हरिऔध् ग्रंथावली – खंड : 4 – पवित्रा पर्व – (लेखक – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध)
मनुष्य का कार्य क्षेत्रा बड़ा विस्तृत है और उसमें उसकी तन्मयता अद््््भुत है। कारण यह है कि सांसारिकता का बन्धान ऐसा है कि वह मनुष्य को अधिाकतर कार्यरत रखता है, क्योंकि जीवन के साधानों का निर्वाह ही उसको अधिाकतर अपेक्षित होता है। किन्तु कार्य लग्नता का आधिाक्य जीवन को उद्विग्न बना देता है। ऐसी अवस्था में उसको आमोद प्रमोद और अवकाश भी वांछनीय होता है। पर्व और उत्सवों का सृजन प्राय: इन्हीं बातों पर दृष्टि रखकर हुआ है। इसके अतिरिक्त पर्व और उत्सव उन महापुरुषों की स्मृति रक्षा के लिए भी बनाये गये हैं। जिन्होंने देश-जाति-रक्षा अथवा परोपकार के निमित्ता अपने जीवन को उत्सर्ग किया है। इससे लाभ यह होता है कि हमारी दृष्टि में सदादर्श की प्रतिष्ठा होती है, और हम भी उस पथ के पथिक होने के लिए लालायित हो सकते हैं, जिस पर चलकर वे महापुरुष उस जीवन को प्राप्त कर सके जिसको चिरकालिक जीवन कह सकते हैं। पर्व और उत्सव वास्तव में जीवन के जीवन हैं और हृदय के उन मर्मस्पर्शी भावों के साधान हैं, जो मानवों को उल्लसित ही नहीं करते बल्कि उन्हें एक महान्र् कत्ताव्य की ओर आकर्षित भी करते हैं। श्रीमान् काका कालेलकर एक प्रसिध्द और अनुभवी पुरुष हैं। उन्हाेंने पर्व और त्योहारों के विषय में जो लिखा है, उसके मुख्य अंश को भी मैं नीचे उध्दाृत करता हूँ। इस विषय में उनके विचार भी देखिए:-
”हमारी कल्पना के अनुसार त्यौहारों और उत्सवों का जीवन में एक विशेष और महत्तवपूर्ण स्थान है। त्यौहारों के द्वारा ही हम संस्कृति के अनेक अंगों को सुरक्षित और विकसित कर सकते हैं-विशेष प्रसंग और उनका महत्तव याद रख सकते हैं। ऋतुओं के परिवर्तन के साथ-साथ अपने जीवन में विविधा प्रकार के परिवर्तन ठीक समय पर प्रारम्भ कर सकते हैं और सामाजिक जीवन में परस्पर सहयोग के साथ एकता भी स्थापित कर पाते हैं।
मानव हृदय में कितनी ही वृत्तिायाँ इतनी स्वतंत्रा हैं कि यदि उनका नियमन न किया जाय तो वे अमर्यादित रीति से वृध्दि पाकर समस्त जीवन को बिगाड़ देती हैं। उनका सीधाा विरोधा या बाह्य निरोधा शक्य और सुरक्षित नहीं होता। दबाव से वे विकृत होती हैं और गुप्त रूप से या अस्वाभाविक रूप से वे अपनी तृप्ति करती हैं। इनमें से कुछ वृत्तिायाँ मर्यादित स्वरूप में क्षम्य होती हैं। इतना ही नहीं, अपितु हितकर भी होती हैं। उनका विनाश करने के स्थान पर यदि उनको विशुध्द बनाकर उन्नति-पथ की ओर झुका दिया जाय तो समस्त शिक्षण में उनसे बड़ी सहायता मिल सकती है। यह कार्य कितनी ही बार सामाजिक रीति से ही सुसम्पन्न हो सकता है। इसमें त्यौहारों के द्वारा बड़ी सहायता मिल सकतीहै।
त्यौहार के विषय में हमने यह दृष्टिकोण रक्खा है कि त्यौहार स्वेच्छया समय व्यर्थ गवाँ देने या आराम लेने के लिए कोई छुट्टी का दिन नहीं है। त्यौहार और उत्सव तो शिक्षण के एक नैमित्तिाक और कीमती अंग हैं। इसी कारण पुरानी प्रथा को अच्छी तरह धयान में रखकर त्यौहारों के कार्यक्रम ऐसे सूचित किये गये हैं कि उस उस दिन का वैशिष्टय उसमें स्पष्ट लक्षित हो। और साथ ही प्रत्येक का कार्यक्रम इतना हलका रहे कि त्यौहार की थकान दूर करने के लिए त्यौहार के बाद का दिन बिगाड़ना न पड़े; एक रात का जागरण दूसरे दिन की दिवा निद्रा की स्थिति में न आये।” (‘क्षत्रिाय मित्रा’ भाग 33,संख्या 6, पृष्ठ 8)
हिन्दू जाति के जितने पर्व और त्यौहार हैं वे उन्हीं आधाारों पर अवलम्बित हैं जिनका वर्णन ऊपर की पंक्तियों में हुआ है। हमारे यहाँ चार प्रधाान पर्व और त्यौहार हैं। श्रावणी, दशहरा, दीवाली और होली। इनमें से श्रावणी में सात्तिवकता अधिाक है। यद्यपि यह त्यौहार भी चारों वर्णों में कई प्रकार से उत्साह के साथ मनाया जाता है फिर भी इसमें शेष तीन पर्वों की सी व्यापकता नहीं है। अतएव अधिाक दृष्टि जनता की इन तीन पर्वों पर ही है। श्रावणी में त्यागमय प्रवृत्तिा ही का प्रधाान स्थान है। जो सर्वसुलभ नहीं। यद्यपि संसार में इस प्रवृत्तिा की बहुत अधिाक महत्ता है। परन्तु उसके पात्रा उँगलियों पर ही गिने जा सकते हैं। अतएव उसकी व्यापकता भी पर्याप्त नहीं। दशहरा वह पर्व है जिस दिन लोक कंटक रावण पर भगवान रामचन्द्र को विजय प्राप्त हुई थी। इस विजय की महत्ता में देश, जाति और समाज का हित ही नहीं निहित है, इसके द्वारा धार्म की रक्षा ही नहीं हुई, प्रजा पुंज के स्वत्तवों का ही रक्षण नहीं हुआ, प्राणियों के उत्पीड़न का द्वार ही बन्द नहीं हुआ, सर्वत्रा शान्ति की धारा ही नहीं बही, वीरता, धौर्य और साहस अथच सुन्दर संगठन शक्ति के लोकोत्तार आदर्श भी सामने आये। अतएव सर्वसाधाारण में उसका अधिाक मान्य होना स्वाभाविक है।
शरद ऋतु बड़ी ही सुन्दर ऋतु है। यदि भगवान रामचन्द्र की महत्ता का विकास इस ऋतु में अधिाक व्यापकता से हुआ तो रमा की रमणशीलता का प्रादुर्भाव भी इसी ऋतु में होता है। दीपावली इसी ऋतु में होती है। जिसमें अमा निशा भी राका रजनी बन जाती है। इस पर्व में कितनी रोचकता है? और वह कितनी व्यापारमयी, धानधाान्यवती, विचित्रा एवं कला कलिता है। इससे हिन्दू समाज भलीभाँति अभिज्ञ है। वणिक् वृत्तिा का पोषण एवं विविधा व्यवसायों का परिचालन इस समय जिस प्रकार होता है, लक्ष्मी देवी की आराधाना जैसी होती है वह अविदित नहीं। ऐसी अवस्था में सर्वसाधाारण में इस पर्व का अधिाक समादर होना आश्चर्यजनक नहीं। अतएव दशहरा के समान दीपावली का भी विभूतिमयी होना युक्तिसंगतहै।
इसके उपरान्त वसंतोत्सव अथवा होली का नम्बर आता है। बसंत ऋतु जितना मनोहर और मधाुर है उतना अन्य ऋतु नहीं। इस ऋतु में प्राणीमात्रा में ही नया यौवन नहीं आ जाता, मानवों में ही उत्साह नहीं भर जाता, तरु तृण्ा लताएँ भी रंग-बिरंगे दल, फल, फूल के आभरण धाारण कर प्रकृति को सुसज्जित बना देती हैं, मलयानिल बहने लगता है; दिशाएँ सौरभित होकर लोगों को उल्लसित करने लगती हैं, एक कंगाल का घर भी शस्य सम्पन्न हो जाता है। कुछ दिन के लिए वह भी दैनिक अर्जन के झगड़े से निश्चिन्त हो आनन्दमग्न बनता है। वर्ष का प्रथम दिवस सब जगह उत्साह के साथ मनाया जाता है। दानवी होलिका प्रधाद जैसे भक्त को फाल्गुन शुक्ला पूर्णिमा को जला देना चाहती थी। पर हाल उसका यह हुआ कि वह पापाचारिणी स्वयं भस्म हो गयी और भक्त के एक रोयें की भी ऑंच न लगी। यह भी अल्प आनन्द की बात नहीं। इसलिए होली का उत्सव भी बड़ी धाूमधााम के साथ होता है। और उसको भी प्रधाान पर्वों में स्थान मिला।
कहने का अभिप्राय यह है कि पर्व-उत्सवों की महत्ता के विषय में जो कुछ कहा गया है, हमारे समस्त पर्व और उत्सव उसी के आदर्श हैं। किन्तु गुण के साथ अनेक पर्वों में दोष भी आ गये हैं। हम लोगों में से अधिाकांश लोग पर्व और उत्सवों के मर्म से अनभिज्ञ हैं, जिसका परिणाम उत्ताम न होकर प्राय: कलुषित और लांछित बन जाता है। पर्व और उत्सवों का उत्साह के साथ उसका मर्म समझ कर मनाया जाना जितना अभिनन्दनीय है, उतना ही उसका अनर्गल प्रयोग निन्दनीय है। प्रत्येक कार्य में मित और मर्यादा का धयान अवश्य होना चाहिए। जहाँ व्यतिक्रम होगा वहीं उद्देश की सिध्दि न होगी और हमारे आचार व्यवहार निन्दित बन जाएँगे। इसलिए विबुधजनों का यह कार्य है कि आदर्श रक्षा में जितने सावधाान हों उतने ही पर्वों के दोषों को दूर करने में भी सतर्क रहें। इस ग्रन्थ की रचना इन्हीं बातों पर दृष्टि रखकर हुई है। जहाँ इसमें पर्वों के मर्मों का उद्धाटन किया गया है, उसकी महत्ता बतलायी गयी है, उसके आदर्श पर प्रकाश डाला गया है, वहीं उसके दोषों पर आक्रमण कर सर्वसाधाारण को सावधाान करने की चेष्टा भी की गयी है। यदि ऋतुओं की स्वाभाविकता, मनोहरता और दिव्यता का वर्णन करके हृदयों में उल्लास और स्फूर्ति की धारा बहायी गयी है, तो उनसे उत्पन्न हुए विकारों की भी चर्चा की गयी है और उनसे सुरक्षित रहने का यत्न भी बतलाया गया है। इस ग्रन्थ की रचना एक समय में नहीं हुई है। माँग होने पर या स्वभावत: विभिन्न समयों में इसकी कविताएँ लिखी गयी हैं, उन्हीं का यह ग्रन्थ संग्रह है।
वसंतोत्सव के वर्णन में ब्रज लीला सम्बन्धाी कुछ पद्य ऐसे हैं जिनमें शृंगार रस का पुट आ गया है। मैंने सामयिक हास विलास की रचना होने की दृष्टि से इन पद्यों को ग्रन्थ में से नहीं निकाला। कारण इसका यह है कि उन पद्यों में साधाारण रसिकता मात्रा है। अश्लीलता नहीं। इस प्रकार की रसिकता जीवन में वांछनीय होती है, अवांछनीय नहीं। किन्तु, यदि उन पद्यों में कुछ मर्मज्ञों को रसिकता की अवांछित अधिाक मात्राा दिखलाई पड़े तो कृपया वे मुझे इस विषय में क्षमा करेंगे। क्योंकि दोषी ही क्षमा का पात्रा होता है। ग्रन्थ में यदि और भी अन्य प्रकार के दोष दृष्टिगत हों तो उनके लिए मैं यह कहूँगा कि कवि कर्म सर्वथा निर्दोष नहीं होता। उसमें पद लालित्य, भाव व्यंजना, अनुप्रास सम्बन्धाी ऐसी जटिलताएँ सामने आती ही रहती हैं कि जिनका सुलझाना सुगम नहीं होता और ऐसी अवस्था में कवि साधाारण त्राुटियों से बच नहीं सकता। फिर भी इस प्रकार के दोषों के लिए भी मैं क्षमा-प्रार्थना ही करूँगा।
विनयावनत
‘ हरिऔध ‘
1/4/1941
विजया
छप्पै
मुसकाती आ भुवन विजयिनी विभा दिखावे।
कर अभिमत फल दान कल्प लतिका बन जावे।
रच रच कितनी कलित ललित लीलाएँ सारी।
मिले दिव्यता बन बनकर दिवलोक दुलारी।
सुरपुर सुषमा विलसित शरद पलने में विजया पली।
बरसाती वसुधाा पर रहे पारिजात कुसुमावली।1।
जाति प्रेम के महामंत्रा से मुग्धा बनावे।
उर में नव जातीय भाव की ज्योति जगावे।
नस नस में निजदेश वेश की ममता भर दे।
परम ओजमय हृदय कर्म्ममय जीवन कर दे।
जगती जीवित जाति में विजित जाति जावे गिनी।
सकल अविजयी भाव पर विजया होवे विजयिनी।2।
कायरता कर दूर कलह प्रियता को टाले।
नियम सहित निर्जीव जनों में जीवन डाले।
फूँके अति कमनीय मंत्रा जनता कानों में।
जिससे बल आ जाय जाति हित की तानों में।
तम पूरित नाना भवन में अभिनव तम आभा भरे।
आकर के विजया अनय पर विजयी भारत को करे।3।
वैर घन पटल टले फूट दामिनि न दिखावे।
कटुता धाुरवा छिपे घहर जड़ता न सुनावे।
हो न कलह जलपात लोप हो त्राुटि वक माला।
हटे नीचता कीच सहे दुख तिमिर कसाला।
हो कीलित केका धवनि कुरुचि विदलित आलस कीट कुल।
शरदाभा शोभित दशहरा हरे जाति बाधाा विपुल।4।
द्रुतविलम्बित
बर वितान तले नभ नील के।
सितप्रभा- रजनीपति-रंजिता।
विकसिता, अति निर्मलतामयी।
दश दिशा नव-अंक-उमिúता।1।
मृदुल शीतल मंजुल वायु से।
प्रतिघटी पल भूरि विनोदिता।
कल-कलोल विहंग-वरूथ से।
पुलकिता कमनीय कलोलिता।2।
अतिमनोरम सौरभ में सने।
हरसिँगार – प्रसून – सुगंधिता।
सु विकसे बहु-पुष्प-समूह से।
अति मनोहरता सह सज्जिता।3।
विविध कौतुल-केलि-कलावती।
मुद – निकेत – महोत्सव – मोदिता।
बहु-विनोद-पगी जनतामयी।
विजय-कान्त-अलाप-विभूषिता।4।
अतुल म×जुल भाव-विबोधिनी।
अति अलौकिक-गौरव-अंकिता।
दशहरा अवनीतल में लसी।
सरसता – शुचिता – समलंकृता।5।
द्विपद
है सुतिथि सिर धारी विजय दशमी।
है विजय सहचरी विजय दशमी।1।
कान्त कल कंठता दिखाती है।
है कलित किन्नरी विजय दशमी।2।
सामने ला कला बहुत सुन्दर।
है बनी सुन्दरी विजय दशमी।3।
पूत जातीय भाव पादप की।
है विकच बल्लरी विजय दशमी।4।
एक अवतार प्रीति पूता हो।
है धारा अवतरी विजय दशमी।5।
मंजु जातीयमान हिम कर की।
है शरद शर्वरी विजय दशमी।6।
दूर कर बहु अभाव भारत का।
भाव में है भरी विजय दशमी।7।
पा जिसे दुख उदधिा उतर पाये।
है रुचिर वह तरी विजय दशमी।8।
जो असुर-भाव में भरे से हैं।
है उन्हें सुरसरी विजय दशमी।9।
जाति हित में शिथिल हुए जन की।
है शिथिलता हरी विजय दशमी।10।
बहु पतन शील प्राणियों की भी।
है परम हितकरी विजय दशमी।11।
विजयिनी विजया
छप्पै
कलह-फूट को तजे, बैर का बीज न बोवे।
जपे मेल का मंत्रा, मलिनता मन की खोवे।
बंधाु-प्रीति में बँधो, बने निजता का नेमी।
निज भाषा, निज देश-वेश का होवे प्रेमी।
पाकर सजीवता-जय-करी हित-वितान जग में तने।
जन जाति सकल अविवेक पर विजया बल विजयी बने।
विजय-विभूति
बीर छन्द
तेजमान हो जाय तेजहत पल-पल पाकर तेज अपार;
अंधाीभूत अवनि पर होवे ज्योति-पुंज का प्रबल प्रसार।
महिमा-हीन बने महिमामय, मिले लोक का विभव महान;
होकर सबल अबल बन जाये प्रबल प्रभंजन-तनय-समान।
मिले लोक-बल जन कर पावे पार परम-दुख-पारावार;
रोके पंथ चूर हो जावे पर्वत सहकर प्रबल प्रहार।
सेतु आपदा-सरि का होवे कल कौशल घन पटल समीर;
बने बीर रिपु वन दावानल कूटनीति पावकता नीर।
हो न सभीत पुरंदर-पवि से, कंपित कर पावे न पिनाक;
विचलित हो न समर में कोई महाकाल की भी सुन हाँक।
जीवनमय जनता-जीवन हो, कर्म योगमय हो सब योग;
किसी पियूष-पाणि से होवे दूर जाति-जर्जर-तन-रोग।
सब के उर में भाव जगे वह, जो हो कार्य-सिध्दि का यंत्रा;
हो स्वतंत्राताओं का साधान, सधो साधाने से जो मंत्रा।
भरत-सुअन-उर में भर जाये अभयंकरी अतुल अनुभूति;
भूतिमान भारत बन जाये ले विजया से विजय-विभूति।
विजया-विभव
चौपदे
परम – गौरव – गरिमा – आगार,
लोक-अभिनंदन, ललित-चरित्रा;
लाभदायक, लीला-आधाार,
सुर-सरित-सलिल-समान पवित्रा।
बहु-मधाुर-विविधा-वाद्य-अवलंब,
सुधाामय-सरस राग-आवास;
कलित – लोकोत्तार – कला-निकेत,
सुविलसित बहु स्वर्गीय विलास।
जाति- जीवन- आलय-आलोक,
कीर्ति-विटपावलि-वर उद्यान;
मनोरम- चरित-मयूर-पयोद,
भाव-मूलक भव-सिध्दि-विधाान।
मनुज-कुल- मूर्तिमान-उत्साह,
भरत-भू- समारोह-सिरमौर;
मंजु-उत्सव- समूह-सर्वस्व,
भावना-भाल भव्यतम खौर।
उंमगित पुलकित लसित अपार,
मंजु मुखरित सुरभित रस-धााम;
अलंकृत अंकित अमित विनोद,
विपुल आलोकित लोक-ललाम।
शरद कमनीय कलाधार कान्त,
विकच सरसीरुह-सम सविकास;
कौन है यह रंजित नव राग,
अलौकिक विजय-विभूति-निवास।
उल्लास
चौपदे
उषा क्यों बहु अनुरंजित हुई
पहनकर अभिनंदन का साज;
प्रकृति के भव्य भाल का बिंदु
बना क्यों बाल-विभाकर आज।
किसलिए पारदमय हो गया
विमल नभतल का नील निचोल;
विहँसकर देख रही है किसे
दिग्वधाू अपना घूँघट खोल।
खिल गये किसका बदन बिलोक
सरों में विलसे बहु अरबिंद;
बरसता है क्यों सुमन-समूह
प्रफुल्लित नाना पादप-वृन्द।
रत्नमय तारक-मिष क्यों हुआ
विधाुमुखी रजनी-शिर का ताज;
बिछ गयी क्षिति पर चादर धाुली
किसलिए कलित कौमुदी-व्याज।
वितरता फिरता है क्यों मोद
मंद-चल सुरभित सरस समीर;
मोहता है क्यों बज सब ओर
किसी मंजुल पग का मंजीर।
हँस रहे हैं सज्जित धवज लिये
आगमन से किसके आवास;
विपुल विकसित है जनता बनी
किस बिजयिनी का देख विकास।
विजया
कवित्ता
(1)
देश-यश-मंदिर-मनोरम शिखर पर
शाका कर गौरव-पताका-सी फहर जा;
वीरता-विहीन को बना के वंदनीय वीर
कायर को केसरी-किशोर-जैसा कर जा।
‘हरिऔधा’ भारत-धारा को दिव्य ज्योति दे दे
तम-पुंज तिमिर-निमज्जितों का हर जा,
आई विजये, तो तू विजयिनी बना जा क्योंन
विजय-विभूति जाति-भावना में भर जा।
छप्पै
(2)
आती है तो मृतक जनों में जीवन भर दे,
धाीर, बीर, गंभीर गौरवित सब को कर दे।
फैला दे वह दिव्य ज्योति, जिससे तमभागे;
बंद हुए दृग खुलें, सो गयी जनता जागे।
जिसे लाभ कर दुख टले, सुख-प्रसून घर-घरखिले;
विजये, विजय-विभूति वह विजयी भारत कोमिले।
दीप-मालिका-दीप्ति
दीपावली
पंचपद
(1)
वसुधाा हँसी, लसी दिवि दारा,
विलसित शरद सुधाा-निधिा द्वारा।
हुआ विभासित नील गगनतल,
उच्च हिमालय मंजुल अंचल,
काश-प्रसून-समूह समुज्ज्वल,
कमला-कलित सकल पंकज-दल,
चढ़ा पादपावलि पर पारा।
अमल-धावल आभाओं से लस,
बहा दिशाओं में अनुपम रस,
विभा गयी तृण बीरुधा में बस,
हुआ उमंगित मानव-मानस,
चमका जगत-विलोचन-तारा।
मिले विमलता परम मनोरम,
बने नगर, पुर, ग्राम दिव्यतम,
सुधाा-धावल मंदिर सुर-सुर सम,
स्वच्छ सलिल सर-सरित समुत्ताम,
हुआ रजत-निभ रज-कण सारा।
बना काल को कलित कांतिधार,
अमा-निशा को आलोकित कर,
पावस-जनित कालिमाएँ हर,
दमक-दीप-मालाओं में भर,
घर-घर बही ज्योति की धारा।
दीपावली
ताटंक
(2)
तम-पूरित इस अमा-निशा में कौन लोक से आई तू;
आलोकित कर अवनी-तल को कौन सँदेशा लाई तू।
दीपावलि को लिये करों में पहने कुसुमावलि-माला;
किसे खोजती है बन आकुल, पीकर किस रस का प्याला?
विलसित गगन-तारकावलि में जिसकी कला दिखाती है;
क्या तू उसके लिए आरती अति ही ललित सजाती है?
या रंजिनी रमा-रंजन-हित यह आयोजन है सारा;
या जागती ज्योति की तुझमें है जगमगा रही धारा।
या तू है बिधाु-रुचिर-सहचरी, विरहानल में जलती है;
विपुल थलों में विविधा रूप धार जी की जलन निकलती है।
या तू शरद-विदित सितता है, यथासमय दिखलाई है;
राका-निशि की बची असितता को सित करने आई है।
या तू भारत के भवनों के, कोनों को आलोकित कर;
खोज रही है उस वैभव को, जो था विश्व-विमोहित कर।
अथवा खोल अमित नयनों का तू है यह अवलोक रही;
क्या है वह गौरव भारत का, क्या है भारत-भूमि वही।
तू है नगर-नगर पुर-पुर में, ग्राम-ग्राम में घूम रही।
चाहक चाह-भरे लोचन को चाव-सहित है चूम रही।
दीप मालिके! दीपावलि से क्या तू ज्योति जगावेगी;
क्या भव सफल-भूत-भावों से भारत-तिमिर भगावेगी।
दीप-माला
ताटंक
दीपमालिके! दीपावलि ले आती हो, तो आ जाओ;
घूम तिमिर-पूरित भारत में भारतीयता दिखलाओ।
जो आलोकवान बनते हैं, उनमें है आलोक नहीं;
ज्योति-भरे उनके लोचन हैं, जो सकते अवलोक नहीं।
हैं हिन्दू-कुल-कलस कहाते, सूझ बहुत ही है आला;
किंतु विलोक नहीं सकते, वे हिन्दू-अंतर की ज्वाला।
ऊँची ऑंख सदा रखते हैं, ऊँची बातें हैं प्यारी;
पर नीची गरदन हिन्दू की है उनको पुलकितकारी।
है अनुराग देश-रागों से, भारतीयता है भाती;
देख छुरी चलती स्वजनों पर है न कभी छिलती छाती।
देशबंधाुता के प्रेमिक हैं, हैं समता के दीवाने;
किंतु तोड़ते हैं तपाक से जाति-प्रेम के पैमाने।
नाश पुरातनता करती है, धार्म-धााँधाली होती है;
बीज अमानवता का उर में चित-पामरता बोती है।
है प्रवाह बहता प्रपंच का, परम कलंकित काया है;
पेट है कपट-जाल बिछाता, जी में चोर समाया है।
ऐसे तम-अभिभूत जनों को अवलोके अकुलाता हूँ,
दीपमालिके! तारावलि गिन कितनी रात बिताता हूँ।
तुम महती आलोकवती हो, बन अनुकूल तिमिर हर लो;
भारत-भूतल को पहले सा पुलकित, आलोकित कर लो।
दीवाली
चौपदे
चमकते तारे लाई हो,
फूल से सजकर आई हो;
देख लूँ क्यों न ऑंख-भर मैं,
साल-भर पर दिखलाई हो।
ओस के कण किरणों को ले,
गये मोती से हैं तोले;
दिशाएँ उजली हैं हो गयी,
फूल हँसते हैं मुँह खोले।
धाुल गया-सा है सारा थल,
विमल बनकर बहता है जल;
लुभा लेता है कानों को
थिरकती नदियों का कलकल।
बिछी सर में सुथरी चादर
दूधा की धाारों में धाुलकर;
फबन फैली दिखलाती है
पेड़ पर, पत्ताों फूलों पर।
चमकती चाँदी की-सी है,
सब जगह ज्योति जगी-सी है;
ताल की उठती लहरों में
सुपेदी उफनाती-सी है।
समय का यह सुहावनापन
देखने आई हो बन-ठन;
या किसी अलबेले पर तुम
रही हो वार फबीलापन।
दिये लाखों बल जाएँगे,
दमकते नगर दिखाएँगे;
जगमगाएँगे सारे पुर,
गाँव सब ज्योति जगाएँगे।
बड़ी सुंदर, नीली, न्यारी
सँवारी सुथरी जरतारी;
सजाई हीरों से होगी
रात की चमकीली सारी।
उजाला घर-घर पसरेगा
ऍंधोरापन भी निखरेगा;
अमावस पूनो होवेगी,
चाँद धारती पर उतरेगा।
समा दिखलाओगी आला,
भरोगी चावों का प्याला;
दिवाली, क्या न दूर होगा
देश में छाया ऍंधिायाला।
दीपावली के प्रति
पंचपद
कहाँ ऐसी छवि पाती हो;
जगमगाती क्यों आती हो।
हाथ में लाखों दीपक लिये क्यों ललकती दिखलाती हो।
सजी फूलों से रहती हो,
सुन्दरी, सरसा महती हो,
ज्योति-धारा में बहती हो,
न-जाने क्या-क्या कहती हो,
झलक किस की है दृग में बसी, क्यों नहीं पलक लगाती हो।
चौगुने चावोंवाली हो,
किसी मद से मतवाली हो
भाव-कुसुमों की डाली हो,
अति कलित कर की पाली हो,
मधाुरिमा की कमनीय विभूति, मुग्धाता-मंजुल-थाती हो।
तारकावलि-सी लसती हो,
वेलियों-सदृश विलसती हो,
उमंगों भरी विहँसती हो,
मनों नयनों में बसती हो,
मनोहर प्रकृति-अंक में खेल कला-कुसुमालि खिलाती हो।
अमावस का तम हरती हो,
रजनि को रंजित करती हो,
प्रभा घर-घर में भरती हो,
विभा सब ओर वितरती हो,
टले जिससे भारत का तिमिर, क्यों न वह ज्योति जगाती हो।
अनुरोधा
ताटंक
मंद-मंद आ देव-सदन को दिव-मंडल-सा दमका दो;
कनक-कलश को कांतिमान कर चंद्र-बिंब-सा चमका दो।
नभ चुंबी प्रासाद-पंक्ति को प्रभा-पुंज-पूरित कर दो;
सुंदर सुधाा-धावल धाामों में मुग्धाकरी आभा भर दो।
चारु चौरहे आलोकित कर लोक-लोचनों से खेलो;
गली-गली में ज्योति-जाल भर अति कमनीय कीर्ति ले लो।
तिमिरमयी निशि-अंक विलसती मंजुल दीपावलि द्वारा;
तारक-खचित शरद-नभतल का लाभ करो गौरव सारा।
विटपराजि में राजित हो-हो रंजित दल, फल फूल करो;
कलित बना सर सरित-कूल को ललित लहरियों में विहरो।
शीशों में बहु रूप रंग धार विविधा छटाएँ दिखलाओ;
तरह-तरह के ज्योति पुंज से जन-मन रंजन कर जाओ।
सरुचि बखेरो रुचिर रत्न-चय, बनो मंजु मुक्ता-माला;
ललक पिला दो भावुक जन को भाव-सुधाा सुन्दर प्याला।
किन्तु कभी तुम दीपमालिके, भारत-दुख को मत भूलो;
उसके तिमिर-भरे मानस को कांतिमान कर से छू लो।
आकाश-दीप
ताटंक
अवनी-तल पर रहकर भी क्यों नभ-दीपक कहलाते हो,
किन पुनीत भावों से भरकर भावुकता दिखलाते हो।
क्या अनंत महिमामय प्र्रभु-पूजन-निमित्ता तुम बलते हो;
अथवा निज अंतर्ज्वाला से अंतरिक्ष में जलते हो।
सहज भावनामय मानस के शांति-विधाायक साधान हो;
अथवा अंधाीभूत अंक के आलोकित अंतर्धान हो।
किसी भक्ति-परिपूरित जन के भक्ति भाव के संबल हो;
अथवा किसी कौतुकी नर की कौतुक-प्रियता के फल हो।
ताराओं की भाँति चमक कर लोचन को ललचाते हो;
सच कह दो, चुप चाप कौन सा भेद किसे बतलाते हो।
किन पथिकों के नभ-तल-पथ में निशि तम मधय सहारे हो;
खोज रहे हो किसको, किसकी ऑंखों के तुम तारे हो।
दीप मालिका
ताटंक
तुम्हें कभी भारत-भूतल में वह स्वच्छता दिखाती थी;
जिसे देख करके हिमगिरि की हिम-विभूति ललचाती थी।
अब है वह स्वच्छता कहाँ, क्या उसे खोजती फिरती हो;
क्या उसकी दुर्गति देखे ही गौरव-गिरि से गिरती हो।
कभी रमा थी परम मनोरम बन विराजती घर-घर में;
नगर-नगर था विभव-निकेतन, मोद भरा था नर-नर में।
गिरिवर रत्नराजि देते थे धारा उगलती थी सोना;
चकित बनाता था कुबेर को प्रतिगृह का कोना-कोना।
भुवन मोहिनी उन विभूतियों को अब यहाँ न पाती हो;
उसे ढूँढ़ने को ही क्या तुम दीपावलि ले आती हो?
तम-मंजित है जन-जन का मन ऑंख नहीं खुल पाती है;
उँजियाली में भी अंधाों को ऍंधिायाली दिखलाती है।
है प्रकाश की नहीं न्यूनता, तिमिर नहीं टल पाता है,
खड़े हुए बिजली के खंभे, तो भी बढ़ता जाता है।
दीपमालिके आई हो, तो दिव्य-ज्योति धाारण कर लो,
भारत ही का नहीं, भरत सुत-मानस का तामस हर लो।
दीवाली
चौपदे
उजाला फैलाती रहती।
दूर करती है ऍंधिायाली।
कौन है? किसे खोजती है।
चाँदनी है या दीवाली।1।
अमा ने छिपा दिया विधाु को।
डाल करके परदे काले।
सिता ने उसे खोजने को।
क्या बहुत से दीपक बाले।2।
देख शारद नभ में छवि से।
छलकता तारक चय प्याला।
अवनितल को सजाने आई।
क्या दीवाली दीपक माला।3।
विफल कर वैर भाव उसका।
अमा के वैभव में विलसीं।
क्या कलानिधिा विलीन किरणें।
दीपकावलि में हैं विकसीं।4।
कुहू की महा कालिमा में।
खो गया रजनी का प्यारा।
खोजने में प्रदीपचय मिष।
क्या चमकता है दृग तारा।5।
बाल क्या बहु दीपक भारत।
आरती उसकी करता है।
जो कुमुद को चमकाता है।
तेज सूरज में भरता है।6।
लिये लाखों दीपक कर में।
खोजती है क्या भव-जननी
उस विभव को, जिसको, खोये।
हुई तम भरित भरत अवनी।7।
क्या अमित दीपक मिष निकली।
अमा की वह अनर््तज्वाला।
छिप गया जिसके भय से रवि।
विधाु गया वारिधिा में डाला।8।
क्या अमा के उज्ज्वल दीपक।
भाव यह हैं भुव में भरते।
महाजन महातिमिर में धाँस।
उसे हैं विभा वलित करते।9।
क्या बताती है वसुधाा को।
तिमिरमय रजनी उँजियाली।
रमा की कृपा कोर होते।
अमा बनती है दीवाली।10।
दमकती दीवाली
चौपदे
कान्त कमला पग पूजन को।
साथ में कमलावलि लाई।
अमा में समाँ दिखाने को।
जागती ज्योति जगा पाई।1।
स्वच्छता घर-घर में भरकर।
विलसती, हँसती, दिखलाई।
दमन करने को फैला तम।
दमकती दीवाली आई।2।
दिव्य दीवाली
चौपदे
क्यों नहीं लक्ष्मी रूठेगी।
जब कि कौड़ी के तीन बने।
मालपूआ कैसे खाते।
न मिलते हैं मूठी भर चने।1।
बच सकेगी तब पत कैसे।
कान जो जाते हैं कतरे।
न जूआ जो छूटा तो क्यों।
गले पर का जूआ उतरे।2।
जो रही सोरही भाती तो।
किसे त्योहार कभी सहता।
हार पर हार न जो होती।
भाग तो क्यों सोता रहता।3।
पास जिसके न रही कौड़ी।
कब बना वह पैसे वाला।
मनाए तब क्यों दीवाली।
निकलता जबकि है दिवाला।4।
फाग राग
गुलाल की मूठ
चौपदे
( 1)
खेलने होली आई आज,
न जाना होगा ऐसा खेल;
न थी जिससे मिलने की चाह,
हो गया उससे कैसे मेल?
लालिमा ऑंखों की जो बना,
ललक उससे क्यों सकती रूठ;
लाल ने मूठी में कर लिया,
चला करके गुलाल की मूठ।
(2)
लालिमा नभ-तल पर थी लसी,
दिशा का था आरंजित भाल;
अरुण को करता था अनुरक्त,
रंगिनी ऊषा कुंकुम थाल।
रागमय भव लोचन को बना,
पसारे निज अनुरंजन हाथ;
बदन पर मले ललाम अबीर
क्षितिज पर विलसित था दिन नाथ।
सकल तरु के किसलय कमनीय
अरुणिमा से थे मालामाल;
खेलकर होली ऋतुपति साथ
हो गये थे किंशुक-तरु लाल।
कुमकुमे थे बुल्ले बन गये,
धाुल रहा था सरि-सर में रंग,
विलसती थी पिचकारी लिये
ललित लीलामय लोल तरंग।
समा यह पुलकितकर अवलोक
हो रही थी मैं विपुल निहाल;
अचानक लगा गया आ कौन
गाल पर मेरे मंजु गुलाल।
मुग्धाा
पंचपद
कौन था वह था किसका लाल,
क्यों गया मुझ पर जादू डाल?
भाल पर था कुंकुम का तिलक,
कपोलों पर विथुरी थी अलक,
न पड़ती मुख अवलोके पलक,
छगूनी थी तन-छवि की छलक,
गले में विलसित थी वनमाल।
बन रहे थे मृदु, मंद मृदंग,
सुधाामय थी स्वर-ताल-तरंग,
मुग्धा करती थी मधाुर उमंग,
अवनि पर था अवतरित अनंग,
पुलकमय परम कांत था काल।
रंग था बरस रहा सब ओर,
सरसता छूती थी छिति-छोर,
ललकमय थी लोचन की कोर,
चितवनें लेती थीं चित चोर,
हँसी थी मोहक-मधाुर-रसाल।
मल गया मुख में मंजु अबीर,
कर गया पुलकित सकल शरीर,
साथ लाकर रसिकों की भीर,
गा गया सुन्दर सरस कबीर,
डाल नयनों में गया गुलाल।
मधाुर मधाु
आ गया मधाुर मनोहर काल।
बना भव नवल राग से मंजु, हो चला गगन-अवनि तल लाल।
उषा हो ललित लालिमामयी
बहन करती है विमल विकास;
बनाता है बहु पुलकित उसे
बाल-रवि लोहित-विभा-विलास
दिग्वधाू का शोभित हो गया अलौकिक दिव-कुंकुम से भाल।
सकल तरु किसलय-कलित अपार,
लता के दल कोमल कमनीय,
छिति विमोहक छवि के अवलंब,
कुसुम के रूप रंग रमणीय,
लालसाओं के हैं सर्वस्व अरुणिमा के हैं मंजुल माल।
समय-मानस का नव अनुराग
हुआ विलसित धार विविधा स्वरूप,
बन गयी वर बसंत का विभव
छबीली होली छटा अनूप।
तरंगित कर चित सरस प्रवाह, लोचनों को कर प्रचुर निहाल।
उसी से है अनुरंजित रंग
कुमकुमों के तन का अवलेह;
मत्ता लोचन की लाली चारु
चपल ललना-ललकित उर नेह।
वही गोरे गालों पर लगा बन रसिक-कर का रुचिर गुलाल।
गुलाल
उमगती, हँसती, भरित उमंग
खेलने मैं आई थी फाग;
न जाना था अबीर की मूठ
भरेगी रग-रग में अनुराग।
चौगुना कर देवेगी चाव
किसी की चितवन बन चित चोर;
रंग लावेगा कोई रंग
रंग में मेरे तन को बोर।
सुना कर लोक-विमोहन गान,
दिखाकर कुंकुम-रंजित-भाल
कुमकुमे मार-मार कमनीय
विपुल पुलके अलबेले लाल।
समय दिखलाया अति अनुकूल,
मधाु गयी बरस मधाुमयी तान;
कर सकी विपुल उरों को मत्ता
सरस रस-पूरित मृदु मुसुकान।
किंतु क्यों चित ले गयी लपेट
किसी की चंचल लटपट चाल;
क्यों गयी मैं अपने को भूल
भले मुखडे पर मंजु गुलाल।
रँगीली
चाव में भर दिखला अनुराग
चला दी तुमने मूठ गुलाल;
चढ़ गया मेरे चित पर रंग,
युगल लोचन हो गये निहाल।
भर उछलते भावों से भूरि
दिया हाथों से रंग उछाल;
प्रवाहित हुई प्रमोद तरंग,
हुआ सारा अंतस्तल लाल।
साधा कर मंजुल, मोहन मंत्रा
डाल दी तन पर विपुल अबीर;
हो गया रँगे चौगुना चारु
प्रेम का चिर अनुरंजित चीर।
न देखा मृदुल, मनोहर गात,
दिये कमनीय कुमकुमे मार;
फूट उसने दिखलाया रंग,
हुआ सरसित रस-पारावार।
उमग कर गाया मधाुमय राग,
धारा पर बरस सुधाा की धाार;
भर गयी रग-रग में धवनि मंजु,
बज उठे उर-तंत्राी के तार।
अश्रु-विसर्जन
देख कर भाल गुलाल-विहीन
चूर होता होली का चाव;
खिन्न हो मैंने किया सवाल
कहाँ वह गया रँगीला भाव?
चुप रही, सकी नहीं कुछ बोल,
हो गये दोनों लोचन लाल;
चौंक कर लिया कलेजा थाम,
दिया ऑंखों ने ऑंसू डाल।
युगलानंद
मैंने मला गुलाल, उन्होंने मूठ चलाई,
मैं मूठी में हुई, उन्होंने ऑंख बचाई।
मैंने छिड़का रंग, उन्होंने ली पिचकारी,
मैं रस-बस हो गयी, बने वे रसिक विहारी।
मैं अबीर ले बढ़ी, कुमकुमे उनके टूटे;
मैं नव बेली बनी, वे बने विलसित बूटे।
मेरी ताली बजी, उन्होंने गाई होली;
मैं विहँसी मुख मोड़, उन्होंने बोली बोली।
मैंने छेड़ी बीन, उन्होंने वेणु बजाया;
मेरी रंगत रही, उन्होंने रंग दिखाया।
मैं उमंग में भरी, कलेजा उनका उछला,
मेरी भौंहें तनीं, उन्होंने तेवर बदला।
मैंने छीनी पाग, उन्होंने घूँघट टाला;
मैंने टोना किया, उन्होंने जादू डाला।
मैं स्नेह में सनी, बने वे प्रेम-बसेरे;
मैं मोहन की हुई, हुए मन मोहन मेरे।
फाग
किसलिए कलित कुमकुमे मार
उषा को रवि करता है लाल;
मल रही है क्यों ऊषा आज
बाल-रवि-मुख पर मंजु गुलाल।
क्यों अरुण साथ खेलकर रंग
हुआ लोहित दिगंगना-गात;
उड़ाये किस के विपुल अबीर
बना आरंजित नभ अवदात।
फेंक किस मंजुल कर ने रंग
बनाया रंग-बिरंगा ओक;
क्यों मनों को करता है मुग्धा
लालिमा से विलसित हो लोक।
क्यों अधार में भरकर नवराग
अरुणिमा की बहती है धाार;
बहन कर मारुत रक्त पराग
चला किस का करने शृंगार।
खिल रही कलिकाओं को छेड़,
मचाता है क्यों अलि उत्पात;
क्यों कुसुम-कुल ले-लेकर रंग
तितलियों का रंगता है गात।
अंक में ले मंजरियाँ मंजु
केलि-रत हैं क्यों रसिक रसाल;
किसलिए मधाु से हो-हो मत्ता
झूमती है मधाूक की डाल।
ललित लतिकाओें का कर साथ
लाल हो-हो अनार-कचनार
क्यों दृगों को करते हैं लोल
पहन विकसित सुमनों का हार।
किसलिए नव लाली कर लाभ
बने ललकित लोचन के माल;
तरु-नवल-दल-गत सित-जल-बिंदु
बेलि उर विलसित मुक्ता-माल।
क्यों हुआ रंग ढंग है और,
रंग लाया क्यों उकठा काठ;
किसलिए कोई गया उँडेल
पलासों पर मजीठ की माठ।
गिरा है रहा रँगीला कौन
सेमलों पर गुलाल का थाल;
लहरते सरित-सरोवर-मधय
किसलिए बिछीं चादरें लाल।
क्या मिले कुसुमाकर-सा बंधाु
हो गया मूर्तिमंत अनुराग;
या किसी लोक-लाल के साथ
खेलती है भव-ललना फाग।
होली की ठठोली
जब दिवाकर ने निज कर से
उषा के घूँघट को टाला,
रात परदे में जा बैठी,
भगी छिप कर तारक माला।
ढाक कुसुमों का मुँह काला
जिस समय ऋतुपति कर पाए;
खिल उठीं कितनी ही कलियाँ,
कुंद के दाँत निकल आए।
किया चिड़ियों ने कोलाहल,
बेलि भूली अलबेलापन;
जमाने लगी हवा धाौलें,
जब गये पौधो नंगे बन।
बहुत मलयानिल ने छेड़ा
लताओं को, छू-छूकर तन;
चिटिक कलिका ने ली चुटकी,
देख उसका मतवाला पन।
खोलकर मुँह वह हँसता है,
वे मचल-मचल घूमती हैं:
फूल है उन्हें गोद लेता,
तितलियाँ उसे चूमती हैं।
मानस-अनुराग
गगन-मंडल में लाया रंग
हुआ अवनीतल उससे लाल;
विलसता मिला पलास-प्रसून
लोचनों पर जादू-सा डाल।
हुए उससे ललाम तरु-पुंज
ओढ़ किसलय-कुल-कलित दुकूल;
उसी का बहु अनुरंजन भाव
लाभ कर ललित बने सब फूल।
साड़ियाँ पैन्ह-पैन्ह रंगीन
लाल दलवाली लतिका लोल
उसी के सरसे लालन साथ
दिखाती है करती कल्लोल।
फाग-वैभव को कर रस-लीन
अरुणिमा में लेता है ढाल;
छबीले तन-मन पर छवि-साथ
वही देता है रंग उछाल।
किसी मूठी का मंजु अबीर
किसी माथे की बिंदी लाल
हमारे मानस का अनुराग
किसी आनन का बना गुलाल।
फाग-अनुराग
रजो गुण ने दिखलाया रूप
लाभ कर काल परम अनुकूल;
या हुई रंजित होली-हेतु
अवनि मंडल में उड़ती धाूल।
अरुणिमा के विस्तार-निमित्ता
अधार में खुला नवीन विभाग;
या हुआ घनीभूत नभ-मधय
लाल फूलों का ललित पराग।
ललाई का है हुआ विकास
लालसाओं को कर अभिराम;
या हुई जहाँ-तहाँ समवेत
लोक-लोचन लालिमा ललाम।
क्या किरण आज रह गयी लाल,
हो गयीं और रंगतें दूर;
या प्रकृति है भरती निज माँग
रति-सिंघोरा का ले सिंदूर।
बना करके कमनीय दिगंत
अवनि पर बिखरा ऊषा-राग
उड़ रहा है गुलाल सब ओर,
या हुआ मूर्त फाग-अनुराग।
रंग में भंग
दूर कर सके न मन का मैल,
क्या हुआ तो फिर रंग उँडेल;
चलाते हैं गुलाल की मूठ,
पर कहाँ हो पाता है मेल।
आज भी खुल जाते हैं कंठ;
होलियों का होता है गान;
तान वह जो हो भरी उमंग
कहाँ अब सुन पाते हैं कान।
कहाँ है आपस का वह प्यार,
भले ही भंग छान ले संग;
रंग खेले भी रंग रहा न,
इस तरह का बिगड़ा है रंग।
नहीं रस से रखते हैं काम,
बन गये हैं कुछ ऐसे काठ;
गले अब भी मिलते हैं लोग,
पर नहीं खुलती जी की गाँठ।
मिल गये होली सा त्यौहार
आज भी मच जाता है फाग;
रागमय होता जिससे लोक,
कहाँ है अब वह जन-अनुराग।
होली
पद
किस लाली से तू है लाल
कौन मल गया तेरे मुख पर गोरी ललित गुलाल।
बनी कौन मद पी मतवाली।
ऑंखों में छाई क्यों लाली।
कुसुमावलि-माला छवि वाली।
पिन्हा गया क्यों कोई माली।
क्यों गुलाब सा आज हो गया गोरा-गोरा गाल।1।
तरु किसलय लालिमा लुनाई।
किंशुक कुसुम ललाम लर्लाई।
दाड़िम-कलिका कलित निकाई।
देख देख क्या विपुल लुभाई।
या विलोक विकसित वारिज मंजु दल हुई निहाल।2।
लाल-लाल लोनी लतिकाएँ।
नवल बेलि की केलि कलाएँ।
कुंकुम कान्त बदन ललनाएँ।
लीला-लोलुप-जन लीलाएँ।
क्या तेरे अनुरंजन सर की हैं सोतियाँ रसाल।3।
छीन दिग्वधाू की ली लाली।
बनी बाल-रवि-रंजिनि आली।
जगती-तल रक्तिमता ताली।
लोक ललाम भूत से पा ली।
अथवा भरी गिरे अबीर के भरे भराये थाल।4।
है अनुराग राग की थाती।
राग रंग रंगत से राती।
या तुझ पर लोचन ललचाती।
छटा रंगीली है छवि पाती।
या वह बड़ा रँगीला रँगला रंग गया है डाल।5।
हमारी होली
पद
कहाँ गयी होली मुख लाली
छिन क्यों गयी फूल की डाली
छिन्न कर दिया किसने रस सुमनों का सुन्दर हार।1।
है स्वर-लहरी नहीं लुभाती।
है न मुरज-धवनि मुग्धा बनाती।
है मोहकता उमग न पाती।
है न रसिकता रस बरसाती।
टूट गया क्यों सुरुचि-विपंची का अति रुचिकर तार।2।
कुसुमाकर क्याें नहीं सरसता।
सुधाा सुधााकर नहीं बरसता।
चित था जिसके लिए तरसता।
वह समीर क्यों नहीं परसता।
नहीं बनाता मधाुमय मानस क्यों मधाुकर झंकार।3।
है न मुकुल-कुल पुलकित कारी।
है न कलित तम कुसुमित क्यारी।
है न पलाश-लालिमा प्यारी।
है न नवल लतिका छवि न्यारी।
मन्द मन्द क्यों बहा न मलयज ले मरन्द का भार।4।
है गुलाल मय गगन न होता।
ककुभ में न बहता रस-सोता।
चाव-बीज है चित्ता न बोता।
है प्रमोद-मोती न पिरोता।
है कोकिल काकली न करती मोहन-मन्त्रा प्रचार।5।
समय कुसुम में कीट समाया।
पड़ी चित्ता पर कलुषित छाया।
रस में अनरस गया मिलाया।
या सुख-विकच-वदन कुँभिलाया।
अथवा अब असार जीवन में रहा नहीं कुछ सार।6।
होली
षट्पद
चाव में डूबे उमंगों में भरे भावों-ढले।
गान के वर गौरवों की भू बना अपने गले।
कौतुकों की मूर्तियाँ बनकर बितानों के तले।
भूति-न्यारी भावुकों की भाल पर अपने मले।
जो परब त्योहार अपने हैं मनाते हो मगन।
हैं बडे वे भाग वाले हैं धारा वे धान्य जन।1।
हैं उठाते देश-नभ के अंक में आनन्द घन।
वे प्रफुल्लित हैं बनाते जाति जीवन का बदन।
हैं खिलाते वे परस्पर प्यार के सुन्दर सुमन।
हैं दिखाते खोलकर वे सभ्यता संचित रतन।
हैं बड़ी ही बुध्दि से त्योहार बसुधाा में रचित।
चारुता से वे विभव जातीय करते हैं विदित।2।
जब सजा नव पल्लवों के पुंज से विटपावली।
जब रसालों में लगा कर मंजरी सोने ढली।
जब बना छोटी बड़ी सब डालियाँ फूलीं फलीं।
हाथ में जब ले अनूठे रंग की मंजुल कली।
झूमता ऋतुराज आता है सरसता में सना।
रंजिता, आमोदिता, आनंदिता, भू को बना।3।
मत्ता होकर गूँजता है जब निकुंजों में भ्रमर।
है सुनाती कूककर जब कोकिला स्वर्गीय स्वर।
बोल करके बोलियाँ मीठी रसीली मुग्धा कर।
जब विहग-गण है दिशाओं को बनाते मंजु तर।
जब मलय-मारुत बड़ी ही चारुता के साथ चल।
है बहा देता उरों में मत्ताता धारा प्रबल।4।
देख करके खेत को अपने सुअन्नों से भरा।
जब किसानों का हृदय तल है बहुत होता हरा।
की गयी थी जो कमाई कर अवनि को उर्बरा।
जब सुफल उसका उन्हें है मुग्धा हो देती धारा।
झोंपड़ी में राजभवनों तक सुआशाएँ फला।
है विलसती दीखती सम्पन्नता की जब कला।5।
तब उठेगी क्यों नहीं उर में विनोदों की लहर।
क्यों न जावेगी रुधिार में प्राणियों के ओजभर।
रंग लावेंगी उमंगें क्यों नहीं बन चारु तर।
चौगुना हो चाव चित्ताों में करेगा क्यों न घर।
ढंग में ढल कर इन्हीं के पर्व होली का बना।
जो बड़ा ही है अनूठा औ सरसता में सना।6।
जिस दिवस को गात छू प्रहलाद का पावन परम।
होलिका का अंक पावक से हुआ था पुष्प सम।
है यही फागुन सुदी पूनो, दिवस वह मंजु तम।
है इसी से हो गया त्योहार यह अधिाकानुपम।
जिस दिवस को पुण्य-जन की बात वसुधाा में रही।
जाति जीती उस दिवस को मान देगी क्यों नहीं।7।
धाान्य कटने के समय सब देश का है यह चलन।
लोग करते हैं विविधा उत्सव बना उत्फुल्ल मन।
मान देते हैं बरस के आदि दिन को सर्व जन।
है हुआ इस सूत्रा से भी पर्व होली का सृजन।
हैं बड़े उत्साह से उसको मनाते निम्न जन।
है उसे कहते इसी से पर्व उनका विज्ञ-गन।8।
वृध्दि पाती है शिथिलता शीत की जब नित्य प्रति।
पेड़ तक को है बनाता बहु सरस जब बार-पति।
तब इधार है ओजमय होता रुधिार हो क्षिप्र-गति।
व्याधिायाँ उत्पन्न होकर हैं उधार लाती विपति।
है इसी से यह व्यवस्था लोग हो उत्सव निरत।
चित रखें उत्फुल्ल, पैन्हें वर वसन हों मोद-रत।9।
यह बड़ा ही भावमय त्यौहार है जैसा मधाुर।
वैसे ही है देश-व्यापी औ विमोहक लोक-उर।
दीखती इस पर्व में है मत्ताता इतनी प्रचुर।
है उमग पड़ता परम उससे नगर, गृह, ग्राम, पुर।
इन दिनों उठती है उस आनन्द की उर में लहर।
रंजिशें जो हैं बरस दिन की मिटाती अंक भर।10।
आज दिन रोते हुओं को लोग देते हैं हँसा।
मोद देते हैं व्यथामय मानसों में भी लसा।
जिन कुचालों में समाज विमोह-वश है जा फँसा।
हैं विमूढ़ों को जगा देते उन्हें दृग में बसा।
स्वांग लाकर सैकड़ों नाना स्वरूपों को बना।
भावमय गीतादि से जातीय-दोषों को जना।11।
डालकर के रंग रँगते हैं न केवल तन वसन।
हैं डुबा देते परम अनुराग में भी मत्ता मन।
कुमकुमों को मार मंजु गुलाल मीड़ित कर बदन।
हैं सुरंजित सा बनाते भव्य-भावुकता भवन।
जा घराें पर खा खिला आमोद से मिलकर गले।
मुग्धा होते हैं परम पा प्रेम के पादप फले।12।
इन दिनों जैसा गमकता है मुरज, बजता पनव।
वेणु वीणा आदि जैसा हैं सुनाते मंजु रव।
कंठ जैसा है दिखाता ओज, पा माधार्ुय्य नव।
है स्वरों में जिस तरह का सोहता स्वारस्य जव।
सालभर वैसा मनोहर रंग दिखलाता नहीं।
है गगन रस सा बरसता, मोद सरसाती मही।13।
हैं सरव होती रसीले कंठ से सड़कें सकल।
चौहटा चौपाल में है नित्य होता गान कल।
है गली-कूँचों विचरता गायकों का मत्ता दल।
झोंपडे होते धवनित हैं, गूँज उठते हैं महल।
स्वर सरसता है बड़ी सुकुमारता से सब समय।
पेड़ तक की डालियाँ होती हैं मंजुल-नाद-मय।14।
अंग, वंग, कलिंग होते हैं प्रमोदों में निरत।
नाच उठता है सकल पंजाब हो आमोद रत।
यह हमारा युक्त प्रान्त प्रमत्ता होता है महत।
है मनाता मोद राजस्थान हो उन्मत्तावत।
डूब जाती है विनोदों बीच भारत की धारा।
ब्रज उमग पड़ता है, हो जाता है हरियाना हरा।15।
काल पाकर यह रुचिर त्योहार भी कलुषित हुआ।
कसबियों का नाचना, गाना अधिाक प्रचलित हुआ।
गालियाँ बकना बहकना मद्यपान विहित हुआ।
डाल देना कीच, कालिख पोतना, समुचित हुआ।
ओज औ माधार्ुय्य में बीभत्स आ करके मिला।
पाटलों के पुंज-बीच प्रसून विम्बा का खिला।16।
किन्तु इस त्योहार में तो भी दिखाती वह झलक।
उस परस्पर प्यार की जिसमें रहे सच्ची ललक।
नव उमंगों के सहित आमोद उठता था छलक।
सो गयी जातीयता भी खोल देती थी पलक।
भूल करके भेद और विरोधा की बातें अखिल।
एक ही रंग, बीच रँग जाती थी सारी जाति मिल।17।
किन्तु अब इस पर्व का है हो रहा जैसा पतन।
किस विबुधा का देखकर उसको व्यथित होगा न मन।
प्रति बरस है म्लान होता कंज सा इसका बदन।
है बिगड़ती जा रही इसकी बड़ी सुन्दर गठन।
धाूल में है मिल रही इसकी सभी मधाुमानता।
मत्ताता, आमोद, मंजुलता, उमंग, महानता।18।
विश्व में जिस पर्व से जो जाति है गौरव-मई।
है सदा जिसने मिटाई कालिमा जिसकी कई।
है जिसे जिस से मिली बहु जीवनी धारा नई।
र्कीत्तिा जिसके व्याज से जिसकी दिगन्तों में गयी।
आह! भ्रान्त अतीव बन उस जाति के ही वंश-धार।
नाश करते हैं उसे नहिं देख सकते ऑंख-भर।19।
रंग पड़ता देख उनका रंग जाता है बदल।
लाल हो जाते हैं, मूठ गुलाल जो जाती है चल।
कुमकुमों की मार उनको है बना देती विकल।
है उन्हें चंचल बनाता गायकों का मत्ता दल।
मुख रँगों को देख वे मुख तक उठा सकते नहीं।
धाूल उड़ती देख उनकी धाूल उड़ती है वहीं।20।
किन्तु उनकी अवगुणों की ओर ही ऑंखें अड़ीं।
वे नहीं उसके गुणों पर भूल करके भी पड़ीं।
वे कभी बारीकियों में भी नहीं उसकी गड़ीं।
वे नहीं रुचि साथ ऊँची ऑंख से उसकी लड़ीं।
वे सकीं न विलोक उसकी रीतियाँ न्यारी रची।
है बहुत कुछ आज तक जातीयता जिनसे बची।21।
कौन कहता है कुचालें हैं घुसी उसमें नहीं।
मानता हूँ हैं बुरी धाारें कई उसमें बहीं।
किन्तु हैं सच्ची सपूती काम करने में वही।
लोकहित के वास्ते बुधा ने जहाँ ऑंचें सहीं।
मुख बनाना, चुटकियाँ लेना, बहकना है मना।
जो बिगड़ती बात अपनी हम नहीं सकते बना।22।
क्यों कुचालों पर न होंगी धार्म की मुहरें लगी।
क्यों अजानों की सभी बातें न होवेंगी रँगी।
दिन दहाडे ज़ो उन्हीें के सामने होगी ठगी।
ज्ञान की बर ज्योति है जिनके विमल उर में जगी।
क्यों न होती जायगी, तम-पुंज की धारा सबल।
जो दमकती भानु की किरणें न आएँगी निकल।23।
दल अबोधाों का कुचालों में इधार उलझा रहे।
दल सुबोधाों का उधार निज गौरवों ही में बहे।
तो बता दो जाति किससे निज व्यथाओं को कहे।
वह कुअवसर में लपक कर किसके दामन को गहे।
निज परब त्यौहार में जिनकी नहीं ममता रही।
वे मरम जातीयता का जानते कुछ भी नहीं।24।
मण्डली नव शिक्षितों की है नये रँग में ढली।
है पुरानी ढंग वालों के लिए सब ही भली।
वे नये ढँग से खिलाना चाहते हैं कुल कली।
ये उसे तजते नहीं जो बात है अब तक चली।
द्वंद्व में पड़कर इसी अब वह नहीं नाता रहा।
सब परब त्यौहार का वह रंग ही जाता रहा।25।
तीस चालिस साल पहले सामने जो था समा।
जो अनूठापन, परस्पर प्यार था दृग में रमा।
रंग जैसा उन दिनों आमोद का देखा जमा।
जिस तरह से तब उरों में चाव रहता था थमा।
आह! हमको आज दिन वह बात दिखलाती नहीं।
वे उमंगें बादलों सी झूमती आतीं नहीं।26।
उन दिनों थी ज्योंति फैली ज्ञान की इतनी नहीं।
उन दिनों भी सब कुचालें आज दिन की सी रहीं।
किन्तु अपनापन रहा तब आज से बढ़कर कहीं।
इन दिनों सी तब न थी जातीयता भीतें ढहीं।
एक दिल हो उन दिनों जैसे गले लगते नहीं।
लोग वैसे आज दिन यक रंग में रँगते नहीं।27।
किन्तु हमको है बहुत नव शिक्षितों से ही गिला।
प्यार से क्या वे अजानों को नहीं सकते मिला।
क्या मनो मालिन्य की जड़ वे नहीं सकते हिला।
वे पुन: जातीयता को क्या नहीं सकते जिला?
हैं न ये बातें असम्भव जो हृदय में त्याग हो।
जाति का अपने परब त्योहार का अनुराग हो।28।
क्या हुआ लिक्खे पढे ज़ो चित्ता में समता न हो।
निज परब त्यौहार की औ जाति की ममता न हो।
जी परस्पर प्यार में सद्भाव में रमता न हो।
थामने से भी हृदय का वेग जो थमता न हो।
वह बड़प्पन सभ्यता गौरव धारातल में धाँसे।
लोकहित की लालसा रंगत नहीं जिस पर लसे।29।
जो परब त्योहार अपने हम मनावेंगे नहीं।
जो बुरी परिपाटियों को हम मिटावेंगे नहीं।
जो बहकते भाइयों को पथ दिखावेंगे नहीं।
ज्योति जो घिरते तिमिर में हम जगावेंगे नहीं।
तो भला किसको पड़ी है और की जो ले बला।
जाति ही सकती है कर निज जाति का सच्चा भला।30।
आज भी वह बात इनमें है कि जिससे हो भला।
हम सुमति के साथ सकते हैं सुफल जिससे फला।
हम तिनक कर भूल इनका घोंट सकते हैं गला।
पर कहाँ फिर पा सकेंगे देश-व्यापी यह कला।
जाति जो न स्वपर्व उत्सव प्रेम-धारा में बही।
वह रही तो नाम को संसार में जीती रही।31।
ऐ नयी पौधों करो मत जाति हित में आतुरी।
फूँक दो अनुराग निजता-धाुन-भरी वर बाँसुरी।
ऐ पुराने ढंग वालो! छोड़ दो चालें बुरी।
ऑंख खोलो फेर लो अपने गले पर मत छुरी।
प्यार से मिल, गोद में निज उत्सवों को लो लिटा।
जाति जीती कब रही निज कीर्ति चिद्दों को मिटा।32।
होलिका दहन
रोला
आज सुतिथि पूनो है फागुन मास सरस की।
बहु वर्षा सी जहाँ तहाँ होती है रस की।
मन्द मन्द है मलय पवन बहती मदमाती।
मीठी महँक रसाल मंजरी की है आती।1।
वह देखो सामने बड़ी ही भीड़ लगी है।
उसके बीचो बीच जोर से ज्वाल जगी है।
जो लकड़ी की उच्च टाल है धाूधाू जलती।
बडे वेग से सवल आग जिसकी है बलती।2।
उस पर दानव-भगिनि होलिका ऐंठी ग्वैंठी।
गोद लिये प्रहलाद कुसुम सम को है बैठी।
झूठे अभिमानों वरदानों का बल पाकर
वह बचने है चली भक्त का गात जलाकर।3।
एक ओर है भक्ति दूसरी दिशि दानवता।
एक ओर कुप्रवृत्तिा दूसरी दिशि मानवता।
अंक बीच पामरता के है पुण्य दिखाता।
कूट-नीति की गोद न्याय है शोभा पाता।4।
है कुरीति ने सदाचार को गह कर पकड़ा।
गया कुचाल कुपेचों द्वारा गौरव जकड़ा।
किन्तु हो गये पुण्य न्याय आदिक यश भागी।
हुआ होलिका दहन, बचा बालक बड़भागी।5।
साल साल इसका उत्सव है घर घर होता।
पर अब वैसा रुचिर नहीं है रुचि का सोता।
भूल गये हम मर्म्म परब उत्सव को अपने।
देखा करते हैं उलटी चालों के सपने।6।
झूठे अभिमानों औ कल्पित बातों द्वारा।
दिव्य भाव अपना खोते जाते हैं सारा।
दानवता में हम हैं अपनी भक्ति डुबोते।
पड़कर बुरी प्रवृत्तिा बीच मानवता खोते।7।
पामरता औ कूटनीति-झोंकों के आगे।
अहह हमारे पुण्य न्याय फिरते हैं भागे।
सदाचार-मिष कुरीतियों को हैं अपनाते।
हैं कुचाल धारा में गौरव विपुल बहाते।8।
इससे बढ़कर बात कौन दुख की होवेगी।
क्यों न हमारी दशा देख निजता रोवेगी।
गावो, खेलो, हँसो, वाद्य भी विविध बजाओ।
पर गाली बक मत गौरव का गला दबावो।9।
रँगों रंग में उमग अबीर गुलाल लगावो।
किन्तु अधिाक जातीय रंगतों को दिखलावो।
जन्म भूमि रज से रंजित निज भाल बनावो।
पर मेरे प्यारे मत अपनी धाूल उड़ावो।10।
जो न ऑंख खुल सकी तो रहोगे पछताते।
तात धयान दो इधार जाति-ममता के नाते।
चेतावनी
होली
(1)
मान अपना, बचाओ, सम्हल कर पाँव उठावो।
गावो भाव भरे गीतों को, बाजे उमग बजावो।
तानैं ले ले रस बरसावों, पर ताने न सहावो।
भूल अपने को न जावो।1।
बात हँसी की मरजादा से कहकर हँसो हँसावो।
पर अपने को बात बुरी कह ऑंखों से न गिरावो।
हँसी अपनी न करावो।2।
खेलो रंग अबीर उड़ावो लाल गुलाल लगाओ।
पर अति सुरंग लाज चादर को मत बदरंग बनावो।
न अपना रंग गँवावो।3।
जन्म-भूमि की रज को लेकर सिर पर ललक चढ़ावो।
पर अपने ऊँचे भावों को मिट्टी में न मिलावो।
न अपनी धाूल उड़ावो।4।
प्यार-उमंग रंग में भीगो सुन्दर फाग मचावो।
मिल जुल जी की गाठें खोलो हित की गाँठ बँधाावो।
प्रीति की बेलि उगावो।5।
(2)
पिटे न देखो ताली, न बिगड़े मुख की लाली।
करके कितने जतन बड़ों ने जो मरजादा पाली।
देखो पत उसकी नहि उतरे वह न कहावे जाली।
कढे मुखडे से गाली।1।
बची खुची निज मान बड़ाई सँभली जो न सँभाली।
तो ऊँची क्यों ऑंख रहेगी छिन जाएगी ताली।
सुजनता मंदिर वाली।2।
मैला कर जो निज हाथों को कीच किसी पर डाली।
तो न भरम उसका ही खोया अपनी पत भी गँवाली।
कुरुचि की लीक लगा ली।3।
बूटी छान पान कर मदिरा, ऑंख बना मतवाली।
जो तज लाज नहीं कर सकते सुधा-बुधा की रखवाली।
नाक कुल की तो कटा ली।4।
सोच समझ कर जो न जाति की बिगड़ी बात बना ली।
तो कैसे मुख दिखलावेंगे बीत चली ऍंधिायाली।
हुई सब ओर उँजाली।5।
कमनीय कामना
छप्पै
करदे सरस वसंत मलय मारुत आमोदित।
कोकिल पुलकित विपुल मंजरी परम प्रमोदित।
लोचन को सुख निलय कलित किसलय कर लेवे।
विकच कुसुम चय प्रचुर बिकचता चित को देवे।
मानस में रसिक समूह के दे रस अति रमणीय भर।
सरसित विकसित विलसित लताफलित पल्लवित तरु निकर।1।
हो गुलाल से लाल बदन लालिमा बढ़ावें।
खेल खेल कर रंग जाति रँग में रँग जावें।
चला कुमकुमे चलें कुमक ले हित चावों से।
भर अबीर से भरें वीरता के भावों से।
मिल सुमति मानवी से गले कुमति दानवी को दहें।
रज से आरंजित भाल कर देश राग रंजित रहें।2।
कुमकुमे
चौपदे
तब मुँहों में गया लगाया क्यों।
जब न लाली बढ़ी गुलाल लगे।
तो हुआ रंग खेलने से क्या।
जाति हित रंग में अगर न रँगे।1।
जबकि जी का मैल जाता ही नहीं।
तब अबीर गुलाल क्याें मुँह में मले।
रह सका जब दिल मिला दिल से नहीं।
तब गले मिलने किसी से क्या चले।2।
मस्तियाँ जिसकी बहुत ही काम की।
हौसले हैं पस्त के देती बढ़ा।
तो नशे में मस्त क्या होते रहे।
जो नशा अब भी नहीं वैसा चढ़ा।3।
क्यों सुरुचि फूल फल नहीं पाई।
हो कुरुचि फल सदा फलाते क्या।
मुँह जलाया न जो कुचालों का।
तब रहे होलियाँ जलाते क्या।4।
ऑंख में जब समा अबीर गया।
तब फबे वीर वीरता कैसे।
क्यों न गाते फिरें कबीरों को।
बन गये जब कबीर ही ऐसे।5।
रंग के छींटे
दोहा
रख मुँह लाली जो बने नहीं लोक के लाल।
लाल लाल तो क्यों लगे मलमल लाल गुलाल।1।
रंग गँवा बनते रहे जो दिन दिन बदरंग।
रह न सकेगा रंग तो रंग खेल सउमंग।2।
मिली नहीं जो वीरता किये विविधा तदबीर।
तो न सकेंगे वीर बन मुख में मले अबीर।3।
है न काम के, लोग जो बने काम के माल।
मार मार के कुमकुमे रंग वुं+कुम से भाल।4।
गला फाड़ तो और का क्यों हम फोड़े कान।
एक तान से कर सके जो न एकता गान।5।
फैला देवें किसलिए गली गली यह रोग।
क्यों गाली खाते रहें गाली बक बक लोग।6।
क्यों कुरीति प्यारी लगी भली नहीं है भूल।
धाूल उड़ाया क्या, अगर उड़ी हमारी धाूल।7।
खुली गाँठ जी की नहीं लगे गले से आन।
बिना होलिका दहन हो क्यों होली का मान।8।
कुरुचि आज भी है खड़ी पकड़ सुरुचि की ओट।
रुचि कारी कैसे बने पिचकारी की चोट।9।
अंग अंग में जो रहे भरित अनंग उमंग।
तो न तरंगित हो सके तन में भंग तरंग।10।
हमारी होली
चौपदे
रह गया अब कहीं न वह अनुराग।
है दिखाती कहाँ बसन्ती पाग।
हैं उमंगे न झूमती आती।
जी नहीं चाहता कि खेले फाग।1।
देख करके अबीर की थाली।
बन सकी चाहतें न मतवाली।
क्या करेंगे गुलाल मलकर हम।
जब न मुखडे क़ी रह सकी लाली।2।
रंग हित का हँसी ठठोली का।
कर दिया फूट डाह ने फीका।
तब किसी को गले लगाएँ क्यों।
धाुल सका जब न मैल ही जी का।3।
रंग अपना हमें न है प्यारा।
हो गया ढंग भी बहुत न्यारा।
तब फिरें रंग छोड़ते कैसे।
जब बदल रंग ही गया सारा।4।
हो चली ठूँठ बे तरह टूटी।
ऑंख को मूँद कर गयी लूटी।
हम सकेंगे न छान बूटी तब।
पिस गयी जब कि जीवनी बूटी।5।
ऑंख जाती नहीं उमग खोली।
प्यार की नींव हो गयी पोली।
अब न वे रह गये हमारे दिन।
अब न होली रही वही होली।6।
फाग तरंग
स्वागत
होली
ऐ सब सुजन सुजनता सहारे।
हम सादर स्वागत करते हैं वचन उचार मनोहर प्यारे।
जो इस प्रीति निकेत सभा में आप लोग कर प्यार पधाारे।
तो यह हुई सकल गौरवमय सुफल हुए इसके श्रम सारे।
ऐसे ही बहु अवसर आवें ऐसे ही हों सुदिन हमारे।
ऐसे ही इसके नभतल में आप लोग चमके सम तारे।1।
बधााई
होली
उमग उमग देता हूँ बधााई।
यह फागुन रस बरसा जाये यह होली हो अतर सिंचाई।
सुरुचि निकेत बड़ों के कर की यह अति सुन्दर बेलि लगाई।
सब दिन भरी रहे फूलों से मन हर ले उसकी सुघराई।
सींच सींच निज प्यार सलिल से आप उसे दें ललित लुनाई।
उससे सुरभित हो भूतल में कीरति रहे आप की छाई।
राग तान सुउमंग रंग की छवि ऑंखों में रहे सवाई।
लाल गुलाल लगे मुखड़े की दिन दिन होवे अधिाक ललाई।2।
कौन?
अरुण मुख रवि सुषमा अवलोक।
रँगीली ऊषा से ले प्यार।
कान्त कुसुमाकर से कर लाभ।
परम कमनीय कुसुम का हार।1।
मिल गये मंजु समय का अंक।
अति सरस सुन्दर दिवस विलोक।
चल पड़े मादक मलय समीर।
हो गये बहु सुरभित सब ओक।2।
विपुल पुलकित दृग द्वारा देख।
हरिततम तरु नूतन परिधाान।
सुविकसित सुमन पुंज के व्याज।
निरखकर प्रकृति वधाू मुसकान।3।
आम की मंजरियों को चूम।
मोल लेकर मानस उन्माद।
सुन चपल चंचरीक गुंजार।
कान कर कोकिल कुल कलनाद।4।
लोक उर में भर बहु उत्साह।
बहा जन रग रग में रसधाार।
विपुल कंठों को कर मधाु दान।
छेड़ बहु मानस तंत्राी तार।5।
गगन को आरंजित कर भूरि।
अवनि पर रक्तिम चादर डाल।
उड़ाकर बारंबार अबीर।
दिग्वधाू का कपोल कर लाल।6।
पहुँच सेमल पलास के पास।
रंग पूरित पिचकारी मार।
अनारों कचनारों पर रीझ।
फेंक कर के कुमकुमे अपार।7।
रंग में डूबी गाती गीत।
मत्ता हो चलती लटपट चाल।
कौन आती है भरी उमंग।
मंजु मुखड़े पर मले गुलाल।8।
होली
(1)
रंग खेला चाहें खेलें।
पर बुरी रंगत में न ढलें।
सदा जिससे मुँह की खायें।
गाल में वह गुलाल न मलें।1।
प्यार जिससे पल पाता था।
प्रीति की गाँठे थीं जुड़ती।
रंगतें जो रख लेती थी।
नहीं अब वह अबीर उड़ती।2।
चले किसलिए कभी तब वह।
आबरू गयी अगर लूटी।
उड़ाये बिना बुरे छींटे।
कहाँ वह पिचकारी छूटी।3।
नहीं हमको दिखलाती है।
कहीं वीरों की वह टोली।
आन के सुन्दर मुखडे पर।
लगाये जो मंगल रोली।4।
रंगीले लोगों की रग रग।
बीरता रहे जो न बरती।
ललकवालों की झोली में।
रहे तो क्यों अबीर भरती।5।
नहीं वे डफ अब बज पाते।
छूटती जिनसे बद बानें।
जान जो मरतों में डालें।
नहीं सुन पड़तीं वे तानें।6।
उतरती जाती है पगड़ी।
आबरू ऑंचें सहती है।
रंग बिगड़ा ही जाता है।
धाूल उड़ती ही रहती है।7।
देखते हैं ऑंखें मुँदती।
कहाँ हम ने ऑंखें खोली।
न पाये रख मुँह की लाली।
हमारी होली तो हो ली।8।
दिल के फफोले
चौपदे
बढ़ गयी माँग आगयी होली।
हो उमंगें सकी न टस से मस।
हों सराबोर हौसले जिससे।
अब बरसता कहीं नहीं वह रस।1।
उठ लहर रंग रंग की जी में।
अब नहीं बीज चाव के बोती।
अब मचलती नहीं उमंगें हैं।
अब नहीं वह चहल पहल होती।2।
अब न उठते अबीर के बादल।
अब कहाँ वह समाँ दिखाता है।
अब दिशा को गुलाल उड़-उड़कर।
लाल ही लाल कर न पाता है।3।
अब दिखाई कहीं नहीं पड़ती।
मौज में मस्त झूमती टोली।
हैं कहाँ राग-रंग के पुतले।
अब न होली रही वही होली।4।
अब कहाँ गान वह सुनाता है।
कान ने था कभी सुना जैसा।
वह गमक अब न है मृदंगों में।
अब न बजता सितार है वैसा।5।
क्या न अब पास दिल किसी के है।
क्या कहें लोग तब रहें कैसे।
अब न वह रंगतें दिखाती हैं।
अब न होते विनोद हैं वैसे।6।
हौसले रंग ला सके तब क्यों।
जब बनें दिल न रस भरे कलसे।
अब बडे ठाट से नहीं होते।
हर जगह राग रंग के जलसे।7।
हैं पिसी जा रही उमंगें सब।
लुट गयीं राग-रंग की कानेें।
अब कहाँ धाूम है धामारों की।
हो चुके गीत लग चुकीं तानें।8।
ढंग वाली होली
चौपदे
आज है धाूम धामारों की।
मचाते हैं तो क्यों ऊधाम।
उड़ानें धाूल चलें तो क्यों।
किसी की धाूल उड़ाएँ हम।1।
आन की ऑंखें हों नीची।
बात क्यों ऐसी कह पाएँ।
मान सुन जिसे कान मूँदे।
गीत हम क्यों ऐसे गाएँ।2।
बिदअतें जिनसे हो पाएँ।
बुरी होती हैं वे बानें।
लाज जिनसे तन बिन जाए।
लगाएँ क्यों ऐसी तानें।3।
रंग में बुरी रंगतों के।
नहीं कोई कैसे रँगता।
गँवाई जो मुँह की लाली।
न कैसे काजल तो लगता।4।
सुनें सीखें ऑंखें खोलें।
न उँगली कानों में दे लें।
रंग रख करके औरों का।
ढंग से हम होली खेलें।5।
रँगीली होली
अरुण दिखलाया बन अरुणाभ।
हो गया मुख प्रभात का लाल।
बने आरंजित पादप पुंज।
रँग गया दिशा सुन्दरी भाल।1।
गगन मंडल में उड़ा अबीर।
उषा आई पहने पट लाल।
रँगीली होली को अवलोक।
बाल रवि निकला मले गुलाल।2।
लाल तान
चौपदे
गत बनेगी न क्यों बुरी लत से।
पत बचेगी न गालियाँ यों गा।
जब कि मुँह की न रह गयी लाली।
तब लगाये गुलाल क्या होगा।1।
क्यों हया बेतरह मसल जावे।
जाय मरजाद किस लिए खोई।
जब रहा रंग ही बिगड़ता तब।
क्यों चले रंग खेलने कोई।2।
तो भला रंग रह सकेगा क्यों।
जो रहें बिदअतें न बोली में।
पत किसी की उतारने वाली।
हो ठठोली अगर न होली मेंं।3।
गालियाँ खा न गालियाँ क्यों दें।
क्यों बिना छेड़छाड़ कल वे लें।
वीर हैं प्यार वीरता से है।
क्यों न मुँह में अबीर मल वे लें।4।
हो सकेगी न चूक होली में।
जानते लोग हैं कि हैं जैसे।
जो न मुँह में लगाएँगे कालिख।
लाल कुल के कहाएँगे कैसे।5।
गालियाँ हैं बुरी न होली में।
क्या हुआ है हया अगर रोती।
बन सकेगा कपूत क्यों कोई।
है सपूती कपूत में होती।6।
होली
गीत गाती उमग उमग हँसती।
फूल सी बात बात में खिलती।
रंग में राग रंग के डूबी।
मस्त हो झूमती गले मिलती।1।
रीझती नाचती चुहुल करती।
बात रस से भरी हुई कहती।
बेलियों के समान बल खाती।
लहरियों में विलास के बहती।2।
मोहती हाव भाव से इठला।
मन लुभाती मचल मचल चलती।
ऐेंठती रँग रेलियाँ करती।
छेड़ती छवि दिखा दिखा छलती।3।
सिर हिलाती बजा बजा बाजे।
तोड़ती तान पैंतरे देती।
मुँह चिढ़ाती हुई भवें मटका।
मुसकुराती हुई मजे लेती।4।
लाल होती गुलाल मूठों से।
दौड़ भरती अबीर की झोली।
रंग पिचकारियाँ चला रँगती।
आ गयी रंग खेलने होली।5।
होली और देश दशा
चौपदे
भाल पर है होली का बिन्दु।
कपोलों पर है लगा गुलाल।
उड़ रही है अबीर सब ओर।
रंग से गात हुआ है लाल।1।
मद भरी ऑंखें हैं आरक्त।
खेलने आई हो तुम फाग।
चढ़ा है रंगीनी का रंग।
बनी हो मूर्तिमन्त अनुराग।2।
किन्तु अब रहे नहीं वे लोग।
करें जो स्वागत सहित उमंग।
अरंजित बने सुरंजित भाव।
चित्ता के पलटे पलटा रंग।3।
गा रही है जनता बन मत्ता।
आज दिन राग द्वेष का राग।
कलह कोलाहल पूरित देश।
लगा है रहा लाग की आग।4।
गले मिलने से तो क्या लाभ।
दो दिलों में न हुआ जो मेल।
पड़ी जाती है जी में गाँठ।
बने हैं औरों के सिर बेल।5।
भले भावों का हुए अभाव।
किये कृति की अपकृति से पूर्ति।
हो गयी परम अकान्त अदिव्य।
तुम्हारी देवी की सीर् मूत्तिा।6।
रंग का रंग हुआ बदरंग।
नहीं लसते गुलाल के थाल।
इन दिनों मुँह लग गये अबीर।
गँवा लाली होता है लाल।7।
आ गयी हो तो होंगे क्यों न।
आज आरंजित कितने ओक।
किन्तु ऐ होली ऑंखें खोल।
तनिक लो देश दशा अवलोक।8।
रंग भरी होली
चौपदे
उड़ाये वह अबीर जी भर।
जो बने सरस जलद जैसा।
रहे जिस में हित की रंगत।
लगाएँ हम गुलाल ऐसा।1।
सुनाएँ ऐसी तानें जो।
उमंगें भर दें जन तन में।
राग ऐसे गाएँ जिनसे।
देश अनुराग भरे मन में।2।
कुमकुमे गोले बन चल कर।
कुचालें दूर करें सारी।
रंग जिसमें सुधाार का हो।
चले ऐसी ही पिचकारी।3।
कसर जी की निकाल देवें।
न अपना गौरव कर दें कम।
गले मिल करें मेल सच्चा।
फूट का गला घोंट दें हम।4।
गत बना दें जो औरों की।
न मुख से निकले वह गाली।
किसी की पत जिससे उतरी।
न बज पाये ऐसी ताली।5।
दिखा कर मन का मैलापन।
नीच बन कीच क्यों उछालें।
बहुत ही बुरे स्वांग भर भर।
फफोले क्यों दिल में डालें।6।
आप ही अपने हाथों से।
न हम अपना परदा खोलें।
लगें मुँह में जिनसे चाँटे।
बोलियाँ क्यों ऐसी बोलें।7।
रख सके मुखड़े की लाली।
भाल पर लगी हुई रोली।
रंगतें न्यारी दिखलाए।
हमारी रंग भरी होली।8।
मुँह की लाली
चौपदे
तरंगें रंग नहीं लातीं।
उमंगें छिनीं लुटी ललकें।
नयन अवलोक नहीं पाते।
अब छबीली छबि की छलकें।1।
कहाँ वह चहल पहल अब है।
कहाँ वह मस्तानापन है।
कहाँ है धाूमधााम वैसी।
कहाँ वह मौज भरा मन है।2।
नहीं घिरता अबीर का घन।
पड़ा लाला गुलाल का है।
अब कहाँ रँगा हुआ मुखड़ा।
दिखाता किसी लाल का है।3।
कहाँ है गमक मृदंगों में।
तार उतरे सितार के हैं।
फूल सारे कुम्हलाये से।
गले के किसी हार के हैं।4।
बन गयी क्यों इतनी नीरस।
आज रस बरसानेवाली।
आ गयी तो आये होली।
कहाँ है वह मुँह की लाली।5।
रँगा कपोल
( चौपदे)
रँग गये सेमल कुसुम समूह।
बन गये सारे किंशुक लाल।
फूल मिस फूल उठे तरु वृन्द।
भर गया रस से रसिक रसाल।1।
खिले कचनार अपार प्रसून।
हँस पड़े सब गुलाब मुँह खोल।
निकल आये दाड़िम के दाँत।
देख होली का रँगा कपोल।2।
रंग भरी होली
( चौपदे)
उतारें पत क्यों औरों की।
बिगाड़ें क्यों बातें सारी।
घूम जाए क्यों कोई सर।
लगे केसर की पिचकारी।1।
रंग लुचपन का हो जिसमें।
बजाएँ क्यों ऐसी ताली।
क्यों न तो उछलेगी पगड़ी।
कढ़ेगी जो मुँह से गाली।2।
काम कर कान पकड़ने का।
मान क्यों अपना हैं खोते।
लगा किसके मुँह में चन्दन।
किसी मुँह में कालिख पोते।3।
रँगे क्यों काले रंगों में।
बने क्यों सुधा बुधा मतवाली।
लगाएँ वह गुलाल अब हम।
रहे जिससे मुँह की लाली।4।
जाय बन जो कलंक टीका।
भाल पर लगे न वह रोली।
प्यार की रंगत हो जिसमें।
क्यों न खेलें ऐसी होली।5।
भरा हो हित अबीर जिसमें।
हाथ में वह झोली ले लें।
लाज रंगीनी की रख कर।
ढंग से संग रंग खेलें।6।
लगाएँ हम गुलाल पर वह।
माल अनमोल थाल का हो।
चाल वह चलें न हम जिससे।
लाल मुँह किसी लाल का हो।7।
लोग बिगड़ा मुँह देखेंगे।
क्यों न तो बोलेंगे बोली।
गँवा दे क्यों अपनी रंगत।
हमारी रंग भरी होली।8।
अनुराग राग
रोला
रागमयी बन प्रकृति बधाूटी क्यों है लसती।
अनुरंजित हो दिशा सुन्दरी क्यों है हँसती।
हुआ गगन तल लाल लाभ कर किसकी लाली।
क्यों बहु बिलसित हुई उषा लोहित पट वाली।1।
पादप किसलय सकल लालिमा क्यों हैं पाते।
क्यों कचनार अनार ललित तम हैं दिखलाते।
क्यों सेमल के सुमन मनोरंजन करते हैं।
क्यों किंशुक के कुसुम रक्तिमा से भरते हैं।2।
क्यों सुहागिनी बनी बेलियाँ हैं लहराती।
क्यों सेंदुर से भरी पत्तिायाँ हैं छबि पाती।
क्यों ईंगुर है गया कुसुम कुल पर बरसाया।
क्यों चुन्नी का चूर अधार में गया उड़ाया।3।
क्यों गुलाल से लाल हो गया है थल सारा।
क्यों बहती है जहाँ तहाँ रंगों की धारा।
खेल रहा है कौन खेल छबि क्षिति तल छैला।
किसका है अनुराग राग वसुधाा पर फैला।4।
अनुराग रता
चौपदे
मिल गये सुमनों का संभार।
सज गया क्यों पादप का अंग।
ललित क्यों बना लता का गात।
खेल कर कुसुमाकर से रंग।1।
बनाता है क्यों विपुल विमुग्धा।
पास आकर के मलय समीर।
क्यों सुना कोकिल का कलनाद।
तानता है कुसुमायुधातीर।2।
चढ़ा देता है अपना रंग।
कौन सी प्रिय पिचकारी मार।
मधाुकरी को करता है मत्ता।
किसलिए मधाुकर कर गुंजार।3।
लाल हो हो कर बारंबार।
भर गया क्यों अबीर से अंग।
बनाती है क्यों चित को लोल।
लालसाओं से भरी उमंग।4।
ओक को आरंजित कर भूरि।
कुमकुमे चलते हैं सब ओर।
बरस जाती है रस बहु मंजु।
क्यों किसी की ऑंखों की कोर।5।
बढ़ाता है कोई उन्माद।
किसलिए गा उन्मादक राग।
उड़ रहा है गुलाल के साथ।
राग मय किस मन का अनुराग।6।
होली के हथकंडे
चौपदे
है भली बात ही भली होती।
चाल होती नहीं भली लँगड़ी।
गाड़ करके सुधाार का झंडा।
क्यों किसी की उतार लें पगड़ी।1।
गालियाँ हैं अगर बुरी होतीं।
क्यों न तो बदलगामियाँ रोकें।
आप ही काम झाड़ का करके।
देस को भाड़ में न हम झोंकें।2।
सिर बुरे स्वाँग देख हैं धाुनते।
जो सदा हैं सुधाार दम भरते।
वे किसी आनबान वाले को।
क्यों गधो पर सवार हैं करते।3।
सब दिनों क्यों रखे न ऊँची ऑंख।
ऊँच है ऊँच क्यों बने वह नीच।
रंग डाले रहा न जिसका रंग।
किसलिए वह उछालता है कीच।4।
जो न होवें निहाल लाल बने।
जो न तन को अबीर से भर दें।
तो सियाही सियाह दिल से ले।
क्यों किसी का सियाह मुँह करदें।5।
तो गँवा प्यार रंगतें सारी।
क्यों करें लाल चादरें काली।
मूठियों में गुलाल भर भर कर।
जो मुँहों की न रख सकें लाली।6।
आप ही रंग जो बदलते हैं।
रंग कैसे न और का खोते।
जब बने आज लाल पीले हैं।
लाल पीले न किसलिए होते।7।
तो मनाने चलें न होली हम।
जो बनें जान बूझ कर पगले।
क्यों निकाले कसर कसर जीकी।
क्यों जहर दिल भरा हुआ उगले।8।
क्यों कड़ी ऑंख से उन्हें देखें।
वाजबीयत पसंद है जिनको।
हम भले ही जलें भुनें जी में।
क्यों सुनाएँ जली कटी उनको।9।
ठीक बेठीक हम कहें किसको।
अब कहाँ जाति का ठिकाना है।
धाुन निकल है रही अदावत की।
देस के राग का बहाना है।10।
होली के हीले
तो बरस पड़ते न औरों पर रहें।
जो न बरसाएँ किसी पर फूल वे।
धाूल उड़ना है जिन्हें भाता नहीं।
दूसरों की क्यों उड़ाएँ धाूल वे।1।
ऑंख से जिसकी कढ़ीं चिनगारियाँ।
देख करके दूसरों का मुँह रँगा।
बेतरह रंगीन कागश्जश् रँग वही।
किसलिए कालिख मुँहों दें लगा।2।
खेल कर के रंग मिलते क्यों गले।
गाँठ छूटी किस तरह तो जोड़ते।
फोड़ कर ऑंखें मुरौअत की अगर।
लोग हैं दिल के फफोले फोड़ते।3।
चापलूसी से पटी जिसकी नहीं।
है लगी लिपटी नहीं भाती जिसे।
जो किसी की राह का काँटा नहीं।
लोग काँटों में घसीटें क्यों उसे।4।
क्यों उन्हें हम काठ का उल्लू कहें।
है बड़प्पन की नहीं परवा जिन्हें।
क्यों बकोटें और क्यों चोटें करें।
किसलिए नोचें खसोटें हम उन्हें।5।
मान होली की ठठोली को बुरी।
कर हँसी कर दें न अपना मान कम।
पत उतारें किसलिए पत को गँवा।
रंग बदलें रंग खोने को न हम।6।
हैं उमंगों में भरे जो फाग की।
चाहिए तो फूल ही मुँह से झड़ें।
जो गले मिलते नहीं जी खोल कर।
तो न काँटों सा कलेजों में गड़ें।7।
रह गया जो प्यार ऑंखों में नहीं।
तो किसी की ऑंख में भी क्यों गड़ें।
क्यों पछाड़ा जाय कोई बेतरह।
किसलिए पीछे किसी के हम पड़ें।8।
मुँह अगर मीठा बना पाता नहीं।
तो उगलता क्यों जश्हर कोई रहे।
जो सुना पाए न बातें रस भरी।
तो किसी को बात कड़वी क्यों कहे।9।
दूसरों का कान जो हैं खोलते।
कान उनके क्यों नहीं होते खड़े।
जो कि दीये और लोगों के बनें।
आप वे क्यों हैं ऍंधोरे में पडे।10।
होली के स्वाँग
आग हैं बो रहे कहा अगुआ।
हैं बताते बुरा सुधाारों को।
क्यों पिन्हाये न ताज काँटों का।
लोक ऐसे रँगे सियारों को।1।
धााँधाली बाँट में पड़ी जिनके।
क्यों न उनको धाता बताएँ हम।
जो कि बटते हैं धाूल में रस्सी।
धाूल उसकी न क्यों उड़ाएँ हम।2।
क्यों उछालें न कीच हम उस पर।
क्यों न वह जाय फेर में डाला।
काल है जाति के हितों का जो।
क्यों बनाएँ न उसका मुँह काला।3।
जो सदा गाँठते रहें मतलब।
और पर और की बला टालें।
जाति से बैठती नहीं जिनकी।
क्यों गधो पर उन्हें न बैठालें।4।
जो कि है बात बात में बनता।
है लगाता बहुत लगा लकड़ी।
जो छले, है उछल उछल पड़ता।
क्यों न उसकी उछाल दें पगड़ी।5।
है जिन्हें पेट की पड़ी रहती।
क्यों न सब कुछ डकार वे जाएँ।
बात को जो पचा नहीं सकते।
किसलिए वे न गालियाँ खाएँ।6।
जाति की राह में पड़े काँटे।
लोग जो लाग से नहीं चुनते।
क्यों न उन पर लताड़ तो पड़ती।
क्यों न वे लनतरानियाँ सुनते।7।
जो नहीं देश ढंग में ढलते।
जो बने कर ढकोसले ढोंगी।
जो मिला जाति मान मिट्टी मेें।
क्यों न मिट्टी पलीद तो होगी।8।
नोक झोंक
चौपदे
लाल पीले न हूजिए साहब।
क्या हुआ जो मली गयी रोली।
आप का लाल हो गया मुँह तो।
किसलिए खेलने चले होली।1।
रंग ही जब बना न रह पाया।
तब भला रंग डालते क्यों हो।
रख सके जब न लाज पगड़ी की।
पगड़ियाँ तब उछालते क्यों हो।2।
तोड़ कर दिल किसी कलेजे पर।
किसलिए आप मूँग दलते हैं।
रंग का खेलना पसंद नहीं।
रंग तो किसलिए बदलते हैं।3।
क्या भला नाम बेंच कर पाया।
क्यों तमाचे बुरी तरह खाये।
दूसरों की उतार कर पगड़ी।
किसलिए स्वाँग भाँड़ का लाये।4।
चिल्ल-पों में कमाल रखते हैं।
आ गये मौज मानते कब हैं।
आप तो मुँह रहे चलाते ही।
झाड़ते क्यों दुलत्तिायाँ अब हैं।5।
होली की उमंग
अब न इतना गुलाल उड़ता है।
लाल जिस से कि हो सके जल थल।
अब नहीं रंग है बरस पाता।
है न घिरता अबीर का बादल।1।
एक दिन था कि हौसलों से भर।
लोग फूले नहीं समाते थे।
तान ले मोहते तरानों को।
गीत गा रीझ को रिझाते थे।2।
अब न जानें कहाँ गया वह दिन।
याद उसकी बहुत सताती है।
अब कभी वह समा नहीं बँधाता।
रुचि थिरती नहीं दिखाती है।3।
थी लुभाती बहुत लहर जिसकी।
है न बहती विनोद धारा वह।
था भरा धाूम धााम रव जिसमें।
अब घहरता नहीं नगारा वह।4।
चित्ता को तर बतर नहीं करता।
रंग ला रंग राग का सोता।
मेंह जैसे बरस रहे रस में।
मन सराबोर अब नहीं होता।5।
उस तरह से चमक नहीं उठते।
दिल सुने चोज की चुनी बातें।
अब नहीं चोचले दिखा पातीं।
चौगुने चाव से भरी रातें।6।
अब कहाँ है चहल पहल वैसी।
झूमती चाहतें नहीं आतीं।
खोल कर मुँह हँसी नहीं हँसती।
आज चुहलें नहीं चहक पातीं।7।
ठेस कैसे लगे नहीं जी को।
अब ठसक रह गयी ठठोली की।
रंग पर रंग जो जमा पाती।
है कहाँ वह उमंग होली की।8।
चेतावनी
चौपदे
चौगुना हो प्रफुल्ल होली में।
पर बने मन कभी न मतवाला।
लालिमा रख सकें न जो उसकी।
तो बना दें न जाति मुँह काला।1।
खोल दिल जो गले न मिल पावें।
तो मिला दें न मान मिट्टी में।
खुल सके गाँठ जो नहीं जी की।
तो पड़े गाँठ क्यों किसी जी में।2।
हो भले किसलिए करें भूलें।
हो न सिर पर सवार नादानी।
लोग पानी गँवा गँवा अपना।
क्यों किसी का उतार लें पानी।3।
हैं बड़े बाप के अगर बेटे।
सभ्यता का गला न तो कतरें।
है बड़ा ही कमीनपन लिखना।
गालियों से भरी हुई सतरें।4।
हो कपूती सवार क्यों सिर पर।
काम करते रहें सपूतों का।
भूल त्योहार के गले में हम।
डाल देवें न हार जूतों का।5।
कौन होगा अधिाक अधाम उससे।
ऐंठ वह है विदग्धा रस्सी की।
सर उठाकर पुनीत अवसर पर।
जो कसर है निकालता जी की।6।
रंग बिगड़े न रंग के खेले।
पी न लेवें प्रमाद का प्याला।
गौरवित को लताड़ गाली लिख।
लेखनी का करें न मुँह काला।7।
हैं अधाम से अधाम पतिततम हैं।
हैं कुटिल मति कपट विटप थाले।
आड़ में बैठ पूत पर्बों की।
पेट का मल निकालने वाले।8।
लाल हैं क्यों न खेल लें होली।
लोक मुँह की बचा बचा लाली।
चुटकियाँ चाल ढाल की ले ले।
दे बड़ों को गढ़ी हुई गाली।9।
खोल कर दिल गले मिलें कैसे।
पगड़ियाँ क्यों नहीं उछालेंगे।
है कसर जब कसर निकलने में।
क्यों नहीं तब कसर निकालेंगे।10।
हो सकेगी न धाूम की होली।
भंग गाढ़ी न जाय जो छानी।
बीज बो दें उपाधिा का न अगर।
दे बड़ों को उपाधिा मनमानी।11।
है बड़ा पूत पर्व होली का।
क्यों उसे हम बुरा बनाते हैं।
जाति पर धाूल फेंकते हैं, क्यों-
धार्म को धाूल में मिलाते हैं।12।
दिल मिलाए मिला न दिल से तो।
कर सका मेल कौन किससे कब।
जब न अनुराग रंग चढ़ पाया।
क्या हुआ रंग खेलने से तब।13।
हो सकेगा न कुछ गुलाल मले।
सुख घड़ी क्यों बने घड़ी दुख की।
कालिमा है भरी हुई उर में।
तो रहेगी न लालिमा मुख की।14।
रंग लायें गुलाल की मूँठें।
मोह लेवे मिठास बोली की।
पटु रहे रीझने रिझाने में।
कटु ठठोली बने न होली की।15।
कवित्ता
वैसी अब केलि की न कलित कलाएँ रहीं
सूखी रस बेलियाँ सरस आल बाल की।
लै लै पिचकारियाँ नचति जनता है कहाँ
लूट है न मचति अबीर वारे थाल की।
हरिऔधा राग रंग हूँ को रंग भंग भयो
रही ना रसालता रसीले स्वर ताल की।
वैसो अब अवनि गगन बाल लाल गाल
करति न लाल लाल गरद गुलाल की।1।
तालियाँ बजाएँगे कुलीनन के पीछे कौं लौं
कुल ललना को कौ लौं गालियाँ सुनाएँगे।
बुरे स्वाँग रचि कौ लौं उर में हनेंगे साँग
राग रंग मिस कौ लौं रंगत गँवाएँगे।
हरिऔधा लालिमा हरेंगे कौ लौं आनन की
कौ लौं कलावानन को कालिमा लगाएँगे।
गाएँगे कबीर कौ लौं गरो दाबि गौरव को।
कौ लौं मंजु मुख काँहिं रौरव बनाएँगे।2।
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