहीं कुछ जानते।
हैं तदपि मुदित वे, हैं मनो मोद-सिंधाु अवगाहते।4।
रविकर कोमल परस, कमल-कुल खिल जाता है।
पाकर ऋतु पति पवन रंग पादप लाता है।
क्या उनका है प्यार, मोद वे क्यों हैं पाते।
किस स्वाभाविक सूत्रा से बँधो वे किस नाते।
यह सकल श्रीमती प्रकृति की परम अलौकिक है कला।
है बहु अंशों में प्राणि-उर एक रंग ही में ढला।5।
क्यों विकसित मुख देख, चित्ता है विकसित होता।
उर में क्यों उर सरस बहाता है रस-सोता।
क्यों बीणा बजकर है सरव सितार बनाती।
क्यों मृदंग-धवनि है पनवों में धवनि उपजाती।
इसमें नहिं अपर रहस्य है सकल हृदय है एक ही।
स्वर जैसे बीन सितार, औ पनव मृदंग जुदा नहीं।6।
हैं दोनों शिशु हृदयवान नेही हैं दोनों।
रत्न मनोहर एक खानि के ही हैं दोनों।
फिर क्यों उनका परम प्रेममय उर नहिं होगा।
देख एक को मुदित, अपर क्यों मुदित न होगा।
नव कला कुमुदिनी कान्त की जो विकास पाती नहीं।
तो क्या स्वाभाविक मंजुता उसमें सरसाती नहीं।7।
इन शिशुओं की प्रीति परम आनंद-पगी है।
अति विमला है लोकोत्तारता रंग-रँगी है।
भावमयी, रसमयी, रुचिर उच्छासमयी है।
दृग-विमोहिनी चित्तारंजिनी नित्य नयी है।
यह लोक-विकासिनि शक्ति के, कमल करों से है छुई।
यह वह अति प्यारी वस्तु है, स्वर्ग-सुधाा जिसमें चुई।8।
इस सनेह में नहीं स्वार्थ की बू आती है।
कपट, बनावट नहिं प्रवेश इसमें पाती है।
छींटें इस पर पड़ी नहीं छल बल की होतीं।
चित-मलीनता नहिं इसकी निर्मलता खोती।
यह वह प्रमोद वन है, नहीं अनबन वायु जहाँ बही।
यह वह प्रसून है, उपजता कलह-कीट जिसमें नहीं।9।
क्यों कोमल किसलय हैं जी को बहुत लुभाते।
क्यों पशु के बच्चे तक हैं चित को विलसाते।
बाल-भाव है परम रम्य है बहु मुददाता।
ऑंखों-भर उसको लख कर है जग सुख पाता।
मानव कुल के ये शिशु-युगल अति सुन्दर प्यारों-पगे।
मन, नयन विमोहेंगे न क्यों, सहज भाव सच्चे सगे।10।
वामन और बलि
[ छप्पै ]
वामन हैं विभु प्रकृति नियम के नियमनकारी।
भव विभुता आधाार भुवन प्रभुता अधिाकारी।
व्यापक विविधा विधाान विश्व के सविधिा विधाायक।
लोकनीति परलोक प्रथा के प्रगति प्रदायक।
जग अभिनय अति कमनीय के वर अभिनेता मोद हद।
अवतार रूप में अवनि के भार निवारक मुक्तिप्रद।1।
बलि है बहु बलवान लोक विजयी दनुजाधिाप।
धाीर वीर साहसी विवुधा सेवित वसुधााधिाप।
हो उदार अनुदार नीति अवलम्बन कारी।
कुछ उध्दत अधिाकार प्रेम प्रेमिक अविचारी।
मानव मानवता दमनरत सुरसमूह दृग प्रबलतम।
मंगलमय, मंगल कामना कमनीयता कलंक सम।2।
यह सारा संसार बाग है परम मनोहर।
दनुज मनुज सुरवृन्द आदि हैं सुन्दर तरुवर।
ललित कलित वर वेलिलोक की ललनाएँ है।
बालक हैं कल कुसुम बालिका लतिकाएँ हैं।
खग ही हैं कलरव निरत खग पालित पशु हैं पशु सकल।
तृण वीरुधा बहुविधा जीव हैं विधिा विधाान हैं विविधा फल।3।
परि पालक यदि सरुचि बाग परिपालन रत हो।
सानुकूल रह सहज समुन्नति निरत सतत हो।
करे सकल मल दूर म्लानता उसकी खोवे।
बर अवसर अवलोक बीज हित साधान बोवे।
कर काट छाँट समुचित उसे करे सदा कंटक रहित।
तो होगी कृति कमनीयता मिलित परम प्रभु रुचि सहित।4।
किन्तु यदि न वह दया वारि से उसको सींचे।
कृमि संकुल विदलित विलोक नयनों को मींचे।
अथवा पादप पुंज समुन्मूलन रत होवे।
लता वेलि कोदले कुसुम चय उपचय खोवे।
तो किसी जगतहित साधिाका दिव्य शक्ति से विवश बन।
निज नितपन गति अनुसार ही होवेगा उसका पतन।5।
दिव्य शक्ति की दिव्य मूर्ति हैं वामन विभु वर।
परिपालक है पतन प्राय बलि बैरी सुर नर।
वह उदार है, परम मलिन है नीति न उसकी।
परि पालन की विपुल बुरी है रीति न उसकी।
वह परम भक्त प्रधाद का है अति प्यारा वंश धार।
इस से निग्रह की क्रिया में है न अनुग्रह की कसर।6।
छल प्रपंच जिसके जीवन का संबल होवे।
क्यों सँभले सर्वस्व जो न वह छल से खोवे।
जो सबको लघु गिने, साम्य क्यों करे प्रचारित।
जो न आवरित करे उसे लघुता विस्तारित।
जग जैसे को तैसा मिला तुच्छ नहीं है अग्नि कण।
वामन वामनता विशदता का यह है विशदीकरण।7।
रुचिर नीति है यही रुधिार का पात न होवे।
जहाँ शान्ति रह सके वहाँ उत्पात न होवे।
भौंह तने जो भीत बने असि उसे न मारे।
लघु अपराधाी उदर करद द्वार न बिदारे।
है क्रिया नीति की सहचरी जननी शान्ति महान की।
वामन के दान ग्रहण तथा बलि के दान प्रदान की।8।
लोक हितकारी क्रिया सके अवलोक नहीं सित।
इसीलिए लोचन विहीन हो बने कलंकित।
प्रतिपालन कर वचन न पाया बलि ने निज तन।
वामन ने प्रतिफल जन किया द्वारपाल बन।
यह देख युगल यश जलज का सकल लोकमन अलि हुआ।
बलि पर बामन वलि हो गये वामन पर बलि बलि हुआ।9।
जगजन रंजन रुचिर नीति से हो बहु वंचित।
कर त्रिाभुवन भी दान हुआ बलि परम प्रवंचित।
हो त्रिालोक पति धाीर बीर विजयी उदार चित।
अधा: पतित वह हुआ हुए पाताल प्रवासित।
वर्धान कर त्रिाभुवन शान्ति सुख समधिाक संवधर्िात हुए।
हो वामन बँधा विधिा सूत्रा में वामन बहु वधर्िात हुए।10।
कमल
[ छप्पै ]
ऊपर नभ नीलाभ रक्त रविबिम्ब विराजित।
ककुभ परम रमणीय रागद्वारा आरंजित।
नीचे पुलकित हरित लता तरु पूरित भूतल।
नवश्यामल तृणराजि बड़े कमनीय फूल फल।
बहु विकच सरोरुह से लसित कान्त केलि खगकुल बलित।
कलकल कलकल रव मुखरिता सरिकलिन्द तनया कलित।1।
रविजा में हैं सोह रहे सोपान मनोहर।
उन पर हैं लसरही युगल ललना अति सुन्दर।
हैं तनके वरवसन विभूषण बड़े निराले।
हैं सिर पर जल कलश नयन हैं रस के प्याले।
सामने जलद तन हैं खड़े कर आकुल लोचन सफल।
निज कमलोपम कर में लिये दो कमनीय विकच कमल।2।
उनका सुमधाुर कंठ मधाुरिमामय कर मानस।
बरसा रहा है पूत प्रकृति पर परम रुचिर रस।
सानुराग कर ललित राग रंजित नभतल को।
सरस सरस अति सरस कर रहा है सरिजल को।
वह गोपबल को धोनु को विहगवृन्द को कर सुखित।
कलकूल विलसिती बाल को बना रहा है बहु मुदित।3।
उसकी धवनि है मधाुर मुरलिका सी मनहारी।
पिक काकली समान विपुलचित पुलकितकारी।
सकल अलौकिक भूति निकेतन उसका मृदुस्वर।
बरसता है सुधाा सुधाानिधिा लौं वसुधाा पर।
उसमें सुभावनाओं सहित वह रसालता है भरी।
जिसने कि पिपासा ज्ञान की जगत पिपासित की हरी।4।
कहते हैं ब्रजदेव दिखा करके कमलों को।
देवि इन विकच कुसुमों की गरिमा अवलोको।
इन जैसा अनुराग रंग में कौन रँगा है।
कौन भला यों मित्रा मित्राता मधय पगा है।
मानस मोहकता मधाुरता भावों की रमणीयता।
किसमें है ऐसी विकचता कोमलता कमनीयता।5।
हैं विरंचि से सुबन बंधाु है विदित विभाकर।
है उसका अवलंब जगत पाता पावन कर।
रमा मन रमे सदा रमी उसमें रहती है।
शिव शिर पर चढ़ मिली उसे महिमा महती है।
मदमत्ता हुआ तो भी न वह सदा प्रेम पाता रहा।
मधाुकर समान मधाुअंधा भी उससे मधाु पाता रहा।6।
सर उससे है परम कान्त बन शोभा पाता।
पाकर सुरभि समीर सौरभित है हो जाता।
रस लोलुप को परम मधाुर रस है वह देता।
दृग को कर सुखदान बहु सुखित है कर लेता।
वह परहित रत रहकर सदा किसका हित करता नहीं।
बर विकसित रहकर कौन-सा चित विकसित करता नहीं।7।
आरंजित रविबिम्ब गगन सर रक्त कमल है।
इसीलिए अनुराग रागरंजित जल थल है।
उसकी कोमल कान्ति कान्त भू को है करती।
तरु को तृण को फलदल को है सुछबि वितरती।
वह अपनी अनुपम ज्योति से जगत तिमिर है खो रहा।
रजकण भी नव आलोक पा आलोकित है हो रहा।8।
कहें न मुख को कमल यदि न मुख बिकच बनावे।
कहें न दृग को कमल यदि न रस वह बरसावे।
कहें न कर को कमल जो न वह हितकर होवे।
कहें न पग को कमल जो न अपना मल खोवे।
यदि तज न अकोमलता बुरी समुचित कोमलता लहे।
तो किसी गात को कमल सा कोमल कोई क्यों कहे।9।
है ललामता लोक प्रीति की परम निराली।
लाली उसकी सकी जगत मुख की रख लाली।
वह ललना है बड़ी भली वह लाल भला है।
जिसने सीखी लोक बंधाुता ललित कला है।
क्या रहा सलिल जैसा तरल कोई मानस बन विमल।
जो उसमें खिला मिला नहीं लोक प्रेम मंजुल कमल।10।
पर्णकुटी
[ अरिल्ल ]
ऊँचे श्यामल सघन एक पादप तले।
है यह एक कुटीर सित सुमन सज्जिता।
इधार उधार हैं फूल बेलियों में खिले।
वह है महि श्यामायमान छबि मज्जिता।1।
पास खड़े हैं कदाकार पादप कई।
परम शान्त है प्रकृति निपट नीरव दिशा।
व्यापी सी सब ओर कालिमा है नई।
धाीरे धाीरे आगत प्राया है निशा।2।
या नभ मण्डल जलद जाल से है घिरा।
छिति तल पर है उसकी छाया पड़ रही।
प्रात तिमिर है तरल हो गया तिरमिरा।
या है नभ तल विमल नीलिमा झड़ रही।3।
हैं न कहीं खग मृग मानव दिखला रहे।
मानो अविचल वहाँ बिजनता राज है।
हैं अभाव धारा में ही कृमि कुल बहे।
रव सिर पर भी परम मौनता ताज है।4।
यह किस की है कुटी कहें कैसे इसे।
किसी व्यथित चित का क्या यह आवास है।
या यह उस जन की सहेलिका है जिसे।
निर्जन में एकान्तबास की प्यास है।5।
परम पापमय इस पापी संसार से।
समधिाक आकुल जिसका मानस हो गया।
बहुत गया जो ऊब अवास्तव प्यार से।
जिसका प्यारा शान्ति-रत्न है खो गया।6।
जो अवलोकन कर पाता वह मुख नहीं।
लगी अधामता की है जिस पर कालिमा।
या हिंसकता धाराएँ जिस पर बहीं।
या जिसकी है लहू रंजिता लालिमा।7।
गिरा अति दुखित चित जिसका दुख कूप में।
उस दानव की देख नीतियाँ दानवी।
अवनी तल पर जिसको मानव रूप में।
उपजाती है परम पुनीता मानवी।8।
उतर ऑंख में जिसकी आता है लहू।
उस पामर की पामरताओं को लखे।
सब बातों में जो दानव है हूबहू।
किन्तु वेश वानक बृन्दारक का रखे।9।
नर पिशाचता अहमहमिकता अधामता।
अवलोकन कर जिसका जी उकता गया।
जग मदांधाता मायिकता बहु असमता।
देख कलेजा मुँह को जिसका आ गया।10।
बिजन बिराजित ऐसी किसी कुटी सिवा।
कौन दूसरी शान्ति विधाायिनि है उसे।
मिली कहाँ वह अति पावन प्यारी हवा।
हों न अपावन रुचि रज कण जिसमें बसे।11।
भारत के बहु विबुधा वृन्द सहवास से।
यह है वसुधाा विविधा पुनीत प्रशंसिता।
पा अनुपम आलोक उन्हीं के पास से।
इसने की है सकल अवनि आलोकिता।12।
है प्रभाविता यह बहु तपो प्रभाव से।
गिरि तनयाने इसे विपुल गौरव दिया।
जन रंजन मुनिजन ने पूजित भाव से।
इसका बहु अभिनन्दन अनुरंजन किया।13।
केकय तनया प्रबल प्रपंचों में पड़े।
कुसुम सेज जब रघुकुल रंजन की छिनी।
वन में उन पर जब दुख पड़े बड़े कड़े।
तब कुटीर ही रही विराम विधाायिनी।14।
देश-प्रेम औ जाति-प्रेम प्रेमिक बने।
विविधा यातना जब नृप पुंगव ने सही।
जब प्रताप से प्रिय परिजन तक थे तने।
तब कुटीर ही उनका अवलंबन रही।15।
निकल आह इसमें से ही प्रलयंकरी।
सौधा धावल धाामों को देती है जला।
लोकलयकरी ज्वाला है इसमें भरी।
इसमें ही दनु वंश दहन रत दब बला।16।
समधिाक तेजोमयी महान बिनोदिनी।
सहज सुखों की सखी सरलताओं भरी।
बहु मानव हितकरी ताप अपनोदिनी।
कुटी शान्ति की है अति प्यारी सहचरी।17।
रवि सहचरी
[ चौपदे ]
चन्द्र बदनी तारकावलि शोभिता।
रंजिता जिसको बनाती है दिशा।
दिव्य करती है जिसे दीपावली।
है कहाँ वह कौमुदी वसना निशा।1।
क्या हुई तू लाल उसका कर लहू।
क्या उसी के रक्त से है सिक्त तन।
दीन हीन मलीन कितनों को बना।
क्यों हुआ तेरा उषा उत्फुल्ल मन।2।
वह बुरी काली कलूटी क्यों न हो।
क्यों न वह होवे भयंकरता भरी।
पर कलानिधिा का वही सर्वस्व है।
है वही कल कौमुदी की सहचरी।3।
मणि जटित करती गगन को है वही।
उड़ु विलसते हैं उसी में हो उदित।
है चकोरों को पिलाती वह सुधाा।
है वही करती कुमुद कुल को मुदित।4।
है बिलसती तू घड़ी या दो घड़ी।
किन्तु वह सोलह घड़ी है सोहती।
है अगर मन मोहना आता तुझे।
तो रजनि है कम नहीं मन मोहती।5।
तू लसे पाकर परम कमनीयता।
लाभ कर बर ज्योति जाये जगमगा।
बंद ऑंखें खोल आलस दूर कर।
दे जगत के प्राणियों को तू जगा।6।
है उचित यह, है इसे चित मानता।
किन्तु है यह बात जी को खल रही।
देख करके दूसरे का वर विभव।
किसलिए तू इस तरह है जल रही।7।
लाल है तो तू भले ही लाल बन।
पर कभी मत क्रोधा से तू लाल बन।
क्यों न मालामाल ही हो जाय तू।
पर किसी का मत कभी तू काल बन।8।
उस समुन्नति को भली कैसे कहें।
और को जो धाूल में देवे मिला।
दूसरा जो फूल फल पाया न तो।
किसलिए मुखड़ा कभी कोई खिला।9।
देख कर तुझको परम अनुरंजिता।
था बिचारा प्यार से तू है भरी।
विधाु विधाायकता तुझे कैसे मिले।
जब प्रखर रवि की बनी तू सहचरी।10।
एक चिरपथिक
[ललित पद]
प्रिय आवास वास सुख वंचित बहु प्रवास दुख से ऊबा।
नव उमंगमय एक चिरपथिक अभिनव भावों में डूबा।
विकच वदन अति मंद मंद सानंद सदन दिशि जाता था।
विविधा तरंग तरंगित मानस रंगत रुचिर दिखाता था।1।
प्रिया प्रतीची अंकरंजिनी दिन रंजन किरणें रंजित।
उसका मन रंजन करती थीं मंजुराग कर कर व्यंजित।
गगन लालिमा मुखलाली को समधिाक ललित बनाती थी।
खिलखिल कलिका कलित कुसुम की दिल की कली खिलाती थी।2।
कानों को कलोलरत खग कुलकलरव सुधाा पिलाता था।
गंधा बाह बरगंधा बहन कर बहु विनोद उपजाता था।
रजनी-मुख विकसित कुमोदिनी मिस मृदु मृदु मुसकाती थी।
करा किसी विधाु वदनी की सुधिा निज विधाु वदन दिखाती थी।3।
विभावरी ने जब तारक चय खचित रुचिर सारी पहनी।
उसी समय अवलोकी उसने सदन पास की प्रिय अवनी।
सौधा धावल प्रासाद मनोहर निकट उसी के दिखलाया।
दूर हुआ अवसाद स्वाद गृह दर्शन का उसने पाया।4।
हँसा हँसाकर दिशा वधाू को कान्त कौमुदी हँसती थी।
विमल गगन भूतल पादपदल फल पर विपुल विलसती थी।
गृह उद्यान ज्योति से उसकी ज्योतिर्मय दिखलाता था।
वर प्रासाद जगमगा करके हीरक जटित जनाता था।5।
किन्तु देख नीरवता बाँकी चिन्तित पुलकित-पथिक हुआ।
निर्जनता अवलोक अनाकुल मानस आकुल अधिाक हुआ।
इसी समय आलापिनि द्वारा हुआ मधाुर आलाप वहीं।
जिससे सरस सुधाा की धाारें परम सरसता साथ बहीं।6।
फिर कोकिल-कल-कंठ नाद से लगा गूँजने ककुभ सकल।
गीत कलित कोमल पदावली बनी विकल चित का संबल।
यह सुन पड़ा, चिर पथिक कैसे चिरपथिकों का है भूला।
कैसे कुम्हला गया हमारा अति सुन्दर सुख तरु फूला।7।
क्यों जीवन सर्वस्व न मेरा जीवन सफल बनाता है।
परम प्रेम धान क्यों स्वप्रेमिका को पल पल कलपाता है।
तन में मन में युगल नयन में जिसने अयन बनाया है।
रूप मनोरम जिसका मेरे रोम रोम रम पाया है।8।
वही नहीं मिलता है मेरा दिल मल मल रह जाता है।
दिन दिन दुख दूना होता है सूना जगत दिखाता है।
बन बन फिरी बिलोके उपबन किया तपोबन में फेरा।
नगर नगर घर घर में घूमी गिरिवर पर डाला डेरा।9।
तन सूखा, मन मरा, धान गया, पड़े पगों में हैं छाले।
मिले आज तक नहीं निवारक रौरव दुख गौरव वाले।
मिले कुसुम उद्यान धाूल में परम रम्य प्रासाद ढहे।
इस आनन्दमयी अवनी में निरानन्द का òोत बहे।10।
परिजन दुख पावें, जिनको जन विधिा विधाानवश पाता है।
किन्तु हमें आलोक निकेतन अब परलोक दिखाता है।
यह स्वर लहरी गूँज गूँज जब पवन लहर में लीन हुई।
उसी समय दो भाग मलिनता अमलनिता आधाीन हुई।11।
उठी यवनिका चिर वियोग की दो संयोगी गले मिले।
बहुत दिनों के अविकच मुखड़े विकच सरोज समान खिले।
चमक चाँदनी उठी चमकते चन्द्रदेव भी दिखलाये।
विपुल प्रसून, प्रफुल्लित तरु ने पुलक पुलक कर बरसाये।12।
पथिकतीर्थ प्रेमिक था पूरा पथिका पति प्रेमिका बड़ी।
इसीलिए उनको वियोग की सहनी नाना व्यथा पड़ी।
किन्तु अन्त में, हुए विरह का अन्त, मिले दोनों नेमी।
देख जगत की रीति अधिाकतर बने प्रीति पथ के प्रेमी।13।
केवल गृह उद्यान सुमन ही, नहीं सुमनता दिखलाते।
कंटक मय पथ को भी वे थे सरस सुमन मय कर पाते।
यदि उनका प्रासाद प्रेम प्रासाद पुकारा जाता था।
तो उनके प्रसाद गुण द्वारा सभी प्रसादित आता था।14।
सुफलद सुतरु समान, सलिलधार तुल्य रुचिर रस संचारी।
सुखित जनों के सुखद रहे वे दुखित जनों के दुखहारी।
देश जाति-हित वसुधाा तल पर सुर सरि धारा सदृश बही।
आजीवन चिरपथिक सहित चिर पथिका सत्पथ पथिक रही।15।
दिल के फफोले
[चतुष्पदी]
ग्रंथ कितने पढ़े बहुत डूबे।
भेद जाना अनेक आपा खो।
संत जन की सुनी सभी बातें।
पर न जाना गया प्रभो क्या हो।1।
आप में है अपार बल बूता।
यह सदा ही हमें सुनाता है।
किसलिए काम वह नहीं आता।
जब निबल को सबल सताता है।2।
दानवों के कठोर हाथों से।
सैकड़ों देव-वंश-दीप बुता।
धाूल में मिल गये सुजन कितने।
फिर कहाँ आप की रही प्रभुता।3।
शान्त बैठा निरीह पंछी भी।
जो नहीं व्याधा बान से बचता।
हो गयी तो कठोरपन की हद।
देख ली आप की दयामयता।4।
सामने बाप औ माँ के ही।
तोड़ते देख बालकों को दम।
लोग लेते पकड़ कलेजा हैं।
क्या कहें आप के हृदय को हम।5।
मर मिटे अन्न के बिना कितने।
कितने ही आधा पेट खा सूतें।
है कहीं यों पड़ा करोड़ों मन।
देखिए आप अपनी करतूतें।6।
बात कहते असंख्य जीवों को।
निधिा डुबोता धारा निगलती है।
गिरि उगल आग धवंस करते हैं।
बात यह क्या कभी न खलती है।7।
हैं बनाये गये कुबेर वही।
जो पकड़ते हैं दाँत से पैसा।
तंग मैं हूँ उदार को पाता।
आप का यह प्रपंच है कैसा।8।
क्लेश पर क्लेश है, दुखी पाता।
बहु विकारों भरा मनुज मन है।
रोग का है सदन बना नर-तन।
क्या यही आपका बड़प्पन है।9।
जो भले और हैं बहुत सीधो।
पूछता तक उन्हें नहीं कोई।
है चलाकों की बोलती तूती।
नीति की बेलि है भली बोई।10।
हाथ पाँवों बिना रचे कितने।
है किसी को बना दिया काना।
झीखते हैं बहुत बिना ऑंखों।
हैं इसी को ही कहते मनमाना।11।
जो चमकते रतन धारा के हैं।
हैं उन्हें करते भोर का तारा।
मूढ़ पाते हैं आयु लोमस की।
आप का ढंग कितना है न्यारा।12।
प्यास जिनकी लहू से बुझती है।
जो निगल और को अघाते हैं।
टूट उन पर न जो पड़ी बिजली।
किसलिए आप प्रभु कहाते हैं।13।
बात जिनकी बड़ी अनूठी है।
पर भरा पेट में हलाहल है।
जो न पीछे को मुख बना उनका।
तो सधाा आपका न बुधिाबल है।14।
हैं जिन्हें धाुन सवार यह रहती।
किस तरह मैं करूँ बुरा किसका।
जो उन्हेें आपने न सींग दिया।
तो कहूँ आप की समझ को क्या।15।
जब मनुज-रक्त से सना गारा।
शिर लगाये गये कँगूरों पर।
एक दिन में गले कटे लाखों।
तब सके आप क्यों नहीं कुछकर।16।
जब बनी प्राण-नाशिनी गोली।
जब बनी तोप काल की पोती।
तब रहे देखते बदन किसका।
आप से है हमें कुढ़न होती।17।
देख शूली मसीह को पाते।
देख शर व्याधा से विधाा हरि-तन।
भू-समाती विलोक सीता को।
आप से फिर गया हमारा मन।18।
छीन लेते हैं ऑंख का तारा।
लूटते हैं किसी का जीवन-धान।
हैं किसी का सुहाग ले लेते।
है यही आप का निराला पन।19।
पीट दे या कि सर पटक देवे।
कूट डाले न क्यों कोई छाती।
पर टलेगी कभी नहीं होनी।
आप की कुछ कही नहीं जाती।20।
क्यों बनाया गया जगत ऐसा।
हैं सुलझती न गुत्थियाँ जिसकी।
चाल यह दूर की बड़ी गहरी।
आपको छोड़ और है किसकी।21।
हैं बहुत मत, अनेक झगड़े हैं।
आप को मानते नहीं कितने।
हैं सभी ओर उलझनें तो भी।
हम समझते हैं आप हैं जितने।22।
जब कहीं आपकी बिना इच्छा।
डोलता है न एक भी पत्ता।
किसलिए एंच पेंच फिर इतना
जब कि है एक आप की सत्ता।23।
ए सभी खेल जो प्रकृति के हैं।
आप क्या हैं? नहीं बताते क्यों?
जो कलें आप के करों में हैं।
ठीक उनको नहीं चलाते क्यों?।24।
दीन की आह
[ चौतुका ]
न तो हिलाती गगन न तो हरि हृदय कँपाती।
न तो निपीड़क उर को है भय-मीत बनाती।
निपट-निराशा-भरी निकल चुपचाप बदन से।
दीन-आह दुख साथ वायु में है मिल जाती।1।
उसकी बेधाकता का परिचय पाने वाला।
उसकी दुख-मयता को जी में लाने वाला।
देखा जाता नहीं, कहीं कोई होता है।
दीन-आह में अपनी आह मिलाने वाला।2।
बार बार अपने उर को मथ कर अकुलाती।
अमित-ताप-परिताप भरी होठों पर आती।
फिर सहती अपमान शून्य में लय होती है।
दीन-जनों की आह नहीं कुछ भी कर पाती।3।
सुनते हैं उससे है पाहन भी भय पाता।
उससे है ईश्वर का आसन भी डिग जाता।
किन्तु बात यह सब कहने सुनने ही की है।
दीन-आह का एक विफलता से है नाता।4।
वीर आह के तुल्य नहीं वह लहू बहाती।
सबल-आह के सदृश नहीं वह लोथ ढहाती।
आशंकित कर धाीर-आह के सम नहिं होती।
वह अपना ही हृदय मथन कर है रह जाती।5।
वैसी ही उससे होती दिन रात ठगी है।
वही दीनता अब भी उसकी बनी सगी है।
कौशल है, अति गूढ़ चातुरी है, यह कहना।
दीन-आह पर हरि स्वीकृति की छाप लगी है।6।
पवि कठोर को धाूल बना कर धर सकती है।
लोक-दाहक दुसह अंगारे झर सकती है।
किसी दयालु-हृदय से निकली हैं ये बातें।
आह दीन की भला नहीं क्या कर सकती है।7।
सभी सताने वाले निज कर मलते होते।
पड़ विपत्तिायों में दिन रात विचलते होते।
जो दीनों की आह में जलन कुछ भी होती।
ऊँचे ऊँचे महल आज तो जलते होते।8।
चहल पहल है जहाँ वहाँ मातम छा जाता।
स्वर्ग-छटा है जहाँ वहाँ रौरव उठ आता।
दीन आह की धवनि यदि हरि-कानों में जाती।
नन्दन-वन है जहाँ आज मरु वहाँ दिखाता।9।
किया लोक-हित विबुधा-जनों में धार्म कमाया।
जो उनको सब काल प्रभाव-मयी बतलाया।
किन्तु जानकर मर्म दीन-जन की आहों का।
भला, कलेजा किसका है मुँह को नहिं आया।10।
दुखिया के ऑंसू
[ चतुष्पदी ]
बावले से घूमते जी में मिले।
ऑंख में बेचैन बनते ही रहें।
गिर कपोलों पर पड़े बेहाल से।
बात दुखिया ऑंसुओं की क्या कहें।1।
हैं व्यथाएँ सैकड़ों इन में भरी।
ये बड़े गम्भीर दुख में हैं सने।
पर इन्हेें अवलोक करके दो बता।
हैं कलेजा थामते कितने जने।2।
बालकों के ऑंसुओं को देख कर।
है उमड़ आता पिता-उर प्रेम मय।
कौन सी इन ऑंसुओं में है कसर।
जग-जनक भी जो नहीं होता सदय।3।
चन्द-बदनी ऑंसुओं पर प्यार से।
हैं बहुत से लोग तन मन वारते।
एक ये हैं, लोग जिनके वास्ते।
हैं नहीं दो बूँद ऑंसू ढालते।4।
क्या न कर डाला खुला जादू किया।
ऑंख के ऑंसू कढ़े या जब बहे।
किन्तु ये ही कुछ हमें ऐसे मिले।
हाथ ही में विफलता के रहे।5।
पोंछ देने के लिए धाीरे इन्हें।
है नहीं उठता दया-मय-कर कहीं।
इन बेचारों पर किसी हम-दर्द की।
प्यार-वाली ऑंख भी पड़ती नहीं।6।
क्यों उरों से ये दृगों में आ कढ़े।
था भला, जो नाश हो जाते वहीं।
जो किसी का भी इन्हें अवलोक कर।
मन न रोया जी पसीजा तक नहीं।7।
भाग फूटा बे बसी लिपटी रही
बहु दुखों से ही सदा नाता रहा।
फिर अजब क्या, इस अभागे जीव के।
ऑंसुओं का जो असर जाता रहा।8।
बह पड़ी जो धाार दुखिया ऑंख से।
क्यों न पानी ही उसे कहते रहें।
है नहीं जिसने जगह जी में किया।
हम भला कैसे उसे ऑंसू कहें।9।
है कलेजे को घुला देता कोई।
मैल चितवन पर कोई लाता नहीं।
कौन दुखिया ऑंसुओं पर हो सदय।
पूछ ऐसों की नहीं होती कहीं।10।
सबल और निबल
[ चौपद ]
मर मिटे, पिट गये, सहा सब कुछ।
पर निबल की सुनी गयी न कहीं।
है सबल के लिए बनी दुनिया।
है निबल का यहाँ निबाह नहीं।1।
जान पर बीतती किसी की है।
और कोई है जी को बहलाता।
एक को धाूल में मिला करके।
दूसरा है कमाल दिखलाता।2।
घर किसी का उजाड़ होता है।
और बनते महल किसी के हैं।
है किसी गेह का दिया बुझता।
औ कहीं दीये जलते घी के हैं।3।
दूसरों का बिगाड़ करके रँग।
रँग अपना सभी जमाते हैं।
एक के नाम को मिटा करके।
दूसरे लोग नाम पाते हैं।4।
क्या कहें बात हम अमीरों की।
आप होंगे दुखी उसे सुन के।
बेकसों का गला दबा देना।
खेल है बायें हाथ का उनके।5।
क्यों न दानों बिना मरे कोई।
क्यों न अपना सभी गँवा बैठे।
पर उन्हें क्या, करेंगे मनमानी।
जब कि पुतले सितम कभी ऐंठे।6।
काम से काम है उन्हें रहता।
वे भला कब हुए किसी के हैं।
और पिसते को पीस देना ही।
नित्ता के चोचले धानी के हैं।7।
रत्न न्यारे मोल का जितना अधिाक।
राज सिंहासन मुकुट में हो लगा।
ठीक कहते कि उतना ही अधिाक।
वह खून के दूसरों से है रँगा।8।
चैन कितने लोग पाते ही नहीं।
जान कितनी जो न हाथों से गई।
नित कलेजा सैकड़ों कुचले बिना।
पाँव सीधो पड़ नहीं सकते कई।9।
क्या कहें, जी है धाड़क उठा बहुत।
फूँक कर घर सैकड़ों फूले फले।
लालसाएँ राज या धान मान की।
आज भी हैं रेततीं लाखों गले।10।
बेबसी जिन पर बरसाती है बहुत।
ऑंख से ऑंसू बहा करके घड़ों।
गेंद जैसे हैं लुढ़कते धाूल में।
ठोकरें खा खा गिरे सिर सैकड़ों।11।
छिन गये सुख चाह मिट्टी में मिली।
औ कलेजे ने बुरी ठेसें सहीं।
लोग लाखों लुट गये सरबस गया।
औ हुआ क्या? एक की बातें रहीं।12।
आप ऑंखें खोल करके देखिए।
आज जितनी जातियाँ हैं सिर-धारी।
पेट में उनके पड़ी दिखलायेंगी।
जातियाँ कितनी सिसकती या मरी।13।
दूसरों की पीर कब समझी गयी।
और के दुख की हुई परवाह कब।
बात कहते गरदनें कितनी नपीं।
भौं चढ़ा बैठा कोई बे पीर जब।14।
जी सभी का मांस से ही है बना।
है कलेजा दूसरों के पास भी।
कौन लुट जाता नहीं निजता गँवा।
पर समझता यह नहीं कोई कभी।15।
ऑंख का ऑंसू
[ चतुष्पद ]
ऑंख का ऑंसू ढलकता देख कर।
जी तड़प करके हमारा रह गया।
क्या गया मोती किसी का है बिखर।
या हुआ पैदा रतन कोई नया।1।
ओस की बूँदें कमल से हैं कढ़ी।
या उगलती बूँद हैं दो मछलियाँ।
या अनूठी गोलियाँ चाँदी मढ़ी।
खेलती हैं खंजनों की लड़कियाँ।2।
या जिगर पर जो फफोला था पड़ा।
फूट करके वह अचानक बह गया।
हाय! था अरमान जो इतना बड़ा।
आज वह कुछ बूँद बनकर रह गया।3।
पूछते हो तो कहो मैं क्या कहूँ।
यों किसी का है निरालापन गया।
दर्द से मेरे कलेजे का लहू।
देखता हूँ आज पानी बन गया।4।
प्यास थी इस ऑंख को जिसकी बनी।
वह नहीं इसको सका कोई पिला।
प्यास जिससे हो गयी है सौगुनी।
वाह! क्या अच्छा इसे पानी मिला।5।
ठीक कर लो जाँच लो धाोखा न हो।
वह समझते हैं मगर करना इसे।
ऑंख के ऑंसू निकल करके कहो।
चाहते हो प्यार जतलाना किसे।6।
ऑंख के ऑंसू समझ लो बात यह।
आन पर अपनी रहो तुम मत अड़े।
क्यों कोई देगा तुम्हेें दिल में जगह।
जब कि दिल में से निकल तुम यों पड़े।7।
हो गया कैसा निराला वह सितम।
भेद सारा खोल क्यों तुमने दिया।
या किसी का हैं नहीं खोते भरम।
ऑंसुओ! तुमने कहो यह क्या किया।8।
झाँकता फिरता है कोई क्यों कुऑं।
हैं फँसे इस रोग में छोटे बड़े।
है इसी दिल से तो वह पैदा हुआ।
क्यों न ऑंसू का असर दिल पर पड़े।9।
रंग क्यों निराला इतना कर लिया।
है नहीं अच्छा तुम्हारा ढंग यह।
ऑंसुओ! जब छोड़ तुमने दिल दिया।
किसलिए करते हो फिर दिल में जगह।10।
बात अपनी ही सुनाता है सभी।
पर छिपाये भेद छिपता है कहीं।
जब किसी का दिल पसीजेगा कभी।
ऑंख से ऑंसू कढ़ेगा क्यों नहीं।11।
ऑंख के परदों से जो छनकर बहे।
मैल थोड़ा भी रहा जिसमें नहीं।
बूँद जिसकी ऑंख टपकाती रहे।
दिल जलों को चाहिए पानी वही।12।
हम कहेंगे क्या कहेगा यह सभी।
ऑंख के ऑंसू न ये होते अगर।
बावले हम हो गये होते कभी।
सैकड़ों टुकड़े हुआ होता जिगर।13।
है सगों पर रंज का इतना असर।
जब कड़े सदमे कलेजे न सहे।
सब तरह का भेद अपना भूल कर।
ऑंख के ऑंसू लहू बनकर बहे।14।
क्या सुनावेंगे भला अब भी खरी।
रो पड़े हम पत तुम्हारी रह गयी।
ऐंठ थी जी में बहुत दिन से भरी।
आज वह इन ऑंसुओं में बह गयी।15।
बात चलते चल पड़ा ऑंसू थमा।
खुल पड़े बेंड़ी सुनाई रो दिया।
आज तक जो मैल था जी में जमा।
इन हमारे ऑंसुओं ने धाो दिया।16।
क्या हुआ अंधोर ऐसा है कहीं।
सब गया कुछ भी नहीं अब रह गया।
ढूँढ़ते हैं पर हमें मिलता नहीं।
ऑंसुओं में दिल हमारा बह गया।17।
देखकर मुझको सम्हल लो, मत डरो।
फिर सकेगा हाय! यह मुझको न मिला।
छीन लो, लोगो! मदद मेरी करो।
ऑंख के ऑंसू लिये जाते हैं दिल।18।
इस गुलाबी गाल पर यों मत बहो।
कान से भिड़कर भला क्या पा लिया।
कुछ घड़ी के ऑंसुओ मेहमान हो।
नाम में क्यों नाक का दम कर दिया।19।
नागहानी से बचो, धाीरे बहो।
है उमंगों से भरा उनका जिगर।
यों उमड़ कर ऑंसुओ सच्ची कहो।
किस खुशी की आज लाये हो खबर।20।
क्यों न वे अब और भी रो रो मरें।
सब तरफ उनको ऍंधोरा रह गया।
क्या बिचारी डूबती ऑंखें करें।
तिल तो था ही ऑंसुओं में बह गया।21।
दिल किया तुमने नहीं मेरा कहा।
देखते हैं खो रतन सारे गये।
जोत ऑंखों में न कहने को रही।
ऑंसुओं में डूब ये तारे गये।22।
पास हो क्यों कान के जाते चले।
किसलिए प्यारे कपोलों पर अड़ो।
क्याें तुम्हारे सामने रह कर जले।
ऑंसुओ! आकर कलेजे पर पड़ो।23।
ऑंसुओं की बूँद क्यों इतनी बढ़ी।
ठीक है तकष्दीर तेरी फिर गयी।
थी हमारे जी से पहले ही कढ़ी।
अब हमारी ऑंख से भी गिर गयी।24।
ऑंख का ऑंसू बनी मुँह पर गिरी।
धाूल पर आकर वहीं वह खो गयी।
चाह थी जितनी कलेजे में भरी।
देखता हूँ आज मिट्टी हो गयी।25।
भर गयी काजल से कीचड़ में सनी।
ऑंख के कोनों छिपी ठंढी हुई।
ऑंसुओं की बूँद की क्या गत बनी।
वह बरौनी से भी देखो छिद गयी।26।
दिल से निकले अब कपोलों पर चढ़ो।
बात बिगड़ क्या भला बन जायगी।
ऐ हमारे ऑंसुओ! आगे बढ़ो।
आपकी गरमी न यह रह जायगी।27।
जी बचा तो हो जलाते ऑंख तुम।
ऑंसुओ! तुमने बहुत हमको ठगा।
जो बुझाते हो कहीं की आग तुम।
तो कहीं तुम आग देते हो लगा।28।
काम क्या निकला हुए बदनाम भर।
जो नहीं होना था वह भी हो लिया।
हाथ से अपना कलेजा थाम कर।
ऑंसुओं से मुँह भले ही धाो लिया।29।
गाल के उसके दिखा करके मसे।
यह कहा हमने हमें ये ठग गये।
आज वे इस बात पर इतने हँसे।
ऑंख से ऑंसू टपकने लग गये।30।
लाल ऑंखें कीं, बहुत बिगड़े बने।
फिर उठाई दौड़ कर अपनी छड़ी।
वैसे ही अब भी रहे हम तो तने।
ऑंख से यह बूँद कैसी ढल पड़ी।31।
बूँद गिरते देखकर यों मत कहो।
ऑंख तेरी गड़ गयी या लड़ गयी।
जो समझते हो नहीं तो चुप रहो।
किरकिरी इस ऑंख में है पड़ गयी।32।
है यहाँ कोई नहीं धाुऑं किये।
लग गयी मिरचें न सरदी है हुई।
इस तरह ऑंसू भर आये किसलिए।
ऑंख में ठंढी हवा क्या लग गयी।33।
देख करके और का होते भला।
ऑंख जो बिन आग ही यों जल मरे।
दूर से ऑंसू उमड़ कर तो चला।
पर उसे कैसे भला ठंढा करे।34।
पाप करते हैं न डरते हैं कभी।
चोट इस दिल ने अभी खाई नहीं।
सोच कर अपनी बुरी करनी सभी।
यह हमारी ऑंख भर आई नहीं।35।
है हमारे औगुनों की भी न हद।
हाय! गरदन भी उधार फिरती नहीं।
देख करके दूसरों का दुख दरद।
ऑंख से दो बूँद भी गिरती नहीं।36।
किस तरह का वह कलेजा है बना।
जो किसी के रंज से हिलता नहीं।
ऑंख से ऑंसू छना तो क्या छना।
दर्द का जिसमें पता मिलता नहीं।37।
वह कलेजा हो कई टुकड़े अभी।
नाम सुनकर जो पिघल जाता नहीं।
फूट जाये ऑंख वह जिसमें कभी।
प्रेम का ऑंसू उमड़ आता नहीं।38।
पाप में होता है सारा दिन वसर।
सोच कर यह जी उमड़ आता नहीं।
आज भी रोते नहीं हम फूट कर।
ऑंसुओं का तार लग जाता नहीं।39।
बू बनावट की तनिक जिनमें न हो।
चाह की छींटें नहीं जिन पर पड़ीं।
प्रेम के उन ऑंसुओं से हे प्रभो!
यह हमारी ऑंख तो भीगी नहीं।40।
मतलब की दुनिया
[ चतुष्पद ]
हैं सदा सब लोग मतलब गाँठते।
यों सहारा है नहीं मिलता कहीं।
है कलेजा हो नहीं ऐसा बना।
बीज मतलब का उगा जिसमें नहीं।1।
कब कहाँ पर दीजिए हम को बता।
एक भी जी की कली ऐसी खिली।
था न जिस पर रंग मतलब का चढ़ा।
बू हमें जिसमें नहीं उसकी मिली।2।
वह करे जितना अधिाक जी में जगह।
हो मिठाई बात की जितनी बढ़ी।
लीजिए यह जान उतनी ही अधिाक।
मतलबों की चाशनी उस पर चढ़ी।3।
प्यार डूबे लोग कहते हैं उमग।
जो कहो अपना कलेजा काढ़ दूँ।
पर अगर वे निज कलेजा काढ़ दें।
तो कहेगा वह कढ़ा मतलब से हूँ।4।
और का गिरते पसीना देख कर।
जो कि अपना है गिरा देता लहू।
वे कहें कुछ, पर सदा उसमें मिली।
बूझ वालों को किसी मतलब की बू।5।
एक परउपकार ही के वास्ते।
था जहाँ झंडा बहुत ऊँचा गड़ा।
जो गड़ा कर ऑंख देखा, तो वहीं।
था छिपा चुपचाप मतलब भी खड़ा।6।
थे भलाई के जहाँ डेरे पड़े।
थी जहाँ पर हाट भलमंसी लगी।
घूम कर देखा वहीं मतलब खड़ा।
ऑंख करके बन्द करता था ठगी।7।
देखता ही दोस्ती का रँग रहा।
जी मुरौवत का टटोला ही किया।
कब बता दो ऐ ऍंधोरे में चलीं।
हाथ में जब था न मतलब का दिया।8।
डूब करके दूसरों के रंग में।
जो कहीं कोई कली हित की खिली।
फूल जो मुँह से किसी के भी झड़ा।
मतलबों की ही महँक उसमें मिली।9।
दान के सामान सब देखे गये।
देख डालीं डालियाँ छूही रँगी।
जाँच हमने की चढ़ावे की बहुत।
मतलबों की थी मुहर सब पर लगी।10।
जंगलों में देख ली धाूनी रमी।
जोग में ही बाल कितनों का पका।
क्या हुआ घर से किनारे हो गये।
कौन मतलब से किनारा कर सका।11।
है बताती वीर की गरदन नपी।
है सती की भी चिता कहती यही।
है यही धाुन जौहरी से भी कढ़ी।
ऑंच मतलब की नहीं किसने सही।12।
जाति के हित की सभी तानें सुनीं।
देश हित के भी लिए सब राग सुन।
लोक हित की गिटकिरी कानों पड़ी।
पर हमें सबमें मिली मतलब की धाुन।13।
दिल टटोल उदारताओं का लिया।
रंगतें सारी दया की देख लीं।
साधाुता के पेट की बातें सुनीं।
मतलबों को साथ लेकर सब चलीं।14।
कौन उसके बोल पर रीझा नहीं।
कौन सुनता है नहीं उसकी कही।
सब जगह सब काल सारे काम में।
मतलबों की बोलती तूती रही।15।
दिल टटोलो
क्या न होता है उसमें दिल उजला।
मैले कपड़े से क्यों झिझकते हो।
देख उजला लिबास मत भूलो।
दिल मैला कहीं न उसमें हो।1।
जो न सोने के कन उसे मिलते।
न्यारिया राख किसलिए धाोता।
मत रुको देख कर फटे कपड़े।
लाल गुदड़ी में क्या नहीं होता।2।
है किसी काम का न रंग गोरा।
जो दिखाई पड़ा हृदय काला।
है बड़ा ही अमोल काला रँग।
मिल गया हो हृदय अगर आला।3।
क्या हुआ उच्च वंश में जनमे।
जो जँचा जी में पाप का कूँचा।
नीच कुल का हुए न कुछ बिगड़ा।
जो हृदय हो महान औ ऊँचा।4।
कब भला ठाट है अमीरी का।
ऐंठ जिसमें विकाश है पाती।
सादगी है कहीं भली, जिसमें-
है सुजनता झलक दिखा जाती।5।
एक तिनका
मैं घमंडों में भरा ऐंठा हुआ।
एक दिन जब था मुँडेरे पर खड़ा।
आ अचानक दूर से उड़ता हुआ।
एक तिनका ऑंख में मेरी पड़ा।1।
मैं झिझक उठा, हुआ बेचैन सा।
लाल होकर ऑंख भी दुखने लगी।
मूँठ देने लोग कपड़े की लगे।
ऐंठ बेचारी दबे पाँवों भगी।2।
जब किसी ढब से निकल तिनका गया।
तब ‘समझ’ ने यों मुझे ताने दिये।
ऐंठता तू किसलिए इतना रहा।
एक तिनका है बहुत तेरे लिए।3।
एक मसा
देख कर ऊँचा सजा न्यारा महल।
और गहने देह के रत्नों जड़े।
पास बैठी चाँद-मुखड़े-वालियाँ।
फूल ऐसे लाडिले, सुन्दर, बड़े।1।
याद कर फूली हुई फुलवारियाँ।
फूल अलबेले महँक प्यारी भरे।
थी फलों से डालियाँ जिनकी लदी।
बाग के वे पेड़ पीछे छरहरे।2।
फल रसीले और खा व्यंजन सभी।
मुख सुखों का देख मन माना हरा।
तन लगे ठंढी हवा आनन्द पा।
रात में अवलोक नभ तारों-भरा।3।
कह उठा एक, राज-मदमाता हुआ।
भौंह दोनों चौगुनी टेढ़ी किये।
कौन मुझ सा है आह! मैं धान्य हूँ।
है बना संसार सब जिसके लिए।4।
एक मसा उस काल उसकी नाक पर।
बैठ कर बोला लहू पी कनमना।
है बना तेरे लिए संसार सब।
और मेरे वास्ते तू है बना।5।
एक बूँद
ज्यों निकल कर बादलों की गोद से।
थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी।
सोचने फिर फिर यही जी में लगी।
आह क्यों घर छोड़ कर मैं यों कढ़ी।1।
दैव मेरे भाग्य में क्या है बदा।
मैं बचूँगी या मिलूँगी धाूल में।
या जलूँगी गिर ऍंगारे पर किसी।
चू पडँगी या कमल के फूल में।2।
बह गयी उस काल एक ऐसी हवा।
वह समुन्दर ओर आई अनमनी।
एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला।
वह उसी में जा पड़ी मोती बनी।3।
लोग यों ही हैं झिझकते, सोचते।
जब कि उनको छोड़ना पड़ता है घर।
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें।
बूँद लौं कुछ और ही देता है कर।4।
रात का जागना
जी भरा है, ऑंखें हैं कडुआ रही।
सिर में है कुछ धामक नींद है आ रही।
उचित नहीं है बहुत रात तक जागना।
देह टूटकर है यह हमें बता रही।1।
सुर बाजों में मीठापन है कम नहीं।
जहाँ वर गला है मीठापन है वहीं।
नाच रंग में मीठेपन का रंग है।
पर मीठी है नींद इन सबों से कहीं।2।
न्यारा रस कितने ग्रन्थों में है भरा।
किसे नहिं मिला सत संगति में सुख धारा।
काम काज की धाुन भी है प्यारी बड़ी।
पर संयम के बिना रहा कब मुख हरा।3।
मनको है अपना लेती कितनी कला।
नाटक-चेटक पर किसका नहिं जी चला।
खेल तमाशे ललचाते किसको नहीं।
पर निरोग तन रहना है सबसे भला।4।
काँटा और फूल
है न काँटों सा उभरना काम का।
क्या रहा, जब दूसरों को दुख दिया।
सीख लेवें क्यों न खिलना फूल सा।
जब किया तब और को पुलकित किया।1।
रंग जिन पर हो भलाई का चढ़ा।
सब जगह उनकी घटी सब दिन रही।
डालियों में है न काँटों की कमी।
पर दिखाते फूल हैं दो चार ही।2।
जब उठीं ऑंखें हमें काँटे मिले।
नोंक अपनी वैसी ही सीधाी किये।
पर नहीं जाना निराले फूले ये।
कब खिले औ किस समय कुम्हला गये।3।
क्या बतावें, है कलेजा मल रहा।
कुछ न काँटों का हुआ इनके किये।
धाूप निकली, लू चली, ऑंधाी उठी।
हा! इन्हीं सुकुमार फूलों के लिए।4।
दूर ऑंखों से न वह काँटा हुआ।
नोक से जिसकी लहू कितना बहा।
पर बिचारी तितलियों के वास्ते।
दो दिनों भी फूल का न समा रहा।5।
किसलिए काँटे बहुत दिन तक रहें।
आह! मेरा जी बहुत खिजला गया।
किसलिए इतना अनूठा फूल यह।
आज फूला और कल कुम्हला गया।6।
दो दिनों भी फूल रह पाया नहीं।
पर बहुत दिन तक रहे काँटे अड़े।
जो भले हैं सब जिन्हें है चाहता।
कब न जीने के उन्हेंे लाले पड़े।7।
लोहित बसना
[ पंचदश पदी ]
हुआ दूर तम पुंज दुरित तम सम्भव भागे।
खिले कमल सुख मिले मधाुप कुल को मुँह माँगे।
अनुरंजित जग हुआ जीव जगती के जागे।
परम पिता पद कंज भजन में जन अनुरागे।
छिति पर छटा अनूठी छाई।
चूम चूम करके कलियाँ कमनीय खिलाती।
परम मृदुलता साथ लता बेलियाँ हिलाती।
धामनी में रस रुचिर धाार कर प्यार बहाती।
सरस बना कर एक एक तरु दल सरसाती।
वही पवन सुन्दर सुखदाई।
कर नभ तल को लाल दान कर अनुपम लाली।
दिखलाती बहु चाव सहित चारुता निराली।
बनी लालिमा मयी बिपुल तरु की हरियाली।
लिये हाथ में खिले हुए फूलों की डाली।
प्यारी लोहित बसना आई।
उष:काल
[ चतुर्दश पदी ]
है विभु केश कलाप रक्त कुसुमावलि अर्चित।
या है भव असितांग लाल चन्दन से चर्चित।
हनित प्रात दनुजात रुधिार धारा दिखलाई।
या प्राची दिग्वधाू बदन पर लसी ललाई।
प्रकृति सुन्दर कलित कपोल हुआ आरंजित।
या है जग जीवन सनेह जगती कृत व्यंजित।
ललित कला है किसी कलामय की अति प्यारी।
या पसरी है लाल लाल सुर ललना सारी।
तम में मंजुल कान्ति रजोगुण को निवसी है।
या शनि मंडल मधय भूमि सुत विभा वसी है।
बही जलधिा के नील सलिल में गैरिक धारा।
या है असित वितान सुरंजित बसन सँवारा।
प्यारी रंगत अनुराग की रुचिर श्यामता में बसी।
या प्रात:कालिक लालिमा गगन नीलिमा में लसी।
राग रंजित गगन
तमो मयी यामिनी तिमिर हो चला तिरोहित।
काल जलधिा में मग्न हुआ तारक चय बोहित।
ककुभ कालिमाटली उलूक समूह लुकाने।
कुमुद बन्धाु छबि हीन हुई कैरव सकुचाने।
बोले तम चुर निचय हुआ खग कुल कलरव रत।
विकसे बिपुल सरोज विनोदित हुआ मधाु व्रत।
सुन्दर बहा समीर रुचिर शीतलता कोले।
शाखाएँ हो गईं चारु तरु पल्लव डोले।
हुए सरित सर विपुल विमल तज श्यामल छाया।
मोती जैसा ओप अमल जल में भी आया।
हुई लताएँ ललित बेलियों पर छबि फैली।
बनी अवनि कमनीय फेंक कर चादर मैली।
तज आलस ऑंखें खोलिए लगा लोकहित से लगन।
अनुराग सहित अवलोकिए अरुण-राग रंजित गगन।
भारत गगन
अवनति काली निशा काल कवलित होवेगी।
दिशा कालिमा कूट नीति विदलित होवेगी।
होगा कान्ति विहीन जाति गत कलह कलाधार।
ज्योति जायगी गृह विवाद तारक चय की हर।
उन्नति बाधाक बुरे सलूक उलूक लुकेंगे।
भेद जनित अविचार रजनिचर निकल रुकेंगे।
लोकहित करी शान्ति कमलिनी होंगी विकसित।
सब थल होगी रुचिर ज्योति जन समता विलसित।
बह स्वतंत्राता वायु करेगी परम प्रमोदित।
होंगे मधाुकर निकल नारि-नर वृन्द विनोदित।
होगा नाना सुख समूह खग कुल निनाद कल।
उज्ज्वल होगा, जन्मसिध्द अधिाकार धारातल।
कर लाभ-स्वबांछित बालरवि कर देगा दुखतम कदम।
देशानुराग नवराग से आ रंजित भारत गगन।1।
उषा
[ चतुर्दशी पदी ]
क्या यह है नभ नील रंजिनी सु छबि निराली।
या है लोक ललाम ललित आनन की लाली।
विपुल चकित कर चारु चित्रा की चित्रा पटी है।
यात्रिालोक पति प्रीति करी प्रतिभा प्रगटी है।
परम पुनीत प्रभातकाल की प्रिय जननी है।
या जग उज्ज्वल करी ज्योतियों की सजनी है।
अखिल भुवन अभिराम भानु सहचरी भली है।
या सुरपुर कमनीय कान्ति की केलि थली है।
तरह तरह की लोक लालसा की है लीला।
या है कोई कला प्रकृति अनुरंजन शीला।
है रचना अति रुचिर रुचिरता लाने वाली।
या अरुणोदय कलित यंत्रा की है कलताली।
यह दृग विमोहिनी कौन है महा मनोहरता भरी।
सुन्दर विभूति की सिरधाारी लोहित बसना सुन्दरी।
वरबनिता
[ चतुर्दश पदी ]
वर बनिता है नहीं अति कलित कुन्तल वाली।
भुवन मोहिनी काम कामिनी कर प्रति पाली।
विधाु बदनी रस मयी सरस सरसीरुह नयनी।
अमल अमोल कपोलवती कल कोकिल बयनी।
उत्ताम कुल की बधाू उच्चकुल संभव बाला।
गौरव गरिमावती विविधा गुण गण मणि माला।
हाव भाव विभ्रम विलास अनुपम पुत्तालिका।
रुचिर हास परिहास कुसुम कुल विकसित कलिका।
सुन्दर बसना बनी ठनी मधाुमयी फबीली।
भागभरी औ रागरंग अनुराग रँगीली।
अलंकार आलोक समालोकित मुद मूला।
नीतिरता संयता बहु बिकचता अनुकूला।
है वह बर बनिता जो रहे जन्मभूमि हित में निरत।
हो जिसका जनहित जातिहित जगहित परमपुनीत व्रत।
आर्य बाला
[छप्पै]
बहु ललामता बलित अति ललित रुचियों वाली।
सकल लोक हित जननि भाव तालों की ताली।
मनुज रंजिनी कलित कला की कामद काया।
नव नव लीलामयी मूल सब ममता माया।
कमनीय विधााता कर कमल की रचना का चरम फल।
कल कीर्ति सुकुसुमावलि सजी जयति आर्य बाला सकल।1।
कमला लौं सब काल लोक लालन पालन रत।
गिरि नन्दिनी समान पूत पति प्रेम भार नत।
गौरव गरिमा मयी ज्ञान शालिनी गिरा सम।
काम कामिनी तुल्य मृदुलतावती मनोरम।
सुरपुर अधिापति ललना समा प्रीति नीति प्रति पालिका।
सब दनुज प्रकृति नर के लिए आर्य नारि है कालिका।2।
वह बहु अनुपम साधान की है सिध्दि उदारा।
वह है गुरुजन भक्ति भूमि की सुरसरि धारा।
वह है पति मन मधाुप के लिए लतिका कुसुमित।
वह है सुन्दर सरसि सरोजिनि संतति के हित।
वह है मन मोहन मुरलिका मधाुर मुखी मृदु नादिनी।
पुरजन परिजन परिवार जन गोप समूह प्रसादिनी।3।
वह है ममतामयी पूत माता अवलंबन।
वह है छाया समा प्रकृत जाया आलंबन।
परम प्रीति आधाार भगिनी मणि की है वह खनि।
सहज प्रेममय सुता लताओं की है सुअवनि।
पर दुख कातरता सदयता सहृदयता अवलंबिनी।
वह है कुटुम्ब जन हित निरत परमोदार कुटुम्बिनी।4।
पा जिनका विज्ञान बनी अति पावन अवनी।
उन ऋषि गौतम कपिल व्यास की है वह जननी।
द्रोणार्जुन से धाीर वीर औ महा धानुर्धार।
भीष्म तुल्य भूरत्न पले उसका पय पी कर।
उसकी सुज्योति ही बुध्द औ शंकर के उर में जगी।
जिनके अनुपम आलोक से जगत तमोमयता भगी।5।
नर है पीवर धाीर वीर संयत श्रम कारी।
है मृदुतन उपराम मयी तरलित उर नारी।
विपुल कार्य्य मय नर जीवन है प्रान्तर न्यारा।
नाना सेवा निलय नारिता है सरि धारा।
मस्तिष्क मान साहस सदन वर्ीय्यवान है पुरुष दल।
हैं सहृदयता ममतावती पयोमयी महिला सकल।6।
युगल मूर्ति सहयोग जनित है जग की सत्ता।
लालन पालन सृजन तथा संकलन महत्ता।
निज निज कृतिरत रहे युगल के सिध्दि मिलेगी।
किये अन्यथा प्रकृति चाल प्रतिकूल चलेगी।
हो उदय गगन तल में तभी विधाु ढालेगा रस घड़े।
जब सुधााधाार सी चाँदनी तृणवीरुधा तक पर पड़े।7।
हृदय हृदय मस्तिष्क सदा मस्तिष्क रहेगा।
वीर्यवान सम पयोमयी को कौन कहेगा।
स अवसाद जन नवजीवन तब कैसे पावे।
स अवसाद उपराममयी ही जब बन जावे।
युग भिन्न प्रकृति जो परस्पर हित वांछा से है बनी।
उनकी विभन्नता ही फलद है समानता से घनी।8।
भलीभाँति यह तत्तव आर्य्यतिय को है अवगत।
इसीलिए वह हुई नहीं समता विवादरत।
पा माता पद उच्च, सदन की जो है देवी।
सब कुटुंब जिसके सरोज पग का है सेवी।
वह क्यों समानता लाभ के लिए रहे चाहों भरी।
जो बन सच्ची सहधार्मिणी है गृहपति हृदयेश्वरी।9।
आत्म त्याग मंदार कुसुम से मंडित बाला।
क्यों पहनेगी आत्म प्रेम कुरबक की माला।
जो उदारता सुधाा परम रुचि से पी लेगी।
वह क्यों प्रतिद्वंद्विता सुरा प्रेमिका बनेगी।
नर से समानता समर कर वह क्यों दिखलावे दुई।
जो सुरसरि धारा लौं मिलित जगहित जलनिधिा में हुई।10।
अहमहमिका उपेत स्वार्थ परता में डूबी।
जिन अधिाकारों के निमित्ता अधिाकाधिाक ऊबी।
है समाज कमनीय गात की कुत्सित बाई।
परम रुचिर संसार सरोवर की है काई।
होगी बरबिधिा की बाधिाका जो हो वाद विधाायिनी।
जाया जीवन अवलंबिनी जननी जीवन दायिनी।11।
वह समाज अनुराग कुसुम खिलते कुम्हलावे।
जिसमें से बहुविधा विलासिता की बू आवे।
कभी जाति हित का वह पादप पनप न पावे।
जो अवलंबन स्वरुचिलताओं का बन जावे।
वह देशप्रेम नवजनित शिशु भूतल पर गिरते मरे।
बर जीवन बहु नर-नारि का कूट नीति मय जो करे।12।
वह स्वतंत्राता रुचि प्रियता निजता जल जावे।
जो सुशीलता मानवता का गला दबावे।
वह मतिमत्ता नीति चतुरता वंचित होवे।
सत्य न्याय सौजन्य सुरुचि गरिमा जो खोवे।
वह गौरवममता समदता आत्म महत्ता धवंस हो।
जो पति प्रियता हितकारिता भव वत्सलता मय न हो।13।
जो सामयिक प्रवाह है जगत बीच प्रवाहित।
कैसे भारत अवनि न उससे होती प्लावित।
इसीलिए हो चली सुरुचि धारा कुछ गदली।
गति मति कितनी आर्य कामिनी की है बदली।
पर काम चारुतर रजत का राँगा द्वारा कब चला।
जलधार माला से आवरित सब दिन रही न विधाुकला।14।
जिनका जीवन उच्च वेद वचनों द्वारा है।
जिनकी रग में बही पुनीत रुधिार धारा है।
वे अति पावन चरित आर्य कुल की बालाएँ।
भूलेंगी, पर तज न सकेंगी पूत प्रथाएँ।
कालान्तर में पा उन्हीं में परम अलौकिक आत्म बल।
आजावेंगी आलोक में भूतल की महिला सकल।15।
कुल कामिनी
[ छप्पै ]
है तमतोम समान पापमय नयनों के हित।
है रवितनया सलिल उसे जो है अमलिन चित।
है पति चाव निमित्ता सुरस शृंगार सार वह।
उसे सेवार सुप्रीति सरसिका सकते हैं कह।
है आतंकित कर गरल मय पन्नग पोओंसे न कम।
पामर निमित्ता कुल कामिनी केश पाश है पाश सम।1।
उसका सुन्दर भाल कान्त कंचन फलकोपम।
अवगत होता है सुहाग लीलाथल के सम।
रजनी पति सुविभागसा विलसता है प्रति पल।
होता है अनुकूल भाग्य आलोक समुज्ज्वल।
वह छटअटा सुविशालता चारु चौहटा ही नहीं।
लीकों मिस उस पर चरित बल बरधाराएँ भी बहीं।2।
है मेहराब पुनीत भाव दर के अनुमानित।
दूज कलाधार के समान है जन सम्मानित।
वे हैं वह सुकमान बंकता जिनकी अनुपम।
कर देती है मदन कमान समाकुलता कम।
सब काल कदम करती रही लांछित लोचन की लसी।
कुल ललनाओं की भौंह द्वय झुकी युगल करवाल सी।3।
सलज्जता सरसि सरोरुह परम मुग्धा कर।
हैं सुशीलता रुचिर सरित के मीन मनोहर।
खंजन हैं कमनीय सदयता प्रान्तर विलसित।
प्रेमिकता वर विपिन कुरंगम हैं मोहक चित।
हैं निशित बिशिख सम वेधाते मलिन विचार बिहंग तन।
बहु पूत कलाओं के अयन कुल बालाओं के नयन।4।
है शुक चंचु समान कुतेवर फलर् कत्तान पटु।
चलचित अलिके लिए तिलकुसुम के सम है कटु।
है तू नीर स्वकीय क्रिया शायक चयधाारी।
कामी जन की काम जनित वासना विदारी।
आनन छवि जल ऊँची लहर सकल सुवास विलासिका।
है तन गौरव गरिमा समा, कुल रमणी की नासिका।5।
हैं अति अनुपम सीप बर वचन मुक्ता धाारी।
हैं शुचिरुचिमय राग कुसुम विलसित कल क्यारी।
हैं पावन जन चरित सुधाा पीने के प्याले।
हैं वर स्वर लहरी विलास के विवर निराले।
हैं प्रभु की सुकथित कीर्ति के परम पुनीत विहार थल।
पति मधाुर कथन रस सिक्त से कान कुल वधाू के युगल।6।
है अति मंजुल मुकुर चिर महत्ता प्रतिविम्बित।
है राकापतिबिम्ब परम उज्ज्वल अकलंकित।
है गुलाब सुप्रसून भाव सौरभ विस्तारक।
मादक गोला है पुनीत मानस उपकारक।
है मधाुमय कुसुम मधाूकर का पति मन मधाुप विमुग्धा कर।
सुन्दर कपोल कुल नारिका है विधिा कृति कमनीय तर।7।
है बिम्बा फल लौं अपूत लोचन हित सगरल।
है विद्रुम लो अशुचि लहरियों के हित अतरल।
है लालोपम परम विमल आभा से विलसित।
जपा तुल्य अनुकूल वायु से है विकसित।
है रक्तिमाभ वंधाूक सम विहित चित्ता अनुरक्ति कर।
आधाार भूत मुख लालिमा कुल अबलाओं का अधार।8।
है चपला की चमक चपल जन चंचल दृगहित।
है मरीचिका मदन विमोहित मानस मृगहित।
है चाँदनी समान रजनि वत्सलता रंजिनि।
है स्वर्गीय मरीचि मोहतम मान विभंजिनि।
है उत्ताम धारा सुधाा की अनुपम अधारोपरि लसी।
लोकोत्तार कान्ति सहोदरा है कुल महिला की हँसी।9।
है गंभीर विचार गगन विधाु शुचिता अंकित।
है उत्फुल्ल सरोज मंजु आमोद गौरवित।
उच्च मानसिक भाव केलिथल है अति आला।
है कोमलता दया सदाशयता में ढाला।
है मुकुर प्रकृति प्रतिबिम्ब का सहज सरलता का सदन।
लोकोपकार आलोकमय कुल वनिताओं का वदन।10।
आर्य महिला
[ चौपदे ]
मुग्धा कर है राकानिशि कान्त।
सुरसरी का है पावन आप।
स्वेत सरसिज है परम प्रफुल्ल।
आर्य्य महिला का कीर्तिकलाप।1।
भाव से उसके हो भरपूर।
भाव मय बना जगत आगार।
गौरवों का उसके पग पूज।
गौरवित हुआ सकल संसार।2।
अंक में पल उसके बहुकाल।
सुजनता ऑंख सकी है खोल।
सीखकर उससे कल आलाप।
चित्ता ले सकी सभ्यता मोल।3।
भक्ति से छू उसका पदकंज।
उच्च हो पाया मनुज समाज।
सिध्दि उसने कर दी वह दान।
वार दें जिस पर सुरपुर राज।4।
वही है गुण गरिमा अवलंब।
ज्ञान का उससे हुआ विकास।
अधार पर उसके पाया देख।
मुक्ति का महा मनोहर हास।5।
तरु और लता
[छप्पै]
तरु कर छाया दान दुसह आतप है सहता।
सुख देने के लिए लता हित रत है रहता।
शिर पर ले सब काल सलिल धार की जलधारा।
बहुधाा करक समूह पात का सह दुख सारा।
अति प्रबल पवन के वेग से विपुल विधाूनित हो सतत।
पालन करता है लता का कर परिपालन पूत व्रत।1।
होता है जिस काल कठिन आघात विटप पर।
कँपता है उस काल लता का गात अधिाक तर।
कटती छँटती बार बार है समधिाक नुचती।
पतन हुए पर भी न लता है तरु को तजती।
सुख में सुखित बहुत बनी दुख में परम दुखित रही।
वह जीती मरती विकसती रहती है तरु साथ ही।2।
पति है वह जो प्रीति निरत तरु सा दिखलावे।
है पत्नी वह सती जो लता सी बन पावे।
पति पत्नी जो प्यार रंग में रँगे न होवें।
मनो मलिनता जनित जो न सारा मल खोवें।
तो क्यों वरणीय विधाान से परिणय बंधान में बँधो।
क्या प्रेम साधाना में लगे साधान मंत्रा न जो सधो।3।
पति हो कामुक परम कामुका पत्नी होवे।
पति भूले पति भाव पतिव्रत पत्नी खोवे।
कर मत्सर मद पान बने प्रियतम मतवाला।
समता मायामयी मानिनी होवे बाला।
पति अहं भाव से हो भरा वनिता हो ममता नता।
तो तरुवर है पति से भला, बर है वनिता से लता।4।
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