नारदजी की तरह हम सभी जो यह दुनिया देख रहें वह असली नहीं, मात्र एक सपना है
शास्त्रों में दिए गए इस महा वाक्य का क्या मतलब है;- “ब्रह्म (ईश्वर) सत्य, जगत मिथ्या” ?
यह मात्र कोई उपदेश नहीं है, यह एक 100 प्रतिशत शुद्ध सच है जिसे कोई आदमी सिर्फ तभी महसूस कर पाता है जब या तो उसकी खुद की मेहनत (हठ योग, राज योग, कर्म योग, भक्ति योग आदि) से या गुरु/दैवीय कृपा से उसकी आँखों पर से माया का चश्मा उतर जाता है !
आज की जेनेरेशन को अगर आसान भाषा में समझाया जाए तो इस संसार का थोड़ा बहुत हिसाब किताब उसी तरह है जैसा एक हॉलीवुड की प्रसिद्ध मूवी “अवतार” में दिखाया गया था !
अर्थात सभी जीवात्माएं एक हैलूसिनेशन (भ्रम, कल्पना, स्वप्न) में ही जी रहीं हैं ठीक उसी तरह जैसे एक वर्चुअल रियलिटी का गेम खेलने वाला लड़का, उस नकली संसार में असली सुख, दुःख, उत्साह, तनाव आदि भावनाएं महसूस करता है !
और जब वो लड़का उस गेम को खेलना बन्द कर आँखों से स्पेशल चश्मा और इलेक्ट्रॉनिक सेन्सर्स आदि हटा देता है तो अब उसे यह प्रत्यक्ष दिखने वाला संसार ही असली लगने लगता है पर वो लड़का अभी भी गलत समझ रहा है और मजे की बात है कि सिर्फ वो लड़का ही नहीं बल्कि हम सभी भी इस प्रत्यक्ष दिखने वाले संसार को असली समझने की गलती करते हैं क्योंकि साधारण आँखों से दिखने वाला यह संसार भी असली नहीं है |
क्योंकि साधारण इन्सानी आँखों के ऊपर तो हमेशा एक स्पेशल चश्मा लगा हुआ रहता है और यह अपनी इच्छा पर भी नहीं होता है कि जब मन किया तब इस चश्मे को उतार दिया | यह चश्मा किसी भी जीव के जन्म लेते ही उसकी आँखों पर और सोच पर भी इतना ज्यादा मजबूती से फिट हो जाता है कि उसे निकालने के लिए बेहद कड़ी मेहनत करनी पड़ती है | अगर मेहनत नहीं की तो यह चश्मा अगले जन्म में भी पैदा होते ही लग जाता है |
इसी चश्मे का नाम है – “माया” !
यह माया का चश्मा उतारकर असली संसार का दर्शन तभी होता है जब किसी मानव की कुण्डलिनी शक्ति फुफकार कर जाग उठती है इसलिए हमारे वेरी साइंटिफिक धर्म ग्रंथों में कहा गया है कि कुण्डलिनी जागने पर ही कोई इन्सान वास्तव में जागता है और उससे पहले तक तो हर मानव केवल सोता ही रहता है !
कुण्डलिनी जगा पाने की सुविधा बड़े से बड़े देवताओं तक को भी उपलब्ध नहीं है क्योंकि यह सुविधा सिर्फ और सिर्फ मानव शरीर में ही उपलब्ध है इसलिए मानव शरीर को सबसे ज्यादा कीमती कहा गया है और इसीलिए भी सृष्टि के प्रारम्भ में इस मानव शरीर का आविष्कार करने के लिए स्वयं ब्रह्मा जी को कई हजार साल तक अनुसन्धान करना पड़ा था !
यह वास्तव में बहुत दुखद है कि इस दुर्लभ मानव शरीर की अधिकाँश नादान लोग असली कीमत नहीं समझ पाते और पूरी जिंदगी सिर्फ साधारण सांसारिक भोगों के पीछे भागते भागते ही इसका अन्त कर डालते हैं !
आज के समाज में कुण्डलिनी शक्ति जागरण का नाम सुनते ही कई लोगों का उत्साह ठंडा पड़ने लगता है यह सोचकर कि अरे ये सब कठिन साधनाएँ तो हम लोगों के बस की बात है ही नहीं पर ये सोच एकदम गलत है वास्तव में यह साधना हर आम आदमी और औरत के बिल्कुल बस की बात है क्योंकि इस कलियुग में जन्म लेने वाले मानवों को जहाँ एकतरफ पूरे जीवन कई तरह की नारकीय समस्याओं का सामना करना पड़ता है, वहीँ दूसरी तरफ इस कलियुग में भगवान् की ओर से मानवों को कई विशेष सुविधायें भी हासिल है, जिसमें से एक है कि, अलग से बिना किसी विशेष मेहनत को किये हुए कुण्डलिनी जागरण की प्रक्रिया की शुरुवात कोई भी आम इन्सान निश्चित ही कर सकता है !
“स्वयं बनें गोपाल” समूह पर्सनली कुछ ऐसे महान व्यक्तित्वों को जानता है जिन्होंने अपने कर्म क्षेत्र को बेहद ईमानदारी से लम्बे समय तक निभाया है, जिसकी वजह से वे कुण्डलिनी साधना में बेहद आश्चर्यजनक तेजी से आगे बढ़ते जा रहें हैं !
इसमें सबसे मुख्य बात यह है कि यह कर्मक्षेत्र कुछ भी हो सकता है, जैसे – कोई नौकरीपेशा कर्मचारी या व्यापारी बेहद ईमानदारी से अपनी नौकरी या व्यापार कर रहा हो और साथ ही अपने विनम्र स्वभाव से, सिर्फ अपने परिवार की ही नहीं बल्कि हर परिचित अपरिचित व्यक्तियों की यथासंभव उचित सहायता भी कर रहा हो, तो यह निश्चित है कि उचित समय आने पर उस कर्मयोगी की कुण्डलिनी जागेगी, ठीक इसी तरह किसी गृहिणी ने बिना किसी दबाव के, अपनी इच्छा से आजीवन अपनी सभी जिम्मेदारियों को बेहद ईमानदारी से निभाया हो तो निश्चित है कि उचित समय आने पर उसकी कुण्डलिनी जागने की प्रक्रिया शुरू होगी !
कुण्डलिनी जागने में तो इतना कम समय लगता है कि उसकी गणना भी नहीं की जा सकती लेकिन उसके जागने के पहले की प्रक्रिया (जैसे चक्रों का जागना आदि) काफी लम्बी होती है जिसमे कुछ वर्ष से लेकर कई वर्ष तक लग सकते हैं और ऐसा भी हो सकता है कि यदि व्यक्ति थोड़ी भी शिथिलता बरते तो यह प्रक्रिया पूरी होने में एक जन्म और लग सकता है !
यह प्रक्रिया शुरू होने के कुछ विशेष लक्षण होते हैं जैसे – रीढ़ की हड्डी के आस पास अक्सर कुछ रेंगने जैसा महसूस होना, स्वप्न में अक्सर देवी देवताओं के विभिन्न रूपों के दर्शन होना, सांसारिक सुखों के प्रति एकदम उदासीनता पैदा होते जाना, भविष्य में होने वाली घटनाओं का अक्सर अपने आप पूर्वानुमान हो जाना, स्वभाव धीरे धीरे अति पवित्र और मृदुल होते जाना आदि आदि !
प्राणायाम इतनी ज्यादा शक्तिशाली प्रक्रिया है कि दुनिया का बड़े से बड़ा पापी आदमी भी रोज इसे आधा घंटा से एक घंटा (कपालभाति, अनुलोमविलोम आदि) तक करे तो एक ना एक दिन उसका पापी स्वाभाव निश्चित बदलेगा और साथ ही साथ एक ना एक दिन उसकी भी कुण्डलिनी की प्रक्रिया शुरू होकर ही रहेगी क्योंकि ईश्वर के नाम स्मरण की ही तरह व् सेवा धर्म की ही तरह, प्राणायाम भी शरीर के पापों का तेजी से नाश करता है !
निष्कर्ष यही है कि, कभी भी, किसी भी समान्य व्यक्ति को यह समझकर हीन भावना में नहीं आना चाहिए कि कुण्डलिनी साधना उसके जैसे आम आदमी के लिए नहीं बल्कि सिर्फ विशेष किस्म के योगियों के लिए ही बनी है !
हर कोई आदमी, चाहे वह विद्यार्थी हो या कर्मचारी, सैनिक हो या राजनेता, गृहिणी हो या साधू, यदि अपने कर्तव्यों को वाकई में एकदम ईमानदारी से निभा रहा है तो वह निश्चित अप्रत्यक्ष रूप से अपनी कुण्डलिनी साधना को ही आगे बढ़ा रहा है, इसी को बोलते हैं कर्म योग, जो कि किसी भी मामले में भक्ति योग, हठ योग या राज योग से कम नहीं है !
ईश्वर की माया कैसे किसी व्यक्ति को नकली व काल्पनिक संसार में ही उलझा कर भ्रम में डाले रहती है इसके कई सत्य उदाहरण दिये गएँ हैं हमारे अनन्त वर्ष पुराने परम आदरणीय सनातन हिन्दू धर्म में, जिसमें से एक निम्नवत है –
एक बार देवर्षि नारद जी ने भगवान नारायण से कहा कि,-
प्रभु आपकी माया की प्रचंड ताकत की प्रशंसा तो मैंने भी खूब सुन रखी है लेकिन उसे कभी प्रत्यक्ष देखने का सौभाग्य आज तक मुझे नहीं मिल सका इसलिए अगर सम्भव हो तो कृपया उसे एक बार मुझे भी दिखाएँ !
यह सुनकर भगवान विष्णु मुस्कुराये और उन्होंने कहा कि ठीक है, उचित अवसर आने पर आपकी मनोकामना पूर्ण होगी !
इस घटना के काफी दिनों बाद भगवान विष्णु, नारद जी को लेकर, मानव रूप में पृथ्वी पर वन विहार के लिए चल दिये।
काफी दूर चलते चलते भगवान् ने थक जाने की लीला की और एक चट्टान पर बैठ गये !
फिर उन्होंने नारद जी से बोला कि मुझे प्यास लग रही है, कृपया कहीं से पानी लेते आईये !
नारद जी पानी लाने के लिए कमण्डलु लेकर चल दिये !
पानी समीप में कहीं नहीं मिला तो उन्हें बहुत दूर स्थित एक नदी तक जाना पड़ा !
नारद जी कमण्डलु में पानी भर ही रहे थे कि उन्हें नदी तट से थोड़ी दूरी पर एक बहुत ही सुन्दर स्त्री बैठी हुई दिखाई दी !
काम, मोह, आसक्ति आदि दुर्गुणों से सदा एकदम ही दूर रहने वाले, अति पवित्र व अति चरित्रवान नारद जी को अचानक से पता नहीं क्या अन्तः प्रेरणा हुई कि वे उस स्त्री के पास पहुँच गए !
उस स्त्री के साथ वार्तालाप करने के दौरान दोनों में एक दूसरे के लिए अगाध प्रेम उपज गया जिसके परिणाम स्वरुप दोनों वहीँ तुरंत प्रणय सूत्र में भी बँध गएँ तथा सब दीन दुनिया भुला कर दोनों वहीं गृहस्थी बसा कर रहने भी लगे !
देखते ही देखते हंसी ख़ुशी के कई साल बीत गये और वह स्त्री, नारद जी के दो सुन्दर पुत्रों की माता भी बन गई !
अचानक उस क्षेत्र में एक अंजान खतरनाक महामारी तेजी से फैलने लगी जिससे गाँव के गाँव उजाड़ होने लगे !
नारद जी और उनकी पत्नी ने भी निश्चय किया कि अब इस क्षेत्र में जीवन को संकट पैदा हो चुका है अतः बुद्धिमानी इसी में हैं कि हम लोगों को भी किसी दूसरी जगह रहने के लिए चले जाना चाहिए !
अंततः उस प्रिय स्थान को छोड़कर, बुझे मन से नारद जी यात्रा के लिए सभी आवश्यक सामानों को साथ लेकर परिवार सहित किसी दूसरे सुरक्षित नगर में बसने के लिए निकल पड़े !
रास्ते में एक उफनती हुई बड़ी नदी मिली ! नदी पर लकड़ी का बना हुआ एक पुराना पुल था !
वे लोग जब पुल पार करने लगे तो पुल अचानक से धडधडा कर टूट गया जिससे नारद जी, उनकी पत्नी व उनके छोटे बच्चे उस भयंकर नदी में गिर कर तेजी से बहने लगे !
चारों ओर चीख पुकार मच गयी लेकिन वहां कोई और मौजूद नहीं था जो उन लोगों की मदद कर सके !
पूरा परिवार भयंकर कारुणिक चीत्कार करते हुए नदी की अथाह जल राशि में समां गया सिवाय नारद जी के क्योंकि उनकी बलिष्ठ शरीर की वजह से वो किसी तरह हाथ पैर मारकर नदी के किनारे तक पहुँच पाने में कामयाब हो सके !
नारद जी नदी के तट पर बैठकर, अपने स्त्री बच्चों के मृत्यु मुख में चले जाने के कारण, बिन पानी की मछली की तरह बिलख बिलख कर रो रहे थे !
उनका हृदय दुःख की चरम सीमा से फटा जा रहा था और उनकी स्थिति पागलों वाली हो रही थी !
तभी उन्हें लगा कि जैसे कोई उनके कंधे को बार बार झकझोर रहा हो जिससे नारद जी को महसूस हुआ कि वो किसी गहरी नींद से अचानक जागकर उठ गएँ हों !
उन्होंने आश्चर्य से पीछे मुड़कर देखा तो स्वयं नारायण खडें थें और उनकी ओर आश्चर्य से देखकर पूछ रहे थे कि, क्या हुआ नारद जी ? आप तो मेरे लिए पानी लेने के लिए गए हुए थे लेकिन आप तो बहुत देर तक लौटे ही नहीं और जब मैं आपको खोजते खोजते यहाँ तक आया तो देख रहां हूँ कि आप तो ऐसा रो रहें हैं मानो आपका सब कुछ ही लुट चुका हो !
श्री नारायण की बात सुनकर नारद जी अचानक से रोना छोड़कर, बेहद आश्चर्य में पड़ गए कि आखिर यह सब हो क्या रहा है !
नारद जी को यह बात गले उतारने में बहुत दिक्कत हो रही थी कि श्री नारायण के लिए पानी लेने के लिए नदी पहुचने के बाद से अब तक का पूरा घटनाक्रम, सच्चाई नहीं, मात्र एक सपना था क्योंकि नारदजी ने इस पूरे घटनाक्रम का एक एक पल एकदम होशो हवास और संजीदगी से जीया था तो आखिर यह सपना कैसे हो गया !
तब भगवान विष्णु ने मुस्कुरा कर कहा कि आश्चर्य ना करें देवर्षि क्योंकि यही है मेरी माया, जिसे काफी पहले आपने ही प्रत्यक्ष रूप में देखने की स्वयं मुझसे इच्छा व्यक्त की थी !
यह सब सुनकर नारद जी साष्टांग दंडवत प्रणाम की मुद्रा में श्री हरि के चरणों में लेट गए और अश्रुपूरित कंठों से बोले – सत्य है प्रभु, आपकी महा शक्तिशाली माया ने ही हम जैसी असंख्य आत्माओं को ना जाने कितने युगों से अलग अलग ऐसी झूठी सांसारिक गतिवधियों में उलझा कर रखा हुआ है, जिनका एक सपने के समान कोई वास्तविक अस्तित्व है ही नहीं !
सत्य है प्रभु, जब आप किसी जीवात्मा के अच्छे व परोपकारी स्वभाव पर प्रसन्न होकर उस पर से अपनी माया का अपारदर्शी पर्दा हटा लेते हैं तब ही उसे समझ में आ सकता है कि यह संसार जो उसे दिख रहा है, वह तो कभी था ही नहीं, क्योंकि शुरू में भी सिर्फ आप थे, मध्य में भी आप थे और अन्त में भी सिर्फ और सिर्फ आप ही हैं !
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