3000 सालों तक सिर्फ पेड़ की सूखी पत्तियां खाकर की घोर तपस्या माँ ब्रह्मचारिणी ने
श्री दुर्गा के परम तेजस्वी ब्रह्मचारिणी रूप के पूजन का है नवरात्रि का दूसरा दिन !
अपनी सारी इच्छाओं का दमन करके अत्यंत कठिन तप करने की वजह से माँ पार्वती का नाम ब्रह्मचारिणी भी पड़ा !
माँ ब्रह्मचारिणी भगवान शिव को पाने के लिए 1000 सालों तक सिर्फ फल खाकर रहीं और 3000 सालों तक सिर्फ पेड़ों से गिरी पत्तियां खाकर तपस्या करती रही ।
मां ब्रह्मचारिणी का पूजन करने वाले भक्तों के मन से छल कपट ईष्या द्वेष निकल जाता है।
‘ब्रह्मचारिणी’ का अर्थ है अत्यंत कठिन ब्रह्मचर्य व्रत का शुद्धता से आचरण करने वाली !
इनका स्वरूप श्वेत वस्त्र पहने दाएं हाथ में अष्टदल की माला और बाएं हाथ में कमंडल लिए हुए सुशोभित है।
इन्ही देवी ने देवराज हिमालय के घर पुत्री रूप में जन्म लिया था और नारदजी के उपदेश से भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की थी। इस कठिन तपस्या के कारण इन्हें तपश्चारिणी अर्थात् ब्रह्मचारिणी नाम से सम्बोधित किया गया।
खुले आकाश के नीचे वर्षा और धूप के घोर कष्ट सहे। तीन हजार वर्षों तक सूखे हुए बिल्व पत्र खाए और भगवान शंकर की आराधना करती रहीं। इसके बाद तो उन्होंने सूखे बिल्व पत्र खाना भी छोड़ दिए।
कई हजार वर्षों तक निर्जल और निराहार रह कर तपस्या करती रहीं।
पत्तों को खाना छोड़ देने के कारण ही इनका नाम अपर्णा नाम पड़ गया।
कठिन तपस्या के कारण देवी का शरीर एकदम क्षीण हो गया।
देवता, ऋषि, सिद्धगण, मुनि सभी ने ब्रह्मचारिणी की तपस्या को अभूतपूर्व पुण्य कृत्य बताया, सराहना की और कहा- हे देवी आज तक किसी ने इस तरह की कठोर तपस्या नहीं की। यह तुम्हीं से ही संभव थी। तुम्हारी मनोकामना परिपूर्ण होगी और भगवान चंद्रमौलि शिवजी तुम्हें पति रूप में प्राप्त होंगे। अब तपस्या छोड़कर घर लौट जाओ। जल्द ही तुम्हारे पिता तुम्हें बुलाने आ रहे हैं।
दुर्गा पूजा के दूसरे दिन देवी के इसी स्वरूप की उपासना की जाती है। इस देवी की कथा का सार यह है कि जीवन के कठिन संघर्षों में भी मन विचलित नहीं होना चाहिए।
माँ ब्रह्मचारिणी की कृपा से मनुष्य को सर्वत्र सिद्धि और विजय की प्राप्ति होती है, तथा जीवन की अनेक समस्याओं का नाश होता है !
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